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मैं अपनी प्रत्येक क्रिया का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करूंगा तथा उससे उत्पन्न होने वाले प्रत्येक प्रभाव की सम्यक् समीक्षा करूंगा। उसका एक भी कवल बिना इस प्रकार की सजगता के मुँह में नहीं जावे और न मुँह से गले में उतरे। यह सजगता भोजन के समय में ही रहे ऐसी बात नहीं है। साधक की प्रत्येक क्रिया में उसकी ऐसी सजगता वर्तमान रहनी चाहिये।
भोजन के समय में अथवा अन्य किसी कार्य के समय में साधी जाने वाली ऐसी सजग साधना से 'सहज योग' की साधना तो होगी ही किन्तु साथ-साथ में ऐसी साधना का सुप्रभाव शरीर के विविध अंगोपांगों पर भी पड़ेगा। जैसे भोजन के समय की ऐसी साधना उसकी पाचन क्रिया को सरल व सहज बना देगी। सतत जागृति के कारण खाद्य पदार्थों का मुँह में चर्वण अच्छी तरह से होगा तो उसमें पाचक रसों का सम्मिश्रण भी समुचित रीति से संभव बनेगा। भोज्य पदार्थ जितना सात्विक होगा, उतना ही वह सुपाच्य भी होगा। प्राणशक्ति के संवर्धन के लिए पाचन क्रिया का सुव्यवस्थित होना भी आवश्यक है। उसी प्रकार प्राणशक्ति का संवर्धन साधना की सफलता के लिये भी आवश्यक होता है। अतः भोजन के समय ऐसी तल्लीनता और जागृति रखी जायेगी तो उससे शारीरिक स्थिति भी व्यवस्थित रहेगी और साधना का सम्बल भी अभिवृद्ध बनेगा। भोजन ग्रहण करने के समान ही दिनचर्या की प्रत्येक क्रिया में साधक को ऐसी ही तल्लीनता एवं जागृति साधनी चाहिये। सतत सावधानता साधना की मूल वृत्ति हो जानी चाहिये।
साधना के इस त्रिचरणात्मक समीक्षण क्रम में पिछले चौबीस घंटों की क्रियाओं का संस्मरण एवं आगामी चौबीस घंटों की क्रियाओं का निर्धारण नियमित बन जाना चाहिये। और इन दोनों के बीच में जो आध्यात्मिक साधना का क्रम चलेगा, उसमें आदर्श लक्ष्य का एकावधान अनुचिन्तन भी नियमित रूप से चलना चाहिये। जहाँ-जहाँ मनो-वृत्तियों का स्खलन होता हो, वहां-वहाँ साधक को अपनी सावधानी का सम्बल बढ़ाते रहना चाहिये। साधक को यह ध्यान रखना चाहिये कि साधना-काल में मन उसका अनचर बनकर रहे तथा उसके प्रत्येक निर्देश की यथावत अनुपालना करे। इस दृष्टि से मन की एकाग्रता का संकल्प प्रतिक्षण स्मृति-पटल पर आता रहना चाहिये ताकि उसके तनिक से इधर उधर होते ही उसे पुनः अपने स्थान पर आ जाने के लिये बाध्य किया जा सके। क्योंकि मन को अनुचरवत् अनुशासित किये बिना संकल्पों का सशक्त बन पाना संभव नहीं होता है। और जब तक संकल्प सशक्त न बन सके तब तक लक्ष्य सिद्धि असंभव बनी रहती है। अतः लक्ष्य के प्रति पल-पल जागृति के साथ मनोवृत्तियों का नियमित समीक्षीकरण साधना का अनिवार्य पक्ष माना जायेगा। समीक्षण में जागृति की नितांत आवश्यकता होती है।
यह स्पष्ट किया जा चुका है कि हमारी आत्मा का लक्ष्य सिद्ध-स्वरूप का साक्षात्कार करना है। परम चैतन्य सत्ता की अभिव्यक्ति तथा अविचल शान्ति पूर्ण विश्रान्ति ये ही अपनी साधना के उच्चतम लक्ष्य हैं जिनके लिये त्रि-आयामी समीक्षण ध्यान पद्धति का निरूपण किया गया है। यह पद्धति मनःस्थिति को सुदृढ़ बनाकर एकावधानी बनाने की भूमिका मात्र है जबकि समीक्षण ध्यान की उन्नति असीम होती है। एकाग्र तल्लीनता अथवा एकावधानता स्वयं सर्वोच्च लक्ष्य नहीं हैं बल्कि सर्वोच्च लक्ष्य की पृष्ठभूमि मात्र है। यहाँ पर यह भी याद रखना चाहिये कि पूर्व भूमिका स्वरूप समीक्षण ध्यान के ये तीनों चरण प्रतिदिन की प्रखरता के साथ सूक्ष्मता में अवगाहन करने वाले बनते जावें। प्रतिदिन घटित होने वाली बातों पर जब प्रतिदिन चिन्तन चलता रहेगा, तब वह स्वयं
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