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तो साधना नहीं होगी किन्तु साधना को उससे पुष्टि अवश्य मिलेगी। चिन्तन, साधना रूप तब बनेगा जब वह विषय की सूक्ष्मता में प्रवेश करके सूक्ष्मतम तलस्पर्शिता तक पहुंचेगा। गूढ़ता जितनी बढ़ती जायेगी, चिन्तन उतना प्राभाविक बनता जायेगा। 'जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठि' की उक्ति को सामने रखकर अधिकाधिक गंभीरता अर्जित की जानी चाहिये।
किन्तु गूढ़ता और गंभीरता अपने चिन्तन में अभिवृद्ध होती रहे इसके लिये साधक को क्या करना चाहिये? चिन्तन का क्रम तब तक ही चलाया जाना चाहिये जब तक मन-मस्तिष्क में किसी प्रकार का तनाव पैदा न हो। ज्यों ही यह अनुभव हो कि चिन्तन के प्रति उत्साह और उमंग में न्यूनता आ गई है त्यों ही चिन्तन के विषय को बदल देना चाहिये। साधक के लिए इस प्रकार की सावधानी तीनों में से प्रत्येक चरण में आवश्यक है। जरा-सा भी तनाव आ जाय तो थोड़ी देर के लिए विश्रान्ति ले लेनी चाहिये ताकि चिन्तन का पुनः आरम्भ मस्तिष्क की ताजगी के साथ हो। दूसरे चरण में भी आदर्श के अनुस्मरण रूप सावधानी आवश्यक होती है। अनुस्मरण करते-करते साधक को तदनुरूप की अनुभूति होनी चाहिये। उसके मन में ऐसा सुदृढ़ संकल्प उठना चाहिये कि मेरी अन्तश्चेतना में अनन्त सूर्यों की अपेक्षा भी अधिक देदीप्यमान प्रकाश विद्यमान है। आत्म-स्वरूप रूपी आकाश में वह प्रकाश चमचमा रहा है। मेरे आत्मिक धरातल पर अनेक शक्तिस्रोत प्रवाहित हो रहे हैं। मैं ऐसा अनुभव कर रहा हूँ जैसे कि मेरे भीतर अपार शक्तियों की अभिव्यक्तियां हो रही हों।
यह निश्चित है कि साधना के इस स्तर तक पहुँचने में पर्याप्त समय की अपेक्षा रहेगी। इसका कारण भी स्पष्ट है। दीर्घकाल से विशृंखल, विषम एवं उदंड बनी आत्मा की वृत्तियों को एकदम जीत लेना कठिन है। उसी प्रकार सर्वोच्च सिद्धि के लिए प्रयल भी सर्वोत्कृष्ट होने ही चाहिये। अपने जीवन-व्यवहार में देखा जाता है कि बीज बोने के साथ ही फल की प्राप्ति नहीं हो जाती है। किन्हीं फलों को प्राप्त करने के लिए कई महीनों तक और आम जैसे फल को प्राप्त करने के लिये कई वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। जब भौतिक फलों की प्राप्ति के लिये भी सन्तोष के साथ प्रतीक्षा कर ली जाती है और उसकी प्राप्ति में अविश्वास भी नहीं रखा जाता है, फिर आध्यात्मिक साधना के फल की कामना करते हुए धैर्य क्यों छोड़ देना चाहिये? निश्चित विश्वास तथा अगाध धैर्य के साथ ही साधना की जायेगी तो साध्य का साक्षात्कार भी निश्चित रूप से हो जायेगा। यह
आध्यात्मिक विषय के अनसार इन्द्रियाँ और उसी प्रकार मन भी अपना नहीं. 'पर' होता है सभी दृश्य पदार्थों से परे होकर ही अदृश्य सत्ता-आत्मज्योति पर ध्यान को केन्द्रित करना होता है। यह केन्द्रीकरण की साधना एक जन्म ही नहीं बल्कि कई बार अपने सम्पूर्ण विकास में कई जन्मों का समय ले लेती है। महान् योगी अथवा धुरंधर साधक भी इस ध्यान साधना में सफल बन ही जाय ऐसा नहीं होता। इसलिए एक साधक को यह बात याद रखनी चाहिये कि उसे एकनिष्ठा और सुदृढ़ संकल्प की प्रतिज्ञा लेकर अविचल विश्वासपूर्वक प्रगति के पथ पर आगे से आगे बढ़ते ही जाना है। क्योंकि कभी-कभी साधना में होने वाली थकान या सुस्ती उसके व्यवस्थित क्रम को अस्त-व्यस्त कर सकती है और ऐसे क्रमभंग से साधक का विश्वास डगमगा सकता है या साधना के प्रति अरुचि जाग सकती है। अतः आवश्यक है कि दृढ़ निश्चय एवं अगाध धैर्य के साथ साधक को विधिपूर्वक साधना के प्रति समर्पित होना चाहिये और किसी भी प्रकार की अरुचि, थकान या सुस्ती को दूर रखनी चाहिये।