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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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सौ. सविताबाई सारक प्रग्यमाला नं.२.
IAHIMANSHIOM
संक्षिप्त जैन इतिहास
TIMITURTHRITHILIMIT
द्वितीय भाग। (प्रथम खंड)।
THIHINDImminimalinmHINTAITAlina
लेखक:श्रीमान् वा कामताप्रसादनी जैन एम. आर ए. एस.,
ऑन० सम्पादक-'वीर' और 'भगवान महावीर' 'भगवान पार्श्वनाथ', 'सत्यमार्ग', 'लॉर्ड महावीर
महाराणी चलनी इत्यादि ग्रंयाँके रचयिता।
प्रकाशक:मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक,
दिगम्बर नैनपुस्तकालय, कापड़ियाभवन-सूरत । +++ ++ttttttttttttt+++++++ १० सविताबाई, सौ. धर्मपत्री मूलचन्द किसनदास कापडिया स्मरणार्य "दिगम्बर जैन " के
२५ वर्षके माहकोंको भेंट।
++
PIRINIKITCHIRININDIANI
+++++
प्रथमावृत्ति]
[प्रति १०००
वीर सं० २४५८ __ मूल्य-०१-१२-०.
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- अधिक समय नहीं हुआ कि सरदार पटेलने एक भाषण में कहा था कि. महिंसा वीरोंका धर्म है । और उन्हीं के साथ काका फालेजकरने प्रगट किया था कि जैनधर्म सर्वोत्तम रीतिसे जीवन वर्तनका उपाय बताता है। वह संचा साम्यवाद सिखाता है।" जैनधर्मके विषयमें राष्ट्रीय-नेताओंके यह उदार निःसंदेह ठीक हैं। किन्तु इन उद्वारों का महत्व तब ही स्पष्ट होसक्ता है कि जब नोंक गत जीवन व्यवहारसे अहिंसा धर्मका पालन करते हुये वीरत्व प्रकाश और जीवनकी पूर्णताका चित्र साधारण जनताके हृदयपटलपर अंकित किया जासके । यह होना तब ही संभव है कि जब जनों का इतिहास जनताके हाथों में पहुंचे । जैसे किसी मनुष्यका सन्मान उसके वंश, प्रतिष्ठा मादिका परिचय पानेसे होता है, उसीतरह किसी जातिका मादर उस जाति का इतिहास जाननेसे लोगोंकी दृष्टिमें बढ़ता है । भारत दिगम्बर जैन परिषदने इस आवश्यक्ताको बहुत पहले अनुभव कर लिया था । और तदनुसार अपनी एक 'इतिहास कमेटो भी नियुक्त की थी, जिसका एक सदस्य में भी था। उसीके अनुरूप मैंने " जैन इतिहास" को लिखनेका उद्योग चालू किया था और परिणामतः उसका पहला भाग, जिसमें ईस्वी पूर्व ६०० वर्षसे पहलेका पौराणिक इतिहास संकलित है, प्रगट होचुका है। प्रस्तुत पुस्तक उसी सिलसिलेमें दूसरे भागका पहला खण्ड है। दूसरे भागमें ईस्वी पूर्व छठी शताब्दिसे ईस्वी तेरहवीं शताब्दि तकका इतिहास एकत्र किया जाना निश्चित है। इस पहले
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सन्हमें ईस्वी पूर्व छठी शताब्दिसे दूसरी शताब्दि का इतिहास प्रगट किया गया है। पाठक महोदय देखेंगे कि पहले नमानेने अहिंसा धर्मको पालते हुये जनीने कसा वीरत्व प्रगट किया था और जीवनको प्रत्येक दृष्टिसे उन्होंने सफल बनाया था। उनमें बड़े २ सम्राट् थे जिन्होंने भारतकी प्रतिष्ठा विदेशोंमें कायम की थी-उनमें बड़े २ योद्धा थे, जिन्होंने शूरोंके दिल दहला दिये थे। उनमें नडे २ व्यापारी थे, जिन्होंने देशविदेशों में जाकर अपार धनसंचय किया था और उसे धर्म और सर्वहितके कार्यों में खर्च करके भारतका गौरव बढ़ाया था। और उन ननियों में वे प्रातः स्मरणीय महापुरुष थे जो दिगम्बर-प्राकृत वेपमें रहकर ज्ञान-ध्यान द्वारा आत्मतेजके पुंज थे और जो जीवमात्रका कल्याण करनेमें अग्रसर थे ! अब भला कहिये कि जैनधर्मका अहिंसातत्त्व क्यों न वीरत्वका प्रकाशक हो और उसके द्वारा मनुष्य जीवन कैसे सफल नहो ? नोंका यह प्राचीन इतिहास आम हम-सबको जीवित-- नागृत और कर्मठ होनेकी शिक्षा देता है । गत इतिहासको जानना तब ही सार्थक है जब उसके अनुसार बर्ताव करनेका उद्योग किया नाय ! आज प्रत्येक जैनीको यह बात भूल न जाना चाहिये।
यह संभव नहीं है कि प्रस्तुत पुस्तकमे वर्णित कालका संपूर्ण इतिहास भागया हो । हां उसको यथासंभव हर तरहसे पूर्ण चनानेका ख्याल अवश्य रक्खा गया है और आगामीके भागों में भी रक्खा नावेगा । दूसरे भागका दूसरा खंड भी लिखा जाचुका है और वह भी निकट भविष्यमें पाठकों के हाथमें पहुंच जावेगा। माशा है, पाठक उनसे यथेष्ट लाभ उठावेंगे।
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इम खण्डको श्रद्धेय व० सीतलप्रसादनीने देखकर हमें उचित. परामर्श दिया है, इसके लिये उनको धन्यवाद है। इम्पीरियल लायचेरी कलबत्तासे हमें यथेष्ट साहित्य-सहायता मिली है। एतदई उसका भाभार स्वीकन है। साथ ही प्रिय मित्र आपडियानीका भी यांमार स्वीकार कर लेना हम उचित समझते हैं जिन्होंने न केवलं साहित्य प्रस्तुत करके इसका संकलन कार्य सुगम किया है, वरन् इसको प्रकाशमें लाकर उन्होंने इसका प्रचार व्यापक और सुगम बना दिया है। इति शम् । विनीत-- अलीगंज (एटा) 1 . कामताप्रसाद जैन, ११-२-१९३३। 5
संपादक "वीर" -552 र त्यवाद। प्रसिद्ध लेखक व इतिहासज्ञ श्री. बाबू कामताप्रसादजी जैनअलीगंजने अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थ रचे है, उनमें "संक्षिप्त जैन इतिहास मी एक है, जिसका प्रथम भाग हमने ६ वर्ष हुए प्रकट किया था और यह दूसरा भाग (प्रथम खंड) भी आज प्रकट किया जाता है । आपने इस ग्रन्थका संकलन अंग्रेजी, हिंदी व संस्कृत भाषाकी छोटी बड़ी जीव १०० पुस्ताका वाचन व मनन करके किया है, जिसके लिये खाप भनेकशः धन्यवादके पात्र है। ऐसे ऐतिहासिक अन्योंका सुलभ प्रचार करनेके लिये जिस प्रकार इसका प्रथम भाग " दिगम्बर जैन " के 25 वें वपके प्राहकोको भेट देनेके लिये प्रकट किया था उसी प्रकार वह दूसग भाग (प्र० खंड) भी 'दिगम्बर जैन के २५वे वर्षके ग्राहकों को भेंट देनेरे लिये व जो उसके ग्राहक नहीं है उनके लिये विक्रयार्थ भी निकाला गया है। भाशा है कि इसका अच्छा लाभ उठाया जायगा ।
प्रकाशका
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सौ० सविताबाई स्मारक
प्रस्थमाला नं० २.
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स्वर्गीय -
सौ० श्रीमती सविताबाई कापड़िया,
धर्मपत्नी, श्री मूलचंद किसनदासजी कापड़िया- सूरत । स्वर्गवास - सं० १९८६.
जन्म- सं० १९६४.
आपके स्मारक में २०००) स्थायी शास्त्रदान के लिये निकाले गये हैं जिनमें से " ऐतिहासिक स्त्रियां " नामक प्रथम ग्रन्थ गत वर्षमें प्रकट करके " दिगम्बर जैन "
व
" जैन महिलादर्श " के ग्राहकों को भेट स्वरूप बांटा गया था और इप स्मारक अन्थमाला का यह दूसरा पुष्प "दिगम्बर जैन " के २५ वें वर्षके ग्राहकों को भेंटमें दिया जाता है । भाशा है कि ऐसे स्थायी शास्त्रदानका अनुकरण अन्य श्रीमान व श्रीमती भी करेंगे ।
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- हसण।
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रईस, अलीगंज (एटा)
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पिताजी ! ह आपके अनुग्रहसे जो ज्ञान प्राप्त किया है।
उसके फल-स्वरूप यह भेंट आपके करकमलोंमें । ॐ सादर सविनय समर्पित है। आपका पुत्र
कामताप्रसाद
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विषय-सूची। .. -मालयन-जनधर्म का प्राकृत रूप, जैनधर्मको प्राचीनता.'
प्राचीन भारतका स्वरूप, तत्कालीन मुख्य राज्य ...: है. ३-शिशुनाग वंश-उत्पत्ति, उपश्रेणिक, श्रेणिक विम्बसार, अभयकुमार, मनातशत्रु, कुणिक; दर्शक,
उदयन, नन्दिवर्धन, महानन्दिन आदि .... ११ ३-लिच्छिविआदिगणराज-प्राचीन भारतमें प्रजातन्त्र, . लिच्छिवि, राना चेटक, शतानिक, दशरथ, उदयन,
चेलनी, वैशाली, ज्येष्ठा, चन्दना, शाक्य, मल्ल, गणराज्य २९ ४-मात्रिक क्षत्री और भ० महावीर-कोल्लाग, वज्जियन; : सिद्धार्थराना, त्रिशला, कुण्डयाम, म० महावीरका जीवनकाल, निन्य नैनी, भवरुद्र, मखलिगोशाल, पूर्णकाश्यप, आनीवक, गौतमवुद्ध, कौशलदेश, मिथिला, वैशाली, चंगा, धर्मघोप, सुदर्शन सेठ, मगध, पांचाल, कलिंग, वंग, मथुरा, दक्षिण भारत, रानवृताना,
गुनगत, पंजाब, काश्मीर आदिमें धर्मपचार, तृवंश १९ ५-चीर संघ और अन्य राजा-वीर संघके गगधा, गौतम,
अग्निभूति, वायुभूति, सुधर्माचार्य, यमराजा, मण्डिक पुत्र, मौर्यपुत्र, मकंपित, अचलवृत्त, प्रभास, शरिषेग,
चंदना मादि .... .... .... ११९ ६-तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति-तत्कालीन
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( ६ )
राज अवस्था, सामाजिक दशा, महिका महिमा, धार्मिक स्थिति, मुनि व आर्यिकाओं का धर्म, श्रावकाचार आदि १३८ ७- भ० महावीरका निर्वाणकाळ -वीर संवत, शकशालिवाहन, नहपान, विक्रम संवत् ८- अन्तिम केवली श्रीजम्बूस्वामी - चाल्यकाल, वीरता, वैराग्य, विवाह, सुनिनीवन, सर्वज्ञ दशा व धर्मप्रचार,
१५७.
...
श्वेताम्बर कथन
१७१
....
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१८.
....
९- नन्द वंश - नवनन्द, नंदिवर्धनं आदि ..... १० - सिकन्दर महानका आक्रमण और तत्कालीन जैन साधुभारतीय तत्ववेत्ता, दि० जैन साधु जिम्नोसोफिस्ट,
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1.3.
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3: सुनि मन्दनीस और कलोनस आदि ११ - श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य जैन संघका दक्षिण में प्रस्थान, श्वेतांबर पट्टावली, जैन संघ में भेद, श्रुतज्ञानकी विक्षिप्ति, खे० स्थूलभद्र, आदि २०१ १९ - मौर्य साम्राज्य - चन्द्रगुप्त मौर्य, सैल्यूकप, शासनप्रबंध, सामाजिक दशा, धार्मिक स्थिति, चन्द्रगुप्त जैन थे, चाणक्य, अशोक, कलिंग विजय, अशोककी शिक्षायें, अशोकके जन धर्मानुसार पारिभाषिक शब्द और उनके दार्शनिक सिद्धांत, अशोकका जैनधर्म प्रचार, शिलालेख व शिल्प कार्य, अंतिम जीवन, मशोक के उत्तराधिकारी, राजा साम्प्रति और जैनसंघ, सेठ. सुकुमाल, मौर्य साम्राज्यका अन्त, उपरांत कालके मौर्य वंशज, शुंग वंश
१००१ २१८
rep.
....
....
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oroccordeocacceso
प्रवद. मयके संकलनमें निम्न प्रयोसे. सधन्यवाद सहायता प्रहण की गई है, जिनका उल्लेख निम्न संकेतरूपमें यथास्थान किया गया है:
भध०= अशोकके धर्मलेख ' लेखक श्री० जनार्दन भर एम० ए० (काशी, सं० १९८०)। ___महिद भी हिस्ट्री ऑफ इन्डिया'-ले० सर विन्सेन्ट स्मिथ एम० ए० (चौथी आवृत्ति)।
भशोक = अशोक' ले० सर विन्सेन्ट स्मिथ एम० ए० ।।
आक: भाराधनाकपाकोप-२० नेमिदत्त (जनमित्र ऑफिस, बंबई २४४० वी० सं०)।
ऑजी०= ऑीविक्स.'-भाग १-डॉ० वेनीमाधव बारुआ० डी. लिट् (कलकत्ता १९२०)।
भास्०='भाचारात सूत्र- मूल. (श्वेताम्बर आगमपंथ).। .
ऑदिहबॉक्सफर्ड हिस्ट्री ऑफ़ इन्डिया-विन्सेन्ट स्मिथ. एम० ए०। इंऐ इंडियन, ऐन्टीकरी' (त्रैमासिक पत्रिका)। . इरिई 'इन्सायक्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथिक्म' हैदिराह। इसका इंडियन सेक. ऑफ दी बेन्स' बुल्हर ।
इंहिक्या 'इंडियन हिसटॉरीकल क्वार्टली-प्र० डॉ० नरेन्द्रनाथ लॉर कलकत्ता ।
उद०='वामगदखाओ मुत्त'-डॉ० हाणले (Bible. Indica) । . उप. व उ९ पु०- उत्तरपुराण-श्री गुणभद्राचार्य व पं० लालारामजी।
उसू०'उत्तरायपन सत्र-वेताम्बरीय भागममय) जाल कान्टियर (उपपला.)
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((),
"
एइ० एपिप्रेफिया इटिका' ।
एइमे• या 'मेएड०' - 'एन्दियेन्ट इन्डिया एज डिस्काइ बाई मंग
स्थनीज एण्ड ऐरियन' - ( १८७७) ।
एड्जै०= एन इपीटोम ऑफ जेनीज्म'-श्री पूर्णचन्द्र नाहर एम० ए० ।
एमिक्षा ०८ 'एन्शियेन्ट मिड- इंडियन क्षत्रिय ' -डॉ० विमलाचरण लॉ (कलकत्ता) ।
ऐरि०= 'ऐशियाटिक रिसचेंज' - सर विलियम जोन्स ( सन् १७९९ १८०९ ) ।
ऐइ० = एन्शियेन्ट इन्डिया एज डिस्काइन्ड बाद स्ट्रैबो, मैकक्रिन्टिल (१९०१) ।
कजाइनिंघम, जॉगरफी ऑफ एन्शियेन्ट ईन्डिया' - ( कलकत्ता १९२४ ) ।
कलिए हिस्ट्रो ऑफ कनारीज टिचर -६० पी० राइस (H. I. S.) 1921.
• कसू०='कल्पसूत्र' मूल (श्वेताम्बरीय आगम ग्रंथ ) । काले०=कारमाइकल रेक्चर्स-डॉ० डी० आर० माण्डारकर |
केहि 'कैम्ब्रिज हि ट्रो ऑफ इन्डिया' - ऐन्शियेन्ट इंडिया, भा० १ - पिसन सा० (१९२२) ।
गुसापरि०= गुजराती साहित्य परिषद रिपोर्ट- सातवीं । ( भावनगर सं० १९८२ ) ।
गौ० गौतम बुद्ध के० जे० सॉन्डर्स (H. I. S.)
• चंभम०= चंद्रगज भंडारी कृत भगवान महावीर ।'
-नविओोसो ०='जर्नल ऑफ दी बिहार एण्ड ओडीसा रिसर्च सोसाइटी । जम्बू०=जम्बूकुमारचरित (सूरत बीव्ह २४४० ) 1
मीसो० जर्नल ऑफ दी मीथिक सोसाइटी-बेंगलोर ।
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( ९ )
जराएखो० 'जरनल ऑफ दी रॉयल ऐसियाटिक सोसाइटी केन्दन । का ० = 'जैन कानून' - श्री० चम्पतराय जंन विद्यावा० (बिजनौर १९२८) अग०- 'जेनगेजेट' - अंग्रेजी ( मद्रास ) । जैप्र०='जैनधर्म प्रकाश'- ब्र० शीतलप्रसादजी ( बिजनौर १९२७) । जस्तू• 'जैनस्तूप एण्ड अदर एण्टीकटीज़ ऑफ मथुर्ग - स्मिथ । जैसांसं०= जैन साहित्य संशोधक-मु० जिनविजयजी ( पूना ) ।
>
सिमा ०= जैन सिद्धान्त भास्कर' - श्री पद्मराज जैन ( कलकत्ता ) । जैशिसं०= जैन शिलालेख संग्रह-प्रॉ० हीरालाल जैन (माणिकचन्द्र मम्यमाला ) ।
जेहि० जैन हितैषी' - सं० पं० नाथूरामजी व पं० जुगल किशोरजी (नई) जैस० ( JB.. ) जेन सूत्राज़ ( S. B. E. Series, Volso XXII & XLV.).
टॉग टॉइसा० कृत राजस्थानका इतिहास ( वेङ्कटेश्वर प्रेस) । डिजेया०८ ए डिक्शनरी ऑफ जैन बायोग्रफी - श्री उमरावर्धिह टॉक ( आरा) ।
तक्ष०= ए गाइड टू तक्षशिला - सर जॉन मारशल ( १९१८ ) । तत्वार्थ ० = 'तत्वार्थाधिगम् सूत्र' - श्री उमास्वाति (S. B. J. Vol. I)
विपं० तिोयपण्णति' - श्री यतिवृषभाचार्य (जेन हितैषी भा० १३ अंक १२)
S
P
'दिजे०=' दिगम्बर जैन ' मासिक पत्र- पं० श्री मूलचन्द किसनदास कापड़िया (सूरत) ।
दीनि ०= दीघनिकाय' (P. T. S. )
परि परिशिष्ट पर्व - श्री हेमचन्द्राचार्य ।
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प्राजैले १०= प्राचीन जैन लेखसंग्रह - कामताप्रसाद जैन (वर्धा) बचिओ मागाल, बिहार, ओड़िसा जैन स्मारक - श्रीमान् व शीतलप्रसादजी |
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बर्जेस्मा०=त्रम्बकं प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक त्र० शीतल प्रसादभी । बुद्द ब्रिट इन्डिया - प्रो० हीस डेविट्स ।
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सपा-मापान पार्श्वनाय-ले. कामताप्रसाद जैन (ra) मम आगवान महावीर-, , , (तो ममबु०मगवान महावीर और म.पुर-कामताप्रसाद जैन (सर०). ममी०सारक मीमांसा ( गुजराती)-पात । भाइभारतवर्ष का इतिहास-टीईश्वरीप्रसाद दी लिट् (प्रपाग १९५०) मामशोभशोक'-डॉ. भापकर (कलकत्ता)। भामारा०=भारतके प्राचीन राजवंश-श्री विशेश्वरनाथ रेत (देवई) । भामासह भारतकी प्राचीन सभ्यताका इतिहास-पर रमेशन पर। मजेह० मराठी जैन इतिहास। मनिन । महिमा मजिम निकाय P. T.s. ममेप्राजैस्मा०मदास मैसूरके प्राचीन जैन स्मारक- धीवत्पपादजी महा०=महावग (S. B. E, Vol. XVII ) .. मिलिन्द० मिलिन्द पन्ह (S. B.E, Vol. XXXV) मुरा-मुद्राराक्षस नाटक-इन दी हिन्दू दामेटिक वर्कस, विनधन । मुला-मूलाचार-वहकेरस्वामी (हिंदी भाषा सहित-वई). मेभशो अयोक-मैकफेल कृत ( R. I. S.)
