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किसी समर्थ सफल व्यवसायी को आदर्श मानकर ही व्यवसाय के क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है। ठीक इसी प्रकार साधना के क्षेत्र में कदम बढ़ाने से पहले किसी आदर्श को सामने रखना अनिवार्य है । किन्तु यह आदर्श परमोच्च एवं परम श्रेष्ठ होना चाहिये। यह आदर्श जितना उच्चतम होगा, उतनी ही साधना की गति ऊर्ध्वगामी बनेगी । इसलिये अपना आदर्श निर्धारण करने में जागृत वृत्ति की आवश्यकता होती है ।
प्रश्न है कि आदर्श कैसा होना चाहिये ? आदर्श वही हो जो अपने लक्ष्य का सर्वोत्तम प्रतिमान बन सके। वह लक्ष्य क्या है ? वह लक्ष्य है आत्मा को सर्वविशुद्ध रूप प्रदान करके सिद्धावस्था तक पहुँचाने का । साधक का प्रथम चिन्तन इस दृष्टि से आदर्श का अनुचिन्तन ही होगा जो यह भान दिलाता है कि यह मानव-जीवन मात्र इसी जीवन तक सीमित नहीं है । यह विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करते हुए ऐसे सशक्त साधन के रूप में मिला है जो आध्यात्मिक उन्नति के लिये अनुकूल वातावरण प्रदान करता है। इस जीवन और अन्य दुर्लभ प्राप्तियों के पश्चात् आत्मकल्याण के लक्ष्य से विचलित रहना, पुण्यमय संयोगों का सदुपयोग नहीं करना तथा भौतिक पदार्थो के उपार्जन में ही बहुमूल्य समय का दुरुपयोग करना कतई समुचित नहीं है ।
साधक का यह चिन्तन चलना चाहिये कि मुझे आज जो अनुकूलताएँ मिली हैं, क्या मैं आत्म-विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि ये सब मुझे आगामी जन्म में भी प्राप्त होंगी ? और यदि ऐसा नहीं है तो उनका इसी जीवन में पूर्ण सदुपयोग कर ही लेना चाहिये क्योंकि मात्र भौतिक साधनों की उपलब्धि का मार्ग अज्ञान के अंधकार से आवृत्त होता है । अंधकार की ओर गति करना मेरा लक्ष्य नहीं है। यदि मैं अंधकार में ही रहूँ तो ये इन्द्रियाँ भी काम भोगों की तरफ आकर्षित होती रहेगी । समस्त दृश्य, श्रव्य अथवा अस्वाद्य पदार्थ मुझे अपने आदर्श लक्ष्य से विचलित करने की ही क्रिया करते रहते हैं। इसलिए मुझे इन सबसे ऊपर उठकर अपने आत्म-साक्षात्कार की ओर इस गति से बढ़ना चाहिये कि जहाँ अंधकार की एक रेखा तक न रहे― चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो । इस प्रकाश में आत्म-ज्ञान का, अनन्त सूर्यों से अधिक तेज होते हुए भी परम शान्ति का आलोक व्याप्त होता है। लोगस्स के पाठ में 'आइच्चेसु अहियं पयासयरा' के अंश से ऐसे ही प्रकाश का उल्लेख किया गया है। अतः मेरा आदर्श भौतिक पदार्थों का अनुबंधित प्रकाशाभास नहीं, अपितु अपनी ही आत्मा से उद्घाटित होने वाला अपूर्व प्रकाश है। यह प्रकाश है सत्, चित् एवं आनन्दमय । यह परमोच्च आदर्श मुझे मेरी साधना में प्रतिपल अपने सामने रखना है । यही सर्वोत्तम आदर्श है।
भविष्य के निर्धारण का चरण
यह सर्वोत्तम आदर्श ही साधनारत आत्मा का प्रकाश स्तंभ होता है। आदर्श के निर्धारण एवं उसी प्रकार लक्ष्य के संस्मरण द्वारा आत्मलक्षी अन्तरावलोकन करने के बाद जब तक साधक पुनः अपने व्यावहारिक जीवन में लौटता है तब उसका तीसरा और अन्तिम चरण आरंभ होता है। यह अन्तिम चरण होता है अपने भविष्य के सम्यक् रीति से निर्धारण का ।
साधक की अन्तर्यात्रा का आरंभ बाहर से भीतर में प्रवेश करने के रूप में होता है यानि वह अपने व्यावहारिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करता है, देह से चेतना की तरफ उन्मुख होता है । किन्तु यह क्रम पहले सामयिक ही रहता है क्योंकि साधना में निश्चित अवधि तक बैठने के बाद वह फिर से अपने व्यावहारिक जीवन में चला जाता है। किन्तु उस का यह प्रत्यावर्तन
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