Book Title: Vairagya Shatakadi Granth Panchakam
Author(s): Kesharmuni
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठि- देवचन्द्र- लालभाई - जैन - पुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः - ९१ शेरःशेखर-श्रुतस्थविरानेकाचार्यादिगुम्फितं यथायोगं वृत्तिच्छायाऽऽदिसमलङ्कृतं सटीकवैराग्यशतकादिग्रन्थपञ्चकम् बीराब्दाः २४६७ [ आद्यं संस्करणं ] →→→*••*•·•*• संशोधकः—प्रवचनप्रभावक - खरतरगच्छाम्भोजभानु-श्रीमन्मोहन मुनीश्वरविनेयविनेय-स्वर्गीयाऽनुयोगाचार्यश्रीमत्केशरमुनिजीगणिवरान्तिषदो बुद्धिसागरो गणिः । मुद्रणविधायिका-श्रेष्ठि देवचन्द - लालभाई - जैनपुस्तकोद्धार संस्था । प्रकाशक:- जीवणचन्द साकरचन्द झवेरी, तस्या अवैतनिको मन्त्री । विक्रमाब्दाः १९९७ शकाब्दाः १८६३ निष्क्रयं एकं रूप्यकम् खीस्ताब्दाः १९४१ [ प्रतयः ५०० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदं पुस्तकं मुम्बापुर्या श्रेष्ठि-देवचन्द्र-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारसंस्थाया अवैतनिकमत्रिणा जीवनचन्द्र साकरचन्द्र जह्वेरी इत्यनेन “निर्णयसागर-मुद्रणास्पदे" कोलभाटवीथ्यां २६-२८ तमे गृहे रामचन्द्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापितम् । All Rights reserved by the Trustees of the Fund. अस्य पुनर्मुद्रणाद्याः सर्वेऽधिकारा एतद्भाण्डागारकार्यवाहकैरायत्तीकृताः। - Printed by Ramachandra Yesu Shedge, at the "Nirnaya-sigar" Press, 26-28, Kolbhāt Street, Bombay. Published for Setha Devacanda Lalal hāi Jaina Pustakoddhāra Fund, at Setha Devacanda Lalabhãi Jaina Dharumasala (Sri Ratnasagara Jaina Boarding House), Badekhan Cakala, Gopipura, Surat, by Jivanchand Sakerchand Javeri, Hon. Secretary. ROCOCIENCECAREER--- Jan Educati onal For Private Persorsaluse Only Mainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ய ன்பாடcine Setha Devacanda Lālabhai Jaina Pustakoddhāra Fund Series: No. 91 VAIRĀGYA SATAKĀDI GRANTHA-PANCAKAM With Notes, Commentary, etc. Grantha Name Author Year Commentary etc. by Vikram Era Christian Era Pages 1 Vairāgya S'ataka not available not available Gunavinaya 1647 15911-33 2 Vairāgya Rasayana Laxmilābha Gani Not avilable Not available 34-42 Padmānanda S'ata S'reșthi Padmānanda do nil 43-50 Laghu Ajita S'anti Jina Vallabha Sūri Dharmatilaka 1322 1266 51-63 Stavan 5 Dharma S'iks'ā Jina Vallabha Sūri nil nil 64-66 Prakarana Vikrama Era 1997] Price Re. 1-0-0 [Christian Era 1941 nil பார் ummaimai mm For at & Personal use only www.jame berorg Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D The Executive Members of S'etha Devacanda Lalabhai Jaina Pustakoddhāra Fund The Board of Trustees : Manchubhāi Sākaracanda Jhaveri Nemacanda Abhecanda, J. P. Nemacanda Gulābacanda Devacanda Hirābhāi Manchubhāi Jhaveri Sākaracanda Khus'ālacanda Jhaveri OSTOSOSIOSOSICISTA Hon. Secretary, Jivanacanda Sakaracanda Jhaveri Jan Education Instmal For Private & Personal use only www.lain yang Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्कः सटीकवैराग्यशतकादिग्रन्थपञ्चकस्य ग्रन्थानुक्रमः Acecccccomअङ्कः ग्रन्थाभिधानम् मूलकत्ती टीका-छाया-विवरण-कत्ता १ वैराग्यशतकम् (सटीकम् ) पूर्वाचार्यः श्रीगुणविनयगणिः २ वैराग्यरसायनप्रकरणम् (सच्छायम् ) श्रीलक्ष्मीलाभगणिः ३ पद्मानन्दशतम् (मूलमात्रम् ) श्रेष्ठि पद्मान्दनकविः ४ लध्वजितशान्तिस्तवनम् (सविवरणम् ) श्रीजिनवल्लभसूरिः श्रीधर्मतिलकमुनिः ५ धर्मशिक्षाप्रकरणम् (सचक्रबन्धद्वयम् मूलमात्रम्) श्रीमद् जिनवल्लभसूरिः १-३३ ३४-४२ ४३-५० ५१-६३ ६४-६६ ERAAROSSERIER Jain Education international For Private & Personal use only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीक वैराग्य किश्चिद्वक्तव्य शतकादि CRISSAAGILIAUSKAS ROSAS श्रेष्ठि देवचन्द लालभाई-जैनपुस्तकोद्धार-फण्ड-भाण्डागारस्य कार्यकराः (ट्रस्टीमण्डलम्) (१) मंछुभाई साकरचंद, झवेरी (२) नेमचंद अभेचंद, (जे.पी.) (३) नेमचंद गुलाबचंद देवचंद (४) हीराभाई मंछुभाई झवेरी (५) साकरचंद खुशालचंद झवेरी अवैतनिक मत्रीजीवणचंद साकरचंद झवेरी Jain Education international For Private & Personal use only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय शान्तिः-श्रीशान्तिः प्रौढप्रातिभमन्दरेण मथितात् सिद्धान्तदुग्धोदधेः, सद्बोधामृतमाथ्य यः सुमनसं चके जन स्वाचितम् । दुष्कर्माद्रिभिदैकपेशलतपोवज्रायुधं धारयन् , जीयादेष सुपर्वनाथसमतः श्रीसिद्धिसूरीश्वरः ॥ किञ्चिद्वक्तव्य। USIS शेठ देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्धार फंडमांथी, पृथक् पृथक् मुनिवयाँथी गुम्फित थयेला वैराग्यशतकादि पांच ग्रन्थो। सिद्धिदातानी' कृपावडे "ग्रन्थाङ्क ९१" तरीके प्रसिद्ध करवा शक्तिशाली थाउं छु. ग्रन्थ अने ग्रन्थकारो सम्बन्धे संशोधक मुनिवर्य श्रीबुद्धिसागर-गणिये विस्तारथी आलेखेलुं होबाथी ते ज वस्तुने फरी मूकवानु प्रयोजन देखातुं नथी. संशोधक मुनिराज ए परमप्रभाविक वचनसिद्धपुरुष मुनिराज श्रीमन्मोहनलालजी महाराजश्रीना मुख्य शिष्य महान तपस्वी आचार्य श्रीजिनयशःसूरिजी (प्रसिद्ध नाम श्रीजसमुनिजी) महाराज के जेओ ओपन ५३ उपवासनी महान तपस्या करी प्रभुश्रीमहावीरदेवनी निर्वाणभूमि पावापुरीमा स्वर्गवासी थया हता, तेमना आज्ञानुवर्ती अने श्रीमन्मोहनलालजी महाराजना ज शिष्यरत्न श्रीहेममुनिजी महाराजनां शिष्य स्वर्गीय अनुयोगाचार्य श्रीमत्केशरमुनिजी महाराजना शिष्य छे. एओश्रीये लघुवयमा मात्र दश १०13 वर्षनी उमरे मारवाडमा चवां गाममा दीक्षा अंगीकार करी हती. संशोधक लघु वये पण शास्त्रादिपठनमा अति उत्साही अने उद्यमवंत RUSSOS%*%** Jan Educatio n al For Private & Personal use only ainelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकवैराग्यशतकादि ॥ ४ ॥ हरहमेश म्हारा जोवामां आव्या छे. पोते कदाच लघुअभ्यासी होय तोपण तेओना उत्साहने प्रोत्साहन मळे, अने भविष्यमां आवा पृथक् पृथक् गच्छो अने समुदायोना लघुलघुवयना मुनिमहाराजो पण संशोधनादिकार्यमां प्रेराता रहे एटली ज भावनाथी, 'अङ्क ९० ' मो विद्यमान तपगच्छाचार्य श्रीविजयरामचन्द्रसूरि - शिष्य- बालब्रह्मचारी मुनिश्री कनकविजयजी द्वारा, अने आ वैराग्यशतकादि पांच प्रन्थो श्रीमद्बुद्धिसागरजी गणि द्वारा संशोधन कराववा प्रेरायो छु. संशोधक मुनिराजनो उपकार मानीये ए जरूरी छे. आ पछी प्रसिद्ध थनारा ग्रन्थोमां (१) अभिधानचिंतामणि कोष, निघंटुशेष, लिंगानुशासन, शब्दभेदप्रकाश, एकाक्षरनाममाला, शिलोंछ (२) जम्बूगुरु गुम्फित जिनशतक अने (३) जैनकुमारसंभव - सटीक प्रेसमां चालू छे. उपरांत (१) प्रमाणनयतत्वालोकालंकार रत्नाकरावतारिका टीका, टिप्पण, पंजिकासहित (२) आवश्यकनियुक्ति छायासहित ( ३ ) श्रीमद् यशोविजयजीकृत अनेकांतविवरण अने (४) आगमोद्धारक आगमव्याख्याप्रज्ञ आचार्यप्रवर श्रीमद् आनन्दसागरसूरीश्वरजीनी देखरेख नीचे दीर्घ खर्चवाळो, शक्य एटलो सम्पूर्ण अने सुन्दर 'प्राकृतकोप' प्रसिद्ध करवा माटे हस्तप्रत तैयार करवानुं कार्य चाली रधुं छे. ए ग्रंथ हवे पछी प्रेसमां मोकला शे. टोपीवाला चाल, सॅन्डहर्स्ट रोड, मुंबई सं० १९९७ श्रावणशुद्ध पूर्णिमा ता० ७ मी ऑगस्ट १९४१ गुरुवार Jain Educationonal जीवणचंद साकरचंद जवेरी, अवैतनिक मन्त्री किश्चिद्वक्तव्य 118 11 ainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jan Education International For Private & Personal use only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्मॅिश्चकद्वये धर्मशिक्षाया आधान्तिमश्लोकद्वयम् शिव वसुं व सौ ता द्यज्ञा 이 41404का N 의외 । मकर) HERE IEEETheENFIEDEFIE 84. मर्श E-FREFERENFIE RATEE 7444 बहन 30/425/64. 12/ 1 945 42 4900 GAD244444 P 2 2 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAZAZ cabar श्रेष्ठी देवचन्द लालभाई जह्वेरी. जन्म १९०९ वैक्रमाब्दे निर्याणम् १९६२ वैक्रमाब्दे कार्तिक शुक्लैकादश्याम् पौषकृष्णतृतीयायाम् (देवदीपावली-सोमवासरे) (मकरसङ्क्रान्तिमन्दवासरे) सूर्यपूरे. मुम्बय्याम्. W sabababase The Late Sheth Devchand Lalbhai Javeri. | Born 22nd Nov. 1882 A. D. Surat, Died 13th January 1906 A. D. Bombay. 11-41 :-Copies 1500 SRAAZ.s.r.cabBNO Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय समारभ्यतेऽयं सटीकवैराग्यशतकादिग्रन्थपञ्चकस्योपक्रमः । PRESSUUSAASSERSTOG शान्ताय दान्ताय जितेन्द्रियाय, धीराय वीराय मुनीश्वराय । सच्छास्त्रबोधादिगुणाकराय, भक्त्या नमः श्रीमुनिमोहनाय ॥१॥ ___ अयि श्रद्धाभरभारितान्तःकरणाः सज्जनाः ! गृह्णन्त्ववलोकयन्तु चैतत् “सटीकवैराग्यशतकादिग्रन्थपञ्चकम्" । अत्र हि सर्वतोऽर्वाम् वैराग्यशतकाख्यं सटीकं ग्रन्थरत्नं मुद्रितमस्ति, यदनुपमा संसारासारतां प्रख्यापयदत्युत्तमवैराग्यरसपोषकत्वेन शताधिकगाथाप्रमितत्वेन च 'वैराग्यशतक'मित्यन्वर्थाभिधानं खीयं बिभर्ति । निसर्गतः प्रादुर्भवत्यारेकेयं धीधनानां हृदये, यदुत-क इमेऽस्य ग्रन्थरत्नस्य मूलप्रणेतारः ?, के च इमे वृत्तिकारा ?, इति, तत्र तावन् 'मूलप्रणेतारस्तु पूज्यप्रवराः के ?' इत्यत्रोत्तरप्रदाने नास्ति ममेतिवृत्तानभिज्ञस्य सामयम् , तदुपलम्भकसाधनानुपलम्भात् । ज्ञापयिष्यन्तीतिवृत्तज्ञा महानुभावास्तद्वृत्तमित्याशासे। वृत्तिकाराश्चास्य प्रसिद्धा एव बन्धचरणा विनयगुणैकनिलयाः श्रीमन्तो गुणविनयवाचनाचार्यवर्याः । SCRECTOR-09-CCCCCCCIENCPROCK वै०प्र०11 Jain Education a l inelibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकवैराग्यशतकादि ॥१॥ पूज्याश्वेमे खजनुषा कदा कं देशं पुरं कुलं चालश्चक्रुः ?, कदा कुत्र च दीक्षिता बभूवुः ?, कस्य विनेयवराः ?, कदा खपादवि-दग्रन्थपञ्चकन्यासेनेमं कुवलयं पावयाञ्चक्रुः १, कदा चैनां वृत्तिं विरचितवन्तः ?, के के चान्ये ग्रन्था निर्मिता एभिः पूज्यवरैरिति जिज्ञासायां 'कदा स्योपक्रमः स्वजन्मना कं देशादिकमलचक्रुः ?, कदा कुत्र च दीक्षिता अभूव'नियेतज्ज्ञापयितुमसमर्थोऽहं विदुषां पुरः, तत्साधनाभावात् । परं संवन्नेन्दसमुंद्रदर्शशिमिते [१६४९] वैक्रमे लाभपुर(लाहोर )पत्तने श्रीजिनसिंहसूरीणां सूरिपदेन सममेषामपि वाचनाचार्यपदं प्रददेx गच्छाधिपैयुगप्रधानश्रीमजिनचन्द्रसूरिवरैरिति सुज्ञातमेवेतिहासविदाम् । कस्यैते विनेयाः ?, कश्चैषां सत्तासमयः? कश्चास्या वृत्तेर्विरचनकाल: ? इत्याद्यारेकाकदम्बकस्त्वस्या एव वृत्तेः प्रान्तोल्लिखितेन "श्रीगुरुखरतरगच्छे, श्रीमजिनचन्द्रसूरिराजानाम् । राज्ये विराजमाने, मुंनिवार्द्धिरसेन्दुमित[१६४७]वर्षे ॥ १ ॥ श्रीक्षेमराजाभिधपाठकानां, शिष्या विशिष्य क्षमया क्षमाभाः । क्षमाधराक्षोभ्यविनेयवृन्दाः, श्रीवाचकाः कीर्तिमहीजकन्दाः॥२॥ प्रमोदमाणिक्यसुनामधेया-स्तेषां च सन्त्यद्भुतभागधेयाः । शास्त्रार्थसर्वस्वकलापविज्ञा, जयन्ति सुज्ञा जयसोमसंज्ञाः ॥ ३ ॥ तेषां शिष्येणेयं, गुणविनयाख्येन निर्ममे व्याख्या । काऽपि यथादर्शमणु-स्त्वरितं वैराग्यशतकस्य ॥४॥" इत्येतेन पद्यचतुष्केणैव निरस्ता भवति, यतः स्फुटीभवत्यनेन यदुत-शुद्धधर्मोपदेशामृतपानप्रीणिताकब्बरभूपतिभ्य आषाढीयाष्टाहिकायां x “तेषु च गणिजयसोमा, रत्ननिधानाच पाठका विहिताः । गुणविनयसमयसुन्दर-गणी कृतौ वाचनाचार्यों ॥ १॥" कर्मचन्द्रवंशावली । Jain Education a l For Private & Personal use only Sainelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 समग्रदेशेऽमारिप्रवर्तक-स्तम्भती यजलध्यन्तर्वर्षावधि यावज्जालप्रपातनिवारणेन समस्तजलचरजन्तुजातरक्षाकारक-शत्रुञ्जयादिसमस्ततीर्थरक्षणाज्ञापत्र(फुमाण )सम्प्रापक-सम्राइ अकब्बरप्रदत्तयुगप्रधानपदालंकृतश्रीमजिनचन्द्रसूरीश्वराणां धर्मसाम्राज्यवर्तिनः श्रीमजयसोम१ "अकबररञ्जनपूर्व, द्वादश सूबेसु(शुम्बेषु)सर्वदेशेषु । स्फुटतरममापरिपटहः, प्रवादितो यैश्च सूरिवरैः॥१॥" इति कल्पलताप्रशस्तौ श्रीमत्समयसुन्दरोपाध्यायः। "शुचिमासे शुचौ पक्षे, प्रसन्नो दिनसप्तकम् । नवमीतो ददौ साहि-रमारिगुणपावनम् ॥१॥ एकादशसु शुम्बेषु, फुरमानानि साहिना । अमारिघोषणां कत्तुं, लेखयित्वाऽर्पितान्यहो!!॥२॥" कर्मचन्द्रवंशावली । २ "जला(लुद्दीन )लदी श्रीअकबरवितीर्णाषाढीयाष्टाहिकाऽमारि-वर्षावधिश्रीस्तम्भतीर्थीयजलध्यन्तर्वर्तिजलचरजीवतंतिम(?)रक्षणसमुद्भूतप्रभूतयशःसम्भारसाहि| प्रदत्तयुगप्रधानविरदधार + + + श्रीजिनचन्द्रसूरिपुरन्दराणाम्" इति पत्तनचित्कोशीयपौषधषत्रिंशिकावृत्तिप्रान्ते। ३ "नाथेनाथ प्रसन्नेन, जैनास्तीस्सिमेऽपि हि । मन्त्रिसाच्चक्रिरे नूनं, पुण्डरीकाचलादयः॥१॥" कर्मचन्द्रवंशावली। ४ "संवन्नन्दसमुद्रषट्रशशिमिते [१६४९] श्रीफाल्गुने मासि ये, *नप्राश्री कृष्ण दशमीतिथौ[हि विल] सत्पुण्याः सतां नन्दिनः। शाहिदत्तयुगप्रधानविरुदा आनन्दकन्दान्विते, श्रीमच्छ्रीजिनचन्द्रसूरिगुरवो जीवन्तु विश्वे चिरम् ॥१॥" इति “युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि" नामनि हिन्दी-पुस्तके। "तत्पट्टानुक्रमतः, श्रीमजिनचन्द्रसूरिनामानः । जाता युगप्रधाना, दिल्लीपतिपातिसाहिकृताः॥१॥" कल्पलताप्रशस्तौ । * नास्ति प्राक्-पूर्वकालिन्या निशायाः श्रीः-चन्द्रप्रकाशात्मिका शोभा यत्रैवंविधा कृष्णपक्षीया । Jan Education a l For Private &Personal use Only Hainelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकवैराग्यशतकादि ॥२॥ RISHIRTSPROSSESSE महोपाध्यायानां शिष्यवरा इमे वृत्तिकारपूज्याः, सप्तचत्वारिंशदधिके षोडशे शते च वैक्रमाब्दे विनिर्मितेयं वृत्तिरिति । एतेन सत्ता-13 ग्रन्थप ग्रन्थपश्चकसमयोऽप्येषां पूज्यानां सप्तदशशताब्द्या मध्यकालीनः सुस्पष्ट एव । तस्योपक्रमः विहायैतां वृत्तिमेते निम्नोल्लिखिताः समुपलभ्यन्तेऽन्येऽपि ग्रन्थाः श्रीमद्वृत्तिकृत्कृताः । १-खण्डप्रशस्तिकाव्यस्य हनुमानकविकृतस्य वृत्तिः, शशिसंज्ञारसेन्दु(१६४१)मिते वैक्रमे सूत्रिता । २-रघुवंशकाव्यवृत्तिः, विक्रमाद्रसवेर्दैजीवनिकायेन्द्(१६४६)हायने निर्मिता। ३-नलदमयन्तीकथायात्रिविक्रमभट्टकृतायाष्टीका, तस्मिन्नेवाब्दे (१६४६)गुम्फिता। *४-सम्बोधसप्ततिकावृत्तिः, शशिशेरजीवनिकायेन्दु( १६५१)मिते वैक्रमे सन्दृब्धा । ५-कर्मचन्द्रवंशावल्याः स्वगुरुनिर्मितायाष्टीका, रसबाणेदर्शनेन्द्( १६५६)मिते वैक्रमाब्दे निर्मिता । ६-विचाररत्नसंग्रहः ।, मुँनिबाणरसेन्र्यु( १६५७ )मितेऽब्दे वैक्रमीये दृब्धः। 1 जैनग्रंथावल्या ३३५ तमे पृष्ठेऽस्या गुणविजयकृतित्वेनोल्लिखनं प्रामादिकं भ्रामिकं वेत्यनुमीयते, जावालिपुर(जालोर)दुर्गे यतिवर्यश्रीपूनमचन्द्रचित्कोशीयप्रती कर्तृत्वेनैतेषामेव वृत्तिकृतां नामोल्लेखस्य मदृष्टत्वात् । द्रा । एतदर्थेऽपि 'जैनग्रंथावल्यां' ३३४ तमे पृष्ठे 'दमयन्तीचम्पूवृतिर्गुणविजयगणिकृतें'त्युल्लिखितं परं प्रामादिकं भ्रामिकं वाऽनुमीयते, यतोऽनवरतं ग्रन्थसंशोधने कृत| परिश्रमैः श्रीमच्चतुरविजयमुनिपुङ्गवैः सम्बोधसप्तत्युपोद्धाते जैनग्रंथावल्यामपि च २१० तमे पृष्ठे टिप्पण्यां एतद्भन्थटीकाकृत्कृतितयैवोल्लिखितम् । * मुद्रितपूर्वा एतचिह्नाङ्किता ग्रन्थाः, शेषा अमुद्रिता इति। ॥२॥ यजैनग्रंथावल्या १३० तमे पृष्ठे श्रीमजयसोममहोपाध्यायानां कृतितयोल्लिखनमस्य ग्रन्थस्य प्रामादिकं भ्रामिकं वेत्येवानुमीयते, प्रागुक्तमुनिपुङ्गवैजैनग्रंथावल्या४ मपि च २१० तमे पृष्ठे टिप्पण्या एतद्भन्थवृत्तिकृत्कृतित्वेनैवोल्लिखितत्वात् । ज्ञायते जैनग्रन्थावलीतो यदुतास्त्ययं ग्रन्थो राजनगरे, परं नोपलब्धो गवेषितोऽपि तत्र । Jain Education a l For Private &Personal use Only delinelibrary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education onal ७- लघुशान्तिस्तववृत्तिः, विक्रमतो नन्दबाणैरसैशि ( १६५९ ) मिते हायने रचिता । * ८ - उत्सूत्रोद्घाटनकुलकखण्डनम्, शरैरर्सपट्शेशि ( १६६५ ) मिते समे वैक्रमीये प्रथितः । ९-इन्द्रियपराजयशतकवृत्तिः, विक्रमतोऽम्बुधिरसैरर्संशेशि ( १६६७ ) वर्षे प्ररचिता । १०-अञ्चलमतस्वरूपचतुष्पदिका, वेदवाद्धिरर्सशेशि ( १६७४ ) मिते वैक्रमीये समे संसूत्रिता । ११- लुम्पक मततमोदिनकरचतुष्पदिका, शेराम्बुधिरसँशशाङ्क ( १६७५ ) मिते वैक्रमाब्दे सूत्रिता । १२-एकपञ्चाशद्विचारसारचतुष्पदिका (गु० ) संस्कृतटीकयाऽन्विता, रसमुनिपर्याप्तिशशाङ्क (१६७६) मिते विक्रमाब्दे सन्दृब्धा । * १३ - 'सबत्थ' शब्दार्थसमुच्चयः । १४ - लध्वजितशान्तिस्तव वृत्तिः । * १५ - कर्मचन्द्रवंशावलीरासकः । १६-अञ्जनासुन्दरीसम्बन्धः (गु० ), युगेर सँर्दर्शनेन्दु ( १६६२ )मिते बैक्रमे गुम्फितः । १७-गुणसुन्दरीचतुष्पदिका ( गु०), शरैर्दर्शनर सँशशि ( १६६५ ) मिते विक्रमहायने प्रथिता । १८-जिनभद्रीयबृहत्सङ्ग्रहण्याः गौर्जरो बालावबोधः । $ असम्पूर्णोऽयं ग्रन्थो मुम्बापुरीस्थानन्तनाथ जिनालयस के चित्कोषेऽस्ति, तस्यैते आदिमा टोकाः “गिरां देवीं नमस्कृत्य, संस्मृत्य पुरुषोत्तमम् । श्रीपार्श्व पार्श्व सान्निध्य - कारिपार्श्वमहोदयम् ॥ १ ॥ jainelibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकवैराग्यशतकादि SAGAAN SHARA भविष्यन्त्यन्येऽप्यनेके ग्रन्था एतद्वृत्तिकृत्कृताः, परं न मे श्रवणगोचरमागताः। ग्रन्थपश्चकवृत्तिश्चैषा मन्दधियामप्यत्युपकारिणी, यतो नास्त्यत्र शब्दकाठिन्यं पद्यपाण्डिसं वा, वर्तते च भाषालालित्यं वाचकानामन्दानन्द-18 स्योपक्रमः सन्दोहजनक प्रासङ्गिको गद्यपद्योभयात्मकः कथासमूहश्चापूर्ववैराग्यरसोत्पादकः । प्रामुद्रितो यद्यप्ययं सटीको अन्थो नव्य(जाम )नगरवास्तव्यसुश्राद्ध-हंसराजात्मजेन पण्डित-हीरालालेन, परश्चाशुद्धिबहुलत्वाहुष्प्राप्यत्वाच्च सम्प्रति श्रेष्ठि-देवचन्दलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारसंस्थाव्यवस्थापकावैतनिकमत्री झवेरी-जीवणचन्दसाकरचन्दद्वारा पुनर्मुद्रणमश्रुते । संशोधने चास्य पुस्तकचतुष्टयं समासादितम् । १-तत्राद्यं मोहमयीस्थानन्तनाथ जिनालयसत्कचित्कोशीय, लेखनकालादिसूचनरहितमतीवाशुद्धम् । २-द्वितीयमपि तत्रत्यमेव "संवत् १६६३ वर्षे कार्तिकवदि षष्ठी भृगु लिखितं" इति लेखकलेखान्वितं, नात्यशुद्धम् । श्रीजिनदत्तगुरूणां, कल्पतरूणामनन्तकामानाम् । पूत्यै चरणाम्भोज, हृदयाम्भोजे निवेश्यालिम् ॥ २॥ श्रीजिनकुशलमहीनां, कुलमास्ते यस्य सर्वदाऽधीनम् । श्रीधरणेन्द्र निध्याय, भाग्यैः पद्मावतीजानिम् ॥३॥ पाठकशिरोमणीनां, गुरुवन्नक्षीणबुद्धिविभवानाम् । श्रीजयसोमगुरूणां, प्रसादमासाद्य सद्यशसाम् ॥४॥ त्रैलोक्यदीपिकाया, व्याख्यां वा विनोदविण्याताम् । वितनोमि संग्रहिण्याः, श्रीम'हुणविनय गणिरेषः ॥५॥" पञ्चभिः कुलकम् । ॥ ३ ॥ Jan Educator For Private & Personal use only A riainelibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-तृतीयं पुना राजनगरस्थ डहेले'त्याख्याप्रसिद्धभाण्डागारसत्कं, नात्यशुद्धं, लेखकनामादिविरहितमप्यनुमानतो नातिप्राचीनं, सततं साहित्योद्धारैकबद्धकक्ष-झवेरी-श्रीमजीवणचन्द साकरचन्दद्वारा सम्प्राप्तम् । ४-चतुर्थं तु छायापुरीयचित्कोशस्थोपाध्याय-श्रीमद्वीरविजयशास्त्रसंग्रहसत्कं, मुनिवर्य श्रीमन्मङ्गलविजयैः प्रेषितं झवेरी-जीवणचन्द साकरचन्दद्वारैव सम्प्राप्तं, नूतनमपि शुद्धप्रायम् । | द्वितीयं ग्रन्थरत्नं "वैराग्यरसायनप्रकरणं" (सच्छायं) मुद्रितमस्ति, रचितं त्वेत लक्ष्मीलाभे"न वरमुनिनेति "रइयं पगरणमेयं, लिच्छिलाहेण वरमुणिणा" इत्येतस्यैव प्रकरणस्यान्तिमार्याऽर्द्धन स्फुटीभवति । | परमेते किंगच्छीयाः ? केषां सुगुरूणां विनीतविनेयाः ? कं विषयं ग्रामपुरादिकं चालचक्रुः खजनुषा ? कतमाब्दं यावत्पावयामासुः दाश्रमणविहारेणेमां भारतावनिम् ? कदा च विरचयाश्चक्रुरेतं प्रकरणरत्नं ? काँस्कान् जग्रन्थुरन्यान् ग्रन्थान् ? इत्याद्यारेकाकदम्बकस्य समाधानमाधातुं नालम्भविष्णुरहं, ताइक्सामग्र्यभावात् । एकैव प्रतिरस्य 'महावीरग्रन्थमाला-धूलिया द्वारा मुद्रिता (सच्छाया) सम्प्राप्ता, तामेव यथावबोधं विशोध्य मुद्रापितमिदम् ।। चतुर्थ पुनर्वैराग्यैकरसोत्कर्षपोषकत्वेन 'वैराग्यशत'मित्यन्वर्थाभिधानं पद्मानन्दकविना स्वाख्यया गुम्फित 'पद्मानन्दशत'मित्यभिधया प्रसिद्ध ग्रन्थरत्नमस्ति । SACARRIANS ARREARSARGAON Jain Education anal मा For Private & Personal use only O ne brary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीक ग्रन्थपत्रस्योपक्रम: वैराग्यशतकादि ॥४॥ CRORESCORROSAROKAROCRACK कवेश्चास्य सत्तासमयादि रचनाकालादयश्चाप्यस्य शतस्य यद्यपि निश्चितं नोपलब्धं, परं"सिक्तः 'श्रीजिनवल्लभ'स्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतैः, श्रीमन्नागपुरे'चकार सदनं 'श्रीनेमिनाथ'स्य यः। श्रेष्ठी 'श्रीधनदेव' इत्यभिधया ख्यातश्च तस्याङ्गजा, 'पद्मानन्दशतं' व्यधत्त सुधियामानन्दसम्पत्तये ॥२॥" इत्येतद्भन्थोपप्रान्तपद्येन प्रकटितं स्वयमेव कविना सुगुरु श्रीजिनवल्लभसूरि'शान्तोपदेशामृतसिक्तश्रेष्ठि श्रीधनदेवा'ङ्गजत्वं स्वस्य, |'नागपुरे' (नागोर-मरुधरे) श्रीनेमिनाथ'सदनकारकत्वमपि च स्वजनकस्येति । 'श्रीजिनवल्लभसूरी'णां सत्तासमयः प्रतीत एवेतिहासविदां पट्टावल्यादिना द्वादशशताब्द्या मध्यकालीनो वैक्रमीयः । ततो नायुक्तं स एव समयः 'पद्मानन्द'कवेरपीत्यनुमानकरणम् । संशोधनेऽस्य प्रतिद्वयं समासादितं, तत्राद्या तावन्निर्णयसागरमुद्रणालयमुद्रिता काव्यमाला-सप्तमगुच्छकस्था अन्तरन्तयुटितपाठा, द्वितीया पुना राजनगरस्थ डहेले त्याख्याप्रसिद्धभाण्डागारसत्का, नातिप्राचीना नातिशुद्धाऽपि च ।। | चतुर्थ ग्रन्थरत्नं 'लध्वजितशान्तिस्तवन' सटीकमस्ति, विषयोऽस्य मुख्यतया भगवतोरजितशान्त्योः स्तवनात्मको नयादिस्वरूपप्रतिपादनेनोपदेशात्मकोऽपि च । मूलस्यास्य स्तवस्य प्रणेतारः 'सङ्घपट्टक-पिण्डविशुद्धि-पौषधविधिप्रकरण-पडशीति-सूक्ष्मार्थविचारसार्द्धशतका'द्यनल्पद ग्रन्थसन्दर्भसंसूत्रणे सूत्रधारायमाणाः सुविहितचक्रचूडामणयः कविवृन्दवृन्दारकाः कूर्चपुरीयचैत्यवासपरित्यागपुरस्सरं नवाङ्गवृत्तिकारक SACROSCORRECCALCONOM ॥ ४॥ Jan Education a l For Private &Personal use Only X Finelibrary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदभयदेवसूरीश्वराणामुपसम्पन्नसद्गुरुत्वोपसम्पदत्वेन* शिष्याः श्रीमजिनवल्लभसूरिपादाः। पूज्यानां विशेषत इतिवृत्तज्ञीप्सुभिर्विलोक्या, 'अपभ्रंशकाव्यत्रयी भूमिकादय इति । * यदुक्तं-"तस्याभयगुरोः पावा-दुपसम्पत्ततोऽभवत् । जिनवल्लभशिष्योऽथ, सर्वसिद्धान्तपारगः ॥४३॥ क्रमशोऽभयसूरीणां, पट्टकन्दरकेसरी । जिनवल्लभसूरीन्द्रो, द्रव्यलिङ्गिगजार्दनः ॥४४॥" इति खरतरगच्छसुविहितसूरिपरम्पराप्रशस्तौ ।। श्रीमन्तोऽपि च खयं-"लोकार्यकूर्चपुरगच्छमहाधनोत्थ-मुक्ताफलोज्वलजिनेश्वरसूरिशिष्यः। प्राप्तः प्रथां भुवि गणिर्जिनवल्लभोऽत्र, तस्योपसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च ॥१॥" इति अष्टसप्ततिकायां (चित्रकूटीयमहावीरप्रासादशिलालेखे), अपभ्रंशकाव्यत्रयीप्रस्तावनातः समुद्भुतम् । तथैव "के वा सहरवोऽत्र चारुचरणाः; श्रीसुश्रुता विश्रुताः" इत्येतत्प्रश्नस्योत्तरे "श्रीमदभयदेवाचार्याः" इति जैनश्रेयस्करमण्डलमहेशानाद्वारा मुद्रिते सटीकस्तोत्ररत्नाकरद्वितीयविभागस्थे प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतके ग्रन्थे श्रीमदभयदेवसूरीनेव सद्गुरुत्वेनोचुः । यच्चोकं तत्रैव पूर्वपद्ये "ब्रूहि श्रीजिनवल्लभ! स्तुतिपदं; कीदृग्विधाः के सताम् ?" इति प्रश्नस्योत्तरे "महरवो जिनेश्वरसूरयः" इति, तथा अष्टसप्ततिकायां "जिनेश्वरसूरिशिष्यः" इति च, तत्तु नापसम्पन्नोपसम्पदत्वे सद्गुरुत्वं, किन्तु खं गार्हस्थ्यात्समुत्य धर्मयोधं ज्ञानादिगुणोत्कर्ष च सम्प्रापकत्वादुपकारं संस्मरद्भिश्चैत्यवासित्वगुरुत्वमधिकृत्य तेभ्यः सतां स्तुतिपदत्वमुक्तम् । तत्तचितमेव । यतो नाभूवंस्ते पूज्या अद्यकालीनमनुजा इव कृतोपकारिण उपकारस्यास्मर्त्तारः कृतम्राः, किन्तु शिष्टाः, तथैव षडशीतिवृत्तौ वर्णितत्वात् । | तथाहि-"न चायमाचार्यों न शिष्टः" इति श्रीमन्मलयगिरयः, तथा "शिष्टश्चायमाप्याचार्यः" इति श्रीमद्धरिभद्रसूरयो युगमँनिशशाङ्क (११७२)वर्षभाविनः । + "देवसूरि पहु नेमिचंदु बहुगुणिहिं पसिद्धट । उज्जोयणु तह वद्धमाणु, खरतरवर लद्धउ। Jan Educat INDEional For Private & Personal use only Miainelibrary.org IRL Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकवैराग्यशतकादि ग्रन्थपश्चकस्योपक्रमः विनिर्मिताऽस्य वृत्तिः सङ्घपट्टक-पञ्चलिङ्गीवृत्त्यादिविविधग्रन्थनिर्मातृतार्किकचूडामणिश्रीजिनपतिसूरिशिष्यश्रीजिनेश्वरसूरिविनेयवरेण श्रीधर्मतिलकमुनिना नंवकरशिखीन्दु( १३२९)मिते वैक्रमाब्दे। संशोधिता च वृत्तिकृत्सतीयैरेव जिनेश्वरसूरीय श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति'विधायकैः श्रीलक्ष्मीतिलकोपाध्यायैरिति निगदितं "तैः श्रीलक्ष्मीतिलको-पाध्यायः परोपकृतिदक्षैः। विद्वद्भिवृत्तिरियं, समशोधितरां प्रयत्नेन ॥४॥" अनेन प्रशस्तिगतपद्येन वृत्तिकृता स्वयमेव । संशोधनेऽस्यावाप्तं प्रतित्रयं, तत्राद्या श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारसंस्थाव्यवस्थापकैः कारापिता मुद्रणयोग्या प्रतिः, या हि वि० संवत् १५८७ वर्षे लिखितायाः कस्याश्चित्प्रत्या आधारेण कारापिताऽऽसीत् , कापडीयेत्युपास-प्रोफेसर-हीरालालरसिकदासविहितया मूलमात्रस्य संस्कृतच्छाययाऽन्विता नात्यशुद्धा । द्वितीया सूर्यपुरस्थजैनानन्दपुस्तका सुगुरु जिनेसरसूरि नियमि जिणचंदु सुसंजमि । अभयदेउ सवंगु नाणि जिणवल्लहु आगमि । जिणदत्तसूरि ठिउ पट्टि तहि जिण उज्जोइउ जिणवयणु । सावइहिं परिक्खिवि परिवरिउ मुल्लि जीव रयणु ॥४॥" __इति कविपाइतपट्टावल्याम् संवत् ११७० वर्षे धारानगरीलिखितायाम् । "तच्छिष्यो जिनवल्लभः प्रभुरभूद्विश्वम्भराभामिनी-भावद्भालललामकोमलयशःस्तोमः शमारामभूः" इति जयन्तविजयकाव्यप्रान्ते । "आकाभयदेवसूरिसुगुरोः सिद्धान्ततत्त्वामृतं, येनाशायि न सङ्गतो जिनगृहे वासो यतीनामिति । तं त्यक्त्वा गृहमेधिगेहवसतिर्निर्दूषणा शिश्रिये, सूरिः श्रीजिनवल्लभोऽभवदसौ विख्यातकीर्तिस्ततः॥१॥" इति पूर्णभद्रीयशालिभद्रचरित्रान्ते। Jan Education International For Private & Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लयसत्का नात्यशुद्धा नातिप्राचीनाऽपि च । तृतीया तु विक्रमपुरस्थश्रीमज्जिनकृपाचन्द्रसूरिभाण्डागारसत्का, साहित्यसेवारसिक - विविधेतिहासान्वेषक - लेखक - श्रीमान् - अगरचन्दजी नाहटा महाशयसम्प्रेषित 'सटीक सप्तस्मरण' प्रत्यन्तर्गता शुद्धप्राया । अस्त्यस्याः प्रतिकृतेः प्रान्ते “संवत् १३२२ वर्षे, फाल्गुन सुदि ६, कृता वृत्तिरियं वाचनाचार्य श्रीधर्मतिलक-गणिभिः । | समाप्तमिति । शुभं भवतु ” इति लेखः । अनेन स्वाभाविकमेव भवति वृत्तेरस्या रचनलेखनकालयोरेकत्वानुमानमदीर्घदर्शिनाम्, परं न तत्सङ्गतं यतो लिखिता वर्त्तते तस्यामेव प्रतौ दादा - श्रीजिनदत्तसूरिविनिर्मितस्य गणधरदेवस्तुत्यादिस्मरणत्रिकस्य वृत्तिर्जयसाग रोपाध्यायसन्दृब्धा । | जयसागरोपाध्यायास्तु वैक्रमीय पाश्चात्यपञ्चदशशतकादारभ्य पोडशशतकप्रारम्भ* यावद्विद्यमानसत्ताका इत्यन्यान्याभ्यस्तत्कृतिभ्यो निश्चीयतेऽतस्तत्पाश्चात्य एव काले लिखितैषा प्रतिरिति स्फुटमेव । प्राङ्निर्दिष्टलेखस्तु वृत्तेरस्या रचनाकालसूचनायैव लेखकेन लिखितस्सम्भाव्यते । पञ्चमं त्वत्र विविधच्छन्दोऽलङ्कारसारादिकाव्यभूषाभूषितं चत्वारिंशत्पद्यात्मकं 'धर्मशिक्षाप्रकरणं' विन्यस्तम् । प्रणेतारस्त्वस्यापि त एव वन्द्यचणाः कविचक्रशका नवाङ्गवृत्तिविधायक श्रीमदभयदेवसूरिपट्टपूर्वाचार्यमणः श्रीमन्तो जिनवल्लभसूरिमिश्राः । विषयोऽप्यस्य प्रत्यधिकारं पद्यद्वयनिबद्धश्चैत्यभक्तितपस्सक्त्याद्यष्टादशाधिकारेष्वौपदेशिक एव । विदुषां चेतश्चमत्कारकरी रचनाऽस्य प्रकरणस्य, नाना छन्दोऽलङ्कार शब्दलालित्यार्थप्रथनपाण्डित्यादिगुणैः पूर्णत्वात् । . ** " श्रीजय सागरगणिना, तेन मया वाचकेन शुचिवाच्यम् । पृथ्वीचन्द्रचरित्रं, विरचितमुचितप्रविस्तारम् ॥ ६ ॥ श्रीप्रह्लादन पुरनगरे, त्रिबिन्दु तिथि ( १५०३ ) वत्सरे कृतो ग्रन्थः । माहूश्रावकवसतौ, समाधिसन्तोषयोगेन ॥ ७ ॥ इति पृथ्वीचन्द्रचरित्रे । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकवैराग्य- शतकादि ग्रन्थपञ्चकस्योपक्रमः अस्य त्वेकैव प्रतिकृतिः पिचुमन्दपुरी( लीम्बडी )स्थ( आणंदजी-कल्याणजीत्याख्यया प्रसिद्ध )श्रीसङ्घसत्कचित्कोशीया झवेरी- जीवणचन्द साकरचन्दद्वारा सम्प्राप्ता । ला एवं पञ्चानामपि ग्रन्थानां क्रमशः प्रतिचतुष्टयैकद्वयत्रयैकाधारेण कृतेऽप्यायासे संशोधनकर्मणि छाास्थ्यसुलभा दृष्टि-मुद्रण दोषजा प्रमादजा वा याः काश्चन स्खलना जाता भवेयुस्ताः सम्मानीया निसर्गतोऽनुग्रहपरान्तःकरणैः सहृदयरित्यभ्यर्थयते । संवत् १९९८, वै० शु० १३, श्रीमहावीरचैलनिश्रिते ) प्रवचनप्रभावक-श्रीमन्मोहनमुनीश्वरप्रशिष्यरत्नस्वर्गीयानुयोगाचार्यमण्डोवर-खरतरगच्छोपाश्रये श्रीमत्केशरमुनिजीगणिवरान्तिषदः मुम्वापुर्याम् बुद्धिसागरो गणिः संवर्दष्ट वाङ्केन्दु (१९९८)-मिते विक्रमहायने । शुक्रे त्रयोदशीघने, माधवस्य सिते दले ॥१॥ मुम्बय्याख्यमहापुर्या, श्रीवीरचैत्यनिश्रिते । उपाश्रये सुरम्ये तु, श्रीखरतरसंज्ञिते ॥२॥ श्रीमोहनमुनीशानां, प्रशिष्यशिष्यकेण हि । यशः-केशरपादाज-द्विरेफेणाल्पबुद्धिना ॥३॥ जिनर्द्धिरत्नसूरीणां, छत्रच्छायासु तिष्ठता । उपक्रमोऽयं सन्दब्धो, गणिना बुद्धिसिन्धुना ॥४॥ (चतुर्भिः कलापकम् ) - Jan Education For Private & Personal use only 8 Enelibrary.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SONGRECRUSOCTOUCRORIES उजिंत-सेल-सिहरे, दीक्खा-नाणं-निसीहिआ जस्स; तं धम्म-चक्कवत्ति, अरिह-नेमि नमसामि. [आर्या ] जेना दर्शीत देवना न्हवणथी नाठी जरा-यादवी, जेना मातली-सारथी रथ-तणी फेरी सुरक्षा करी; जेणे नाजुक नार राजुळ तजी वैराग्यना रंगथी, एवा श्रीजगदीश नेमिजिनने बंदुं सदा आदरी ॥१॥ श्रीहंसविजयजी शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंडना उद्भवनो इतिहास. जेमनी स्मृतिने अर्थे आ फंड स्थापवामां आव्युं छे ते शेठ देवचंद लालभाई झवेरीए पोताना मृत्युपत्रमा रू. १००००० (एक लाख)नी रकम विलथी जाहेर करी निराळी तपशील मुजब नीचे प्रमाणे शुभकार्योमा खर्चवा माटे पोताना ट्रस्टीओने फरमाव्यु हतुं. २०००० जूनां दहेरासरोनो जीर्णोद्धार करवामां. ( आ रकम शेठ आणंदजी कल्याणजीनी पेढी मारफते, ए पेढीनी पण एटली ज रकम उमेरावीने, राणकपुरजीना धन्नाशाह पोरवाडना जगप्रसिद्ध त्रैलोक्यदीपक' दहेरासरना जीर्णोद्धारमा शेठ देवचंदना ट्रस्टीओए भाईश्री गुलाबचंदनी देखरेख नीचे खरचेल छे. वि० सं० १९७११७२ लगभग.) वै०प्र० 5642% Jain Education a l For Private &Personal use Only Miainelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकवैराग्य दे. ला.. पु. फंडनो | उद्भव इतिहास ५००० पांजरापोळ सुरत अने बीजे. (सुरतनी पांजरापोळमां अपाई.) २५००० वाडी करवा मांडी छे तेनी धर्मशाला करवी. (सुरतमा शेठ देवचंदे रू०२००००(वीस हजार) खरची मकान सहित शतकादि वाडी बांधवा मांडी हती तेमां २५००० (पचीश हजार) उमेरी धर्मशाला स्थापी, जेथी धर्मशालामा कुल्ले रू०४५००० (पिस्तालीश हजार)नी रकम वपराई.)* ॥७॥ ५००० केशर अने बरासमां. (आ रकम शेठ घेलाभाई लालभाई झवेरी केशर बरास फंडमां अपाई छे.) शेठ देवचंद उपर मुजब रू० ५५००० (पंचावन हजार ) खरचवानी यादि लखी शक्या हता, अने रू. १००००० (एक लाख)माथी रू० ४५००० (पिस्तालीश हजार) शेमां खरचवा फरमावq ते विचार करी लखवाना हता. परंतु पोताना अवसान-काल पूर्व ए यादि पूर्ण करी शकाई नहि, जेथी रू. ४५००० (पिस्तालीश हजार)नी रकम नाम-निर्देश विनानी शुभकार्यमां खरचवानी बाकी रही. ए रू० ४५००० (पिस्तालीश हजार)नी रकम शुभकार्योमा खरचवानी शेठ देवचंदना सुपुत्र शा० गुलाबचंदनी कायदेसर रजा मळवा उपरांत, शा० गुलाबचंद देवचंदे पोताना तरफथी महूमनी यादगीरी माटे शुभकार्यमा खरचवा काढेला रू० २५००० * शेठ देवचंदनो आशय रू. वीस हजार खरचेला हता तेमा रू. पांच हजार उमेरी रू. पचीश हजारनी धर्मशाला करवानो हतो. पण कानून ताप्रमाणे विलनो अर्थ एवो थयो के "शेठ देवचंद गमे एटली रकम खरची गया होय ते बिलमा या निराळा तपशीलपत्रमा ए मुजयर्नु स्पष्ट करेलु न लाहोवाथी ए खरचेल रकम गणवानी नहि, पण तेमा रू. पचीश हजार ट्रस्टीओए वधारे आपी ते वाडीनी धर्मशाला करवी." आ धर्मशालानो धर्मशाला तरीके काभ लेवातो न होवाथी स्व. गुलाबचंदे कोर्टनी रजा मेळवी धर्मशालाने 'श्रीरवसागरजी जैन बोडींग हाऊस', तातरीके फेरवी. विद्यार्थीओ आजे एनो सुंदर लाभ लई रया छे. ॥७॥ Jan Education For Private & Personal use only R emeltrary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARALSSAGARARAN (पचीश हजार ) पण आ रकममा उमेरी मईम शेठ देवचंदना नामर्नु एक स्थायी फंड स्थापवा सूचव्यु. आथी रू. २५००० (पचीश हजार)नी रकमने रू. ४५००० (पिस्तालीश हजार )नी रकम साथे उमेरी रू. ७०००० (सित्तर हजार) संगीन फंड | स्थापवा माटे शेठ देवचंदना विलना ट्रस्टीओद्वारा जुदा राखवामां आव्या.* । आचार्य महाराज १००८ श्रीमद् आनन्दसागर सूरीश्वरजी (ते समये पन्यास पदे)नी सलाह अने उपदेशथी तथा शा. गुलाबचंद देवचंद झवेरीनी सम्मतिथी, आ एकत्र रकमोनुं महूम शेठ देवचंदनी यादगीरी माटे "शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड" नामर्नु आ ट्रस्ट शेठ देवचंदना मृत्युपत्रना ट्रस्टीयो (१) शेठ नगीनभाई घेलाभाई, (२) शेठ केशरीचंद रूपचंद, (३)शा. जीवणचंद साकरचंद अने (४) बाई वीजकोरे (शेठ देवचंदनी पुत्री) ईस्वी सन् १९०९मां स्थाप्यु. तेमज योग्य व्यवस्था जळ्वाई रहेवा माटे (१) शेठ नगीनभाई घेलाभाई, (२) शेठ केशरीचंद रूपचंद, (३) शा० जीवणचंद साकरचंद, (४) शा० गुलाबचंद देवचंद, (५) शेठ फुलचंद कस्तूरचंद, अने (६) शा० मंछुभाई साकरचंदने ट्रस्टीओ निमी ट्रस्टडीड कराववामां आव्युं. _* शेठ देवचंदनो आशय विलमा कख्या मुजब लाख रू० पूरा खरचवानो हतो परंतु "जुदी जणावेली यादि प्रमाणे ते ते खाताओमा खरचवा" तेम विलमा दर्शावेलु हतु, ज्यारे जुदा तपशीलपत्रकमा पोते मात्र रू. पंचावन हजारनी रकमनी यादि लखी शक्या अने रू. पिस्तालीश हजारनी यादि पूरी करी शक्या नहि. माथी कायदेसर एवो अर्थ नीकळ्यो के "विल करती वखते रू. एक लाख खरचवानी इच्छा हशे, परंतु तपशील लखती वखते * रू. पंचावन हजार ज खरचवानी इच्छा नियत स्थलोसर नक्की होई रू. पिस्तालीश हजार नहि खरचवा माटे ज तपशीलपत्रकमा नोंध्या नहि होय, तेथी| ए रकमनो मालिक दत्तक पुत्र गुलाबचंद ज रहेशे. ट्रस्टीओने पोतानी मरजीथी शुभकामोमां ए रू. पिस्तालीश हजार खरची नांखवानी सत्ता नथी. पण जो | वारस गुलाबचंद ए रकमनो मालिक पोते न थां ए खरचवा माटे टूस्टीओने सम्मति आपे तो तेनी मरजी मुजब टूस्टीओने ए रकम खरचवाने सत्ता प्राप्त थाय छे." भाई श्री गुलाबचंदनी इच्छा ए रकम पोते लेवानी नहोती तेथी तेनी सम्मति मळवाथी ज मा फंडनी स्थापना थई शकी. - CARRACHAARAA Jain Education international For Private &Personal use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीक - वैराग्यशतकादि ॥ ८ ॥ Jain Education in महूम शेठनी दीकरी, शेठना मृत्युपत्रनी एक वहीवटकार (एक्झिक्युट्रिक्स), मम शा० मूलचंद नगीनदास झवेरीनी विधवा बाई वीजकोरनी, रू० २५००० (पचीश हजार ) उपरांतनी रकमनी आखी मिल्कत बाई वीजकोरना मृत्युपत्रना ट्रस्टीयो तरफथी, ईस्वी सन् १९११ ना एक दस्तावेजद्वारा भेट मळवाथी, तथा मम शेठना भत्रीजा अने फंडना मुख्य ट्रस्टी महूम शेठ नगीनभाई बेलाभाई झवेरीना मृत्युपत्रनी रूये रू० २००० (वे हजार) नी रकम तेमना ट्रस्टी अने वहीवटकार (एक्झिक्युट्रिक्स) 'बाई चंदन उर्फे लीलावती' तरफथी ईस्वी सन् १९२२मां भेट मळवाथी तथा परचुरण व्याजनी रकमो मळवा - वधवाथी फंडनुं भंडोळ रू० ११०००० ( एक लाख दश हजार )ना आशरानुं थयुं छे. फंडनो उद्देश “जैन श्वेतांबर मूर्त्तिपूजक धार्मिक साहित्यनी, जेवुं के प्राकृत, मागधी, संस्कृत, गुजराती, अंग्रेजी वगैरे भाषामां लखायेलां वंचायेलां प्राचीन पुस्तको, काव्यो, निबन्धो, लेखो वगेरेनी जाळवणी, खीलवणी, पुनरुज्जीवन, रक्षण अने अभिवृद्धि करवानो" छे. प्राचीनतानी हद विक्रम सं० १९५० पूर्वेनी रहेशे अने मुद्रित ग्रन्थ माटे थयेला खर्च करतां अडधी किम्मते ते बेचाशे एवं ट्रस्टडीडमां फरमाववामां आव्युं छे. शेठ केशरीचंद रूपचंद सने १९९६मां ट्रस्टीपदेथी मुक्त थया, अने शेठ नगीनभाई घेलाभाई सं० १९७८, - ईस्वी सन् १९२९मां देहमुक्त थवाथी तेमना स्थाने शेठ अमरचंद कल्याणचंद अने शेठ नेमचंद अभेचंद जे. पी. ने सने १९२६मां ट्रस्टी निमबामां आव्या. भाई श्री गुलाबचंद देवचंद सं० १९८३ - सन् १९२७मां देहमुक्त थवाथी, तथा शेठ फुलचंद कस्तूरचंदना सने १९२८ना राजीनामाथी तेमना स्थाने शा० नेमचंद गुलाबचंद देवचंद अने शेठ हीराभाई मंछुभाईनुं सने १९२९मां ट्रस्टी तरीके संवरण करवामां आव्युं, अने ए चारे नवा ट्रस्टीओनुं सने १९२९मां निमणुकखत ( एपोइंटमेंट डीड) करावी लेवडाव्युं. दे. ला. ज. पु. फंडनो उद्भव इतिहास 116 11 ainelibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ अमरचंद कल्याणचंदना सने १९३२मां थयेला अवसानथी, शेठ साकरचंद खुशालचंदने सने १९३६मा ट्रस्टी-पदे । संवरवामां आव्या, अने सने १९३६मां ते बावतनुं निमणूकखत (एपोइंटमेंट-डीड) कराववामां आव्यु. सने १९३७मां में ट्रस्टीपदनुं राजीनामुं आप्यु; अने अमुक समय बाद दूस्टीमंडले मारुं राजीनामुं स्वीकारी मने ट्रस्टीपदथी मुक्त करी मंत्री तरीके नीम्यो. हा फंडनी शरूआतथी फंडनु भंडोळ सं० १९९३ सुधी गवर्नमेंट सिक्युरिटिमां रोकवामां आवेलुं हतुं. सं० १९९३मां मुंबई वहार-कोट कालबादेवी रोड उपर फंडने वधु उत्पन्न करवा माटे स्थावर मकान खरीदवामां आव्युं त्यारथी फंडन सघळू भंडोळ ते स्थावर मिल्कतमा रोकायेलुं छे.. फंडनी ए स्थावर मिल्कत उपर आ मुजब नामो अंकित करायां छे:मिल्कतनी मालिकी-सूचक ] "शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड मिल्कत (सुरत)" मिल्कतर्नु नाम-सूचक ] "आगमोद्धारक" Jan Education Donal For Private Personal Use Only S inelibrary.org A Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकवैराग्यशतकादि ॥९॥ छेल्लां पांच छ वर्षथी फंड तरफथी आगळ जेटला बधु प्रमाणमां पुस्तको प्रसिद्ध न थवानुं कारण ए हतुं के ए समय दरमियानाला . | फंड पासे पूरती रोकड रकमनो अभाव हतो. ते पहेलांनां वर्षोमा आगळ करतां वधु रकम खरचाई गयेली, अने निर्दिष्ट वर्षो दरमियान पु. फंडनो वेचवाना पुस्तकोनुं भंडोळ घणुं वधी गयुं होई पुस्तकना वेचाणमांथी थती आवक पण आगळ करतां बहु ओछी थई गई हती.|8 गिळ करता बहु आछा थइ गइ हता. उद्भव आथी थोडो समय पुस्तकप्रकाशननुं काम मुलतवी राख आवश्यक थई पड्युं हतुं. त्रणे वर्ष व्याजनी रकम भेगी थवा देवामांना इतिहास ६ अने पुस्तकोनो स्टॉक वेचवामां गयां.. आ पछी ट्रस्टीओए फंडर्नु आशरे रू० एक लाख दश हजार- थवा जतुं आ भंडोळ वधारे उत्पन्नमाटे सिक्युरिटिमांथी छुटुं| करी उपरोक्त मकानमा रोक्यु. ते पछी एकाद वर्षे मकाननी आवक एकत्र थवा मांडी. | आ रीते पैसानी छूट थतां पुस्तकप्रकाशननुं कार्य हवे फरी हाथमा लेवामां आव्युं छे. जो विक्रय प्रमाणमां ठीक चालु रहेशे तो पुस्तको मोटा प्रमाणमा प्रसिद्ध करवानें अमारे माटे वधु सुगम बनशे. जैनसमुदाय आ वात लक्ष पर लई बने एटलां पुस्तको खरीदी ज्ञानप्रभावनाना कार्यने उत्तेजन आपशे, एवी आशा राखं छु. ॥९ ॥ मुंबाई ता०७ ऑगस्ट, १९४१ गुरुवार. वि० सं० १९९७, श्रावण शुद्ध नारियेळी-पूर्णिमा. जीवणचंद साकरचंद जवेरी अवैतनिक मत्री Jain Education For Private Persorsaluse Only N ainelibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education r A Brief Account of the Fund I find some people anxious to know something more about Setha Devacanda Lalabhal Jaina Pustakoddhara Fund than they do at present. Hence I give here a brief account as to how it was incorporated, and a very brief note as regards its inner machinery since then up to date. Śetha Devcanda Lalabhai, to commemorate whose memory this Fund was established, directed in his will that a sum of Rupees one-lac be used in charity. Out of Rupees one-lack, he had made up his mind for the following sums only. (1) Rs. 20000 towards reparation of old delapidated Jaina temples. (2) Rs. 5000 towards pinjarapoles at Surat and other places. (3) Rs. 25000 to be utilised for building a dharmasala in place of a proposed bungalow in a compound owned by the donor in Surat, and then under construction. (4) Rs. 5000 to be spent towards providing saffron and camphor (barasa) to Jaina temples. The above sums totalling Rs. 55000 mentioned in the will were respectively utilised in the following manner: iainelibrary.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Brief Account of the Fnud * *** * Vairágya (1) This sum was spent after reparation of the well-known Jaina temple at Rāņakapura through Satakādi St tha Anandaji Kalyānaji firm, under the supervision of the late Gulabacanda Devacanda. The Anandaji Grantha & Kalyāņaji firm contributed an equal sum towards this undertaking. Panca (2) This sum was handed over to the Surat Pinjarapole. kam (3) The late donor had already spent Rs. 20000 after a compound for a bungalow with a garden, 1180 111 which was then under construction. The sum of Rs. 25000 was added to it, and a dharmasala was built therein. (4) This sum was donated to Setha Ghelabhái Lālabhai Jaina Kesara-Barāsa Fund. The donor had not decided how to spend the remaining Rs. 45000, and expired before giving any instructions as to this sum. The court interpreted this fact in a rather curious way: "The donor, when he prepared the will, might have intended to spend the entire sum of Rs. one-lac in charity. But the fact that he has not mentioned as to the disposal of more than the said Rs. 55000 means that he might GOSSOSSEG *** * en soll 1 The donor intended to add a sum of only Rs. 5000 to the sum he had already spent; that is, Rs. 25000 was the entire sum he intended to spend after the dharmaśālā. But, according to the court-interpretation the words meant a fresh sum of Rs. 25000; and henco Rs. 25000 more had to be spent after the charmas'ala building. Jan Education international Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PASTISSERIGROSSESSE have changed his intention at the last moment. Hence the surplus sum of Rs. 45000 must go to his adopted son Gulabacanda. If, however, the heir Mr. Gulabacanda wants to spend that sum in his father's charities, i he is at liberty to do so.' Late Gulābacanda, a worthy son of the donor, asked the trustees of the will of the late donor to spend that sum in some charitable work, and added a sum of Rs. 25000 to it in memory of the revered father. He further instructed the said trustees that they should spend the totalling sum towards some charitable concern which was permanent. Pūjyapāda Āgamoddhāraka Acārya (then pannyāsa) Anandasāgara advised the trustees of the will of the late donor, (1) Setha Naginabhāi Ghelābhāi, (2) Setha Keśarīcanda Rūpacanda, (3) Mr.Jivaṇacanda Sākaracanda, and (4) Mrs. Vijakora Mūlacanda (daughter of the late donor) to spend the sum in establishing a pustakoddhāra fund, and Gulābacanda gave his sanction for the same. Hence the present Fund was established. The following were its original trustees : (1) Setha Naginabhai Ghelābhāi, (2) Setha Keśaricanda Rápacanda, (3) Mr. Jivanacanda Sākaracanda, (4) Mr. Gulābacanda Devacanda, (5) Setha Fülacanda Kasturacanda, (6) Mr. Manchubhāi Säkaracanda. Mrs. Vijakora, widow of the late Mõlacanda Naginadasa Jhaveri, daughter of the late donor and executrix of his will, donated a sum of more than Rs. 25000, her entire estate, to the Fund at her Jan Educaton mal bayong Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vairagya Satakadi GranthaPancakam ॥ ११ ॥ Jain Education death. This sum was handed over to the Fund in 1911. Similarly one of the chief trustees of the Fund and a nephew of the late donor, Naginabhai Ghelabhai donated a sum of Rs. 2000 to the Fund, at his death in 1921, which was handed over to the trustees in 1922. These two donations and sundry interests etc. added to the main sum have amounted to about one-lac and ten-thousand Rupees. The aim of this Fund as laid down in the trust-deed is as follows: It should undertake the preservation, circulation, publication etc. of ancient literature pertaining to the Svetambara Mürtipujaka sect of Jaina religion, written in any language-Sanskṛt, Prākṛt, Apabhramsa, Pali, Gujarati, English, German &c. It was also laid down that no work composed after V. S. 1950 should be considered ancient, and the books published should be sold at half the cost price. Śetha Kesaricanda Rupacanda resigned in 1916 and Setha Naginabhai Ghelabhai expired in 1921. Setha Amaracanda Kalyanacanda and Setha Nemacanda Abhecanda were appointed as trustees in their stead in 1926. Mr. Gulabacanda died in 1927 and Setha Fulacanda Kasturacanda resigned in 1928. Hence Mr. Nemacanda Gulabacanda Devacanda and Seṭha Hiräbhai Manchubhai were appointed in 1929 as trustees in their place. In 1929 an appointment-deed was got executed for the appointment of the said four new trustees. Setha Amaracanda Kalyāṇacanda expired in 1932. Hence Setha Sakaracanda Khusalacanda was onal A Brief Account of the Fund ॥ ११ ॥ jainelibrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nominated for the place in 1936, and an appointment-deed to that effect was got executed in the same year. In 1937 I tendered my resignation, and after some delay it was accepted. Thereupon the trustees appointed me the Honarary General Secretary of this Fund. Since the establishment of this institution, its funds were invested in the Government Securities. But since we bought a building situated at Kalabādevi Road, Bombay, in V. S. 1993, the said fund is mainly invested in that immovable property. This building is renamed as follows: SETHA DEVACANDA LĀLABHAI JAINA PUSTAKODDHĀRA FUND ESTATE (SURAT) AGAMODDHĀRAKA Here the first line indicates the ownership, while "Āgamoddhāraka” the name of the building. 939HUSSEISTISAISANCESSES ) Topiwala Chawl, Sandhurst Road, Bombay, 4 Thursday, 7th August, 1941 Srāvan Sud 15, 1997 JIVANCHAND SAKERCHAND JAVERI Hon. Secretary Jain Education anal For Private & Personal use only Un barang Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचीपत्रम् सटीकवैराग्यशतकादि॥१२॥ २-४-० श्रीजैनआनंदपुस्तकालये लभ्यग्रन्थाः१ अहिंसाष्टकं, सर्वज्ञसिद्धि ऐन्द्रस्तुतिश्च ०-८-०१५ परिणाममाला (लेजर पेपर) ०-१२-०२७ युक्ति-प्रबोधः १-८-० २ अनुयोगद्वार-चूर्णिारिभद्रीयवृत्तिश्च १-१२-० , , (ड्रोइंग पेपर) ०१०-०२८ ललितविस्तरा (सटीप्पना) ०-१०-० ३ उत्तराध्ययन-चूर्णिः ३-८-०१६ प्रवचन-सारोद्धारः (पूर्वार्द्धः) ३-०-०२९ वस्त्रवर्णसिद्धिः ४ ऋषिभाषितानि ०-२-०१७ , ,(उत्तरार्द्धः) ३-०-०३० विचार-रत्नाकरः ५ ज्योतिष्करंडकप्रकीर्णकम् (सटीकम्) ३-०-०१८ पंचाशकादिशास्त्राष्टकम् मूलमात्रम् ३-०-०३. विशेषावश्यक-विषयानुक्रमः अका६ जिनस्तुति-देशना (हिन्दी) ०-६-०१९ पंचाशकादिशास्त्रदशकस्याकाराद्यनुक्रमः३-०-० रादिक्रमः ७ तत्वतरंगिणी ०-८-०२०पंचवस्तुकग्रन्थः (सटीकः) २-४-०३२ वंदारुवृत्तिः ८ त्रिषष्टीयदेशनासंग्रहः ०-८-०२१ पयरणसंदोहो ०-१२-०३३ श्राद्धविधिः (हिन्दी) ९ दशवैकालिक-चूर्णिः ४-०-०२२ अत्रज्या-विधान-कुलका दि ०-३-०३४ क्षेत्रलोक-प्रकाशः । १० प्रकीर्णकदशकम् (संस्कृतच्छायान्वितम्)-८-०२३ प्रत्याण्यानादि-विशेषणवती-वीशवीशी-४-० बृहसिद्धनभाग्याकरणम् ५द्रव्यलोकप्रकाशः १-०-०२४ वारसासूत्र (सचित्रं) १२-०-० आचारांगसूत्रवृत्तिः १२ नंदीआदिअकारादिक्रमो विषयक्रमश्च १-८-०२५ मध्यमसिद्धप्रभा व्याकरणम् ०-८-० भगवतीसूत्रं दानशेखरसूरिकृतवृत्तिसहितम् १३ नंदीचूर्णिारिभद्रीयवृत्तिश्च १-४-०२६ यशोविजयजीकृत १२५, १५०,३५०, पुष्पमाला अपरनाम उपदेशमालाप्रकरणवृत्तिः | १४ नवपद-प्रकरण-बृहदवृत्तिः ३-०-० गाथायाःस्तवनानि(साक्षिपाठसहितानि)-८-० तत्वार्थसूत्रम् (हारिभद्रीयटीकासहितम्) श्री-जैन-आनंद-पुस्तकालय, ओशवाल महोल्ला, गोपीपुरा, सुरत. 1 ००००० . 8 ॥१२॥ Jan Education International For Private & Personal use only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैरा० १ Jain Education I श्रेष्ठि- देवचन्द्र लालभाई - जैनपुस्तकोद्धारयथाङ्केॐ अर्ह नमः । श्रीवर्द्धमानाय नमो नमोऽस्तु, नमो नमः श्रीगुरुगीतमाय । दादेति नाम्ना जनपूजिताय नमस्तथा सद्गुरुमोहनाय ॥ १ ॥ श्रीमदकब्वरसुरत्राणमुपदिश्याऽऽषाढी याष्टाहिका मारिप्रवर्तपकाणां क्रिपोद्धारकरणेन समादृतकठोरतरसाधुक्रियाणां - श्री साहिदत्तयुगप्रधानपदधारकाण - श्रीजिनचन्द्रसूरीश्वराणां साम्राज्यवर्त्ति पाठकावतंस श्रीक्षेमराज गणिशिष्य - वाचकवर्य श्री मत्प्रमोद माणिक्य गणिवरान्तेवासि-वादिगजकेसरिमहोपाध्याय श्री जय सोमगणिशिष्यरत्र-सम्बोधसप्ततीन्द्रियपराजयशतकरघुवंशवृत्याद्यनहपग्रन्थ सौधसूत्रणसूत्रधार - श्री साहिसमक्षप्रदत्तवाचनाचार्यपदविभूषित श्रीमद्गुणविनयगणिवर सङ्कलितया व्याख्यया समलङ्कृतं पूर्वसूरिप्रवरविनिर्मितम् वैराग्यशतकम् । प्रणम्य श्रीधरं पार्श्व, पूर्वसूरिविनिर्मितम् । वैराग्यशतकं सम्यगू, विवृणोमि यथामति ॥ १ ॥ तत्राऽऽद्यगाथेयं संसारंमि असारे, नत्थि सुहं वाहिवेयणापउरे । जाणतो इह जीवो, न कुणइ जिणदेसियं धम्मं ॥ १ ॥ व्याख्या-‘असारे' अप्रधाने, 'संसारे' चातुर्गतिकरूपे, तत्त्ववृत्त्या प्रायो वा किञ्चिदपि 'सुखं' सातवेद्यं कर्म, 'नास्ति' ainelibrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् । ॥ १ ॥ न विद्यते, असारत्वे कारणमाह-यतः किम्भूते संसारे ?, व्याधिश्व शरीरमन्दता, वेदना च- मानसं दुःखं, ताभ्यां ' प्रचुरे' बहुले, अस्मिन् संसारे केवलं जन्तूनां व्याधिवेदने एव विद्येते एवं जानन्नपि 'इह' संसारे, 'जीवः' प्राणी, प्राप्तमपि जिनैस्तीर्थकृद्भिः 'देशितं ' उपदिष्टं, 'धर्म' दुर्गतौ पततः प्राणिनो धरतीति धर्मस्तं, 'न करोति' न विधत्ते, कर्मबहुलत्वादिति ॥१॥ अज्जं कलं परं परारिं, पुरिसा चिंतंति अत्थसंपत्तिं । अंजलिगयं व तोयं, गलंतमाउं न पिच्छंति ॥ २ ॥ व्याख्या-अद्यादिपदेषु प्राकृतत्वादनुस्वारः, 'पुरुषाः' मूढा नराः, अद्य दिने 'कल्ये' आगामिदिने, 'परस्मिन्, आगामिवर्षे 'परारिं' परस्मिन् वर्षे (वा) 'अर्थसम्पत्तिं' द्रव्यसम्पदं - अर्थसम्प्राप्तिं वा, 'चिन्तयन्ति' विचारयन्ति, यथाऽद्य दिने द्रव्यसम्पद् भविष्यति कल्ये वा परस्मिन् वा परारिं वा भविष्यति, इत्येवमाशाग्रस्तास्तिष्ठन्ति परं ते 'अञ्जलिगतं' अञ्जलिप्राप्तं, 'तोय मिव' जलमिव, 'गलत्' क्षरत्, आयुः 'न पश्यन्ति' न प्रेक्षन्ते न विचारयन्ति, यथाऽञ्जलिगतं तोयं न कमपि कालं तिष्ठति तथेदमायुरपि क्षणे क्षणे आवीचिंमरणेन श्रीयमाणं कियन्तं कालं स्थास्यतीत्येवं मूढत्वान्न जानन्तीति भावः ॥२॥ १ “ तत्र वीचिविच्छेदस्तदभावादवीचि] [स्तदेव आवीचि ] स्तेन मरणम [आ] वीचिमरणं, तत्पञ्चधा-द्वय १ क्षेत्र २ काल ३ भव ४ भाव ५ भेदात् । तत्र यन्नारकतिर्यग्नरामराणामुत्पत्तिसमयात्प्रभृति निजनिजायुः कर्मद लिकानामनुसमयमनुभवनाद् विघटनं तद् द्रव्यावीचिमरणं तच्च नारकादिगतिचातुर्विध्याच्चतुर्विधम् । एवं नरकादिचतुर्गतिविषयक्षेत्र प्राधान्यापेक्षया क्षेत्रावीचिमरणमपि चतुर्देव । देवादिष्वद्धाकालस्यासम्भवाद् देवाऽऽयुष्ककालादिचतुर्भेदप्राधान्यापेक्षया कालावीचिमरणमपि चतुर्विधम् । एवं देवादिचतुर्विधभवापेक्षया भवावीचिमरणं चतुर्द्धा । तथा देवादीनां चतुर्विधायुः क्षयलक्षणभावप्राधान्यापेक्षया भावावीचिमरणमपि चतुद्वैवेति” उत्तराध्ययन सर्वार्थसिद्धिवृत्तौ १३५ पत्रे खरतरगच्छ गगनाङ्गणनभोमणयः श्रीकमल संयमोपाध्यायपादाः । गुणविन यीयाव्याख्या । ॥ १ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं कल्ले कायचं, तं अजं चिय करेह तुरमाणा । बहुविग्धो हु मुहुत्तो, मा अवरण्हं पडिक्खेह ॥ ३ ॥ व्याख्या-हे प्राणिनः! यत् 'कल्ये' आगामिदिने, कर्तव्यं धर्मकरणीयमिति गम्यते, तद्धर्मकरणीयं त्वरमाणाः' विलम्बमकुर्वन्तः सन्तः 'चिय' शब्दस्य एवकारार्थत्वादद्यैव कुरुध्वं, यतो 'हु' निश्चये, 'बहवः' प्रचुरा, 'विघ्ना' अन्तरायाः सन्त्यस्मिन्निति बहुविघ्न एव 'मुहूर्तः' कालविशेषः, अतो मा 'अपराह' सायन्तनसमयं, 'प्रतीक्षध्वं' विलम्बध्वं, "श्रेयांसि बहुविघ्नानी"ति वचनात् पुण्ये कर्मणि प्रवर्तमानानां पुंसां वहवोऽन्तराया उत्तिष्ठन्त्यतो धर्मकर्मविधाने मा विलम्ब कुरु-| ध्वमिति, तथा च वेदेऽप्येवमेवोक्तं "न श्वः श्वः समुपासीत् , को हि मनुष्यस्य श्वो वेदेति" ॥३॥ ही!! संसारसहावं, चरियं नेहाणुरागरत्ता वि । जे पुव्वण्हे दिवा, ते अवरण्हे न दीसंति ॥४॥ | व्याख्या-मकारोऽलाक्षणिकः, संसारस्वभावस्य 'चरितं' आचरणं, संसारस्वभावचरितं दृष्ट्वा 'ही' इति विषादो मम, कथं विषादः ? इत्याह-'स्नेहानुरागेण प्रेमबन्धेन रक्ता अपि, आसतामन्ये, ये स्वजनादयः 'पूर्वाहे' प्रातःकाले, दृष्टास्त एव 'अपराह्ने' सन्ध्यायां न दृश्यन्ते, स्नेहानुरागरक्तानां किल वियोगासंभवात्त एवोक्ताः, परं संसारस्य क्षणदृष्टनष्टत्वात्तेऽपि वियुज्यन्त इति भावः ॥ ४॥ मा सुयह जग्गियो, पलाइयवंमि कीस वीसमह ? । तिणि जणा अणुलग्गा, रोगो अ जरा अ मञ्चू अ॥५॥ व्याख्या-भो लोका ! जागरितव्ये-धर्मकर्मणि कर्तव्ये इति भावः, तत्र ‘मा स्वपिथ' मा शेवं, न प्रमादितव्यमिति AMOLLUSCLOSURE Jan Educator For Private &Personal use Only HDainelibrary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् । ॥ २ ॥ भावः, 'पलायितव्ये' अस्मात्संसारात् प्रनंष्टव्ये, 'कस्माद्विश्राम्यथ ?" कथमस्मिन् संसारे खेदापनयनं कुरुध्वमिति भावः, कथं ?, यतस्त्रयो जना भवतां 'अनुलग्ना ः' पृष्ठतो लग्नाः - प्रवृत्ताः वर्त्तन्त इति शेषः, ते के ? इत्याह 'रोगश्च' अतीसा रादिः, 'जरा च' वयोहानिः, 'मृत्युश्च' मरणं, एवंविधास्त्रयोऽपि जना अनुलग्ना अतो धर्मे न प्रमादो विधेय इति भावः, अन्योऽपि जागरितव्ये स्थाने न स्वपिति पलायितव्ये च न विश्राम्यतीति छाया [भावा]र्थः, जना इति लोकोक्त्या उक्तं, अन्यथैषामात्मधर्मत्वादिति ॥ ५ ॥ दिवस निसाघडिमालं, आउं सलिलं जियाण घेत्तृणं । चंदाइचबइल्ला, काल रहá भमाडंति ॥ ६॥ व्याख्या- 'चन्द्रादित्यावेव' शशिभास्करावेव, 'बलीवर्दो' वृषभौ, प्राकृतत्वाद्विभक्तिपरिणामो, 'दिवसाश्च निशाश्च' [ दिवसनिशा ], ता एव 'घटिमाला' कुम्भपङ्किस्तया, जीवानां 'आयुः जीवितमेव सलिलं 'गृहीत्वा' आदाय 'कालः' परिवर्तनालक्षणः, स एव अरघट्टस्तं 'भ्रमयतः' परिवर्तयतः, पुनरुच्चैः पुनर्नीचैरित्येवमिति ॥ ६ ॥ सा नत्थि कला तं नत्थि, ओसहं तं नत्थि किं पि विन्नाणं । जेण धरिज्जइ काया, खज्जंती कालसप्पेणं ॥ ७ ॥ व्याख्या-सा नास्ति कला द्वासप्ततेरन्यतरा, तच्च 'औषधं' अगदो नास्ति, तत् किमपि 'विज्ञान' शिल्पं नास्ति, येन कलादिना 'कालो' मृत्युरेव सर्पस्तेन ' खाद्यमानो' भक्ष्यमाणः 'कायो' देहो 'प्रियते' तत्खादनाद्रक्ष्यते ॥ ७ ॥ १ पान्तस्य नोर्णत्वाभावः "मस्जिनशोर्झलि [ ७-१-६० ] इति [ पाणिनीय सूत्रेण ] नुम् । गुणविनयीया व्याख्या । ॥२॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***ARAS दीहरफणिंदनाले, महियरकेसर दिसामहदलिल्ले । ओ पियइ कालभमरो, जणमयरंदं पुहविपउमे ॥८॥ व्याख्या-'ओ' इति पश्चात्तापे अव्ययं, काल एव 'भ्रमरो' भृङ्गः, पृथिव्येव पञ, तस्मिन् 'जना' लोका एव 'मकरन्दो' शरसस्तं पिबति, अन्योऽपि भ्रमरः पद्मे मकरन्दं पिवत्येव, तथाऽयं काल एव भृङ्गो भूरूपकमले जनमकरन्दं असत इति S/भावः, यतः-“दुपयं चउप्पयं बहु-पयं च अपयं समिद्धमहणं वा । अणवकए वि कयंतो, हरइ हयासो अपरितंतो ॥१॥" किंभूते पृथिवीप ?, “दीर्घ' आयतं 'फणीन्द्र एव' शेष एव, 'नालं' मृणालं, यस्य तत्तस्मिन् दीर्घफणीन्द्रनाले, इदं च लोकोतया विशेषणं, तथा 'महीधराः' पर्वता एव 'केसराणि' किञ्जल्कानि यत्र तत्तस्मिन् महीधरकेसरे, प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपः, तथा 'दिश एव' आशा एव, 'महान्ति' बृहन्ति, 'दलानि' पत्राणि, यस्मिन् तत्तस्मिन् दिङमहादले, स्वार्थे इल्लप्रत्ययः, "ओ सूचनापश्चात्तापे"[४-२-२०३] इति [हैम]प्राकृतव्याकरणे ॥८॥ छायामिसेण कालो, सयलजियाणं छलं गवसंतो। पासं कहवि न मुंचइ, ता धम्मे उज्जमं कुणह ॥९॥ __ व्याख्या-हे प्राणिनः ! 'छायामिषेण' निजनिजशरीरप्रतिबिम्बदम्भेन, अयं 'कालो' यमः सकलजीवानां 'छलं' रन्ध्र 'गवेषयन्' अवलोकयन् सन् 'पार्श्व' प्राणिसमीपं कथमपि न मुञ्चति' न त्यजति, शरीरिणामियं छाया न भवति किन्तु यम एव रन्ध्र गवेषयति, कदाऽसौ स्खलेत् कदाऽहं गृह्णामीति वाञ्छया, "ता" इति तस्मात् यूयं 'धर्म' जिनप्रणीतेऽहिंसादिरूपे उद्यम कुरुध्वं, यावद्यमेन गृहीता न वर्तध्वे तावत्किञ्चित्पुण्यं विदध्वमिति भावः ॥९॥ A MISKIS Jan Educatio n al For Private Personal use only anbrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् । कालंमि अणाईए, जीवाणं विविहकम्मवसगाणं । तं नत्थि संविहाणं, संसारे जं न संभवइ ॥१॥ गुणविनव्याख्या-'अनादौ' आदिरहिते 'काले' परिवर्तनालक्षणे 'विविधकर्मवशगानां' विविधकर्मायत्तानां 'जीवानां' प्राणिनां यीयासंसारे तत् 'संविधान' भेदो नास्ति यत् 'न सम्भवति' न घटते, अपि तु सर्वमपि घटत इत्यर्थः, जन्तुभिर्नानाजातिष्व | व्याख्या। नेकविधकर्मप्रेरितैः सर्वेऽपि भेदा एकेन्द्रियादयः प्राप्ता इत्यर्थः ॥ १०॥ | बंधवा सुहिणो सवे, पियमायापुत्तभारिया । पेयवणाओ नियत्तंति, दाऊणं सलिलंऽजलिं ॥११॥ - व्याख्या-सर्वेऽपि 'बान्धवाः' स्वजनाः, 'सुहृदो' मित्राणि, मातापितरौ, प्राकृतत्वात्सूत्रे विपर्ययः, पुत्रभार्या, मृतं प्रति 'सलिलाञ्जलिं' जलतर्पणं, दत्त्वा 'पितृप्रेत वनात्' स्मशानात् , 'निवर्तन्ते' व्याघुट्य स्वगृहमायान्ति, न पुनस्तेन सहाऽनुयान्तीति भावः ॥११॥ विडंति सुआ विहडं-ति बंधवा वल्लहा य विहडंति। इको कहवि न विहडइ, धम्मोरे जीव ! जिणभणिओ॥१२॥ ___ व्याख्या-रे जीव!' आत्मन् !, 'सुताः' पुत्रा 'विघटन्ते वियुज्यन्ते, स्वस्मात्तेषां पूर्वमेव मृतत्वात् , तथा 'बान्धवाः स्वजना विघटन्ते, तथा 'वल्लभाश्च स्त्रियो विघटन्ते, तस्याः मरणेनाऽन्येन सह संयोगाद्वा, अन्यत्सर्व विघटते, परमेको 'जिनभ-81 |णित'स्तीर्थकृत्प्रणीतो धर्मः कथमपि न विघटते, धर्मस्तु इहाऽमुत्राऽपि सुखकारणत्वादात्मनो न वियुज्यत इति भावः॥ १२॥ अडकम्मपासवद्धो, जीवो संसारचारए ठाइ । अडकम्मपासमुक्को, आया सिवमंदिरे ठाइ ॥ १३ ॥ SRESEARCH JanEducation E arnal For Private &Personal use Only ( iainelibrary.org Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ व्याख्या-हे आत्मन् ! अष्टसंख्यानि कर्माण्येव पाशास्तैः 'बद्धः' संयतोऽयं 'जीवः' प्राणी 'संसारचारके' भवरूपे बन्दि-18 गृहे, 'तिष्ठति' आस्ते, अष्टकर्मपाशेभ्यो 'मुक्को' रहित आत्मा "शिवमन्दिरे' मोक्षसोधे तिष्ठति, यदा आत्मा कर्मरहितो भवति तदैकसमयेन क्षेत्रान्तरमस्पृशन् मोक्षं प्रयातीति ॥ १३ ॥ विहवो सजणसंगो, विसयसुहाई विलासललियाई । नलिणीदलऽग्गघोलिर-जललवपरिचंचलं सवं ॥१४॥ हा व्याख्या-'विभवो' धनं, तथा 'सज्जनानां पितृमातृभ्रातृभार्यादीनां, 'सङ्गः' सम्बन्धः, तथा 'विलासेन' लीलया 'ललितानि' मनोज्ञानि, 'विषयसुखानि' विषयसौख्यानि, एतत्सर्व 'नलिनीदलाने' पद्मिनीपत्रप्रान्ते, "घोलिरो” दोलनशीलो यो 'जललवः' पानीयबिन्दुस्तद्वत् 'परिचञ्चलं' अतिशयेनाऽस्थिरं, यथा नलिनीपत्रप्रान्ते जलबिन्दुः स्तोकं कालमेव तिष्ठति, वायुना शीघ्रमेव पतनात् , तथा विभवादिकं सर्वमप्यस्थिरमित्यर्थः, "घूर्णो घुल-घोल-घुम्म-पहल्लाः [८-४-११७ ]" इति [ हैम प्रा० ] सूत्रेण घूर्णधातो?ल आदेशस्ततः शीलार्थे इरप्रत्ययः ॥१४॥[अथ ] कानपि पूर्व यूनो बलाद्युपेतान् दृष्ट्वा पश्चात्तानेव जरतो गलितशरीरान् वीक्ष्योपदेशमाह तं कत्थ बलं तं कत्थ, जुव्वणं अंगचंगिमा कत्थ ?। सबमणिचं पिच्छह, दिटुं नहूँ कयंतेण ॥१५॥ व्याख्या-हे प्राणिनः ! 'तद्' इति तारुण्यावस्थायां यद् 'बलं' पराक्रममासीत् , तद्बलं तव कुत्र गतं ?, तथा तद् यौवनं' तारुण्यं कुत्र ?, तथा 'अङ्गचङ्गिमा' शरीरोत्कृष्टता, कुत्र?, तस्मात् 'कृतान्तेन' कालेन, कृत्वा 'दृष्टनष्टं' पूर्व दृष्टं| Jan Education Instmal For Private &Personal use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणविनयीयाव्याख्या। वैराग्य- IIपश्चान्नष्टमिति दृष्टनष्टं 'सर्व' समस्तं "अनित्यं' अशाश्वतं पश्यत' अवलोकयत, पूर्व यच्छरीरमेवंविधमासीत्तदेव सम्प्रति शतकम् । 18| कालेनैवंविधं विहितमिति का तत्र शरीरे आस्थेति भावः ॥ १५ ॥ ॥४॥ घणकम्मपासबद्धो, भवनयरचउप्पहेसु विविहाओ । पावइ विडंबणाओ, जीवो को एत्थ सरणं से ? ॥१६॥ व्याख्या-हे प्राणिन् ! अयं 'जीवः' प्राणी 'घनानि' प्रचुराणि, यानि कर्माणि तान्येव 'पाशा' बन्धनग्रन्थयस्तैः 'बद्धः' संयतः सन् 'भव'श्चातुर्गतिकसंसार एव नगरचतुष्पथानि, तेषु 'विविधा' अनेकप्रकाराः शरीरमनोदुःखदायिन्यो 'विटविडम्बना' विगोपनानि वधबन्धादिरूपाणि प्राप्नोति, अतः "एत्थ” एतस्मिन् , संसारे "से" तस्य प्राणिनः कः शरणं ?, यदवष्टम्भाद्विगोपनानि स न प्राप्नुयादिति ॥ १६॥ घोरंमि गम्भवासे, कलमलजंबालअसुइवीभच्छे । वसिओ अणंतखुत्तो, जीवो कम्माणुभावेण ॥ १७॥ व्याख्या-'घोरे' रौद्रे 'गर्भवासे' जनन्युदरैकदेशे अयं जीवः 'कर्मणां' शुभाशुभरूपाणां 'अनुभावेन' प्रभावेण 'अनन्तकृत्वः' अनन्तवारान् , 'उषितः' स्थितः, किम्भूते गर्भवासे ?, 'कलमलो' जठरद्रव्यसमूहः, स एव 'जम्बालः' कर्दमस्तेन 'अशुचि'रुद्धजनीय-उद्वेगकारी, 'विभत्सो' भयजनकस्तस्मिन् ॥ १७ ॥ चुलसीई किर लोए, जोणीणं पमुहसयसहस्साई। इकिमि अ जीवो, अणंतखुत्तो समुप्पन्नो ॥१८॥ ॥४॥ Jan Education Instmal For Private &Personal use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education व्याख्या - किलेत्यागमो तौ, 'लोके 'योनीनां' जीवोत्पत्तिस्थानानां चतुरशीतिः 'प्रमुखशतसहस्राणि भेदलक्षाणि, विद्यन्ते, 'जीवः' प्राणी, एकैकस्यां च योनावनन्तवारान् समुत्पन्नः ॥ १८ ॥ मायापियबंधूहिं, संसारत्थेहिं पूरिओ लोओ । बहुजोणिनिवासीहिं, न य ते ताणं च सरणं च ॥ १९ ॥ व्याख्या - 'बहुयोनि निवासिभिश्चतुरशीतिलक्षप्रमाणयोनिवासिभिः 'संसारस्यै' र्भवस्थितैर्मातापितृबन्धुभिरयं लोकः 'पूरितो' भृतः, अमी जन्तवः सर्वेऽपि कदाचिन्मातृत्वेन कदाचित्पितृत्वेन कदाचिद्वन्धुत्वेन जाता इति, न च ते संसांरस्था मात्रादयस्त्राणं भवन्ति, आपत्तरणसमर्थं त्राणमुच्यते, यथा महास्रोतोभिरुह्यमाणः सुकर्णधाराधिष्ठितं प्लव (पोत ) - मासाद्याऽऽपस्तरतीति न च ते शरणं भवन्ति, शरणं पुनर्यदवष्टम्भान्निर्भयैः स्थीयते, तत्पुनदुर्ग पर्वतः पुरुषो वेति, तथाऽत्र न कश्चिदस्तीति उक्तं च - " जन्मजरामरणभयै-रभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवचनादन्यत्र तु नास्ति [च] शरणं वचिल्लोके ॥ १ ॥” ॥ १९ ॥ जीवो वाहिविलुत्तो, सफरो इव निजले तडप्फडए । सयलो वि जणो पिच्छर, को सक्को वेयणाविगमे ? ॥ २० ॥ व्याख्या - जीवो 'व्याधिभी' रोगैः 'विलुप्तोऽभिगुतो 'निर्जले' जलरहितप्रदेशे 'शफर इव' मत्स्य इव " तडफडए "त्ति आकुली भवति, तथाविधं रोगैः पीड्यमानं जनं सकलोऽपि जनः 'पश्यति' अवलोकते, परं तस्य 'वेदनायाः' पीडाया, 'विगमे' विनाशे, कः पुरुषः 'शक्तः' समर्थः ?, अपि तु न कोऽपि तत्पीडामपगमयतीत्यर्थः ॥ २० ॥ ronal ainelibrary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य गुणविनयीया व्याख्या। मा जाणसि जीव ! तुमं, पुत्तकलत्ताइँ मज्झ सुहहेऊ । निउणं बंधणमेयं, संसारे संसरंताणं ॥ २१॥ | शतकम्। ___ व्याख्या-हे 'जीव !' आत्मन् !, त्वं'मा जानीहि' माऽवबुध्यस्व, यथा मम पुत्रकलत्रादिः सुखहेतुर्भविष्यति, तर्हि | |किं जाने ? इत्याह-'संसारे' भवे 'संसरतां' नारकतिर्यग्भवादिरूपेण पर्यटतां जीवानामेतत् पुत्रकलत्रादिकं निपुणं' गाढं बन्धनं, एतद्वन्धनबद्धा एव जन्तवः संसारे तिष्ठन्तीत्येवं जानीहीति भावः॥२१॥ जणणी जायइ जाया, जाया माया पिया य पुत्तो य । अणवत्था संसारे, कम्मवसा सबजीवाणं ॥ २२॥ व्याख्या-हे प्राणिन् ! संसारे 'कर्मवशात्' कर्मपरतन्त्रतया, 'सर्वजीवानां' सकलप्राणिनां, 'अनवस्था' अनैयत्यं, ताहामेवाऽऽह-या 'जननी' माता, सैव भवान्तरे 'जाया' पत्नी 'जायते' उत्पद्यते, या जाया सा माता जायते, तथा कर्मवदशात् पिता च पुत्रो भवति , च शब्दात्पुत्रश्च पिता भवति, अतोऽनवस्थैव, यदा जननी जनन्येव जाया जायैव भवान्त रेऽपि भवेत्तदाऽवस्था-नैयत्यं भवेत् , तथा नास्ति, अतोऽनवस्था, तथा चोक्तं श्रीमद्भगवत्यां-"अयं णं भंते ! जीवे सबजीवाणं मातित्ताए पियत्ताए भाइत्ताए भगिणित्ताए भजत्ताए पुत्तत्ताए धुतत्ताए सुहृत्ताए उववण्णपुवे ?, हंता गोयमा ! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो । सबजीवा वि णं भंते ! इमस्स जीवस्स मातित्ताए जाव उववण्णपुवा ?, हंता गोयमा! जाव अणंतखुत्तो । अयं णं भंते ! जीवे सबजीवाणं अरित्ताए वरियताए घातयत्ताए वहगत्ताए पडिणीयत्ताए पच्चोमित्त १ असकृत्-अनेकशः । २ अथवा । ३ अनन्तकृत्वः-अनन्तवारान् । ४ सामान्यतः शत्रुभावेन । ५ वैरिकः-शत्रुभावानुबन्धयुक्तस्तत्तया। ६ मारकतया । ७ व्यथकतया-ताडकतयेत्यर्थः। ८ प्रत्यनीकतया-कार्योपघातकतया। ९ अमित्रसहायतया । [इति वृत्तौ श्रीमद्भय देवसूरिमिधाः]। - Jain Educatio n al For Private &Personal use Only 150 mainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताए उववण्णपुवे ?, हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो । सबजीवा वि णं भंते!, एवं चेव । अयं णं भंते ! जीवे सबजीवाणं रायत्ताए जुवरायत्ताए जाव सत्थवाहत्ताए उबवण्णपुवे?, हंता गोयमा ! असई जाव अणंतखुत्तो । सबजीवा वि णं एवं चेव । अयं णं भंते ! जीवे सबजीवाणं दासत्ताए पेसत्ताए भयगत्ताए भातिल्लंगत्ताए भोगपुरिसत्ताए सीसत्ताए वेसत्ताए उववण्णपुवे ?, हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो । एवं सबजीवा वि अणंतखुत्तो” (इति) द्वादशशतके सप्तमोद्देशके ॥२२॥ न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुया जत्थ, सबे जीवा अणंतसो ॥२३॥ व्याख्या-संसारे सा 'जातिः' क्षत्रियादिन, तथा सा 'योनि'जीवोत्पत्तिस्थानं न, तथा तत् 'स्थानं' आकाशक्षेत्रं न, तथा चोक्तं श्रीभगवत्यां-"एयंसि णं भंते ! महालगंसि लोगंसि अत्थि भंते ! केती परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे ण जाते न मते वा वि ?, गोयमा ! णो तिणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति ?, एयंसि णं ए महालयंसि लोगंसि णस्थि केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे ण जाते ण मते वा वि?, गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे अयासयरस एग महं अयावयं करेजा, से णं तत्थ जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा उक्कोसेणं अयासंहस्सं गृहदासीपुत्रतया । २ प्रेष्यतया-आदेश्यतया । ३ भृतकतया-दुष्कालादौ पोपिततया । कृष्यादिलाभस्य भाग ग्राहकतया । ५ अन्यैरुपार्जितार्थानका भोगकारिनरतया । ६ शिक्षणीयतया । ७ द्वेप्यतयेति । ८ षष्टयाश्चतुर्थ्यर्थत्वात् , अजाशताय । ९ अजाब-अजावाटकम् । १. यदिहाऽजाशतप्रायोग्ये वाटके उत्कृष्टेणाऽजासहस्रप्रक्षेपणमभिहितं तत्तासामतिसङ्कीर्णतयाऽवस्थानण्यापनार्थम् । [इति वृत्तौ श्रीमद्भयदेवसूरिपूज्याः] । Jan Education R ental For Private &Personal use Only ininelibrary. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् । TUR पक्खिवेजा, ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणियातो जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे त गुणविनपरिवसेजा, अत्थि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केती परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जेणं तासिं अयाणं उच्चारेण वा पास यीयावणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूएण वा सुक्केण वा सोणिएण वा चम्मेहिं वा रोमेहिं वा|| व्याख्या। सिंगेहिं वा खुरेहिं वा पहेहिं वा अणकंतपुवे भवति ?, भगवं ! णो तिणढे समढे, होज्जा वि णं गोतमा! तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जे णं तासिं अयाणं उच्चारेण वा जाव नहेहिं वा अणकंतपुबे, णो चेव णं एयंसि7 ए महालयंसि लोगंसि, लोगस्स य सासयं भावं संसारस्स य अणादिभावं जीवस्स य णिच्चभावं कम्मबहुत्तं जम्मणमरणबाहुलं च पडुच्च णत्थि केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पदेसे जत्थ णं अयं जीवे ण जाते वा ण मते वा वि, से तेणद्वेणं तं चेव जाव ण मते वा वि" (इति ) द्वादशशते सप्तमोद्देशके, तथा तत्कुलमुग्रादि न, यत्र जात्यादिषु सर्वे जीवा 'अनन्तशो' अनन्तवारान् 'न जाता' नोत्पन्ना, 'न मृता' न परासुत्वं प्राप्ता इति, एतावता व्यवहारराशिमुपगतानां येषां जीवानामनन्तः कालो वृत्तो विद्यते तेषां सर्वेष्वपि जात्यादिषु अनन्तश उत्पत्तिातैव भविष्यतीति सम्भाव्यते, पुनरेतदभिप्रायं बहुश्रुता एव विदन्तीति ॥ २३ ॥ तं किंपि नत्थि ठाणं, लोए वालऽग्गकोडिमित्तं पि । जत्थ न जीवा बहुसो, सुहदुक्खपरंपरं पत्ता ॥ २४ ॥ व्याख्या-हे प्राणिन् ! लोके तत्किमपि 'बालाग्रकोटिमानं' केशाग्रप्रान्तमात्रमपि 'स्थानं' क्षेत्रं नास्ति, बह्वास्तां, यत्र | १ प्रचुरचरणभूमयः प्रचुरपानीयाश्च, अनेन च तासां प्रचुरमूत्रपुरीषसंभवो बुभुक्षापिपासाविरहेण सुस्थतया चिरंजीवित्वं चोक्तम् । [ इति वृत्तौ ] । Jan Education na IDH For Private &Personal use Only M inelibrary.org Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालाग्रकोटिमात्रेऽपि स्थाने 'बहुशो' बहून् वारान् 'जीवाः' प्राणिनः, 'सुखदुःखपरम्परां' सातासातपरिपाटी, न प्राप्ताः, एतावता जीवाः कर्मवशगाः सर्वत्र कदाचित्सुखं कदाचिदुःखं प्रापुरित्यर्थः ॥ २४ ॥ सवाओ रिद्धीओ, पत्ता सवे वि सयणसंबंधा । संसारे ता विरमसु, तत्तो जइ मुणसि अप्पाणं ॥२५॥ । व्याख्या-हे आत्मन् ! संसारे पर्यटता भवता सर्वा 'ऋद्धयः' सम्पदः, प्राप्ता, अपि शब्दश्चार्थश्च पुनस्त्वया सर्वे स्वजनसम्बन्धा मातापितृभ्रात्रादिभेदभिन्नाः प्राप्ताः, यतो "मातापितृसहस्राणि, पुत्रदारशतानि च । युगे युगे व्यतीतानि, मोहस्तेषु न युज्यते ॥१॥" अयुक्तत्वं च "दाराः परिभवकारा, बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः। कोऽयं जनस्य मोहो ?, ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥२॥" "ता” इति तस्मात्कारणात् यद्यात्मानं सुखिनं भवन्तं जानासि तदा तदृद्धिस्वजनसम्ब-1 न्धेभ्यो 'विरमस्व' निवर्तस्व, विरतेः सुखकारणत्वादिति ॥२५॥ एगो बंधइ कम्म, एगो वहबंधमरणवसणाई। विसहइ भवंमि भमडइ, एगुचिय कम्मवेलविओ॥ २६॥ । व्याख्या-एक एव' असहाय एव जीवः 'कर्म' ज्ञानावरणीयादि, 'बध्नाति' आत्मना सह संश्लिष्टं करोति, तथा एक एव भवान्तरे 'वध'स्ताडनं, 'बन्धो' रज्वादिना संयमनं, 'मरणं' प्राणच्यवनं, 'व्यसनं' आपत् , ततो वधश्च बन्धश्च हमरणं च व्यसनं च, तानि 'विषहते' अनुभवति, वधबधादिकं नरकादौ प्राप्नोतीत्यर्थः, तथा एक एव कर्मभि"लविओ" त्ति वञ्चितः-पुण्यकरणाद्विपलब्धः सन् 'भवे' संसारे भ्रमति, वञ्चेबेलवादेशो भवति ॥ २६ ॥ SANSKALCRECAMANACANCIEO Jan Education total For Private &Personal use Only Mainelibrary.org Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम्। गुणविनयीयाव्याख्या। ॥७॥ सरकार अन्नो न कुणइ अहियं, हियं पि अप्पा करेइ न हु अन्नो । अप्पकयं सुहदुक्खं, भुंजसि ता कीस दीणमुहो? २७/ ___ व्याख्या-हे प्राणिन् ! 'अहितं' अनिष्टं वधबन्धादिकं अन्यः कोऽपि न कुरुते, यथाऽनेनाऽहं ताडित इत्यादि परकृतं मा चिन्तयेति भावः, तथा 'हितमपि' इष्टमप्यात्मनः सुखकारणकदम्बकं आत्मैव करोति, 'हुर्निश्चये, नैव 'अन्यः' परः करोति, "ता" इति तत, 'आत्मकृतं' आत्मना शुभाशुभकर्मप्रेरितेन 'कृतं' विहितं, सुखदुःखं 'भुनक्षि' अनुभवसि, ततः ६ कस्माद् 'दीनमुखो' विच्छायवदनः ?, यदि परेण किञ्चिदिष्टमनिष्टं वा कृतं स्यात्तदा तव तयोरुपरि रागद्वेषकरणमुचितं दा स्यात् , परं स्वात्मैव सर्व करोतीति, तथा चोक्तं श्रीउत्तराध्ययनेषु २०-"अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणु, अप्पा मे नंदणं वणं ॥१॥ अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुक्खाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठियसुपढिओ ॥२॥" ॥२७॥ बहुआरंभविढत्तं, वित्तं विलसंति जीव ! सयणगणा । तजणियपावकम्मं, अणुभवसि पुणो तुमं चेव ॥ २८॥ ___ व्याख्या-हे 'जीव !' आत्मन् !, त्वया 'बहुना आरम्भेण' कृष्यादिरूपेण, "विढत्तं" उपार्जितं 'वित्तं धनं 'स्वजनगणाः पितृमातृभ्रातृपुत्रादयो 'विलसन्ति' अनुभवन्ति-तत्फलभोक्तारो भवन्तीति भावः, तेन आरम्भेण 'जनितं' उत्पा|दितं 'पाप' अशुभप्रकृतिरूपं 'कर्म' ज्ञानावरणीयादि, त्वमेव एककः पुनर्नरकादौ, आर्षवचनत्वाद् "वर्तमानसामीप्ये | वर्तमानवद्वे"ति वचनाद्वा भविष्यति वर्तमाना[देशः], 'अनुभविष्यसि' तत्फलस्वाद लप्स्यसे इत्यर्थः ॥२८॥ Jan Educatio n al For Private & Personal use only Tanlibraryorg Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAROSACRICALE अह दुक्खियाई तह भु-क्खियाइँ जह चिंतियाइँ डिभाई। तह थोवं पिन अप्पा, विचिंतिओ जीव ! किं भणिमो? ॥ २९ ॥ 81 व्याख्या-हे आत्मन् ! त्वया यथा मोहवशगेन 'डिम्भा' बाला अथ 'दुःखिताः' शीतत्राणाद्यभावेन पीडिता वर्तन्ते, तथा 'वुभुक्षिताः' क्षुधिता वर्तन्त इति 'चिन्तिता' अहर्निशं तच्चिन्ताकुलिततया विचारिताः, परं हे जीव ! त्वया 'स्तोकमपि' अल्पमपि 'आत्माऽकृतपुण्यः परलोके कथं भविष्यतीत्येवं न विचिन्तितोऽतस्त्वां 'किं भणामः' किं वच्मः?, योग्यस्यैवोपदेशार्हत्वात् , त्वं च परार्थचिन्तको जातो, न स्वार्थचिन्तक, इत्यतो मूर्खः, "स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खते"ति वचनात् ॥२९॥ है। खणभंगुरं सरीरं, जीवो अण्णो य सासयसरूवो । कम्मवसा संबंधो, निबंधो इत्थ को तुज्झ ? ॥३०॥ व्याख्या-हे आत्मन् ! इदं शरीरं 'क्षणभङ्गर' क्षणविध्वंसि, यत उक्तं श्रीआचारांगे[लोकसाराध्ययने द्वितीयो। शके ] "भेउरधम्म विद्धंसणधम्म अधुवं अणितयं असासयं चयावचइयं विपरिणामधम्म"मित्यादि, एतद्दीका "अपि चैतदौदारिकं शरीरं सुचिरमप्यौषधरसायनाद्युपबृंहितं मृण्मयाऽऽमघटादपि निस्सारतरं सर्वथा सदा विशराविति दर्शयनाह-"भेउरधम्म" मित्यादि, यदि वा पूर्व पश्चादप्येतदौदारिक शरीरं वक्ष्यमाण धर्मस्वभावमित्याह-"भेउरधम्म” मित्यादि, स्वयमेव भिद्यत इति भिदुरः, स धर्मोऽस्य शरीरस्येति भिदुरधर्ममिदमौदारिकं शरीरं सुपोषितमपि वेदनोद-1 TODanceHOP Jan Education Instmal For Private &Personal use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणविनयीयाव्याख्या। वैराग्य याच्छिउदरचक्षुरुरःप्रभृत्यवयवेषु स्वत एव भिद्यत इति भिदुरं, तथा 'विध्वंसनधर्म' पाणिपादाद्यवयवविध्वंसनात्, तथा अवश्यम्भावसम्भावितं त्रियामान्ते सूर्योदयवद् ध्रुवं, न तथा यत् तदध्रुवं, तथा अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया शतकम्। कूटस्थ नित्यत्वेन व्यवस्थितं सन्नित्यं, नैवं यत्तदनित्यमिति, तथा तेन तेन रूपेणोदकधारावच्छश्वद्भवतीति शा-8 विश्वतं, ततोऽन्यदशाश्वतं, तथेष्टाहारोपभोगतया धृत्युपष्टम्भादौदारिकशरीरवर्गणापरमाणूपचयाच्चयस्तदभावेन तद्विचटना दपचयः, चयापचयौ विद्येते यस्य तच्चयापचयिकं, अत एव विविधः 'परिणामो' अन्यथाभावात्मको 'धर्मः' स्वभावो यस्य तद्विपरिणामधर्म" [इति सिद्ध. सा०प्र० स० मुद्रिते १८७ पत्रे ], यतश्चैवम्भूतमिदं शरीरकं, तथा 'शाश्वतस्वरूपो' अप्रच्युतानुत्पन्नस्वरूपो 'जीव' आत्मा 'अन्यः' शरीराद् भिन्नस्तदपगमे तदनपगमात् , तर्हि परस्परं विभेदे अनयोः शरीरात्मनोः परस्परं सम्बन्धः कथं? इत्याह-'कर्मवशात् कर्मपरतन्त्रतयाऽनयोः 'सम्बन्धः' संयोगः, अतस्तवाऽस्मिन् शरीरे को 'निर्बन्धः' अनुवन्धः-का मूच्छी ?, उक्तं च-"मंसऽट्ठिरुहिरण्हारू-वणद्धकलमलयमेयमज्जासु । पुणमि चम्मकोसे, दुग्गंधे असुइबीभच्छे ॥१॥ संचारिमजंतगलं-तवच्चमुत्तंतसययपुण्णमि । देहे होज्जा ? किं रा-गकारणं असुइहेउम्मि |॥२॥” अतः शरीरेऽनुबन्धं परित्यज्य किश्चिद्धर्मे उद्यम कुर्विति भावः ॥ ३०॥ कह आयं कह चलियं, तुम पि कह आगओ कहं गमिही । अनुन्नं पि न याणह, जीव ! कुटुंबं कओ तुज्झ ? ३१ | व्याख्या-हे जीव !, आत्मन् ! इदं 'कुटुम्ब' मातृपितृभ्रात्रादि कुत आगतं ?, तथा 'कुत्र चलितं' इतो मृत्वा कुत्र Jain Educatio n al For Private &Personal use Only Halhiainelibrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क गतं ?, त्वमपि कुत आगतः कुत्र गमिष्यसीति 'अन्योऽन्यमपि' परस्परमपि युवां 'न जानीथे' न बुध्येथे, यत उक्तं श्रीआचाराङ्गे [शस्त्रपरिज्ञाऽध्ययने प्रथमोद्देशके ] "इह मेगेसिं णो सन्ना भवति, तं जहा-पुरच्छिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पञ्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहो दिसाओ वा आगओ अहमंसि, अन्नयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि । एवमेगेसिंणो नातं भवति-अस्थि मे आया उववाइए, णस्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी? केवा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि ?, से जं पुण जाणेज्जा सहसंमदियाए परवागरणेणं अण्णेसिं वा सोचा" इत्यादि, अतस्तव कुतः कुटुम्बं ?, परस्परमपि गमनागमनाद्यनवगमात् ॥ ३१॥ खणभंगुरे सरीरे, मणुयभवे अब्भपडलसारिच्छे। सारं इत्तियमेत्तं, कीरइ सोहणो धम्मो ॥ ३२ ॥ व्याख्या-हे आत्मन् ! 'शरीरे' देहे क्षणभङ्गरे' क्षणं क्षणं विशरारुणि, तथा मनुष्यभवे 'अभ्रपटलसदृक्षे' मेघसमूह-17 समाने, वायुना शीघ्रमेव यथाऽभ्रवृन्दं विनश्यति तथाऽयं मनुष्यभवोऽपि देवभवाद्यपेक्षया अल्पकालावस्थायी, अतोऽत्र 8 'एतावन्मात्र मियत्प्रमाणमेव 'सारं' न्याय्यं-न्यायोपपेतं-युक्तमित्यर्थः, यत् 'शोभनः' पञ्चाश्रवाद्विरतिरूपो 'धर्मो' जिनप्रणीतः क्रियते, "सारं तु द्रविणन्याय्यवारिपु” इत्यनेकार्थः ॥ ३२॥ जम्मवृक्खं जरादुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो! दक्खोह संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो॥ ३३ ॥ JanEducabonrnprnal For Private & Personal use only lainbrary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य व्याख्या-अहो ! इति जीवसम्बोधने आश्चर्ये वा, संसारे पर्यटतां जन्तूनां तन्नाऽस्ति यदुःखरूपं न, तथाहि-जन्म- लागुणविनशतकम्। दुःखं, दुःखहेतुत्वादुःखं, तथा चोक्तं-"सूईहिं अग्गिवण्णाहिं, संभिण्णस्स निरंतरं । जारिसी वेयणा होइ, गम्भे अट्ठ-1 यीया गुणा तहा ॥१॥ अइविस्सरं रसंतो, जोणीजताउ कहवि निष्फडइ । माऊइ अप्पणो वि य, वेयणमउलं जणेमाणो व्याख्या। ॥९॥ ॥२॥ जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरइ जाइमप्पणो ॥३॥” तथा 'जरा' वयोहानिदुःखं, तथा चोक्तं-"थरहरइ जंघजुयलं, झिज्जइ दिट्ठी पणरसइ सुई वि । भज्जइ अंगं वाए-ण होइसिं भो विअइपउरो ॥१॥ लोयंमि अणाइज्जो, हसणिज्जो होइ सोअणिज्जो उ । चिट्ठइ घरस्स कोणे, पडिओ मंचंमि कासंतो M॥२॥ बुडत्तणमि भज्जा, पुत्ता धूआ य बहुजणो वा वि । जिणदत्तसारगस्स व, पराभवं कुणइ अइदुसहं ॥ ३ ॥” तथा चोक्तं श्रीआचाराङ्गे- लोकविजयाध्ययने प्रथमोद्देशके] "जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वि णं एगया नियगा तं पुधिं परिहवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवएज्जा, नालं ते तव ताणाए सरणाए वा, तुमं पि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा" * एतट्टीका-" वा शब्दः पक्षान्तरद्योतकः, आस्तां तावदपरे लोका, यैः पुत्रकलत्रादिभिः 'साई' सह, संवसति त एव भार्यापुत्रादयो, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, 'एकदेति वृद्धावस्थायां "नियगा"आत्मीया, ये तेन समर्थावस्थायां पूर्वमेव पोषितास्ते तं 'परिवदन्ति' परि-समन्ताद्वदन्ति-यथाऽयं न घियते नाऽपि मञ्चकं ददाति, यदि वा 'परिवदन्ति' परिभ-18 वन्तीत्युक्तं भवति, अथवा किमनेन वृद्धेनेत्येवं परिवदन्ति, न केवलमेषां, तस्याऽऽत्माऽ[शरीरम]पि तस्यामवस्थायामव-| गीतो भवतीति, आह च-"वलिसंततमस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुधृतं कडेवरम् । स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ता Jain Educati onal For Private & Personal use only AM .jainelibrary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education कमनीयविग्रहा ? ॥ १ ॥” गोपालवालाङ्गनादीनां च दृष्टान्तद्वारेणोपन्यस्तोऽर्थो बुद्धिमधितिष्ठतीत्यतस्तदा विर्भावनाय कथानकं - कौशाम्ब्यां नगर्यामर्थवान् बहुपुत्रो धनो नाम सार्थवाहस्तेन चैकाकिना नानाविधैरुपायैः स्वापतेयमुपार्जितं, तच्चाऽशेषदुःखितबन्धुजनस्वजन मित्रकलत्र भ्रातृपुत्रादिभोग्यतां निन्ये, ततोऽसौ कालपरिपाकवशाद् वृद्धभावमुपगतःसन् पुत्रेषु सम्यक् पालनोपचितकलाकुशलेषु समस्तकार्य चिन्ताभारं निचिक्षेप, तेऽपि 'वयमनेनेदृशीमवस्थां नीताः सर्वजनाग्रेसरा विहिताः ( कृता )' इति स्मृतोपकाराः सन्तः कुलपुत्रतामवलम्बमानाः स्वतः क्वचित्कार्यव्यासंगात्स्वभार्याभिस्तमकल्पं वृद्धं प्रत्यजीजागरत् ता अप्युद्वर्तनस्नानभोजनादिना यथाकालमक्षूणं विहितवत्यस्ततो गच्छत्सु दिवसेषु वर्धमानेषु पुत्रभाण्डेषु प्रौढीभवत्सु भर्तृषु जरवृद्धे च विवशकरणपरिचारे सर्वाङ्गकम्पिनि गलदशेषस्रोतसि सति शनैः शनैरुचितमुपचारं शिथिलतां निन्युः, असावपि मन्दप्रति जागरणतया चित्ताभिमानेन विस्रसया च सुतरां दुःखसागरावगाढः सन् पुत्रेभ्यः स्नुषाक्षूणान्याचचक्षे, ताश्च स्वभर्तृभिश्चेखिद्यमानाः सुतरामुपचारं परिहृतवत्यः, यत उक्त - "अइतजणा न कीर, पुत्तकलत्तेसु भित्तमित्तेसु । दहियं पि महिज्जंतं, चयइ सिणेहं न संदेहो ॥ १ ॥ ततस्ताः सर्वाश्च पर्यालोच्यैकवाक्यतया स्वभर्तुनभिहितवत्यः- क्रियमाणेऽप्ययं प्रतिजागरणे वृद्धभावाद्विपरीतबुद्धितयाऽपह्नुते, यदि भवतामप्यस्माकमुपविस्रम्भस्ततोऽन्येन विश्वसनीयेन निरूपयत, तेऽपि तथैव चक्रुः, तास्तु तस्मिन्नवसरे सर्वा एव सर्वाणि कार्याणि यथाऽवसरं विहितवत्यः, असावपि पुत्रैः पृष्टः पूर्वविरूक्षित चेतास्तथैव ता अपवदति - नैता मम किञ्चित्सम्यक्कुर्वन्ति, तैस्तु प्रत्ययिकवच १ न्यूनतारहितम् । onal jainelibrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम्। गुणविनयीयाव्याख्या। ह नादवगततत्त्वैर्यथाऽयमुपचर्यमाणोऽपि वार्धक्याद्रोरुद्यते [इति प्रत्ययितं ], ततस्तैरप्यवधीरितोऽन्येषामपि यथाऽवसरे ते तद्भण्डनस्वभावतामाचचक्षिरे, ततोऽसौ पुत्रैरवधीरितः स्नुषाभिः परिभूतः परिजनेनाऽवगीतो वामात्रेणाऽपि केनचिदप्य- ननुवय॑मानः सुखितेषु दुःखितः कष्टतरामायुःशेषामवस्थामनुभवतीति, एवमन्योऽपि जराभिभूतविग्रहस्तृणकुजीकरणेऽप्यसमर्थः सन् कार्यकनिष्ठलोकात्परिभवमामोतीति, आह च-"गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता दन्ताश्च नाशं गता, दृष्टिश्यति रूपमेव इसते वकं च लालायते । वाक्यं नैव करोति वान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते, धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुष पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥ १॥” इत्यादि, तदेवं जराऽभिभूतं निजाः परिवदन्ति । असावपि परिभूयमानस्तद्विरक्तचेतास्तदपवादान् जनायाऽऽचष्टे, आह च-"सो वा” इत्यादि, वा शब्दः पूर्वापेक्षया पक्षान्तरं दर्शयति, ते वा निजास्तं परिवदन्ति, स वा जराजर्जरितदेहस्तान् निजाननेकदोषोद्धट्टनतया परिवदेन्निन्देद्, अथवाऽविद्यमानार्थतया तानसाववज्ञायति परि भवतीत्यर्थः, येऽपि पूर्वकृतधर्मवशात्तं वृद्धं न परिवदन्ति, तेऽपि तदुःखापनयनसमर्था न भवन्तीत्याह च-नाऽल8/मित्यादि, 'नाऽलं' न समर्थास्ते पुत्रकलत्रादयस्तवेति प्रत्यक्षभावमुपगतं वृद्धमाह-त्राणाय शरणाय वेति, तत्राऽऽपत्तरण समर्थ त्राणमुच्यते, यथा महाश्रोतोऽभिरुह्यमानः सुकर्णधाराधिष्ठितं प्लबमासाद्याऽऽपस्तरतीति, शरणं पुनर्यदवष्टम्भानिर्भयैः स्थीयते तदुच्यते, तत्पुनर्दुर्ग पर्वतः पुरुषो वेति, एतदुक्तं भवति-जराभिभूतस्य न कश्चित्राणाय शरणाय वा, त्वमपि तेषां नाऽलं त्राणाय शरणाय वेति” । तथा रोगाश्च दुःखं, तथा चोक्तं श्रीआचारङ्गे [धूताख्येऽध्ययने प्रथमोद्दे ॥१०॥ १ असेव्यमानः । JainEducationinter For Private & Personal use only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शके ] " गंडी' अदुवा कोढी', रायंसी अवमारियं । कोणियं झिमियं चेव, कुणियं खुज्जियं तहा ॥१॥ उदरिं च पास. मूयं च, सूणियं च गिलासणिं । वेवइयं पीढंसप्पिं च, सिलिवयं मधुमेहणं ॥२॥ सोलस एए रोगा, अक्खाया अणुपुवसो । अह णं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा ॥३॥" तथा मरणानि च दुःखं, अनेकभवमरणापेक्षया बहुवचनं, यदुक्तं-"आउं संविल्लतो, सिढिलंतो बंधणाई सवाई। देहदिई मुयंतो, झायइ कलुणं बहुं जीवो ॥१॥ इकं पि नत्थि "वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजं चतुर्दा गण्डं, तदस्यास्तीति गण्डी-गण्डमालावानित्यादि । अथवेत्येतत्प्रति रोगमभिसम्बध्यते। २ तथा 'कुष्टी' कुष्ठमष्टादशभेदं, तदस्यास्तीति कुष्टी । ३ राजांसो-राजयक्ष्मा, सोऽस्यास्तीति राजांसी-क्षयीत्यर्थः। ४ अपस्मारो वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजत्वाच्चतुर्दा, तद्वानपगतसदसद्वि|वेको भ्रममूछादिकामवस्थामनुभवति प्राणीति । ५ अक्षिरोगः-एकाक्षिकत्वादि। ६ जाड्यता-सर्वशरीरावयवानामवशित्वमिति । ७ गर्भाधानदोषाद् हस्बैक|पादो न्यूनैकपाणिवी कुणिः। ८ कुछ पृष्टादावस्यास्तीति कुजी, मातापितृशोणितशुक्रदोषेण गर्भस्य दोषोद्भवाः कुलवामनकादयो दोषा भवन्तीति । ९ वा| तपित्तादिसमुत्थमष्टधोदरं तदस्यास्तीत्युदरी, तत्र जलोदर्यसाध्यः, शेषास्वचिरोस्थिताः साध्या इति । १० "पास मूयं च"त्ति पश्य-अवधारय मूकं मन्मनभाषिणं वा, गर्भदोषादेव जातं तदुत्तरकालं च । ११ शूनत्वं-ध्वयधुर्वातपित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिधातजोऽयं षोढेति । १२ "गिलासणि"ति भस्म| को व्याधिः, स च वातपित्तोत्कटतया श्लेष्मन्यूनतयोपजायत इति । १३ वातसमुत्थः शरीरावयवानां कम्प इति । १४ जन्तुर्गभंदोषात् पीठसर्पित्वेनोत्पपद्यते, जातो वा कर्मदोषाद् भवति । १५श्लीपद-पादादौ काठिन्यं, तद्यथा-प्रकुपितवातपित्तश्लेष्माणोऽधःप्रपन्नावद्धणो(वंक्षो)रुजङ्घास्ववतिष्ठमानाः | कालान्तरेण पादमाश्रित्य शनैः शनैः शोफमुपजनयन्ति तच्छलीपदामित्याचक्षते-"पुराणोदक मिष्टाः, सर्वत्र्तषु च शीतलाः । ये देशास्तेषु जायन्ते, श्लीपदानित | विशेषतः ॥१॥ पादयोई स्तयोश्चापि, श्लीपदं जायते तृणाम् । काष्ठनाशास्वपि च, केचिच्छिन्दन्ति तद्विदः ॥ २॥"। १६ मधुमेहो-बस्तिरोगः, स विद्यते हायस्थासौ मधुमेही, मधुतुल्यप्रस्राववा नित्यर्थः" । [इति टीकायां शीलादाचार्य मिथाः] । Jan Educaton n al For Private &Personal use Only MIMiainelibrary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य जं सु, सुचरियं जह इमं बलं मज्झ । को नाम दढक्कारो, मरणंते मंदपुन्नस्स ॥ २॥" तथा "कथं दुष्कृतकर्माणः, सुख-15 गुणविनशतकम्। दारात्रिषु शेरते ? । मरणान्तरिता येषां, नरके तीब्रवेदना ॥१॥" तथा-"सबे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिजिउं। यीयातम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वञ्जयंति णं ॥१॥" [ दश० अ० ६ गाथा ११], एतदधिकृत्येव भगवताऽप्याचाराने व्याख्या। ॥११॥ SI सम्यक्त्वाख्येऽध्ययने प्रथमोद्देशके ] उक्तं -“से बेमि जे य अतीया जे य पडुप्पण्णा जे आगमिस्सा अरहंतो भगवतो ते सवे एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेति एवं परूवेंति-सबे पाणा सवे भूया सबे जीवा सबै सत्ता न हंतवा, न आणावेतवा, न परिघेतवा, न परितावेतवा, न उद्दवेतवा, एस धम्मे सुद्धे णितिए सासए समिच्च लोयं खेदन्नेहिं पवेदिते" एतावता 'न हन्तव्या' इत्यादि कथनेन तेषां मरणं दुःखकरमिति ज्ञापितं, ततः किमित्याह-“दुक्खो हु"त्ति दुःखहेतुरेव |संसारो जन्मादिनिबन्धनत्वात्तस्य, यत्र चातुर्गतिके संसारे प्राणिनः 'क्लिश्यन्ते' बाधामनुभवन्ति, "जन्मादि दुःखैरेवेति गम्यं, यद्वाऽनेके द्रव्योपार्जनाद्यर्थ क्लिश्यन्ते, यदुक्तं- 'अर्थानामर्जनेदुःख-मर्जितानां च रक्षणे। आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थं दुःखसाधनम् ॥ १॥" ॥ ३३ ॥ जाव न इंदियहाणी, जाव न जरारक्खसी परिप्फुरइ । जाव न रोगवियारा, जाव न मन्चू समुल्लियइ ॥ ३४॥ ___ व्याख्या- हे आत्मन् ! यावद् 'इन्द्रियाणां' श्रोत्रादीनां हानिः' स्वस्वविषयग्रहणप्रतिघातो न जातोऽस्ति, तथा या- ॥११॥ विच्छरीरे जरैव राक्षसी, शरीरसर्वस्वग्रसनात् , 'न परिस्फुरति' नाऽऽगच्छति, तथा यावदू 'रोगाणां' व्याधीनां, 'विकारा' ASAISISSA SIS Jan Education Instmal For Private & Personal use only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असद्रूपाः समुल्लासा न वर्तन्ते, तथा यावन् 'मृत्युः' कालो, न समाश्लिष्यति न मरणं जायते तावद्ध में उद्यमं कुर्वित्यर्थस्तथा चोक्तं भर्तृहरिणा - " यावत्स्वस्थ मिदं कलेवरगृहं यावज्जरा दूरतो यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नाऽऽयुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयलो महान्, प्रोद्दीप्ते भवने हि कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः १ ॥ १ ॥” ॥ ३४ ॥ जह गेहंमि पलित्ते, कूवं खणिउं न सक्कए कोइ । तह संपत्ते मरणे, धम्मो कह कीरए ? जीव ! ॥ ३५ ॥ व्याख्या- यथा गेहे 'प्रदीप्ते' अग्निप्रकोपे जाते सति कोऽपि कूपं खनितुं न शक्नोति' न समर्थो भवति, तथा 'मरणे' परलोकगमने, 'सम्प्राप्ते' आसन्ने जाते हे 'जीव !' आत्मन् ! धर्मः कथं क्रियेत ?, यदा धर्मस्य करणावसरोऽभूत्तदा न कृतः, सम्प्रति मृत्यूत्सङ्गगतः किं विधास्यसीति भावः ॥ ३५ ॥ रूवमसासयमेयं, विजुलयाचंचलं जए जीयं । संज्ञाणुरागसरिसं, खणरमणीयं च तारुण्णं ॥ ३६ ॥ व्याख्या - हे आत्मन् ! एतद्रूपं' शरीरसौन्दर्य अशाश्वतं शश्वद्भवतीति शाश्वतं न शाश्वतमशाश्वतमनित्यं, रोगादिभिः कारणैरस्य विनाशात्सनत्कुमारचक्रवर्त्त्यादेरिव तथा चोक्तं - "थोवेण वि सप्पुरिसा, सणकुमारुव केइ बुज्झति । | देहे खणपरिहाणी, जं किर देवेहिं से कहियं ॥ १ ॥” तथा जगति विद्युल्लतावत् 'चञ्चलं' चपलं, 'जीवितं' प्राणधारणं, यथा विद्युल्लता क्षणदृष्टनष्टा तथेदं जीवितमपि, 'च' पुनस्तारण्यं यौवनं सन्ध्यानुरागसदृशं क्षणं यावद् 'रमणीयं' सु Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- न्दरं, यथा सन्ध्यायामभ्रपटलानि विविधवर्णभानि भवन्ति, पुनर्वायुप्रयोगाद्विनश्यन्ति, तथेदं तारुण्यमपि पञ्च दिनानि गुणविनशतकम् । भवन्ति, ततो जरैव तद्विनाशिनी समुल्लसत्यतस्तारुण्ये को मदः ॥ ३६ ॥ यीयागयकण्णचंचलाओ, लच्छीओ तियसचावसारिच्छं । विसयसुहं जीवाणं, बुज्झसु रे जीव ! मा मुज्झ ॥३७॥ ॥ १२॥ व्याख्या। ___ व्याख्या-हे जीव !-आत्मन् !, यासां लक्ष्मीणां त्वं मदं धत्से 'एता मम यावज्जीवं पार्थ न मोक्षन्त्येवं परं ता 'ल-13. क्ष्म्यः' श्रियो, गजकर्णवत् चञ्चला, न चिरस्थायिन्यो भवन्ति, सम्प्रत्यपि पूर्व श्रीमन्तो दृष्ट्या पश्चात्त एव निःश्रीका भूयांसो वीक्ष्यन्त इत्यतः श्रीणां स्थिरत्वं न, तथा जीवानां विषयसुखं' शब्दादिसुखं 'त्रिदशचापसदृक्षं इन्द्रधनुर्वच्चञ्चलं, |अतो 'रे जीव !' आत्मन् ! एवं चञ्चलस्वभावं सर्वं ज्ञात्वा 'बुध्यस्व' धर्मे बोधं कुरु, 'मा मुह्यस्व' मा मोहं प्रामुहि, पुनरेताहक्सामग्र्या योगस्य दुष्प्राप्यत्वात् ॥ ३७॥ दाजह संझाए सउणा-ण संगमो जह पहे अ पहियाणं । सयणाणं संजोगा, तहेव खणभंगुरा जीव ! ॥३८॥ व्याख्या-यथा 'सन्ध्यायां' सायन्तनसमये 'शकुनानां' पक्षिणां 'सङ्गमः' सम्बन्धः, सन्ध्यासमये एकस्मिंस्तरौ यथ भूयांसः सर्वदिग्भ्यः पक्षिणो मिलन्ति, रात्रावुषित्वा पुनः प्रातर्यथेच्छं यान्ति च, पुनर्यथा 'पथि' मागें, 'पथिकानां' अध्व ॥१२॥ गानां, सङ्गमो, यथा पथि पथिका रात्रावेकत्र स्थित्वा प्रातःकाले स्वस्वेष्टयामादिकं प्रति पृथक् पृथग् यान्ति, तथेति यथा तेषां तथैव' तेनैव प्रकारेण, 'हे जीव !' आत्मन् ! 'स्वजनानां सम्बन्धिनां-माता मातृपितृभ्रात्रादीनां, संयोगाः 'क्षणभ CACANCELCASSC Jain Education anal For Private &Personal use Only Mainstorg Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अराः' क्षणेन विनशनशीलाः, तेऽपि कियन्तं कालं संयुज्य पुनरायुःक्षये वियुज्यन्तेऽतस्तेषु मा मोहं गच्छेरिति भावः ॥३८॥ निसाविरामे परिभावयामि, गेहे पलित्ते किमहं सुयामि। डझंतमप्पाणमुविक्खयामि, जं धम्मरहिओ दिअहे गमामि ॥ ३९॥ व्याख्या-'निशाया' रात्रे विरामे' अवसाने, जागरितः सन्नेवं परिभावयामि' चिन्तयामि, किं तद् ?, यदहं धर्मेण रहितो दिवसान् गमयामि' अतिवाहयामि, तद् 'गेहे' गृहे, 'प्रदीप्ते' अग्निज्वालावलीढे, किं ? 'स्वपिमि' शये-निद्रां करोमीति यावत् , तथा 'दह्यन्तं' अग्निज्वालयाऽवलेह्यमानं 'आत्मानं' शरीरं 'उपेक्षे अवगणयामि, दह्यते चेत्तदा दह्यतामित्युपेक्षां विदधामीत्यर्थः, एतावता धर्मरहितदिनान्यतिवाहयता मया कर्माग्निना दह्यमानःस्वात्मा उपेक्षित इति ज्ञापितम् ॥३९॥ जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। अधम्म कुणमाणस्स, अहला जति राइओ॥४॥ व्याख्या-या या ब्रजति 'रजनी' रात्रिःन सा 'प्रतिनिवर्तते' पुनरागच्छति, ताश्चाऽधर्म कुर्वतो, जन्तोरिति गम्यते, 'अफला' धर्मरूपफलरहिता रात्रयो यान्ति ॥४०॥ जस्सऽत्थि मचुणा सक्खं, जस्स चऽथि पलायणं । जो जाणइ न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ॥४१॥ व्याख्या-यस्य 'अस्ति' विद्यते, मृत्युना सह 'सख्यं' मैत्री, यस्य चाऽस्ति 'पलायनं' नाशनं, मृत्योरिति प्रक्रमस्तथा TOCOCCACANCIENCE वैरा० ३ Jan Educati onal For Private &Personal use Only Mjainelibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम्। | गुणविन यीयाव्याख्या। SCRECOMMUNICALCOMMCDS यो जानीते यथाऽहं न मरिष्यामि' “सोह" स एव, 'काङ्क्षति' प्रार्थयते, 'श्वे' आगमिनि दिने 'स्याद्, भविष्यतीदमिति गम्यते, ततोऽद्यैव धर्म कुरुष्वेति भावः॥४१॥ दंडकलियं कारता, वचंति हु राइओ अ दिवसा य । आउससंविल्लिंता, गया य न पुणो नियत्तंति ॥ ४२॥ ___ व्याख्या-हे आत्मन् ! "दण्डकलियं" दण्डरीतिं 'कुर्वन्तो विदधत 'आयु'जीवितं 'संवेष्टयन्तः' सन्निहितोपक्रमकारणलघुकुर्वन्तो, 'हु'निश्चये, रात्रयश्च दिवसाश्च ब्रजन्ति, अयं भावो- यथा कोलिकदण्डः सूत्रमुढेष्टते निखिलमपि तथा आयुरुद्वेष्टयन्तो रात्रिवासराः प्रयान्तीत्यर्थः, परं ते रात्रिदिवसा गताश्च न पुनर्निवर्तन्ते' प्रत्यागच्छन्ति ॥ ४२ ॥ जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं णेइ हु अंतकाले। ण तस्स माया व पिया व भाया, कालंमि तंर्मिऽसहरा भवंति ॥ ४३ ॥ व्याख्या-यथेत्यौपम्ये, 'इहे ति लोके 'सिंहो' मृगपति ति पुरणे, 'मृगं' कुरङ्गं गृहीत्वा प्रक्रमात्परलोकं नयतीति सम्बन्धः, एवं 'मृत्युः कृतान्तो 'नरं' पुरुष नयति, 'हुरवधारणे, ततो नयत्येव 'अन्तकाले' जीवितव्यावसानसमये न 'तस्य' मृत्युना नीयमानस्य माता वा पिता वा "भाय"त्ति वा शब्दस्येह गम्यमानत्वादाता वा 'काले तस्मिन् जीवितान्त| रूपे 'अंश' प्रक्रमाजीवितभागं 'धारयन्ति' मृत्युना नीयमानं नरं रक्षन्तीत्यंशधरा भवन्तीत्युक्तं हि-"न पिता भ्रातरः पुत्रा, न भार्या न च बान्धवाः । न शक्ता मरणात्रातुं, मन्नाः संसारसागरे ॥१॥” इति ॥ ४३ ॥ SUCCESSACRECRU ॥१३॥ Jan Education intentanal For Private & Personal use only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीअं जलबिन्दुसमं, संपत्तीओ तरंगलोलाओ। सुमिणयसमं च पिम्मं, जं जाणसुतं करेजासु ॥४४॥ व्याख्या-हे आत्मन् ! 'जीवितं' प्राणधारणं 'जलबिन्दुसम' कुशाग्रप्राप्ताम्भोविन्दुवच्चञ्चलं, तथा 'सम्पत्तय' ऋद्धय'स्तरङ्ग'वद्वीचीव'लोला'चपलास्त्वरितमन्यत्र संक्रामन्तीत्यर्थश्च पुनः 'प्रेम' ख़्यादीनां स्नेहः, 'स्वप्नसमं' क्षणदृष्टनष्टमित्यर्थस्तस्माद्यजानीपे तथा कुरुष्वेति, एतावतेषामस्थिरत्वं ज्ञात्वा स्थिरे श्रीजिनधर्मे उद्यम कुर्विति सूचितम् ॥४४॥ रूपकम् ॥ संझरागजलबुब्बुओवमे, जीविए य जलविंदु चंचले। जुवणे य नइवेगसंनिभे, पावजीव ! किमियं न वुज्झसि१४५ ___व्याख्या-सन्ध्यारागश्च जलबुद्धदश्चेति द्वन्द्वस्ताभ्यानुपमा यस्य तस्मिन्नेवंविधे 'जीविते' आयुषि, च शब्दो व्यवहितः सम्बन्धो 'जलबिन्दुचञ्चले च' कुशाग्रादिलग्नतोयलववच्चपले चेत्यर्थः, उपमात्रयाभिधानमतितरलतादर्शनार्थ, 'यौवने तारुण्ये, च शब्दाव्यनिचयादौ च 'नदीवेगसन्निभे' सरिजलतुल्ये सति, हे 'पापजीव !' दुरात्मन् ! किमिदं न बुध्यसे ? पश्यन्नपीति ॥ ४५ ॥ अन्नत्थ सुया अन्नत्थ, गेहिणी परियणो वि अन्नत्थ । भूयबलिब कुटुंब, पक्खित्तं हयकयंतेण ॥ ४६॥ व्याख्या-'अन्यत्र' अन्यस्यां गतौ 'सुताः' पुत्राः, अन्यत्र 'गेहिनी' कलत्रं, 'परिजनोऽपि' परिवारोऽपि अन्यत्र ‘हत-18 कृतान्तेन' निन्द्ययमेन, सुतादिरूपं कुटुम्ब भूतेभ्यो बलिरिव 'प्रक्षिप्तं' इतस्ततः पर्यस्तं, यथा भूतेभ्यो बलिः प्रक्षिप्यते तथेदं कुटुम्बमपि सर्व कृतान्तेन भिन्न भिन्नां गतिं प्रापितमिति ॥ ४६॥ ACCORDCALLSCLOSURE Jain Education anal For Private & Personal use only mininelibrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62-56456 वैराग्यशतकम्। गुणविनयीयाव्याख्या। ॥१४॥ जीवेण भवभवे मि-हियाइ देहाइ जाइ संसारे । ताणं न सागरेहिं, कीरइ संखा अणंतेहिं ॥४७॥ व्याख्या-हे आत्मन् ! यच्छरीरार्थ त्वमेवंविधानि पापानि कुरुषे परं ये देहाः संसारे जीवेन 'भवे भवे' जन्मनि जन्मनि । 'मुक्का'स्त्यक्तास्तेषां देहानां 'अनन्त'रनन्तसंख्यैः 'सागरैः' समुद्रैः संख्या न क्रियते, अनन्तसंख्यसागरबिन्दुभ्योऽपि पूर्वपूर्वभवजीवमुक्तशरीराणामनन्तत्वाद्, यद्वाऽनन्तैः 'सागरैः' सागरोपमसमयैः, शेषं पूर्ववत्तथा चोक्तं-"जीवेण जाणि उ विस-जियाणि जाइसएसु देहाई। थेवेहिं तओ सयलं, पि तिहुयणं हुज्ज पडिहत्थं ॥१॥"॥४७॥ नयणोदयं पि तासिं, सागरसलिलाओ बहुयरं होइ । गलियं रुयमाणीणं, माऊणं अन्नमन्नाणं ॥४८॥ | व्याख्या-हे आत्मन् ! तासां रुदन्तीनां 'मातृणां' जननीनां, 'अन्यान्यास' अपरापर जन्मभाविनीनां [गलितं' पतितं 'नयनोदकं' अश्रुजलमपि 'सागरसलिलात्' समुद्रपानीया द्वहुतरं' अधिकतरं, भवति, ताभी रुदतीभिरश्रुजलमेतावद् ग[]लितं पातितं, यत्संख्या समुद्राम्भसाऽपि कर्तुं न शक्यत इत्यर्थः ॥४८॥ जं नरए नेरइया, दुहाई पावंति घोरऽगंताई । तत्तो अणंतगुणियं, निगोयमझे दुहं होइ ॥ ४९ ॥ व्याख्या-हे आत्मन् ! यन्नैरयिका' नारका नरके 'घोराणि' रौद्राणि च तान्य नन्तानि' अप्राप्तापरभागानि घोरानन्तानि, 'दुःखानि' असातवेद्यानि, प्राप्नुवन्ति, तथा चोक्तं-"तह फालिया वि उक्कत्ति-आ वि तलिआ विच्छिन्नभिन्ना वि। ॥१४॥ Jain Education anal For Private &Personal use Only Mainelibrary.org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दड्डा भग्गा मुडिया, तोडिया तह वीलीणा य ॥१॥ पावोदएण पुणरवि, मिलंति तह चेव पारयरसुव । इच्छंता वि हुन मरंति, कह वि ते नारय वराया ॥२॥पभणंति तओ दीणा, मा मारेह सामि ! पहु नाह! । अइदुसहं दुक्खमिणं, पसिअह मा कुणह एत्ताहे ॥ ३॥ एवं परमाहम्मिय-पाएसु पुणो पुणो वि लग्गंति । दंतेहिं अंगुलीओ, गिण्हंति भणंति दीणाइं॥४॥ तत्तो अ निरयपाला, भणंति रे ! अज्ज दूसहं दुक्खं । जइआ पुण पावाई, करेसि तुट्ठो तया भणसि ॥५॥ नत्थि जए सबन्नू , अहवा अहमेव एत्थ सबविऊ । अहवा वि खाह पिअह, दिट्ठो सो केण परलोओ? ॥६॥ खंता पियंता इह जे मरंति, पुणो वि ते खंति पियंति राई । खुहाई तत्ता पुण जे मरंति, पुणो वि तप्पंति खुहाई ते ऊ ॥७॥ नत्थि अ पुण्णं पावं, भूअऽन्भहिओ अ दीसइ न जीवो । इच्चाइ भणसि तइया, वायालत्तेण परितुट्ठो ॥८॥ मंसरसंमि य गिद्धो, जइया मारेसि निग्विणो जीवे । भणसि तया अम्हाणं, भक्खमिणं निम्मियं विहिणा ॥९॥ वेयवि-15 हिया न दोसं, जण्णे अहिंस त्ति अहव जंपेसि । चरचरचरस्सतो फा-लिऊण खाएसि परमंसं ॥ १०॥ लावयतित्तिरिअंडय-रसवसमाईणि पियसि अइगिद्धो । इहिं पुण पुक्कारसि, अइदुसहं दुक्खमेयंति ॥ ११॥ अलिएहि वंचसि तया, कूडक्कयमाइएहिं मुद्धजणं । पेसुण्णाईण करे-सि हरिसिओ पलवसि इयाणिं ॥ १२॥ तइआ खणेसि खत्तं, घायसि वीसंभियं मुससि लोयं । परधणलुद्धो बहुदे-सगामनगराई भंजेसि ॥ १३ ॥ तेण वि पुरिसयारे-ण विनडिओ मुणसि तणसमं भुवणं । परदवेणं विलसेसि, कुणसि पुकार किं पुणिण्हि ? ॥ १४ ॥ मा हरसु परधणाई, सिक्खविओ भणसि चिट्ठयाए है अ । सबस्स वि परकीयं, सहोअरं कस्स वि न दवं ॥ १५ ॥ तझ्या परजुवईणं, चोरियरमियाई मुणसि सुहाई । अइरत्तो Jain Education anal For Private &Personal use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम्। ॥१५॥ CUCKOCOLAMMA द विहु तासिं, मारसि भत्तारपमुहे अ॥१६॥ सोहम्गेण य नडिओ, कूडविलासेहिं (?) कुणसि ताहिँ समं । इण्हिं तु तत्त- गुणविन तंवय-डिउल्लियाणं पलाएसि ॥ १७ ॥ परकीयच्चिय भज्जा, भुजइ निअया उ माउभइणीओ। एवं च दुविअड्डत्त-ग- यीया|धिओ वयसि सिक्खविओ ॥ १८ पिंडेसि असंतुट्ठो, बहु पावपरिग्गहं तहा मूढो । आरंभेहि अ तूससि, रूससि ? किं इत्थ व्याख्या। दुक्खेहिं ॥१९॥ आरंभपरिग्गहव-जियाण निबहइ अम्ह न कुटुंबं । इय भणियं जस्स कए, तं आणसु दुहविभागऽत्थं ॥ २०॥ भरियं पिवीलियाई-ण सीविअं जइ मुहं तुहऽम्हेहिं । ता होसि पराहुत्तो, भुंजसि रयणीइ पुण मिहें। ॥२१॥ पियसि सुरं गायंतो, वक्खाणंतो भुआहि नचंतो । इह तत्ततिलतुंब-तऊणि किं पीअसि न हयास!॥ २२॥गुरुदेवाणुवहासो, विहिआ आसायणा वयं भग्गं । लोगो अ गामकूड-तणाइभावेसु संतविओ ॥ २३ ॥ इय जइ नियहत्थारो-वियस्स तस्सेव पाव विडवस्स । भुंजसि फलाइँ रे दुठ्ठ!, अम्ह ता इत्थ को दोसो? ॥ २४ ॥ इच्चाइ पुवभवदु-कया. सुमराविउं निरयपाला । पुणरवि वियणा उ उई-रयंति विविहप्पयारेहिं ॥ २५ ॥ उक्कत्तिऊण देहा-उ ताण मंसाइ चडप्फडंताण । ताणं चिय वयणे प-क्खिवंति जलणम्मि भुंजे ॥२६॥रे रे! तुह पुवभवे, संतुट्ठी आसि मंसरसिएहिं । इअ भणिउं तस्सेव य, मंसरसं गिहिउँ दिति ॥ २७ ॥ तिरियाण य भारारो-वणाणि सुमराविऊण खंधेसु । चडिऊण सुरा तेसिं, भरेण भंजंति अंगाई ॥ २८ ॥ दीणा सबनिहीणा, नपुंसगा सरणवज्जिया खीणा । चिट्ठति नरयवासे, नेरइया अहव किं बहुणा ॥ ३९ ॥ अच्छि निमीलणमित्तं, नत्थि सुहं दुक्खमेव अणुवद्धं । नरए नेरइयाणं, अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥१५॥ १ अस्ति सास्वपि प्रतिष्वयं वर्णः, परमर्थसङ्गतिरस्याभावे एवेति मे मतिः । R Jan Education For Private Personal use only ww.rainelibrary.org Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5॥३०॥ तत्थ य सम्मद्दिट्ठी, पायं चिंतंति वेयणाऽभिहया । मुत्तुं कम्माइ तुमं, मा रूससु जीव ! जं भणियं ॥ ३१॥ सबो पुवकयाणं, कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु अ, निमित्तमित्तं परो होइ ॥ ३२॥ धारिजंतो जलनिहि, वीचीकल्लोलभिन्नकुलसेलो । न हु अन्नजम्मनिम्मिअ, सुहासुहो दिवपरिणामो ॥ ३३ ॥ वारिजतो वि हु गुरुजणेण तइआ करेसि पावाइं । सयमेव किणिय दुक्खे, रूससि रे जीव ! कस्सिण्हि ? ॥ ३४ ॥ सत्तमियाओ अन्ना, अट्ठमिआ नत्थि नरयपुढवि त्ति । एमाइ कुणसि कूडु-त्तराइ इण्हिं किमुबियसि ? ॥ ३५ ॥ इय चिंताए तह वे-अणाहिँ खविऊण असुहकम्माई। जायंति रायभवणा-इएसु कमसो अ सिझंति ॥ ३६॥ अन्ने अवरुप्परकलह-भावओ तह य कोवकरणेणं । पावंति तिरिअभावं, भमंति तत्तो भवमणंतं ॥ ३७॥” ततो नरकदुःखेभ्यो 'निगोदाः' साधारणवनस्पतिविशेषास्तेषां मध्ये 'अनन्तगुणितं' अनन्तगुणं, पुनः पुनर्जन्ममरणरूपं दुःखं भवति, यत उक्तं-"गोला हुंति असंखा, हुंति निगोआ असंखआ गोले । इक्किक्को अ निगोओ, अणंतजीवो मुणेयवो ॥१॥ एगूसासम्मि म[ओ]5 (2) सत्तरसवाराउऽणंतखुत्तो वि । खुड्डगभवगहणाओ, एएसु निगोयजीवेसु ॥२॥"॥४९॥ तमि वि निगोयमज्झे, वसिओ रे जीव ! विविहकम्मवसा । विसहंतो तिक्खदुहं, अणंतपुरगलपरावत्ते ॥५०॥ व्याख्या-रे जीव!' हे आत्मन् ! 'तस्मिन्नपि' नारकदुःखातिशायि दुःखसङ्कले निगोदमध्ये 'उषितः' स्थितः, कस्मात् ?, 'विविधकर्मवशात्' अनेकविध-ज्ञानावरणीयादि-कर्मपरतन्त्रतया, यत उक्तं-"जया मोहोदओ तिबो, अण्णाणं ACCASSACREACCORRICK Jan Educatonin For Private &Personal use Only w.jainelibrary.org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् । ॥१६॥ SALMALAMAUSAMRAKARMA खु महन्भयं । कोमलं वेयणीयं नु, तया एगिंदियत्तणं ॥१॥" किं कुर्वन् तत्रोषित ? इत्याह-अनन्तान् सूक्ष्मक्षेत्रपुद्गल- गुणविनपरावर्तान् यावत् 'तीक्ष्णं' उग्रं 'दुःखं' एकस्मिन् श्वासोच्छासे साधिकसप्तदशभवात्मकं 'विषहमाणो' अनुभवन् , उक्तं यीया|च-"सत्तरससमहिया किर, इगाणुपाणंमि हुंति खुड्डभवा । सगतीससयतिहुत्तर-पाणू पुण इगमुहुत्तंमि ॥१॥पणस- व्याख्या। द्विसहसपणसइ-छत्तीसा इगमुहुत्तखुड्डुभवा । आवलियाणं दोसय-छप्पन्ना एगखुड्डभवे ॥