मैयुम्मन्युल.ऑफ बुद्धिज्म-स्पेन हार्दी । - राजलकरण्ड श्रावकाचार-पं० पं. जुगलकिशोरजी (रई) ।
राह० राजपूतानेका इतिहास, भाग १-० व. पं. गौरीगर हीराचंद ओझा ।
रिहरिलीजन्स ऑफ दी इम्पायर-लन्दन)। लाऑम०-लाइफ ऑफ महावीर-ला. माणिकचंदनी (इलाहाराद) ।
लाभाइ० भारतवर्षका इतिहास-ला. लाजपतरायकृत (लाहौर)। ८. लाम लार्ड महादीर एण्ड अदर टीचर्स ऑफ हिज टाइम-नामवा. प्रसाद (दिल्ली)।
लावलाइफ एण्ड वस ऑफ बुद्धपोष-दॉ. विमलावरत लॉ (कलकत्ता)।
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दृधशाद .बन शब्दाव-पं० बिहारीलालश्री चैतन्य । विर०विद्वद्ग्लंगाला- नाथूरामजी प्रेमी (वंबई) । भव० वणवेलगोला, रा०प० प्रो० नासिंहाचार एम०ए० (मदार)। मेनाणिकचरित्र (सरत)। सकोसमक्व कौमुदी-(वम्बई)। पजे०पनातन पैनधर्म-अनु० कामताप्रसाद (कलकत्ता)। मुजेक्षित जैन इतिहास-प्रयम माग-कामताप्रमाद (सूरत) । सदिऔसम निस्टिन्गुइन जैन्स-उमरावसिंह टांक (आगरा) । संप्राजस्मा० मयुक्त प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक-प्र० शीतलप्रसादजी।
स्माइनस्टटीज इन पाउथ इन्डियन जैनीम-मो० रामास्वामी भागा ।
सस०सम्रन्ट अफचर और सूरीश्वर-मुनि विद्याविजयजी (भागरा) :
सक्षट्राएइम क्षत्री ट्राइभ इन एनिदायन्ट इन्दिपा-डॉ. विम. नावरणला।
साम्म पाम् भऑफ दी बदरेन । मुनि० मुत्तनिपात (S. B.E.)। हरित हरिवंशपुराण-भी जिनसेनाचार्य (कलकत्ता)। हॉहॉट ऑफ जैनीज्म-मिसेज स्टीवेन्सन (लंदन) । हिवाद. हिमारून
हिस्ट्री ऑफ दी आर्यन रूल इन इन्डिया हेवेल ।
मार दा भायन कला हिग्ली-हिस्टॉरीकल ग्लीनिनाम-डॉ. विमलाचरण लॉ० (कलकता). हिटे० हिन्दू टेल्प-जे० जे० मेयर्स ।। हिंद्राव०हिन्दू ड्रामेटिक वम-विलसन् ।
हिप्रीफि० हिस्ट्री ऑफ दी प्री-बुद्रिस्टिक इंडियन फिलॉस्फीबापमा ( कलकत्सा)
हिलिज० हिस्ट्री एण्ड लिट्रेचर ऑफ जनीजम-बारोदिया (१९०१)। हिवि०हिन्दी विश्वकोप-नगेन्द्रनाथ वसु (कलकत्ता)। सत्रीसन्मात्रीलन्स इन बुबिस्ट इंडिया-डॉ विमलाचरण लॉक।
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शुद्धयशुद्धिपत्र।
अशुद्ध
'पृष्ठ पंकि
... सक्षदाए ३०
शुद्ध पहला खण्ड (६००-१८८ ई.पूर्व)
सक्षटाए इ. उस देशका
उपदेशका .
६ ,
१४ २२
इस इत्यादि असन्ती अस्सके कारमहकल १०१८ शताब्दिक प्रसेनजी
इत्यादि भवन्ती अस्सक कारमाइकिल १९१८ शतानीक ਧਰ
संबंध मज्झिम.
धव
मज्झिम० स० .
७०६ २११-२१
१४
पाटील
स्वपवासदत्ता ३-अहिद रखनेवाली थी
थी। संस्था
२१ पृ. २१ पाटलि स्वासवदत्ता
३-ऑहिद रखनेवाले थे।
३२
२० १.
थी।
सभः
'३४ ५ परिधि में फैला बतलाया
१८ कोंब्लाग "४०८ द्वादशाडू
संख्या
भम० परिधिमें फैला बतलाता कोलाग द्वादशाम
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पृष्ठ
४४
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दशा सूत्र
सक्षट्राएइ०
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नन नहीं हुये थे । मतिज्ञान के
Js. I. P. 193
महावीर और
१८
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पृ० ३५
Anti.
Tirthakas
roformer
है।
श्रावस्ती
देखो ।
उद• Appendix
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घृष्ठ ७५
७६
८० ८१ ८२ ८३
प्रतिघोषित समय वर्णन महावीर पड़ने मान्य होगई
वीर . था। और वे नम रहे थे।
भा० ७.१
भम.
११२ ११४
पछि अशुद्ध २ । प्रतियोष्टित
समझ ३ वर्णनन
महावीर भी २७ पड़ने १९ होगई २० वर २ था।
भा०१ पृ. ५ भमबु० आत्मपिपसा
कायतोष २२ दीतिक २० ग्लैसेनाथ (Dev
जैविमोसो १७ वीर्थकरी १४ १५ तुंगिकाव्य २२
२२७ १६ ७ रोहकनगर
७-जैप्र० पृ. २२८ . पोमडम
गंगा नदियों २१ अंच २२ -(Pt. II
स्पिति ।
मात्मपिपासा कायतोय दीनिक ग्लसेनाप्प (Der जविमोसो तीर्थंकरों
११५ १२२ १२९
" १४३ १४९
तुंगिकास्य २२ ७४ रौरुकनगर ७-जैप्र० पृ० २३४ पोपटम गंगा आदि नदियो
१५१
अंच०
" " १५९
(Js. Pt. I . विधि -
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*18
१६१ १०
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पृष्ठ २१७
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अशोर की पापी ९ परायणके
परायन ૧૪ પ૦૬
पृष्ठ २६९ के फुटनोटका पहला लेक यहां परे। कम्मिन
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जैनविजय" प्रिन्टिग प्रेस, सपाटिया चम्ला-सूरत-में। ___मूलचन्द किसनदास कापडियाने मुद्रित किया।
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॥ ॐश्रीमहावीराय नमः ॥
संक्षिप्त जैन इतिहास
दूसरा भाग। ई० सन् पूर्व ६०० से ई० सन १३०४ तक
कायत नैनधर्म सनातन है | उसका प्रारूत रूप सरल सत्य है । जैन धर्मका उमका नामकरणही यह प्रगट करता है। जिन' प्राकृत रूप। शब्दसे उसका निकास है, जिसका अर्थ होता है 'जीतनेदाला' अथवा 'विनयी'। दूसरे शब्दों में विनयी वीरोंका धर्म ही जन धर्म है और यह व्याख्या प्रारूत सुसंगत है। प्रकृति, यह वात नैसर्गिक रीतिये दृष्टि पड़ रही है कि प्रत्येक प्राणी विनयाकांक्षा रखता है । वह जो वस्तु उसके सम्मुख आती है, उसपर अधिकार नमाना चाहता है और अपनी विजयपर आनन्द, नृत्य करनेको उत्सुक है। अबोध बालक भयानकसे भयानक वस्तुको अपने काबू में लाना चाहता है। निरीह वनस्पतिको ले लीजिये। एक घास अपने पासवाली घासको नष्ट करनेपर तुली हुई मिलती है । इस वनस्पतिमें भी अवश्य जीव है; परन्तु वह उस उत्कृष्ट दशामें नहीं है, जिसमें मनुष्य है। किंतु इतना होते हुये भी वह प्रतिके
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संक्षिप्त अन इनिहास । मटल नियमसे अपने नेससिंग स्वगाव-मदा विनयी रहनेची गावनासे वंचित नहीं है। अतएव विनयी होने धर्म प्रारत-अनादिनिधन और पूर्ण सत्य है।
किन्तु प्रश्न यह है कि मनुष्यको किस प्रकार विजय पाना है ? क्या निम वस्तुको वह अपने साधीन करना चाहे, उपके लिये युद्ध ठान दे ? नहीं, गनुप्येतर प्राणियों मनुःपमें गुट विशेषता है। उसके पास विवे बुद्धि है; जिसने यह मत्यासत्यका निर्णय कर सकता है । यह विशेषता अन्य जीवोंको नसीब नहीं है। इस विवेकबुडिके अनुसार उसे विजय मार्ग में अग्रसर होना निक है । और विवेक बतलाता है कि जो अन्याय है, गंगाई, बुरी वासना है, उसको परास्त करने के लिये क्षेत्र में माना मनुष्यगात्रका कर्तव्य है। ठीक, यही बात जैनधर्म सिखाता है। वह विनयीवीरों धर्म है। उसके चौबीस तीर्थचर वीरशिरोमणि सोशलके रत्न थे। उनने परमोल्लट ज्ञानको पाकर विनय-मार्ग निर्दिष्ट पिया था-मनुष्योंको बतला दिया था कि अनादिकालसे नीव मनीवके फंदेमें पड़ा हआ है। प्ररुतने चेतन पदार्थको अपने नाधीन बना लिया है। इस प्रकृतिको यदि परास्त कर दिया जाय तो पूर्ण विनयका परमानन्द प्राप्त हो । उसके लिये किसीका आश्रय लेना और पाया मुंह ताकना वृथा है । मनुप्य अपने परों लड़ा होवे और बुरी वासनाओं एवं व.पायों को तबाह करके विनयी वीर बन जाये। फिर वह स्वाधीन है। उसके लिये मानन्द ही मानद है। यह प्राकृत शिक्षा जैनधर्मकी अभेद्य प्राचीनताका पार न मिलने प्रर्याप्त उत्तर है।
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भावथना. 'संक्षिप्त जैन इतिहास' के प्रथमभागमें जैनधर्मके सैद्धान्तिक जैनकी प्राचीनता उल्लेखों एवं अन्य श्रोतोंसे उसकी अज्ञात ___ और बहु प्राचीनताका दिग्दर्शन कराया नाचुका
२४ तीर्थंकर । है। अतः उनका यहांपर दुहराना वृथा है। जैनधर्म जिस समय कर्मभूमिके इस कालके प्रारंभमें पुनः श्री ऋपभदेव द्वारा प्रतिपादित हुमा था, उस समय सभ्यताका अरुणोदय होरहा था। यह ऋषभदेव इक्ष्वाक्वंशी क्षत्री राजकुमार थे और हिन्दू पुराणोंके अनुमार वे स्वयंम् मनुसे पांचवीं पीढोमें हुये बतलाये गये हैं। उन्हें हिन्दू एवं बौद्ध शास्त्रकार भी सर्वज्ञ, सर्वदशी
और इस युगके प्रारम्भमें जैनधर्मका प्ररूपण करनेवाला लिखते हैं। हिन्दु भवतारों में वह आठवें माने गये हैं और संभवतः वेदोंमें भी उन्हींका उल्लेख मिलता है। चौदहवें वामन अवतारका उल्लेख निस्सन्देह वेदोंमें है । अतः वामन अवतारसे पहले हुये आठ अवतार ऋषभदेवका उल्लेख इन अनेन वेदों में होना युक्तियुक्त प्रतीत होता है। कुछ भी हो उनका इन वेदोंसे प्राचीन होना सिद्ध है । इन ऋषभदेवकी मूर्तियां आनसे ढाईहनार वर्ष पहले भी सम्मान और पृज्य दृष्टिसे इस भारतमहीपर मान्यता पाती थीं। इन्हीं ऋषभदेके ज्येष्ठ पुत्र सम्राट् भरतके नामसे यह देश भारतवर्ष कहलाता है।
ऋषभदेवके उपरान्त दीर्घकालके अन्तरसे क्रमवार तेईस तीर्थ. कर भगवान और हुये थे। उन्होंने परिवर्तित द्रव्य, क्षेत्र, कोल,
१-संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भागकी प्रस्तावना पृष्ट २६-३०। २-भागवत ५४, ५, ६ । ३-न्यायविन्दु अ. ३ व सतशास्त्र-'वीर' व ४ पृ. ३५३ । ४-हमारा, भगवान महावीर पृ० ३८ । ५-जवि.. मोसो० भा० ३ पृ. ४४७ ।
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४] संक्षिप्त जैन इतिहास । भावके अनुसार पुनः वही सत्य, वही निरापद विजयमार्ग नाकालोन जनताको दर्शाया था। इन तीर्थंकरोंमसे वीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथनीके तीर्थकालमें श्री रामचन्द्रनी और लक्ष्मणनी हुये थे। वाईपवें तीर्थकर नेमिनाथनीके समकालीन श्री कृष्णनी थे; जिनके साथ श्री नेमिनाथनीकी ऐतिहासिकताको विद्वान स्वीकार करने लगे हैं;" क्योंकि भगवान पार्श्वनाथजीसे पहले हुये तीर्थकरोंके अस्तित्वको प्रमाणित करनेके लिये स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण उपलळा नहीं हैं। किन्तु तो भी जैन पुराणोंके कथनसे एवं आनसे करीब ढाई तीन हमार वर्ष पहले बने हुये पाषाण अवशेषों मथच शिलालेखों व बौद्धग्रन्थों के उल्लेखोंसे शेप जैन तीर्थक्कों की प्राचीन मान्यता और फलतः उनके अस्तित्वका पता चलता है । तेईसवें तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथजीको अब हरकोई एक ऐतिहासिक महापुरुष मानता है और अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर नीके जीवनकालसे जैनधर्मका एक प्रामाणिक इतिहास हमें मिल जाता है। ___ यह मानी हुई बात है कि धर्मात्मा विना धर्मका मस्तत्व
__ नहीं रह सक्ता है। अतएव किसी धर्मका इतिजैन इतिहास।
हास उसके माननेवालोंका पूर्व-परिचय मात्र कहा जा सक्ता है । जैनधर्मके प्रातिपालक लोग जैन कहलाते हैं;
-इपीग्रेफिम इन्डिका मा० १ पृ० ३८९ व सक्षनाए इ० भूमिका पृ० ४ । २-मथुग कंकाली टीलेका प्राचीन जैन स्तूप आदि । ३-हाथीगुफाका शिलालेख-जविओसो. भा० ३ पृ. ४२६-४९० । ४-भ. महावीर और म० बुद्ध पृ. ५१ व ला० म.पृ० ३० । ५-हमारा भगवान पार्श्वनाथ' की भूमिका।
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[५
प्राक्कथन। जिनमें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र आदि सब हीका समावेश हुआ समझिये अर्थात जैन होते हुये भी प्रत्येक व्यक्तिकी जाति ज्योंकी त्यों रहती है, इसमें संशय नहीं है; यद्यपि किसी अजैनके जैनधर्ममें दीक्षित होते समय उसकी आनीविका-वृत्ति और रहनसहनके अनुसार उसको उपयुक्त जातिमें सम्मिलित किया जासकता है।
__ अतः जैनधर्म विषयक इस संक्षिप्त इतिहासमें जैन महापुरुपोका और जैनधर्म सम्बन्धी विशेष घटनाओंचा परिचय एवं उसका प्रभाव भिन्नर कालों में उस समयकी परिस्थितिपर सा पडा था. यह बतलाना इष्ट है। इसके प्रथम भागमें भगवान पार्श्वनाथनी तकका सामान्य परिचय प्रकट किया नाचुका है। इस भागमें भगवान महावीरजीके समयसे उपरान्त मध्यकालतबके जैन इतिहासको संक्षेप में प्रकट किया जाता है। प्रथम भागमें जैन भूगोलमें भारत- . वर्षका स्थान और उसका प्राकृतरूप आदिका परिचय कराया नाचुका है। .. सचमुच किसी देशकी प्राकृतिक स्थितिका प्रभाव अपनी भारतको प्राकृत खास विशेषता रखता है। उपदेशका इतिहास दशाका प्रभाव । ही उस प्रभावके दंगपर ढल जाता है। भारतके विषयमें कहा गया है कि उसकी प्राकृतिक स्थितिका सामाजिक संस्थाओं और मनुष्योंकी रहनसहन पर बड़ा प्रभाव पडा। धीरेन बड़ी बड़ी नदियोंके किनारे सुरम्य नगर बस गये जो कालान्तरमें व्यापारके प्रसिद्ध केन्द्र होगये । भूमिके उर्वरा होनेसे देश धन
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__संक्षिप्त जैन इतिहास । धान्यकी सदेव प्रचुरता रही /* इससे सम्यताके विज्ञासमें बड़ी सहायता मिली । जब मनुष्यका चित्त शान्त रहता है और जब किसी प्रकार उनका मन डांवाडोल नहीं होता तभी ललितकला, विज्ञान और उच्च कोटिक साहित्यका प्रादुर्भाव होता है। प्राचीन भारतवासियोंके जीवनको सुखमय बनानेवाले पदार्थ सुलभ थे !* इसीलिए उसकी सभ्यता सदैव अग्रगण्य रही। चारों ओरसे नुरक्षित होने के कारण भारतका अन्य देशोंसे विशेष सम्पर्क नहीं हुआ। फलतः यहां सामाजिक संस्थाएं ऐसी दृढ़ होगई कि उनके वन्वनोंका ढीला करना अब भी कठिन प्रतीत होता है। यहांक मूल निवासियोंपर बाहरी आक्रमणकारियों का कभी अधिक प्रभाव नहीं पडा । जो अन्य देशोंसे भी आये ने यहांकी जनता में मिल गये और उन्होंने तत्कालीन प्रचलित धर्म और रीतिरिवाजोंको अपना
-
* सम्राट् चन्द्रगुप्तके समयमें भारतमें आए हुए यूनानी लेखकोंक निम्न वाक्य इस खूषियों को अच्छी तरह प्रकट कर देते हैं। मेगस्थनीज लिखता है:-"भारतमें बहुतसे बड़े पर्वत है, जिनपर हर प्रकारके फल-फूल देनेवाळे वृक्ष वहुतायतसे हैं और कई लम्बे चौड़े उपजाऊ मैदान है; जिनमें नदियां बहती है। पृथिवीका वहुभाग जलसे सींचा हुआ मिलता है, जिससे फसल भी खूब होती है।...भारतवासियोंके जीवनको मुखमय वनानेवाली सामग्री सुलभ है, इस कारण उनका शरीर गठन भी उत्कृष्ट है और वह अपनी सम्मानयुक्त शिक्षा-दीक्षाके कारण सवमें अलग नजर पड़ते हैं । ललित कलाओंमें भी वे विशेष पटु है । फलोके अतिरिक्त भूगर्भसे उन्हें सोना, चांदी, ताम्बा, लोहा, इत्यादि धातुएँ भी बाहुल्यतासे प्राप्त हैं। इसीलिये कहते है कि भारतमें कभी अकाल नहीं पड़ो और न यहां खाद्य पदार्थकी कठिनाई कभी अगाढ़ी आई।"
-क्रिन्डल, ऐन्शियेन्ट इन्डिया, पृ० ३०-३२.
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माझयन।
लिया। अपने देशमें सब प्रकारकी सुविधा होने के कारण भारतवासियोंने सांसारिक विषयों को छोड़कर परमार्थकी ओर अधिक ध्यान दिया। यही कारण है कि प्राचीन कालमें आध्यात्मिक उन्नति अधिक हुई और हिन्दु समाजमें अदभुत तत्वज्ञानी हुए I+ ___इस स्थितिसे कतिपय विद्वान् भारतकी कुछ हानि हुई खयाल करते हैं । उनका अनुमान है कि देशकी प्रचुर सम्पत्तिसे आकर्षित होकर मनेकवार विदेशियोंके भारतपर आक्रमण हुए और उसमें उनने खूब अंधाधुंधी मचाई। उपरोक्त स्थितिके कारण भारतवासी उनका मुकाबिला करने के लिये पर्याप्त बलवान न रहे; किन्तु उनके इस कथनमें, ऐतिहासिक दृष्टिसे, बहुत ही कम तथ्य है । तत्त्वज्ञानकी अद्भुत उन्नति भगवान महावीर और म० बुद्ध के समयमें खुब हुई थी। उससमय देशके एक छोरसे दूसरे छोरतक आध्यास्मिक भावोंकी लहर दौड़ रही थी; किन्तु उससे लोगोंमें भीरताका समावेश नहीं हुआ था। यह जीवके अमरपनेमें दृढ़ विश्वास रखते थे और यही कारण था कि अन्तिम नन्दराजाके समयमें हुए सिकंदर महानके आक्रमणका भारतीयोंने बड़ी वीरताके साथ मुकाबला किया था। यहांतक कि भारतीय सेनाकी दृढ़ता और तत्परता .देखकर युनानी सेनाके आसन पहलेसे भी और ढीले होगये थे।
फलतः सिकन्दर अपने निश्चयको सफल नहीं बना सका था। इसके उपरान्त चन्द्रगुप्त मौर्य ने उस ही आध्यात्मिक स्थितिके मध्य निस सत्साहसका परिचय दिया था, वह विद्वानोंके उपरोक्त कथनको सर्वथा निर्मूल कर देता है। सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्यने यूनानि. * भारतवर्षका इतिहास पृ० १९.
