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साधक अपनी साधना उठे तो पूरे चौबीस घंटों का अग्रिम कार्यक्रम निश्चित करे कि इतने बजकर इतने मिनिट पर वह अपनी व्यावहारिक चिन्ताओं से निवृत्ति पा लेगा व फिर इतने बजकर इतने मिनिट तक अमुक कार्य करेगा। सारी दिनचर्या इस रूप में सुनिश्चित हो जानी चाहिये । उसे निश्चय करके ही विराम नहीं ले लेना चाहिये बल्कि सशक्त मानस के साथ उस कार्यक्रम का उसे उसी रीति से अनुसरण भी करना चाहिये । उसमें प्रमादवश या अकारण किसी प्रकार का अन्तर नहीं आना चाहिये ।
सहजता जीवन का अंग बने
एक साधक के लिए इस रूप में समय निर्धारण एवं कठोरतापूर्वक उसके पालन के साथ साधना की दृष्टि से यह आवश्यक होगा कि वह जिस किसी कार्य में संलग्न होता है, उसमें उसकी समस्त वृत्तियाँ समर्पित भाव से प्रवर्तित होनी चाहिये। उसका सम्पूर्ण ज्ञान, विवेक एवं उपयोग उस कार्य की सम्पूर्ति में लग जाना चाहिये । समझिये कि एक साधक शास्त्र अथवा उपयोगी ग्रंथ का वाचन कर रहा है तो उसका समग्र ध्यान उस वाचन में केन्द्रित हो जाय - इस तरह कि जैसे वह उस आनन्द में निमग्न हो गया हो। उसे ऐसी अनुभूति हो कि उसका चित्त उस कार्य में पूरी तरह से रस ले रहा है। तल्लीनता उसका आत्मगुण बन जाना चाहिए। ऐसी तल्लीनता आध्यात्मिक कार्यों में तो हो ही किन्तु उस तल्लीनता का प्रसार उसके व्यावहारिक जीवन में भी हो जाना चाहिये। जैसे वह जब भोजन कर रहा हो तो जो भी सामने है मुदित मन उसको प्रेमपूर्वक खावे और उसी तल्लीनता से खावे ।
तल्लीनता का यह आत्म-गुण परिपुष्ट तब बन सकेगा, जब एक कार्य करते हुए दूसरे कार्य का स्मरण तक न किया जाय। जब साधक ग्रन्थ का वाचन कर रहा हो तब अन्य साधना के बारे में भी नहीं सोचे। किसी सांसारिक कार्य के लिए सोचने का सवाल ही नहीं है। इसी प्रकार जब वह भोजन कर रहा हो तो स्नान करने के बारे में नहीं सोचे। प्रत्येक क्रिया के प्रति इस तल्लीन भाव से उस क्रिया की सार्थकता का सीधा अनुभव होगा ।
इसी तल्लीनता को एकावधानता का नाम दिया गया है और यही जीवन की सहजता है अथवा 'सहज योग' की साधना है । जो कार्य जिस समय कर रहे हैं, उसी में अपनी चित्तवृत्तियों का सारा ध्यान केन्द्रित हो जाय और अन्य कोई बात स्मृति तक में नहीं आवे, तब एकाग्रता का सुन्दर अभ्यास बनेगा । एकाग्रता से अपनी सम्पूर्ण शक्तियाँ जब एक ही कार्य में निरत बनेगी - समर्पित हो जायेगी तब उस कार्य की सफलता भी असंदिग्ध हो जायेगी । धीरे-धीरे यह अभ्यास इतना संपुष्ट बन जायेगा कि पूर्व निश्चित कार्यक्रमानुसार प्रत्येक कार्य सहजतापूर्वक सम्पन्न होने लगेगा । यों कहें कि सहजता जीवन का अंग बन जायगी ।
सहज योग की साधना की यही उत्साहकारी भूमिका भी बन जायेगी। यह समीक्षण ध्यान साधना का तीसरा चरण अथवा अन्तिम आयाम होगा कि हाथ में लिये हुए कार्य के प्रति अथवा यदि कोई चिन्तन कर रहे हैं तो उस चिन्तन के प्रति समग्र समर्पण का संकल्प बन जाय । संकल्प की दृढ़ता यहाँ तक बन जाय कि धारणा ले लेने के बाद भोजन के समय एक-एक कृत-क्रिया पर सजगता की आलोचना हो सके। रोटी का टुकड़ा तोड़ते समय और कवल मुंह में रखते समय अथवा उसको चबाते समय साधक का उपयोग जागृत रहे। उसके मन में यह विचार चलता रहे कि
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