२॥" ॥५०॥ नीहरिय कह वि तत्तो, पत्तो मणुयत्तणं पि रे जीव! । तत्थ वि जिणवरधम्मो, पत्तो चिंतामणिसरिच्छो ॥५१॥ __ व्याख्या-रे जीव ! त्वं कथमपि' महता कष्टेन 'ततो' निगोदान्निःसृत्य 'मनुष्यत्वं' मनुजत्वमपि प्राप्त स्तत्रापि मनु. प्यत्वेऽपि, चिन्तामणिसदृक्षो, मनोभिलाषपूरकत्वात् , श्रीजिनवरधर्मः पुण्यवशात्प्राप्तः, "निसरीहर-नील-धाड-वर-17 हाडा" इति [८-४-७९ हैमप्राकृतसूत्रेण ] निःसरे नीहरादेशः ॥५१॥ पत्ते वि तंमिरे जीव!, कुणसि पमायं तुमं तयं चेव । जेणं भवंधकृवे, पुणो वि पडिओ दुहं लहसि ॥५२॥ व्याख्या-रे जीव! 'तस्मिन्' दुष्प्रापे श्रीजिनधर्मे 'प्राप्तेऽपि' लब्धेऽपि, त्वं तमेव 'प्रमाद' निद्राविकथादिक करोषि, येन प्रमादेन भव एवाऽन्धकूपस्तस्मिन्पुनरपि पतितो 'दुःखं' नरकादावसातमेव लभसे, आर्षवचनत्वाद्भविष्यत्यर्थे वर्तमानता, परं हारितं जिनधर्म पुनर्न लप्स्यस इत्यर्थः ॥५२॥ ॥१६॥ उवलद्धो जिणधम्मो, न य अणुचिन्नो पमायदोसेणं । हा !! जीव ! अप्पवेरिअ, सुबह पुरओ विसूरिहिसि ५३ RECOMMODALS Jain Educatan international For Private &Personal use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या-हे जीव ! त्वया दैवयोगाजिनधर्म 'उपलब्धः' प्राप्तः, परं 'प्रमाददोषेण' आलस्यादिवैगुण्येन च 'नाऽनुचीर्णो न सेवितो, 'हा' इति खेदे, 'आत्मवैरिन् !' स्वजीवशत्रो! हे जीव ! 'पुरतो' मरणावसाने-परलोके वा, 'सुबहुं' |अतिशयेन, शशिराजवत् 'खेत्स्यसे खेदं प्राप्स्यसि-शोचिष्यसीत्यर्थः, "खिदेजूरविसूरा"विति [८-४-१३२ हैमप्राकृतसूत्रेण ] खिदेर्विसूरादेशः ॥ ५३॥ सोयंति ते वराया, पच्छा समुवट्टियंमि मरणमि । पावपमायवसेणं, न संचियो जेहि जिणधम्मो ॥५४॥ व्याख्या-ते 'वराका' रङ्कास्तपस्विनः, पश्चान् मरणे 'समुपस्थिते' प्राप्ते सति 'शोचन्ति' शोकं कुर्वन्ति, ते के ?, यैर्वराकैः ‘पापप्रमादवशेन' दुष्टालस्यादिपरतन्त्रतया जिनधर्मो न 'सश्चितः' स्वात्मनि न सम्भृतो 'हा! हा!! वयमकृत|धर्माणः परलोके कथं सुखिनो भविष्याम' इति शोकं विदधतीति भावः ॥ ५४॥ धीधी धी संसारे, देवो मरिऊण जं तिरी होइ । मरिऊण रायराया, परिपच्चइ निरयजालाहिं ॥५५॥ ___ व्याख्या-संसारं चातुर्गतिकरूपं-भवं धिर धिम् , धिक्रयाभिधानं तु निन्द्यतमत्व सूचनार्थ, संसारस्य धिक्त्वे कारणमाहयस्मा देवः' सुरो 'मृत्वा' च्युत्वा 'तिर्यक' पृथिव्यादिर्भवति, तथा 'राजराजो' वासुदेवादिद॒त्वा निरयज्वालाभिः परिपच्यते, यत उक्तं-"मीरासु संठएसु य, कुडुसु अ पयणगेसु कुंभीसु । लोहीसु अपलवंते, पयंति कालाउ नेरइए ॥१॥" ॥५५॥18 जाइ अणाहो जीवो, दुमस्स पुप्फ व कम्मवायहओ। धणधन्नाहरणाई, घरसयणकुटुंबमितेवि ॥५६॥ CCE Jan Educatio n al For Private &Personal use Only LAxrainelibrary.org IS Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् । ॥ १७ ॥ Jain Educati व्याख्या - हे जीव ! अयं 'जीव' आत्मा कर्मैव 'वातो' वायुस्तेन 'हतः' प्रतिहतो, 'अनाथो' अस्वामिको - अनाधारः सन् 'द्रुमस्य' तरोः पुष्पमिव याति परलोकमिति गम्यते, यथा द्रुमस्य पुष्पं वातप्रेरितं सद्यात्यधः पतति, तथा जीवोऽपि किं कृत्वा ?, धनधान्याभरणानि गृहं स्वजनकुटुम्बं च मुक्त्वा, अनुक्तोऽप्यत्र चकारो बोद्धव्यः, प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपश्च ॥ ५६ ॥ वसियं गिरीसु वसियं, दरीसु वसियं समुद्दमज्झम्मि । रुक्खऽग्गेसु य वसियं, संसारे संसरंतेणं ॥ ५७ ॥ व्याख्या- हे आत्मन् ! त्वया 'संसारे' भवे, 'संसरता' इतस्ततः पर्यटता सता कदाचिद् 'गिरिषु' पर्वतेषु 'उषितं' स्थितं, कदाचिद् 'दरीषु' कन्दरेभूषितं, कदाचित्समुद्रमध्ये उषितं, कदाचिद्वृक्षाग्रेषु चोषितं, अनवस्थितत्वाज्जीवस्य ॥ ५७ ॥ किञ्चाऽयमात्मा नटवदपरापररूपैः परावर्तते, ततः कः कुलाभिमानावकाश ? इत्याह देवो नेरइओ त्तिय, किडपयंगो त्ति माणुसो एसो । रुवस्सी य विरूवो, सुहभागी दुक्खभागी य ॥ ५८ ॥ व्याख्या- 'देवो' विबुधो, नारकः प्रतीत एव, इति शब्दाः सर्वे उपप्रदर्शनार्थाश्च शब्दाः समुच्चयार्थाः स्वगतानेक भेदसूचका वा, तथा 'कीटः' कृम्यादिः, 'पतङ्गः' शलभस्तिर्यगुपलक्षणं चैतन् 'मानुषः' पुमान्, एष जीवः, परावर्तत इति सर्वत्र क्रिया, "रूवरिस "त्ति कमनीयशरीरो 'विरूपो' विशोभः 'सुखं' सातं भजते तच्छीलश्चेति सुखभागी, एवं दुःखभागी ५८ राउ त्ति य दमगोत्ति य, एस सपागोत्ति एस वेयविऊ । सामी दासो पुज्जो, खलो त्ति अधणो धणवइ त्ति ॥५९ ॥ गुणविनयीया व्याख्या । ॥ १७ ॥ jainelibrary.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RESERECEMBER व्याख्या-तथा 'राजा' पृथिवीपति द्रमको' निःस्व, एष जीवः 'श्वपाक'श्चाण्डालः, तथैष एव 'वेदवित्' सामादिवेदानां वेत्ता-प्रधानब्राह्मण इत्यर्थः, असकृदेषशब्दग्रहणं पर्यायनिवृत्तावपि जीवद्रव्यस्याऽनुवृत्तिज्ञापनार्थं, एष एवैको नानारूपेष्वेवं परावर्तते न सर्वथाऽन्यो भवतीत्यर्थः, तथा 'स्वामी' स्वपोष्यापेक्षया नायको, 'दासो' यक्षरकः, 'पूज्यो' अभ्य. चनीय-उपाध्यायादिः, 'खलो' दुर्जनो, 'अधनो' निद्रव्यो, 'धनपति'रीश्वरः॥ ५९॥ नवि इत्थ कोइ नियमो, सकम्मविणिविट्ठसरिसकयचिट्ठो। अन्नान्नरूववेसो, नडो व परियत्तए जीवो॥६०॥ व्याख्या-किञ्च 'नाऽपि न सम्भाव्यतेत्र कश्चि नियमो'ऽवश्यम्भावो, यथा परे मन्यन्ते-"पुरुषः पुरुषत्वमश्नुते' पशवः पशुत्व" मित्यादिरूपः, प्रमाणबाधित्वात् , कर्मवैचित्र्येण भववैचित्र्योपपत्तेः, किं तर्हि ?, स्वकर्मविनिविष्टसदृशकृत-18 चेष्टः परावर्तते जीव इति सम्बन्धः, तत्र क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणीयादि, स्वस्याऽऽत्मनः कर्म स्व कर्म, तस्य विनिविष्टं विनिवेशः, प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशात्मकं रचनमित्यर्थः, तस्य सदृशी-तदनुरूपा कृता-निर्वतिता चेष्टा-देवादिपर्यायाध्यासरूपो व्यापारो येन स तथेति समासो, दृष्टान्तमाह 'अन्यान्यरूपों' नानाऽऽकारो 'वेषो' नेपथ्यवर्णकविच्छित्त्यादिलक्षणो यस्याऽसावन्यान्यरूपवेषः, कोऽसौ ?, नटः, स इव 'परावर्तते' परिभ्रमति 'जीव' आत्मेति, तदिदं संसारेऽनवस्थितत्वमालोच्य, तथा चोक्तं-श्रीआचाराङ्गे-"से असई उच्चागोए, असतिं नीयागोए, नो हिणे णो अतिरित्ते, णोऽपीहए, इति संखाय को गोयावादी? को माणावादी? कंसि वा एगे गिज्झे तम्हा पंडिए नो हरिसे णो कुज्झे एतद्दीका] "इति" Jan Education Instmal For Private &Personal use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् । ॥ १८ ॥ संसार्यसुमान् 'असकृद्' अनेकश 'उच्चैर्गोत्रे' मानसत्कारार्हे, उत्पन्न इति शेषः, तथाऽसकृ'न्नीचैर्गोत्रे' सर्वलोकावगीते, पौनःपुन्येनोत्पन्न इति, तथाहि नीचैर्गोत्रोदयादनन्तमपि कालं तिर्यश्वास्त इति, स चाऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः, आवलिकाकालासंख्येयभागसमयसंख्यान् पुद्गलपरावर्त्तानिति xxx तदेवमुच्चावचेषु गोत्रेष्वसकृदुत्पद्यमानेनाऽसुमता xxx न मानो विधेयो नाऽपि दीनतेति, तयोश्चोच्चावचयोगत्रयोर्वन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि तुल्यानीत्याह - " णो हीणे णो अतिरित्ते" यावन्त्युच्चैर्गोत्रे ऽनुभाववन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि, नीचैर्गोत्रेऽपि तावन्त्येव, तानि च सर्वाण्यप्यसुमताऽनादिसंसारे भूयोभूयः स्पर्शितानि तत उच्चैर्गोत्रकण्डकार्थतयाऽसुभृन्न हीनो नाऽध्यतिरिक्तः, एवं नीचैर्गोत्रकण्डकार्थतयाऽपीति, x x x यतश्वोच्चावचेषु स्थानेषु कर्मवशादुत्पद्यन्ते, वलरूपलाभादिमदस्थानानां चाऽसमञ्जसतामवगम्य किं कर्तव्यमित्याह - " णोऽपीहए”, 'अपिः' सम्भावने, स च भिन्नक्रमो, जात्यादीनां मदस्थानानामन्यतमम पि 'नो ईहेताऽपि, नाऽभिलषेदपि, अथवा नो स्पृहयेन्नाऽवकाङ्क्षदिति, तत्र यद्युच्चावचेषु स्थानेष्वसकृदुत्पन्नोऽसुमांस्ततः किमित्याह - " इति संखाय इत्यादि, इतिरुपप्रदर्शने, इत्येतत्पूर्वी कनीत्योच्चावच स्थानोत्पादादिकं 'परिसंख्याय' ज्ञात्वा 'को गोत्रवादी भवेद् ?" यथा ममोच्चैर्गोत्रं सर्वलोकमाननीयं [ तथा ] नाऽपरस्येत्येवंवादी को बुद्धिमान् भवेत् ?, तथाहि -मयाऽन्यैश्च जन्तुभिः सर्वाण्यपि स्थानान्यनेकशः प्राप्त पूर्वाणीति, तथोच्चै गोत्रनिमित्तमानवादी वा को भवेत् ?, न कश्चित्संसारस्वभावपरिच्छेदीत्यर्थः, किञ्च "कंसि वा एगे गिज्झे" अनेकशोऽनेकस्मिन् स्थानेऽनुभूते सति तन्मध्ये कस्मिन्वा एकस्मिन्नु चैर्गोत्रादिकेऽनवस्थिते स्थाने रागादिविरहादेकः कथं गृध्येत् ?, तात्पर्य - आसेवां विदितकर्मपरिणामो विदध्याद्, Jain Educational गुणविन यीया व्याख्या । ॥ १८ ॥ ainelibrary.org Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युज्येत गाय, यदि तत्स्थान प्राप्तपूर्व नाऽभविष्यत् , तच्चाऽनेकशः प्राप्तपूर्वम् , अतस्तल्लाभालाभयो!त्कर्षापकाँ विधेयाविति, आह च "तम्हा” इत्यादि, यतोऽनादौ संसारे पर्यटताऽसुमताऽदृष्टायत्तान्यसकृदुच्चावचानि स्थानान्यनुभूतानि, तस्मात्ककथञ्चिदुच्चादिकं मदस्थानमवाप्य 'पण्डितो' हेयोपादेयतत्त्वज्ञो' न हृष्ये'न्न हर्ष विदध्याद्, उक्तं च-'सर्वसुखान्यपि बहुशः,17 प्राप्तान्यटता मयाऽत्र संसारे । उच्चैःस्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु ॥१॥ जई सो वि णिज्जरमओ, पडिसिद्धो अट्टमाणमहणेहिं । अवसेसमयट्ठाणा, परिहरियवा पयत्तेणं ॥२॥' नाऽप्यवगीतस्थानावाप्तौ वैमनस्यं विदध्याद, आह च "णो कुज्झे" अदृष्टवशात्तथाभूतलोकासम्मतं जातिकुलरूपबललाभादिकमधममवाप्य 'न कुप्ये'न्न क्रोधं कुर्यात् , 5/ कतरन्नीचस्थानं शब्दादिकं वा दुःखं मया नाऽनुभूतमित्येवमवगम्य नोद्वेगवशगेन भाव्यमुक्तं च-'अवमानात्परिभ्रं-13 शा-धवन्धधनक्षयात् । प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च, जात्यन्तरशतेष्वपि ॥१॥ संते य अविम्हईडं, असोइडं पंडिएण य असंते । सक्का हु दुमोवमियं, हियएण हियं धरतेणं ॥२॥ होऊण चक्कवट्टी, पुहुइवती विमलपंडुरच्छत्तो । सो चेव नाम भुजो, अणाहसालालओ होइ ॥३॥” ॥ ६॥ नरएसु वेयणाओ, अणोवमाओ असायबहुलाओ।रे जीव ! तए पत्ता, अणंतखुत्तो बहुविहाओ ॥११॥ यदि सोऽपि निर्जरामदः, प्रतिषिद्धोऽष्टमानमथनैः । अवशेषमदस्थानानि, परिहतव्यानि प्रयतेन ॥॥ २ सत्सु चाविस्मे तुमशोचितुं पण्डितेन चाऽसरम् । शक्यं हि द्रुमोपमितं, हृदयेन हितं धरताम् ॥ २॥ भूत्वा चक्रवर्ती, पृथिवीपतिविमलपाण्डुरच्छत्रः । स एव नाम भूयो-ऽनाथशालालयो भवति ॥३॥ Jan Education : For Private &Personal use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥१९॥ व्याख्या-रे जीव! त्वया 'अनन्तकृत्वो'ऽनन्तवारान् , 'नरकेषु' रत्नप्रभादिषु सप्तसु 'बहुविधा' अनेकप्रकारा 'अनुपमा' 181 गुणविन| अनन्यसदृशा असातेन-दुःखेन बहुला- व्याप्ता वेदना- असातावेदनीयकर्मजनिताः पीडाः प्राप्ता, यत उक्तं-"नेरइया यीयाणं भंते ! कइविहं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति ?, गोयमा ! दसविहं, तं जहा-सीयं १ उसिणं २ खुहं ३ पिवासं ४ कंडूयं | व्याख्या। ५ परज्झं ६ जरं ७ दाहं ८ भयं ९ सोगं १०" [एतद्दीका]-"तत्र शीतोष्णे प्रतीते, क्षुत्पुन रकाणां सदा स्थायिनी, ते हि | क्षुद्वेदनादह्यमानाः सकलजगद्धृतादिपुद्गलाहारेऽपि न तृप्यन्ति, पिपासा तु नित्यं कण्ठोष्ठतालुजिह्वादिशोषविधायिनी सकलजलधिजलपानेऽपि नो शाम्यति, कण्डूः क्षुरकादिभिरप्यनुच्छेद्या, "परज्झं” पारवश्यं, ज्वरो यावजीवमत्रत्यादनन्तगुणो, दाहभयशोका अप्यत्रत्येभ्योऽनन्तगुणा इति" ॥ ६१॥ देवत्ते मणुअत्ते, पराभिओगत्तणं उवगएणं । भीसणदुहं बहुविहं, अणंतखुत्तो समणुभूयं ॥ ३२॥ ___ व्याख्या-रे जीव ! त्वया 'देवत्वे' देवभवप्राप्तौ, तथा 'मनुजत्वे' मनुष्यभवप्राप्तौ, 'परे' स्वस्मादन्ये-देवा मनुजाश्च,1G | तेषां 'अभियोगत्वं' परतन्त्रत्वं, 'उपगतेन' प्राप्तेन सता पारवश्याद् 'अनन्तकृत्वो'ऽनन्तवारान् ‘बहुविधं' अनेकप्रकारं 'भीषणं' भयानक 'दुःखं' असातं 'समनुभूतं' वेदितम् ॥ ६२॥ तिरियगई अणुपत्तो, भीममहावेयणा अणेगविहा । जम्मणमरणऽरघहे, अणंतखुत्तो परिन्भमिओ ॥ ६३॥ व्याख्या-हे जीव ! त्वं तिर्यग्गतिमनुप्राप्तोऽनेकविधा 'भीममहावेदना' रौद्रमहापीडा, विषहमाणः, सन्निति गम्यते, ॥१९॥ Jain Education R ental For Private & Personal use only R ainelibrary.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्ममरणारघद्देऽनन्तकृत्वः 'परिभ्रान्तः' पर्यटित, उक्तं च-"तिरिया कसंकुसारा, निवायवहबंधमारणसयाई । नवि ठाइहयं पावंता, परत्थ जइ नियमिया हुंता ॥१॥" ॥ ६३ ॥ जावंति के वि दुक्खा, सारीरा माणसा व संसारे । पत्तो अणंतखुत्तो, जीवो संसारकंतारे ॥ ६४॥ व्याख्या-हे आत्मन् ! संसारकान्तारे यावन्ति कान्यपि 'शारीराणि' शरीरसम्बन्धीनि 'मानसानि' मनोभवानि वा दुःखानि, तानि सर्वाण्यप्ययं जीवोऽनन्तकृत्वः प्राप्तः ॥ ६४ ॥ तण्हा अणंतखुत्तो, संसारे तारिसी तुम आसी । जं पसमेउं सबो-दहीणमुदयं न तीरिजा ॥६५॥ व्याख्या-रे जीव ! संसारे तव तादृशी 'तृष्णा' तृषाऽनन्तवारानासीत् , नरके इति गम्यते, यां तृष्णां प्रशमितुं 'सर्वोदधीनां' सकलसमुद्राणां 'उदकं' जलं 'न शक्नुयात्' न समर्थ भवेत् ॥ ६५॥ आसी अणंतखुत्तो, संसारे ते छुहा वि तारिसिया । जं पसमेउं सवो, पुग्गलकाओ वि न तरिजा ॥६६॥ व्याख्या-रे जीव ! तव 'संसारे' नरकभवे, अनन्तकृत्वस्तादृशी 'क्षुधा' बुभुक्षा आसीद्, यां क्षुधां 'प्रशमितुं' निवर्तयितुं सर्वोऽपि पुद्गलकायो घृतादिरूपो न शक्नुयात् ॥ ६६ ।। काऊणमणेगाई, जम्मणमरणपरियट्टणसयाई। दुक्खेण माणुसत्तं, जइ लहइ जहिच्छियं जीवो ॥ ६७॥ व्याख्या-हे जीव ! 'अनेकानि' अनन्तानि, जन्ममरणानां परावर्तनशतानि-कदाचिजन्म कदाचिन्मरणमित्येवंरू COCALCORICALCUSALMEROSSASS Jain Education Latonal For Private & Personal use only ANMainelibrary.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् । ॥ २० ॥ पाणि 'कृत्वा 'दुःखेन' कष्टेन, अयं 'जीव' आत्मा, यदि यह [[च्छिकं ]च्छया ( ? ) 'मानुषत्वं' मनुजत्वं लभते, न तु सुखेन, कुशलपक्षकारी पुनः सुखेन मृत्वा सुखेनैव लभत इति गाथार्थः ॥ ६७ ॥ तं तह दुल्लहलंभं, विज्जुलयाचंचलं च मणुअत्तं । धम्मंमि जो विसीयइ, सो काउरिसो न सप्पुरिसो ॥ ६८ ॥ व्याख्या-तन्मनुजत्वं तथा चुलकादि दशोपनयव्यवस्थया 'दुर्लभलाभं' दुर्लभप्राप्तिं तथा विद्युल्लतावच्चञ्चलं च, लब्ध्वेति गम्यते, यो मनुजो 'धमें' जिनप्रणीते, अदृष्टवशात् प्राप्ते 'विषीदति' विषण्णो भवति, धर्मं न सम्यगनुतिष्ठतीत्यर्थः, स 'कापुरुषः ' कुत्सितपुरुषो, न सत्पुरुषः ॥ ६८ ॥ मस्सजम्मे तडिलद्वयंमि, जिणिदधम्मो न कओ य जेणं । हे गुणे जह धाणुकरणं, हत्था मलेयवा अवस्स तेणं ॥ ६९ ॥ व्याख्या - मनुष्यजन्मनि संसाराम्भोनिधितटप्राये लब्धे सति येन मनुष्येण, चः पादपूरणार्थे, जिनेन्द्र धर्मोऽहिंसादिरूपो 'न कृतो' नानुचीर्णस्तेन मनुष्येण 'अवश्यं' निश्चितं, मरणावसाने हस्तौ 'मृदितव्यौ' घृष्टव्यौ, "हा ! हा ! मया सत्यां सामग्र्यां धर्मरूपं पाथेयं न जगृहे, अथाहं किं करोमीति", कस्मिन् केनेव ?, यथा 'गुणे' प्रत्यञ्चायां त्रुटिते सति 'रणभूमौ 'धानुष्केण' धनुर्धरेण, हस्तौ मृदितव्यौ भवतस्तथा तेनाऽपि, मृद्नातेर्मल इत्यादेशः ॥ ६९ ॥ गुणविन यीया व्याख्या । ॥ २० ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education रे जीव ! निसुणि चंचलसहाव, मिल्देविणु सयल वि बज्झभाव । नवभेयपरिग्गविविहजाल, संसारि अस्थि सहू इंदयाल ॥ ७० ॥ व्याख्या- 'रे जीव !' आत्मन् !, त्वं 'शृणु' आकर्णय, किं तदित्याह 'चञ्चलस्वभावान्' चपलस्वरूपान्, सकलानपि बाह्यभावान् शरीरादीन् तथा 'नवभेदो' नवप्रकारो यः 'परिग्रहो' धनधान्यक्षेत्र वास्तुरूप्यसुवर्णकुप्यद्विपदचतुष्पदरूपस्तस्य यद् 'विविधजालं' अनेकप्रकारसमूहस्तच्च मुक्त्वा परलोके यास्यसीति गम्यते, अतः संसारे यदस्ति धनधान्यादिकं तत्सर्वं 'इन्द्रजालमिव' तन्त्रवलेनाविद्यमानवस्तुप्रकाशनमिव, इन्द्रजालं वस्तुगत्याऽसदित्यर्थः ॥ ७० ॥ पियपुत्तमित्तघरघरणिजाय, इहलोइअ सवि नियसुहसहाय । नवि अत्थि कोइ तुह सरणि मुक्ख !, इक्कल्लु सहसि तिरिनरयदुक्ख ॥ ७१ ॥ व्याख्या–हे ‘मूर्ख !” अज्ञानिन् ! - आत्मन् !, यदर्थं त्वं द्रव्याद्युपार्जने परवञ्चनादिकं कुरुषे तत्सर्वमैहलौकिकं पितापुत्रमित्रगृहगृहिणीनां 'जात' समूहस्तव नरकादौ प्राप्तस्य 'शरणे' निर्भयत्वस्थापने, 'निजशुभसहाय' आत्मकल्याणनिमित्तं न कोऽप्यस्ति, न कोऽपि तत्र त्रातेत्यर्थः, केवलं जन्मान्तरे 'एक एव' एकाक्येव, तिर्यङ्गरकदुःखानि सहित्यसे, ये वर्तमाने काले प्रसिद्धास्ते भूते भविष्यत्यपि भवन्तीति वचनाददुष्टः प्रयोगः ॥ ७१ ॥ कुसग्गे जह ओसबिंदुए, थोवं चिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुआण जीवियं, समयं गोधम ! मा पमायए ॥ ७२ ॥ Jainelibrary.org Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यीया वैराग्य व्याख्या-कुशाग्रे यथा 'अवश्यायबिन्दुकः' शरत्कालभाविश्लक्षणवर्षविन्दुः, स्वार्थे का प्रत्ययः, 'स्तोक' अल्पं, काल- गुणविनशतकम्। मिति गम्यते, तिष्ठति लम्बमानक, एवं मनुजानां जीवितं, अतः समयमपि गौतम! मा प्रमादी रिति सूत्रार्थः॥७२॥ व्याख्या। ॥२१॥ संबुज्झह किं न बुज्झह ?, संयोहि खलु पेच्च दुल्लहा । नो हवणमंति राइओ, नो सुलहं पुणरवि जीवियं ॥७३॥ PI व्याख्या-श्री सूत्रकृताङ्गे वैतालीयाध्ययने भगवानादितीर्थकरो भरततिरस्कारागतसंवेगान् स्वपुत्रानुद्दिश्येदमाह, यदि वा सुरासुरनरोरगतिरश्चः समुद्दिश्याऽऽह, यथा-'सम्बुध्यध्वं' यूयं धर्मे बोधं कुरुत, 'किं न बुध्यध्वं ?' एवंविधसामग्र्यां सत्यां कस्माद्धर्मे बोधो न क्रियत ? इत्यर्थः, यतोऽकृतधर्माणां 'प्रेत्य' परलोके सम्बोधिर्धर्मप्राप्तिरूपा पुनर्दुर्लभा, खलु शब्दस्याऽवधारणार्थत्वात् सुदुर्लभैव, नो 'हुनिश्चये, नैवाऽतिक्रान्ता रात्रय 'उपनमन्ति' पुनौकन्ते, नह्यतिक्रान्तो यौवनादिकालः पुनरावर्तत इति भावः, पुनरपि 'जीवितं' संयमजीवितं, 'नो' नैव, सुलभं, यदि वा जीवितं' आयुखुटितं तत्सन्धातुं न शक्यत इत्यायुषोऽनियतत्वमाह ॥ ७३ ॥ डहरा बुड्डा य पासह, गम्भत्था वि चयंति माणवा । सेणे जह वयं हरे, एवं आउखयंमि तुदृइ ॥७४॥ ID॥२१॥ व्याख्या-"डहरा" बाला एव एके-केचिज्जीवितं त्यजन्ति, तथा वृद्धाश्च, गर्भस्था अपि मानवा, उपदेशयोग्यत्वासन्मानवग्रहणं, एतत् पश्यत यूयं, यत्सर्वास्वप्यवस्थासु प्राणी जीवितं त्यजतीति, तथाहि-त्रिपल्योपमायुष्कस्याऽपि पर्या RECESSACREC ORREN Jain Educat i onal For Private & Personal use only HThjainelibrary.org Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तेनैव कस्यचिन्मृत्युरुपतिष्ठतीत्यत्र दृष्टान्तमाह-यथा श्येनो 'वर्तकं' तित्तिरिजीवं 'हरते' हन्ति, एवमायुःक्षये प्राणान्मृत्युरपहरेदायुःक्षये वा त्रुट्यति जीवितम् ॥ ७४ ॥ तिहुयणजणं मरंतं, दहण नयंति जे न अप्पाणं । विरमंति न पावाओ, धिद्धी धिट्टत्तणं ताणं ॥७॥ व्याख्या-'त्रिभुवनजनान्' समस्तलोकान् , नियमाणान् दृष्टा य आत्मानं प्रक्रमाद्धर्मे 'न नयन्ति' न प्रापयन्ति, तथा पापाच्च हिंसादेन विरमन्ति' न निवर्तन्ते, तेषां 'धृष्टत्वं' धाष्य, धिर धिक ॥७५॥ मा मा जंपह बहुअं, जे बद्धा चिक्कणेहि कम्मेहिं । सवेसि तेसि जायइ, हियोवएसो महादोसो ॥ ७६ ॥ व्याख्या-खल्वेवममी पुनः पुनः प्रतिवोध्यमाना अपि किमिति न प्रतिबुध्यन्त इति 'बहु के' बहुलं, 'मा मेति' निषेधे,। 'जल्पत' वदत, यद्वा अयोग्यान् प्रत्युपदिशतो गुरून्प्रति साधूनामिदं वाक्यं-हे गुरवो ! मा मा बहुकं हितोपदेशादिकं जल्पत, कुतो?, यतो ये प्राणिन चिक्कणनिविडैः 'कर्मभिानावरणीयादिभिर्बद्धा' आश्लिष्टा, स्तेषां प्राणिनां हितो-18 पदेशो' धर्मोपदेशो महादोषो महाद्वेषो वा, दोषस्तु-"आमे घडे निहत्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ । इय सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥१॥” इत्यादिको, दर्पान्मामप्ययमेवमनुशास्तीत्यादिरूपो द्वेषो वा 'जायते' भवति, ब्रह्मदत्तचक्रवर्त्यादिवद्, यत उक्तं-"उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये । पयःपानं भुजङ्गानां, केवलं विषवर्धनम् ॥१॥" ततश्च यस्मान्निविडकर्मणां हितोपदेशो महादोषो महाद्वेषो वा जायते तस्मात्तान् प्रति मा बहु बहु जल्पतेत्यर्थः॥७६ ॥ Jan Educati onal For Private &Personal use Only Miainelibrary.org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् । ॥२२॥ कुणसि ममत्तं धणसय-णविवपमुहेसुऽणंतदुक्खेसु । सिढिलेसि आयरं पुण, अणंतसुक्खंमि मुक्खमि ॥७७॥ गुणविन__ व्याख्या-रे मूढात्मन् ! त्वं 'अनन्तदुःखेषु' अनन्तदुःखकारणेषु, धनस्वजनविभवप्रमुखेषु, धनं-हिरण्यादिः, स्वजनो-18 यीयामात्रादि, विभवो-हस्त्यश्वादिस्तत्प्रभृतिषु 'ममत्वं' ममीकारं करोषि, तथा चोक्तं श्रीआचाराने [लोकविजयाध्ययने प्रथ व्याख्या। मोद्देशके ] "माया मे पिया मे भाया मे भगिणी मे भजा मे पुत्ता मे धूता मे सुण्हा मे सहिसयणसंगंथसंथुया मे विवितोपकरणपरियट्टणभोयणच्छायणं मे, इच्चत्थं गड्डिए लोए वसे पमत्ते अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठाई संजोगऽट्ठी अट्ठालोभी" [एतट्टीका ]-"मातृविषयो रागः संसारस्वभावादुपकारकर्तृत्वाद्वोपजायते, रागे च सति मदीया माता क्षुत्पिपासादिकां वेदनां मा प्रापदित्यतः कृषिवाणिज्यसेवादिकां प्राण्युपघातरूपां क्रियामारभते, तदुपघातकारिणि च तस्यां वाऽकार्यप्रवृत्तायां द्वेष उपजायते, तद्यथा-अनन्तवीर्यप्रसक्तायां रेणुकायां रामस्येवेति, एवं पिता मे, पितृनिमित्तं रागद्वेषौ भवतो, यथा रामेण पितरि रागात्तदुपहन्तरि च द्वेषात्सप्तकृत्वः क्षत्रिया व्यापादिताः, सुभूमेनापि त्रिःसप्तकृत्वो ब्राह्मणा इति, भ्राता मे, भगिनी निमित्तेन च क्लेशमनुभवति प्राणी, तथा भार्यानिमित्तं रागद्वेषोद्भवस्तहै द्यथा-चाणाक्येन भगिनीभगिनीपत्याद्यवज्ञातया भार्यया चोदितेन नन्दान्तिकं द्रव्यार्थमुपगतेन कोपानन्दकुलं क्षयं निन्ये, तथा पुत्रा मे न जीवन्तीत्यारम्भे प्रवर्तते, एवं दुहिता मे दुःखिनीति रागद्वेषोपहतचेताः परमार्थमजानानस्तत्तद्विधत्ते येनैहिकामुष्मिकानपायानवाप्नोति, तद्यथा-जरासन्धो जामातरि कसे व्यापादिते स्वबलावलेपादपसृतवासुदेवपदा ॥२२॥ SHARE Jan Education International For Private & Personal use only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POSSUISSES नुसारी सबलवाहनः क्षयमगात् , स्नुषा मे न जीवतीत्यारम्भादौ प्रवर्तते, 'सखिस्वजनसंग्रन्थसंस्तुता में' सखा-मित्रं, स्वजनः-पितृव्यादिः, संग्रन्थः-स्वजनस्याऽपि स्वजनः पितृव्यपुत्रशालादिः, संस्तुतो-भूयो भूयो दर्शनेन परिचितोऽथवा पूर्वसंस्तुतो-मातृपित्रादिभिरभिहितः, पश्चात्संस्तुतः-शालकादिः, स इह ग्राह्यः, स च मे दुःखित इति परितप्यते, विविक्तंशोभनं प्रचुरं वा, उपकरणं-हस्त्यश्वरथासनमञ्चकादि, परिवर्तनं-द्विगुणत्रिगुणादिभेदभिन्नं तदेव, भोजनं-मोदकादि, आच्छादनं-पट्टयुगादि, तच्च मे भविष्यति नष्टं वा, "इच्चत्थ"मिति, इत्येवमर्थ गृद्धो लोकस्तेष्वेव मातृपित्रादिरागादिनिमित्तस्थानेष्वामरणं, प्रमत्तो-ममेदमहमस्य स्वामी पोषको वेत्येवं मोहितमना 'वसेत् तिष्ठेदिति, उक्तं च-'पुत्रा में भ्राता मे, स्वजनो मे गृहकलत्रवर्गो मे । इति कृतमेमेशब्द, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥१॥ पुत्रकलत्रपरिग्रह-ममत्वदोषैर्नरो व्रजति नाशम् । कृमिक इव कोशकारः, परिग्रहादुःखमाप्नोति ॥२॥' x x x तदेवं कषायेन्द्रियप्रमत्तो मातृपिवाद्यर्थमर्थोपार्जनरक्षणतत्परो दुःखमेव केवलमनुभवतीत्याह च-"अहो” इत्यादि, अहश्च सम्पूर्ण रात्रिं च, च शब्दात्पक्षं मासं च निवृत्तशुभाध्यवसायः परि-समन्तात्तप्यमानः परितप्यमानः सन् तिष्ठति, तद्यथा-'कई या वच्चइ सत्थो ?, किं भंडं ? कत्थ केत्तिया भूमी ? । को कयविक्कयकालो ?, निविसई किं कहिं केण ? ॥१॥ इत्यादि, स च परितप्य-18 मानः किम्भूतो भवतीत्याह-काले त्यादि, कालः कर्तव्यावसरस्तद्विपर्यासोऽकालः, सम्यगुत्थातुं-अभ्युद्यन्तुं शीलमस्येति | समुत्थायीति पदार्थो, वाक्यार्थस्तु काले-कर्तव्यावसरे अकालेन-तद्विपर्यासेन समुत्तिष्ठतेऽभ्युद्यतमनुष्ठानं करोति, तच्छी-1 -१ कदा व्रजति सार्थः, किं भाण्डं कुत्र कियती भूमिः । कः क्रयविक्रयकालो, निर्विशति (निर्गच्छति ) किं क केन ? ॥१॥ Jan Education International For Private &Personal use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- लश्चेति, कर्तव्यावसरे न करोतीत्यन्यदा च विदधातीति, यथा वा काले करोत्येवमकालेऽपीति, यथा वाऽनवसरे न करो-4 गुणविनशतकम्। Iत्येवमवसरेऽपीति, अन्यमनस्कत्वादपगतकालाकालविवेक इति भावना, यथा प्रद्योतेन मृगापतिरपगतभर्तृका सती ग्रह- यीया णकालमतिवाह्य कृतप्राकारादिरक्षा जिघृक्षितेति, यस्तु पुनः सम्यकालोत्थायी भवति स यथाकालं परस्परानावाधया सर्वाः व्याख्या। ॥२३॥ क्रियाः करोतीति, तदुक्तं-'मासैरष्टभिरह्ना च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत्कर्तव्यं मनुष्येण, येनाऽन्ते सुखमेधते ॥१॥ धर्मानुष्ठानस्य च न कश्चिदकालो मृत्योरिवेति, किमर्थं पुनः कालाकालसमुत्थायी भवतीत्याह-"संजोगट्ठी” संयुज्यते । संयोजनं वा संयोगोऽर्थः-प्रयोजनं संयोगार्थः, सोऽस्याऽस्तीति संयोगार्थी, तत्र धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदराज्यभायादिः संयोगस्तेनाऽर्थी-तत्प्रयोजनी, अथवा शब्दादिविषयः संयोगो मातापित्रादिभिर्वा, तेनाऽर्थी कालाकालसमुत्थायी भवतीति, किश्च "अट्ठालोभी" अर्थो-रत्नकुप्यादिस्तत्र आ-समन्ताल्लोभोलोभः, स विद्यते यस्येत्यसावपि काला कालसमुत्थायी भवति, मम्मणवणिग्यत्तथाहि-असावतिक्रान्तार्थोपार्जनसमर्थयौवनवया जलस्थलपथप्रेषितनानादेशमादण्डभृतबोहित्थगन्तृकोष्ट्रमण्डलिकासम्भृतसम्भारोऽपि प्रावृषि सप्तरात्रावच्छिन्नमुशलप्रमाणजलधारावर्षनिरुद्धसकलपाणि गणसञ्चारमनोरथायां महानदीजलपुरानीतकाष्ठानि जिघृक्षुरुपभोगधर्मावसरे निवृत्तापराशेषशुभपरिणामः केवलमर्थोपाजनप्रवृत्त इति, उक्तं च-“उक्खणइ खणइ निहणइ, रत्तिं ण सुअति दिया वि य ससंको । लिंपइ ठएइ सययं, लंछिय-13 ॥२३॥ १ उत्खनति खनति निदधाति (निहन्ति), रात्रौ न स्वपिति दिवाऽपि च सशङ्कः । लिम्पति स्थगयति सततं, लान्छितप्रतिलान्छितं करोति ॥ १॥ भुक्ष्व Cन तावद्रितः (निर्व्यापारो), जिमितुं नाऽपि चाद्य मक्ष्यामि । नाऽपि च बत्स्यामि गृहे, कर्तव्यमिदं बह्वय ॥२॥ Jain Educator ? For Private &Personal use Only Caainelibrary.org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCRECORDSMSAMACOCOMSACH पडिलंछियं कुणइ ॥१॥ भुंजसु न ताव रिक्को, जेमेउं नवि य अज्ज मजीहं । न वि य वसीहामि घरे, कायवमिणं बहुर अज ॥२॥" अथ प्रकृतार्थो-अनन्तसौख्ये मोक्षे पुनरादरं' अनुरागं, 'शिथिलयसि' शिथिलं कुरुषे, मोक्षगमनाय तद्धेतुष्वहिंसादिषु न प्रवर्तसे इति भावः॥ ७७॥ संसारो दुहहेऊ, दुक्खफलो दुस्सहदुक्खरूवो य । न चयंति तं पि जीवा, अइबद्धा नेहनिअलेहिं ॥७८॥ व्याख्या-हे जीव ! अयं संसारो दुःखस्य हेतुः-कारणं, तथा दुःखमेव फलं यस्याऽसौ दुःखफलः, च पुनः 'दुस्सहं, सोदुमशक्यं यदुःखं तद्रूपस्तत्स्वरूपः, तमपि संसारं 'जीवा' प्राणिनः 'स्नेहनिगडैः' प्रेमशृङ्खलाभिः 'अतिबद्धा' अतिशयेन गृहीता न त्यजन्ति, ब्रह्मदत्तादिवत्, ब्रह्मदत्तो मारणान्तिकरोगवेदनादिभिरभिभूतः सन्तापातिशयात् स्पृशन्ती प्रणयिनीमिप विश्वासभूमि मूर्छा बहुमन्यमानस्तथा हस्तीकृतो विहस्ततया, विषयीकृतो वैषम्येण, गोचरीकृतो ग्लान्या, दष्टो दुःखासिकया, क्रोडीकृतः कालेन, पीडितः पीडाभिर्निरूपितो नियत्या, आदित्सितो दैवेन, अन्ति केऽन्त्योच्छासस्य, मुखे महाप्रवासस्य, द्वारि दीर्घनिद्राया, जिह्वाग्रे जीवितेशस्य वर्तमानो, विरलो वाचि, विह्वलो वपुषि, प्रचुरः प्रलापे, जितो जृम्भिकाभिरित्येवम्भूतामवस्थामनुभवन्नपि महामोहोदयादोगांश्चिकाक्षिषुः पार्बोपविष्टां भामिनवरतवेदनावशगलदश्रुरक्तनयनां कुरुमति ! कुरुमतीत्येवं व्याहरन्नधः सप्तमी नरकपृथ्वीमगात् , तत्राऽपि तीव्रतरवेदनाऽभिभूतोऽप्यविगणय्य वेदनां तामेव कुरुमती व्याहरतीत्येवम्भूतो भोगाभिष्वङ्गो दुस्त्यजो भवति केषाश्चिद्, अन्येषां पुनर्महापुरुषाणामुदारसत्त्वा Jan Education anal For Private &Personal use Only ww.jainelibrary.org Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम्। गुणविनयीयाव्याख्या। ॥२४॥ नामात्मनोऽन्यच्छरीरमित्येवमवगततत्त्वानां सनत्कुमारादीनामिव यथोक्तरोगवेदनासद्भावे सत्यपि मयैवैतत् कृतं सोढव्यमपि मयैवेत्येवं जातनिश्चयानां कर्म क्षपणोद्यतानां न मनःपीडोत्पद्यते इति, उक्तं च-"उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, रागद्वेषकषायसन्ततिमहानिर्विघ्नबीजस्तया । रोगैरङ्करितो विपत्कुसुमितः कर्मद्रुमः साम्प्रतं, सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरधोगामिभिः॥१॥ पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तवायं, न खलु भवति नाशः कर्मणां सञ्चितानाम् । इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यक्, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः ? ॥२॥" ॥ ७८॥ नियकम्मपवणचलिओ, जीवो संसारकाणणे घोरे । का का विडंबणाओ, न पावए दुसहदुक्खाओ ॥७९॥ | __व्याख्या-अयं 'जीव' आत्मा 'घोरे' रौद्रे 'संसारकानने' भवकान्तारे 'निजकर्मपवनचलित' आत्मीयज्ञानावरण्यादि| कर्मवायुप्रेरितो 'दुस्सह सोढुमशक्यं दुःखं याभ्यस्ता दुस्सहदुःखा, एवंविधाः काः का 'विडम्बना' वधवन्धादिरूपाणि | विगोपनानि न प्राप्नुयात् ?, अपि तु सर्वा अपि ॥ ७९ ॥ सिसिरंमि सीयलानिल-लहरिसहस्सेहि भिन्नघणदेहो । तिरियत्तणमि रण्णे, अणंतसो निहणमणुपत्तो ॥ ८॥ व्याख्या-हे जीव ! त्वं 'तिर्यक्त्वे' तिर्यग्भवे 'अरण्ये' कान्तारे 'शिशिरे' शीतकाले 'शीतलानिललहरिसहौ'हेमन्त६ वातप्रवाहसह घनं प्रचुरं यथा स्यात्तथा 'भिन्नो' व्यथितो देहो यस्य स भिन्नघनदेहः, प्राकृतत्वाद् व्यत्ययः, एवंविधः सन् | 'अनन्तशो' अनन्तवारान् , याव निधनं' विनाशमनुप्राप्तः ॥ ८॥ RECENERACRORKHALCRICSECREE ॥२४॥ Jain Educatio n al For Private &Personal use Only Kellainelibrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ| गिम्हायवसंतत्तो, रण्णे छुहिओ पिवासिओ बहुसो । संपत्तो तिरियभवे, मरणदुहं बहु विसूरंतो ॥ ८१॥ ___ व्याख्या-रे जीव ! त्वं तिर्यग्भवे 'अरण्ये' अरण्यान्तः पतितो, 'ग्रीष्मातपेन' उष्णकालातपेन, 'सन्तप्तः' सन्ता पितः- पीडितः सन् 'बहुशो' बहून्वारान् 'क्षुधितो' बुभुक्षितः, "पिपासित'स्तृषितो, 'बहु' अतिशयेन, खिद्यमानो मरण-15 द्र दुःखं सम्प्राप्तः ॥ ८१॥ वासासु रण्णमझे, गिरिनिज्झरणोदगेहि बुझंतो। सीआनिलडज्झविओ, मओसि तिरियत्तणे बहुसो ॥ ८२॥ व्याख्या-रे जीव ! त्वं अरण्यमध्ये 'तिर्यक्त्वे' तिर्यग्भवे 'वर्षासु' वर्षाकाले, गिरीणां यानि 'निझरणोदकानि' प्रश्रय|णजलानि, तैः 'ऊह्यमान'स्ततः स्थलादन्यत्र नीयमानः 'शीतलानिलेन' हिमवातेन दग्धः सन् 'बहुशो' वारंवारं 'मृतोऽसि' पञ्चत्वं प्राप्तोऽसि ॥ ८२॥ एवं तिरियभवेसुं, कीसंतो दुक्खसयसहस्सेहिं । वसिओ अणंतखुत्तो, जीवो भीसणभवारण्णे ॥ ८३॥ व्याख्या-'एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण तिर्यग्भवेषु जीवो दुःखशतसहस्रः 'क्लिश्यन्' क्लेशं प्रामुवन् सन् अनन्तवारान् भीषणभवारण्ये 'उषितः' स्थितः॥ ८३॥ दुद्रुष्टुकम्मपलया-निलपेरिओ भीसणंमि भवरण्णे। हिंडतो नरएसु वि, अणंतसो जीव ! पत्तोऽसि ॥ ८४ ॥ व्याख्या-हे जीव ! त्वं 'भीषणे' भयजनके भवारण्ये 'उपितः' स्थितः, संसारकान्तारे 'दुष्टानि' दुष्टफलानि यान्यष्टवैरा०५५ यहि । वसिओ अणनखतो, जीवो भीषणभवारपणे॥६६ JainEducatbodim o na For Private &Personal use Only X ainelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम्। गुणविनयीयाव्याख्या। ॥२५॥ CALCUMAUNLODSEOCESS संख्यानि कर्माणि ज्ञानावरणीयादीनि, तान्येव 'प्रलयानिलः' प्रलयपवनस्तेन 'प्रेरितो' दोलितो 'हिण्डमानः' परिभ्रमन सन्नरकेष्वपि 'अनन्तशो' अनन्तवारान् , प्रक्रमाद्दुःखं प्राप्तोऽसि ।। ८४ ॥ सत्तसु नरयमहीसुं, वज्जानलदाहसीअविअणासुं । वसिओ अणंतखुत्तो, विलवंतो करुणसद्देहिं ॥ ८५॥ व्याख्या-रे जीव ! त्वं 'सप्तसु' सप्तसंख्यासु नरकपृथ्वीषु रत्नप्रभादिषु 'वज्रानलस्य' वज्राग्ने घिस्य' उष्णस्य 'शीतस्य' च, हिमस्य, या 'वेदनाः' पीडास्तासु 'करुणशब्दैः' दयाजनकरुतै विलपन्' विलापं कुर्वन् सन् 'अनन्तकृत्वो' अनन्तवारान् 'उषितः' स्थितः, नरकेषूष्णवेदनायाः शीतवेदनायाश्च स्वरूपमेवमागमज्ञाः प्रज्ञापयन्ति, तथाहि-निदाघचरमसमये नभोमध्यमधिरूढे चण्डमहसि, मेघनिर्मुक्ते नभसि, कस्यापि पुंसो अत्यन्तपित्तप्रकोपाभिभूतस्य निषिद्धातपवारणस्य सर्वतो दीप्तवह्निज्वालाकरालस्य यादृगुष्णवेदना जायते ततोऽप्युष्णवेदनेषु नरकेषु नारकाणामनन्तगुणा, अपि च यदि नारका उष्णवेदनेभ्यो नरकेभ्य उत्पाट्य ज्वलत्खादिराङ्गारराशौ प्रक्षिप्य ध्मायन्ते तदा चन्दनलिप्ता इवाऽत्यन्तसुखान्निद्रामपि लभेरन् । तथा पौषे माघे वा रात्री निरभ्र नभसि हृदयादिकम्पकृति वाति मारुते हिमाचलस्थलीकृतस्थितेनिरग्नेनिराश्रयस्य निरावरणस्य तुषारकणसिक्ताङ्गस्य पुंसो या शीतवेदना ततोऽपि शीतवेदनेषु नरकेषु नारकाणामनन्तगुणा, किश्च यदि नारकाः शीतवेदनेभ्यो नरकेभ्य उत्पादय यथोक्तपुरुषस्थाने स्थाप्यन्ते तदा ते प्राप्तात्यन्तनिर्वातस्थाना इव निरुपमसुखान्निद्रामप्यासादयेयुरिति ॥ ८५ ॥ CREASEENERASACRICS ॥ २५ Jain Educah ama For Private & Personal use only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पियमायसयणरहिओ, दुरंतवाहिहिं पीडिओ बहुसो। मणुयभवे निस्सारे, विलविओ किं न तं सरसि? ॥८६॥ ___ व्याख्या-रे जीव ! 'निस्सारे' असारे मनुष्यभवे त्वं मातृपितृस्वजनै 'रहितो' वियुक्तः, प्राकृतत्वाद्विपर्ययो, 'दुरन्तव्याधिभिः'दुःखेनान्तोऽवसानं येषां ते दुरन्ता, एवंविधा ये व्याधयस्तैः पीडितः सन् 'बहुशो'बहुभिः प्रकारै विल(पितो)तो' विलापं कृतवान् , तं विलापं किं न 'स्मरसि' विचारयसि ?, अन्यत्रापि मनुष्यभवदुःखाधिकारे उक्तं-"नत्थि घरे मह दवं, विलसइ लोओ पयट्टइ च्छणुत्ति । डिंभाइ रुअंति घरे, हद्धी किं देमि ? घरणीए ॥१॥दिति न मह ढोअं पि हु, अत्तसमिद्धीइ गविया सयणा । सेसा वि हु धणिणो परि-हवंति न हु दिति अवगासं ॥२॥ अज घरे नत्थि घयं, तिल्लं लोणं च इंधणं वत्थं । जाया उ अन्ज तउणी, कल्ले किह होही ? कुटुंबं ॥ ३॥ वट्टइ घरे कुमारी, बालो तणओ विढप्पइ न अत्थं । रोगबहुलं कुटुंब, ओसहमुल्लाइयं नत्थि ॥४॥ उड्डोआ मह घरणी, समागया पाहूणा बहु अज । जिण्णं घरं च हट्ट, झरइ जलं गलइ सबं पि ॥५॥ कलहकरी मह भजा, असंवुडो परिअणो पहू विसमो । देसो अधारणिज्जो, एसो वच्चामि अन्नत्थ ॥ ६॥ जलहिं पविसेमि महि, भमेमि धाउं धमेमि अहवा वि । विज मंतं साहे-मि देवयं वा वि अच्चेमि ॥ ७ ॥ जीवइ अज वि सत्तू, मओ अ इट्ठो पहू अ मह रुट्ठो । दाणिग्गहणं मग्गं-ति विहविणो कत्थ वच्चामि ? ॥८॥ इच्चाइ महाचिंता, जरगहिया णिच्चमेव य दरिदा। किं अणुहवंति सुक्खं ?, कोसंबीनयरिविप्पुव ॥९॥" तत्कथानकमिदंकौशाम्ब्यां सोमिलो द्विज आजन्मदरिद्रो भार्यापुत्रपुत्रिकादिकुटुम्बबहुलोऽन्यदा धनार्जनाय देशान्तरे गतः सन् वाणि anna For Private Personal use only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम्। गुणविन यीयाव्याख्या। ॥२६॥ ज्यादिव्यापाररहितं सदान-भोगं योगिनमेकमद्राक्षीत् , स च तं द्विजं चिन्तातुरं पृच्छति-का चिन्ता ?, तेनोक्तं-दारियं चिन्ताकारि, योगी स्माह- त्वामीश्वरं करोमि, यदहं कथयामि तत्त्वया कार्य, ततो द्वावपि पर्वतनिकुळे गतौ, योगी प्राह-एष स्वर्णरसः शीतवातातपादिसहमानैः-शुष्ककन्दमूलफलाशिभिः शमीपत्रपुटैर्मील्यते, द्वाभ्यामपि ततस्तथैव गृहीतो रसः, भृतं तुम्ब, विनिर्गतौ वनात् , योगी स्माह-भो ! अप्रमत्तेन तुम्बकं धार्य, दुःखेन षण्मासैर्मीलितोऽस्ति रसोऽयं, इत्येवं पुनः पुनः कथने रुष्टो विप्रो, ढोलितं तुम्ब, सागपत्रेरितस्ततः क्षिप्तो रसो गतः सर्वः, ततोऽयोग्योऽयमिति परित्यक्तः पृथिव्यां भ्रान्त्वा मृत इति ॥