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८ ]
संक्षिप्त इतिहास |
योंको भारतवर्षकी सीमाओंसे बाहर निकाल दिया था और यूनानियोंसे अफगानिस्तान वर्ती एरियाना प्रदेश भी ले लिया था । यूनानी राजा सेल्यूकसने विनम्र हो अपनी कन्या भी चन्द्रगुप्तको भेंटकर दी थी । इस प्रकार जबतक तत्त्वज्ञानकी लहर विवेक भावसे भारतवसुंधरा पर बहती रही, तबतक इस देशकी कुछ भी हानि नहीं हुई, किन्तु ज्योंही तत्त्वज्ञानका स्थान साम्प्रदायिक मोड़ और विद्वेषको मिलगया, त्योंही इस देशका सर्वनाश होना प्रारंभ होगया । हूण अथवा शकलोगोंके माक्रमण, जो ऊपरान्त भारतपर हुये उनमें उन विदेशियोंको सफलता परस्पर में फैले हुये इस साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण ही मिली। और फिर पिछले जमाने में मुसलमान, आक्रमणकारी राजपूतोंपर पारस्परिक एकता और संगठन के अभाव में विजयी हुये । वरन् कोई नहीं कह सक्ता है कि राजपूतों में वीरता नहीं थी । अतएव व्याध्यात्मिक तत्त्वके बहुप्रचार होने से इस देशकी हानि हुई ख्याल करना निरीह भूल है ।
1
आजसे करीब ढाई हजार वर्ष पहिले भी भारतकी आकृति प्राचीन भारतका और विस्तार प्रायः आजकल के समान था ।
स्वरूप । सौभाग्य से उससमय सिकन्दर महान के साथ आये हुये यूनानी लेखकों की साक्षी से उस समय के भारतका आकारविस्तार विदित होजाता है | मेगास्थनीज कहता है कि उस समयका भारत समचतुराकार (Quadrilateral ) था । पूर्वीय और दक्षिणीय सीमायें समुद्र से वेष्टित थीं; किन्तु उत्तरीयभाग हिमालय पर्वत (Mount Hemodos ) द्वारा शाक्यदेश ( Skythia ) से प्रथक कर दिया गया था। पश्चिम में भारत की सीमाको सिंधुनदी
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प्राक्कथन।
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प्रकट करती थी, जो उस समय संसारभरमें नीलनदीके मतिरिक्त सबसे बड़ी मानी जाती थी।
सारे देशका विस्तार अर्थात पूर्वसे पश्चिमतका ११४९ मील और उत्तरसे दक्षिणतर १८३८ मील था। यह वर्णन भारतकी वर्तमान आकृतिसे प्रायः ठीक बैठता है । जिस प्रकार भारत आन एक महाद्वीप है, उसी प्रकार तब था। आज ' इस देशकी उत्तरी स्थलसीमा १६०० मील, पूर्वपश्चिमकी सीमा लगभग १२०० और पूर्वोत्तर सीमा लगभग ९०० मील है । समुद्रतटका विस्तार लगभग ३५०० मील है ।' कुल क्षेत्रफल १८,०२,६५७ वर्गमील है। हां, एक बात उस समय अवश्य विशेष थी और वह यह थी कि चन्द्रगुप्त मौर्यने यूनानी राना सेल्यूकसको परास्त करके अफगानिस्तान, बांधार आदि पश्चिम सीमावर्ती देश भी भारतमें सम्मिलित कर लिये थे। ___ भारतके विविध प्रान्तोंमें परस्पर एक दूसरेसे विभिन्नता पाई
जाती है और यहांके निवासी मनुष्य भी सब भारतकी एकता।
एक नसलके नहीं हैं। मेगस्थनीज भी बतलाता है कि भारतकी वृहत मारुतिको एक ही देश लेते हुये, उसमें अनेक और भिन्न जातियों के मनुष्य रहते मिलते हैं; किन्तु उनमेंसे एक भी किसी विदेशी नसलके वंशन नहीं थे। उनके आचारविचार प्रायः एक दूसरेसे बहुत मिलते जुलते थे। इसी कारण यूनानी भी सारे देशको एक ही मानते थे और सिकन्दर महानकी अभिलापा भी समग्र देशपर अपना सिक्का जमानेकी थी। भारतीय
१-मैए इ. पृ० ३०१२-पूर्व पृ० ३५ ।
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१०.] संक्षिप्त जैन इतिहास। राजा-महाराजा भी सारे देशपर अपना नाधिपत्य फैलाना आवश्यक समझते थे। सारांशतः प्राचीनकाल से ही भौगोलिक दृष्टिसे सारा देश एक ही समझा जाता रहा है । अब भी यह बात ज्योंकी त्यों है। भारत एक देश है और उसकी मौलिक एकता भाव यहाँके निवासियोंमें सदा रहा है। किन्तु इस मौलिक एकताके होते हुये भी, जिस प्रकार वर्तमान में भारत भनेक प्रान्तोंमें विभक्त है, उसी प्रकार भगवान महावीरजीने समय में भी बंटाहमा था। इस समय
और उस समय भारतकी राजनैतिक परिस्थितिमें बड़ा भारी अंतर यह था कि आज समृचा भारत एक साम्राज्य के अन्तर्गत शासित है, किन्तु उस समय यह देश भिन्नर राजाओंके माधीन अथवा प्रजातंत्र संघोंकी त्रछायामें था। हां, अशोक मौत्रके समय भबश्य. ही प्रायः सारा भारत उसके आधीन होगया था।
म. गौतमबुद्ध जन्मके पहिलेसे भारत सोलह राज्यों में तत्कालीन मुख्य विभक्त था; किन्तु जैनशास्त्र बतलाते हैं कि
राज्य। इन सोलह राज्योंके मस्तित्वमें आनेके जरा ही पहिले सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् ब्रह्मदत्तके समयमें भारत साम्राज्य एक था और उसकी राज्य व्यवस्था सम्राट ब्रह्मदत्तके आधीन थी। सम्राट् ब्रह्मदत्तका घोर पतन उसके अत्याचारों के कारण हुमा और उसकी मृत्युके साथ ही भारत साम्राज्य तितर-वितर होकर निम्नलिखित सोलह राज्यों में बंटगया:
(१) अङ्ग-राजधानी चम्पा; (२) मगध-राजधानी रामगृह; (३) काशी-रा. पा० बनारस; (४) कौशल (आधुनिक नेपाल)रा० श्रावस्ती; (५) वज्जियन-रा: वैशाली; (६) मल्ल-रा. पावा
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प्राक्कथन।
[११ और कुसीनारा; (७) चेतीयगण-उत्तरीय पर्वतोंमें अवस्थित था; (८) वन्स या वत्स-० कौशाम्बी; (९) कुरु-इन्द्रप्रस्थ; इसके . पूर्वमें पाञ्चाल और दक्षिणमें मत्स्य था । रस्थपाल कुरुवंशी सरदार
थे: (१०) पाञ्चाल-कुरुदेशके पूर्वमें पर्वतों और गंगाके मध्य अवस्थित था और दो विभागोंमें विभक्त था; रा० घा० कापिल्य और कन्नौज थीं; (११) मत्स्य-कुरुके दक्षिणमें और जमनाके पश्चिममें थाः (१२) सुरसेन-जमनाके पश्चिममें और मत्स्य के दक्षिण-पश्चिममें था रा० मथुरा; (१३) अस्सक-असन्तीसे परे, रा० धा० पोतली या पोतनः (१४) अवन्ती-रा० उज्जयनी; ईसाकी दूसरी शताब्दि तक भवन्ती कहलाई; किन्तु ७वीं, वीं शताब्दिके उपरान्त यह मालवा कहलाने लगी; (१५) गान्धार-मानका कान्धारहै-० तक्षशिला, राजा प्रवकुसाति और (१६) कम्बोज-उत्तर-- पश्चिमके ठेठ छोरपर थी, राजधानी द्वारिका थी।
किन्तु उपरान्त म० गौतमबुद्धके जीवनकालमें कौशलका अधिकार काशीपर होगया था; अङ्गपर मगधाधिपने अधिकार जमा लिया था और मस्तके लोग संभवतः अवन्तीके आधीन होगये थे। इसप्रकार उस समयके भारतकी दशा थी। इनमें मगधराज्य प्रमुख था
और 'शिशुनागवंश के राजा वहां राज्य करते थे। उससमय जैन धर्मके अतिरिक्त वैदिक और बौद्धधर्म विशेष उल्लेखनीय थे। उससमय यहांके निवासियों की संख्या आनसे कम या ज्यादा थी, यह विदित नहीं होता; किन्तु आज भारतकी जनसंख्या तीसकरोड़से अधिक है, जिसमें सिर्फ १२०९२३५ जैनी हैं।
१-सुबिस्ट इंडिया पृ० १३ । २-भप०, पृ. ६२ ।
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संक्षिप्त जैन इतिहास |
शिशुनाग वंश ।
( ई० पूर्व ६४५ से ई० पूर्व ४८० )
ईसा से पूर्व छठी शताब्दिमें भारत में सबै प्रमुख राज्य मगशिशुनागवंशकी घड़ा था और इसी राज्य के परिचयमे भारतका उत्पत्ति । एक विश्वसनीय इतिहास प्रारम्भ होता है । उस समय यहांका राज्यशासन शिशुनागवंशी क्षत्री राजाओंके अधिकार में था । इस वंश की उत्पत्तिके विषय में कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में यहां चन्द्रवंशी क्षत्रियोंका शासनाविकार था; किन्तु इस युद्ध में श्रीकृष्णके हाथसे जरासिन्धुके मारे जानेके उपरान्त जव जरा सिन्धुका अंतिम वंशज रिपुंजय मगधका राजा था, तब इसके मंत्री शुकनदेवने वि० सं० से ६७७ वर्ष पूर्व उसे मारडाला और अपने पुत्र प्रद्योतनको मगधका राजा बना दिया था। प्रद्योतनके वंशजोंमें वि० सं०के ६७७ वर्ष पूर्व से ५८५ वर्ष पूर्व-तक पालक, विशाखयूष, जनक और नन्दिवर्द्धनने राज्य किया । इनके पश्चात् इस वंशके पांचवें राजा शिशुनाग नामक हुये थे ।
१२ ]
यह राजा बड़ा पराक्रमी, प्रतापी और ऐसा लोकप्रिय था कि बगाड़ी यह वंश इसीके नामपर 'शिशुनागवंश' के नाम से प्रसिद्ध -हुआ | जैनशास्त्रोंसे इस वंशका भी क्षत्री होना सिद्ध है । वि० सं० के १८९ वर्ष पूर्वसे ४२३ वर्षं पूर्वतक ( ई० पूर्व ६४२ से ४८०) तक राजा शिशुनागसे इस वंशमें निम्नप्रकार दश राजा हुए थे:- (१) शिशुनाग, (२) काकवणे या शाकपर्ण, (३) धर्मपण, (४) क्षत्रौन (क्षेमति, क्षेत्रज्ञ, या उपश्रेणिक), (९) श्रेणिक-
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[ १३
शिशुनाग वंश | बिम्बसार (विन्ध्यसार, विन्दूमार या विधिसार ), (६) कुणिक या अजातशत्रु, (७) दरभक (दर्शक, हर्षक या वंशक ); (८) उदयाध (उदासी, अजय, उदयी, उदयन् या उदयभद्र०); (९) नन्दिवाई न (अनुरुद्ध या मुंड) और (१०) महानन्दि | १
राजा क्षत्रौ अथवा उपश्रेणिक प्रसिद्ध सम्राट् श्रेणिक बिम्ब
eatre Rar सारके पिता थे । यह मगधके छोटेसे राज्यपर क्षत्रौजस अथवा उपश्रेणिक । शासन करते थे और इनकी राजधानी प्राचीन राजगृह थी । शिशुनाग वंशके यह चौथे राजा थे और बड़े धर्मात्मा एवं शूरवीर थे । जैन शास्त्र कहते हैं कि इन्होंने आसपास के. राजाओं को अपने आधीन बना लिया था । उस समय चन्द्रपुरका राजा सोमशर्मा अपने पराक्रमके समक्ष अन्य सबको तुच्छ गिनता था, किन्तु महाराज उपश्रेणिकने उसे भी परास्त कर दिया था । चन्द्रपुर के निकट ही बताया गया है। इस राजाने उपश्रेणिककी भेंट में एक घोड़ा भेजा था। वह घोड़ा एक दिवस उपश्रेणिकको भीलोंकी एक पछी में ले पहुंचा था जहां भील राजा यमदंडकी कन्या तिलकवती रूपलावण्यपर वह मुग्ध होगये थे और उसके पुत्रको राज्याधिकारी बनानेका वचन देकर उन्होंने उसे अपनी रानी बनाया था। इन तिलकावती से चिलातपुत्र नामक पुत्र हुआ था ।
- वृजेश०, पृ० १६७ यह वर्णन संभवतः हिन्दू पुराणों के आधारसे है | जैनग्रन्थों में इस वंशका परिचय उपश्रेणिकसे मिलता है । २-श्रेणिक चरित्र पृ० २० । ३ - आराधना कथाकोष भा० ३ पृ० ३३ ।
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संक्षिप्त जैन इतिहास । किन्तु राजा उपश्रेणिककी पट्टरानी इन्द्राणी नामक क्षत्री
कन्या थी। उनके गर्भसे सम्राइ श्रेणिक विषश्रेणिक विश्वसार।
सारका जन्म हुमा था | उपश्चेणिकके पश्चात् मगधराज्यके अधिकारी श्रेणिक महाराज ही हुए थे; यद्यपि महाराज उपश्रेणिकके देहांत होनेके पश्चात् नाम मात्रको कुछ दिनोंके लिये मगध के राज्य सिंहासन पर चिलात पुत्र भी आसीन हुआ था। किन्तु उसके अन्यायसे दुखी होकर प्रजाने श्रेणिक विवस्तारको राज्य सिंहासन पर बैठाया था। चिलातपुत्र प्राण लेकर भागा और मार्गमें वैभार पर्वतपर मुनिसंघको देख वह वहां पहुंचकर दत्तमुनि नामक आचार्यसे मैन साधुनी दीक्षा लेकर तपश्चरणमें लग गया था। वह शीघ्र ही इस नश्वर शरीरको छोड़कर सर्वार्थसिहि नामक विमानमें देव हुआ। इधर सम्राट् श्रेणिक विम्बसार राज्याधिकारी हुए और नीति पूर्वक प्रजात्रा पालन करने लगे थे। भारतीय इतिहासमें यही पहिला राना है, जिसके विषयमें कुछ ऐतिहासिक वृत्तांत मालूम हुमा है।
जिस समय चिलातपुत्रको उपश्णिकने राजा बनाया था, शेणिका प्रारंभिक उस समय उन्होंने श्रेणिकको देशसे निर्वासित
जोबना कर दिया था। अनेक शास्त्रों और क्षत्रीधर्मकी • प्रधान शस्त्र विद्यामें निपुण वीर श्रेणिक, पिताकी आज्ञाको ठीक रामचन्द्रनीकी तरह शिरोधार्य करके अपनी जन्मभूमिको छोड़कर चले गये थे। वह. वेणपद्म नामक नगरमें पहुंचकर सोमशर्मा नामक ब्राह्मणके यहां अतिथि रहे थे। सोमशर्माकी युवा पुत्री नन्दश्री
१-आक: भा० ३ पृ० ३६ ॥
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शिशुनाग वंश |
[१५
इनके गुणोंपर मुग्ध होगई थी और अन्तमें उसका विवाह महाराज श्रेणिक के साथ होगया था । ईसी नन्दश्रीसे श्रेणिकके ज्येष्ठ पुत्र समयकुमारका जन्म हुआ था ।
श्रेणिकके राजसम्पन्न होनेके पश्चात् दक्षिण भारत के केरल नरेश मृगांने अपनी कन्या विलासवतीका विवाह भी उनके साथ कर दिया था | चौडोंके तिब्बतीय दुखमें शायद इन्हीं का उल्लेख वासवीके नामसे हुमा है; जहां वह एक साधारण लिच्छविनायक की पुत्री और श्रेणिक के दूसरे पुत्र कुणिक अजातशत्रुकी माता प्रगट की गई है किन्तु यह कथन बौद्धोंके पाली ग्रन्थोंकी मान्यतासे बाधित है। पाली ग्रन्थोंमें कहीं उन्हें वैशालीकी वेश्या आम्रपा
के गर्म और श्रेणिक औरससे जन्मा वतलाया है और कहीं उन्हें उज्जनीकी वेश्या पद्मावती की कोख से जन्मा लिखा है । ऐसी दशामें उनके कथन विश्वास करने के योग्य नहीं हैं । मातृम ऐसा होता है कि कुणिक मजातशत्रु अपने प्रारंभिक और अंतिम जीवनमें जनधर्मानुयायी था और वह चौद्ध संघके द्रोही देवदत्त नामक साधुके बहकावे में आगया था, इन्हीं कारणोंसे बौद्धोंने साम्प्रदायिक विद्वेषवश ऐसी निराधार व भर्त्सना पूर्ण बातें उनके सम्बंध में लिख मारी हैं | वरन् स्वयं उन्हींके ग्रन्थोंसे प्रगट है कि मजातशत्रु
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१ - श्रेणिक चरित्र (१०६१) नंदश्रीको वेदय इन्द्रदत्त सेटोकी पुत्री लिखा है, किन्तु उससे प्राचीन 'उत्तरपुराण' में वह चह्मण कन्या बताई गई है । उ० पु० पृ० ६२० | २ - ० च० पृ० ९९ । ३ - हमारा
"
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भगवान महावीर पृ० १३८ व क्षत्री केन्स० पृ० १२५-१२८ | ४- कहिल, लाइफ ऑफ दी बुद्र, पृ० ६४ । ५-दी साम्स ऑफ दी सिस्टर्स, पृ० १० ।
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१६]
संक्षिप्त जैन इतिहास। विदेहकी राजकुमारीका पुत्र था, जो वैदेही-चेलना अथवा श्रीमद्रा या भद्रा कहलाती थी। कुणिक भी अपनी माताकी अपेक्षा 'वैदेही पुत्र' के नामसे प्रख्यात था। जैन शास्त्र भी चेलनीको वैशाली के राजा चेटककी पुत्री बतलाते हैं।
चेलनी भगवान महावीरकी मौसी थी। निा समय चेल. नीका विवाह सम्राट् श्रेणिय के माथ हुआ था, उसममय वह बौद्ध था; किन्तु उपरांत महागणी चेलनी प्रयत्नसे वह जनधर्मानुयायी हुआ था। बौद्ध धर्मके लिये उन्होंने कुछ विशेष कार्य नहीं किया था और वह बहुत दिनों तक बौद्ध म्हे भी नहीं थे; यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थों में उनका उल्लेख कठिनतासे मिलता है । महाराणी चेलनीके अतिरिक्त कौशलकी एक गनकुमारी भी मनाट् श्रेणिककी पत्नी थीं। किन्तु इन सबमें पटरानी (महादेवी )का पद चेलनीको ही प्राप्त था। चेलनी जैनधर्मकी परम भक्त थी और जैनधर्मकी प्रभावनाके लिये इसने अनेक कार्य किये थे। इसके अनातशत्रुके अतिरिक्त छ पुत्र और हुये थे; अर्थात् (१) ननातशत्रु (कुणिक वा अक्रूर ), (२) वाणि , (३) हल्ल, (४) विदल, (६) जितशत्रु, (६) गजकुमार (दंतिकुपार) और (७) मेषकुमार | किंतु इनका मौसेरा भाई अभयकुमार इन सबसे बड़ा था और वह जैन मुनि होनेके पहले तक युवराज रहा था। ___ अजातशत्रुकी बहिन गुणवती नामकी थी और दूसरी मौसेरी
१-भ० म० पृ. १४३ । २-३० पु०, पृ० ६३४ ० निर्यावली सुत्रमें भी उन्हें राजा चेटककी पुत्री लिखा है। Gs., Vol xxu, Intro. pp. XIII. ३-भ० म० पृ० १३४-१५१ ।
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शिशुनाग वंश। [१७ बहिन महागणी विलासवतीकी पुत्री पद्मावती थी। गुणवतीका विवाह उज्जैनीके प्रसिद्ध और विशेष गुण संपन्न वैश्य पुत्र धन्यकुमार के साथ हुआ था । गुणवती स्वयं धन्यकुमारके गुणोंपर मुग्ध हुई थी और अन्ततः उसको उत्तम कुलका पाकर सम्राट् श्रेणिकने गुणवतीका पाणिग्रहण श्रेष्टी पुत्रके साथ कर दिया था। श्वेतांबरानायके ग्रन्थों में श्रेणिककी दश रानियां बताई गई हैं, जिन्होंने चन्दना माथिकाके निकट शास्त्र अध्ययन किया था । ( ४ म०) इनके पुत्र पौत्र जैन मुनि हुये थे। • जिस प्रकार सम्राट् श्रेणिकका कौटुंबिक जीवन आनन्दमय
श्रेणिक विम्बसार और था, उसी प्रकार उनकी राजनीति कुशाग्र· अन्य राज्य । ताके कारण उनका नाजनैतिक जीवन भी गौरव पूर्ण था। महाराज उपश्रेणिकने मगध राज्यके निकटवर्ती छोटे
राजाओंको अपने आधीन कर लिया था। सम्र श्रेणिकने उनसे • अगाडी बढ़कर निकटके अंगदेशको जीत लिया और उसे अपने
राज्यमें मिला लिया। मगध राज्यकी उन्नतिका सूत्रपात इसी अंगदेशकी जीतसे हुआ और इस कारण श्रेणिक विम्बसारको यदि मगध साम्राज्यका सच्चा संस्थापक कहें तो अनुचित नहीं है। ___अंगदेश उससमय आजकलके भागलपुर और मुंगेर जिलोंके बराबर था और वहाँका शासन कुणिक मनातशत्रुके सुपुर्द था। श्रेणिक विम्बप्तारका एक अन्य युद्ध वैशालीके राजा चेटकसे भी
-वृहद् जैन शब्दार्णव, भा० १ पृ. २५ व १६७ । २-धन्यकु. मार चरित पर्व ६ म. इंऐ० भा० २० पृ. १८ । ३-अहि इ० . पृ. ३३॥
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२८] संक्षिप्त जैन इतिहास । हुआ था; किन्तु उसका अन्त परस्परमें सन्धि होकर होगया था।' कहते हैं कि इसी सन्धिके उपरान्त श्रेणिकका विवाह कुमारी चेकजीके साथ हुआ था। सम्राट श्रेणिक विम्बसारने अपने बढ़ते हुए राज्यबलको देखकर ही शायद एक नई रानपानी-नवीन रानगृहकी नींव डाली थी। उनने अपने पड़ोसके दो महाशक्तिशाली राज्योंकौशल और वैशालीसे सम्बन्ध स्थापित करके अपनी राजनीति 'कुशलताका परिचय दिया था-इन सम्बन्धों से उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा अधिक बढ़ गई थी।
