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मैं इन वृत्तियों की क्षुद्रता एवं कलुषितता को भलीभांति समझ गया हूँ। मुझे इस सत्य का भी ज्ञान हो गया है कि इन वृत्तियों से मिला मेरा आनन्द क्षणिक क्यों हैं ? और क्यों नहीं मैं अब तक तत्त्वदृष्टाओं द्वारा वर्णित शाश्वत आनन्द को उपलब्ध कर पाया ? किन्तु अब मेरी आत्म-ज्योति प्रज्वलित हो गई है तथा मेरी आन्तरिक शक्तियाँ क्रियाशील बन गई हैं, अतः मैं फिर से उन दूषित एवं विकृत वृत्तियों के दुष्चक्र में नहीं फसूंगा।
साधक तब यह अनुभव करेगा कि इस ज्योति और जागरण की उसको जो उपलब्धि हुई है, वह मात्र समीक्षण ध्यान का ही सुफल है और वह अपनी चिन्तन धारा को आगे बढ़ायेगा—समीक्षण ध्यान के द्वारा ही मैं अपनी आत्म-शक्ति को देख और परख सका हूँ और उसके गहरे तल तक मैं पहुंच पाया हूँ। समता की दृष्टि से जब मैंने अपने आत्म-स्वरूप को निहारा तो मुझे आश्चर्यमिश्रित दुःख हुआ। आश्चर्य तो इस बात का कि मैं कितनी असीम शक्तियों का धनी हूँ और दुःख इस बात का कि फिर भी मैं कितना अशक्त बना हुआ अपने निजत्त्व को भी पहिचान नहीं पा रहा था। मेरी मूल सत्ता केवल आनन्दरूप है, फिर भी मैं आनन्द की खोज बाहर ही बाहर करता रहा। शाश्वत आनन्द का असीम कोष मेरे भीतर ही विद्यमान होने के बावजूद मैं इन्द्रियों के मलिन विषयों में डूब गया था। शक्ति और श्री का स्वामी होने के बाद भी मैं अपने भ्रम के कारण राह भटकता भिखारी बन गया। मेरा यह भ्रम ही आज मेरे लिये आश्चर्य और दुःख दोनों का विषय बना हुआ है। विनश्वर पदार्थों के लिये मैंने अपनी सम्पूर्ण जीवन शक्ति समर्पित कर दी और अपने भव्य स्वरूप को भूल गया इससे बढ़कर और क्या दुःख हो सकता है ?
साधक का दृष्टा पक्ष तब अपने ही आत्मस्वरूप पर फैल रहे अंधकार को देखेगा, मैल की परतों को पहिचानेगा और अपनी विभाव दशा का निरीक्षण करेगा। ज्यों-ज्यों उसका निरीक्षण गहरा होता जायेगा, त्यों-त्यों एक बार तो अपनी विदशा देखकर उसका दुःख भी बढ़ता जायेगा किन्तु उसके साथ ही अपनी साधना के संदर्भ में आशा की प्रकाश रेखाएँ भी खिंच जायेगी कि अब उसका पुरुषार्थ उसकी आत्मा की विद्रूपता को परिमार्जन, संशोधन एवं संशुद्धि की त्रिरूपवती प्रक्रिया के द्वारा उज्ज्वल बनाकर उसे स्वरूपवती बना देगा। दुःख और खेद का विषय यह होगा कि अपना स्वरूप अनन्त आलोकमय होने के बावजूद वह अंधकार में ठोकरें खाता रहा और भटकता रहा। सत्, चित् और आनन्द स्वरूप अनिर्वचनीय अलौकिक आत्मशक्ति के ऊपर इन विकारी वृत्तियों के कारण जो धुआं और कोहरा छा गया है, उसकी ही वजह से वह अपने स्वरूप को पहिचान नहीं पाया। कितने गहरे अज्ञान में डूबा हुआ था वह, कितनी प्रगाढ़ मोह निद्रा ने उसे आत्म-विस्मृत बना दिया था और वह स्वामी होकर किस प्रकार दासों का दास बन गया था ? इस प्रकार एक साधक का अपनी विकृत दशा पर आश्चर्य और खेद प्रकट होता रहता है।
साधक जब सद्गुरु का मार्गदर्शन ग्रहण करता है तो उसके ज्ञान-चक्ष खुल जाते हैं और वह समझ जाता है कि वह स्वयं ही अपने आपका स्रष्टा है। साधना के एक स्तर तक पहुँच जाने के बाद उसे अनुभूति होने लगती है कि उसकी अन्तरात्मा में अनन्त शक्ति का अविरल स्रोत प्रवाहित हो रहा है और अनन्त ज्योतिपुंज देदीप्यमान हो रहे हैं। उसे अपनी चेतना का भी अनुभव होता है कि वह 'स्व' के अनुशासन में संचालित होने पर कितनी स्वतंत्र, कितनी निर्विकारी और किस प्रकार लोकालोक को सम्यक् रीति से अवलोकन करने वाली है ? वह चेतना मात्र ज्ञान और सत्ता को
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