८६॥ पवणुव गयणमग्गे, अलक्खिओ भमइ भववणे जीवो । ठाणहाणंमि समु-ज्झिऊण धणसयणसंघाए ॥८७॥ __ व्याख्या-हे आत्मन् ? अयं 'जीवः' प्राणी स्थाने स्थाने धनस्वजनसंघातान् "समुज्झिऊण"त्ति समुज्झ्य-त्यक्त्वा भववने 'अलक्षितो' अज्ञातस्वरूपः सन् 'भ्रमति' पर्यटति, कस्मिन् क इव ?, 'गगनमार्गे' नभोवमनि पवन इव, यथा गगने 'पवनो' वातो 'अलक्षितो' अदृश्यरूपः सन् भ्रमति, तथाऽयं जीवोऽपि ॥ ८७॥ विधिजंता असयं, जम्मजरामरणतिक्खकुंतेहिं । दुहमणुहवंति घोरं, संसारे संसरंत जिया ॥८८॥ व्याख्या-हे आत्मन् ! अमी जीवाः संसारे चातुर्गतिकरूपे 'संसरन्त' इतस्ततः पर्यटन्तः सन्तो 'असकृद्' वारंवारं . तुम्बस्तम्बादय इति निपात्यन्ते, तुम्बम कात्रु । Jan Education intematonal For Private & Personal use only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S A LACCOCALCARDS 'घोरं' रौद्रं 'दुःखं' असातं 'अनुभवन्ति' प्रामुवन्ति, किम्भूता जीवाः?, जन्मजरामरणान्येव 'तीक्ष्णा' निशिता, ये 'कुन्ताः' प्रासास्तै विध्यमाना' भेद्यमाना, अत एव दुःखानुभवनं जीवानाम् ॥ ८८॥ तह वि खणं पि कया वि हु, अन्नाणभुअंगडंकिआ जीवा । संसारचारगाओ, न य उविजंति मूढमणा ॥ ८९॥ ___ व्याख्या-यद्यप्येवं दुःखमनुभवन्ति तथाऽपि, 'हु'निश्चये, "कदापि' कस्मिन्नपि प्रस्तावे, अमी 'मूढमनसो' मूर्खा जीवा, अज्ञानमेव भुजङ्गस्तेन 'दष्टा' भक्षिता, अज्ञानान्धा इत्यर्थः, 'क्षणमपि' स्तोककालमपि, संसार एव 'चारको' गुप्तिगृहं, तस्मात् 'न चोद्विजन्ते' नोद्विग्ना भवन्ति ॥ ८९॥ कीलसि कियंत वेलं, सरीरवावीइ जत्थ पइसमयं । कालरहघडीहिं, सोसिज्जइ जीवियंऽभोहं ॥९॥ ___ व्याख्या-रे जीव ! त्वं 'शरीरवाप्यां' देहरूपदीर्घिकायां कियती 'वेला' समयं यावत् 'क्रीडिष्यसि' रंस्यसे ?, कियन्तं कालं स्थास्यसीत्यर्थः, यत्र शरीरवाप्यां 'प्रतिसमयं' प्रतिक्षणं कालारघट्टघटीभिजीविताम्भ ओघों' जीवितजलप्रवाहः शोष्यते, यथा वापी अरहट्टघटीभिः प्रतिसमयं निर्वास्यमानजलेन शोषमासादयति, तथेदं शरीरमपि प्रतिसमयं कालातिक्रमणेन जीवितजलशोषणाद्रिक्तं जायत इत्यर्थः॥ ९०॥ रे जीव ! बुज्झ मा मु-ज्झ मा पमायं करेसि रे पाव!। किं परलोए गुरुदु-क्खभायणं होहिसि? अयाण ! ९१ व्याख्या-रे जीव !' आत्मन् ! त्वं 'बुध्यस्व' धर्मे बोधं कुरु, 'मा मुह्य' मा मोहमामुहि, 'रे पाप !' दुष्टात्मन् !, अदृ SASAASAASAASAASAASAASAASAASU* Jan Educator anal For Private &Personal use Only M iainelibrary.org Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणविनयीयाव्याख्या। वराग्य- Fटवशात्प्राप्ते धर्मे मा 'प्रमाद' मा आलस्यं कुरु, हे 'अज्ञान !' मूढ ! 'परलोके' परभवे 'गुरुदुःखानां' महदसातवेदनीयशतकम्। कर्मजन्यपीडानां 'भाजन' पात्रं किं भवसि ?, वर्तमानायां भविष्यत्प्रयोगः प्राकृतत्वात् ॥ ९१॥ ॥२७॥ बुज्झसु रे जीव ! तुम, मा मुज्झसु जिणमयम्मि नाऊणं । जम्हा पुणरवि एसा, सामग्गी दुल्लहा जीव ! ॥१२॥ __ व्याख्या-रे जीव ! त्वं 'बुध्यस्व' धर्मे बोधं कुरु, 'ज्ञात्वा'यथास्वरूपमवबुध्य 'जिनमते' सर्वज्ञशासने 'मा मुह्य'। मा मोहं याहि, जिनमतं सम्यक प्रतिपद्यस्वेत्यर्थः, यस्माद् हे जीव ! 'पुनरपि' एकशः काकतालीयन्यायेन प्राप्ता विद्यते, परं भूयोऽप्येषा सामग्री-साधुश्राद्धादिरूपा, "चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । माणुसत्तं सुइ सद्धा, संजमम्मि य |बीरियं ॥१॥” इति रूपा वा, 'दुर्लभा' दुष्प्रापा, चक्रवेधवत्तथाहि-इंदपुरं नगरं, इंददत्तो राया, तस्स इट्ठाणं वराणं देवीणं बाबीसं पुत्ता, अण्णे भणंति-एकाए चेव देवीए पुत्ता, ते सबे राइणोणं पाणसमा, अण्णा एका अमच्चधूया, सा परंपरिणतेण दिडिल्लिया, सा अण्णता कयाइ रिउण्हाता समाणी अच्छति, रायणा य दिट्ठा, का एस त्ति ?, तेहि भणितंतुज्झ देवी एसा, ताहे सो ताए समं रत्तिं एकं वसितो, साय रितुण्हाता, तीसे गब्भो लग्गो, सा य अमच्चेण भणिल्लिताजधा तुभं गम्भो आहूतो भवति तदा ममं साहेजसु, ताए तस्स कथितं दिवसो मुहत्तो जं च रायएण उल्लवितं सोतियकारो, तेण तं पत्तए लिहितं, सो य सारवेति, णवण्हं मासाणं दारओ जातो, तस्स दासचेडाणि तद्दिवसं जाताणि, १ संकेतः। ॥२७॥ Jain Educatio n al For Private Personal use Only C ainelibrary.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ECORICAL तंजहा-अग्गियओ पवतओ बहुलियो सागरो य, ताणि सहजाताणि, तेण कलायरिअस्स उवणीतो, तेण लेहाइताओ गणियप्पधाणाओ बावत्तरिं कलाओ गाहितो, जाधे ताओ गाहिंति आयरिया ताधे ताणि तं कडंति वाउल्लंति य, पुवपरिचएणं ताणि रोडंति, तेण ताणि णो चेव गणिताणि, गहिताओ कलाओ, ते अ अण्णे बावीसं कुमारा गाहिजता | आयरियं पितॄति, अवयणाणि भणंति, जति सो आयरियो पिट्टेति ताधे गंतूण माऊणं साहति, ताहे ताओ आयरियंटू खिसंति-कीस आहणसि ?, किं सुलभाणि पुत्तजम्माणि ?, ततो ते ण सिक्खियाओ। इओ य महुराए पबओ राया, तस्स | सुता णिति नाम दारिया, सा रण्णो अलंकिया उवणीया, राया भणति-जो तव रोयति | सो ते ] भत्तारो, ततो ताए णातं-जो सूरो वीरो विकतो सो मम भत्ता होउ, से पुण रजं दिजा, ताधे सा य बलवाहणं गहाय गता इंदपुरं नगरं, तस्स इंददत्तस्स रण्णो बहवे पुत्ता (सुएल्लिया), इंददत्तो तुट्ठो चिंतेइ-णूणं अण्णेहिंतो राईहिंतो लट्ठो तो आगमितो, ततो तेण उस्सितपडागं नगरं कारितं, तत्थ एक्कम्मि अक्खे अटु चक्काणि, तेसिं परतो धीयल्लिया, सा अच्छिम्मि विधितवा, ततो इंददत्तो राया संनद्धो णिग्गतो सह पुत्तेहिं, सा विकण्णा सबालंकारविभूसिया एगंमि पएसे अच्छति, सो रंगो| रायाणो, ते य दंडभडभोइया, जारिसो दोवतीए, तत्थ रण्णो जेहो पुत्तो सिरिमाली णाम कुमारो, सो भणितो-पुत्त ! |एसा दारिया रजं च घेत्तवं अतो विंध एतं पुत्तलियं ति, ताधे सो अकतकरणो तस्स समूहस्स मज्झे धणूं चेव गेण्हितुं ण तरति, कहंचिऽणेण गहितं, तेण जत्तो वच्चउ तत्तो वच्चउ त्ति मुक्को सरो, सो चक्के अप्फडितूण भग्गो, एवं कस्स विडू द एक अरगंतरं वोलीणो, कस्सइ दोण्हि कस्सइ तिण्हि, अण्णेसिं बाहिरेणं चेवणीति, ताधे राया अधितिं पगतो, अहो !! Jan Educati onal For Private & Personal use only (aiyjainelibrary.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहे ता-अस्थि पुणो अण्णाम, दरिसितो, तत्तो राणा गुणविन ता रजसुहं णिबुति दारिसराणा अवगूहितो भणितो-सेयं नाम, सो समत्थो विधेडे, अभि- वैराग्य- अहं एतेहिं धरिसितो त्ति, ततो अमच्चेण भणितो-कीस अधिति करेह ?,राया भणति-एतेहिं अहं अप्पधाणो कतो, अमशतकम् । चो भणति-अस्थि पुणो अण्णो तुझ पुत्तो मम धूताए तणओ भणाइओ सुरिंददत्तो नाम, सो समत्थो विधेयं, अभि ण्णाणाणि से कहिताणि, कहिं सो?, दरिसितो, तत्तो राइणा अवगृहितो भणितो-सेयं तव एए अट्ठरहचक्के भेत्तूण पुत्त- व्याख्या। ॥२८॥ लियं अच्छिम्मि विधित्ता रजसुहं णिवुति दारियं संपावित्तए, ततो कुमारो जधा आणवेह त्ति भणित्तूण ठाणं ठाइत्तूण दूधणुं गेण्हति, लक्खाभिमुहं सरं सजेति, ताणि य दासरूवाणि चउद्दिसि ठिताणि रोडंति, अण्णे य उभयतो पासिं गहि तखग्गा, जति कहवि लक्खस्स चुक्कति ततो सीसं छिदितवं ति, सो वि से उवज्झाओ पासे ठिओ भयं देति-मारिजसि जइ चुक्कसि, ते बावीसं पि कुमारा एस विधिस्सति त्ति विसेसं उलंठाणि विग्याणि करेंति, ततो ताणि चत्तारि ते य दो द्र पुरिसे बावीसं च कुमारे अगणितेण ताणं अट्ठण्डं रहचक्काणं अंतरे जाणिऊण तमि लक्खे णिरुद्धाए दिट्ठीए अण्णमति अकुणमाणेण सा धीइल्लिया वामे अच्छिम्मि विद्धा, ततो लोकेण उक्किट्ठकलुकलुम्मिस्सो साधुक्कारो कतो, जधा तं चक्क दुखं भेत्तुं, एवं एसा सामग्गी वि ॥ ९२ ॥ दुलहो पुण जिणधम्मो, तुम पमायायरो सुहेसी य । दुसहं च नरयदुक्खं, कह होहिसि तं न याणामो ॥१३॥13 ___ व्याख्या-हे जीव ! अयं 'जिनधर्मः' तीर्थकृत्प्रणीतो धर्मो अहिंसादिरेकशो लब्ध इति गम्यते, पुन र्दुर्लभो' दुष्प्रापः,61 ॥२८॥ त्वं च 'प्रमादाकर' आलस्यादिखानिः, आलस्याद्युपहतो हि धर्म न पामोति, प्राप्तमपि सम्यग् नाऽनुतिष्ठति, यत उक्तं Jan Education International For Private & Personal use only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAUSASUSASTISUUS श्रीआवश्यकनियुक्तौ-"आलस्स- मोह-ऽवण्णा, थंभा कोही पमार्य-किविणत्ता । भैय-सोगा अण्णाणी,-ऽवक्खेव-18 कुतूहला रमणा ॥१॥ आलस्यान्न साधुसकाशं गच्छति शृणोति वा, मोहाद् गृहकर्तव्यतामूढो वा, अवज्ञातो वा-किमेते विजानन्तीति, स्तम्भावा-जात्याद्यभिमानात् , क्रोधाद्वा-साधुदर्शनादेव कुप्यति, प्रमादाद्वा-मद्यादिलक्षणात् , कृप णत्वाद्वा-दातव्यं [भविष्यति] किश्चिदिति, भयाद्वा-नारकादिभयं वर्णयन्तीति, शोकाद्वा-इष्टवियोगजात् , अज्ञानात्-कुद्द६ टिमोहतः, व्याक्षेपा(हुकर्तव्यतामूढः, कुतूहलान्नटादिविषयात् , रमणात्-लावकादि खेड्डेनेति गाथार्थः, एतेहि कारणेहिं, लद्भूण सुदुल्लहं पि माणुस्सं । न लहइ सुतिं हियकरिं, संसारुत्तारिणिं जीवो ॥२॥" तथा त्वं 'सुखैषी च' ऐहिकसुख-| वाञ्छकः,नरकदुःखं च 'दुस्सह सोढुमशक्यं, अतस्त्वं कथं भविष्यसि परलोके तन्न जानीमः ॥९३ ॥ अथिरेण थिरो समले-ण निम्मलो परवसेण साहीणो। देहेण जइ विढप्पइ, धम्मो ता किं न पजत्तं ॥ ९४॥ व्याख्या-रे जीव! 'अस्थिरेण' अशाश्वतेन देहेन यदि 'स्थिरः' परलोकानुगामी, धर्म उपाय॑ते तदा 'किं न पर्याप्तं ?' किं न परिपूर्ण ?-किं न सम्पन्नमित्यर्थः, तथा 'समलेन' पुरीपप्रश्रवादिपूर्णेन देहेन 'निर्मलो' निर्दोषो धर्मों यद्ययंते तदा किं न पर्याप्तं ?, तथा 'परवशेन' रोगाद्यायत्तेन देहेन यदि 'स्वाधीनः' स्वात्मायत्तो धर्मोऽयंते तदा किं न पर्याप्तम् ? ॥९४॥ हैजह चिंतामणिरयणं, सुलहं न हु होइ तुच्छविहवाणं । गुणविहववज्जियाणं, जियाण तह धम्मरयणं पि ॥१५॥ CARRIAGESARIES Jain Education anal For Private & Personal use only Nainelibrary.org 8 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् । ॥ २९ ॥ व्याख्या- 'यथा' येन प्रकारेण 'चिन्तामणिरत्नं' प्रतीतं 'सुलभं' सुप्रापं 'न हु' नैव 'भवति' जायते 'तुच्छविभवानां' तुच्छ ः- स्वल्पो विभवः - कारणे कार्योपचाराद्विभवकारणं पुण्यं येषां ते तुच्छविभवाः- स्वल्पपुण्या इत्यर्थस्तेषां तथाविधपशुपालवत्, तथा 'गुणा' अक्षुद्रतादयस्तेषां विशेषेण 'भवनं' सत्ता गुणविभवो, अथवा गुणा एव 'विभवो' विभूतिर्गुणविभवस्तेन 'वर्जितानां' रहितानां 'जीवानां' पञ्चेन्द्रियप्राणिनामुक्तं च- "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतानि तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः ॥ १ ॥” अपि शब्दस्य वक्ष्यमाणस्येह संबन्धादेवं भावना कार्या| एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियाणां तावद्धर्मप्राप्तिर्नाऽस्ति, पञ्चेन्द्रियजीवानामपि तद्योग्यता हेतुगुणसामग्री विकलानां ' तथा ' तेन प्रकारेण धर्मरत्नं सुलभं न भवतीति प्रकृतसंबन्ध इति, पूर्वसूचितपशुपालदृष्टान्तश्चाऽयं - "बहुविबुधजनोपेतं हरिरक्षितमप्स| रःशतसमेतम् । इह अस्थि हत्थिणपुरं, पुरं पुरन्दरपुरुब वरं ॥१॥ तत्र श्रेष्ठिगरिष्ठः पुन्नागो नागदेवनामाऽऽसीत् । निम्मलसीलगुणधरा, वसुंधरा गेहिणी तस्स ॥ २ ॥ तत्तनयो विनयोज्ज्वल- मतिविभवभरो बभूव जयदेवः । दक्खो रयणपरिक्खं, सिक्खइ सो बारससमाओ || ३ विजितान्यमहसममलं, विशदं सञ्चिन्तितार्थदानपटुम् । चिंतामणिं पमुत्तुं, सेसमणी गणइ उवलसमे ॥ ४ ॥ चिन्तामणिरत्नकृते, सुकृती स कृतोद्यमः पुरे सकले । हवं हट्टेण घरं, घरेण भमिओ अपरितंतो ॥ ५ ॥ न च तमवाप दुरापं, पितरावूचेऽथ यन्मयाऽत्र पुरे । चिंतामणी न पत्तो, तो जामि तयत्थमन्नत्थ ॥ ६ ॥ ताभ्यामभाणि वत्स !, स्वच्छमते ! कल्पनैव खल्वेषा । अन्नत्थ वि कत्थइ न-त्थि एस परमत्थओ भुवणे ॥ ७ ॥ तद्र- रसपलै - येथेष्टमन्यैरपि व्यवहरस्व । निम्मलकमलाकलियं, भवणं ते होइ जेणमिणं ॥ ८ ॥ इत्युक्तोऽपि स चिन्ता-र गुणविन • यीया व्याख्या । ॥ २९ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नातौ रचितनिश्चयश्चतुरः। वारिजंतो पियरे-हिं निग्गओ हत्थिणपुराओ ॥ ९॥ नगनगरपामाकर-कर्बटपत्तनपयोधितीरेषु । तम्मग्गणपउणमणो, सुइरं भंतो किलिस्संतो ॥१०॥ तमलभमानो विमनाः, दध्यौ किं नाऽस्ति सत्यमेवेदम् । अहवा न तस्स चिंतं, न अन्नहा होइ सत्थुत्तं ॥ ११॥ इति निश्चित्य स चेतसि, निपुणं बम्नमितुमारभत भूयः। पउराउ मणिखणीओ, पुच्छापुच्छि नियच्छंतो ॥ १२॥ वृद्धनरेणैकेन च, सोऽभाणि यथा मणीवतीहाऽस्ति । खाणी मणीण तत्थ य, पवरमणी पावइ सपुन्नो॥१३॥ तत्र च जगाम मणिगण-ममलभनारतमयो मृगयमाणः । एगो य तस्स 6 मिलिओ, पसुवालो बालिसो अहियं ॥ १४ ॥ जयदेवेन निरैश्यत, वर्तुल उपलश्च करतले तस्य । गहिओ परिच्छिओ तह, नाओ चिंतामणि त्ति इमो ॥ १५॥ सोऽयाचि तेन समुदा, पशुपालः प्राह किममुना कार्यम् ? । भणइ वणी सगिहगओ, बालाणं कीलणं दाहं ॥ १६॥ सोऽजल्पदीदृशा इह, ननु बहवः सन्ति किं न गृह्णासि ? । सिद्विसुओ भणइ अहं, समुस्सुओ निययगिहगमणे ॥ १७ ॥ तद्देहि मह्यमेनं, त्वमन्यमपि भद्र! लप्स्यसे ह्यत्र । अपरोवयारसील-तणेण तह वि हु न सो देइ ॥१८॥ तत एतस्याऽपि च वर-मयमुपकर्ताऽस्तु मास्म भूदफलः । इय करुणारसियमई-सिट्ठिसुओ भणइ आभीरं ॥ १९ ॥ यदि भद्र ! मम न दत्से, चिन्तामणिमेनमात्मनाऽपि ततः । आराहसु जेण तुहं, पि चिंतियं देइ खलु एसो ॥२०॥ इतरःप्रोचे यदि स-त्यमेष चिन्तामणिर्मयाऽचिन्ति । ता बोरकयरकच्चर-पमुहं मह देउ लहु बहुयं ॥ २१॥ अथ हसितविकसितमुखः, श्रेष्ठिसुतः स्माह चिन्त्यते नैवम् । किंतुववासतिगंऽतिम-रयणिमुहे लित्तमहिवीढे ॥ २२ ॥ शुचिपट्टनिहितसिचये, स्नपितविलिप्तं मणिं निधायोच्चैः । कप्पूरकुसुममाई-हि पूइउ नमिय विहि Jan Education R onal For Private & Personal use only Wainelibrary.org Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- शतकम्। पुर्व ॥ २३ ॥ तदनु विचिन्त्यत इष्टं, पुरोऽस्य सर्वमपि लभ्यते प्रातः । इय सोउं सो वाले-वि छालिया गाममभिचलिओदगुणविन॥ २४ ॥ न स्थास्यति हस्ततले-ऽस्य मणिर(यं)लं नूनमूनपुण्यस्य । इय चिंतिय सिद्विसुओ, वि तस्स पुद्धि न छडेइ ॥२५॥ यीयागच्छन् पथि पशुपाला, प्राह मणे! छागिका इमा अधुना । विकिणिय किणिय घणसा-रमाइ काहामि तुह पूयं ॥ २६ ॥181 व्याख्या। मम चिन्तितार्थपूा , सान्वयसंज्ञो भवेस्त्वमपि भुवने । एव मणिमुल्लवंते-ण तेण भणियं पुणो एयं ॥ २७॥ दूरे ग्रामस्तावन्, मणे! कथां कथय काञ्चन ममाग्रे । अह न मुणसि तोऽहं तुह, कहेमि निसुणेसु एगग्गो ॥ २८ ॥ देवगृहमेकहस्तं, चतुर्भुजो वसति तत्र देवस्तु । इय पुणरुत्तं वुत्तो, वि जंपए जाव नेव मणि ॥ २९ ॥ तावदुवाच स रुष्टो, यदि हुङ्कतिमात्रमपि न मे दत्से । ता चिंतियऽत्थसंपा-यणम्मि तुह केरिसी आसा ? ॥ ३०॥ तच्चिन्तामणि रिति ते, नाम मृषा सत्यमेव यदि वेदम् । जं तुह संपत्तीए, वि न मह फिट्टइ मणे! चिंता ॥ ३१॥ किश्च क्षणमपि योऽहं, रब्बातविना नहि स्थातुम् । सत्तो सोऽहं कहमिह, उववासतिगेण न मरामि ? ॥ ३२ ॥ तन्मम मारणहेतो-र्वणिजा रे ! वर्णि-18 तोऽसि तद्गच्छ । जत्थ न दीससि इय भणि-य नंखिओ तेण सो सुमणी ॥ ३३ ॥ जयदेवो मुदितमनाः, सम्पूर्णमनोरथः प्रणतिपूर्वम् । चिंतामणिं गहित्ता, नियनयराभिमुहमह चलिओ॥३४॥ मणिमाहात्म्यादुल्लसि-तवैभवः पथि महापुरे नगरे । रयणवइनामधूयं, परिणीय सुबुद्धिसिटिस्स ॥ ३५ ॥ बहुपरिकरपरिकरितो, जननिवर्गीयमानसुगुणगणः । हत्थिण-15 ॥३०॥ पुरम्मि पत्तो, पणओ पियराण चलणेसु ॥ ३६॥ [युग्मम्] ॥ अभिनन्दितः स ताभ्यां, स्वजनैः सम्मानितः सबहुमानैः। थुणिओ सेसजणेणं, भोगाणं भायणं जाओ ॥३७॥ ज्ञातस्यास्योपनयो-ऽयमुच्चकैरमरनरकतिर्यक्षु । इयरमणीण खणीसु व, ALSOM anal For Private &Personal use Only I ndainelibrary.org Jain Education 18 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SESUAISSISSISSES परिब्भमंतेण कह कह वि ॥ ३८॥ जीवेन लभ्यत इयं, मनुजगतिः सन्मणीखनीतुल्या। तत्थ वि दुलहो चिंतामणिव जिणदेसिओ धम्मो ॥ ३९ ॥ पशुपालोऽत्र यथा खलु, मणिं न लेभेऽनुपातसुकृतधनः । जह पुण्णवित्तजुत्तो, वणिपुत्तो पुण तयं पत्तो ॥ ४०॥ तद्वद्गतगुणविभवो, जीवो लभते न धर्मरत्नमिदम् । अविकलनिम्मलगुणगण-विहवभरो पावइ तयं तु ॥४१॥ (श्रीधर्मरत्नप्रकरणवृत्तौ श्रीदेवेन्द्रसूरिकृतायां)॥९५॥ | जह दिट्ठीसंजोगो, न होइ जचंधयाण जीवाणं । तह जिणमयसंजोगो, न होइ मिच्छंधजीवाणं ॥९६॥ । व्याख्या-यथा 'जात्यन्धानां' आजन्मतोऽन्धीभूतानां 'जीवानां' प्राणिनां 'दृष्टिसंयोग'श्चक्षुस्सम्बन्धो न भवति, तथा 'मिथ्यात्वेन' कुवासनया 'अन्धा' विवेकविकला ये जीवास्तेषां 'जिनमतस्य' श्रीजिनशासनस्य 'संयोगः' प्राप्तिर्न भवति ॥१६॥ पच्चक्खमणंतगुणा, जिर्णिदधम्मे न दोसलेसोऽवि। तहवि हु अन्नाणंऽधा, न रमंति कयावि तम्मि जिया ॥९७॥ __ व्याख्या-श्रीजिनेन्द्रधर्मे 'प्रत्यक्षं साक्षादनन्तगुणा इहलोके यशःप्रभृतिप्राप्तिः परलोके च स्वर्गमोक्षसौख्यावाप्तिः, नाऽस्मिन् दोषाणां-अयशम्प्रभृतीनां 'लेशोऽपि' लवोऽपि, तथापि 'हु निश्चये 'अज्ञानेन' यथावत्स्वरूपानवबोधेन, अन्धा जीवाः कदाऽपि तस्मिन्' जिनेन्द्रधर्मे 'न रमन्त एवं' न धृति बनन्त्येव, अज्ञानित्वादेव ॥ ९७ ॥ हामिच्छे अणंतदोसा, पयडादीसंति नवि य गुणलेसो। तहवि य तं चेव जिया, ही!! मोहंधा निसेवंति ॥९८॥ - व्याख्या-'मिथ्यात्वे' कुगुरुकुदेवकुधर्माङ्गीकाररूपाध्यवसाये अनन्तदोषा नरकपातादयः 'प्रकटाः' स्पष्टा दृश्यन्ते, CAUTARIOS DE CASAISIAIS Jain Educati onal For Private & Personal use only jainelibrary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणविनयीयाव्याख्या। वैराग्य नापिच गुणस्य 'लेशो' लवो दृश्यते, 'तथापि च एवं जानन्तोऽपि 'ही' इति विस्मये विषादे वा, 'मोहेन' अज्ञानेशतकम्। नाऽन्धाः सन्तो जीवास्तदेव मिथ्यात्वं 'निषेवन्ते' आश्रयन्ति ॥ ९८॥ ॥३१॥ घिद्धी ताण नराणं, विन्नाणे तह गुणेसु कुसलत्तं । सुहसचधम्मरयणे, सुपरिक्खं जे न जाणंति ॥ ९९॥ | व्याख्या-तेषां नराणां 'विज्ञान' शिल्पे 'कुशलत्वं' नैपुण्यं धिग धिक, किं तेषां शिल्पकौशलेन ?, तथा 'गुणेषु' शौयौं-| हदार्यधैर्यादिषु कुशलत्वं धिग् धिक्, कथं तेषां धिक्त्वमित्याह-ये पुरुषाः 'शुभं' शुभकारि, तथा 'सत्य' सत्यरूपं, एवंविधं 5 यद्धर्मरत्नं, तस्मिन् 'सुपरीक्षा' सत्परीक्षणं, 'न जानन्ति' नाऽवबुध्यन्ते, यथाऽयं धर्मः श्रेयान् उतायं धर्म इति परीक्षा-16 | विकलास्तेषामन्यत्र कुशलत्वमपि धिग्, यदुक्तं-"बावत्तरिकलाकुसला, पंडियपुरिसा अपंडिया चेव । सबकलाणं पवरं, जे धम्मकलं न याणंति ॥१॥" ॥ ९९॥ जिणधम्मो य जीवाणं, अपुरो कप्पपायवो। सग्गापवग्गसुक्खाणं, फलाणं दायगो इमो॥ १०॥ __व्याख्या-रे जीव ! 'जीवानां' प्राणिनां अयं जिनधर्मश्च'अपूर्वो' अभिनवः 'कल्पपादपः' कल्पवृक्षः, कथमपूर्वत्वं ?,। इत्याह-यतः, किम्भूतः ?, स्वर्गापवर्गसौख्यानां फलानां 'दायको' दाता, अन्यो हि कल्पवृक्ष एवंविधफलानां दाता न | भवति, अयं चैषामप्यतोऽन्यस्मात्कल्पपादपादयमपूर्व इति ॥ १०॥ धम्मो बंधु सुमित्तो य, धम्मो य परमो गुरू । मुक्खमग्गपयवाणं, धम्मो परमसंदणो ॥१०१॥ Jan Education For Private & Personal use only w.jainelibrary.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कास्की व्याख्या-रे जीव ! अयं श्रीजिनधर्मों 'बन्धुरिव' भ्रातेव, यथा भ्राता आपदि साहाय्यं ददाति तथाऽयं धर्मोऽपि भवापदि त्राता, 'च' पुनरयं धर्मः 'सुमित्रं सुसखा, यथा सुमित्रं हितार्यसम्पादनात् सुखयति तथाऽयं धर्मोऽपि, तथाऽयं धर्मश्च 'परमः' प्रकृष्टो गुरुः, यथा गुरुरसन्मार्गान्निवर्तयति तथाऽयं धर्मोऽपि नरकतिर्यमार्गान्निवारयिता, तथा 'मोक्षमार्गप्रवृत्तानां' शिवपथप्रचलितानां जीवानामयं धर्मः परमः 'स्यन्दनो' रथो, यथा स्यन्दनेन मार्गे सुखेन गम्यते | तथा धर्मेणाऽपि मोक्षमार्गे प्रवृत्ताः पुरुषाः सुखेन शिवपुरी गच्छन्ति ॥१०१॥ चउगइऽणंतदुहानल-पलित्तभवकाणणे महाभीमे । सेवसु रे जीव ! तुम, जिणवयणं अमियकुंडसमं ॥१०२॥ __व्याख्या-रे जीव! त्वं 'महाभीमे' महारौद्रे, चतसृणां गतीनां नरकादिरूपाणामनन्तानि यानि दुःखानि तान्येव 'अनलो' वह्निस्तेन 'प्रदीप्तं' ज्वलितं यद्भवकाननं तस्मिन् 'जिनवचनं श्रीसिद्धान्तममृतकुण्डसमं 'सेवस्व' भजस्व, सिद्धान्तोक्तमनुष्ठानं कुरुष्वेत्यर्थः ॥ १०२॥ विसमे भवमरुदेसे, अणंतदुहगिम्हतावसंतत्ते । जिणधम्मकप्परुक्खं, सरसु तुम जीव ! सिवसुहदं ॥१०३ ॥ __ व्याख्या-हे जीव ! त्वं 'विषमे' दुस्सञ्चारे, तथाऽनन्तदुःखान्येव ग्रीष्मतापस्तेन 'सन्तप्ते' उपद्रुते, एवंविधे भव एव-13 संसार एव 'मरुदेशो' मरुस्थलं, तस्मिन् भवमरुदेशे, जिनधर्म एव कल्पवृक्षस्तं 'स्मर' विचिन्तय, रक्षकत्वेनेति, किम्भूतं जिनधर्मकल्पवृक्षं ?-'शिवसुखानि' मोक्षसौख्यानि ददातीति शिवसुखदस्तम् ॥ १०३ ॥ "न पूजनादिति”[५-४-६९, पा० ] स्वतिभ्यां न टच । RESTASISESEISOSSESSO Jan Education a l For Private Persorsaluse Only ainelibrary.org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् । गुणविनयीयाव्याख्या। *66646-GESCHW ISE किं बहुणा? जिणधम्मे, जइयत्वं जह भवोदहिं घोरं । लहु तरिउमणंतसुहं, लहइ जिओ सासयं ठाणं ॥१०४॥ __ व्याख्या-किं, 'बहुना' बहूक्तेन ?, हे जीव! तथा 'जिनधर्मे जिनप्रणीते धर्मे, 'यतितव्यं' प्रयत्नः कार्यो, यथा 'जीव' स्वात्मा 'लघु' शीघ्रं 'घोरं' रौद्रमनाद्यनन्तत्वाद् भव एव 'उदधिः' समुद्रस्तं तीवा 'अनन्तसुखं' अनवसानसौख्यं शाश्वतस्थानं मोक्षलक्षणं लभते, तदवस्थायां च शरीरादिदुःखकारणाभावात् केवलं सुखभाग्भवत्यात्मा, यदुक्तं श्रीआचाराने लोकसारनाम्नि पञ्चमाध्ययने [ षष्ठोदेशके ]-"से न दीहे न हस्से न वट्टेन तंसे न चउरंसे न परिमंडले, न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न सुकिल्ले, न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे, न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे, न कक्खडे न मउए न गुरुए न लहुए न सीए न उण्हे न निद्धे न लुक्खे, न काऊ न रहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा, परिणे सन्ने, उवमा न विजए, अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि, से न सद्दे न रूवे न गंधे न रसे न फासे इति" [एतटीका-] (*"स-परमपदाध्यासी लोकान्तकोशषड्भागक्षेत्रावस्थानोऽनन्तज्ञानदर्शनोपयुक्तः संस्थानमाश्रित्य न दीर्घो न इस्वो न वृत्तो न व्यस्रो न चतुरस्रो न परिमण्डलो, वर्णमाश्रित्य न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारिद्रो न शुक्लो, गन्धमाश्रित्य न सुरभिगन्धो न दुरभिगन्धो, रसमाश्रित्य न तिक्तो न कटुको न कषायो नाम्लो न मधुरः, स्पर्शमाश्रित्य न कर्कशो न मृदुन लघुन गुरुन शीतो नोष्णो न स्निग्धो न रूक्षो) “न काऊ" इत्यनेन लेश्या गृहीता, यदिवा न कायवान् , (*यथा वेदान्तवादिनां-'एक एव मुक्तात्मा, तत्कायमपरे क्षीणक्लेशा अनुप्रविशन्ति, आदित्यरश्मय इवांशु* शोधनार्थं संगृहीतेषु चतुर्वप्यादर्शषु त्रुटितोऽस्त्यन्त्र वृत्तिपाठः, अतोऽयं काउंसस्थः पाठस्तत उद्धृत इति । RASRECARRIERRE ॥३२॥ Jan Education Instmal For Private &Personal use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्तमिति' तथा न, "रुह" बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च, रोहतीति रुहः, न रुहोऽरुहः, कर्मवीजाभावादपुनर्भावीत्यर्थः, न पुनर्यथा शाक्यानां दर्शननिकारतो मुक्तात्मनोऽपि पुनर्भवोपादानमिति, उक्तं च-'दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठं । मुक्तः स्वयं कृतभवश्च परार्थशूर-स्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥१॥' तथा न विद्यते सङ्गोऽमूर्तत्वाद्यस्य स तथा, न स्त्री न पुरुषो) न 'अन्यथेति [न] नपुंसकः, “परिणे” इति केवलं सर्वैरात्मप्रदेशैः परिसमन्ताद्विशेषतो जानातीति परिज्ञः, तथा सामान्यतः सम्यग् जानातीति-पश्यतीति संज्ञः, ज्ञानदर्शनयुक्त इत्यर्थः, यदि नाम स्वरूपतो न ज्ञायते मुक्तात्मा तथाप्युपमाद्वारेणाऽऽदित्यगतिरिव ज्ञायत एवेति चेत्तन्न, यत आह-"उवमा ण विजए" उपमीयते-सदृशात्परिच्छिद्यते यया सा उपमा-तुल्यता, सा मुक्तात्मनस्तज्ज्ञानसुखयोर्वा न विद्यते, लोका|तिगत्वात्तेषां, कुत एतदिति चेदाह-"अरूवी सत्ता” तेषां मुक्तात्मनां या सत्ता साऽरूपिणी, अरूपित्वं च दीर्घादिप्रतिषेधेन प्रतिपादितमेव, किञ्च "अपयस्स” इत्यादि, न विद्यते पदं-अवस्थाविशेषो यत्य सोऽपदस्तस्य, पद्यते-गम्यते येनाऽर्थस्तत्पदम्-अभिधानं, तच्च 'नास्ति' न विद्यते, वाच्यविशेषाभावात् , तथाहि-योऽभिधीयते स शब्दरूपरसगन्धस्पर्शान्यतरविशेषेणाऽभिधीयते, तस्य च तदभाव इत्येतदर्शयितुमाह-"से ण सद्दे” इत्यादि, 'स' मुक्तात्मा न शब्दरूपो न रूपात्मा न गन्धो न रसोन स्पर्श इत्येतावन्त एव वस्तुनो भेदाः स्युः, तत्प्रतिषेधाच्च नापरः कश्चिद्विशेषः सम्भाव्यते हयेनाऽसौ व्यपदिश्यतेति भावार्थः" [इत्याचाराङ्गवृत्तौ ॥ १०४ ॥ Jan Educatan li m a For Private & Personal use only LRUlainelibrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- ते धन्ना ते साहू, तेसिं च नमो अकजपडिविरया । धीरा वयमसिहारं, चरंति जह थूलभद्दमुणी ॥ १०५॥ 12 गुणविनशतकम्। ( ते धन्यास्ते साधवः, तेषां च नमः (ये) अकार्यप्रतिविरताः। धीरा व्रतमसिधार, चरन्ति यथा स्थूलभद्रमुनिः) यीया व्याख्या। इति श्रीवैराग्यशतकं सटीकम् ॥ ग्रन्थकृत्प्रशस्तिःश्रीगुरुखरतरगच्छे, श्रीमजिनचन्द्रसूरिराजानां । राज्ये विराजमाने, मुनिवाधिरसेन्दुमितवर्षे (१६४७)॥१॥ श्रीक्षेमदाराजाभिधपाठकानां, शिष्या विशिष्य क्षमया क्षमाभाः। क्षमाधराक्षोभ्यविनेयवृन्दाः, श्रीवाचकाः कीर्तिमहीजकन्दाः ॥२॥ प्रमोदमाणिक्यसुनामधेया-स्तेषां च सन्त्यद्भुतभागधेयाः । शास्त्रार्थसर्वस्वकलापविज्ञा, जयन्ति सुज्ञा जयसोमसंज्ञाः ४॥३॥ तेषां शिष्येणेयं, गुणविनयाख्येन निर्ममे व्याख्या । काऽपि यथादर्शमणु-स्त्वरितं वैराग्यशतकस्य ॥४॥ यद्यत्प्रा|कृतसूत्र-न मिलति तत्रापि पूर्वसूरिगिरां । प्रामाण्यादिति विबुधैः, सर्व सत्यं समाधेयम् ॥५॥ इति श्रीभववैराग्यशतकं सम्पूर्णम् । ग्रन्थानं ९९५ । यथाप्रति संवत् १६६३ वर्षे कार्तिकवदिषष्ठी भृगुलिखितं । सर्वत्र यो मोहनलालजीति, प्राप्तः प्रसिद्धिं परमां महात्मा। स्वर्ग गतं सच्चरितं पवित्रं, नमामि नित्यं मुनिमोहनं तम् ॥१॥ SURESUGUSMRSACSMSS Jan Education International For Private &Personal use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते श्रीमन्महावीराय प्रवचनप्रभावकश्रीमजिनदत्त-कुशल-सूरीश्वर-मोहनयशाकेशरपादप भ्यो नमः। श्रीमल्लक्ष्मीलाभगणिवरविनिर्मितं वराग्यरसायनप्रकरणम्। संसारविउलसायर-निवडियजीवाण उद्धरणधीर !। सिरिवीरनाहजिणवर !, पणयपुरंदर ! नमो तुज्झ ॥१॥ संवेगरयणखाणीण, पाए पणमित्तु सबसूरीणं । विरएमि पगरणमहं, वेरग्गरसायणं नाम ॥२॥ वेरग्गं इह हवई, तस्स य जीवस्स जो हु भवभीरू । इयरस्स पुणो वेरग्ग-रंगवयणं पि विससरिसं ॥३॥ संसारविपुलसागर-निपतितजीवानां उद्धरणधीर !। श्रीवीरनाथजिनवर !, प्रणतपुरन्दर ! नमस्तुभ्यम् ॥ १ ॥ संवेगरत्नखनीनां, पादान् प्रणम्य सर्वसूरीणां । विरचयामि प्रकरणमहं, वैराग्यरसायनं नाम ॥ २ ॥ वैराग्यमिह भवति, तस्य च जीवस्य यः खलु भवभीरुः । इतरस्य पुनर्वैराग्य-रङ्गवचनमपि विषसदृशम् ॥३॥ Jain Education anal For Private &Personal use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यरसायन प्रकरणम्। सच्छायम्। ॥३४॥ SUSIRADORES ASSAIG वेरग्गं खलु दुविहं, निच्छयववहाररूवमिह वुत्तं । निच्छयरूवं तं चिय, जं तिगरणभावबुसिद्धीए ॥४॥ ववहारवेरग्गं जं, पररंजणकयम्मि किजइ य । तं पि हु कोडाकोडी-वारं लद्धं च जीवेण ॥ ५॥ अहवावि होइ दुविहं, निसग्गुवएसभेयसंभिन्नं । संवेगं सिवकारण-भूयं परमत्थजुत्तीए ॥६॥ निसग्गं खलदुभेयं, बाहिरपच्चयं अबाहिरं चेव । पत्तेयवुद्धसिद्धाण, सयंसंबुद्धाण तं जाण ॥७॥ उवएसं वेरग्ग-जुयभेयविसुद्धमुत्तमं सुत्ते । बहुसवणमबहुसवणं, सुगुरुसमीवे हवई तं च ॥८॥ निम्मलमणपुहवी-रुहो य जिणधम्मनीरपरिसित्तो। सिवसुहफलभरनमिओ, संवेगतरू जये जयऊ ॥९॥ रे जीव ! मोहपासेण, अणाइकालाओ वेढिओऽसि तुमं । इय नाऊण सम्मं, छिंदसु तं नाणखग्गेण ॥१०॥ वैराग्यं खलु द्विविधं, निश्चयव्यवहाररूपमिहोक्तं । निश्चयरूपं तदेव, यत्रिकरणभावबु शुद्ध्या ॥ ४ ॥ व्यवहारवैराग्यं यत् , पररञ्जनकृते क्रियते च । तदपि खलु कोटाकोटी-वारं लब्धं च जीवेन ॥ ५ ॥ अथवाऽपि भवति द्विविधं, निसर्गोपदेशभेदसम्भिन्नं । संवेगः शिवकारण-भूतं परमार्थयुक्त्या ॥६॥ निसर्ग [खलु विभेदं, बाह्यप्रत्ययं अबाह्यं चैव । प्रत्येकबुद्धसिद्धानां, स्वयंसम्बुद्धानां तज्जानीहि ॥७॥ उपदेशो वैराग्य-युतभेदविशुद्धमुत्तमं सूत्रे । बहुश्रवणमबहुश्रवणं, सुगुरुसमीपे भवति तच्च ॥ ८ ॥ | निर्मलमनःपृथिवी-रुहश्च जिनधर्मनीरपरिसिक्तः । शिवसुखफलभरनमितः, संवेगतरुर्जगति जयतु ॥९॥ रे जीव ! मोहपाशेन, अनादिकालतो वेष्टितोऽसि त्वं । इति ज्ञात्वा च सम्यक्, छिन्दि तं ज्ञानखङ्गेन ॥१०॥ ॥३४॥ Jain Education international For Private & Personal use only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Donor नरखित्तदीहकमले, दिसादलढे वि नागनालिल्ले । निचं पिकालभमरो, जणमयरंदं पियइ बहुहा ॥११॥ कोहानलं जलंतं, पज्जालंतं सरीरतिणकुडीरं । संवेगसीयसीयल-खमाजलेणं च विज्झवह ॥१२॥ तनुगहणवणुप्पन्नं, उम्मुलंतविवेयतरुमणहं । मिउभावअंकुसेणं, माणगयंदं वसीकुणह ॥१३॥ जा अइकुडिला डसइ, अप्पापुरिसं च विस्सदोहयरा । अज्जवमहोरगेणं, तं मायासप्पिणिं जिणह ॥१४॥ सुहं देहसिरिघराओ, जीवनिवइणो य गुणगणनिहाणं । गिण्हतं हो! साहह, तण्हाचोरं महाघोरं ॥१५॥ इच्छानिरोहमुग्गर-पहारपूरेण लोहगुरुकुंभं । तह संचुन्नह विवुहा !, पुणोवि न जह तारिसो होइ ॥ १६॥ देहुजाणाओ वि य, नीहरमाणं च मोहवेयालं । अन्नाणजणणिपुत्तं, कीलह वेरग्गमंतेण ॥ १७॥ नरक्षेत्रदीर्घकमले, दिशादलाट्येऽपि नागनालीके । नित्यमपि कालभ्रमरो, जनमकरन्दं पिबति बहुधा ॥११॥ क्रोधानलं ज्वलन्तं, प्रज्वालयन्तं शरीरतृणकुटीरं । संवेगशीतशीतल-क्षमाजलेन च विध्यापयत ॥ १२॥ तनुगहनवनोत्पन्नं, उन्मूल्यमानविवेकतरुमनघं । मृदुभावअङ्कशेन, मानगजेन्द्र वशीकुरुत ॥१३॥ या अतिकुटिला दशति, आत्मपुरुषं च विश्वद्रोहकरी । आर्जवमहोरगेण, तां मायासर्पिणीं जयत ॥१४॥ सुखं देहश्रीगृहाद्, जीवनृपतेश्च गुणगणनिधानं । गृहन्तं भोः! साधयत, तृष्णाचोरं महाघोरम् ॥ १५॥ इच्छानिरोधमुद्गर-प्रहारपूरेण लोभगुरुकुम्भं । तथा सञ्चूर्णयत विबुधाः!, पुनरपि न यथा तादृशो भवति ॥१६॥ | देहोद्यानादपि च, निस्सरमाणं च मोहवेतालं । अज्ञानजननीपुत्रं, कीलयत वैराग्यमन्त्रेण ॥ १७ ॥ नात्पन्न, उन्मूल्यमानम्मपुरुष च विश्वद्रोहगहन्तं भो ! साधा पुनर Jain Educaton in tonal For Private &Personal use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यरसायन प्रकरणम्। सच्छायम्। HOSSAISISSEPROGRAMS चउबिहकसायरुक्खो, हिंसादढमूलविसयबहुसाहो । जम्मजरामरणफलो, उम्मुलेयवो य मूलाओ॥१८॥ भीमम्मि भवसमुद्दे, पडिया कीसंति पाणिणो मूढा । न सरंति निरुयवेरग्ग-बंधवं बंधणविमुक्कं ॥१९॥ करुणाकमलाइन्ने, आगमउज्जलजलेण पडिपुन्ने । बारस भावणहंसे, झीलह वेरग्गपउमदहे ॥२०॥ कल्लोलचवललच्छी, सयणाणं संगमा सुविणतुल्ला । तडिदिव चलं वियाणह, जुवणदेहं जरागेहं ॥ २१ ॥ सिद्धिपुरबारअग्गल-सरिसं उज्झिय ममत्तभावं खु । तण्हामहाऽहिमंतं, चिंतसु निम्ममत्तणं धीर ! ॥ २२॥ इंदाइया य देवा, मरंति कालेण पीडियाऽसरणा । ता तुम्भ मरणकाले, होही को नाम सरणं च ? ॥२३॥ पियमायभायपरियण-जणेसु पासंतएसुरे जीव !। जममंदिरं नीओ, अत्ताणो सकयकम्मेहिं ॥२४॥ चतुर्विधकषायवृक्षो, हिंसादृढमूलविषयबहुशाखः । जन्मजरामरणफल, उन्मूलयितव्यश्च मूलतः ॥ १८ ॥ भीमे भवसमुद्रे, पतिता क्लिष्यन्ते प्राणिनो मूढाः। न स्मरन्ति नीरुजवैराग्य-बान्धवं बन्धनविमुक्तम् ॥ १९ ॥ करुणाकमलाकीणे, आगमोज्वलजलेन प्रतिपूर्णे। द्वादशभावनाहंसे, स्नात वैराग्यपद्मद्रहे ॥२०॥ कल्लोलचपलालक्ष्मीः , स्वजनानां सङ्गमाः स्वमतुल्याः। तडिदिव चलं विजानीत, यौवनदेहं जरागेहम् ॥ २१॥ सिद्धिपुरद्वारअर्गला-सदृशं उज्झित्वा ममत्वभावं खलु । तृष्णामहाऽहिमन्त्रं, चिन्तय निर्ममत्वं धीर ! ॥२२॥ इन्द्रादिकाश्च देवा, नियन्ते कालेन पीडिता अशरणाः। ततस्तव मरणकाले, भविष्यति को नाम शरणं च ? ॥२३॥ पितृमातृभ्रातृपरिजन-जनेषु पश्यत्सु रे जीव ! । यममन्दिरं नीत, अत्राणः [अशरणस्सन्] स्वकृतकर्मभिः ॥ २४ ॥ Jain Education international For Private &Personal use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जइ सुत्तो ता भुत्तो, कालपिसाएण गसियलोएणं । मा मा वीसहसु तुमं, रागद्दोसाण सत्तूर्णं ॥ २५ ॥ गहिऊण सङ्घविरई, अणुवयाइं च चतुमिच्छेसि । विसयवसेण कायर !, इय लज्जा तुज्झ अइगई ॥ २६ ॥ परिहर कुमित्तसंगं, जस्स य संगाओ हवसि चलचित्तो । वाएण हीरमाणो, दुमुख कुरु साहुसंसग्गं ॥ २७ ॥ कारागिहम्मि वासो, सीसे घाओ वि होउ खग्गस्स । लग्गउ मम्मे बाणो, मा संगो होउ कुगुरुस्स ॥ २८ ॥ वरनाणकिरियचक्कं तवनियमतुरंगमेहिं परिजुत्तं । संवेगरहं आरुहिय, वच्चह निव्वाणवरणयरं ॥ २९ ॥ दुक्ख महाविसवल्लिं, भूरिभवभ्रमणपावतरुचडियं । वेरग्गकालकरवाल - तिक्खधाराहिं कप्पेसु ॥ ३० ॥ संवेग महाकुंजर - खंधे चडिऊण गहिवि तवचक्कं । घणकम्मरायसेण्णं, निद्दलह समाहिमणुहवह ॥ ३१ ॥ यदि सुप्तस्ततो भुक्तः, कालपिशाचेन ग्रसितलोकेन । मा मा विश्वसिहि त्वं रागद्वेषयोः शत्रोः ॥ २५ ॥ गृहीत्वा सर्वविरतिं, अणुव्रतानि च त्यक्तुमिच्छसि । विषयवशेन कातर !, इति लज्जा तवातिगुरुकी ॥ २६॥ पहिहर कुमित्रसङ्ग, यस्य च सङ्गाद् भवसि चलचित्तः । वातेन हियमाणो, द्रुम इव कुरु साधुसंसर्गम् ॥ २७ ॥ कारागृहे वासः, शीर्षे घातोऽपि भवतु खड्गस्य । लगतु मर्मे बाणः, मा सङ्गो भवतु कुगुरोः ॥ २८ ॥ वरज्ञानक्रियाचक्रं, तपोनियमतुरङ्गमैः परियुक्तं [ योत्रितं ] | संवेगरथमारुह्य, व्रजत निर्वाणवरनगरम् ॥ २९ ॥ दुःखमहाविषवल्लि, भूरिभवभ्रमणपापतरुचटितां । वैराग्यकालकरवाल - तीक्षणधाराभिः कर्त्तय ॥ ३० ॥ संवेगमहाकुञ्जर-स्कन्धे चटित्वा गृहीत्वा तपश्च । धनकर्मराजसैन्यं, निर्दलयत समाधिमनुभवत ॥ ३१ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यरसायन प्रकरणम्। सच्छायम्। COMMERCONCLUSIC पंचिंदियचलतुरए, पइदिवसं कुप्पहम्मि धावंते । सुयरजणा निगिण्हिय, बंधह वेरग्गसंकुम्मि ॥ ३२॥ अप्पसराओ जाए, दंसणवित्थिपणनाणपरिकलिए। वेरग्गमहापउमे, समाहिभसलो झुणझुणउ ॥३३॥ जह सुद्धभावणाए, जीवपुरिसेण पत्थिओ होई । संवेगकप्परुक्खो, किं किं न हु वंछियं देह ॥ ३४॥ दोससयगग्गरीणं, विरत्तविसवल्लरीण नारीणं । जइ इच्छह संवेगं, ता संगं चयह तिविहेणं ॥ ३५॥ समए समए आऊ, सयं च विहडइ न वड्डए अहियं । परिअडइ कायलग्गो, कालो छायामिसेणं ते ॥३६॥ किं किं न कयं तुमए, किं किं कायवयं न अहुणावि । तं किमवि कुणसु भायर :,जेणऽप्पा सिद्धिपुरमेइ ॥३७॥ उअरस्स कए को को, न पत्थिओ? इत्थ मइ निलजेणं। तं किमवि कयं न सुकयं, जेण करणं सुहि होमि ॥३८॥ पञ्चेन्द्रियचलतुरगान , प्रतिदिवसं कुपथे धावतः। श्रुतरजुना निगृह्य, बनीत वैराग्यशङ्कौ ॥ ३२॥ आत्मसरसो जाते,दर्शनविस्तीर्णज्ञानपरिकलिते।वैराग्यमहापझे, समाधिभ्रमरो झुनझुनतु [अव्यक्तशब्दं करोतु ॥३३॥ यदि शुद्धभावनया, जीवपुरुषेण प्रार्थितो भवति । संवेगकल्पवृक्षः, किं किं न खलु वाञ्छितं ददाति ॥ ३४॥ दोषशतगर्गरीणां, विरक्तविषवल्लरीणां नारीणां । यदि इच्छत संवेगं, ततस्सङ्गं त्यजत त्रिविधेन ॥ ३५॥ समये ससये आयुः, स्वयं च विघटते न वर्धतेऽधिकं । पर्यटति कायलग्नः, कालश्छायामिषेण तव ॥ ३६॥ किं किं न कृतं त्वया, किं किं कर्त्तव्यं न अधुनाऽपि । तत् किमपि कुरु भ्रातः!, येनात्मा सिद्धिपुरमेति ॥ ३७॥ उदरस्य कृते कस्को, न प्रार्थितोऽत्र मया निर्लज्जेन । तत् किमपि कृतं न सुकृतं, येन कृतेन सुखी भवामि ॥ ३८॥ RECACEBCAMODC-SCREENSAR Jain Education anal For Private & Personal use only T hainelibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वेसु वि जीवेसु, मित्तीतत्तं करेह गयमोहो । परिहरह वेरभावं, अहं रुई च वोसिरह ॥ ३९॥ सयलसमाहिनिहाणं, वियरियभवियणसमूहथिरठाणं । पावमलवारिपूर, सासयसंवेगं अन्भसह ॥४०॥ खंतिपायारमंडिय-महिंसगोउरं तं उजमकवाडं । जीवनरिंदपमुइयं, नंदउ वेरग्गपट्टणयं ॥४१॥ संवेगविणा जं किंपि, पालिज्जइ वयणमणुवयं भाय !। तं किर अहलं नेयं, ऊसरखित्तम्मि बीयं व ॥४२॥ जइ इच्छह परमपयं, अहवा कम्मक्खयं च वा तत्तं । ता पालह जीवदयं, जिणसासणपुत्तिसावित्तिं ॥ ४३ ॥ मा भणह अलियवयणं, सुणिऊणं वसु-वसुहवईचरियं । सच्चं पिय मा भासह, जं परपीडाकरं होई ॥४४॥ लोएवि जं सुणिजइ, सचं भासंतओ गओ नरयं । कोसियमुणिवि सुत्तस्स, भणियं आणं तहा कुणह ॥४५॥ सर्वेष्वपि जीवेषु, मैत्रीतत्त्वं कुरुत गतमोहः । परिहरत वैरभावं, आर्त रौद्रं च व्युत्सृजत ॥ ३९॥ सकलसमाधिनिधानं, वितरितभविजनसमूहस्थिरस्थानं । पापमलवारिपूरं, शाश्वतसंवेगं अभ्यस्यत ॥४०॥ शान्तिप्राकारमण्डितं, अहिंसागोपुरं तदुद्यमकपाटं । जीवनरेन्द्रप्रमुदितं, नन्दतु वैराग्यपट्टनकम् ॥४१॥ संवेगं विना यत् किमपि, पाल्यते वचनमणुव्रतं भ्रातः!। तत् किल अफलं ज्ञेयं, ऊपरक्षेत्रे वीजमिव ।। ४२॥ यदि इच्छत परमपदं, अथवा कर्मक्षयं च वा तत्त्वं । ततः पालय जीवदयां, जिनशासनपुत्रीसावित्रीम् ॥ ४३ ।। मा भणत अलीकवचनं, श्रुत्वा वसु-वसुधापतिचरितं । सत्यमपि मा भाषत, यत्परपीडाकरं भवति ॥४४॥ लोकेऽपि यच्छ्यते, सत्यं भाषयन् गतो नरकं । कौशिकमुनिरपि सूत्रस्य, भणितां आज्ञा तथा कुरुत ॥४५॥ वैरा०७ Jain Education a l For Private Personal use only jainelibrary.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणम्। सच्छायम्। RECRSSC- वैराग्य- जेण परो दुम्मिन्जइ, पाणिवहो जेण होइ भणिएणं । अप्पा पडइ किलेसे, न हुतं भासंति गीयत्था ॥४६॥ रसायन- वजह अदत्तगहणं, वहबंधणदायगं च अयसकरं । संवेगबुद्धिपत्ता, सत्ता न रमंति अत्ताहे ॥४७॥ जं नियदेहं सीमं-तिणीण (जूहं ?) दट्टण रागमुव्वहइ। तस्स य देहस्स पुणो, किंचिवि अहमत्तणं सुणउ तुमं ॥४८॥ जोणीमुहनिप्फिडिए, थणगच्छीरेण वडिए जाए । पगइए अमिज्झमए, एरिसदेहम्मि को रागो? ॥४९॥ हा!! असुइसमुप्पण्णया, निग्गया य तेण चेव बारेणं । सत्ता मोहपसत्तया य, रमति तत्थेव असुइदारम्मि ५० नो जाणंति वराया, राएणं कलिमलस्स निद्धमणं । तत्थेव दिति रागं, दुगंछणिअम्मि जोणीए ॥५१॥ सोणियसुक्कोवण्णे, अमिज्झमइयम्मि वच्चसंघाये । रागो न हु कायवो, विरागमूले सरीरम्मि ॥५२॥ येन परो दूयते, प्राणिवधो येन भवति भणितेन । आत्मा पतति क्लेशे, न खलु तं भाषन्ते गीतार्थाः ॥ ४६॥ वर्जयतादत्तग्रहणं, वधबन्धनदायकं च अयशस्करं । संवेगबुद्धिप्राप्ताः, सत्त्वा न रमन्ते आत्मन्ने[आत्मगुणहन्तर्यदत्ते] ॥४७॥ यन्निजदेहं सीम-न्तिनीनां (यूथं ?) दृष्ट्वा रागमुद्वहति । तस्य च देहस्य पुनः, किञ्चिदपि अधमत्वं शृणु त्वम् ॥ ४८ ॥ योनिमुखनिष्फिटिते, स्तनकक्षीरेण वर्द्धिते जाते । प्रकृतितोऽमेध्यमये, एतादृशे देहे को रागः ? ॥४९॥ हा !! अशुचिसमुत्पन्नका, निर्गता च तेन चैव द्वारेण । सत्त्वा मोहप्रसक्तकाश्च, रमन्ते तत्रैव अशुचिद्वारे ॥ ५० ॥ दानो जानन्ति वराका, रागेण कलिमलस्य [अशुचेः] निर्द्धमनं । तत्रैव ददति रागं, जुगुप्सनीयायां योनौ ॥५१॥ शोणितशुक्रोत्पन्ने, अमेध्यमये वर्चस्साते । रागो न खलु कर्तव्यो, विरागमूले शरीरे ॥५२॥ CSCR5R-SCANCY ॥३७॥ Jan Educato International For Private & Personal use only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कागसुणगेहिं भक्खे, किमिकुलभक्खे य वाहिभक्खे या देहम्मि मच्चभक्खे, सुसाणभक्खम्मि को रागो?५३ दंतमलकण्णगृहक-सिंघाणगलालपूरिए दुढे । निच्चं असासयम्मि, खणमवि मा रमह देहम्मि ॥५४॥ पिच्छसि मुहं सनिलयं, सविसेसं राइएण अहरेण । सकडक्खं सवियारं, तरलच्छि जुव्वणारंभे ॥५५॥ पिच्छसि बाहिरमटुं, न पिच्छसि अंतरंगमुद्दिलं । कामेण मोहिओ तुं, हा हा !! होहिसी कथं मूढ !॥५६॥ पाडलचंपगमल्लिय-अगुरुयचंदणतुरुक्कवामीसं । गंधं समोयरंतो, मुद्धो मन्नइ सुगंधोऽहं ॥५७॥ अच्छिमलो कन्नमलो, खेलो सिंघाणओ अ पूओ य । असुईमुत्तपुरीसो, एसो ते अप्पणो गंधो ॥५८॥ जो परगिहस्स लच्छि, कहिंपि पासित्तु कहइऽहं धणिओ । सो किर सयं दरिद्दो, भासंतो कहं न लजेइ ? ॥१९॥ काकशुनकैर्भक्ष्ये, कृमिकुलभक्ष्ये च व्याधिभक्ष्ये च । देहे मृत्युभक्ष्ये, स्मशानभक्ष्ये को रागः ॥५३॥ दन्तमलकर्णगूथक-सिङ्घानकलालापूरिते दुष्टे । नित्यमशाश्वते, क्षणमपि मा रमध्वं देहे ॥५४॥ प्रेक्षसे मुखं सनिलयं निःशेषलयसहितं], सविशेष राजितेन अधरेण । सकटाक्षं सविकार, तरलाक्षी यौवनारम्भे ॥ ५५ ॥ प्रेक्षसे बाह्यमर्थ, न प्रेक्षसे अन्तरङ्गमुद्दिष्टं । कामेन मोहितस्त्वं, हा हा !! भविष्यसि कथं मूढ! ॥५६॥ पाटलचम्पकमल्लिका-अगुरुकचन्दनतुरुष्कव्यामिश्रं । गन्धं समवतरन , मुग्धो मन्यते सुगन्धोऽहम् ॥ ५७ ॥ अक्षिमलः कर्णमलः, खेलः सिवानकश्च पूयश्च । अशुचिमूत्रपुरीषो, एष ते आत्मनो गन्धः ॥५८॥ यः परगृहस्य लक्ष्मी, कुत्रापि दृष्ट्वा कथयत्यहं धनिकः । स किल स्वयं दरिद्रो, भाषमाणः कथं न लज्जते ? ॥ ५९॥ SROSECSMSACARRORSCR Jan Education a l For Private & Personal use only Jainelibrary. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यरसायस प्रकरणम्। सच्छायम्। ॥३८॥ जो परधणेण सहणो, जो परगंधेण मण्णइ सुगंधोऽहं । तं पुरिसं गयलज्जं, हसंति वेरग्गअमियधरा ॥ ६॥ जस्स य जस्स य जोगो, तस्स तस्स य हवेज हु विओगो । इय नाऊण विरत्ता !, विसयविसं दूरओमुयह ६१ अंचेइ कालो य तरंति राइओ, नयावि भोगा पुरिसाण निचा । उविच भोगा पुरिसं चयंति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥१२॥ पुत्ता चयंति मित्ता, चयंति भजावि णं सुयं चयइ । इको न चयइ धम्मो, रम्मो सबन्नु उवइहो ॥ ६३ ॥ आहारासणनिद्दा-जयं च काऊण जिणवरमएणं । झाइज्जइ नियअप्पा, उवइट्ट जिणवारदेणं ॥१४॥ यः परधनेन सधनो, यः परगन्धेन मन्यते सुगन्धोऽहं । तं पुरुषं गतलज, हसन्ति वैराग्यामृतधराः॥६॥ यस्य च यस्य च योग-स्तस्य तस्य च भवेत्खलु वियोगः। इति ज्ञात्वा विरकाः!, विषयविषं दूरतो मुञ्चत ॥ ६१॥ अञ्च( गच्छ )ति कालश्च तर(या)न्ति राज्यो, न चापि भोगाः पुरुषाणां नित्याः । उपेत्य (प्राप्य ) भोगा पुरुषं त्यजन्ति, दुमं यथा क्षीणफलमिव पक्षी ॥ ६२॥ पुत्रास्त्यजन्ति मित्राणि, त्यजन्ति भार्याऽपि सुतं त्यजति । एको न त्यजति धर्मो, रम्यः सर्वज्ञोपदिष्टः ॥ ६३ ॥ आहारासननिद्रा-जयं च कृत्वा जिनवरमतेन । ध्यायते निज आत्मा, उपदिष्टं जिनवरेन्द्रेण ॥ ६४ ॥ ॥३८॥ Jan Education For Private & Personal use only jainelibrary.org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पकंपं विहायाथ, दढं पज्जंकमासणं । नासऽग्गदत्तसन्नित्तो, किंचि दुम्मीलिअक्खणो ॥ ६५ ॥ संकप्पवाउराओ, दूरुस्सारियमाणसो । संसारच्छेयणुस्साहो, संवेगं झाउमरिहइ ॥ ६६ ॥ [ युग्मम् ] | संवेगअमलनीरेण, कलिमलपकेण पंकियं जीवं । पक्खालह थिरचित्तो, फलिहुन्छ जहुज्जलो होइ ॥ ६७ ॥ चंडासीविसघोरा, पिसुणा छिद्दं च ते गवेसंति । मा रज्जसु कस्सुवरिं, सिणेहबंधं च मा रयसु ॥ ६८ ॥ गुरुकम्मो सो जीवो, जो वेरग्गाओ नहओ फिरइ | अहवा सचुवहाणो, सुणहो किं करइ कप्पूरं ? ॥ ६९ ॥ आऊसयं खु अद्धं, निद्दामोहेण ते गयं मित्त ! | अद्धं जं उच्चरियं, तं पि तिहायं च संजायं ॥ ७० ॥ अप्रकम्पं विधायाथ, दृढं पर्यङ्कमासनं । नासाग्रदत्तसन्नेत्रः, किञ्चिदुन्मीलिताक्षणः ॥ ६५ ॥ सङ्कल्पवागुरातो, दूरोत्सारितमानसः । संसारच्छेदनोत्साहः, संवेगं ध्यातुमर्हति ॥ ६६ ॥ संवैगामलनीरेण, कलिमलपङ्केन पङ्कितं जीवं । प्रक्षालयत स्थिरचित्तः, स्फटिक इव यथोज्वलो भवति ॥ ६७ ॥ चण्डाशिविषघोराः, पिशुनाछिद्रं च ते ( तव ) गवेषयन्ति । मा रजस्व कस्योपरि, स्नेहबन्धं च मा रचयत ॥ ६८ ॥ गुरुकर्मा स जीवो, यो वैराग्यान्नष्टको मत । अथवा सत्योपधानः, शुनकः किं करोति कर्पूरम् १॥ ६९ ॥ आयुः शतं खलु अर्ध, निद्रामोहेन ते गतं मित्र ! | अर्ध यदुद्धरितं ( अवशिष्टं ), तदपि त्रिधाकं च सञ्जातम् ॥ ७० ॥ . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यरसायन प्रकरणम्। सच्छायम्। बालत्तणम्मि किंचिवि, किंचिवि तरुणत्तणम्मि थेरत्ते । एमेव गयं जम्म, सुण्णारण्णे तडागुव ॥७१॥ सदोसमवि दित्तेणं, सुवन्नं वण्हिणा जहा । तवग्गिणा तप्पमाणो, तहा जीवो विसुज्झइ ।। ७२॥ ते सूराते पंडिया, [संविग्गा] जिण्ह ण माणमरद । जे महिलाण न वसि, पडिया ते [न]फिरिसह जेम घरदृ ७३ करवत्तकूडसामलि-वेयरणीकोलमुग्गरप्पमुहं । नरयस्स इमं दुक्खं, अबंधवो सहसि एगागी ॥ ७४ ॥ आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं, साहायमिच्छे निउणट्ठवुद्धिं । निकेयमिच्छेन्ज विवेगजुग्गं, समाहिकामो समणो विरत्तो ॥७५ ॥ बालत्वे किश्चिदपि, किञ्चिदपि तरुणत्वे स्थविरत्वे । एवमेव गतं जन्म, शून्यारण्ये तटाक इव ॥ ७१ ॥ सदोषमपि दीप्तेन, सुवर्ण वह्निना यथा । तपोऽग्निना तप्यमान-स्तथा जीवो विशुध्यति ॥७२॥ ते शूरास्ते पण्डिताः, [संविग्नाः] येषां न मानमर(उत्कर्षः)। ये महिलानां न वशे, पतितास्ते [न]भ्रमिष्यन्ति यथा घरट्ट ७३ करपत्रकूटशाल्मलि-वैतरणीकोलमुद्गरप्रमुखं । नरकस्येदं दुःखं, अबान्धवो सहसे एकाकी ॥७४ ॥ आहारमिच्छेत् मितमेषणीयं, सहायमिच्छेत् निपुणार्थबुद्धिम् । निकेतमिच्छेद् विवेकयोग्यं, समाधिकामः श्रमणो विरक्तः ॥५॥ Jan Education Instmal For Private & Personal use only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education In न वा लहिज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । इक्को वि पावाई विवज्जयंतो, विहरिज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ ७६ ॥ [ दश० चूलिका २ गाथा १० ] जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्प भवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयंति ७७ रागो वि दोसो वि य कम्म बीयं, कम्मं च मोहप्प भवं वयंति। कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइमरणं वयंति७८ दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तन्हा । तन्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाइ ॥ ७९ ॥ न वा लभेत् निपुणं साहयं, गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । कोsपि पापानि विवर्जयन्, विहरेत् कामेष्वसज्यमानः ॥ ७६ ॥ | यथा च अण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च । एवमेव मोहायतनं खलु तृष्णा, मोहं च तृष्णायतनं वदन्ति ॥ ७७ ॥ रागोऽपि द्वेषोऽपि च कर्मबीजं, कर्म च मोहप्रभवं वदन्ति । कर्म च जातिमरणस्य मूलं, दुःखं च जातिमरणं वदन्ति ॥ ७८ ॥ दुःखं हृतं यस्य न भवति मोहः, मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा । तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः, लोभो हतो यस्य न किञ्चनापि ॥ ७९ ॥ *%% lainelibrary.org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यरसायन प्रकरणम्। सच्छायम्। ॥४०॥ रसा पगामं न निसेवियवा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिवंति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥ ८॥ जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेह । पंचिंदियग्गीवि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हिआय कस्सइ॥ ८१॥ विवित्तसेज्जासणजतियाणं, ओमासणाणं दमिइंदिआणं । न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं ॥ ८२॥ जहा बिरालवसहिस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । रसाः प्रकामं न निषेवितव्याः, प्रायो रसा दीप्तिकरा नराणाम् । दीप्तं च कामाः समभिद्रवन्ति, द्रुमं यथा स्वादुफलमिव पक्षी ॥ ८ ॥ यथा दवाग्निः प्रचुरेन्धने वने, समारुतो नोपशममुपैति । पञ्चेन्द्रियाग्निरपि प्रकामभोजिनो, न बह्मचारिणो हिताय कस्यापि ॥ ८१॥ विविक्तशय्यासनयन्त्रितानां, अवमाशनानां [ अल्पाहारिणां ] दमितेन्द्रियाणाम् । न रागशत्रुर्द्धर्षयति चित्तं, पराजितो व्याधिरिवौषधैः ॥ ८२॥ यथा बिडालवसतेमूले, न मूषकाणां वसतिः प्रशस्ता । ॥४०॥ Jan Education International For Private & Personal use only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCORRECHAR एमेव इत्थीनिलयस्स मुले, न बंभयारिस्स खमो निवासो ॥८३ ॥ अइंसणमप्पत्थण-मचिंतणमकित्तणं तुरीयं । नारीजणस्स सुहयं, हवेइ वेरग्गधारीणं ॥ ८४॥ विभूसियाहिं देवीहिं, विरत्तो खोहिउं न सको यातहवि हु एगंत हिय-म्मि य नाउं विवित्तं मा सहय ॥८५॥ रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालियं पावइ सो विणासं। रागाउरो सो जहवा पयंगो, आलोयलोलो समुवेइ मधु ॥ ८६ ।। सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालियं पावइ सो विणासं । रागाउरो सो हरिणुव गिद्धो, सद्दे अतित्तो समुवेइ मचुं ॥ ८७ ।। एवमेव स्त्रीनिलयस्य मूले, न ब्रह्मचारिणः क्षमो [ योग्यो] निवासः॥ ८३॥ अदर्शनमप्रार्थन-मचिन्तन-मकीर्तनं चतुर्य (चतुर्थ)। नारीजनस्य सुखदं (शुभदं), भवति वैराग्यधारिणाम् ॥८४॥ विभूषिताभिर्देवीभि-विरक्तः क्षोभितुं न शक्यश्च । तथापि खलु एकान्त हिते च ज्ञात्वा विविक्तं मा सह(श्रय)त ॥ ८५॥ रूपेषु यो गृद्धिमुपैति तीब्रां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरः स यथा वा पतङ्ग, आलोकलोलः समुपैति मृत्युम् ॥ ८६ ॥ शब्देषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरः स हरिण इव गृद्धः, शब्देऽतृप्तः समुपैति मृत्युम् ॥८॥ *AIGAARASSASSA Jain Education For Private &Personal use Only 8 rainelibrary.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य प्रकरणम्। सच्छायम्। रसायन ॥४१॥ गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालियं पावइ सो विणासं । रागाउरो ओसहिगंधगिद्धो, सप्पो बिलाओ विव निक्खमंतो।। ८८॥ रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालियं पावइ सो विणासं । रागाउरो विडिसविभिन्नकाओ, मच्छो जहा आमिसभोगगिद्धो ॥ ८९॥ फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालियं पावइ सो विणासं । रागाउरे सीयजलाववण्णे, गाहग्गहीए महिसे व रणे ॥९॥ एसु विरत्तो मणुओ विसोगो,एतेण दुक्खोहपरंपरेण ।न लिप्पइ भवमझे वसंतो,जले जहा उप्पलिणीपलासं ९१ गन्धेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां, अकालिकं प्रामोति स विनाशम् । रागातुर ओषधिगन्धगृद्धः, सर्पो बिलादिव निष्क्रमन् ॥८८॥ रसेषु यो गृद्धिमुपैति तीब्रां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरो बिडिशविभिन्नकायो, मत्स्यो यथा आमिषभोगगृद्धः। ॥८९॥ स्पर्शेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरः शीतजलावपन्नो, ग्राह(ग्राहेण-मकरेण)गृहीतो महिष इवारण्ये ॥९॥ एषु विरक्तो मनुजो विशोक, एतेन दुःखौघपरम्परेण । न लिप्यते भवमध्ये वसन् , जले यथा उत्पलिनीपलाशम् ॥ ९१॥ ॥४१॥ For Private Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकुसकसरज्जुबंधण-छेयणपमुहाई उद्दवसयाई । तिरिया य परवसेणं, सहंति हा !! कम्मउदएणं ॥१२॥ मा वयह कडुयवयणं, परमम्ममा कहेह कइयावि। परगुणधणं च पासिय, कयावि मा मच्छरं वहह ॥९३ ॥ मारुसह मा तुसह, कस्स वि उवरि वेरग्गसंलीणो । अप्पारंजण निर[तोटो (?), समाहिहरयम्मि मजेह ॥९४॥ बाहिरमभितरियं, परिग्गहं परिहरह भो भवा!। वेरग्गदिणयरेणं, परिग्गहतमसंचयं हणह ।। ९५॥ वेरग्गमहारयणा-यरम्मि पत्ते वि जेऽहियपमाया । ते कालेणं घत्था, पडिया भीमम्मि भवकूवे॥१६॥ आया अणुहवसिद्धो, अमुत्तिकत्तासदेहपरिमाणो । पुरिसायारो णिचो, नाओ संवेगकुसलेहिं ॥९७ ॥ अङ्कशकशारज्जुबन्धन-छेदनप्रमुखानिउपद्रवशतानि । तिर्यश्चश्च परवशेन, सहन्ते हा!! कर्मउदयेन ॥ ९२॥ मा वदत कटुकवचनं, परमर्म मा कथयत कदाचिदपि । परगुणधनं च दृष्ट्वा, कदाऽपि मा मत्सरं वहत ॥ ९३ ॥ मा रुष्यत मा तुष्यत, कस्यापि उपरि वैराग्यसंलीनः । आत्मारञ्जननिर[तः]र्थः ( ? ), समाधिहदे मज्जत ॥ ९४ ॥ बाह्यमाभ्यन्तरिकं, परिग्रहं परिहरत भो भव्याः ! । वैराग्यदिनकरेण, परिग्रहतमस्सञ्चयं हत ॥ ९५ ॥ वैराग्यमहारत्ता-करे प्रासेऽपि येऽधिकप्रमादाः । ते कालेन प्रस्ताः, पतिता भीमे भवकूपे॥९६॥ आत्माऽनुभवसिद्धो-ऽमूर्तिः कर्ता [कर्मणां] स्वदेहपरिमाणः । पुरुषाकारो नित्यो, ज्ञातः संवेगकुशलैः ॥९७॥ Jan Education A nal For Private &Personal use Only K ainelibrary.org Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य रसायन ॥ ४२ ॥ Jain Education चउनिच्छयपाणजुओ, लोयस्सगम्मि संटिओ विमलो । पुनरागमणविहीणो, सिद्धो उत्तो विरत्तेहिं ॥ ९८ ॥ सङ्घे वि जिणवरिंदा, सवे गणहारिणो य आयरिया । जे पुण चरिमसरीरा, ते सवे संवेगपसायओ सिद्धा ॥ ९९ ॥ कलिकेलिविप्पमुत्ता, आगामतारासु जुत्तिसंरत्ता । संवेगदत्तचित्ता, सासयवासं समणुपत्ता ॥ १०० ॥ मत्ता वि य जे मंदा, तेसिं कए णं परिस्समो एसो । विबुहाहमेण विहिओ, मए जिणाणारएणं च ॥ १०१ ॥ इय कइवयगाहाहिं, अमुणियआगमवियारलेसेणं । रइयं पगरणमेयं, 'लच्छीलाहेण' वरमुणिणा ॥ १०२ ॥ चतुर्निश्चयप्राणयेतो, लोकस्याग्रे संस्थितो विमलो । पुनरागमनविहीनः, सिद्ध उक्तो विरक्तैः ॥ ९८ ॥ सर्वेऽपि जिनवरेन्द्राः सर्वे गणधारिणश्च आचार्याः । ये पुनश्चरमशरीरा-स्ते सर्वे संवेगप्रसादतः सिद्धाः ॥ ९९ ॥ कलिकेलिविप्रमुक्ता, आग्रामतारासु युक्तिसंरक्ताः । संवेगदत्तचित्ताः, शाश्वतवासं समनुप्राप्ताः ॥ १०० ॥ मत्तोऽपि च ये मन्दाः तेषां कृते परिश्रम एषः । विबुधाधमेन विहितो मया जिनाज्ञारतेन च ॥ १०१ ॥ इति कतिपयगाथाभि-रज्ञाताऽऽगमविचारलेशेन । रचितं प्रकरणमेतत्, 'लक्ष्मीलाभेन' वरमुनिना ॥ १०२ ॥ १ ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्यात्मकानन्त चतुष्टय रूपैर्भावप्राणैर्युतः । इति वैराग्यरसायनप्रकरणं समाप्तम् । प्रकरणम् । सच्छायम् । ॥ ४२ ॥ jainelibrary.org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठि देवचन्द लालभाइ-जैन-पुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्केश्रीमजिनवल्लभसूर्युपासक-श्रेष्टिवरधनदेवाङ्गज-कविवर-श्रीपद्मानन्दप्रणीतं वैराग्यशतमित्यपराभिधानं पद्मानन्दशतम् FOLESALESO %*%*%PISAC त्रैलोक्यं युगपत्कराम्बुजलुठन्मुक्तावदालोकते, जन्तूनां निजया गिरा परिणमद्यः सूक्तमाभाषते । स श्रीमान् भगवान् विचित्रविधिभिर्देवासुरैरर्चितो, वीतत्रासविलासहासरभसः पायाजिनानां पतिः॥१॥ (शार्दूल०) यैः क्षुण्णाः प्रसरद्विवेकपविना कोपादिभूमिभृतो, योगाभ्यासपरश्वधेनै कषितो यैर्मोहधात्रीरुहः। बद्धः संयमसिद्धमन्त्रविधिना यैः प्रौढकामज्वर-स्तान्मोक्षकसुखानुषङ्गरसिकान्वन्दामहे योगिनः ॥२॥ (शार्दूल०) यैस्त्यक्ता किल शाकिनीवदसमप्रेमाश्चिता प्रेयसी, लक्ष्मीः प्राणसमाऽपि पन्नगवधूवत्प्रोज्झिता दूरतः। मुक्कं चित्रगवाक्षराजिरुचिरं वल्मीकवन्मन्दिरं, निस्सङ्गत्वविराजिताः क्षितितले नन्दन्तु ते साधवः॥३॥ (शार्दूल०) यः परवादे मूकः, परनारीवऋविक्षणेऽप्यन्धः । पङ्गः परधनहरणे, स जयति लोके महापुरुषः॥४॥ (आर्या) १ चूर्णीकृताः। २ वजेण। ३ परशुना। ४ लूनः। ५ (वृक्षः)। CHE वैरा०८ JainEducation International For Private & Personal use only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मानन्दशतम् CHECEMACSCROSAROO आक्रोशेन न दूयते न च चटुप्रोक्त्या समानन्द्यते, दुर्गन्धेन न बाध्यते न च सदामोदेन सम्प्रीयते । | सत्ययोस्त्रीरूपेण न रज्यते न च मृतश्चानेन विद्वेष्यते, माध्यस्थ्येन विराजितो विजयते कोऽप्येष योगीश्वरः॥५॥ (शा.) गिनःस्वमित्रे नन्दति नैव नैव पिशुने वैरातुरो जायते, भोगे लुभ्यति नैव नैव तपसि क्लेशं समालम्बते । रूपादिकम् रत्ने रज्यति नैव नैव दृषदि प्रद्वेषमापद्यते, येषां शुद्धहृदां सदैव हृदयं ते योगिनो योगिनः॥६॥ (शार्दूल.) सौन्दर्यैकनिधेः कलाकुलविधेलावण्यपाथोनिधेः, पीनोत्तुङ्गपयोधरालसगतेः पातालकन्याकृतेः। कान्ताया नवयौवनाञ्चिततनोयेरुज्झितः सङ्गमः, सम्यङ्मानसगोचरे चरति ? किं तेषां हताशः स्मरः ॥७॥ (शार्दूल.) शृङ्गारामृतसेकशाडलरुचिर्वक्रोक्तिपत्रान्विता, प्रोद्गच्छत्सुमनोऽभिषङ्गसुभगा स्त्रीणां कथावल्लरी। यैब्रह्मत्रतपावकेन परितो भस्मावशेषीकृता, किं तेषां विषमायुधः प्रकुरुते? रोषप्रकर्षेऽपि रे!॥८॥ (शार्दूल.)। आताम्रायतलोचनाभिरनिशं सन्तय॑ सन्तयं च, क्षिप्तस्तीक्ष्णकटाक्षमार्गणगणो मत्ताङ्गनाभिर्भृशम् । तेषां किं न विधास्यति ? प्रशमितप्रद्युम्नलीलात्मनां, येषां शुद्धविवेकवज्रफलेकं पार्थे परिभ्राम्यति ॥ ९॥ (शार्दूल.) अग्रे सा गजगामिनी प्रियतमा पृष्ठेऽपि सा दृश्यते, धान्यां सा गगनेऽपि सा किमपरं सर्वत्र सा सर्वदा । आसीद्यावदनङ्गसङ्गतिरसस्तावत्तवेयं स्थितिः, सम्प्रत्यास्यपुरस्सरामपि न तां द्रष्टाऽसि कोऽयं लयः ॥१०॥ (शार्दूल.) दा॥४३॥ योगे पीनपयोधराश्चिततनोविच्छेदने बिभ्यता, मानस्यावसरे चटूक्तिविधुरं दीनं मुखं बिभ्रताम् । १ नागकन्या-नागकुमारदेवाङ्गनातुल्यायाः। २ अतिरक्तविस्तीर्णः। ३ प्रश्ने। ४ कामः। ५ पेटकं (1) [खेट:-दाल इति लोके] । CMCALCRECORRORANGER Jan Education Instmal For Private & Personal use only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्लेषे स्मरवह्निनाऽनुसमयं दन्दह्यमानात्मनां भ्रातः ! सर्वदशासु दुःखगहनं धिक्कामिनां जीवितम् ॥११॥ ( शार्दूल० ) मध्येऽस्याः कृशतां कुरङ्गकदृशो भूनेत्रयोर्वक्रतां, कौटिल्यं चिकुरेषु रागमधरे मान्द्यं गतिप्रक्रमे । काठिन्यं कुचमण्डले तरलतामक्ष्णोर्निरीक्ष्य स्फुटं वैराग्यं न भजन्ति मन्दमतयः कामातुरा ही !! नराः ॥ १२ ॥ ( शार्दू ० ) पाण्डुत्वं गमितान्कचान्प्रतिहतां तारुण्यपुण्यश्रियं चक्षुः क्षीणबलं कृतं श्रवणयोर्बाधिर्यमुत्पादितम् । स्थानभ्रंशमवापिताश्च जरया दन्तास्थिमां सत्वचः, पश्यन्तोऽपि जडा हहा !! हृदि सदा ध्यायन्ति तां प्रेयसीम् ॥ १३॥ ( शा० ) अन्यायार्जितवित्तवत्क्वचिदपि भ्रष्टं समस्तै रदै - स्तापक्लान्ततमालपत्रवदभूदङ्गं वलीभङ्गरम् । केशेषु क्षणचन्द्रवद्धवलिमा व्यक्तं श्रितो यद्यपि, स्वैरं धावति मे तथापि हृदयं भोगेषु मुग्धं हहा !! ॥ १४॥ ( शार्दूल० ) उद्गृणन्ति प्रपञ्चेन, योषितो गद्गदां गिरम् । तामामनन्ति प्रेमोक्तिं, कामग्रहिलचेतसः ॥ १५ ॥ (अनुष्टुब्वृत्तम् ) यावद्दुष्टरक्षयाय नितरां नाहारलौल्यं जितं, सिद्धान्तार्थमहौषधेर्निरुपमचूर्णो न जीर्णो हृदि । पीतं ज्ञानलघुदकं न विधिना तावत्स्मरोत्थो ज्वरः, शान्तिं याति न तात्त्विक हृदय ! हे शेषैरलं भेषजैः ॥ १६ ॥ ( शा० ) शृङ्गारद्रुमनीरदे प्रसृमरक्रीडारसस्रोतसि, प्रद्युर्न्नप्रियबान्धवे चतुरवाङ्मुक्ताफलोदन्वति । तन्वीनेत्र चकोर पार्वणविधौ सौभाग्यलक्ष्मीनिधौ, धन्यः कोऽपि न विक्रियां कलयति प्राप्ते नवे यौवने ॥ १७ ॥ ( शा०) सम्यक्परिहृता येन, कामिनी गजगामिनी । किं करिष्यति ? रुष्टोऽपि तस्य वीरवरः स्मरः ॥ १८ ॥ ( अनुष्टुवृत्तम् ) १ केशेषु । २ प्राप्तान् । ३ केशान् । ४ ( पूर्णिमाचन्द्रवत्) । ५ असा वियन्तः पुंसि वर्त्तते । ६ कामः । ७ स्त्री । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मानन्दशतम् SRAM-A- MS-CIRCTER.COM लज्जेयं प्रलयं प्रयाति झटिति ब्रह्मव्रतं भ्रश्यति, ज्ञानं सङ्कचति स्मरज्वरवशात्पश्यामि यावत्प्रियाम् । कामरागस्य यावत्तु स्मृतिमेति नारकगतेः पाकक्रमो भीषण-स्तावत्तत्त्वनिरीक्षणात्प्रियतमाऽप्येषा विषौघायते ॥ १९ ॥ (शार्दूल०) विरूपताकारुण्येन हता वधव्यसनिता सत्येन दुर्वाच्यता, सन्तोषेण परार्थचौर्यपटुता शीलेन रागान्धता । नैर्ग्रन्थ्येन परिग्रहग्रहिलता यैौवनेऽपि स्फुटं, पृथ्वीयं सकलाऽपि तैः सुकृतिभिर्मन्ये पवित्रीकृता ॥२०॥ (शार्दूल.) यत्राम्रोऽपि विचित्रमञ्जरिभरव्याजेन रोमाञ्चितो, दोलारूढविलासिनीविलसितं चैत्रे विलोक्याद्भुतम् । सिद्धान्तोपनिषन्निषण्णमनसां येषां मनस्सर्वथा, तस्मिन्मन्मथबाधया न मथितं धन्यास्त एव ध्रुवम् ॥ २१ ॥ (शार्दूलाल स्वाध्यायोत्तमगीतिसङ्गतिजुषः सन्तोषपुष्पाश्चिताः, सम्यग्ज्ञानविलासमण्डपगताः सद्ध्यानशय्यां श्रिताः। तत्त्वार्थप्रतिबोधदीपकलिकाक्षान्त्यङ्गनासङ्गिनो, निर्वाणैकसुखाभिलाषिमनसो धन्या नयन्ते निशाम् ॥२२॥ (शार्दूल०) किं? लोलाक्षि! कटाक्षलम्पटतया किं? स्तम्भजृम्भादिभिः, किं? प्रत्यङ्गनिदर्शनोत्सुकतया किं? प्रोल्लसच्चाटुभिः। आत्मानं प्रतिवाधसे त्वमधुना व्यर्थ मदर्थ यतः, शुद्धध्यानमहारसायनरसे लीनं मदीयं मनः॥२३॥ (शार्दूल०) सज्ज्ञानदर्शनशाली, दर्शनशाखश्च येन वृत्ततरुः। श्रद्धाजलेन सिक्को, मुक्तिफलं तस्य स ददाति ॥ २४॥ (आर्या) क्रोधाधुग्रचतुष्कषायचरणो व्यामोहहस्तस्सखे!, रागद्वेषनिशातदीर्घदशनो दुर्वारमारोद्धुरः। सज्ज्ञानाङ्कुशकौशलेन स महामिथ्यात्वदुष्टद्विपो, नीतो येन वशं वशीकृतमिदं तेनैव विश्वत्रयम् ॥ २५ ॥ (शार्दूल०) १ (सिद्धान्तस्योपनिषदि-रहस्ये निषण्णं-निविष्टं मनो येषां ते तथा, तेषां) विदुवाम् । २ ("वृत्तं पद्ये चरित्रे त्रि-प्वतीते दृढनिस्तले" इत्यमरः)। ४४॥ Jain Education a l For Private &Personal use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृश्यन्ते बहवः कलासु कुशलास्ते च स्फुरत्कीर्तये, सर्वस्वं वितरन्ति ये तृणमिव क्षुद्रैरपि प्रार्थिताः। धीरास्तेऽपि च ये त्यजन्ति झटिति प्राणान्कृते स्वामिनो, द्वित्रास्ते तु नरा मनस्समरसं येषां सुहृद्वैरिणो ॥२६॥ (शा०) हृदयं सदयं यस्य, भाषितं सत्यभूषितम् । कायः परहितोपायः, कलिः कुर्वीत तस्य किम् ? ॥ २७॥ (अनुष्टुब्वृत्तम् )| नास्त्यसद्भाषितं यस्य, नास्ति भङ्गो रणाङ्गणात् । नास्तीति याचके नास्ति, तेन रत्नवती क्षितिः ॥ २८ ॥ (अनुष्टुब्वृत्तम् )| आनन्दाय न कस्य मन्मथकथा? कस्य प्रिया न प्रिया?, लक्ष्मीः कस्य न वल्लभा ? मनसि नो कस्याङ्गजः क्रीडति?। ताम्बूलं न सुखाय कस्य ? न मतं कस्यान्नशीतोदकम् , सर्वाशाद्रुमकर्त्तनैकपरशुर्मृत्युन चेत्स्याजनाः! ॥२९॥ (शार्दूल.) भार्येयं मधुराकृतिर्मम मम प्रीत्यन्वितोऽयं सुतः, स्वर्णस्यैष महानिधिर्मम ममासौ बन्धुरो बान्धवः । रम्यं हर्म्यमिदं ममेत्थमनया व्यामोहितो मायया, मृत्यु पश्यति नैव दैवहतकः क्रुद्धं पुरश्चारिणम् ॥ ३०॥ (शार्दूल.) कष्टोपार्जितमत्र वित्तमखिलं द्यूते मया योजितं, विद्या कष्टतरं गुरोरधिगता व्यापारिता कुस्तुती । पारम्पर्यसमागतश्च विनयो वामेक्षणायां कृतः, सत्पात्रे किमहं करोमि? विवशः कालेऽद्य नेदीयसि ॥ ३१॥ (शा०) आत्मा यद्विनियोजितो न विनये नोग्रं तपः प्रापितो, न क्षान्त्या समलङ्कतः प्रतिकलं सत्येन न प्रीणितः। तत्त्वं निन्दसि नैव कर्महतकं प्राप्ते कृतान्तक्षणे, देवायैव ददासि जीव! नितरां शापं विमूढोऽसि रे!॥ ३२॥ (शा.) बालो यौवनसम्पदापरिगतः क्षिप्रं क्षितौ लक्ष्यते, वृद्धत्वेन युवा जरापरिणतो व्यक्तं समालोक्यते । सोऽपि क्वापि गतः कृतान्तवशतो न ज्ञायते सर्वथा, पश्यैतद्यदि कौतकं किमपरस्तैरिन्द्रजालैः सखे!॥ ३३॥ (शा०)। REASE Jan Educaton International For Private & Personal use only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मानन्दशतम् कर्मवैचिव्यादिकम द्वारं दन्तिमदप्रवाहनिवहैर्येषामभूत्पङ्किलं, ग्रासाभाववशान्न सञ्चरति यद्रकोऽपि तेषां पुनः। येऽभूवन्विमुखाः खकुक्षिभरणे तेषामकस्मादहो!!, यच्च श्रीरिह दृश्यतेऽतिविपुला तत्कर्मलीलायितम् ॥ ३४ ॥ (शा.) नापत्यानि न वित्तानि, न सौधानि भवन्त्यहो !! । मृत्युना नीयमानस्य, पुण्यपापे परं पुरः॥ ३५॥ (अनुष्टुब्वृत्तम् )| ब्रूतेऽहङ्कतिनिग्रहं मृदुतया पश्चात्करिष्याम्यहं, प्रोद्यन्मारविकारकन्दकर्दन पञ्चेन्द्रियाणां जयात् । व्यामोहप्रसरावरोधनविधिं सद्ध्यानतो लीलया, नो जानाति हरिष्यतीह हतकः कालोऽन्तराले किल ॥ ३६ ॥ (शा०) बद्धा येन दशाननेन नितरां खट्रैकदेशे जरा, द्रोणाद्रिश्च समुद्धृतो हनुमता येन स्वदोलिलया। श्रीरामेण च येन राक्षसपतिस्त्रैलोक्यवीरो हतः, सर्वे तेऽपि गताः क्षयं विधिवशात्काऽन्येषु तद्भोः! कथा? ॥३७॥ (शा०) सर्वभक्षी कृतान्तोऽयं, सत्यं लोके निगद्यते । रामदेवादयो धीराः, सर्वे क्वाप्यन्यथा गताः ॥ ३८॥ (अनुष्टुववृत्तम् ) मिथ्यात्वानुचरैर्विचित्रगतिभिः सञ्चारितस्यो टै-रत्युग्रभ्रममुद्गराहतिवशात्सम्मूञ्छितस्यानिशम् । संसारेऽत्र नियन्त्रितस्य निगडैर्मायामयैश्चौरवत् , मुक्तिः स्यान्मम सत्वरं कथमतः सद्वृत्तवित्तं विना ॥ ३९ ॥ (शार्दूल.) दुष्प्रापं मकराकरे करतलाद्रलं निमग्नं यथा, संसारेऽत्र तथा नरत्वमथ तत्प्राप्तं मया निर्मलम् । भ्रातः! पश्य विमूढतां मम हहा !! नीतं यदेतन्मुधा, कामक्रोधकुबोधमत्सरकुधीमायामहामोहतः॥४०॥ (शार्दूल.) येनेह क्षणभङ्गरेण वपुषा क्लिन्नेन सर्वात्मना, सद्व्यापारवियोजितेन परमं निर्वाणमप्याप्यते । १ "द्वारे" इत्यध्याहार्यमत्र कर्म। २ (नाशनम्)। ३ (भाग्यरहितः)। ॥४५॥ Jan Education International For Private &Personal use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educatio प्रीतिस्तेन हहा !! सखे ! प्रियतमाव क्रेन्दुरागोद्भवा, क्रीता स्वल्पसुखाय मूढमनसा कोट्या मया काकिणी ॥४१॥ ( शा० ) क्रीडाकारि परोपहासवचनं तुष्ट्यै परव्यंसनं, कान्ता काञ्चनसुन्दराङ्गलतिका कान्तैव पृथ्वीतले । भव्यो द्रव्यसमर्जने किल महारम्भोद्यमः किन्तु रे !, भेदच्छेदनताडनादिविधिना रौद्रो महारौरवः ॥ ४२ ॥ ( शार्दूल० ) कन्दर्पप्रसरप्रशान्तिविधये शीलं न संशीलितं, लोभोन्मूलन हेतवे स्वविभवो दत्तो न पात्रे मुदा । व्यामोहोन्मथनाय सद्गुरुगिरां तत्त्वं न चाङ्गीकृतं, दुष्प्रापो नृभवो मया हतधिया हा !! हारितो हारितः ॥४३॥ ( शा० ) सौख्यं मित्रकलत्रपुत्रविभवभ्रंशादिभिर्भङ्गरं, कासश्वासभगन्दरादिभिरिदं व्याप्तं वपुर्व्याधिभिः । भ्रातस्तूर्णमुपैति सन्निधिमसौ कालः करालाननः, कष्टं किं करवाण्यहं तदपि यच्चित्तस्य पापे रतिः ॥ ४४ ॥ ( शार्दूल०) संसारे गहनेऽत्र चित्रगतिषु भ्रान्त्याऽनया सर्वथा, रे रे जीव ! न सोऽस्ति कश्चन जगन्मध्ये प्रदेशो ध्रुवम् । यो नाप्तस्तव भूरिजन्ममरणैस्तत्किं न तेऽद्यापि ही !!, निर्वेदो हृदि विद्यते ? यदनिशं पापक्रियायां रतिः ॥४५॥ ( शार्दू ० ) नो स्कन्धेन समुन्नतेन घर से चारित्रगन्त्र्या धुरं, पृष्ठेनोपचितेन नैव वहसे प्रोच्चैरहिंसाभरम् । मिथ्यात्वान्नचयं पदाहतिवशाद्भो ! गाहसे त्वं यत-श्वेतस्तद्गतशङ्क ! साङ्कवृषैवन्निन्द्यं परिभ्राम्यसि ॥ ४६ ॥ ( शार्दूल० ) प्राप्ते सत्कुलजन्ममानवभवे निर्दोपरलोपमे, नीरोगादिसमस्तवस्तुनिचये पुण्येन लब्धे सति । नोपात्तं किमपि प्रमादवशतस्तत्त्वं त्वया मुक्तये, रे! जीवात्र ततोऽतिदुःखविषमे संसारचक्रे भ्रमः ॥ ४७ ॥ ( शार्दूल० ) १ ( मनोहरा ) । २ शीघ्रम् । ३ ( मिथ्यात्वमेवान्नं, तस्य चयः - समूहस्तम् ) । ४ (अङ्केन - सूर्याद्युपलक्षितचिह्नेन सहितो वृषः - झण्डः) । jainelibrary.org Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मानन्दशतम् ॥ ४ ॥ ( शा० ) शार्दूल ० क्रोधो न्यक्कृतिभाजनं न विहितो नीतो न मानः क्षयं, माया नैव हता हताश ! नितरां लोभो न सङ्घोभितः । रे! तीव्रोत्कटकूट चित्तवशग ! स्वान्त ! त्वया हारितं, हस्ताप्तं फलमाशु मानवभव श्री कल्पवृक्षोद्भवम् ॥ ४८ ॥ ( शार्दूल० ) बाल्ये मोहमहान्धकारगहने मग्नेन मूढात्मना, तारुण्ये तरुणी समाहृतहृदा भोगेकसङ्गेच्छुना । वृद्धत्वेऽपि जराऽभिभूतकरणग्रामेण निःशक्तिना, मानुष्यं किल दैवतः कथमपि प्राप्तं हतं हा ! ! मया ॥ ४९ ॥ यस्मै त्वं लघु लङ्घसे जलनिधिं दुष्टाटवीं गाहसे, मित्रं वञ्चयसे विलुम्पसि निजं वाक्यक्रमं मुञ्चसि । तं यदि दृश्य स्थिरतया कस्यापि पृथ्वीतले, रे रे !! चञ्चलचित्त ! वित्तहतक ! व्यावर्त्ततां मे तदा ॥५०॥ अज्ञानाद्रितटे क्वचित्क्वचिदपि प्रद्युम्नगर्त्तान्तरे, मायागुल्मतले क्वचित्क्वचिदहो ! ! निन्दानदीसङ्कटे । मोहव्याघ्रभयातुरं हरिणवत्संसारघोराटवी मध्ये धावति पश्य सत्वरतरं कष्टं मदीयं मनः ॥ ५१ ॥ सच्चारित्रपवित्रदारुरचितं शीलध्वजालङ्कृतं, गुर्वाज्ञागुणगुम्फनाद्दढतरं सद्बोधपोतं श्रितः । मोहग्राहभयङ्करं तर महासंसारवारांनिधिं, यावन्न प्रतिभिद्यते स्तनतटाघातैः कुरङ्गीदृशाम् ॥ ५२ ॥ किं भस्मप्रतिलेपनेन ? वपुषो धूमस्य पानेन ? किं, वस्त्रत्यागजुगुप्सया किमनया ? किं ? वा त्रिदण्ड्याऽप्यहो !! । किं स्कन्धेन नतेन ? कम्बलभराजापस्य किं ? मालया, वामाक्षीमभिधावमानमनिशं चेतो न चेद्रक्षितम् ॥ ५३ ॥ ( शा० ) रोद्धुं बालमृणालतन्तुभिरसौ मत्तेभमुज्जृम्भते, भेत्तुं वज्रमयं शिरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यति । ( शार्दूल० ) ( शार्दूल० ) ११ (वि- विशेषेण आ-समन्ताद्वर्त्ततां भवतु ) । . अपरित्यक्त कषायाणां वृथामनुज त्वहारणा स्पश्चात्तापादिः ॥ ४६ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते, नेतुं वाञ्छति यः सतां पथि खलान्सूक्तैस्सुधास्यन्दिभिः ॥ ५४ ॥ ( शार्दू ० ) मुक्त्वा दुर्मतिमेदिनीं गुरुगिरा संशील्य शीलाचलं, बद्धा क्रोधपयोनिधिं कुटिलतालङ्कां क्षपित्वा क्षणात् । नीत्वा मोहदशाननं निधनतामाराध्य वीरव्रतं, श्रीमद्राम इव क्व मुक्तिवनितायुक्तो भविष्याम्यहम् ? ॥ ५५ ॥ ( शार्दूल०) आहारैर्मधुरैर्मनो हरतरै हारैर्विहारैर्वरैः, केयूरैर्मणिरत्नचारुशिखरैर्दीरैरुदारैश्च किम् ? । प्राणान्पद्मदलाग्रवारितरलाज्ञात्वा जवाज्जीव! रे, दानं देहि विधेहि शीतलपसी निर्वेदमास्वादय ॥ ५६ ॥ ( शार्दूल० ) ज्ञात्वा बुद्बुदभङ्गुरं धनमिदं दीपप्रकम्पं वपु-स्तारुण्यं तरलेक्षणाक्षितरलं विद्युच्चलं दोर्वलम् । रे रे जीव ! गुरुप्रसादवशतः किञ्चिद्विधेहि द्रुतं, दानध्यानतपोविधानविषयं पुण्यं पवित्रोचितम् ॥ ५७ ॥ ( शार्दूल० ) श्रीखण्डपादपेनेव, कृतं स्वं जन्म निष्फलम् । जिह्नगानां द्विजिह्वानां, सम्बन्धमनुरुन्धता ॥ ५८ ॥ ( अनुष्टुववृत्तम् ) किं ? तर्केण वितर्कितेन शतशो ज्ञातेन किं ? छन्दसा, किं ? पीतेन सुधारसेन बहुधा स्वाध्यायपाठेन किम् ? । अभ्यस्तेन च लक्षणेन किमहो !! ध्यानं न चेत्सर्वथा, लोकालोकविलोकनैककुशलं ज्ञानं हृदि ब्रह्मणः ॥ ५९ ॥ ( शा० ) मां बाल्यादपि निर्निमित्तनिबिड प्रोद्भूतसख्य श्रियं, दम्भारम्भ ! विहाय सत्वरतरं दूरान्तरं गम्यताम् । पश्योन्मीलति मेऽधुना शुभवशाज्ज्ञानोष्णरश्मिप्रभा, प्रालेयोत्करवद्भवन्तमनया द्रक्ष्याम्यहं त्वां कथम् ? ॥ ६० ॥ ( शा० ) कारुण्यान्न सुधारसोऽस्ति हृदयद्रोहान्न हालाहलं, वृत्तादस्ति न कल्पपादप इह क्रोधान्न दावानलः । १ ( हिमसमूहवत् ) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षान्ति पद्मानन्दशतम् सन्तोषादपरोऽस्ति न प्रियसुहल्लोभान्न चान्यो रिपु-युक्तायुक्तमिदं मया निगदितं यद्रोचते त(ज)त्त्यज ॥६॥ (शा०) औचित्यांशुकशालिनी हृदय ! हे शीलाङ्गरागोज्वलां, श्रद्धाज्ञानविवेकमण्डनवतीं कारुण्यहाराङ्किताम् । प्रियायाः सद्धोधाञ्जनरञ्जिनीं परिलसच्चारित्रपत्राङ्करां, निर्वाणं यदि वाञ्छसीह परमशान्तिप्रियां तद्भज ॥ ६२॥ (शार्दूल०) सेवनीययत्रातिन मतिभ्रमो न न रतिः ख्यातिन नवोन्नतिः, न व्याधिन विधिनिधिन न वधो ध्यानं न नाध्येषणा। त्वादिकम् नो दास्यं न विलासवाससदनं हास्यं न लास्यं च नो, तत्सांसारिकपुण्यपापरहितं ध्येयं पदं धीधनाः!॥६॥ (शार्दूल०) तावद्भानुकराः प्रकाशनपरा यक्षेश्वरोऽप्यर्थवान् , सम्पूर्णेन्दुमुखी प्रिया प्रियमयी माधुर्यहृद्या सुधा। मुक्तादामगुणावलीपरिचितश्चैत्र(श्च)स्य चित्रोत्सवो, यावन्नैव विशन्ति हन्त !! हृदये सिद्धान्तवाक्योत्कराः॥६॥ (शा०) क्षणमपि न यस्य तिष्ठति, गुरूपदेशो नरेन्द्र इव हृदये । मन्त्ररहस्योद्गारी, मन्त्रीव स दूरतस्त्याज्यः॥६५॥ (आर्या) धर्मो यैनिहतःप्रमादवशतः प्राप्तेऽपि मानुष्यके, कार्पण्येन विडम्बितौ सति धने यैरर्थकामावपि । अत्यन्तं चलचित्तनिग्रहपरैरप्याप्यते वा न वा, मोक्षः शाश्वतिकः प्रसा प्रमोदसदनं तेषां दवीयान्पुनः ॥६६॥ (शा०) आकाशेऽपि चिराय तिष्ठति शिला मन्त्रेण तन्त्रेण वा, बाहुभ्यामपि तीर्यते जलनिधिर्वेधाः प्रसन्नो यदा। दृश्यन्ते ग्रहयोगतः सुरपथे प्राण्हेऽपि ताराः स्फुटं, हिंसायां पुनराविरस्ति नियतं गन्धोऽपि न श्रेयसः ॥३७॥ (शा.) 13॥४७॥ निशानां च दिनानां च, यथा ज्योतिर्विभूषणम् । सतीनां च यतीनां च, तथा शीलमखण्डितम् ॥६८॥ (अनुष्टुब्वृत्तम् ) १ यात्रा। RRENESCREENERA Jan Education Instmal For Private & Personal use only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायया राजते वेश्या, शीलेन कुलबालिका । न्यायेन मेदिनीनाथः, सदाचारतया यतिः ॥ ६९॥ (अनुष्टुब्बृत्तम् ) यावयाधिविबाधया विधुरतामङ्गं न संसेवते, यावच्चेन्द्रियपाटवं न हरति क्रूरा जराराक्षसी। तावन्निष्कलनिश्चलामलपदं कर्मक्षयायाधुना, ध्येयं ध्यानविचक्षणैः स्फुटतरं हृत्पद्मसद्मोदरे ॥ ७० ॥ (शार्दूल. अज्ञानावृतचेतसो मम महाव्यामूढतां मोहतां, कृत्वा धर्मधनं हृतं यदनिशं वाराणसीधूर्त्तवत् । युक्तं तद्विहितं त्वयेदमपि ते युक्तं भवेद्धि व्रतं, मां पुण्याप्तगुरुप्रसादमधुना सन्त्यज्य निर्गच्छ रे! ॥७१॥ (शार्दूल०) तन्नो नागपतेर्भुजङ्गवनिताभोगोपचारैः परै-स्तन्नो श्रीसविलाससङ्गमशतैः सारैर्मुरारेः किल । तन्नो वज्रधरस्य देववनिताक्रीडारसैनिभरै-यत्सौख्यं बत वीतकाममनसां तत्त्वार्थतो योगिनाम् ॥ ७२॥ (शार्दूल०) मध्यक्षामतया योषि-त्तपःक्षामतया यतिः । मुखक्षामतया चाश्वो, राजते न तु भूषणैः ॥ ७३ ॥ (अनुष्टुब्बृत्तम् ) तन्व्या श्रोत्ररसायनेन वचसा सप्रेमसम्भाषितः, सर्पत्कोपविपाकपाटलरुचा संवीक्षितश्चक्षुषा । सद्योगान्न तिलाग्रमात्रमपि यः ससोभितुं शक्यते, रागद्वेषविवर्जितो विजयते कोऽप्येष योगीश्वरः॥७४॥ (शार्दूल.) आताघायतलोचनातुरमिदं न्यक्कारवानिन्दितं, बद्धभृकुटिभालभीममधरप्रस्पन्ददुर्दर्शनम् । व्यालोलालकसङ्कुलं कृशतनोः कोपेऽपि कान्तं मुखं, पश्यन्ति स्मरविह्वलीकृतहृदो ही!! कामिनां मूढता ॥७५॥ (शा०) कौशल्यं प्रविलीयते विकलता सर्वाङ्गमाश्लिष्यते, ज्ञानश्रीः प्रलयं प्रयाति कुमतिः प्रागल्भ्यमभ्यस्यति । धर्मोऽपि प्रपलायते कलयति स्थेमानमंहः परं, यस्माच्छोकवशात्कथं स विदुषां संसेवितुं युज्यते ? ॥ ७६ ॥ (शार्दूल०) OSALESIACOCHOCO Jan Education Instmal For Private &Personal use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ पद्मानन्दशतम् | कामिजनस्य मन्द| बुद्धित्वादिकम् RECENSESCALCREK क? कफात मुखं नार्याः, व? पीयूषनिधिः शशी । आमनन्ति तयोरैक्यं, कामिनो मन्दबुद्धयः॥७७॥ (अनुष्टुब्वृत्तम् ) पाशे कुरङ्गनिवहो [न] न (2) पतत्यविद्वान् , दाहात्मतामकलयञ्छलभः प्रदीपे । जानन्नहं पुनरमून् करिकर्णलोलान् , भोगाँस्त्यजामिन तथापि क एष मोहः ॥ ७८॥ (वसन्ततिलका) ज्ञानमेव परं मित्रं, काम एव परः परः । अहिं सैव परो धर्मो, योषिदेव परा जरा ॥७९॥ (अनुष्टुब्वृत्तम् ) धिक्कन्दर्प! जगत्रयीविजयिनो दोःस्थामविस्फूर्जितं, विद्वान्कः किल तावकीनमधुना व्यालोकतामाननम् । दृष्टा यौवनमित्रमत्रपभवान्सपंजराराक्षसी-वक्रान्तःपतितं विमुञ्चति न यः कोदण्डकेलिक्रमम् ॥ ८॥ (शार्दूल०), तृष्णावारितरङ्गभङ्गविलसत्कौटिल्यवल्लीरुह-स्तिर्यक्प्रेक्षितवाक्प्रपञ्चकबरीपाशभ्रवः पल्लवाः । यस्या मान्ति न तुच्छ के हृदि ततः स्थानं बहिः कुर्वते, कस्ताश्चञ्चलचक्षुषः कुशलधीः संसेवितुं वाञ्छति ॥८॥ (शा०) रे रे मोह ! हताश! तावकमिदं धिपौरुषोज्जम्भितं, विनब्धं भवसागरे किल भवान्संयम्य मां क्षिप्तवान् । सम्प्रत्याप्तगुरूपदेशफलकः पारं प्रयातोऽस्म्यहं, शौण्डीयं तव विद्यते यदधुना दोष्णोस्तदा दर्शय ॥८२॥ (शार्दूल.) रे कन्दर्प! किमाततज्यमधुना धत्से? धनुस्त्वं मुधा, किं भ्रूलास्यकलासु पश्मलदृशः प्रागल्भ्यमभ्यस्यथ ? । वैराग्याम्बुजिनीप्रबोधनपटुः प्रध्वस्तदोषाकरः, खेलत्येष विवेकचण्डकिरणः करत्वादृशामुत्सवः ॥ ८३॥ (शार्दूल.) अन्यं प्रियालापपथं नयन्ते, किञ्चित्कटाक्षैरपरं स्पृशन्ति । अन्यं हृदा कञ्चन मन्त्रयन्ते, धिग्योषितां चञ्चलचित्तवृत्तिम् ॥ ८४॥ (इन्द्रवजा) LOGROLOGGESCREENA ॥४८॥ Jain Educatan International For Private &Personal use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज्यायै वचनक्रम रचयतः पादौ परिभ्रान्तये, नेत्रे रोषकषायितानि वदनान्यालोकितुं स्वामिनाम् । धातश्चेन्न दयालुता तव हृदि स्थानं बबन्ध क्षणं, तत्किं हन्त !! परिश्रमोऽपि निकटीभूयं न सम्पन्नवान् ? ॥८५॥ (शा०) रक्षाकृते धनलवस्य विमूढचेता, लोकः परं किमपि सन्तनुते प्रयत्नम्। तल्लक्षकोटिभिरनाप्यमपीदमायुः, कालो निकृन्तति न तन्ननु शङ्कतेऽपि ॥८६॥ (वसन्ततिलका) बन्धो! क्रोध! विधेहि किञ्चिदपरं स्वस्याधिवासास्पदं, भ्रातर्मान ! भवानपि प्रचलतु त्वं देवि माये ! ब्रज। हंहो लोभसखे! यथाऽभिलषितं गच्छ द्रुतं वश्यतां, नीतः शान्तरसस्य सम्प्रति लसद्वाचा गुरूणामहम् ॥८७॥ (शा०) मनो न वैराग्यतरङ्गितं चे-द्वथा तदा दानतपःप्रयासः । लावण्यमङ्गे यदि नाङ्गनानां, मुधा तदा विभ्रमवलिगतानि ॥८८॥ (रामा) विश्वाः कलाः परिचिता यदि तास्ततः किं ?, तप्तं तपो यदि तदुग्रतरं ततः किम् ? । कीर्तिः कलङ्कविकला यदि सा ततः कि-मन्तर्विवेककलिका यदि नोल्ललास ॥ ८९॥ (वसन्ततिलका) स्फूर्जल्लोभकरालवत्रकुहरो हुङ्कारगुजारवः, कामक्रोधविलोललोचनयुगो मायानखश्रेणिभाक् । स्वैरं यत्र स बम्भ्रमीति सततं मोहाह्वयः केसरी, तां संसारमहाष्टवीं प्रतिवसन्को नाम जन्तुः सुखी? ॥९०॥ (शा०) REACHERS बैरा०९ १ चतुर्दशभेदभिन्नाया उपजातेरेकादशोऽयं भेदः, यत्र तृतीयं चरणमिन्द्रवज्रायाः शेषं चरणत्रिकं चोपेन्द्रवज्राया भवति । Jain Education mal For Private &Personal use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मानन्दशतम् यमस्य सर्वतोमुखं प्राधान्यम् -RESEARCH एकः स वैवस्वत एव देवः, शौण्डीर्यशाली च महाव्रती च । पशौ च गीर्वाणपतौ च यस्या-विभिन्नमुद्रस्य दृशः पतन्ति ॥ ९१॥ (उपजातिः) एतानि तानि मदनज्वलनेन्धनानि, दूरीकुरुष्व मयि वक्रविलोकितानि । उन्मीलतिस्म ललिताङ्गयधुना स एव, मन्मानसे शुचिविवेककलाविलासः॥ ९२॥ प्रत्यक्षो नरकः स एष वसुधापीठे परायत्तते-त्येवं पूत्कुरुते जनः प्रतिकलं सर्वोऽपि विद्वानिह । तन्नारीवशवर्तिनोऽपि विषयान्कण्डूतिकल्पानयं, रोमाञ्चाङ्करचर्चिताङ्गलतिकः किं नाम नैवोज्झति ? ॥१३॥ (शार्दूल०)| ता एवैताः कुवलयदृशः सैष कालो वसन्त-स्ता एवान्तःशुचिवनभुवस्ते वयं ते वयस्याः। ___किन्तूद्भूतः स खलु हृदये तत्त्वदीपप्रकाशो, येनेदानी हसति हृदयं यौवनोन्मादलीला ॥ ९४ ॥ (मन्दाक्रान्ता)। को देवो? वीततमाः, कः सुगुरुः? शुद्धमार्गसम्भाषी । किं परमं विज्ञानं ?, स्वकीयगुणदोषविज्ञानम् ॥ ९५॥ (आर्या)। यत्कारुण्यहिरण्यजं न न च यत्सन्मार्गताम्रोद्भवं, नो यत्संयमलोहजन्म न च यत्संतोषमृत्स्नामयम् । यद्योग्यं न तपोविधानदहनज्वालावलीतेजसां, सिद्धिं याति? कथं नृधान्यनिकरस्तस्मिन् कुपात्रे श्रितः ॥९६॥ (शार्दूल०) हे मोहाहतजीव! हुं शृणु वचः श्रद्धाऽस्ति चेत्कथ्यतां, प्राप्त किञ्चन सत्फलं भवमहाष्टव्यां त्वया भ्राम्यता। भ्रात व तथाविधं किमपि तन्निर्वाणदं तर्हि किं, शून्यं पश्यसि ? पङ्गवन्ननु गतं नोपक्रमे तिष्ठति ॥ ९७ ॥ (शार्दूल.) शौक्ल्ये हंसबकोटयोः सति समे यद्वद्गतावन्तरं, कार्ये कोकिलकाकयोः किल यथा भेदो भृशं भाषिते। SARSWERRIERGANGANAGAR नन च यत्सन्माना सिद्धिं याति? कय फलं भवमहाऽटत्या ॥४९॥ RESISEX ९७ ॥ (शार्दूल° Jain Education international For Private & Personal use only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैत्ये हेमहरिद्रयोरपि यथा मूल्ये विभिन्नार्घता, मानुष्ये सदृशे तथाऽऽर्यखलयोर्दूरं विभेदो गुणैः ॥९८॥ (शार्दूल.) त्वदृष्टिपातनिहताः खलु तेऽन्य एव, धैर्यव्रतं सुतनु ! ये परिमार्जयन्ति । अन्ये त्वमी शुचिविवेकपवित्रचित्ता-स्तत्किं विडम्बयसि ? मन्मथविभ्रमैः स्वम् ॥ ९९ ॥ (वसन्ततिलका) सम्पत्स्यते? मम कदाचन तद्दिनं किं, सद्ध्यानरूढमनसः सततं भवेयुः। आनन्दबिन्दुविशदानि सुधामयानि, यत्रेक्षितानि मयि मुक्तिमृगेक्षणायाः॥१०॥ (वसन्ततिलका) ललितं सत्यसंयुक्तं, सुव्यक्तं सततं मितम् । ये वदन्ति सदा तेषां, स्वयं सिद्धैव भारती॥१०१॥ (अनुष्टुववृत्तम् ) सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतैः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः। श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च तस्याङ्गजः, पद्मानन्दशतं व्यधत्त सुधियामानन्दसम्पत्तये ॥ १०२॥ (शार्दूल०) सम्पूर्णेन्दुमुखीमुखे न च न च श्वेतांशुबिम्बोदये, श्रीखण्डद्रवलेपने न च न च द्राक्षारसास्वादने । आनन्दः स सखे ! न च क्वचिदसौ किं भूरिभिर्भाषितैः?, पद्मानन्दशते श्रुते किल मया यः स्वादितःस्वेच्छया ॥१०॥ इति श्रीजिनवल्लभसूर्युपासकश्रेष्टिवरधनदेवाङ्गज-कविवर-श्रीपद्मानन्दप्रणीतं वैराग्यरसनिभृतं वैराग्यशतमित्यपराभिधानं पद्मानन्दशतं समाप्तम् । नाम्ना मोहनलालेति, विख्यातं जगतीतले । सुविहितक्रियासक्तं, जैनशासनमण्डनम् ॥१॥ गणिषु सन्धिरेषो हि, प्रशिष्यस्यापि शिष्यकः । भक्त्या स्मरति यं नित्यं, भद्रं ददातु सोऽन्वहम् ॥ २॥ RSSIRRO Jain Educa tornal For Private & Personal use only H iainelibrary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRAKARTERODERIO2022REMEROVIDERIYARIVARAMERITERAUDPROVI । इति श्रीपद्मानन्दकविप्रणीतं पद्मानन्दशतं समाप्तम्।। Jain Education international For Private Personal use only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ESTAMOS ASSASSICS श्रेष्ठि-देवचन्द लालभाई-जैन-पुस्तकोद्धारेस्तम्भनपार्श्वप्रतिमाप्रकटननवाङ्गवृत्तिकरणप्रवणश्रीमदभयदेवसूरिपट्टप्रभाकरसुविहितचक्रचूडामणिश्रीमज्जिनवल्लभसूरिवरप्रणीतं, श्रीमजिनपतिसूरिपट्टप्रकाशनदिनकरश्रीमजिनेश्वरसूरिविनेयवरश्रीधर्मतिलकमुनिविरचितविवरणसमलङ्कृतम् उल्लासिकमेति प्रसिद्धाख्यं लध्वजितशान्तिस्तवनम् । (सच्छायम् ) अजितशान्तिजिनौ भुवनत्रये, विजयशान्तिविधौ प्रथितौजसौ । समभिनम्य तयोः स्तवसङ्गतं, विवरणं विदधे किमपि स्फुटम् ॥ १॥-द्रुत०* । इह हि किलैकदा वर्णनातिक्रान्तानुपमभागधेयाः सुगृहीतनामधेयाः सकललोकसंश्लाध्यमहार्यविमलगुणमणिश्रेणयः * "दुतविलम्बितमाह नभौ भरौ ॥ ५० ॥" (नगणः-भगणः-भगणः-गणः । पादे यतिरिति वृत्तरत्राकरः । 1111 SII SI SISS Jan Education Intentional Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लध्वजि० सविवरणम् ॥१॥ संविग्नमुनिजनवातचूडामणयः स्वप्रज्ञाऽतिशय विशेषविनिर्जितामरसूरयः श्रीजिनवल्लभसूरयः श्रीअजितशान्त्योः स्तवनं मङ्गलाभिचतुर्विधश्रीश्रमणसंघश्रेयस्करं सप्तदशवृत्तप्रमाणं विशेषतः पाक्षिकादिपर्वणि पाठ्यं चिकीर्षवः प्रथममुत्प्रेक्षालङ्कारसारं साधेयादिशार्दूलच्छन्दसा वृत्तेन भगवत्स्तुतिप्रतिज्ञां चक्रिरे कथनपूर्वकं उल्लासिक्कमनक्खनिग्गयपहादंडच्छलेणंगिणं, वंदारूण दिसंत इव पयर्ड निवाणमग्गावलिं। भगवतोः ( उल्लासिक्रमनखनिर्गतप्रभादण्डच्छलेनाङ्गिनां, वन्दारूणां दिशन्ताविव प्रकटं निर्वाणमार्गावलिम् ।) स्तुतिप्रकुंदिंदुजलदंतकंतिमिसओ नीहंतनाणंऽकुरु-केरे दोवि दुइजसोलसजिणे थोसामि खेमंकरे॥१॥-शार्दूलof तिज्ञा (कुन्देन्दूज्वलदन्तकान्तिमिषतो निर्यज्ज्ञानाङ्कुरो-त्करौ द्वावपि द्वितीयपोडशजिनौ स्तोष्यामि क्षेमङ्करौ ॥ १॥) विव०-स्तोष्यामि-कीर्तयिष्यामि । अहमित्यध्याहारः । को कर्मतापन्नौ ?, द्वावपि । कौ द्वौ ?, द्वितीयषोडशजिनौ | अजितशान्तिनामानौ । कीदृशौ ?, क्षेमकरौ । क्षेमं-श्रेयः कुरुतः क्षेमङ्करौ, तौ । पुनः किंविशिष्टौ ?, दिशन्ताविव-प्रतिपादयन्ताविव । 'इव'शब्द उत्प्रेक्षायाम् । काम् ?, निर्वाणमार्गावलिं-मोक्षपथश्रेणिम् । केषाम् ?, अङ्गिना-प्राणिनाम् । किंविधानाम् ?, वन्दारूणां-नमस्कृतिकृताम् । कथम् ?, प्रकटं-[स्फुटं] स्पष्टम् । केन?, उल्लासिक्रमनखनिर्गतप्रभादण्डच्छलेन । * "कल्पना काचिदौचित्या-द्यत्रार्थस्य सतोऽन्यथा । द्योतितेवादिभिः शब्दै-रुत्प्रेक्षा सा स्मृता यथा ॥९०॥" इति वाग्भटालङ्कारे। ॥५१॥ +"सूर्याश्वर्मसजस्ततःसगुरवः शार्दूलविक्रीडितम् ॥९९॥" मगणः-सगणः-जगणः-सगणः-तगणः-तगण:-गुरुद्वादशभिः सप्तभिश्च यतिरिति वृत्तरत्नाकरः। 1 sss 115 151 115 SSI ss ss ॐ Jan Educatan ini For Private &Personal use Only Dि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाणां - अंहीणां नखा-नखराः, तेभ्यो निर्गता याः प्रभाः कान्तयः, तेषां दण्डाः सम्मिलितरुचिप्रपञ्चाः । उल्लासिन-ऊर्ध्व | | मुखं गच्छन्तो ये क्रमनखनिर्गतप्रभादण्डाः, तेषां छलं - व्याजः, तेन । यः किल यं मार्ग दर्शयति स तदभिमुखं दण्डादिकं व्यापार्य दर्शयति, ततो भगवतोरपि ऊर्ध्वोल्लसत्पदनखकिरणदण्डौ प्रणमतः प्रति मुक्तिमार्ग ऊर्ध्वं वर्तमानं दर्शयन्ताविवोत्प्रेक्ष्यते । तथा पुनः कीदृशौ ?, निर्यज्ज्ञानाङ्करोत्करौ, ज्ञानस्याङ्कुरा ज्ञानाङ्कुराः, तेषां उत्करः- समूहः, निर्यन्-निर्गच्छन् ज्ञानाङ्कुरोत्करौ यकाभ्यां तौ निर्यज्ज्ञानाङ्कुरोत्करौ । कस्मात् ?, कुन्देन्दुज्वलदन्तकान्तिमिषतः । कुन्दं माध्यं पुष्पं, इन्दुश्चन्द्रः, तयोरिवोज्ज्वलाः- शुभ्रा ये दन्ता-रदास्तेषां कान्तिः - प्रभा, तस्या मिषं - व्याजः, तस्मात् । एतेन भगवतोर्ज्ञानक्षेत्रत्वमुक्तं स्यात् ॥ १ ॥ भगवत्स्तुतिप्रतिज्ञां [प्रतिज्ञाय ] स्वस्य रामसिक्यविलसितं दर्शयितुं भगवत्स्तुताव सामर्थ्यमाह - चरमजलहिनीरं जो मिणिज्जंजलीहिं, खयसमयसमीरं जो जिणिज्जा गईए । ( चरमजलधिनीरं यो मिनुयादञ्जलिभिः, क्षयसमयसमीरं यो जयेद्गत्या । ) सयलनह्यलं वा लंघए जो परहिं, अजियमहव संतिं सो समत्थो धुणेउं ॥ २ ॥ - मालिनी ( सकलनभस्तलं वा लङ्घयेद्यः पदैः, अजितमथवा शान्ति स समर्थः स्तोतुम् ॥ २ ॥ ) १ “माघे भवं माध्यम्” इत्यमरवृत्तौ । २ "ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः ॥ ८४ ॥” यतिरिति वृत्तरत्नाकरे तृतीयेऽध्याये । नगणः-नगणः- मगणः- यगणः- यगणः ।। 111 sss Iss ISS अष्टभिस्तभिश्च Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लध्वजि. सविवरणम् ॥२॥ GAGEMOCRECESSAGROCERY विव०-'स समर्थः' स शक्तः । किं कर्तुम् ?, स्तोतुं-उत्कीर्तयितुम् । कम् ?, अजितं-द्वितीयतीर्थकरम् । अथवेति अनेकोपसमुच्चये । शान्ति च-पोडशं जिनम् । यः किम् ?, यो मिनुयात्-एतावदेतदिति प्रमाणं कुर्यात् । किम् ?, चरमजलधि समया सम्पूनीरं-स्वयम्भूरमणसमुद्रजलम् । कैः ?, अञ्जलिभिः-प्रसूतिभिः, इतरसरोवरादिजलमप्यञ्जलिभिर्मातुं न शक्यते, किं स्तुतेरकपुनः समुद्रस्य ?, तत्रापि स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य ?, परं तदपि यो मिनुयात् । तथा यो जयेत्-पराभवेत् । कम् ?,13रणीयत्वम् क्षयसमयसमीरं-प्रलयकालवातम् । कया ?, गत्या-पादचक्रमणेन । अन्योऽपि वातो गत्या जेतुं न शक्यते, व पुनः क्षयसमयसमीरः?, परं तमपि यः स्वगत्या पृष्टौ पातयित्वा पुरो याति । तथा [वा-अथवा] यो लङ्घयेत्-आ[अतिक्रमितुं| समर्थः स्यात् । किम् ?, सकलनभस्तलं-सर्वाकाशमण्डलम्, न पुनरेकदेशतः। [काभ्यां ?, पादाभ्यां] । समुद्रादिकमपि लवयितुं न शक्यते, आस्तां नभस्तलम् , तत्रापि सकलम् , परं तदपि यो लङ्घयेत् , स समर्थः। 'स्तोतुम्' इति पदं त्रिष्वपि यच्छन्देषु प्रत्येकं योजनीयम् । अयमभिप्रायः-चरमजलधिनीरमानं क्षयसमयसमीरजयनं सकलनभस्तललनं च पटुरपि न कोऽपि कर्तुं समर्थः, एवं निरुपममहिमासमुद्रयोर्भगवतोगुणोत्कीर्तनमपीत्यर्थः॥२॥ यदि नाम एवं उक्तयुक्त्या भगवद्गुणोत्कीर्तने कस्यापि प्रागल्भ्यं नावलोक्यते, तर्हि किमिति तव तावत्तत्रोद्यमः ? कथं च तत्प्रमाणपदवीमारोक्ष्यतीत्याशङ्कयाह ॥५२॥ तहवि हु बहुमाणुल्लासिभत्तिभरेणं, गुणकणमवि कित्तेहामि चिंतामणिव । ( तथापि खलु बहुमानोल्लासिभक्तिभरेण, गुणकणमपि कीर्तयिष्यामि चिन्तामणिमिव ।) RECECRECIRRESSESAMA Jain Educatan international For Private & Personal use only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCREERSARAN-20 अलमहव अचिंताणंतसामत्थओ सिं, फलिहइ लह सवं वंछियं णिच्छियं मे ॥३॥-मालिनी ( अलमथवा अचिन्त्यानन्तसामर्थ्यानयोः, फलिष्यति लघु सर्व वाञ्छितं निश्चितं मे ॥ ३ ॥) विव०-यद्यप्येवमस्ति तथापि (हुरिति निश्चयेन) कीर्तयिष्यामि-स्तोष्ये । कम् ?, गुणकणमपि-गुणलेशमपि । अर्थादजितशान्त्योरिति गम्यते । यद्यपि भगवद्गुण एकोऽपि सामस्त्येन वर्णयितुं न शक्यते, तथापि गुणस्य लेशमष्यह उत्कीर्तयिष्यामि । केन ?, बहुमानोल्लासिभक्तिभरेण । बहुमानेन-आन्तरप्रीतिविशेषेणोल्लासिनी-प्रवर्धमाना चासौ भक्तिःशिरोनमनाञ्जलिबन्धादिरूपा च, तस्या भरः-प्राग्भारस्तेन । ननु गुणलेशस्तवनेन किं सेत्स्यति ? इत्यत्राह-चिन्तामणि मिवचिन्तामणिसदृशं, यथा खल्पोऽपि चिन्तामणिः स्तुतः सर्व समीहितं पूरयति, तथा भगवद्गुणलेशोऽपीत्यर्थः । अथवा अलं-सृतं । एतन्मम प्रारब्धं सेत्स्यति न वेति विचारेणेति गम्यते । कुतः ? इत्याह-फलिष्यति-सम्पत्स्यते । किम् ?, वाञ्छितं-समीहितम् । कस्य ?, मे-मम । कीदृशम् ?, सर्व-समस्तम् । आस्तां स्तवकरणमात्रं, अन्यदपि सेत्स्यतीत्यर्थः । कथम् ?, लघु-शीघ्रम् । पुनः कथम् ?, निश्चितं-निस्संशयम् । कस्मात् ?, अचिन्त्यानन्तसामर्थ्यतः। अचिन्त्यंचिन्तयितुमशक्यं, अनन्तं-अपर्यवसानं, तच्च तत्सामर्थ्य च-प्रभावश्च, तस्मात् । कयोः?, 'सिं' इत्यनयोरजितशान्त्योः । "वेदं तदेतदोः उस्तमूभ्यां से-सिमौ” (८-३-८१ है०) इत्यनेन इदमः आमा सह सिमादेश इति ॥३॥ ___ भगवन्माहात्म्यात् समस्तं वाञ्छित सेत्स्यत्येवेति समर्थयितुं भगवन्नाममात्रस्यापि प्रभावातिशयं दर्शयन् भगवन्तौ प्रति प्रणाममाह Jan Education a l For Private & Personal use only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभोः प्रभावाति. शयम् लध्वजि० सयलजयहियाणं नाममित्तण जाणं, विहडइ लहु दुट्टाणिढदोघघ(थ)हम् । सविवरणम् (सकलजगद्धितयोर्नाममात्रेण ययोः, विघटते लघु दुष्टानिष्टदोघट्टघ(थ)ः।) ॥३॥ नमिरसुरकिरीडुग्घिट्टपायारविंदे, सययमजियसंती ते जिणिंदेऽभिवंदे ॥४॥ - मालिनी (नम्रसुरकिरीटोद्धृष्टपादारविन्दौ, सततमजितशान्ती तौ जिनेन्द्रावभिवन्दे ॥४॥) विव०-[ सततं-निरन्तरं ] अभिवन्दे-सर्वादरेण स्तुवे । कौ ?, तौ-जिनेन्द्रौ । किनामानौ ?, अजितशान्ती! दकिंविधौ ?, नम्रसुरकिरीटोद्धृष्टपादारविन्दौ । नम्रा-नमनशीला ये सुरा वैमानिकादयस्तेषां किरीटानि-मुकुटानि, तैरुद्धष्टे उत्तेजिते पादारविन्दे-चरणकमले ययोस्तौ । तावभिवन्दे, ययोः सकलजगद्धितयो ममात्रेण, गृहीतेनेति शेषः। किं ?, 8| विघटते-विद्रवति । कः ?, दुष्टानिष्टदोघट्टघ(थ)द्दः । दुष्टानि-दुःखजनकानि च तानि अनिष्टानि च प्रियविप्रयोगादीनि, द तान्येव दोघट्टा-हस्तिनस्तेषां घ(थ)ः-समूहः। अत्र प्राकृतत्वात् नपुंसकत्वम् । कथम् ?, लघु-शीघ्रं । सर्वत्र प्राकृतत्वात् द्विवचनेऽपि बहुवचनम् । एवमग्रेतनेष्वपि वृत्तेषु ज्ञेयम् ॥ ४॥ सम्प्रत्यनयोरेव भगवतोः पदभक्तिप्रभावं दर्शयति पसरइ वरकित्ती वड्डए देहदित्ती, विलसइ भुवि मित्ती जायए सुप्पवित्ती। (प्रसरति वरकीर्तिः वर्धते देहदीप्तिः, विलसति भुवि मैत्री जायते सुप्रवृत्तिः ।) HASISWASSESSORAS Jain Education international For Private & Personal use only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुरइ परमतित्ती होइ संसारछित्ती, जिणजुयपयभत्ती ही अचिंतोरुसत्ती ॥५॥- मालिनी (स्फुरति परमतृप्तिः भवति संसारछित्तिः, जिनयुगपदभक्तिी अचिन्त्योरुशक्तिः ॥ ५॥) विव०-वर्तते । काऽसौ ?, जिनयुगपदभक्तिः । जिनयोः-अजितशान्त्योः , युग-युग्मं, तस्य पदाः-चरणास्तेषु भक्तिः-आन्तरा प्रीतिः प्रवर्तितशिरोनमनादिरूपा । कीदृशी ?, अचिन्त्योरुशक्तिः । अचिन्त्या-चिन्तयितुमशक्या उव:-| गरिष्ठा शक्तिः-सामथ्यं प्रभावो यस्याः सा तथोक्ता । 'ही' इति शब्द आश्चर्ये । तथा च माघ:-"ही विचित्रो विपाका" द इति । कथं विज्ञायते ? इत्यत्राह-प्रसरति-विस्तारं गच्छति वरकीर्तिः-प्रधानं यशः, जिनपदयुगभक्तित इति गम्यम् । एवमग्रेऽपि । तथा वर्धते देहदीप्तिः-उज्जृम्भते शरीरकान्तिः। तथा विलसति भुवि मैत्री-विस्फूर्जति क्षितौ प्रीतिः। तथा जायते-सम्पद्यते शोभना सफलत्वेन प्रवृत्तिः-व्यापारः सुप्रवृत्तिः । तथा स्फुरति परमतृप्तिः-उल्लसति परमसन्तोषः। दाभवति संसारछित्तिः-सम्पद्यते भवविच्छेद इति ॥ ५॥ अथ देवाङ्गनानां भगवद्विषये नृत्यपूजाप्रतिपादनद्वारेण स्तुतिमाह ललियपयपयारं भूरिदिवंगहारं, फुडघणरसभावोदारसिंगारसारं। ( ललितपदप्रचारं भूरिदिव्याङ्गहार, स्फुटघनरसभावोदारशृङ्गारसारम् ।) अणिमिसरमणी जइंसणच्छेयभीया, इव पणमणमंदा कासि नहोवहारं ॥६॥-मालिनी ( अनिमिषरमण्यो यद्दर्शनच्छेदभीताः, इव प्रणमनमन्दा अकार्षन्त्योपहारम् ॥ ६॥) CSCAMERMOREOGRAM Jain Education international For Private & Personal use only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लध्वजि० सविवरणम् ॥ ४ ॥ Jain Education la विव० - अत्राप्रेतनवृत्तस्थं 'थुणह अजियसंती ते' इति तच्छन्दप्रधानं वाक्यं सम्बध्यते । ततश्च तावजितशान्ती स्तुत-वर्णयत । 'जहंसणच्छेयभीया इव पणमणमंदा कासि नोवहार' मिति सम्बन्धः । अकार्षुः - विदधुः । काः ?, अनिमिषरमण्यः । प्राकृतत्वादत्र विभक्तिलोपः । अनिमिषाः - देवाः, तेषां रमण्यः - स्त्रियः । कम् ?, नृत्योपहारम् । नृत्येन - नर्तनेन उपहारः -पूजा, तम् । कीदृश्यः १, प्रणमनमन्दाः । प्रणमने - न्यङ्मस्तककरणे मन्दाः - अलसाः । किल नर्तक्यः प्रायः सम्मुखमवलोकयन्त्य एव नृत्यं कुर्वन्तीति स्वभावः । ततः कविनोत्प्रेक्ष्यते न स्वभावतो, यद्दर्शनच्छेदभीता इव । | ययोरजितशान्त्योदर्शनं - अवलोकनं भवशतेष्वपि दुष्प्रापं तस्य छेदः - अन्तरायस्ततो भीता इव - चकिता इव, भूयोऽपि दुर्लभं भगवद्दर्शनं इति तदन्तरायं प्रणामकालभाविनमप्य सहन्त्य इत्यर्थः । कीदृशं नृत्योपहारम् ?, ललितपदप्रचारं । ललिताः - रमणीयाः पदप्रचाराः - स्वचरणन्यासा यत्र, तम् । पुनः किंविधम् ?, भूरिदिव्याङ्गहारं । भूरयः, -प्रभूता दिव्याः- परमोत्कर्षशालिनो अङ्गहाराः - अङ्गविक्षेपा यत्र, तम् । भूयोऽपि कीदृक् ?, स्फुटघनरसभावोदारशृङ्गारसारम् । स्फुट: -व्यक्तः, घनः - सान्द्रो योऽसौ रसः शृङ्गारो भावो - रतिस्ताभ्यां उदारो योऽसौ शृङ्गारो-विभूषाप्रकारस्तेन सारंप्रधानम् । भावशृङ्गाररसाभ्यां बन्धुरमित्यर्थः ॥ ६ ॥ सम्प्रति भगवतोर्वर्णवर्णनापूर्वकं स्तुतिमाह थुणह अजियसंती ते कयासेससंती, कणयरयपिसंगा छज्जए जाण मुत्ती । (स्तुत अजितशान्ती तौ कृताशेपशान्ती, कनकरजःपिशङ्गा राजते ययोर्मूर्तिः । ) देवाङ्गनानृत्योपहार वर्णनम् ॥ ५४ ॥ inelibrary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CONGRESEARCIALISA सरभसपरिरंभारंभिनिवाणलच्छी-घणथणघुसिणंकुप्पंकपिंगीकयच॥७॥-मालिनी ( सरभसपरिरम्भारम्भिनिर्वाणलक्ष्मी-घनस्तनघुसृणाङ्कोत्पङ्कपिङ्गीकृता इव ॥ ७ ॥) व्याख्या-स्तुत-नुत भो भव्याः!, को कर्मतापन्नौ ?, तौ अजितशान्ती । कीदृशौ ?, कृताशेषशान्ती । कृता-विहिता अशेषा-सम्पूर्णा जगत्रये शान्तिः-शिवं यकाभ्यां तौ । ययोः किं ?, 'छज्जए' इति राजते “राजेरग्घ-छज्ज-सह-रीर-रेहा" [८-४-१०० है ] इति 'राजि' धातोश्छज्जादेशः। काऽसौ ?, मूर्तिः-तनुः । कीदृशी ?, कनकरजःपिशङ्गा । कनकस्य | रजः-चूर्ण, तद्वत् पिशङ्गा-पीता, भगवतोः सुवर्णवर्णा मूर्तिरेषः स्वभावः, परं कविनोत्प्रेक्ष्यते-न स्वभावतः, किं तर्हि ?, सरभसपरिरम्भारम्भिनिर्वाणलक्ष्मीधनस्तनघुसृणाकोत्पङ्कपिङ्गीकृतेव । सरभसं-सौत्सुक्यं यथा भवति, एवं परिरम्भआलिङ्गनं, तं आरभते-करोतीत्येवंशीला सरभसपरिरम्भारम्भिणी, सा चासौ निर्वाणलक्ष्मीश्च-मुक्तिनायिका च, तस्या धनौ-पीनौ च तो स्तनौ च, तयोर्योऽसौ घुसृणाङ्क:-कुङ्कमविभूषा, तस्योत्कृष्टः पङ्को-द्रवः, तेन पिङ्गीकृतेव-पिञ्जरितेव । किल नायिकाः सकामाः शृङ्गारिण्यो नवयौवने निजस्तनकलशयोः कुङ्कमेन मण्डनं कुर्वन्ति । ततो यदा गाढानुरागेण प्रियतमस्यालिङ्गनं कुर्वते तदा तत् स्तनमण्डनेन तस्याङ्गं पिञ्जरितं भवति, भगवतोरपि मुक्तेर्वधूत्वेन निरूपिताया आलिङ्गनं |सम्भाव्यैवमुत्प्रेक्ष्यतेति भावः ॥७॥ सम्प्रति प्रमाणसुप्रतिष्ठस्याद्वादोपदेशकत्वद्वारेण भगवतोः स्तुतिमाह RECENCODESCRICROCOCCRECORE चैरा० Jan Educaton de Lonal For Private Personal Use Only ainelibrary.org Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S R लध्वजि० सविवरणम् HESESERRORSCORIES यहविहनयभंगं वत्थु णिचं अणिचं, सदसदणभिलप्पालप्पमेगं अणेगं । स्याद्वादोप(बहुविधनयभङ्गं वस्तु नित्यमनित्यं, सदसदनभिलाप्याभिलाप्यमेकमनेकम् ।) देशकत्वं इय कुनयविरुद्धं सुप्पसिद्धं च जेसिं, वयणमवयणिज ते जिणे संभरामि ॥ ८॥ -मालिनी प्रभोस्तत्र (एवं कुनयविरुद्धं सुप्रसिद्धं च ययो-र्वचनमवचनीयं तौ जिनौ संस्मरामि ॥ ८॥) नयवक्तव्याख्या-तौ-अजितशान्ती संस्मरामि-ध्यायामि। कीदृशौ ?, जिनौ-रागादिदोषजयिनी, आप्ताविति यावत् । आप्तिर्हि व्यता दोषक्षयमुच्यते, सा विद्यते ययोस्तावाप्तौ । आप्तत्वं च प्रमाणोपपन्नार्थवादित्वेनानुमीयते इति भगवतोर्वचनविशुद्धिमाह'जेसिं' ययोर्वचनं स्याद्वादसन्नद्धमर्थतो द्वादशाङ्गरूपं "अत्थं भासइ अरिहा, सुत्तं गुंथंति गणहरा निउणं” इति वचनादस्तीति गम्यते । कीदृशम् ?, 'इय'-एवंप्रकारवस्तुप्रतिपादकम् । तमेव वस्तुप्रकारमाह-वस्तु वर्तते । किं-रूपम् ?, अनन्तधर्मात्मकं वस्तु स्वमतधर्मविशिष्टं नयन्ति-गोचरयन्ति संवेदनमारोपयन्तीति नयाः, वस्त्वेकदेशपरामर्शा इत्यर्थः । तथा चोक्तम्-"एकदेशविशिष्टोऽर्थो, नयस्य विषयो मतः” इति [न्यायावतारः श्लो० १९] । ते अनन्तधर्माध्यासितस्वाद्वस्तुतस्तेषां अनन्तता, तथापि सर्वत्र प्रसिद्धत्वात् सप्त भेदा वर्ण्यन्ते । अन्येषां तेष्वेवान्तर्भावात् । ते चामी नैगमसङ्ग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढ-वम्भूताख्याः सप्त नयाः। तेषां च मध्ये नैगमाद्याश्चत्त्वारोऽप्यर्थनयाः, अर्थमेव ॥५५॥ प्राधान्येन शब्दोपसर्जनमिच्छन्ति । शब्दाद्यास्तु त्रयः शब्दनयाः, शब्दप्राधान्येनार्थमिच्छन्ति । * अर्थ भाषन्तेऽहंन्तः, सूत्रं अनन्ति गणधरा निपुणम् । ECTROCARRIORSCORRC-RGES Jain Education international For Private & Personal use only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMMELAMMALAMIL (१) तत्र नैगमस्येदं स्वरूपम् , तद्यथा-निगम्यन्ते-विविक्तं परिच्छिद्यन्ते निगमा-घटादयोऽर्थास्तेषु भवो नैगमः। अथवा सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो न एकेन प्रकारेण गमः-परिच्छेदो नैकगमः । अयं हि सत्तालक्षणं महासामान्यमवान्तरसामान्यानि च द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वजीवत्वादीनि तथाऽन्त्यविशेषानसाधारणरूपलक्षणान् अवान्तरविशेषांश्च परमावाश्रितघटादीन् शुक्लादीन् वाऽभिप्रेति । अयं च नैगमः सामान्य विशेषात्मकवस्तुसमाश्रयणेऽपि न सम्यग्दृष्टिः, भेदेनैव सामान्यविशेषयोराश्रयणात् , तन्मताश्रितनैयायिकवैशेषिकवत् ॥१॥ (२) अधुना सङ्ग्रहाकृतं दर्यते-तत्र सङ्ग्रहाति समस्तविशेषप्रतिक्षेपद्वारेण सामान्यरूपतया सकलं वस्त्विति सङ्ग्रहः । तथाहि-अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावमेव सत्तारूपं वस्तु, सत्ताव्यतिरिक्तस्य त्ववस्तुत्वं, खरविषाणस्येवेति । स च सङ्ग्रहः सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनः सामान्यांशस्यैवाश्रयणान्मिथ्यादृष्टिः, तन्मताश्रितसाङ्ख्यवत् ॥ २॥ । (३) व्यवहारनयस्य तु स्वरूपमिदं व्यवहियते लौकिकैरनेनाभिप्रायेणेति व्यवहारः। अयं तु मन्यते, यथा-लोकग्राहमेव वस्तु, न तु यथा शुष्कतार्किकैः स्वाभिप्रायलक्षणानुगतमुच्यते तथाभूतं, आगोपालाङ्गनादिप्रसिद्धत्वाद्वस्तुस्वरूपस्येति ।। अयमप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मकवस्त्वनभ्युपगमान्मिथ्यादृष्टिः, तथाविधरथ्यापुरुषवत् ॥ ३॥ I (४) साम्प्रतं ऋजुसूत्राभिप्रायः कथ्यते-तत्र ऋजु-प्रगुणं अतीतानागतवस्तुपरित्यागेन वर्तमानक्षणवर्तिवस्तुनो रूपं सूत्रयति-निष्टङ्कितं गमयतीति ऋजुसूत्रः । अस्याभिप्रायः-अतीतस्य विनष्टत्वात् अनागतस्यालब्धलाभत्वात् खरवि-14 पाणादिभ्योऽविशिष्यमाणतया नार्थक्रियानिर्वर्तनक्षमत्वम् । अर्थक्रियाक्षम वस्तु, तदभावान्न तयोर्वस्तुत्वमिति ऋजुसूत्रः। SRCESSENCIRECORRECTOOLGIRLX Jan Educatan International For Private &Personal use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयवक्तव्यतायां शब्दद्वार नयत्रिक स्वरूपम् लध्वजिअयमपि सामान्यविशेषोभयात्मकस्य वस्तुनः सामान्यांशपरित्यागेन विशेषांशस्यैव समाश्रयणात् शौद्धोदनिवन्न सम्यग्सविवरणम् दृष्टिः, कारणभूतद्रव्यानभ्युपगमेन तदाश्रितस्य विशेषस्यैवाभावात् ॥ ४॥ तदिदमर्थस्वरूपनिरूपणप्रवणानां नयानां मतमुपवर्णितम् । अधुना शब्दद्वारकाणां मतमुपवर्ण्यते(५) इदं साधारणमात्रं त्रयाणामभिप्रायाकूतं, यदुत-शब्द एवार्थः, न ततो भिन्नोऽर्थः । तथाचानुमानम्-यस्मिन्क प्रतीयमाने यन्नियमेन प्रतीयते तत्ततो न भिद्यते, यथा शब्दस्वरूपं शब्दात् , प्रतीयते च शब्दे प्रतीयमाने नियमेनार्थः, तस्मान्न ततो भिन्नः। सम्प्रत्येकै कमतं कथ्यते-तत्र शब्द्यते-आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थ इति शब्दः । अयमभि(मन्यते) गम्यते-रूढितो यावन्तो ध्वनयः कस्मिंश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते, यथेन्द्रशक्रपुरन्दरादयः, अमी(ते)षां एकोऽर्थो वाच्यः इति । अयं चार्धशब्दपर्यायोभयरूपस्य वस्तुनः शब्दपर्यायस्यैव समाश्रयणान्मिथ्यादृष्टिः ॥५॥ | (६) साम्प्रतं समभिरूढ उच्यते-पर्यायाणां नानार्थतया समभिरोहणात् समभिरूढः । नवयं घटादिपर्यायाणामेकार्थतामिच्छति । तथाहि-घटनाद् घटः । कुटनात् कुटः। को भातीति कुम्भः। न हि घटनमेव कुटनमिति, शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य न परस्यानुगतिरिति । तदयमपि मिथ्यादृष्टिः, पर्यायाभिहितधर्मवद्वस्तुनोऽनाश्रयणात् , गृहीतप्रत्येकावयवान्धहस्तिज्ञानवत् ॥ ६॥ | (७) एवम्भूताभिप्रायस्त्वेवं-यदैव शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं चेष्टादिकं तस्मिन् घटादौ वस्तुनि भवेत् , तदैवासौ युवतिमस्तकारूढ उदकाद्याहरणक्रियाप्रवृत्ती घटो भवति, न निर्व्यापारः, शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तशून्यत्वात् , पटादिवत् । इत्येवम्प्रकारस्य CAMERMERMEROCESSACROS ॥५६॥ - Jan Education Instmal For Private & Personal use only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतस्य - अर्थस्य समाश्रयणादेवम्भूतनयो भवति, तदयमप्यनन्तधर्माध्यासितस्य वस्तुनोऽनाश्रयणान्मिथ्यादृष्टिः, रत्नावल्यवयवे पद्मरागादौ कृतरत्नावलीव्यपदेशपुरुषवत् ॥ ७ ॥ तदेवं सर्वेऽपि नयाः प्रत्येकं साधारणाः सन्तो मिथ्यादृष्टयोऽन्योन्यं सव्यपेक्षास्तु सम्यक्त्वं भजन्ते, तदुक्तम् (2) ॥ ततश्च बहुविधा- नानाप्रकारा नयभङ्गा - अभिप्रायविशेषविकल्पा यत्र तद् बहुविधनय भङ्ग, सर्वनयविषयधर्मात्मकमित्यर्थः । तथा नित्यं द्रव्यात्मकतया, अनित्यं पर्यायात्मकतया । तथा सत्-स्वकीय द्रव्य क्षेत्र कालस्वभावापेक्षया भावात्मकं, असत्परद्रव्यक्षेत्र कालस्वभावापेक्षया त्वभावात्मकम् । तथा अनभिलाप्यं वचनागोचर धर्मात्मकत्वेनावक्तव्यम्, अभिलाप्यंवचनगोचर धर्मस्वभावत्वेन वक्तव्यम् । तथा एकं सामान्यात्मकं, अनेकं - विशेषात्मकं । एवं परस्परविरुद्ध धर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकमित्यर्थः । एवंविधं च सत् कीदृशं जिनवचनम् ?, कुनयाः -सदात्मकमेव वस्तु इति साङ्ख्याः, असदात्मकमेवेति माध्यमिकाः, नित्यमेवैकमेवेति साङ्ख्याः, अनित्यमेवानेकमेवेति च बौद्धाः, अभिलाप्यमेवेति वैयाकरणाः, अनभिलाप्यमेवेति च बौद्धाः, 'प्रतिक्षणं नश्वरमितरव्यावृत्तं च वस्तु तच्च न शब्दगोचरः, शब्दस्य स्थिर सामान्यरूपार्थ - विषयत्वात्' इति हि बौद्धराद्धान्तः, अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि एकमेव धर्म, सदात्मकमेव वस्त्वित्यादि सावधारणमभिमन्यमाना मिथ्यादृष्टित्वेन कुत्सिता मतविशेषास्तेषां विरुद्धं -असमञ्जसतया प्रतिभासमानं । ननु नित्यमनित्यपरिहारेण व्यवस्थितं; अनित्यमपि नित्यपरिहारेण, भावाभावयोः परस्पराभावात्मकत्वात् एवं च सदादिष्वपि वाच्यम्, तत एकत्र विरुद्धधर्मात्मकत्वप्रतिपादकं भगवद्वचनं कथं मिथ्यादृशामेव विरुद्धतया प्रतिभासत इत्युच्यते ?, इत्याशङ्कयाह Jain Education international Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभोः स्याद्वादोपदेशकत्वसिद्धिः लध्वजित'सुप्पसिद्धं च'-प्रमाणोपपन्नम् । तथाहि-अयमात्मा आत्मत्वापरिच्युतेनित्यः, देवत्वादिपर्यायविनाशाच्चानित्यः । यदि सविवरणम् चायं सर्वथाऽपि नित्य एव स्यात् ? तर्हि न देवत्वादिपर्यायविनाशः स्यात् । अथ सर्वथाऽप्यनित्य एव स्यात् ? तर्हि देवत्वा दिपर्यायस्येवात्मत्वस्यापि विनाशाद्देवत्वपर्यायत्यागेन मनुष्यपर्याये सति आत्मव्यपदेशो न स्यात् । तथाऽयमात्मा स्वद्रव्यक्षेत्रकालस्वभावात्मकत्वेन सन् परद्रव्यक्षेत्रकालस्वभावात्मकत्वेनासन् । यदि चाऽयं सर्वथा सन् स्यात् ? [तदा] घटाद्यात्मकत्वस्यापि प्राप्त्या जडोऽपि स्यात् , यदि च सर्वथाऽप्यसन स्यात् तदा स्वद्रव्याद्यात्मकत्वेनापि न भावरूपः प्रतिभासेत । तथाऽयमात्माऽऽत्मत्वादिधर्मात्मकतयाऽभिलाप्यः, घटत्वादिधर्मात्मकतया त्वनभिलाप्यः । यदि च सर्वथाऽप्यभिलाप्यः स्यात् ? तदा घटाद्यात्मकोऽप्युच्येत । किञ्च-केचिद्धर्माः सन्तोप्यनभिधेयाः। तथाहि "इक्षुक्षीरगुडादीनां, माधुर्यस्यान्तरं महत् । तथाऽपि न तदाख्यातुं, सरस्वत्याऽपि पार्यते ॥१॥" एवञ्चानुभवसिद्धा वक्तुमशक्या अपि सन्त्यनन्ता धर्मा इति सिद्धम् । तथाच"पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुयनिबद्धो ॥१४१॥" विशेषावश्यकभाष्यम् । इति सिद्धान्तवचोऽतीवोपपन्नं-सम्पन्नम् । तथा यदि सर्वथाऽप्यनभिलाप्योऽयमात्मा स्यात् ? तदा आत्मशब्दादहंप्रत्ययगोचरस्य चिद्रूपस्य पदार्थविशेषस्य प्रतीतिर्न स्यात् । किञ्च-"शब्दो नार्थप्रतिपादक" इति ये प्रलपन्ति ते "अहं मौनी"ति १ प्रज्ञापनीया भावा, अनन्त भागस्तु (एव) अनभिलाप्यानाम् । प्रज्ञापनीयानां पुनरनन्तभागः श्रुतनिबद्धः॥१॥ ॥ ५७॥ NG Jan Educatan international For Private &Personal use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपादकवत् स्वव्याघातकप्रतिज्ञाप्रतिपादनपरा न सहृदां वार्तनीयाः। तथाऽयमात्मा सामान्यरूपेण द्रव्यत्वादिना एकः, नद्रव्यक्षेत्रकालस्वभावादिना सर्वेतरव्यावृत्तेन रूपेणानेकः । यदि चैकरूप एव सर्वथा स्यात् ? तदैकः सुखी अन्यो दुःखी एकः स्वपिति अन्यो जागर्ति इत्यादिभेदो न प्रतिभासेत । अथ नानारूप एव सर्वथा स्यात् । तदाऽयमा(त्माऽयमा त्मेत्येकरूपोऽवभासो न स्यात् । तदनयैव गत्या सर्वेऽपि पदार्था व्याख्येयाः। तदुक्तम्__“आदीपमाव्योमसमस्वभावं, स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदिवस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्य-दिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापा॥