माधुनिक विद्वानों का मत है कि सम्राट विम्बसारने सन ई. से पूर्व ५८२ से ५५४ वर्ष तक कुल २८ वर्ष राज्य किया था। किन्तु बौद्ध ग्रन्थोंमें उन्हें पन्द्रह वर्षकी अवस्थामें सिंहासनारूढ़ : होकर ५२ वर्ष तक राज्य करते लिखा है। (दीपवंश ३-५६-१०) 'वह म० बुद्धसे पांच वर्ष छोटे थे {* फारस (Persin) का वादशाह दारा (Darias) इन्हींका समकालीन था और उसने सिंधुनदीवर्ती प्रदेशको अपने राज्यमें मिला लिया था। किन्तु दाराके उप
रांत चौथी शताब्दि ई० ५०के मारम्भमें जब फारसका. साम्राज्य 'दुर्बल होगया, तर यह सब पुनः स्वाधीन होगये थे। इतनेपर भी इस विजयका प्रभाव मारतपर स्थायी रहा। यहां एक नई लिपि
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१-कारमाइकल लेवचर्स, १०१८, पृ० ७१। २-अहिइ०, पृ. ३३ । . ३. अध०, ५० ४ । ४-ऑदिइ०, पृ० ४५१
* मि० काशीप्रसाद जायसवालने श्रेणिकका राज्य काल ५१ वर्ष • (६०१-५५२-ई० पूर्व ) लिखा हे ३. कौशांपोंके -परन्तप शताब्दिक व
श्रावस्तीके प्रसेनजी समकालीन राजा थे । जीव ओसो भा०.१ पृ.१४॥
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शिशुनाग वंश। . [१९ जिसे खरोष्टी लिपि कहते हैं, प्रचलित होगई और यहां के शिल्प पर भी फारसकी कलाका प्रभाव पड़ा था।
सम्राट श्रेणिकके राज्य सत्र में जनों का कहना है कि उनके राज्य करते समय न तो राज्यमें किसी प्रकारको अनीति थी और न किसी प्रकारका भय ही था, किन्तु प्रना अच्छी तरह सुखानुभव करती थी।'
जैनधर्मके इतिहास में श्रेणिक विम्बसारको प्रमुख स्थान प्राप्त है। श्रेणिक विदसार भगवान महावीर के समोशरण (मभागृह) में वह जैन थे और उनका मुख्य श्रोता थे। जैनोंकी मान्यता है कि यदि
धार्मिक जीवन । श्रेणिक महाराज भगवान महावीरजीसे साठ हनार प्रश्न नहीं करते, तो आन जैनधर्मका नाम भी सुनाई नहीं पड़ता ! किंतु अभाग्यवश इन इतने प्रश्नों से . मान हमें अति मरुप संख्यक प्रश्नों का उत्तर मिलता है । प्रायः जितने भी पुराण अन्य मिलते हैं, वह सब भगवान महावीरके समोशरणमें श्रेणिक महारान द्वारा किये गये प्रश्न के उत्तरमें प्रतिपादित हुये मिलते हैं। जैनाचार्याची इस परिपाटीसे महाराज श्रेणिककी जैनधर्म में जो प्रधानता है, वह स्पष्ट होजाती है। श्रेणिक महारानको चौह अपने धर्मका अनुयायी बतलाते हैं; किंतु बौद्धों का यह दावा उनके प्रारमिक' जीवनके सम्बन्धमे ठीक है। अवशेष जीवनमें वह पक्के नैनधर्मानुयायी थे। यही कारण है कि बौद्ध ग्रंथों में उनके अंतिम जीवन के विषयमें घृणित और कटु वर्णन मिलता है, जैसे कि हम अगाडी देखेंगे। ___ जन श्रेणिक महारानको जैनधर्ममें दृढ़ श्रदान होगया था,
-भाइः पृ० १४॥ २-स० म०, १२ १३८-१४ ।'
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A
१०] संक्षिप्त जैन इतिहास । तब उन्होंने जैनधर्म प्रभावनाके लिये अनेक कार्य किये थे। जब जब भगवान महावीरका समोशरण राजगृहके निकट विपुनाचल पर्वत पर पहुंचा था, तब तब उन्होंने राजदुन्दुभि वनवाकर सपरिचार और प्रजा सहित भगवानकी वन्दना की थी। उन्होंने कई एक जन मंदिर बनवाये थे । सम्मेदशिखर पर जो जन तीर्थंकरों के समाधि मंदिर और उनमें चरणचिह्न विराजमान हैं, उनको सबसे पहिले फिरसे सम्राट् श्रेणिकने ही बनवाया था। इनके सिवाय जैनधर्मके लिये उन्हों और क्या २ कार्य किये, इपको जानने के लिये हमारे पाम पर्याप्त साधन नहीं है । तो भी जैन शास्त्रों के मध्ययनसे उनके विशेष कार्यों का पता खुब चलता है और यह स्पष्ट होजाता है कि इस राजवंशमे जैनधर्मकी गति विशेष थी। श्रेणिरुके पुत्रों से कई भगवान महावीरके निकट जैन मुनि होगये थे। सम्राट् णिक क्षायिक सम्यग्दृष्टी थे परन्तु वह व्रतों का अभ्यास नहीं कर सके थे। इपपर भी वह अपने धर्मप्रेमके अटूट पुण्य प्रतापसे आगामी पद्मनाम नामक प्रथम तीर्थकर होंगे। ऊपर कहा जाचुका है कि सम्रद श्रेणिकके ज्येष्ठ पुत्र अभ
___यकुमार थे और वही युवराज पदपर रहकर युवराज अभयकुमार।
""बहुत दिनोंतक राज्यशासनमें अपने पिताका हाथ बटाते रहे थे । फलतः मगधका गज्य भी बहार दूग्नक फैल : गया था। अपने पिताके -समान अभयकुमार भी एक समय बौद्ध थे किंतु उपरान्त वह भी जैनधमके परमभक्त हये थे। बौद्धग्रन्थसे
१-स्व विन्सेन्ट स्मिथ साहबने उन्हें एक जैन राजा प्रगट किया है। महिइ. पृ० ४५ । २-ऐशियाटिक सोसाइटी जर्नल, जनवरी १८२४ व म०म० पृ० १४७। ३-भाइ०, पृ० ५४ ।
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शिशुनाग वंश। भी पता चलता है कि वह अवश्य ही भगवान महावीरजीके परमभक्त और श्रद्धालु थे; किंतु उनके इस कथनमें तथ्य नहीं दिखता कि वह बौद्ध भिक्षु होगये थे। हां, जैन ग्रंथोंसे यह प्रकट है कि मपने प्रारंभिक जीवनमें अभयकुमार अवश्य चौद्ध रहे थे । अमयकुमार आजन्म ब्रह्मचारी रहे थे । वह युवावस्थामें ही उदासीन वृत्तिके थे । उनने इस वातकी कोशिश भी की थी कि वह जल्दी जैन मुनि होना; किन्तु वह सहसा पितृ आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सके थे। गृहस्थ दशामें उनने श्रावकोंके व्रतोंका अभ्यास किया था और फिर अपने माता-पिताको समझा बुझाकर वह जैन मुनि होगये थे। अपने पिता के साथ वह कईवार भगवान महावीरजीके दर्शन कर चुके थे और उनके निकटसे अपने पूर्वभव सुनकर उन्हें जैनधर्ममें श्रद्धा हुई थी। अभयकुमार अपनी बुद्धिमत्ता और चारित्र निष्ठाके लिये रानगृहमें प्रख्यात थे।
श्वेतांबरीय शास्त्रोंका कथन है कि गृहस्थ दशामें अभयकुमारने अपने मित्र एक यवन राजकुमारको, जिसका नाम भद्रिक था, जैनधर्मका श्रद्धानी बनाया था। इस माकने एक भारतीय
१५-महिम० म० मा० १ पृ० ३९२ । २-भमबु०, पृ० १९११९४ । ३७-अच०, पृ. १३७१ ४-हिजेवा०, पृ० ११ व ९१ वेक · सूत्रतांगमें इनको लक्ष्य करके एक व्याख्यान लिखा गया है। (S.B. 'E., XLV., 400). यह यवन बताये गये है, जिससे भाव यूनानी : अथवा ईरानी (Persian) के होते हैं। हमारे विचारसे इसका ईरानी
होना ठीक है, क्योंकि उस समय ईशन (फारसं ) का ही धनिष्ठ सम्पर्क भारतसे था और जैन मंत्री राक्षसके सहायकोंमें भी फारसका नाम है, मुरा • ५६।
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२२]
संक्षिप्त जैन इतिहास। महिलाके साथ विवाह किया था और पश्चात वह भी जैन मुनि होगया था । अभयकुमारने भगवान महावीर के मुख्य गणघर.इन्द्र. मृति गौतमके निकट जैन मुनिकी दीक्षा ग्रहण की थी और अंतमें को नाश करके विपुलाचल पर्वतपरसे वह अव्याबाष मोक्षसुखको प्राप्त हुये थे। __ अभयकुमारके जैन मुनि हो जानेके उपरान्त युवराज पद श्रेणिकका अन्तिम कुणिक अजातशत्रुको मिला था। किन्तु जीवन और अजातशत्रु वह इस पदपर अधिक दिन मासीन नहीं बौद्धले फिर जैन। रह सका। श्रेणिन महाराज अपनी बुद्ध अवस्था देखकर आत्महित चिन्तनाने शीघ्र ही व्यस्त हुए थे। एक रोज उन्होंने अपने सामन्तोंको इकट्ठा किया और उनकी सम्मतिपूर्वक बड़े समारोहके साथ अपना विशाल राज्य युवराम कुणिक • मजातशत्रुको देदिया । वे नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करने लगे थे। उधर सम्राट श्रेणिक एकान्तमें रहकर धर्मसाधन करनेमें संलग्न
हुए थे। यह घटना ई० पू० सन् १९४ में घटित हुई अनुमान "झी जाती है और चूंकि भगवान महावीरका निर्वाण ई-पूर -सन.५४५ में हुआ था, इसलिये भगवानके जीवनकालमें ही
श्रेणिकाचा मन्तिम जीवन व्यतीत हुआ प्रगट होता है। कुणिक अजातशत्रुके राज्याधिकारी होनेके किंचित-काल पश्चात ही उनका व्यवहार श्रेणिक महाराजके प्रति बुरा होने लगा था जिनशाल .हते हैं कि पूर्व वैरके कारण अजातशत्रुने उनको काठेके पौनरेनें
बंद कर दिया और वह उन्हें मनमाने दुःख देने लगा था। किन्तु । 1-अप्र पृ० १३० । २-अहिइ०, पृ० ३६॥
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[२३
शिशुनाग वंश। बौड ग्रंथोंसे पता चलता है कि उसने यह दुष्ट कार्य देवदत्त नामक एक चौदसंघद्रोही साधुके बहकानेसे किया था।
कुणिक अजातशत्रुका सम्पर्क बौद्ध संघसे उस समयसे था, नब वह राजकुमार ही था । और ऐसा मालूम होता है कि इस समय वह बौद्धभक्त होगया था और अपने पिताको कष्ट देने लगा था क्योंकि वह जनधर्मानुयायी थे। अपने जीवन के प्रारंभमें मनातशत्रु भी जन था; यही कारण है कि उनको बौद्धग्रंथों में तब सब दुष्कर्मोका समर्थक और पोषक' लिखा है। बौद्ध अंथोंमें जनोंसे घोर स्पर्दा और उनको नीचा दिखानेका पद पदपर अविश्रान्त प्रयत्न किया हुआ मिलता है। ऐसी दशामें उनके कथनको यद्यपि साम्प्रदायिक मत पुटिके कथनसे अधिक महत्त्व नहीं दिया जातक्ता । तो भी उक्त प्रकार कुणिकका पितृद्रोही होना इसी क्टु साम्प्रदायिकताका विषफल मानना ठीक जंचता है। यही कारण है कि वौडग्रंथ श्रेणिक महाराज के विषयमें मन्तिम परिणामका कुछ उल्लेख नहीं करते । किन्तु इस ऐतिहासिक घटनाका मन्तिम परिणाम यह हुमा था कि कुणिकको
अपनी गल्ती सूझ गई थी और माताके समझानेसे वह पश्चात्ताप " करता हुमा अपने पिताको बन्धन मुक्त करने पहुंचा किन्तु श्रेणिकने उसको और कुछ अधिक कष्ट देने के लिये माता जानकर अपना
1-मम०, पृ० १३५-१५३ । २-भमबु०, परिशिष्ट और केहि ६० पृ० १६१-१६३ । ___ * हि १० १० १८४ वेताम्बरों के निर्यावलीसूत्र में इस घटनाका वर्णन है । इंए• भा० २११० २१ । ।
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२४] संक्षिप्त जैन इतिहास । अपघात कर लिया था। इस हृदयविदारक घटनासे वह बड़ा दुखी हुआ और वरवश अपने हृदयको शांति देकर राज्य करने लगा किन्तु महाराणी चेलनी रानमहलोंमें अधिक न ठहर सकी थीं। उन्होंने भगवान महावीरजीके समोशरणमें जाकर मार्यिका चन्दनाके निकट दीक्षा ग्रहण करली थी।' ___ उधर अनातशत्रुका भी चित्त बौद्धधर्मसे फिर चला था। और जब भगवान महावीरके निर्वाण हो जानेले उपरान्त, प्रमुख गणघर इन्द्रभूति गौतम, श्री सुधर्मास्वामी के साथ विपुलाचलपर्वतपर आकर विराजमान हुये थे, तब उसने सपरिवार श्रावकके व्रत ग्रहण क्रिये थे। ऐसा मालूम होता है कि इसके थोड़े दिनों बाद ही वह संसारसे बिरकुल विरक्त होगये, और अपने पुत्र लोकपाल (दर्शक). को छोटे भाई नितशत्रुके सुपुर्द करके स्वयं जैन मुनि होगये थे। उनका देहान्त ५२७ ई० पू०में हुआ प्रगट किया गया है और यह समय इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मास्वामीसे मिलकर उनके जैन धर्म धारण करने आदि घटनाओंसे ठीक बैठता है; क्योंकि इन्द्रभूति गौतमस्वामी भगवान महावीरके पश्चात केवल बारह वर्ष और जीवित रहे थे।
१-श्रेच०, पृ. ३६१ व वृजेश० पृ० २५ । २-उपु०, पृ० ७०६ व केहिइ०, पृ० १६१ । ३-वृजेश०, पृ० २५ ।
४-अहिद०, पृ० ३९-किन्तु मि० जायसवाल कुणिकका राज्यकाल ३४ वर्ष ( ५५२-५१८ ६० पू०) बताते हैं; जो ठीक जंचता है । (जविओसो० भा० १ पृ० ११५)। .
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शिशुनाग वंश।
[२५ , कुणिक अजातशत्रु अपने समयका एक बड़ा राना था। इसके दुणिक अज्ञातशत्रुके राज्यकालको मुख्य घटनायें यह बतलाई राजकोलको मुख्य जाती हैं कि-(१) कौशलदेशके रानाके
। साथ अजातशत्रुका युद्ध हुमा था; जिसमें कौशलनरेशने अपनी वहिनका विवाह करके मगधातिपतिसे मैत्री कर ली थी। किन्तु मालूम ऐसा होता है कि इस मैत्रीके होते हुए भी कौशलपर मगधका सिक्का जम गया था; (२) अजातशत्रुने वैशाली (तिरहुत) पर भी भाक्रमण किया था और उसे अपने राज्यमें मिलाकर वह गंग और हिमालयके वीचवाले प्रदेशका सम्राट बन गया था। मि० जायसवाल वैशालीकी विजय ई० पूर्व ५४० में निर्दिष्ट करते हैं । (जविओसो० भा० १४० ११५) श्वेतांबर शास्त्र कहते हैं कि इस संग्राममें वैशालीकी ओरसे ९ मल्ल, ९ लिच्छवि और ४८ काशी कौशलके गणराजाओंने भाग लिया था। (ईऐ० भा० २११-२१) (३) उसने सोन और गंगा नदियोंकि संगमपर पाटीलग्रामके समीप एक किला भी बनवाया था, जिससे उपरान्तके प्रसिद्ध नगर पाटलिपुत्र के जन्मका सूत्रपात होगया था।
और () यह भी कहा जाता है कि उसके समयमें शाक्य क्षत्रि-योगा, जो महात्मा गौतमवुद्धके वंशन थे, बुरी तरह नाश हुमा
थी। मथच उसने जैनधर्मको विशेष रीतिसे अपनाया था, यह पहले ही बतलाया जाचुका है। बौद्ध न होकर वह खासकर एक
१-अदि० ३७-३८. श्वेताम्बर प्रेप कहते हैं कि कुणिकके भाहकों दिच्छवियोंने उसे नहीं दिया था इस कारण युद्ध हुआ था। इऐ० मा० २१० २१ । २-महिद पृ. ३६ और कहिद० पृ. १६३ । ।
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२६] संक्षिप्त जैन इतिहास । जैन राजा था। उसके राज्यमें जैनधर्मका खूब विस्तार हुआ था।'x
कुणिककी एक मूर्ति भी मिली है और विद्वानों का अनुमान है कि उसकी एक बांह टूटी थी । यही कारण है कि वह 'कुणिक' कहलाता था ( जविओतो. भा० १ पृष्ठ ८४ ) कणिक राज्यकालमें सबसे मुख्य घटना भगवान महावीरजीके निर्वाण लाभको घटित हुई थी। इसी समय अर्थात् १४५ ई० पूर्वमें अवन्तीमें पालक नामक राजा सिंहासनपर आसीन हुमा था। म० बुद्धका स्वर्गवास भी लगभग इसी समय हुआ था। (जविओप्सो० भाग १ पृष्ठ ११५)
कुणिक अजातशत्रुके पश्चात मगधके राज्य सिंहासनपर उसका दर्शक और पुत्र दर्शक मथवा लोकपाल अधिकारी हुआ था। 'उदयन् । “किन्तु इसके विषयमें बहुत कम परिचय मिलता है। 'स्वप्नवासदत्ता' नामक नाटकसे यह वत्सराज उदयन् और उनैतीपति प्रद्योतनके समकालीन प्रगट होते हैं। प्रद्योतन्ने इनकी कन्याका पाणिग्रहण अपने पुत्रसे करना चाहा था। दर्शकके बाद ई० पू० सन् .६९३में अजातशत्रुका पोता उदय अथवा उदयन् मगधका राजा हुआ था। उसके विषयमें कहा जाता है कि उसने पाटलिपुत्र अथवा कुसुमपुर नामक नगर बताया था । इस नगर में
उसने एक सुंदर जैनमंदिर भी बनवाया था, क्योंकि उदयन भी . अपने पितामहकी भांति जैनधर्मानुयायी था। कहते हैं कि नैनधर्मक
xकहिं पृ. १६१ अजातशत्रुने अपने शीलवतन्नामकरभाईको भी बीवधर्मविमुख बनाने के प्रयल किये थे। (मसाब२६/) ३-अहि०, पृ० ३९ ॥ ३ महि० पू० ४८ -हिलि १० ११०४३॥
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शिशुनाग वंश। प्रति उसका विशेष अनुराग ही उसकी मृत्युका कारण हुमा था। एक राजकुमार जिसके पिताको उदयनने राजभ्रष्ट कर दिया था, राजमहलमें एक जैनमुनिका वेष भरकर पहुंचा था और उसने इसको मार डाला था । यह घटना भगवान महावीरके निर्वाणसे साठ वर्षे वाद घटित हुई अनुमान की गई है। भगवान महावीरका निर्वाण ई० पूर्व ५४५ में माननेसे, दर्शकका राज्य ई० पू० ५१८ से ४८३ तक और उदयनका ४८३ से ४६७ तक प्रमाणित होता है । ( नविओसो० भाग १ पृष्ठ ११६)
हिन्दु पुराणों के अनुसार उदयन के उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धन नाल्टिन और और महानन्दिन थे; किन्तु उनके विषयमें
महानन्दिन्। विशेष परिचय नन्दवंशके इतिहासमें है। उनके नामों में 'नन्दि' शब्दको पाकर, कोई २ विद्वान उन्हें नन्दवंशका अनुमान करता है.। उपरान्तके श्वेताम्बर ग्रंथ भी इस बातका समर्थन करते हुए मिलते हैं। उनमें लिखा है कि उदयन्के. कोई पुत्र नहीं था; इप्सलिये एक नन्द नामक व्यक्तिको जो एक नाईके सम्बन्धसे वेश्या पुत्र था, लोगोंने राजा नियत किया था। इसका रानमंत्री कल्पक नाम जैनधर्मका बढ़ श्रद्धानी थी। किन्तु इस कथाको सत्य मान लेना कठिन है। मालम ऐसा होता है कि
हिन्दु पुराणों में महानन्दिनकी शूद्र वर्णकी (संभवतः नाइन ) एक . रानीके गर्भसे महापद्मनन्दका जन्म हुआ लिखा है, उसी आधारसे शिशुनागवंशका अंत उदयनसे करके उपरोक्त कथाकारने नन्द
नामक व्यक्तिको वेश्यापुत्र लिख मारी है किन्तु उदयगिरिके हाथी--केहिहं० पृ० १६४ । २-अहिह पृ० ११।३-हिछि जे०पू०४३॥
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२८] संक्षिप्त जैन इतिहास । -गुफावाले शिलालेखमें निस नन्दका उल्लेख आया है, उसे श्रीयुत काशीप्रसाद जायसवालने नन्दिवर्द्धन ही बतलाया है। इसलिये वे नन्दराजाओंको दो भागोंमें (१) प्राचीन (२) और नवीन नन्द रूपमें स्थापित करते हैं।
नन्दिवर्डन भी जैनधर्म भक्त प्रतीत होते हैं; क्योंकि कलिङ्ग विजय करके वहांसे वह एक जैन मूर्ति भी लाये थे और उसे उनने सुरक्षित रक्खा था। कनिमें उनने एक नहर भी बनवाई थी। अजातशत्रु, उदयन और नन्दिवर्द्धनकी मूर्तियां भी मिली हैं, जो कलकत्ते और मथुगके मनायबघरमें रक्खी हुई हैं। इससे इन रानाओंका विशेष प्रभावशाली होना प्रकट है। नन्दिवईनके द्वारा मगधराज्यकी उन्नति विशेष हुई दृष्टि पड़ती है, कि उसका आधिपत्य कलिङ्ग देशतक व्याप्त होगया था। महानन्दिनुके सम्बन्धमें कुछ अधिक ज्ञात नहीं होता। यद्यपि यह प्रकट है कि उसकी शूद्रा रानीसे महापद्मनन्दका जन्म हुआ था, जिससे नंदवंशकी उत्पत्ति हुई थी और वह मगधराज्यका अधिकारी हुआ था।
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,' १-जविभोसो, भा० ४ पृ. ४३५।
. २-जबिओमो०, भाग ४ पृ० ४६३ । ". . रेजविभोसो०, भाग १ पृ. ८८-१६६ भा० ६ पृ. १७३।
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‘लिच्छिवि आदि गणराज्य। [२९. लिच्छिवि आदि गणराज्छ ।
ई० पू० ६ वीं शताब्दि। उस समय जिस प्रकार उत्तरीय भारतमें मगधपाम्राज्य अपने जीरो स्वाधीन और पराक्रमी राजाओं के लिये प्रसिद्ध
प्रजातंत्र राज्य। था, उसी प्रकार गणराज्यों अथवा प्रजातंत्र राज्योम वैशालीका लिच्छिवि वंश प्रधान था। यह बात तो आज स्पष्ट ही है कि प्राचीन भारतमें प्रजातंत्र राज्य थे। हिंदुओंके महाभारतमें ऐसे कई राज्योंचा उल्लेख आया है। बौडोंकी जात कथाओंमें भी उससमय ऐमी राजसंस्थाओंकी झलक मिलती है। नैनों के शास्त्र भी इस बातका समर्थन करते हैं। इन प्रजातंत्र राज्योंकी राज्य व्यवस्था नागरिक लोगोंकी एक सभा द्वारा होती थी, निसका निर्णय वोटों द्वारा होता था। तिनके डालकर सब सभासद वोट देते थे और बहुमत सर्वमान्य होता था । वृद्ध और अनुभवी पुरुषोंको राज्य प्रबंधक कार्य सौंपे जाते थे और उन्हीं से एक प्रभावशाली व्यक्ति सभापति चुन लिया जाता था । यह सब राना कहलाते थे।
वैशाली के लिच्छिवि क्षत्रियों का राज्य ऐसा ही था। उस-- वैशाली के लिच्छिाव समय इनके प्रजातंत्र राज्यमें आठ नातियां क्षत्रियों को प्रजातंत्र सम्मिलित थीं। विदेहके क्षत्री लोग भी
राज्य । इस प्रनातंत्र राज्यमें शामिल थे, जिसकी राजधानी मिथिला थी। लिच्छिवि और विदेह राज्योंका संयुक्त
-माइ०, पृ० ५८-५९ । २-श्वे० कल्पसूत्र (१२०) में काशीकौशल, लिच्छवि और मल्लिक गणराज्यों का उल्लेख है। दि. जैन ' शानोंसे भी यह सिद्ध है । भमबु० पृ० ६५-६६ |
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३०] संक्षिप्त जैन इतिहास । गणराज्य 'वृजि अथवा वज्जि' नामसे भी प्रसिद्ध था। इस राज्यमें सम्मिलित हुई सब जातियां आपसमें बड़े प्रेम और स्नेहसे रहती थी, जिसके कारण उनकी आर्थिक दशा समुन्नत होनेके साथ २ एता ऐसी थी कि जिसने उन्हें एक बड़ा प्रभावशाली राज्य बना दिया था। मगधके बलवान राना इनपर वहत दिनोंसे आंख लगाये हुये बैठे थे किन्तु इनकी एकताको देखकर उनकी हिम्मत पस्त -होजाती थी। अंतमें मगध के राजा अजातशत्रुने इन लोगोंमें आपसी फूट पैदा करा दी. थी और तब वह इनको सहज ही परास्त कर सका था। ऐक्य अवस्थामें उनका राज्य अवश्य ही एक मादर्श • राज्य था वह प्रायः आजकलके प्रजातंत्र ( Republic ) राज्यों के
समान था । जहांगर लिच्छिवि-गण दरबार करते थे, वहाँपर उनने . 'टाउनहॉल' बना लिये थे, जिन्हें वे 'सान्यागार' कहते थे।
वृजि-राजसंघमें जो जातियां सम्मिलित थीं, उनमें से सदस्य चुने जाकर वहां भेजे जाते थे और वहां बहुमतसे प्रत्येक आवश्यक कार्यका निर्णय होता था। बौद्ध ग्रन्थ इस विषयमें बतलाते हैं कि पहिले.उनमें एक 'भासन पश्चाप' (आसन-प्रज्ञापक) नामक अधिकारी चुना जाता था, जो अवस्थानुसार आगन्तुकों को मापन बतलाता था। उपस्थिति पर्याप्त हो जानेपर कोई भी भाव• श्यक प्रस्ताव संघले सम्मुख लाया जाता था। इस क्रियाको 'नाति' (ज्ञाप्ति) कहते थे।. नात्तिके पश्चातः प्रस्तावकी
मंजूरी ली जाती थी अर्थात उसपर विचार किया जावे या नहीं। • यह प्रश्न एक दफेसे-तीन दफे तक पुछा जाता था। यदि
१-माइ पू. ५९ ।
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लिच्छिवि आदि गणराज्य। उसपर विचार करके सव सहमत होते थे, तो वह पास होजाता था, किन्तु विरोधके होनेपर वोट लेकर निर्णय किया जाता था। अनुपस्थित सदस्यका वोट भी गिना जाता था। इन दरवारोंकी कारवाई चार-चार सदस्य (रामा) अंकित करते जाते थे। इनमें नायक अथवा चीफ मजिस्ट्रेट होते थे, जो राज्यसत्ता सम्पन्न कुलोंद्वारा चुने जाते थे। इन्हीं के द्वारा दरबार में निश्चित हुए प्रस्तावोंको कार्यरूपमें परिणत किया जाता था। इनमें मुख्य राना (सभापति), उपराजा, भण्डारी, सेनापति आदि भी थे । इनका न्यायालय भी विलकुल मादर्श ढंगका था; नहां दृषका दूध और पानीका पानी करनेके लिये कुछ उठा न रक्खा जाता था।
वृद्धि संघमें सर्व प्रमुख लिच्छिविक्षत्री थे। यह वशिष्ट गोत्रके लिच्छिविक्षत्रियोंका इक्ष्वाकुवंशी क्षत्री थे। इनका लिच्छिवि
सामान्य परिचय। नाम कहांसे और कैसे किस काल में पड़ा, इसके जानने के लिये विश्वास योग्य साधन प्राप्त नहीं हैं किंत इतना स्पष्ट है कि निससमय भगवान महावीर इस संसारमें विद्यमान थे और धर्मका प्रचार कर रहे थे, उस समय वे एक उच्चवंशीय क्षत्री
माने जाते थे। अन्यान्य क्षत्री उनसे विवाहसम्बन्ध करने में अपना : ___ चड़ा गौरव समझते थे । भगवान महावीरके पिता भी इन्हीं कि गण
राज्य अर्थात 'वनिरानसंघ' में सम्मिलित थे। लिच्छिवि एक परिश्रमी, पराक्रमी.और. समृद्धिशाली.जाति होने के साथ ही साथ धार्मिक रुचि और भावको रखनेवाली थी। - यह.लोग बड़े दयालु और परोपकारी थे। इनकी शरीर. आकति भी सुडौल और सुन्दर -१-भम० पृ५७-६३ ।।
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३२] संक्षिप्त जैन इतिहास। . थी। यह लोग अलगर रंगके कपड़े और सुन्दर बहुमूल्य आभूषण पहिनते थे। उनकी घोड़ेगाड़ियां सोनेकी थीं। हाथीकी अम्बारी सोनेकी थीं और पालकी भी सोनेकी थीं। इससे उनके विशेष समृद्धिशाली और पूर्ण सुख सम्पन्न होने का पता चलता है। किन्तु ऐसी उच्च ऐहिक अवस्था होते हुये भी वे विलासिताप्रिय नहीं थे। उनमें व्यभिचार छूता भी नहीं गया था। उन्हें स्वाधीनता बड़ी प्रिय थी। किसी प्रकारकी भी पराधीनता स्वीकार करना, उनके लिये सहन कार्य नहीं था।
भगवान महावीर उनके साथी और नागरिक ही थे, जिन्होंने प्राणी मात्रकी स्नाधीनताका उच्च घोष किया था । भला जब उनके मध्यसे एक महान् युगप्रधान और अनुपम तीर्थङ्करका जन्म हुआ था, तब उनके दिव्य चारित्र और अद्धत उन्नतिके विषयमें कुछ अधिक कहना व्यर्थ है । हिंसा, झूठ. चोरी आदि पापोंका उनमें निशान नहीं था। वे ललितकला और शिल्पको खूब अपनाते थे। उनके महल और देवमंदिर अपूर्व शिल्पकार्यके दो दो और तीन तीन मंनिलके बने हुये थे। वे तक्षशिलाके विश्वविद्यालयमें विद्याध्ययन करनेके लिये जाते थे।
यद्यपि लिच्छवि लोगोंमें यक्षादिकी पूना पहलेसे प्रचलित लिच्छवि क्षत्री थी; परन्तु जैनधर्म और बौद्ध धर्मकी गति भी. जैनधर्मके परम उनके मध्य कम न थी। जैनधर्मका अस्तित्व
उपासक थे। उनके मध्य भगवान महावीरके बहुत पहलेसे । था। भगवान महावीरके पिता राना सिद्धार्थ और उनके मामा राजा
१-भम पृ०.५७-६३ । २-पर रमेशचंद्र दत्तका "भारत वंशकी सभ्य वाका इतिहास"-भम. पृ०६५क्षत्री फ्लैन्न०, पृ० ८२ व फैदिइ० पृ०१५७।.
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लिच्छिवि आदि गणराज्य। [३३. चेटक भैनधर्मानुयायी थे और भगवान महावीरसे पहले हुये तीर्थदूरोंकी उपासना करते थे, इनके अतिरिक्त और लोग भी नैनी थे: किन्तु भगवान महावीर के धर्म प्रचार करनेपर उनमें जैनधर्मको. प्रधानता प्राप्त हुई थी। बड़ेर रानकर्मचारी भी जैनधर्मानुयायी थे।
वन्जियन संघके प्रमुख राजा चेटकके अतिरिक्त सेनापति सिंह, लिच्छिवि अभयकुमार और आनन्द आदि प्रसिद्ध व्यक्ति जैनधर्मके परमाक्त थे । सेनापति सिंह संभवतः राजा चेटकके पुत्रोंमेंसे एक थे। यह भगवान महावीरके अनन्य उपासक थे। बौद्ध धर्मकी अपेक्षा जनधर्मकी प्रधानता लिच्छवियों में अधिक थी। लिच्छिवि राजधानी वैशालीमें जैनधर्मके अनुयायी एक विशाल संस्था थे । म गौतमबुद्धके वहां कईवार अपने धर्ममा प्रचार करनेपर भी जैनोंकी संख्या अधिक रही थी; यह बात बौद्धोंके 'महावग्ग' नामक ग्रंथमें सेनापति सिंहके कथानकसे विदित है। वजन संघकी राजधानी वैशाली, उस समय एक बड़ा
प्रसिद्ध और वैभवशाली नगर था। कहते वैशाली अथवा हैं कि वह तीन भागों में विभक्त था अर्थात्
विशाला। (१) वैशाली, (२) वणियग्राम और (३) कुण्डग्राम | कुण्डग्राम भगवान महावीरका जन्मस्थान था और उसमें ज्ञात्रिक क्षत्रियोंकी मुख्यता थी। वैशालीकी विशालताके - १-भमबु० पृ० २३१-२३६ । २-भभ०, पृ. ६५ व वीर, भा० ४ पृ० २७६. श्वेताम्बर आनायके ग्रन्थों में स्पष्टतः भगवान महावीरका जन्म सम्बन्ध पैशालीसे प्रकट किया हुआ मिलता है। जैसे सुत्रकृताङ्ग (१, २, ३, २२), उत्तराध्ययन सूत्र (
६७) घ भगवती सूत्र ( २१ १२६२) में भगवानका उल्लेख वैशालीय या वैशालिक रूपमें हुआ है;
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३४] संक्षिप्त जैन इतिहास । कारण ही उसका नामकरण 'विशाला' हुआ था। चीनी यात्री ह्यन्तुसांग वैशालीको २० मीलकी लम्बाई-चौड़ाईमें बसा बतला गया था। उसने उसके तीन कोटों और भागों का भी उल्लेख किया है। वह सारे वृज्जि देशको ५००० ली (करीब १६०० मील) की परिधिमे में फैला बतलाया है और कहता है कि यह देश बड़ा सरसन था। आम, केले आदि मेवोंके वृक्षोंसे भरपूर था। मनुष्य ईमानदार, शुभ कार्योंके प्रेमी, विद्या के पारिखी और विश्वासमें कभी कट्टर और कभी उदार थे। वर्तमान के मुजफ्फरपुर जिलेका वसाद ग्राम ही प्राचीन वैशाली है।
उपरान्तके जैनग्रंथों में विशाला अथवा वैशाली को सिंधु देशमें
जिससे भगवानका वैशालीके नागरिक होना प्रकट है। अभयदेवने मगवतीसूत्रकी टीकामें :विशाला' को महावीर जननी लिखा है। दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें यद्यपि ऐसा कोई प्रकट उल्लेख नहीं है, जिससे भगवानका सम्बन्ध शालीसे प्रकट होसके; परंतु उनमें जिन स्थानोंके जैसे कुण्डग्राम, कुलग्राम, चनषण्ड आदिके नाम आए हैं, वे सब वशालोके निकट ही मिलते है । वनषण्ड श्वेताम्बरों का 'दुइपलाश उज्जान' अथवा 'नायपण्डवन उज्जान' या 'नायपण्ड' है। कुलग्रामसे भाव अपने कुम्के ग्रामके होसक्ते हैं अथवा कोब्लागके होंगे, जिसमें नाथवंशी क्षत्री अधिक थे और जिसके पास ही वनपण्ड उद्यान था, जहां भगवान महावीरने दीक्षा ग्रहण की थी। अत: दिगम्बर सम्प्रदायके उल्लेखोंसे भगवानका जन्मस्थान कुण्डग्राम वैशालीके निकट प्रमाणित होता है और चूंकि राजा सिद्धार्थ ( भगवान महावीरके पिता) वैशालीके राजघमें शामिल थे, जैसे कि हम प्रगट करेंगे, तव वैशालीको उनका जन्मस्थान कहना अत्युक्ति नहीं रखता। कुण्ड पाम वैशालीका एक भाग अथवा सनिवेश ही था। - १-क्षत्री"क्लैन्स० पृ. ४१ व ५४.
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लिच्छिवि आदि गणराज्य । [३५ अवन्धित बतलाया है; किन्तु यह भ्रामक उल्लेख कवि कालिदासके "श्री विशालमविशालम्" वाश्यके कारण हुआ प्रतीत होता है क्योंकि कालिदासनीने यह वाक्य उनी के लिये व्यवहृत किया था और वह अवश्य ही सिंधु-नद-वर्ती प्रदेशमें अवस्थित थी। जैन कवियोंने अपने समयमें बहुप्रसिद्ध इस विशाला (उज्जैनी) को ही महाराज चेटककी राजधानी मानकर उसे मिंधु देशमें लिख दिया है। वैसे वह विदेह देशके निकट ही थी: से कि आन उसके ध्वंसावशेष वहां मिल रहे हैं। .
वैशाली के राजा चेटक थे, यह बात जैन शास्त्र प्रकट करते राजा चेटक और है । इसके अर्थ यही है कि वह वजि प्रना. उनका परिवार। तंत्र राज्य के प्रमुख राजा थे। यह इलाकुवंशी व शिष्टगोत्री क्षत्री थे। उत्तरपुराणमें (पृ० ६४९) इनको सोमवंशी लिखा है, जो इक्ष्वाक्वंशका एक भेद है। इनकी रानीका नाम भद्रा था, जो अपने पति के सर्वथा उपयुक्त थी। राजा चेटक बड़े पराक्रमी, वीर योद्धा और विनयो तथा अग्रतदेवके अनुयायी थे।
१-श्रेच. पृ० १५५, ३० पु. पृ. ६३४, इत्यादि।
-मवमति के मालतीमाधव नामक नाटकमें ग्नी पायम सिन्धुनदी और उसके किनारे अवस्थित नगवाका उल्लेख है। जन कवि धनगालने इस प्रदेशके टोगों का उल्लेख 'संधर' नामसे किया है अर्थात सिंधुदेशके वासी । अतएव उरगेत सिन्धु नदीकी अपेक्षा ही यह प्रदेश "मिन्यु देश के नामसे उलिखित हुआ प्रतीत होता है। पश्चिमीय सिंधु प्रदेश इससे अलग था। चूंकि उजनी, जिसका उल्टेन्ट कवि कालिदास 'नेपन में विशाल रूपमें करते है, उपरोक्त निधुनीक समीर थी, वह जैन लेखकों द्वारा सिंथुप्रदेशमें बताई जाने लगी।
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३६ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
बहु राजनीतिमें कितने निपुण थे और उनकी प्रतिष्ठा आसपास के राज्यों में कितनी थी, यह इसी बात से अंदाजी नासक्ती है कि वह बज्जियन प्रजातंत्र राज्य के प्रमुख राजा चुने गये थे । पराक्रम और वीरता में भी वह बड़े चढ़े थे। उस समय के बलवान राजा श्रेणिक बिम्बसार से संग्राम ठानने में वह पीछे नहीं हटे थे और गांधार देशके सत्यक नामक राजासे भी उनकी रणांगण में भेंट हुई थी और वह विजयी होकर छोटे थे । इसी तरह वह धार्मिक निष्टामें भी सुदृढ़ थे। जिनेन्द्र भगवानकी पूजा-अर्चा करना वह रणक्षेत्र में भी नहीं भूलते थे ।
राजा चेटक के दश पुत्र थे, जो (१) घन, (२) दत्तभद्र, (३) उपेन्द्र, (४) सुदत्त, (५) सिंहभद्र, (६) सुकुंभोज, (७) सकंपन, (८) सुपतंग, (९) प्रभंजन और (१०) प्रभास के नाम से प्रसिद्ध थे । इन दश भाइयोंकी सात बहिनें थीं। इनमें सबमें बड़ी त्रिशला प्रियकारिणी भगवान महावीरकी माता थीं । अवशेष मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलिनी, ज्येष्ठा और चंदना नामक थीं ।
मृगावतीका विवाह वत्सदेश के कौशाम्बीनगर के स्वामी चंद्रराजा शतानीक और वंशी राजा शतानीक के साथ हुआ था । वत्सराज उदयन् । इनके पुत्र वत्सराज उदयन् उम समय के राजाओं में विशेष प्रसिद्ध थे | उज्जैनीके राजा चंडप्रद्योतनूकी राजकुमारीसे इन्होंने बड़ी होशियारी से विवाह कर पाया था । वत्सराजकी इस प्रेमकथाको लेकर 'स्वप्न वासवदत्त' नाटक नादि ग्रंथ बचे गए हैं । शतानीक परम जैनधर्म भक्त थे। जिस समय भगवान
I
१ - उ० पु०, १० ६३४-६३५ । २-उ० पु० पृ० ६३५ ।
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लिच्छिवि आदि गणराज्य। [३७ महावीर धर्मप्रचार करते हुये कौशाम्बी पहुंचे थे, उस समय इस रामाने उनका धर्मोपदेश अच्छे भावों और बड़े ध्यानसे सुना था ! भगवानकी वन्दना और उपासना बड़ी विनयसे की थी। और अन्तमें वह भगवान के संघ समिलित होगया था। पर पहले मृगावतीकी बहिन चन्दनाके यहां जो कौशाम्बीमें एक सेठके यहां पुत्रीके रुपो रही थी. भगवानका आहार हआ था। कौशाम्बी प्राचीन बालसे जैनों का मुख्य केन्द्र रहा है और मान भी उसकी मान्यता भनोंके निकट विशेष है। यहॉपर प्राचीन जन कीर्तियां विशेष मिलती हैं। कनिंघम साहबने वत्सरान उदयनको यहां ई० पूर्व ५७० से ५४० तक राज्य करते लिखा है । वह 'विदेहपुत्र' अपनी माताकी अपेक्षा कहलाते थे।
राजा चेटककी तीसरी कन्या मुप्रभा दशाण (दशासन) देशमें राजा दशरथ और हेरकच्छपुर (कमैठपुर) के स्वामी सूर्यवंशी राजा परम सम्यकी दशरथसे रिवादी गई थी। यह दशार्ण देश
राजा उदयन् । मंदसोरके निकट प्राचीन मत्सदेशके दक्षिणम अनुमान किया गया है । यह राना भी जैन था। चौथी पुत्री प्रभावती कच्छदेशके सुरक नगरके राना उदयनकी पट्टरानी हुई थी। यह राजा उदयन अपने सम्यक्तबके लिये जैनशास्त्रोंमें बहुत प्रसिद्ध हैं । किन्हीं शास्त्रोंमें इनकी राजधानीका नाम वीतशोका लिखा हुभा मिलता है। श्वे. माम्नायकी 'उत्तराध्ययन सूत्र' सम्बन्धी कथाओंमें इन्हें पहले वैदिक धर्म भुक्त बतलाया है।
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१-३० पु० पृ० ६३६ व मम० पृ. १०८ । २-30 पु० पृ. १३६ । ३-एमिक्ष दा० पृ. ७२ । ४-30 पु० पृ० ६३६ ।
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३८] संक्षिप्त जैन इतिहास । उपरान्त वह जैनधर्मके दृढ़ अहानी हुये थे और दिगंबर मुनिके वेषमें सर्वत्र विचरे थे । श्वेताम्बर कथाकार उनकी राजधानी वीतभय नगरीको सिंधुसौवीर देशमें बतलाते हैं और कहते हैं कि वह १६ देशोंपर राज्य करते थे, जिनमें वीतभयादि ३६३ मुख्य नगर थे। संभवतः कच्छ देश भी इसमें संमिलित था। इसी कारण उनकी राजधानी कच्छ देशमें अवस्थित भी बताई गई है।
उक्त कथामें प्रभावती के संसर्गसे राजा उदयनको जैनधर्मासक्त होते लिखा है। राजाने राज्य प्रासादमें एक सुंदर मंदिर बनवाया था और उसमें गोशीर्षचन्दनकी सुन्दर मूर्ति विराजमान की थी। कहते हैं कि एक गांधार देशवासी जैन व्यापारीकी कपासे मंत्र पाकर उस मूर्तिकी पूजा करके एक दासी पुत्री स्वर्ण देहकी हुई थी। उसने उज्जैनीके राजा चन्द्रप्रद्योतनसे जाकर विवाह कर लिया। और उस गोशीर्ष चन्दनकी मूर्तिको भी वह अपने साथ लेगई। उदायन्ने प्रद्योतनसे लड़ाई ठान दी और उसे गिरफ्तार कर लिया; किन्तु मार्गमें पर्युषण पर्वके अवसरपर उसे मुक्त कर दिया था। प्रद्योतनने उस समय श्रावक के व्रत ग्रहण किये और वह उज्जनी वायस चला गया था। उदायन् भगवानकी मूर्ति लेकर वीतभय नगरको पहुंच गए।