५॥" [अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका] एवं च प्रतिभासमुद्गरप्रतिहतं स्याद्वादे विरोधोद्भावनं नोत्थातुमपि शक्नोतीत्यर्थः। अतएव 'अवयणिज' अवचनीयं, [विरोधाभावादशक्यदोषोद्भावनमित्यर्थः॥८॥ इदानीं भगवतोनिप्रभावाविर्भावद्वारेण स्तुतिमाह पसरइ तियलोए ताव मोहंऽधयारं, भमइ जयमसन्नं ताव मिच्छत्तछन्नं । (प्रसरति त्रैलोक्ये तावन्मोहान्धकार, भ्रमति जगदसंज्ञं तावन्मिथ्यात्वच्छन्नम् ।) फुरइ फुडफलंताणतणाणंसुपूरो, पयडमजियसंतीझाणसुरो न जाव ॥९॥-मालिनी (स्फुरति स्फुटफलदनन्तज्ञानाशुपूरः, प्रकटमजितशान्तिध्यानसूरो न यावत् ॥ ९॥) Jain Educaton n al For Private & Personal use only Dainelibrarya Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघ्वजि० सविवरणम् भगवतो ानमाहात्म्यम् POSSESSORAS व्याख्या-प्रसरति-व्याप्तिं करोति । किं तत् ?, मोहान्धकारं, मोहा-पुत्रमित्रकलत्रादिषु स्नेहरूपमोहनीयकमें निवास एवान्धकारं मोहान्धकारम् । व?, त्रैलोक्ये-जगत्रये, कथं?, तावत् । तथा भ्रमति-विपरीतं प्रवर्तते । किं तत्?, जगत्-1 भुवनम् । कीदृक् ?, असंज्ञं-धर्माधर्मादिविशिष्टविज्ञानविकलम् । कीदृशं सत् ?, मिथ्यात्वच्छन्नं, मिथ्यात्वेन-सम्यक्त्वा-1 भावेन छन्नम्-आच्छादितम् । कथं ? तावत् । यावत् किं ?, यावन्न स्फुरति-यावन्नोदेति।कोऽसौ ?, अजितशान्तिध्यानसूरः, अजितशान्त्योर्ध्यान-शुक्लध्यानरूपं, तदेव सूरः-आदित्यः । कथं ?, प्रकटं-कर्मरजःपटलानावृतम् । कीदृशः१, स्फुटफलदनन्तानन्तज्ञानांशुपूरः, अनन्तं च तत् ज्ञानं-केवलाद्वं च, तदेवांशुपूरः-किरणसमूहः। स्फुटं-(प्रगट) व्यक्तं, फलन्नुल्लसन् | अनन्तज्ञानमेवांशुपूरो यस्य स तथोक्तः । यथा-यावदेवादित्यो नोदेति तावदेवान्धकारं जगति प्रसरति; तावदेव च निद्रा-टू विलुप्तचैतन्यं जगद् भवति । तस्मिंस्तूदिते नान्धकारं नापि निद्रयाऽचैतन्यम् , एवं तावदेव जगति मोहः प्रसरति; तावदेव च जगत् मिथ्यात्वेन निद्रारूपेण चैतन्यविकलं भवति; यावद् भगवतोः शुक्लध्यानं अनन्तज्ञानोत्पादकं नोदयमासादयति, यदा तु भगवतोः शुक्लध्यानात् त्रैलोक्यप्रकाशकं केवलज्ञानमुत्पद्यते तदा भगवतोर्देशनया मोहो मिथ्यात्वं च समूल- मुन्मूल्यते इति भावः ॥९॥ सम्प्रति भगवतोवर्णनामाहात्म्यमाह अरिकरिहरितिण्हुण्हंबुचोराहिवाही-समरडमरमारीरुद्दखुद्दोवसग्गा । (अरिकरिहरिकृष्णोष्णाम्बुचौराधिव्याधि-समरडमरमारिरौद्रक्षुद्रोपसर्गाः ।) RECERCOREOGRAM ॥५८॥ Jan Education a l For Private & Personal use only Isnelibrary.org Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education पलयमजियसंती कित्तणे झत्ति जंती, निबिडतरतमोहा भक्खरालुंखियच ॥ १० ॥ - मालिनी ( प्रलयं अजितशान्तिकीर्तने झगिति यान्ति, निविडतरतमओघाः भास्करालुङ्क्षिता इव ॥ १० ॥ ) व्याख्या - श्री अजितशान्तिवर्णने सति झगिति - शीघ्रं यान्ति - गच्छन्ति । कम् ?, प्रलयं-क्षयम् । के ?, अरिकरिहरितृष्णोष्णाम्बुचौराधिव्याधिसमरडमर मारिरौद्रक्षुद्रोपसर्गाः । अरयः - शत्रवः, करिणो - हस्तिनः, हरयः - सिंहाः, तृष्णा-पिपासा, उष्णः - आतपः, अम्बु-जलं, चौराः - तस्कराः, आधयो - मनोजनितपीडाविशेषाः, व्याधयो-ज्वरभगन्दरादयः, समरः - सङ्ग्रामः, डमरो - राजकृतोपद्रवः, मारिः- कुपितभूतपिशाचादिकृतप्राणिक्षयः, रौद्रक्षुद्रोपसर्गाः - भयानकक्रूराशयव्यन्तरादिविहितोपद्रवाः । एतेषामितरेतरद्वन्द्वसमासः । अत्रोपमानमाह- क इव प्रलयं यान्ति ?, निबिडतरमओघा इव-अतिगाढान्धकारप्रकरा इव । अत्रोपमानवचन इव शब्दो विशेषणपदाग्रे न्यस्तोऽप्यत्र विशेष्यपदपुरो योज्यते । कीदृशाः १, 'भक्खरालुंखियवे 'ति । भास्करेण - आदित्येन आलुङ्खिताः - स्पृष्टाः । "स्पृशः - फास- फंस-फरिस - छिव-छिलाहाऽऽलुखाऽऽलिहाः” [ ८-४-१८२ है० ] इत्यनेन स्पृशेरालुङ्घादेश इति ॥ १० ॥ अथ भगवतो रुपस्थध्यानद्वारेण स्तुतिमाह निचियदुरियदारुद्दित्तझाणग्गिजाला - परिगयमिव गोरं चिंतियं जाण रूवं । (निचितदुरित दारूद्दीत ध्यानाभिज्वाला - परिगतमिव गौरं चिन्तितं ययोः रूपम् । ) ainelibrary.org Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लध्वजि० सविवरणम् || 9 || Jain Education कणयनिहसरेहाकंतिचोरं करिज्जा, चिरथिरमिह लच्छि गाढसंथंभियव ॥ ११ ॥ -मालिनी ( कनकनिकषरेखाकान्तिचौरं कुर्यात्, चिरस्थिरमिह लक्ष्मीं गाढसंस्तम्भितामिव ॥ ११ ॥ ) व्याख्या-ययोः श्रीअजितशान्त्योः रूपं कर्तृचिन्तितं - ध्यातं सत् [ इह जगति ] कुर्यात् । काम् १, लक्ष्मीम् । कीदृशीम् ?, चिरस्थिरां । चिरं चिरकालं स्थिरां - निश्चलाम् । कामिव ?, गाढसंस्तम्भितामिव । गाढं - अत्यर्थं संस्तम्भिता - सम्यग् नियन्त्रिता, तामिव । यथा गाढं नाराचादिना पाञ्चालिका चिरं स्थिरा भवति, एवं यद्रूपध्यानाल्लक्ष्मीरित्यर्थः । कीदृशं रूपम् ?, गौरं - अवदातम् । कियन्मानेन गौरमित्याह - कनकनिकषरेखा कान्तिचौरं । कनकस्य - स्वर्णस्य निकषः - कपपट्टस्तत्र | रेखा कनकनिकपरेखा, तस्याः कान्तिर्द्युतिस्तां चोरयति - अनुकरोति यत् तत्तथा । अत्र गौरत्वे उत्प्रेक्षामाह - निचितदुरित| दारूद्दीत ध्यानाग्निज्वालापरिगतमिव । दुरितानि - दुष्कृतानि तान्येव दारूणि - इन्धनानि दुरितदारुणि, ध्यानमेवाग्निःवह्निर्ध्यानाग्निः, निचितानि - अनेकभवशतेषु सञ्चितानि - उपार्जितानि यानि दुरितदारुणि, तैरुद्दीप्तः - उज्ज्वालितो योऽसौ ध्यानाग्निस्तस्य ज्वाला-कीला, तया परिगतं व्याप्तम् । 'इव' शब्दोऽत्रोत्प्रेक्षावचनः ॥ ११ ॥ अथ पुनर्भगवतस्तस्यैव ध्यानस्य फलविशेषद्वारेण स्तुतिमाह— अडविनिवडियाणं पत्थिवुत्तासियाणं, जलहिलहरिहरंताण गुत्तिद्वियाणं । ( अटविनिपतितानां पार्थिवोत्रासितानां, जलधिलहरिहियमाणानां गुप्तिस्थितानाम् । ) भगवतोदेहकान्तिमाहात्म्यम् ॥ ५९ ॥ jainelibrary.org Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASSESSORARE जलियजलणजालालिंगियाणं च झाणं, जणयइ लहु संति संतिनाहाजियाणं ॥१२॥-मालिनी (ज्वलितज्वलनज्वालालिङ्गितानां च ध्यानं, जनयति लघु शान्ति शान्तिनाथाजितयोः ॥ १२ ॥) व्याख्या-शान्तिनाथाजितयोर्ध्यान-संस्मरणं कर्तृ [चिन्तिम् , लघु-शीघ्रम् ] । जनयति-करोति । काम् ? शान्तिशिवम् । केषाम् ?, अर्थाद् ध्यानकर्तृणाम् । कीदृशानाम् ?, अटविनिपतितानाम् । अटव्यां-अरण्ये; सार्थविच्छुट्टनादिकारणेन निपतितानां-संस्थितानाम् । तथा पार्थिवोत्रासितानाम् । पार्थिवैः स्वदेशपरदेशोद्भवैर्नृपतिभिरुत्रासितानां-ता(भा)पितानाम् । तथा जलधिलहरिहियमाणानां, यानभङ्गादिनाऽन्तःपाते सति समुद्रवीचीभिरितस्ततः प्रेर्यमाणानाम् । तथा गुप्तिस्थितानां, गुप्तौ-कारागारे स्थिताना-प्रक्षिप्तानाम् । तथा ज्वलितज्वलनज्वालालिङ्गितानां, ज्वलितो-दीप्यमानश्चासौ ज्वलनो-दावानलादिलक्षणश्च, तस्य ज्वालाः-शिखास्ताभिः आलिङ्गिता-व्याप्तास्तेषाम् । अत्र प्रथमं शान्तिनाथनामोच्चारणं ततोऽजितस्यानुप्रासकारणात् छन्दोभङ्गभयाद् वा ॥ १२॥ अथ साम्राज्यपरित्यागपूर्वकं चारित्राङ्गीकारं भगवतोर्वर्णयन् प्रार्थनामाह हरिकरिपरिकिन्नं पक्कपाइक्कपुन्नं, सयलपुहविरजं छड्डिउं आणसज्जं । (हरिकरिपरिकीर्ण पक्वपादातिपूर्ण, सकलपृथिवीराज्यं छर्दित्वा आज्ञासज्जम् ।) तणमिव पडलग्गं जे जिणा मुत्तिमग्गं, चरणमणुपवन्ना हुतु ते मे पसन्ना ॥१३॥-मालिनी (तृणमिव पटलग्नं यौ जिनौ मुक्तिमार्ग, चरणमनुप्रपन्नौ भवतस्तौ मे प्रसन्नौ ॥ १३ ॥) Jan Education International For Private & Personal use only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लध्वजि० सविवरणम् ॥ १० ॥ Jain Education In व्याख्या - तौ - अजितशान्ती भवतां - स्याताम् । कीदृशौ भवताम् ?, [इति ] विशेषणे तात्पर्यम् । प्रसन्नौ - प्रसादपरौ । कस्य ?, मे मम तौ प्रसादपरौ भवताम् । यो जिनौ किंविशिष्टौ ?, अनुप्रपन्नौ - अङ्गीकृतवन्तौ । किम् ?, चरणं - चारित्रम् । कीदृक् ?, मुक्तिमार्ग | मुक्तौ - मुक्तिपत्तने मार्ग इव - पन्था इव, मुक्तिमार्ग, चरणमेव हि मुक्तिगमने मार्गः, यदुच्यते" सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः” । [त० १ - १] किं कृत्वा ?, छर्दित्वा - परित्यज्य । किम् ?, सकलपृथ्वीराज्यम् । कीदृशम् ? हरिकरिपरिकीर्णम् । हरयः - के क्वाणवाहीकादिदेशोद्भवा जात्यास्तुरङ्गमाः, करिणो-भद्रजातीय सप्ताङ्गभूप्रतिष्ठितमतङ्गजास्तैः परि-समन्तात् कीर्ण - व्याप्तम् । तथा पुनः किंविशिष्टम् ?, पक्कपादातिपूर्ण । पक्काः - रिपुनिग्रहसमर्थाः पदातयः - पत्तयस्तैः पूर्ण-युक्तम् । कदाचिद्राज्यमपि पराभवपात्रं विडम्बना ( कारकं ) पात्रं ब्रह्मदत्तचक्रिण इव भवति, तदा परित्यागोचितं भवतीत्याशङ्कयाह - आज्ञायां - आदेशे सज्जं प्रगुणं च तत्, सकलसामन्तैः सुरेन्द्रैरपि योजितकर कमलैः शासनं शिरसि धार्यते इति भावः । किमिव त्यक्तं राज्यं ?, तृणमिव । किंविधम् ?, पटलनम् । यथा पटलग्नं-वस्त्राचलावलम्बितृणमाच्छोट्य त्यज्यते तथा तादृशमपि राज्यं छर्दितमिति भावः ॥ १३ ॥ सम्प्रति रमणीया (मर) रमणी वन्दनीयत्वप्रतिपादनद्वारेण स्तुतिमाहछणससिवयणाहिं फुल्लनीलुप्पलाहिं, थणभरन मिरीहिं मुट्ठिगिज्झोदरीहिं । ( क्षणशशिवदनाभिः फुल्लनेत्रोत्पलाभिः, स्तनभरनम्राभिर्मुष्टिप्राह्योदरीभिः । ) भगवतोचारित्रा ङ्गीकार माहात्म्यवर्णनम् ॥ ६० ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललियभुयलयाहिं पीणसोणिस्थलीहि, सय सुररमणीहिं वंदिया जेसि पाया ॥१४॥- मालिनी (ललितभुजलताभिः पीनश्रोणिस्थलीभिः, सदा सुररमणीभिः वन्दिताः ययोः पादाः ॥ १४॥) व्याख्या-"हंतु ते मे पसन्ना" इति पूर्ववृत्तस्थं तच्छन्दवाक्यं अत्रापि सम्बध्यते। ययोः श्रीअजितशान्त्योः पादाः-क्रमाः वन्दिताः-प्रणताः। काभिः?, सुररमणीभिः। सुरा-भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकास्तेषां रमण्यः-कामिन्यस्ताभिः। कथम् ?, सदा। कीदृशीभिः?, क्षणशशिवदनाभिः। क्षणः-पूर्णिमारूपं पर्व, तस्य शशी-चन्द्रः, तद्वत् वदनं-मुखं यासां तास्तथोक्तास्ताभिः। तथा फुल्लनेत्रोत्पलाभिः। नेत्राण्येवोत्पलानि-इन्दीवराणि नेत्रोत्पलानि, फुल्लानि-निर्निमेषत्वेन सदा विकस्वराणि नेत्रोत्पलानि-लोचनकमलानि यासां तास्तथोक्ता स्ता]भिः। तथा स्तनभरनमाभिः। स्तनयोः-कुचयोभरःप्राग्भारो; गुरुत्वं, तेन नम्रा-नताङ्गयः, ताभिः। 'नमिरीहिंति "शीलाद्यर्थस्येरः" [८-२-१४५ है।] अनेन शीलाद्यर्थस्य इर(?)प्रत्ययस्य इरादेशः। तथा मुष्टिग्राह्योदरीभिः। मुष्टिना ग्राह्यमुदरं यासां तास्तथोक्तास्ताभिः। लक्षणयुक्ता हि स्त्रियः कृशोदरा एव भवन्ति । तथा ललितभुजलताभिः। ललिते-मनोहरे भुजलते-बाहुलते, बाहुवल्यौ यास तास्तथोक्तास्ताभिः। तथा पीनश्रोणिस्थलीभिः। पीना-उपचिता श्रोणिस्थली-कटितटी यासां तास्तथोक्तास्ताभिः। लता-स्थलीशब्दौ शोभावचनौ॥१४॥ __ साम्प्रतं परमपुरुषार्थहेतुसंयमानुष्ठानविघ्नभूतरोगापहारं भगवतः सकाशात् प्रार्थयति अरिसकिडिभकुढग्गंठिकासाइसार-क्खयजरवणलूआसाससोसोदराणि । (अर्श:किटिभकुष्ठप्रन्थिकासातिसार-क्षयज्वरव्रणलूतावासशोषोदराणि ।) चैरा० ११ Jan Education International For Private &Personal use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सप्रसादा जिनयुगपादाममादिरोगान्नपहरन्त्विति प्रार्थना लध्वजिक सविवरणम् नहमुहदसणच्छीकुच्छिकन्नाइरोगे, मह जिणजुयपाया सप्पसाया हरंतु ॥ १५॥-मालिनी (नखमुखदशनाक्षिकुक्षिकर्णादिरोगान् , मम जिनयुगपादाः सप्रसादाः हरन्तु ॥ १५॥) ११॥ व्याख्या-जिनयुगपादाः। जिनयोः-अजितशान्त्योयुग-युग्मं, तस्य पादा:-क्रमाः। किंविशिष्टाः ?, सप्रसादाः-प्रसत्ति18| युक्ताः, मे-मम हरन्तु-अपनयन्तु । कानि?, अर्शः-किटिभ-कुष्ठ-ग्रन्थि-कासा-ऽतिसार-ज्वर-व्रण-लूता-श्वास-शोषो-दराणि । अशासि-गुदाङ्कराः, किटिभो-जङ्गाचरणसन्धिभावी रोगविशेषः, कुष्ठं-त्वग्विकारविशेषः, ग्रन्थिर्वातरक्तोद्भवो मांसोपचयः, कासातिसारौ प्रसिद्धौ, क्षयो-धात्वपचयः, ज्वर:-तापः, व्रणः-गण्डः अष्टाविंशतिभेदभिन्नः, लूता-द्वात्रिंशद्भेदभिन्ना दुष्ट|स्फोटिकाः, श्वासः-श्वासातिरेकः, शोषः-कण्ठोष्ठताल्वादिशोषः, उदरं-उदररोगः, जलोदरकठोदरादिः। अत्रेतरेतरद्वन्द्व| समासः। तथा नख-मुख-दशना-क्षि-कुक्षि-कर्णादिरोगान् । नखाः-पुनर्भवः, मुख-वदनं, दशना-दन्ताः, अक्षि-चक्षुः, कुक्षिः-जठरं, कौँ-श्रुती । नखाश्च मुखं च दशनाश्च अक्षि च कुक्षिश्च कर्णौ च नखमुखदशनाक्षिकुक्षिकर्णा इति समाहारद्वन्द्वः । तत् आदिर्येषां कण्ठादीनां ते कर्णादयस्तेषां रोगा-आमयास्तान् ॥१५॥ इदं सर्वश्रेयस्करं सर्वविघ्नहरं स्तवनं प्रति भव्यान् प्रवर्तयितुमाह इय गुरुदुहतासे पक्खिए चाउमासे, जिणवरदुगथुत्तं बच्छरे वा पवित्तं । (इति गुरुदुःखनासे पाक्षिके चातुर्मासे, जिनवरयुगस्तोत्रं वत्सरे वा पवित्रम् ।) ESGSHUSUS ला॥६१ ॥ Jain Educa For Private & Personal use only TAgainelibrary.org Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interna पढह सुणह सज्झाएह झाएह चित्ते, कुणह मुणह विग्धं जेण घाएह सिग्धं ॥ १६ ॥ - मालिनी ( पठत शृणुत स्वाध्यायत ध्यायत चित्ते, कुरुत जानीत विघ्नं येन घातयत शीघ्रम् ॥ १६ ॥ ) व्याख्या - भो भव्याः ! यूयं इति उक्तप्रकारेणेदं जिनवरद्विकस्तोत्रं । जिनवरयोः - अजितशान्त्योर्द्विकं - युग्मं, तस्य स्तोत्रं - स्तवनम् । कीदृशम् ?, पवित्रं प्रधानम् । किम् ?, पठत - अधीध्वं पट्टिकादौ लिखित्वा, तथा शृणुत- आकर्णयत सूत्रतोऽर्थतश्च कथ्यमानं स्वाध्यायत-गुणयत विकथात्यागेन, ध्यायत - स्मरत पदपदार्थादिचिन्तनेन, चित्ते - मनसि कुरुत - विधत्त आर्तरौद्र परिहारेण, कदाचिदपि चित्तान्मा मुञ्चतेत्यर्थः । 'मुण हे 'ति "ज्ञो जाणमुणी" [ ८-४-७ है० ] इत्यनेन ज्ञाधातोर्मुणादेशः, तेन सूत्रार्थतो जानीतेत्यर्थः । पठनादेः प्रस्तावविशेषमाह-पक्षे भवं पाक्षिकं पर्व, तस्मिन् । तथा चतुर्षु मासेषु भवं चातुर्मासं पर्व, तस्मिन्, तथा वत्सरे - पर्युषणापर्वणि । वा शब्दः समुच्चये । कीदृशे पाक्षिके चातुर्मासे संवत्सरे वा पर्वणि ?, गुरुदुःखत्रासे । गुरुदुःखानि - भवान्तरोपचितदुष्कर्मप्रभवाण्यसातानि तानि त्रासयति - भापयते, परमनिर्जराहेतुत्वेन नाशयतीति भावः, गुरुदुःखत्रासं, तस्मिन् । एतत्पठनादौ हेतुमाह-येन - स्तोत्र पठनादिना कारणेन घातयत-विनाशयत । किं तत् कर्मतापन्नम् ?, विघ्नं धर्मान्तरायम् । कथम् ?, शीघ्रं - झटिति, पठनानन्तरमेवेत्यर्थः ॥१६॥ अथ स्तोत्रं समर्थयन् स्तोतॄन् प्रति भगवन्तौ श्रेयस्करणविघ्नापहारौ प्रार्थयति इय विजयाजियसत्तुपुत्त ! सिरिअजियजिणेसर !, तह अइराविससेणतणय ! पंचमचक्कीसर ! | ( इति विजयाजितशत्रुपुत्र ! श्रीअजितजिनेश्वर !, तथा अचिराविश्वसेनतनय ! पचमचक्रीश्वर ! | ) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघ्वजि० सविवरणम् ॥ १२ ॥ सर्वविघ्नह तित्थंकर ! सोलसम संतिजिण ! वल्लह ! संतह, कुरु मंगलमवंहरसु दुरियमखिलं पि धुणंतह ॥ १७॥ - द्विपदी ( तीर्थङ्कर ! पोडशम शान्तिजिन ! वल्लभ ! सतां कुरु मङ्गलमपहरख दुरितमखिलमपि स्तुवताम् ॥ १७ ॥ रमिदं स्तव व्याख्या - हे श्री अजितजिनेश्वर ! विजयाजितशत्रुपुत्र ! तथा शान्तिजिन ! अचिराविश्वसेनतनय ! पञ्चमचक्रीश्वर !, श्रनमित्यस्य तीर्थङ्कर ! पोडश [म], वल्लभ ! - अभीष्ट ! | केपाम् ?, सतां - साधूनाम् । एतानि सर्वाणि सम्बोधनपदानि । एवंविधस्त्वं भगवन् ! 8 कुरु - विधेहि । किम् ?, मङ्गलं श्रेयः । तथा - अपहरख- अपनय । किं तत् ?, दुरितं दुष्कृतम् । किंविशिष्टम् ?, अखिलमपि समस्तमपि । केषाम् ?, स्तुवतां स्तवनं पठताम् । कथम् ?, इति पूर्वोक्तप्रकारेण । अत्र 'जिनवल्लभे 'ति अनेन कविना भङ्गयन्तरेण खनाम सूचितं वर्तते । पुरा हि श्रीजितशत्रुमहाराज विजयादेव्यौ सारिद्यूतेन क्रीडतः । देवी च सर्वदा हारयति । यदा च भगवान् श्रीअजितस्वामी मूर्ती विजय इव वैशाख शुक्लत्रयोदश्यां निशीथसमये श्री विजयविमानतः श्रीविजयादेव्याः कुक्षाववातरत् ततः प्रभृत्येव विजयादेवी कदापि न हारयति स्म । ततो मातापितृभ्यां प्रभोरजितेति | नाम कृतम् । तथा श्रीविश्वसेनमहाराजमण्डले सम्यक्प्रयुक्तविधिमण्डल इव योगिमण्डलैः विफलितमहामान्त्रिकतान्त्रिकाद्यु १ मुद्रितप्रतिक्रमण पुस्तिकासु " संशुअ" (संस्तुत ) इति । २ " मम" इति च पाठान्तरम् । ३ कृतेऽप्यायासे नाज्ञाशिषं लक्षणं कुत्राप्येतस्या द्विपयाः, केवलं वृत्तिकृद्धिरुल्लिखितत्वाद्विहितोऽयं नामनिर्देशः । किञ्च - वृत्तस्यास्य सादृश्यमस्ति 'जय तिहुअणे' त्यादिस्तववृत्तेन यद्यपि तस्य 'रोलावृत्त' मित्युलिखितमहम्मदाबादनिवासिना रामचंद्रदीनानाथशास्त्रिणा 'जय तिहुअण' स्तवस्य गौर्जरानुवादे, परं न सञ्जाघटीति तलक्षणं तत्र, "एकादशमधिविरति” रिति लक्षणोकिया'जय तिहुअण' स्तवेऽत्रापि च चतुर्दशमधिविरतित्वादिति । पठनादौ भव्यानां प्रेरणम् ॥ ६२ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायं ग्लपितसकल जनताकार्यं कृतान्तप्रायमशिवं महारक्ष इवोत्थितमभूत् । तच्च भाद्रपद कृष्ण सप्तमी निशीथसमये श्रीसर्वार्थसिद्धिमहा विमानतोऽतिविक्लवजन तोपकारायेव श्रीविश्वसेनराजप्रणयिन्याः श्रीअचिरादेव्याः कुक्षिशुक्तिपुटमचिन्त्यधान्नि भगवत्यवतीर्णमात्रेपि तथा प्रपलायितं यथाऽनुद्भूतमिवासीत् । ततोऽस्य प्रभावात् सर्वत्र शान्तिरभूदिति मातृपितृभ्यां भगवतः शान्तीत्यभिधा चक्रे । अतो यद्यपि भगवन्तः सर्वेऽपि विजयहेतवः श्रेयोहेतवश्च तथापि विशेषतो विजयः शान्तिश्चैताभ्यामेव चक्रे, इत्येतयोरेव यौगपद्येन पाक्षिकादिपर्वणि स्तोत्रमभिधीयते । नचैतदनागमिकम्, यतः श्रीमहावीरशिष्य श्रीनन्दिषेण महर्षिणाऽपि विशेषतः पाक्षिकादिपर्वणि पाठ्यं श्रीअजितशान्त्योः स्तवनं कृतमस्ति इति तदनुक्रममनुवर्तमानः श्रीजिनवल्लभसूरिरपि तथैव चकार । अत्र प्रथमं वृत्तं शार्दूलच्छन्दसा, ततो वृत्तपञ्चदशकं मालिनीछन्दसा, अन्तिमं वृत्तं द्विपदीछन्दसा विरचितमस्तीति भावः ॥ इति श्रीधर्म तिलक मुनिविरचिता श्रीउल्लासिक्कमस्तोत्रवृत्तिः समाप्ता ॥ [ वृत्तिकृत्प्रशस्तिः ] शश्वत्तापरजोजडत्वशमिका सच्छायतादायिका, धूताचारुचरित्र मुख्यकगुणैः प्राप्ता च काञ्चिच्छ्रियम् । येषां कीर्तिपटीजगत्रयजनैः सम्प्राप्य नक्तं दिवं व्यापार्येत भजेत नो मलिनतां शीर्येत वा न क्वचित् ॥ १ ॥ १ उपलभ्यते कचिच्छ्रीमन्नेमिजिनशिष्य इत्यपि, यथा- "श्रीनेमिवचनाद्यात्रा -ऽऽगतः सर्वरुजापहम् । नन्दिषेणगणेशोऽत्रा-जितशान्तिस्तवं व्यधात् ॥ १ ॥” इति विविधतीर्थंकल्पान्तर्गते शत्रु अयकल्पे, एवमेव शत्रुञ्जयमहाकल्पेऽपि । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघ्वजि० सविवरणम् ॥ १३ ॥ Jain Education तेषां युगप्रवरसूरिजिनेश्वराणां, शिष्यः स धर्मतिलको मुनिरादधाति । व्याख्यामिमाम जितशान्तिजिनस्तवस्य, स्वार्थं परोपकृतये च कृताभिसन्धिः ॥ २ ॥ - युग्मम् । विचक्षणैर्ग्रन्थसुवर्णमुद्रिका, विचित्रविच्छित्तिभृ ( वृता विनिर्मिता । यदीयनेत्रोत्तमरत्नयोगतः, श्रियं लभन्ते क्षितिमण्डले पराम् ॥ ३ ॥ तैः श्रीलक्ष्मीतिलको-पाध्यायैः परोपकृतिदक्षैः । विद्वद्भिर्वृत्तिरियं समशोधितरां प्रयलेन ॥ ४ ॥ युग्मम् । नयन के रशिखीन्दु (१३२२), विक्रमवर्षे तपस्यसितषष्ठ्याम् । वृत्ति: समर्थिताऽस्या, मानं च सविंशतिस्त्रिशती ॥ ५ ॥ संवत् १५८७ वर्षे | ग्रंथाग्रं ॥ ३२० ॥ संवत् १३२२ वर्षे फाल्गुनसुदि ६ कृता वृत्तिरियं वाचनाचार्यश्रीधर्मतिलकगणिभिः । समाप्तमिति । शुभं भवतु । १ " स्यात्तपस्यः फाल्गुनिकः" इत्यमरः । २ विक्रमपुरस्थ श्रीमज्जिन कृपा चन्द्र सूरिसत्कचित्कोपस्थायाः प्रतिकृतेः प्रान्तवयं पुष्पिकालेखः । वृत्तिकृत्प्रशस्तिः ॥ ६३ ॥ ainelibrary.org Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठि देवचन्द लालभाई-जैन-पुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्केकूर्चपुरीयचैत्यवासपरित्यागपुरस्सरं नवाङ्गवृत्तिविधायकश्रीमद्भयदेवसूरेरुपसम्पन्नोपसम्पच्छिष्य कविचक्रशकश्रीमजिनवल्लभसूरिपुरन्दरगुम्फितम् धर्मशिक्षाप्रकरणम् । नत्वा भक्तिनताकोऽहमभयं नष्टाभिमानक्रुधं, विज्ञं वर्द्धितशोणिमक्रमनखं वयं सतामिष्टदम् । विद्याचऋविभुं जिनेन्द्रमसकृल्लब्ध्वाऽस्य पादी"भवे, वेद्यं ज्ञानवतां विमर्श विशदं धयं पदं प्रस्तुवे ॥१॥ चक्रम् ॥ भो भो भव्या! भवाब्धी निरवधिविधुरे वम्भ्रमद्भिर्भवद्भि-दृष्टान्तैश्चोल्लकाद्यैर्दशभिरसुलभं प्रापि कृच्छान्नरत्वम् । तच्चेत्क्षेत्रादिसामग्र्यपि समधिगता दुर्लभैवेति सम्यग् , मत्वा माहाकुलीनाः कुरुत कुशलतां धर्मकर्मस्वजस्रम् ॥२॥ ____x निदर्शितमेतेष्वतितेष्वक्षरेषु 'जिनवल्लभगणिवचनमिद मिति वाक्येन चक्रबन्धे स्वाभिधानं ग्रन्थका । * जिनेन्द्रस्य । + चरणम् । । संसारे । धर्मसम्बन्धिनं स्थानम् । For Private Personal use only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशा धर्मशिक्षा-8 | ततश्च-भक्तिश्चैत्येषु सक्तिस्तपसि गुणिजने रक्तिरर्थे विरक्तिः, प्रीतिस्तत्वे प्रतीतिः शुभमुरुषु भवाभीतिरुद्धात्मनीतिः। प्रकरणम्दा शान्तिान्तिः स्वशान्ति, सुखहतिरबलावान्तिरभ्रान्तिराप्ते, ज्ञीप्सा दित्स विधित्साँ श्रुत-धन-विनयेष्वसुधीः पुस्तके च ॥३॥ [१]-व्यपोहति विपद्भरं हरति रोगमस्यत्यघं, करोति रतिमेधय-त्यतुलकीर्तितः] श्रीगुणान् । ॥१॥ तनोति सुरसम्पदं वितरति क्रमान्मुक्ततां, जिनेन्द्रबहुमानतः फलति चैत्यभक्तिने किम् ? ॥४॥ तद्गेहे प्रत्रुतस्तन्यभिलपति मुदा कामधेनुः प्रवेष्टुं, चिन्तारत्नं तदीयं श्रयति करमभिप्रेति तं कल्पशाखी। स्वः श्रीस्तत्सङ्गमाय स्पृहयति यतते कीर्तिकान्ता तमाप्तुं, तंक्षिप्रं मोक्षलक्ष्मीरभिसरति रतिर्यस्य चैत्यार्चनादौ॥५॥१॥ [[२]-चक्रे तीर्थकरैः स्वयं निजगदे तैरेव तीर्थेश्वरैः, श्रीहेतुर्भवहारि दारितरुजं सन्निर्जराकारणम् । सद्यो विघ्नहरं हृषीकदमनं माङ्गल्यमिष्टार्थकृद्, देवाकर्षणकारि दुष्टदलनं त्रैलोक्यलक्ष्मीप्रदम् ॥ ६॥ इत्यादिप्रथितप्रभावमवनी-विख्यातसङ्ख्याविदां, मुख्यैः ख्यापितमाशु शाश्वतसुख-श्रीकृप्तपाणिग्रहम् । आशंसादिविमुक्तमुक्तविधिना श्रद्धाविशुद्धाशयः, शक्तिव्यक्तिसुभक्तिरक्तिभिरभि-ध्येयं विधेयं तपः॥७॥२॥ युग्मम् । [३]-ज्ञानादित्रयवाञ्जनो गुणिजन-स्तत्सङ्गमात्सम्भवेत् , स्नेहस्तेषु स तत्त्वतो गुणिगुणै-कात्म्याद्गुणेष्वेव यत् । तस्मात्सर्वगसद्गुणानुमननं तस्माच्च सद्दर्शनं, यस्मात्सर्वशुभं गुणिव्यतिकरः कार्यः सदायैस्ततः॥८॥ * उद्घा-प्रशस्ता आत्मनीतिरुद्घात्मनीतिः, "उद्घो हस्तपुटे वह्नौ, श्लाघायां देहजानिले" इति हैमावतरणममरवृत्तौ । | नामानि भक्तिश्चैत्येषु सक्तिस्तपसि गुणिजने रक्तिश्चेत्यधिकाराः CONGRESCORSCORRENCCCCX ॥६४॥ Jain Educaton in tonal For Private & Personal use only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नातञ्चन्द्रिकाभिः स च किल मृगतृष्णाजलैरेव तृप्तः, खाब्जैर्मालां स धत्ते शिरसि स शशशृङ्गीय चापं विभर्त्ति । मनात्येष स्थवीयः स्थलतलसिकता -स्तैलहेतोर्य उज्झन्, सङ्गं ज्ञानक्रियाव-गुणिभिरपि परं धर्ममिच्छेच्छिवाय ॥ ९ ॥ ३ ॥ [४] - त्वग्भेदच्छेदखेद व्यसनपरिभवा-प्रीतिभीतिप्रमीति - क्लेशाविश्वासहेतुं प्रशमदमदया - वलरी धूमकेतुम् । अर्थ निःशेषदोषा-कुरभरजननप्रावृषेण्याम्बु धूत्वा, लूत्वा लोभप्ररोहं सुगतिपथरथं धत्त सन्तोषपोषम् ॥ १० ॥ निद्रामुद्रां विनैव स्फुटमपरमचै-तन्यवीजं जनानां, लक्ष्मीतृष्णौघभावः प्रकटमपटलः सन्निपातोऽत्रिदोषः । किञ्च क्षीराब्धिवासिन्यभजदियमपां सर्पणान्नीचगत्वं, कलोलेभ्यश्चलत्वं स्मृतिमतिहरणं कालकूटच्छटाभ्यः ॥११॥४॥ [५] - जीवा भूरिभिदा अजीवविधयः पञ्चैव पुण्याश्रवौ, भिन्नौ षड्गुणसप्तधा प्रकृतयः पापे व्यशीतिः स्मृताः । भेदान् संवरबन्धयोः पृथगथा ऽऽहुः सप्तपञ्चाशतं, मोक्षो देशविनिर्जरेति च नव श्रद्धत्त तत्त्वानि भोः ! ॥ १२ ॥ सर्वज्ञोक्तमिति प्रमाघटितमि त्यक्षोभ्यमन्यैरिति, न्यायस्थानमिति स्फुटक्रममिति स्याद्वादधीभागिति । युक्तया युक्तमिति प्रतीतिपदमि-त्यक्षुण्णलक्ष्मेति सत्, सप्त द्वे नव चेत्यवेत्त बहुधा तत्त्वं विवक्षावशात् ॥ १३ ॥ ५ ॥ [६] - सम्यग्ज्ञानगरीयसां सुवचसां चारित्रवृन्दीयसां, तर्कन्यायपटीयसां शुचिगुण- प्राग्भारबृंहीयसाम् । विद्यामन्त्र महीयसां सुमनसां भव्यत्रजप्रेयसां धत्तोच्चैस्तपसां विकाशियशसां सम्यग्गुरूणां गिरः ॥ १४ ॥ मुक्त गन्तरि मोहहन्तरि सदा शास्त्रस्थितौ रन्तरि, ध्यानध्यातरि धर्मधातरि वर व्याख्यातरि त्रातरि । विद्वद्भर्तरि शीलधर्त्तरि तमः स्तोमं तिरस्कर्तरि, द्वेषच्छेत्तरि रागभेत्तरि गुरौ भक्ताः स्थ वाग्वेत्तरि ॥ १५ ॥ ६ ॥ . Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशिक्षा- प्रकरणम् ॥२॥ [७]-प्रोत्सर्पदर्पसर्पन्मृतिजननजरा-राक्षसे नोकषाये, क्रूरोरुश्वापदौघे विषमतमकषा-येद्धदावाग्निदुर्गे । भवादीमोहान्धा भोगतृष्णा-ऽऽतुरतरलदृशो भूरि बम्भ्रम्यमाणा-स्त्राणाय प्राणभाजो भववनगहने क्लेशमेवाश्रयन्ते ॥१६॥ तिरुद्वात्मसुखी दुःखी रङ्को नृपतिरथ निःखो धनपतिः, प्रभुर्दासः शत्रुः प्रियसुहृदबुद्धिर्विशदधीः । नीतिः क्षाभ्रमत्यभ्यावृत्त्या चतसृषु गतिध्वेवमसुमान् , हहा!! संसारेऽस्मिन् नट इव महामोहनिहतः॥१७॥७॥ न्तिश्चेत्य[८]-सख्यं साप्तपदीनमुत्तमगुणा-भ्यासः परोपक्रिया, सत्कारो गुरुदेवताऽतिथियति-प्वायत्यनुप्रेक्षणम् । धिकाराः स्वश्लाघापरिवर्जनं जनमनः-प्रेयस्त्वमक्षुद्रता, सप्रेमप्रथमाभिभाषणमिति प्रायेण नीतिः साम् ॥ १८ ॥ तथ्यापथ्यायथार्थस्फुटमितमधुरोदारसारोद्य[ता वाक्] ते वा, के(?)[चेतश्च क्षोभलोभस्मयभयमदनद्रोहमोहप्रमुक्तम् ।। कार्य देहं च गेहं व्रतनियमशमौचित्यगाम्भीर्यधैर्य-स्थैयौदार्यार्यचर्याविनयनयदया दाक्ष्यदाक्षिण्यलक्ष्म्या॥१९॥८॥ ९]-प्रीत्या भीत्या च सर्व सहति किल स[दावो(2)-ऽप्यनुतेऽचेष्टमेवं,कार्य कुर्यात् क्षमी य-न्न तदिह कुपितःस्पष्टमेतजनेऽपि । तस्माद[त्युप्युग्रराग-द्विपि मिषति रिपौ सर्वशास्त्रोदितायां, सर्वाभीष्टार्थलाभप्रभवकृतिसदाऽर्थति तद्यत् क्षमायाम् ॥२०॥ दशविधयतिधर्मस्यादिमं क्षान्तिरङ्गं, विमलगुणमणीनां रोहिणाद्रिः क्षमैव । तदिति कुशलवल्लिमोल्लसल्लास्य लीला, कुसुमसमयमुच्चैर्धत्त रोषप्रमोषम् ॥ २१॥९॥ [१०-विद्याकन्दासिदण्डः कुगतिसुरगृह-प्रोल्लसत्केतुदण्डः, प्रद्वेषश्लेषहेतुः सुगतिजलधिनि-स्तारविस्तीर्णसेतुः। शस्त्रं सत्सङ्गरज्या व्यसनकुलगृहं रागयागाय्ययज्ञा, हारिष्टं शिष्टतायाः करणवशगता तद्दमेऽतो यतध्वम् ॥२२॥ SARA Jain Education international For Private &Personal use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S AMRESHISRUSHERE प्रेडद्धज्राग्रभिन्नोत्कटकरटिघटाकुम्भकीलालकुल्या, वेगव्यस्तककुयुद्भटभटपटलीलूनचक्राम्बुजानि । क्रुद्धोद्धावत्कबन्धव्यतिकरविफलायस्तशस्त्राण्यभीक्ष्णं, भूयांसः प्रापुरत्र क्षयमिति करणैः कार्यमाणा रणानि ॥२३॥१०॥ [११]-मानः सन्मानविघ्नः स्फुटमविनयकृत्-क्रोधयोधः प्रबोध-ध्वंसी वैरानुबन्धी प्रणयविमथनी सव्यपाया च माया। लोभः सङ्कोभहेतु-र्व्यसनशतमहा-धामकामोऽपि वामो,व्यामोहायेति जित्वा-ऽन्तरमरिविसरं स्वस्व शान्तिं कुरुध्वम् ॥२४॥ कान्ता कान्ताऽपि तापं विरहदहन हन्त!! चित्ते विधत्ते, क्रीडा ब्रीडा मुनीनां मनसि मनसिजो-दामलीलाऽपि हीला। गात्रं पात्रं विचित्र-प्रकृतिकृतसमा-योगरोगबजानां, सोऽहं मोहं निहन्तुं तदपि कथमपि प्रेमरक्तो न शक्तः ॥२५॥११॥ [१२]-अर्थे निःसीम्नि पाथःप्लवजवजयिनि प्रेम्णि कान्ताकटाक्ष-प्रक्षेपस्थेन्नि धाम्नि क्षयपवनचले स्थाम्नि विद्युद्विलोले। जीवातौ वातवेगा-हतकमलदल-प्रान्तलग्नोदबिन्दु-व्यालोले देहभाजा-मिह भवविपिने सौख्यवाञ्छा वृथैव ॥२६॥ उद्धावक्रोधगृधे-ऽधिकपरुषरवो-त्तालतृष्णाशृगाली-शालिन्युद्यन्मनोभू-ललितकिलकिला-रावरागोग्रभूते । ईयाऽमोदिदंष्ट्रो-कटकलहमुख-द्वेषवेतालरौद्रे, हा!! संसारश्मशाने भृशभयजनने न्यूषुषां* वास्तु भद्रम् ॥२७॥ [१३]-चक्षुर्दिक्षु क्षिपन्ती क्षपयति झगिति प्रेक्षकाक्षीणि साक्षा-ल्लीलालोलालसाङ्गी जगति वितनुते-ऽनङ्गसङ्गाङ्गभङ्गान् । खेदस्वेदप्रभेदान् प्रथयति दवथु-स्तम्भसंरम्भग न् , बाला व्यालावलीव भ्रमयति भुवनं चेतसा चिन्तिताऽपि ॥८॥ * "रुपोक्ताबु" इत्यमरवाक्यात् 'नि' उपसर्गपूर्व 'उ' अव्ययेन सह 'वस' धातो रूपनिप्पत्तिः । Jan Education International For Private &Personal use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 आप्तेऽभ्रान्तिः , श्रुते ज्ञीप्सा, धने दित्सा चेत्यधिकाराः धर्मशिक्षा- कालुष्यं कचसञ्चया-चपलता लीलाचलल्लोचनाद्, विम्बोष्ठाद्गुरुरागिता कुटिलित-भ्रूवक्रतो वक्रता । प्रकरणम् नाभीतोऽपि च नीचता कुचतटात् काठिन्यमन्वर्थतो, वामानां बत तुच्छता परिचयालग्नावलग्ना ध्रुवम् ॥२९॥१३॥ 151[१४]-रांगद्वेषप्रमोदा-रैतिरतिभयशुंग्-जन्मचिन्ताजुगुप्सा-मिथ्यात्वाज्ञानहास्या-विरति मंदन] नि-द्रीविषादान्तरीयाः। ॥ ३ ॥ संसारावर्तगर्त-व्यतिकरजनका देहिनां यस्य नैते, दोषा अष्टादशाऽऽप्तः स इह तदुदिते वास्तु शङ्काऽवकाशः?॥३०॥ विद्वत्प्रेयसि सद्गरीयसि परा-नन्दाश्रयस्थेयसि, स्फीतश्रेयसि नाशितैनसि सदा सम्यग्गुणज्यायसि । सज्ज्ञानौकसि धर्मवेधसि हुता-विद्याविता[ने]नौ(?)धसि,कोऽनन्तौजसि तारतेजसि जिने सन्दे[ग्धि]दि (2) वृन्दीयसि। [१५]-उद्यद्दारिद्य[रुह्वर्ग] रुंह(?)मसितपरशुर्दुर्गदुर्गत्युदार-द्वारस्फारापिधानं विषयविषधरग्रासगृध्य[: खगेन्द्रः]श्वगेन्द्रः। क्रुद्ध्यदुर्बोधयोधप्रतिभटपटलीमोहरोहत्प्ररोह-प्रेङत्तीक्ष्णक्षुरप्रप्रमदमदकरिक्रूरकुप्यन्मृगारिः॥ ३२॥ सर्पत्कन्दर्पपांशुप्रकरखरमरुत्त्वङ्गदुत्तुङ्गदंश-क्ष्माभृदम्भोलिरु(?)[]द्धिरनुपशमदवोदाहवर्षाम्बुवाहः। मिथ्यात्यापथ्यतथ्यस्फुरदमृतरसः प्रोल्लसल्लोभवल्लि-च्छेदच्छे कासिपत्रं श्रुतमिह तदिति ज्ञाप्यमध्याप्यमाप्य॥३३॥१५॥ [१६]-तेने तेन सुधांशुधामधवलं विश्वक्स्वकीयं यशो, दौर्भाग्यदुरभाजि तेन ममृदे दारिद्यमुद्रा द्रुतम् । चक्रे केशवशक्ति[चकि] कमला तूर्ण स्वहस्तोदरे, पात्रत्राकृतमत्र येन विधिना स्वं स्वं नयोपार्जितम् ॥ ३४॥ प्रोल्लासे गुणवल्लिभिः प्रन (2)[प्रस]सृते कीा त्रिलोकाङ्गणे, सौख्यैरुचकृपे श्रिया प्रववृधे बुद्ध्या जजृम्भे भृशम् । स्वर्लक्षम्या ददृशे सतर्षमभितो वीक्षाम्बभूवे शिव-प्रेयस्या विधिदानदातुरसकृत् कैर्वा न लिल्ये? शुभैः ॥६५॥१६॥ ॥६६॥ Jan Eduary For Private & Personal use only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैरा० १२ Jain Education [१७] - प्राहुर्दाहकमेव पावकमिव प्रायोऽविनीतं जनं प्राप्नोत्येष कदाचनापि न खलु स्वेष्टार्थसिद्धिं क्वचित् । तस्मादी हितदान कल्पविटपि-न्युल्लासिनिःश्रेयस श्री सम्बन्धविधानधानि विनये यलं विदध्याद्बुधः ॥ ३६ ॥ मूलं धर्मद्रुमस्य छुपतिनरपति-श्रीलताकल्पकन्दः, सौदर्याह्वानविद्या निखिलसुखनिधि - र्वश्यतायोगचूर्णः । सिद्धाज्ञामन्त्रयन्त्रा-धिगममणिमहा- रोहणाद्रिः समस्तं, [सा]र्थं प्रत्यर्थितन्त्रं त्रिजगति विनयः किं न किं साधु धत्ते ? ॥ ३७॥ [१८] - संसारार्णवनौर्विपद्वनदवः कोपानिपाथोनिधि - मिथ्यावासविसारिवारिद मरुन्मोहान्धकारांशुमान् । तीव्याधिताशिता सिरखिलान्तस्तापसर्पत्सुधा - सारः पुस्तकलेखनं भुवि नृणां सज्ज्ञानदानप्रपा ॥ ३८ ॥ मिथ्यात्वोदंवदौर्वे व्यसनशतमहा-श्वापदे शोकशङ्का -ऽऽतङ्काद्या एव ग[व]र्ते मृतिजननजरा - पारविस्तारिवारि । आधिव्याधिप्रबन्धोद्धुरतिमिमकरे घोरसंसारसिन्धी, पुंसां पोतायमानं दह[दद ]ति कृतधियः पुस्तकज्ञानदानम् ॥ ३९ ॥ शिक्षा भव्यनृणां *गणाय मयका -ऽनर्थप्रदैनस्तरं दग्धुं वह्निरभाणिं येयमनया वर्त्तेत यो मत्सरः । नम्यं चक्रभृतां नित्वमपि स-लव्धार्थपादः परं, रन्ताऽसौ शिवसुन्दरीस्तनतटे रुन्द्रे नरः सादरम् ॥४०॥ चक्रम् ॥ समाप्तं धर्मशिक्षाप्रकरणम् कृतिर्जिनवल्लभगणिन इति ॥ इति श्रेष्ठि- देवचन्द - लालभाई - जैन- पुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ९१ * आद्यपद्यवदत्राप्येतेष्वङ्किताक्षरेषु 'गणिजिनवल्लभवचनमदः' इत्यनेन वाक्येन चक्रबन्धे प्रकटितं स्वाभिधानं ग्रन्थकृद्भिः । अत्रैव पृथमुद्वितौ स्तश्चित्रावप्येतच्चक्रवन्धयोः । onal ainelibrary.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशिक्षाप्रकरणम् सूचीपत्रम् २-८-० ॥४॥ । ० सुरतद्रङ्गस्थे श्रीजिनदत्तसूरि-ज्ञानभाण्डागारे लभ्यग्रन्थाःपञ्चलिङ्गीप्रकरणम् (सटीक) विधिमार्गप्रपा सन्देहदोलावली (बृहद्वृत्तियुता) २-०-० धर्म० उत्सूत्रखण्डनम् संवेगरङ्गशाला (सच्छाया-प्रथमो विभागः) २-८-० वैराग्यशतकम् (मूल-छाया-शब्दार्थ-भावार्थसहितम् ) जयतिहुअणस्तोत्रम् (सटीक) साधुपंचप्रतिक्रमणसूत्रम् (हिन्दी-शब्दार्थयुक्तम् ) प्राकृतदीपालिकल्पान्वितं 'दुरियरयसमीरं' स्तोत्रम् (सटीक) ०-८-० श्रावक , ( , , ) भक्तामरस्तोत्रम् (सटीकं) ०-८-० पंचप्रतिक्रमणादि सूत्रम् (मूलमात्र, शास्त्री) ईर्यापथिकी पत्रिंशिका (जयसोमीया, सटीका) १-०-० राइदेवसिप्रतिक्रमणसूत्रम् (, ,) पौषधषदविंशिका (जयसोमीया, सटीका) श्रीजिनदत्तसूरिचरित्रम् (पूर्वार्द्धम्) श्रीपालचरित्रम् (सं० श्लोकबद्धं) , , (उत्तरार्द्धम्) ,, , (प्राकृतं, हिन्धर्थसमन्वितं) बृहत्स्तवनावली चैत्यवन्दनकुलकम् (सटीकं) २-४-० प्राकृतव्याकरणम् कल्पसूत्रम् (कल्पलताब्याख्या) प्रश्नोत्तरमंजरी (भाग १-३-३ हिन्दी) धन्यचरित्रमहाकाव्यम् १-८-० सामाचारीशतकम् हर्षहृदयदर्पणम् (भाग १-२ हिन्दी) गाथासहस्री कृपाविनोदः सूचना-उपायनलभ्यानामपि ग्रन्थानां पोष्टव्ययनं दातव्यमेव भविष्यति प्राहकैरिति । प्राप्तिस्थान-श्रीजिनदत्तसूरि-ज्ञानभण्डार-गोपीपुरा-शीतलवाडी उपाश्रय, सुरत । १०.०० । 1-0-0 !! । २-०-० । । Jain Education For Private & Personal use only P iainelibrary.org Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education द्वादशकुलकानि ( सटीकानि ) षट्स्थानप्रकरणम् (सटीकं ) भक्तामर स्तोत्रम् (सटीकं ) कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् (सटीकं ) सामाचारीशतकम् गाथासहस्त्री विधिमार्गप्रपा श्रीपालचरित्रम् (श्लोकबद्धम् ) 33 आत्मप्रबोधः श्रावक मोहनयिथे श्रीजिनदत्तसूरि- ज्ञानभाण्डागारे लभ्यग्रन्थाः नवपदादितपविधिसंग्रहः पंचप्रतिक्रमणादिसूत्रम् (मूलमात्रं शास्त्री ) गुजराती) (प्राकृतं, हिन्द्यनुवादयुतं ) साधुपंचप्रतिक्रमणसूत्रम् ( हिन्दी - शब्दार्थयुक्तम्) ,,) (", 33 33 युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि (हिन्दी) ऐतिहासिक काव्यसंग्रहः (प्राचीनरास ) १-०-० ०-८-० ०-८-० ०-८-० भेट २-०-० भेट ०-०-३ " १-८-० 33 22 33 पंचप्रतिक्रमणसूत्रम् (गुर्जरशब्दार्थ भावार्थयुक्तम्) राइदेवसी प्रतिक्रमणसूत्रम् (मूलं शास्त्री ) ((, गुजराती ) दादासाहेब की पूजा (शास्त्री) जिनदत्तसूरिजी जीवनचरित्र (गुजराती) जिनकुशलजीवनप्रभा (गुजराती) जिनचंद्र जीवनचंद्रिका (गुजराती) सप्तस्मरणादिस्तोत्रसंग्रहः 91010 १-०-० अभय ग्रन्थमाला - बीकानेर प्रकाशितानि पुस्तकानि - 22 दादा श्रीजिनकुशलसूरि (हिन्दी) मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि (हिन्दी) सूचना - उपायनलभ्यानामपि ग्रन्थानां पोष्टव्ययनं दातव्यमेव भविष्यति ग्राहकैरिति । ०-१०-९ 019000 ⠀***** 61810 भेट ०-२-० भेट भेट भेट भेट 01810 ०-२-० प्राप्तिस्थलं — श्रीजिनदत्तसूरि-ज्ञानभण्डार - महावीरस्वामी जैन मन्दिर, पायधुनी, मुंबई ३ ainelibrary.org Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति सकिनगायतका विम्य क समाया। इति सटीकवैराग्यशतकादिग्रन्थपञ्चकं समाप्तम् / इति श्रेष्ठि-देवचन्द-लालभाई-जैन-पुस्तकोद्धारे-ग्रन्थाङ्कः 91 Jan Education international For Private Personal use Oy