यह नगर समुद्र तटपर था और यहांसे खूब व्यापार अन्य देशोंसे हुआ करता था । उक्त श्वेताम्बर कथाका निन्न अंश कल्पित प्रतीत होता है। संभव है कि वत्सराज उदायनका जो युद्ध 'प्रद्योतनसे हुआ था, उसीको लक्ष्यकर यह अंश रच दिया गया हो। मगाड़ी इस कथाम है कि उदार्यनकी भावना थी कि भगवान
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लिच्छिवि आदि गणराज्य। [३९ महावीरजीका शुभागमन वीतशोका नगरीमें होनावे । कदाचित समागम ही ऐसा लगा कि भगवानका समोशरण वहांके 'मृगवन' नामक उद्यानमें भाकर विराजमान हुमा । उदायन्ने बड़ी भक्तिसे भगवानकी वंदना की और अन्त में वह अपने भानजे वेशीको राज्य सौंपकर नग्न श्रमण होगये। दिगम्बर जैनशास्त्रोंमें. यह राजा अपने 'निर्विचिकित्सा अंग' का पालन करने के लिये प्रसिद्ध हैं। यह बड़े दानी और विचारशील राजा थे। सारी प्रजाका उनपर बहुत प्रेम था। दिगम्बर मान्यता के अनुसार उनने अपने पुत्रको राज्यसिंहासन पर बैठाया था और स्वयं वीर भगवानके समोशरणमें जाकर मुनि होगए थे। अन्तमें घातिया कर्माका नाशकर वह मोक्ष लक्ष्मीके वल्लभ बने थे। रानी प्रभावती मिनदीक्षा ग्रहण करके समाधिमरण प्राप्त करके ब्रह्मस्वर्गमे देव हुई थी। रामा चेटककी अवशेष तीन कन्यायोंमेंसे चेलनीका विवाह
.. मगधदेशके राजा श्रेणिक विम्बसारसे हुमा चेलिनी और ज्येष्ठा।
'था, यह पहले लिखा जा चुका है । चेलनोकी बहिन ज्येष्टाका भी प्रेम मगधनरेश पर थाः किंतु उसका मनोरथ सिद्ध नहीं हो सका था। गांधार देशस्थ महीपुरके राना सात्यकने उसके साथ विवाह करना चाहा था; किंतु राजा चेटकने यह सम्बंध स्वीकार नहीं किया था और उसे रणक्षेत्रमें परास्त करके भगा दिया था। सात्यक जैन संघमें जाकर दिगम्बर जैन मुनि होगया था और कालांतरमें ज्येष्ठाने भी अपनी मामी यशस्वती
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१-हिटे० पृ० १८-११६ । २-आक०, भा० १ पृ. ८८ । ३-उ० पु०, पृ. ६३६ ।
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४०] संक्षिप्त जैन इतिहास । आर्यिकासे जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कदाचित सात्यक मुनिका प्रेम ज्येष्ठासे हटा नहीं था और हठात एक दिवस उन्होंने अपने शीलरूपी रत्नको ज्येष्ठाके संसर्गसे खो दिया था। इस दुक्रियामा उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ था और प्रायश्चित्त लेकर वह फिरसे मुनि होगये थे । ज्येष्ठा गर्भवती हुई थी, सो उसको दया करके चेलनीने अपने यहां स्सा था। पुत्र प्रसव करके वह भी प्रायश्चित लेकर पुनः आर्यिका हो गई थी और अपने सतपापके लिये बोर तपश्चरण करने लगी थी। इनका पुत्र द्वादशाकका पाठी रुद्र नामक मुनि हुआ था। चंदना इन सब बहिनोंमें छोटी थी और उसका विवाह
.. नहीं हुआ था। वह मानन्म कुमारी रही थी। सती चंदना।
"' वह सर्वगुण सम्पन्न परम सुन्दरी थीं। एक दिन जब वह राज्योधानमें वायुसेवन कर रही थीं, उस समय एक विद्याधर उन्हें उठाकर विमानमें ले उड़ा। किंतु अपनी स्त्रीके भयके कारण वह उनको अपने घर नहीं ले गया, बल्कि मार्गमें ही एक चनमें छोड़ गया । शोभातुर चन्दनाको उस समय एक भीलने ले जाकर अपने राजाके सुपुर्द कर दिया। इस दुष्ट भीलने चन्दना बहुत त्रास दिये; किन्तु वह सती अपने धर्मसे चलित न हुई। हठात् उसने एक व्यापारीके हाथ उनको बेच दिया जिसने भी निराश होकर कौशाम्बी में उन्हें कुछ रुपये लेकर वृषभसेन नामक धनिक सेठके हवाले कर दिया।
दयालु सेठने चंदनाको बड़े प्रेमसे घरमें रहने दिया। चंदना १-आ६०, भा० २ पृ० १६ ।
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लिच्छिवि आदि गणराज्य। [४१ सेठानीके गृहकार्यमें पूरी सहायता देती थी; किंतु उसके अपूर्व ऋ.प लावण्यने सेठानीके हृदयमें डाह उत्पन्न कर दिया और वह चन्दनाको मनमाने कष्ट देने लगी। उधर चन्दनाके भी कष्टों का चन्त आगया । भगवान महावीरका शुभागमन कौशाम्बीमें हुआ । दुखिया चन्दनाने उनको आहारदान देनेकी हिम्मत की । पतितपावन प्रमूका माहार चन्दनाके यहां होगया। लोग बड़े आश्चर्यमें पड़ गये । चन्दनाका नाम चारों ओर प्रसिद्ध होगया । कौशाम्बी नरेशकी पट्टरानीने जब यह समाचार सुने तो वह अपनी छोटी चाहिनको बड़े भादर और प्रेमसे राजमहल में ले गई; किन्तु वह वहां अधिक दिन न ठहर सकी। भगवान महावीरके दिव्य एवं पवित्र चारित्रका प्रभाव उसके हृदयपर अंकित होगया। वैराग्यकी मटूट धारामें वह गोते लगाने लगी और शीघ्र ही वीरनाथके पास पहुंचकर टनने जिनदीक्षा ले ली।
मार्यिका चंदना खूप ही दुद्धर तप तपती थीं और उनका ज्ञान भी बड़ा चढ़ा था। उस समय उनके समान अन्य कोई साध्वी नहीं थी । आत्मज्ञानका पावन प्रकाश वह चहुंओर फैलाने लगीं। फलतः शीघ्र ही उनको भगवानके आर्यिकासंघमें प्रमुखपद प्राप्त होगया था। वह ३६००० विदुपी साध्वीयोंके चारित्रकी देखभाल और उनको ज्ञानवान बनाने में संलग्न रहतीं थीं। इसमकार स्वयं अपना आत्मकल्याण - करते हुये एवं अन्योंको सन्मार्ग पर लगाते हये, वह आयुके अंतमें स्वर्गसुखकी अधिकारी
१-३० पु०, पृ. ६३७-६४०
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४२]
संक्षिप्त जन इतिहास । राजा चेटकका यह पारवारिक परिचय बड़े महत्वका। उपरान्तमें लिच्छिवि इससे प्रगट होता है कि उससमयके प्रायः
___ वंश। मुख्य राज्योंसे उनका सम्पर्क विशेष था। जैनधर्मका विस्तार भी उससमय खूब होरहा था। लिच्छिवि प्रनातंत्र राज्य भी उनकी प्रमुखतामें खूब उन्नति कर रहा था। किन्तु उनकी यह उन्नति मगध नरेश अजातशत्रुको असह्य हुई थी और उसने इनपर आक्रमण किया था, यह लिखा जाचुका है। किन्हीं विद्वानों का कहना है कि अभयकुमार, जिसका सम्बन्ध लिच्छिवियोंसे था, उससे डरकर अनातशत्रुने वैशालीसे युद्ध छेड़ दिया था; किंतु जैन शास्त्रों के अनुसार यह संभव नहीं है; क्योंकि अभयकुमारके मुनिदीक्षा ले लेनेके पश्चात् अजातशत्रुको मगधका राजसिंहासन मिला था। अतः अभयकुमारसे उसे डानेके लिये कोई कारण शेष नहीं था। ____ यह संभव है कि मनातशत्रुके बौद्धधर्मकी ओर आकर्षित होकर अपने पिता श्रेणिक महारानको कष्ट देनेके कारण, लिच्छिवियोंने कुछ रुष्टता धारण की हो और उसीसे चौकन्ना होकर अजातशत्रुने उनको अपने आधीन कर लेना उचित समझा हो। कुछ भी हो, इस युद्धके साथ ही लिच्छिवियोंकी स्वाधीनता जाती रही थी और वे मगध साम्राज्यके आधीन रहे थे। सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्यके समयमें भी वह प्रजातंत्रात्मक रूपमें राज्य कर रहे थे; निसका अनुकरण करनेकी सलाह कौटिल्यने दी थी। किन्तु जो स्वतंत्रता उनको चन्द्रगुप्तके राज्यमें प्राप्त थी, वह अशोकके समय
-क्षत्री लैन्स०, पृ. १३
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लिच्छिवि आदि गणराज्य। [४३ नहीं रही और उनने अशोककी आधीनता स्वीकार कर ली थी। गुप्तकाल तक इनके अस्तित्वका पता चलता है।
वजियन प्रजातंत्र के उपरान्त दूसरा स्थान शाक्यवंशी क्षत्रिशाक्य और मल क्षत्रि. योक प्रजातंत्रको प्राप्त था। उनकी राजधानी
योंके गणराज्य । कपिलवस्तु थी, जो वर्तमानके गोरखपुर जिलेमें स्थित है । नृप शुद्धोदन उस समय इस राज्यके प्रमुख थे। म० गौतमबुद्धका जन्म इन्हकि गृहमें हुआ था। शाक्योंकी भी सत्ता उस समय अच्छी थी; किन्तु उपरान्त कुणिक अजातशत्रुके समयमें विट्ठदाम द्वारा उनका सर्व नाश हुआ था। शाक्यों ने बाद मल्ल गणराज्य प्रसिद्ध था, जिसमें मल्लवंशी क्षत्रियोंकी प्रधानता थी। बौद्ध ग्रन्थोंसे यह राज्य दो भागोंमें विभक्त प्रगट होता है । कुसीनारा जिस भागकी राजधानी थी, उससे म० बुद्धका संबंध विशेष रहा था। दूसरे भागकी राजधानी पावा थी । उससमय राजा हस्तिपाल इस राज्यके प्रमुख थे । भगवान महावीर जिस समय यहां पहुंचे थे, तब इस राजाने उनकी खूब विनय
और भक्ति की थी। भगवानने निर्वाण-लाभ भी यहीसे किया था। उस समय अन्य राजाओंके साथ यहांके नौ राजाओंने दीपोत्सव मनाया था। जैनधर्मकी मान्यता इन लोगोंमें विशेष रही थी। शाक्य प्रजातंत्र भी जैनधर्मके संसर्गसे मछूता नहीं बचा था। ऐसा मालम होता है कि राजा शुद्धोदनकी श्रद्धा प्राचीन जैनधर्ममें थी। लिच्छिवियोंकी तरह मल्लोंको भी मजातशत्रुने अपने आधीन कर किया था।
१-पूर्व, पृ० १३६ । २-अदि इ० पृ. ३७-३८ । ३-क्षत्रीक्लैन्स पृ० १६३ व १७५। ४-ममबु० पृ. ३७ ।
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MARm
४४] संक्षिप्त जैन इतिहास।
विदेह देशवासी क्षत्रियोंका गणराज्य भी उस समय उल्ले. खनीय था । यह लिच्छिवियों के साथ वृजि-प्रजातंत्र राज्यसंघ सम्मिलित थे, यह लिखा जाचुका है। दिगम्बर जैनशास्त्रों में भगवान महावीरकी जन्मनगरीको विदेह देशमें स्थित बतलाया है।'
और श्वेताम्बरी शास्त्र महावीरजीको विदेहका निवासी अथवा विदेहके राजकुमार लिखते हैं। इन उल्लेखोंसे भी विदेह गणराज्यका वृजि-रान-संघमें सम्मिलित होना सिद्ध है। यदि विदेहका सम्पर्क इस रानसंघसे न होता तो वैशालीके निकट स्थित कुण्डग्रामको विदेह देशमें न लिखा जाता। मस्तु; विदेहमें जैनधर्मको गति विशेष थी । भगवान महावीरने तीस वर्ष इसी देशमें बिताये थे। विदेहकी राजधानी मिथिला वैशालीसे उत्तर पश्चिमकी भोर ३५ मील थी और वह व्यापारके लिये बहु प्रख्यात थी। - इनके अतिरिक्त रायगामका कोल्यिगणराज्य, सुन्समार पर्वतका भग्ग राजसंघ, मलकप्पका बुलि प्रजातंत्र राज्य, पिप्पलिवनका मोरीयगणराज्य आदि अन्य कई छोटे मोटे प्रजातंत्रात्मक राज्य ये; निनका कुछ विशेष हाल मालम नहीं होता है।
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- १-उ० पु०, पृ० ६०५। २-Js. I, 256. ३-भत्री क्लैन्स,
पृ० १४६।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर |
[ ४५
ज्ञाविक क्षत्री और भगवान महावीर
ई० पूर्व० ६२० ई० पूर्व ५४५ ।
लिच्छिवियोंके साथ वज्जि प्रदेशके प्रजातंत्रात्मक राजसंघमें
ज्ञात्रिक वंशी क्षत्री भी सम्मिलित थे । इन ज्ञात्रिक क्षत्री | क्षत्रियों को 'नाय' अथवा 'नाथ' वंशी भी कहते हैं ।" दिगम्बर जैन शास्त्रोंमें इनका 'हरिवंशी ' रूपमें भी उल्लेखहुआ है । मनुने मल्ल, भल, लिच्छिवि, करण, खस व द्राविड़ क्षत्रियों के साथ नाट अथवा नात (ज्ञात्रिक) क्षत्रियोंको व्रात्य लिखा है | ( मनु० स० १०/२२ ) यह इसी कारण है कि इन लोगों में जैनधर्मकी प्रधानता थी । व्रात्य अथवा व्रतिन् नामसे जैनियों का उल्लेख पडले हुआ मिलता है। (भ० पा० प्रस्तावना, ४०३२) भारत धार्मिक इतिहास में नाथ अथवा ज्ञात्रिक क्षत्रियों का नाम अमर हैं । इनका महत्व इस से प्रकट है कि यही वह महत्वशाली जाति. है जिसने भारतको एक बड़े भारी सुधारक और महापुरुषको समर्पित किया था । महापुरुष जैनियोंके अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर थे।
आधुनिक साहित्यान्वेषणसे प्रगट हुआ है कि ज्ञात्रिक क्षत्रि-शात्रिक क्षत्रियोंका योंका निवासस्थान मुख्यतः वैशाली (बसाढ़), निवासस्थान । कुण्डग्राम और वणिय ग्राममें था । कुण्डग्रामसे उत्तर-पूर्वीय दिशामें सन्निवेश कोल्लाग था । कहते हैं कि यहां ज्ञात्रिक अथवा नाथवंशी क्षत्री सबसे अधिक संख्या में रहते थे। वैशाली के बाहिर पाप्त ही में कुण्डग्राम स्थित था; जो संभ
१ - खक्षदाए ३०, पृ० ११५ - ११६ । २ - वृजेश०, पृ० ७ ३-उ० ६०, २-२ फुटनोट । ४- उद० २१४ फुट० ।
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संक्षिप्त जैन इतिहास। दतः भाजकलका 'वसुकुण्ड' गांव है। कोई २ विहान कोल्डागको हो भगवान महावीरका जन्मस्थान बतलाते है किन्तु यह बात दिगम्बर और श्वेतांचर-दोनों जैन संप्रदायोंकी मान्यताके विरुद्ध है। श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे पता चलता है कि कोल्लागके निकट एक चैत्यमंदिर था, निसको 'दुइपलाश', 'दुइपलाश उन्नान' अथवा 'नायषण्डवन' कहते थे। इस उद्यानमें एक बगीचा था: नितमें एक भव्य मंदिर बना हुआ था। दिगम्बर जैन शास्त्रों में 'वनपण्ड' में अथवा नायपण्ड या ज्ञातृखंड वनमें जाकर भगवानको दीक्षा देते लिखा है। यह वनपण्ड उपरोक्त नायपण्डवन ही है। क्योंकि वह भगवानके जन्मस्थानके निकट था और वहांसे उठकर भगवान कुलपुर अथवा कुलग्राममें प्रथम पारणाके लिये गये थे। यह कुलपुर कोल्लाग ही प्रतीत होता है, जो नायपण्डवन विस्कुल समीप और नाथवंशी क्षत्रियों के पूर्ण अधिकारमें था। कोलागका अपर नाम नायकुल' भी मिलता है। इस दशा में कोल्लानका कुलपुर अथवा कुलग्राम होना चाहिये।
दिगम्बरनायके ग्रन्थों में कुलग्रामका रामा कुलनुप लिखा है। कलपर कोलाग है अर्थात् राना और नगरका नाम एक ही है ।
और ज्ञात्रिक क्षत्री इससे भी कोल्लागका कुलपुर या कुलग्राम होने वजियन प्रजातंत्रमें और वहांके निवासी नायवंशो क्षत्रियों का
सम्मिलित थे। वजि-प्रजातंत्र-संघमें समिष्ट होने का परिचय मिलता है। कुशका व्यवहार उससमय साधारणतः वंशको लक्ष्य • १-कैहिइ. पृ० १५७ । २-उद० २।४, फसू. ११५ व मास. . २।।५-२२३३-उ० पु. पृ०६०९।४-३६० ६६. ५-उ०पु० १०६.१।
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ज्ञानिक क्षत्री और भगवान महावीर। [४७ करके होता था। किन्तु 'कुल' शब्दसे भाव केवल इतना ही नहीं था कि उस वंशके प्रमुख व्यक्तिका अधिकार मात्र उस कुलके लोगोंपर ही रहे प्रत्युत उसकी मुख्यता और अधिकार उस कुलके माधिपत्यमें रहे, समस्त देशपर व्याप्त होता था। कोल्लागके नाथ कुलवाले क्षत्री अवश्य ही वृनि प्रजातंत्र राज्यमें सम्मिलित थे । इसीलिये उनके प्रमुख नेता, उनकी ओरसे उस संघमें प्रतिनिवित्वका अधिकार रखते थे। यही कारण है कि उनका उल्लेख 'कुलनृप' रूपमें हुआ है। यह नाम कुल अपेक्षा ही है-व्यक्ति गत नाम यह नहीं है।
इस उल्लेखसे यह भी विदित होता है कि राना सिद्धार्थवा विशेष सम्पर्क कोल्लागसे न होकर कुण्डग्रामसे था । यही कारण है कि वहांका नेता कोई अन्य व्यक्ति प्रगट किया गया है। इससे ज्ञातवंशी अथवा नाथकुनके क्षत्रियोंके निवासस्थानकी स्पष्टता और उनमा वृजि-प्रजातंत्र में शामिल होना प्रगट है। प्रजातंत्र रानसंघमें इन क्षत्री कुलों के मुखियायोंकी कोमिल मुख्य कार्यकर्ती थी। इन सदस्यों का नामोल्लेख 'गना रूपमें होता था, यह बात कौटिल्य अर्थशास्त्रसे स्पष्ट है।
ज्ञातृवंशी क्षत्री मुख्यतः जनोंक २३ वें तीर्थकर भगवान शांत्रिक क्षत्रियोंका पार्श्वनाथनीके धर्मशासनके भक्त थे। उपरान्त
धम । जब भगवान महावीरनीका धर्मप्रचार होगया था, तब वे नियमानुसार वीर संघके उपासक होगये थे। जैनधर्म
१-कार. १९१८, पृ० ११२-१३४ । २-अर्थशास्त्र, शामाशास्त्री, पृ. ४५५ । ३-हॉ० ० ३१ उद० २६ ।
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४८
संक्षिप्त जैन इतिहास | भुक्त होने के कारण यह लोग बड़े धर्मात्मा और पुण्यशाली थे। वे पापकर्मोसे दूर रहते थे और पापसे भयभीत थे । वे हिंसाजनक बुरे काम नहीं करते थे। किसी प्राणीको कष्ट नहीं देते थे । और मांस भोजन भी नहीं करते थे। उनकी ऐहिक दशा भी खूब समृद्धिशाली थी और उनका प्रभाव तथा महत्व भी विशेष था। उनका सम्बन्ध उनके प्रमुख द्वारा उस समयके करीबर सब ही प्रतिष्ठित राज्योंसे था । जैनियोंके अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीरका जन्म भी इस वंशमें हुआ था, यह लिखा जाचुका है।
भगवान महावीरके पिता नृप सिद्धार्थ थे । यह राजा सर्वार्थ राजा सिद्धार्थ और रानी श्रीमतीके धर्मात्मा, न्यायी और ____ और ज्ञानवान वी-पुत्र थे। इनको श्रेयांस और
रानी त्रिशला। जसंश भी कहते थे। यह काश्यपगोत्री इक्ष्वाक अथवा नाथ या ज्ञातवंशी क्षत्री थे। इनका विवाह वैशाली के लिच्छिवि क्षत्रियों के प्रमुख नेता राजा चेटककी पुत्री प्रियकारिणी अथवा त्रिशलासे हुआ था। त्रिशलाको विदेहदत्ता भी कहते थे। यह परम विदुषी महिलारत्न थीं। श्वेताम्बर शास्त्रों में नृप सिद्धार्थको केवल क्षत्रिय सिद्धार्थ लिखा है । इसकारण कतिपय विहान उन्हें साधारण सरदार समझते हैं, किंतु दिगम्बरामायके ग्रंथों में उन्हें स्पष्टतः राजा लिखा है। राजा चेटक्के समान प्रसिद्ध राजवंशसे उनका सम्बंध होना, उनकी प्रतिष्ठा और आदरका विशेष प्रमाण है। वह नाथवंशके मुकुटमणि थे। ऐसा . १-Js. KLV. 416. २-आसू० १११५५१५. Js. XXII. 193. ३-उ० पु० पृ. ६०५ । ४-Js. XXII. 193.
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [४९ मालूम होता है कि उनके आधीन उनके कुलके अन्य राजा थे; जैसे कि एक कुलनृपका उल्लेख ऊपर होचुका है।
मेन शास्त्र कहते हैं कि राजा सिद्धार्थने मात्ममति और विक्रमके द्वारा अर्थ-प्रयोजनको सिद्ध कर लिया था। वे विद्यामें पारगामी और उसके अनन्य प्रसारक थे। सचमुच 'आपने (विद्या. ओके) फलसे समस्त लोकको संयोजित करनेवाले उस निर्मल रानाको पाकर राजविद्याएं प्रकाशित होने लगी थीं। फलतः यह प्रकट है कि भगवान महावीरजी एक बुद्धिमान, धर्मज्ञ, परिश्रमी और प्रभावशाली गनाके पुत्र थे। गना सिद्धार्थका मुख्य निवाप्तस्थान कुण्डग्राम अथवा कुण्डपुर
था। वह कोल्लागसे भिन्न और वैशालीके सन्निट कुण्डलाम । था. यह पहले बताया जाचक है। वौद्ध ग्रन्थ 'महाग' के उल्लेखसे भी कुण्डग्राममें नाथ अथवा ज्ञातृवंशी क्षत्रियों का होना प्रकट है। वहां लिखा है कि एक मस्तवा म० गौतम बुद्ध कोलिग्राममें ठहरे थे, जहां नाथिक लोग रहते थे। बुद्ध नित भवन में ठहरे थे उपका नाग नाथिक-इटिका भवन' (निन्नकावप्रथ) था । कोटिग्रामसे वह वैशाली गये थे। सर रमेशचंद्र दत्त इस कोटियामको कुण्डग्राम ही बतलाते हैं और लिखते हैं कि " यह कोटिग्राम वही है जो कि जैनियों का कुण्डग्राम है और बौद्ध ग्रंथों में जिन नातिकों का वर्णन है, वे ही ज्ञात्रिक क्षत्री थे।"
यह कोटियाम अथवा कुण्डग्राम वैशालीका समीपवर्ती नगर ।
१-महावग्ग ३३०-३१ (SBE.XVII) पृ० १०८।२-भम० पृ० ६८1
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५०] । संक्षिप्त जैन इतिहास । था, इसलिये बड़ा वैभवशाली थी। जैनशास्त्रों में इसकी शोभाका अपूर्व वर्णन मिलता है | फिर जिस समय भगवान महावीरका जन्म होनेको हुभा था, उस समय तो, वह कहते हैं, कि स्वयं कुवेरने माकर इस नगरका ऐसा दिव्यरूप बना दिया था कि उसे देखकर मलकापुरी भी लज्जित होती थी। भगवान के जन्म पर्वत वहां स्वर्मा और स्लोंकी वर्षा हुई वतलाई गई है। राना सिद्धार्थका राजमहल सात मंजिलका था और उसे 'सुनंदावत' प्रासाद कहते थे।
स्वर्गलोकके पुष्पोत्तर विमानसे चयकर वहांक देवका जीव भावान महावी. आपाढ़ शुक्ला षष्टीके उत्तराफाल्गुणी नक्षत्रमें का जन्म और रानी त्रिशलाके गर्भमैं माया \। उससमय
वाल्यजीवन । उनको १६ शुभ स्वप्न दृष्टि पड़े थे और देवोंने आकर मानन्द उत्सव मनाया था। जैन शास्त्रों के अनुसार मत्येक तीर्थकरके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष अवसरपर देवराण माकर मानन्दोत्सव मनाते हैं । यह उत्सव भगवान के 'पंचकल्याण' उत्सव कहलाते हैं। योग्य समयपर चैत्र शुक्ला योदशीको, जब चन्द्रमा उत्तराफाल्गुणी पर था, रानी त्रिशलादेवीने जिनेन्द्र भगवान महावीरका प्रप्तव किया था। उस समय समस्त लोकमें अल्पकालके लिये एक आनन्द लहर दौड़ गई थी। भगवानका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार और होशियारीसे होता था। शैशवालसे ही वे बड़े पराक्रमी थे।
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१-कैहिइ० पृ० १५७ । २-३० पु० पृ. ६०५। 3-3० पु. "५० ६०४ । * श्वेताम्बरमें १४ स्वप्न बताए है। ४-३० पु. १०
६०५ व Js. L. 266.
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नात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [५१
एक दफे उनने एक मत्त हाथीको देखते ही देखते वश कर लिया था और दूसरी बार जब वे राज्योद्यानमें बाल सहचरों समेत
खेल रहे थे, तब उनने एक विकराल सर्पको बातकी बातमें कोल दिया था। वह महापुरुष थे। उन्होंने अपने पूर्वभवोंमें इतना विशिष्ट पुण्य संचय कर लिया था कि उनके जन्मसे ही अनेक असाधारण लक्षण और गुण विद्यमान थे । वे जन्मसे ही मति, अति और भवधिज्ञानसे विभूषित थे। इसलिये उनका ज्ञान भनायाप्त बड़ा चढ़ा था। राजमहल में वे काव्य, पुराण मादि ग्रन्थोंचा खून पठन पाठन करते थे। इस छोटी उमरसे ही उनका स्वमाद त्यागवृत्तिको लिये हुये था। जब वह आठ अपके थे, तब उनने श्रावकोंके व्रतोंको ग्रहण कर लिया था। अहिंसा, सत्य, शील, पचौर्य और परिग्रह प्रमाण नियमों का वह समुचित पालन करते
| मंजयविनय नामक चारण मुनि उनके दर्शन पाकर सन्मनिको प्राप्त हुये थे !x
-भम० ए० ६९-८२ । मतांघरोके अर्वाचीन ग्रंथों में लिखा है कि गेन्द्र नाममा एक व्याकरण ग्रंथ बनाया था, किन्तु यह ठीक प्रनीत नहीं होता । (मन दि० भा० १४ पृ० ३४५)। ____मा बुद्धके गमकालीन मतप्रांतको एक संजय अथवा संजयः माधोपन नामक भी था । बौद कहते है कि इनके शिष्य मौदलयन मोर मारीपुत्र थे जो बौद्ध होगये थे। अन शामों में महिलायनको पहले जैन मुनि लिखा है। अत: संजय वायोपुत्र का भी जन होना सुसंगत है। ग समानते है, संजय चारण मुनि और यह एक ही व्यक्ति थे । विदोपके लिये देखो 'भगवान महावीर और म० बुद्र' पृ० २२-२३ ।
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५२ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
राजा सिद्धार्थने महान् पुत्रके जन्मके उपलक्ष में बड़ा आनंद भगवान महावीरके मनाया था । कुण्डग्रामकी उस समय खुद नाम । अभिवृद्धि हुई थी । इसलिये उन्होंने भगदानका नाम 'वर्द्धमान' रक्खा था । वैसे साधारणतः वह ज्ञातृ खत्रिय रूपमें प्रख्यात् थे । उन्हें "महावीर" "वीर" "यतिवीर" "सन्मति" और " नाथकुलनन्दन " भी कहते थे । दक्षिण भार1 तके एक कनड़ी भाषा के ग्रन्थ में भगवानका एक अन्य नाम "वसुधैवान्धव" लिखा है । हिन्दूशास्त्रों में उनका नामोल्लेख 'मत् महिमन् या महामान्य' रूपमें हुआ है | श्वेताम्बरोंक 'उपासन दशास्त्र' में उनको 'महामाहने' अथवा 'नायमुनि' लिखा है । यह नाम उनकी साधु अवस्थाके प्रतीत होते हैं ।
3
मिसेज स्टीवेन्सम कहती हैं कि वे ज्ञातपुत्र, नागपुत्र, शासननायक और बुद्ध नामों से भी परिचित है । यह नाम विशेषण रूप में हैं और इस तरह के विशेषण जैनशास्त्रों में १००८ चतलाये - गये हैं' । ' वैशालिय ' वे इस कारण कहलाते थे कि उनका सम्बन्ध वैशाली से विशेष था । किन्तु वौद्धों के पाली साहित्य में उनका उल्लेख 'निगन्थ नाथपुत्त' के नामसे हुआ है । वह नाथवंशके राजर्षि थे, इसलिये बौद्धोंने उन्हें इस नामसे सम्बोधित किया है । जैनशास्त्रों में भी उनका उल्लेख इस रूपमें हुमा मिलता है ।"
૧ О
१–सक्ष्यद्राए ३०७ । २–लाभ० पृ० ६ । ३- जेग०, भा० २४ पृ० ३२ । ४-० ० ० ९६-९९ । ५-उद० ७ । ६-उद्० ४९ । ७-हॉजे०, पृ० २७ । ८ - जिन सहस्रनाम स्तोत्र देखो। S-Js. II, 261. १० - भमवु० पृ० १८८-२७० वJs. II. Intro. ११Js. Pt. II. Intro. महावीर चरित पृ०, व उ० पु० पृ० ६०५...... |
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [५६ निग्रन्थ (निगन्थ) के भाव 'बन्धनोंसे मुक्त के हैं, यह बात बौद्ध शास्त्रोंसे भी प्रकट है।
उस समय जैनोंका उल्लेख 'निर्ग्रन्थ' नामसे होता था; जैले 'निग्रन्थ' जैनी है।
है कि वे उपरान्तमें 'आईत' नामसे प्रख्यात
' हुये थे। किन्हीं लोगोंका विश्वास है कि जैन तीर्थंकरोंकी शिक्षा उस समय लिपिबद्ध नहीं थी, इसलिये उनको लोग 'निन्ध' कहते थे; किन्तु जैन शास्त्रोंमें निर्ग्रन्थका अर्थ 'ग्रंथियोंसे रहित' किया गया है और इस शब्दका प्रयोग प्रायः जैन मुनियोंके लिये ही हुआ है; यद्यपि बौद्ध शास्त्रोंमें वह गृहस्थ और मुनि सबके लिये समान रूपमें व्यवहृत हुआ मिलता है। वौद्धोंके 'चुल्लनिद्देस' में निग्रन्थ श्रावकोंका देवता निग्रन्थ लिखा है । यहाँपर निग्रन्थ शब्द दि० जैन मुनिके लिये प्रयुक्त हुआ है; किन्तु 'महावग' के सीह नामक कथानक और 'मज्झिमनिकाय के 'सञ्चक निगन्यपुत्त' के आख्यानमें 'निर्ग्रन्थ ' शब्द जैन गृहस्थ के लिये व्यवहृत हुआ है । अतएव उस समय जनसंघ मात्र 'निग्रन्थ ' नामसे परिचित था। इस कारण भगवान महावीर ज्ञातृपुत्र भी निर्ग्रन्थ ' कहे गये हैं। बौद्ध कहते हैंकि महावीरनी सर्व विद्याओं के पारगामी थे, इस कारण 'निगन्ध' कहलाते थे।
१-ढायोलॉग्स ऑफ दी बुद्ध, मा० २ पृ. ७४-७५ । २-वीर, भा० ५ पृ. २३९-२४० । ३-मूला० ३० । ४-ममबु० पृ० २३५ । " ५-निगळ सावकानाम् निगढो देवता पृ. १७३ । ६-महा० पृ० ११६॥ -मनि० भा० १ पृ. २२५ । ८-मवु० पृ० ३०२ ।
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५४]
संक्षिप्त जैन इतिहास। भगवान महावीर गृहस्थ दशामें तीस वर्षकी अवस्था तक भगवान महावी रहे थे। उस समय शीलधर्मके प्रचारकी विशेष बालन ह्याचारी थे। आवश्यक्ता जानकर उन्होंने विवाह करना स्वीकार नहीं किया था। कलिंगदेशके राजा जितशत्रु अपनी यशोदरा नामकी कन्या उनको भेंट करने के लिए कुण्डपुर लाये भी थे; किंतु गगवान अपने निश्चयमें दृढ़ रहे थे। वह बालब्रह्मचारी थे। किन्तु श्वेताम्बरामायकी मान्यता इसके विरुद्ध है । वह कहते हैं कि भगवानने यशोदरासे विवाह कर लिया था और इस सम्बंधसे उनके प्रियदर्शना नामकी एक पुत्री हुई थी। प्रियदर्शनाका विवाह जमालि नामक किसी राजकुमारसे हुआ था जो उपरांत वीर संवमें संमिलित हो मुनि होगया था और जिसने महावीरस्वामी के विपरीत असफल विद्रोह भी किया था। विवाह आदि विषयक यह व्याख्या श्वेतांबरोंके प्राचीन ग्रन्थ 'माचाराङ्गसूत्र' और 'कल्पसूत्र' में नहीं मिलती है और इसकी सादृश्यता बौद्धोंके म० बुद्धके जीवनसे बहुत कुछ है। ऐसी दशामें उससमयमें शीलधर्मकी आवश्यक्ताको देखते हुए भगवानका बालब्रह्मचारी होना ही उचित जंचता है। , १ भमबु. पृ० ४२-४४॥
२-श्वेताम्बर शास्त्रों में भगवान महावीरका यशोदाके साथ विवाह करना और उनके पुत्री होना संभवतः सिद्धान्तभेदको स्पष्ट करनेके लिये लिखा गया है; क्योंकि दिगम्बर जैन सिद्धान्त के अनुसार तीर्थंकर भगवानकी पुण्यप्रकृतिकी विशेषताके कारण उनके पुत्रीका जन्म होना असम्भव है। ऋषभदेवजीके कालदोषसे दो पुत्रियां हुई थीं। इसी सिद्धान्तभेदको स्पष्ट करनेके लिये श्वेताम्बरोंने शायद भगवानका विवाह व पुत्री होना लिस. दिया है; वरन कोई कारण नहीं कि यदि भगवानका विवाह हुआ होता
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [५५
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ब्रह्मचर्य अवस्थामें राजसुखका उपभोग करके भगवान महाभगवान महावीरका वीरने गृहत्याग किया था। इससमय इनकी
गृहत्याग। अवस्था करीब तीस वर्षकी थी। उन्होंने ससमयके राजोन्मत्त राजकुमारों और आजीविकों एवं ब्राह्मण ऋषियों जैसे साधुओंको मानो पूर्ण ब्रह्मचर्यका महत्व हृदयंगम तो दिगम्बरानायके शास्त्र उसका उल्लेख न करते जव वे अन्य तीर्थकरोंका विवाह हुआ लिखते हैं। चौद्ध ग्रन्थों में भी भगवानकी पुत्री आदिका कुछ उल्लेख नहीं मिलता है। श्वेताम्बर शास्त्रोंमें भगवानकी जीवनीका चित्रण बहुत कुछ म० बुद्धके जीवनचरित्रके ढंगपर हुआ है। ऐसा विदित होता है कि पाली पिटकोंको सामने रखकर श्वे० प्रथोकी रचना ई. की ६ ठी श० में हुई है। इसका सप्रमाण वर्णन हम अगाड़ी करेंगे। यहां इतना वतला देना पर्याप्त है कि पाश्चात्य विद्वान् भी इस बातको स्वीकार करते हैं कि श्वेताम्बरोंने महावीरजीका जीवन वृतान्त म० बुद्धके जीवनचरित्रके अनुसार और उसीके आधारसे लिखा है। (इन्डियन सेकृ ऑफ दी जैन्स, पृ० ४५) 'ललितविस्तर' और 'निदानकथा' नामक बौद्रग्रन्थोंमें जैसा चरित्र गौतम बुद्धका दिया हुआ है; उससे इवेताम्बरों द्वारा वर्णित भ० महावीरके चरित्रमें कई बातों में सादृश्यता है। ( केहिइ०, पृ० १५६ ) उदाहरण के तौरपर देखिये, यह सादृदय जन्मसे ही प्रारम्भ होजाता है। 'म० बुद्धके विषयमें कहा गया है कि उनको मालूम था, वह स्वर्गस चय होकरके अमुक रीतिसे जन्म धारण करेंगे। भ० महावीरके सम्बन्धमें भी श्वेताम्बर ग्रन्थ यही कहते हैं कि उनको अपने आगमनका ज्ञान तीन प्रकारसे था । युवावस्थाको लीजिये तो जैसे बौद्ध कहते हैं कि बुद्धका विवाह यशोदा नामक राजकन्यासे हुआ था, वैसे ही श्वेताम्बर भी बतलाते है कि महावीरजीका विवाह यशोदरा नामक राजकुमारीसे हुआ था। वेताम्बर शास्त्र कहते है कि भगवानके माता पिताने उनको दीक्षा ग्रहण करनेसे रोका था; बुदके सम्बन्धमें यही कहा जाता है। स्वेताम्बरोंका मत है कि भगवा
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५६] संक्षिप्त जैन इतिहास । कराने के लिये तबतक ब्रह्मचारी रहकर कठिन इन्द्रियनिग्रह और परीषह जय करनेके मार्गमें पग बढ़ानेका निश्चय कर लिया था। अपने पिताके राजकार्यमें सहायता देते हुए और गृहस्थकी रंगरलियोंमें रहते हुए भी भगवान संयमका विशेष रीतिसे अभ्यास कर रहे थे। उनके हृदयपर वैराग्यका गाढा रंग पहलेसे ही चढ़ा हुमा था । सहसा एक रोज उनको आत्मज्ञान प्रकट हुआ और वह उठकर 'वनषण्ड' नामक उद्यानमें पहुंच गए। माता-पिता आदिने उनको बहुत कुछ रोकना चाहा; किन्तु वह उन सबको मीठी वाणीसे प्रसन्न कर विदा ले आये ! मार्गशीर्ष शुक्लाकी दशमीको वह अपनी 'चन्द्रममा' नामक पालखीमें सारूढ़ हो नायखंड नकी गृहस्थदशामें ही उनके माता पिताका स्वर्गवास होगया था और उनके ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन राज्याधिकारी हुए थे। बौद्ध ग्रन्थोंने भी म. बुद्धको माताका जन्मते ही परलोकवासी होना लिखा है तथा उनमें उनके भाई नन्द बताये गये हैं। ( साम्स० पृ० १२६ ) म० बुद्ध "सम्बोधि' प्राप्त कर टेनेके पश्चात् भी कवलाहार करते थे। ( महावग्ग SBE पृ० ८२) भगवान महादीरके विपयमें भी श्वेताम्बर शास्त्र यही कहते हैं। म० बुद्धके जीवनमें उनके भिक्षु संघमें मतमेद खड़ा हुआ था (महावग्ग ८); वेताम्बर भी कहते है कि भगवानके जमाई जमालीने उनके विरुद्ध एक असफल आवाज़ उठाई थी। चौद्ध कहते हैं कि परिनिवानके समय भी म० बुद्धने उपदेश दिया था। और उनके शरीरान्तपर लिच्छिवि, मळ आदि राजा आये थे (Benl's Life of Buddha, 101-131) श्वेताम्बर भी कहते है कि भगवान सहावीरने पावामें पहुंचकर निर्वाण समयमें कुछ पहले तक उपदेश दिया था
और उनके निर्वाणपर लिच्छिवि, मल्ल आदि राजगण आये थे। 'बुद्धको मृत्यु उपरान्त उनका संघ वैशाली में एकत्रित हुआ था और उसने पिटक ग्रंथोंको व्यवस्थित किया था। इसके बाद अशोकके समय में
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ज्ञा त्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [५७ स्मथवा वनखंड उद्यानमें पहुंचकर उत्तराभिमुख हो अशोकवृक्ष के नीचे रत्नमई शिलापर विराजमान होगए थे। उन्होंने सब वस्त्राभूषण इससमय त्याग दिये थे और सिद्धोंको नमस्कार करके पंचमुष्टि कोच जिया था। इसप्रकार निर्ग्रन्थ श्रमण हो वह ध्यानमग्न होगए और उनको शीघ्र ही सात लब्धियां एवं मनःपर्यय ज्ञानकी प्राप्ति हुई थी।
श्वेताम्बर आम्नायके शास्त्रोंमें लिखा है कि भगवान दीक्षा भगवान महावीरकी समय नग्न हुये थे । इन्द्रने दीक्षा समयसे दिगावर दोक्षा। एक वर्ष और एक महीना उपरान्त 'देवदृष्य वस्त्र धारण कराया था। इसके पश्चात् वे नग्न होगये थे। भी वह एकत्रित हुआ था। इसीतरह श्वेताम्बर कहते है कि भगवान महावीरके उपरान्त जनसंघ पाटलीपुत्र में एकत्रित हुआ था। और उसने सिद्धान्तको मुव्यवस्थित किया था। फिर बालभीमें भी वह एकत्र हुआ था। मारांशतः भगवान महावीरके जीवन सम्बन्धमें जो घटनाएं केवल श्वेताम्बर प्रन्योंमें लिखी हुई है। उनका सादृट्य म० चुनके जीवनसे ग्वब है और श्वे. मागम ग्रन्थों का संकलन भी प्रायः बौद्धोके पिटक अन्यों के समान मिलता है। अतः यह जंचता है कि उनने बौद्धोंके आधारसे उक्त जीवन घटनाएं लिखी है। इस अवस्थामें उनपर विश्वास करना ज़रा कठिन है।
१-जैनशाखो ज्ञान पांच प्रकारका बसलाया है:-(१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (१) मनःपर्यय, (५) केवटज्ञान । मतिज्ञान संसारके दृश्य पदार्थोका ज्ञान है, जो इन्द्रियों व मनद्वारा जाना जासक्ता है। मतिज्ञानने साथर शाखोंके स्वाध्याय और अध्ययनसे प्राप्त पदार्थोके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं। उन सब बातोंका ज्ञान नो वर्त रही हो विना वहां जाएही चैठे बैठे जान लेनेको अवधि कहते हैं। दूसरोंके मनोभावको जान लेना मनःपर्यय है और जगतके भूत भविष्य वर्तमानके समस्त पदार्थीको युगपत् जान लेना केवलज्ञान है । २-Js. I. P. 79.
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AWAR
५८] संक्षिप्त जैन इतिहास । 'देवदृष्य वस्त्र' से क्या भाव है, यह श्वेताम्बर शास्त्रोंमें नहीं बतलाया गया है । वह कहते हैं कि देवदृष्य वस्त्र पहिने हुये भी भगवान नग्न दिखते थे। इसका साफ अर्थ यही है कि वे नग्न थे । एक निष्पक्ष व्यक्ति उनके कथनसे इसके अतिरिक्त और कोई मतलब निकाल ही नहीं सक्ता है | फलतः श्वेताम्बरीय शास्त्रोंमें भी भगवानका नग्न दिगम्बर मुनि होना प्रगट है। अचेलक मथवा नग्न दशाको उनके 'आचारांग सूत्र में सर्वोत्कष्ट भवस्था बतलाई । अचेलकसे भाव यथानात नग्न स्वरूपके अतिरिक्त यहाँपर और कुछ नहीं होसते; यह बात बौद्ध शास्त्रोक कथनसे स्पष्ट है।
बौद्ध शास्त्रोंमें जैन मुनियों अथवा निग्गन्ध श्रमणोंको सर्वत्रः नग्न साधु लिखा है और यह साधु केवल भगवान महावीरके तीर्थके ही नहीं है, प्रत्युत उनसे पहले भगवान पार्श्वनाथनीके तीर्थके भी हैं । अतएव भगवान पार्श्वनाथ एवं अन्य तीर्थकरोंका पूर्ण नग्न दशाको साधु अवस्थामें धारण करना प्रमाणित है। श्वेताम्बरीय भाचारांग सूत्र में भी शायद इसी मपेक्षा लिखा है कि. 'तीर्थङ्करों ने भी इस नग्न वेशको धारण किया था। इससे प्रत्यक्ष प्रगट है कि भगवान महावीरजीके अतिरिक्त अवशेष तीर्थकरोंने
१-कसू० स्टीवेन्सन, पृ० ८५ फुटनोट । २-J8. Pt. I. pp. 55-56. ३-दीनि० पाटिकमुत्त; वीर वर्ष ४ पृ० ३५३ । ४-भमबु० पृ. ६०-६१ और २४९-२५५, जैसे दिव्यावदान पृ० १८५, जातकमाला (S. B. B. Vol. I.) पृ. १४५, महावग्ग ८, १५, ३,१, ३०, १६, डायोलॉग्स ऑफ दी बुद्र भा० ३ पृ० १४. इत्यादि । ५-भमबु० पृ० २३६-२४०। ६-J. S.I. pp. 57-58.
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर ।
[ ५९:
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भी इस दिगम्बर दीक्षाको ग्रहण किया था। बौद्धाचार्य बुद्धघोष अचेलक शब्द के अर्थ नग्न ही करते हैं । जैन मुनियों का उल्लेख स्वयं जैन ग्रन्थों एवं बौद्धोंके पाली और चीनी भाषाओंके ग्रन्थोंमें भी अचेलक रूपसे हुआ मिलता है । हिन्दुओं के प्राचीन से प्राचीन शास्त्रोंमें भी जैन मुनियोंको 'नग्न' 'विवसन' आदि लिखा है । अचेलक अर्थात् नग्न दशा ही कल्याणकारी है और यही मोक्ष प्राप्त कराने का सनातन लिंग है, यह बात जैनमत में प्राचीनकालसे स्वीकृत है ।
अतएव जैन मुनियोंके यथाजात दिगम्बर वेषमें शंका करना वृथा है । वास्तवमें सांसारिक बंधनोंसे मुक्ति उसी हालत में मिलसक्ती है, जब मनुष्य वाह्य पदार्थोंसे रंचमात्र भी सम्बन्ध अथवा संसर्ग नहीं रखता है । इसी कारण एक जैन मुनिको अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं पर सर्वथा विजयी होना परमावश्यक. होता है । इस विजय में उसे सर्वोपरि 'लज्जा' को परास्त करना पड़ता है । यह प्राकृत सुसंगत है। संयमी पुरुषको असली हालतअपने प्राकृत स्वरूपमें पहुंचना है । अतएव यह यथाजात रूप उसके लिये परमावश्यक है । उस व्यक्तिकी निस्पृहता और इंद्रियनिग्रहका प्रत्यक्ष प्रमाण है । नग्नदशामें वह सांसारिक संसर्गसे छूट जाता है। कपड़ों की झंझटसे छूटनेपर मनुष्य अनेक झंझटोंसे छूट
१-कचेलको 'ति निच्चेलो नग्गो-पापञ्च सूदन, Siamese Ed. II, p. 67. २ - भमबु० पृ० २५५ - दीनि पाटिक सुत्त । ३-वीर, भा० ४ पृ० ३५३ | ४-ॠग्वेद १० - १३५; वराहमिहिर संहिता १९-६१ व ४५-५० महाभारत ३।२६-२७९ विष्णुपुराण ३३१८; भागवत ४१३० वेदान्तसूत्र २/२/३३-३६ दशकुमारचरित १ इत्यादि ।
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६०] संक्षिप्त जैन इतिहास । कर पूर्ण स्वतंत्र होजाता है। जैनोंके निकट विशेप आवश्यक नो जल है, सो इम भेषमें कपड़ोंके न होने के कारण उसकी भी जरूरत नहीं पड़ती।
वस्तुतः हमारी बुगई भलाईकी जानकारी ही हमारे मुक्त होने में बाधक है । मुक्तिलाभ भरनेके लिए हमें यह भूल जाना चाहिये कि हम नग्न हैं। जैन साधु इस बातको भूल गये हैं। इसीलिये उनको कपड़ों की आवश्यक्ता नहीं है। वह परमोष्ट
और उपादेय दशाको पहुंच चुके हैं। इस दिगम्बर भेषको केवल जनोंने ही नहीं प्रत्युत हिन्दुओं ईसाइयों और मुसलमानोंने भी माधुपनका एक चिन्ह माना है। सारांशतः यह प्रगट है कि भगवान महावीरने गृह त्याग करके इसी दिगंबर भेषको धारण किया था । श्वेताम्बर जैन आचार्य अन्ततः कहते हैं कि " उन (भगवान महावीर ) के तीन नाम इसप्रकार ज्ञात है कि उनके माता-पिताने उनका नाम वर्द्धमान रखा था, क्योंकि वे रागद्वेपसे रहित थे; वे 'श्रमण' इसलिये कहे जाते थे कि उन्होंने भयानक उपसर्ग और कठिन कट सहन किये थे, उत्तम नग्न अवस्थाका अभ्यास किया था और सांसारिक दुःखोंको सहन किया था और पूज्यनीय 'श्रमण महावीर', वे देवों द्वारा कहे गये थे।
दीक्षा ग्रहण कर लेने के उपरान्त भगवान महावीरने ढाई भगवानका प्रथम दिनका उपवाप्त किया और उसके पूर्ण होनेपर.
पारणा। जब वह मुनि अवस्थामे सर्व प्रथम आहार ग्रहण करने के लिये निकले तो कुलनगरके कुलनृपने उनको
-ममबु० पृ० ५९-६० । २-Js, T. P. 193.
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [११. पड़गाहकर भक्तिपूर्वक आहारदान दिया था । रामा और नगरका एक ही नाम, गणराज्य का द्योतक है और यह ऊपर कहा ही जा. चुका है कि यह कुलपुर नाथवंशी क्षत्रियोंकी विशेष वस्ती 'कोल्लग ही थी और कुलनृप वहांके क्षत्रियों के प्रमुख नेता थे । भगवानका पारणा उन्हीं के यहां हुआ था । कुलपुरसे भगवान दशरथपुरको गये थे । वहां भी इसी कुलनृपने जाकर भगवानको दुध और चांवलका माहार दिया था । इसप्रकार परम पात्रको माहारदान देकर इस रानाने विशिष्ट पुण्य संचय किया था। उसके यहां देवोंने रत्नवृष्टि आदि पंचश्चर्य किये थे।
इसके उपरान्त भगवान महावीर वनको वापस चले गये। मनाक का और ध्यानमग्न होगये थे। फिर वहांसे वे
उपसग। अन्यत्र विहार कर गये थे। कितने ही स्था. नोंमें विचरते हुये वे उज्जयनी पहुंचे थे। अभी वे अल्पज्ञ थे
और इस कारण मौनसे रहते हुये, केवल आत्मस्वरूपमें लीन रहते थे। उज्जयनी पहुंचकर वह ' अतिमुक्तक' नामक स्मशानभूमिमें रात्रिके समय प्रतिमायोग धारण करके, ध्यानलीन खड़े थे । उस समय भव नामक रुद्रने उनपर अनेक प्रकार के उपमर्ग किये थे; किन्तु वह उन 'विभव' अर्थात संसार रहितको जीत न सका था। अन्तमें उसने उन निननाथको नमस्कार किया और उनका नाम अतिवीर रक्खा था।
१-3 पु. ६०-६१२ । २-भम० पृ. ९८ । ३-3 पु० ६.२-६१३।
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संक्षिप्त जैन इतिहास । श्वेताम्बर शास्त्रोंमें इसके अतिरिक्त भगवानपर अन्य बहु
... तसे उपसर्ग होने का वर्णन मिलता है; किन्तु अन्य उपसर्ग।
' उनमें ऐतिहासिक तत्व बहुत कम होने और उनमें मात्र भगवानके कठोर तपश्चरण और महान सहनशीलताको प्रगट करने का मूल उद्देश्य रहने के कारण उनको यहांपर लिखना अनावश्यक है। सचमुच भगवान महावीरके जीवन का महत्व उनकी इस कष्टसहिष्णुतामें नहीं है, प्रत्युत उस आत्मबल और देह विरक्तिमें है, जहांसे इस गुणका और इसके साथ २ और भी कई गुणोंका उद्गम हुआ था । एकवार अपने अनुपम सौन्दर्यसे विश्वको विमोहित करनेवाली अनेक सुन्दर सलोनी देवरमणियां महावीरजी के पास आकर रास रचने लगी और नानाप्रकारके हावभाव, कटाक्ष
और मोहक अंग विशेषसे वे अपनी बेलि-कामना प्रगट करने लगी, कि जिसे देखकर किसी साधारण युवा तपस्वीका स्खलित होनाना बहुत सम्भव था; किन्तु भगवान महावीरपर इस कामसैन्यका भी कुछ असर न हुमा । महावीर मजेय थे । फलतः देव. रमणियां अपनाता मुँह लेकर चली गई। यह घटना उनके मात्मबल और इंद्रिय निग्रहकी पूर्णताकी द्योतक है। . श्वेताम्बरोंके ' भगवतीसूत्र' में कथन है कि गृह त्यागकर मक्खलि गौशाला
__दूसरे वर्ष जव भगवान् छद्मस्थ दशामें राजगृहके
निकट नालन्दा नामक गांवमें विराजमान थे; तब मक्खलिपुत्र गोशाल नामक एक भिक्षु भी भगवानके भतिशयको और राजगृहके श्रेष्ठी विनय द्वारा उनका विशेष भादर होता १-चभम० पृ० १५४-१५५ । ६-भगवती १५-उद० Appendir.
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [६३ देखकर उनका शिष्य होनेको तत्पर था। किन्तु इस समय भगवानने उसको अपना शिष्य नहीं बनाया। नालन्दासे भगवान् कोल्लाग पहुंच गये, जहां ब्राह्मण बाहुलने उनको माहार दिया था। गोशाल भगवानको ढूंढ़ता हुआ वहां ठीक उसी समय पहुंचा जर बहुतसे लोग बाहुनके उक्त आहारदानकी प्रशंसा कर रहे थे। यहांपर गोशालकी प्रार्थनाको महावीरनीने स्वीकार कर लिया लिखा हैअर्थात उन्होंने गोशालको अपना शिष्य बना लिया। फिर गोशाल और महावीरजी दोनों जने साथ साथ छै वर्ष तक पणियभूमिमें रहे। “भगवतीसूत्र' का यह कथन श्वेताम्बरोंके दूसरे ग्रन्थ 'कल्पसूत्र' (१२२ ) से ठीक नहीं बैठता। वहां भगवानको पणियभूमिमें केवल एक वर्ष ही व्यतीत किया लिखा है। इसके अतिरिक्त यह भी ठीक नहीं है कि भगवान जब स्वयं छमस्थ थे तब उन्होंने गोशालको अपना शिष्य बनाया हो। उनके भाचाराङ्गसूत्रमें स्पष्ट लिखा है कि भगवान छप्रस्थ दशामें बोलते नहीं थे-मौनका अभ्यास करते थे। अतएव 'भगवती' का उपरोक्त कथन स्वयं उनके ही ग्रंथसे बाधित है एवं अन्य विद्वान् भी अन्य प्रकार इसी निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि मक्खलिगोशाल भगवान महावीरका शिष्य नहीं था।'
उपरान्त 'भगवतीसूत्र' में बतलाया है कि भगवान महावीर गोशाल जब सिद्धस्थगामसे कुम्भगामको जारहे थे, तो मार्गमें एक फल फूली लता विशेषको देखकर गोशालने जिज्ञासा की कि 'लताका नाश होगा या नहीं और फिर उसके बीन कहां प्रकट
-आसू० J3. I P. 80-8/. २-आजी पृ० ११८, हिग्ली. पृ० २६ व Js. II Iatro.
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६४] संक्षिप्त जैन इतिहास होंगे। महावीरजीने उत्तरमें कहा कि 'लताका नाश होगा, किंतु उसके बीजोंसे फिर उसकी उत्पत्ति होगी।' गोशालने इसपर विश्वास नहीं किया। उसने लौटकर लताको नौकर फेंक दिया। होनीके सिर इसी समय पानी भी चरस गया, जिससे उसकी जड़ हरी होगई और उसमें बीज लग आये।
जब गोशाल और महावीरजी वहांसे फिर निकले तो गोशालने महावीरजीको उनके कथनकी याद दिलाई और कहा कि लता नष्ट नहीं हुई है । महावीरजीने लतापर तस्तक नो हालत गुजरी थी, वह ज्योंकी त्यों सब बात बता दी। इस घटनासे गोशालने यह विश्वात कर लिया कि केवल वृक्षलता ही नष्ट होनेपर फिर उसी शरीरमें जीवित होते हों, केवल यही बात नहीं है; चलिक प्रत्येक जीवित प्राणी इसी प्रकार पुनः मृतशरीरमें जीवित (Reanimate) होसक्ता है ! भगवान महावीर गोशालकी इस मान्यतासे सहमत नहीं हुये । इप्तपर गोशालने अपनी रास्ता ली और तपश्चरणका अभ्यास करके उसने मंत्रवादमें कुछ योग्यता पाली । फलतः वह अपनेको 'जिन' घोषित करने लगा और श्रावस्ती में जाकर मानीविक संप्रदायका नेता बन गया । इसी समय अपनी संप्रदायके सिद्धांतोंको उसने निश्चित किया था; जिनको उसने 'पूना के 'महानिमित्त' नामक एक भागसे लिया था। __भगवानने उसके जिनत्वको स्वीकार नहीं किया था । गोशालने जैन संप्रदायको कष्ट पहुंचानेके बहु . प्रयत्न किये थे और मन्ततः उसकी मृत्यु बुरी तरह श्रावस्तीमें एक कुम्भारके घर हुई थी।
१-ऑजी पृ०४।।
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ज्ञात्रिक क्षत्री..और भगवान महावीर। [६५ 'श्वेताम्बराचार्य ने इस कथाने गोशालको खूब हीनाचारी , प्रगट करनेका प्रयत्न किया है जिसमें वह सिद्धान्त विरोधको भी भूल गये हैं । अतः उनके कथनमें ऐतिहासिक तत्व प्रायः नहीं के बराबर है। जब छमस्थ दशामें गोशालका भगवानका शिष्य होना ही बाधित है, तब शेष :कथाको महत्व देना जरा कठिन है।
दिगम्बर जैन संप्रदायके शास्त्र ‘भगवती के उपरोक्त गावर मालमें कथनसे सहमत नहीं हैं। उनमें लिखा है 'गोशालका उल्लेख । कि मक्खलोगोशाल भगवान पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरंपराके एक मुनि थे; परन्तु जिस समय भगवान महावीरके ममवशरणमें उनकी नियुक्ति गणधरपद पर नहीं हुई, तो वह रुष्ट होर श्रावस्तीमें भाकर आजीविक संप्रदायके नेता बन गए थे। और अपनेको तीर्थकर प्रतियोपित करके यह उपदेश देने लगे थे कि ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता; अज्ञानसे ही मोक्ष होता है । देव या ईश्वर कोई
ही नहीं। इसलिए स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान ही करना चाहिये। • देवसेनाचार्यके ( १०वीं शताब्दी) 'दर्शनसार' और 'भावअन्यश्रोतोंसे दिगम्दर संग्रह ' नामक ग्रन्थोंमें यह वर्णन विशेष
शास्त्रोंका समर्थन, रीतिसे है । श्री नेमिचन्द्राचार्यके 'गोमट्टगोशाल पार्श्वनाथकी सार' में भी गोशालकी गणना अज्ञानमतमें
परपराका शिष्य । की गई है। यही बात श्वेताम्बरोंके 'सुत्रकृतांग' ग्रंथमें लिखी हुई है। बौद्धोंके समक्ष फलमूत्त में भी गोशालकी इस अज्ञानमतरूप मान्यताका उल्लेख मिलता है। वहां गोशालको यह मत प्रगट करते हुए लिखा है कि 'अज्ञानी और ज्ञानी
११-भमवु० पृ० २०। २-सूत्रकृतांग २१॥३४५।
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६६] संक्षिप्त जैन इतिहास । संसारमें भ्रमण करते हुये समान रीतिने दुःखका अन्त करते हैं।' (संघावित्वा संसरित्वा दुःखस्मान्तम् करिमन्ति), पातंजलिने मी मपने पागनिसूत्रके भायमें गोशालके सम्बंध में कुछ ऐसा ही सिद्धांत निर्दिष्ट किया है। उसने लिखा है कि वह 'महरि देवल वासकी छड़ी हाथमें लेने के कारण नहीं कहलाता था; प्रत्युत इमलिये कि वह कहता था-"धर्म मत करो, कर्म मन करो, केवल शांति ही वांडनीय है।" ( मा कुन कर्माणि, मा छन धर्माणि इत्यादि)। ____ अतएव दिगम्बर जैनाचार्य ने मश्खलिगोशालको जो अज्ञान मतका प्रचारक लिखा है, वह ठोक प्रतीत होता है। और अन्य श्रोतोंसे यह भी प्रगट है कि वह विधिकी रेसको मनिट मानता था। कहता था कि जो बात होनी है, यह अवश्य होगी; और उसमें पाप-पुण्य कुछ नहीं है । इस अवस्या में उसके निट ईश्वरका अस्तित्व न होना स्वाभाविक है। इस प्रकार दि. शालों उपरोक्त च्यन ठीक जंचता है । और यह मानना पड़ता है कि मक्खलि गोशाल भगवान पार्श्वनायनोके तीर्यका एक मुनि था और वहश्रुती होते हुये भी जा उसे श्री वीर भगवानके ममवशरण में प्रमुख स्थान न मिला, तो वह उनसे सट होकर स्वतंत्र रीतिसे मज्ञानमतका प्रचार करने लगा।
हिंन्तु देवसेनाचार्य नीने मक्खलि गोशालका नामोल्लेख 'मस्क. मक्खलिगोशाल और रिपूरण रूपमें किया है। संभव है. इससे पूरण कस्लप। पूरण उसका भाव गोशालसे न समझा जाय और
जैन मुनि था | उपरोक्त कथनको असंगत माना जाय किंतु १-दीनि भा०२०५३-५४॥२-आजी० पृ. १२३-भावसंग्रहगा• १७॥
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [६७ वास्तवमें बात यह है कि मक्खलि गोशालका नामोल्लेख 'मक्खलि गोशाल' के अतिरिक्त 'मंखलिपुत्र गोशाल' और 'मस्करि' रूपमें भी हुमा मिलता है। देवसेनाचार्यने मस्करि रूपमें उन्हींका उल्लेख किया है। उन्होंने मस्करिकी शिक्षायें बतलाई हैं उना सामंजस्य मक्खलि गोशाककी शिक्षाओंसे बैठ जाना, इस बातकी पर्याप्त साक्षी है कि उनका भाव मक्खलि गोशालसे ही है। पुरणसे देवसेनाचायका अभिप्राय उस समयके एक अन्य प्रख्यात साधुसे है। बड लोग-(१) पुरण करमप, (२) मश्खलि गोशाल, (३) अजित केसकम्बली, (४) पकुढकच्चायन, (५) संनय वैरत्थी पुत्र और (६) निगन्ठ नाथपुत्तकी गणना उस समयकी प्रख्यात ऋषियों में करते हैं। निगन्ट नाथपुत्त अर्थात भगवान महावीर के अतिरिक्त अवशेपकी म० वुद्धने तीव्र मालोचना भी की है। ___ यह सब ही ऋषिगण भगवान महावीरसे वयमें अधिक और उनसे पहलेके थे। निप पुग्णका उल्लेख देवसेनाचार्यने किया है, वह पूग्ण कसप ही प्रतीत होता है। इसका सम्बंध गोशालसे विशेष था, इस कारण इन दोनों का उल्लेख साथ साथ किया जाना सुसंगत है। चौहोंके 'अंगुत्तर निकाय' में पूरणको गोशालका शिष्य प्रगट करने जैसा उल्लेख है तथा गोशालके छै अभिनाति सिद्धांतको पूरणका बतलाया गया है। यहां गलती होना अशक्य है, बल्कि इस सिद्धांत मिश्रणसे उनका पारस्परिक धनिष्ट सम्बंध ही प्रगट होता है, जिसे डॉ. जल चारपेन्टियर सा० भी स्वीकार करते हैं । १-दीनि० भा०२ पृ० १५०।२-हिग्ली० पृ० २७-२८॥ ३-हिग्ली. पृ. २५-२६ । ४-अंगु० भा• ३ पृ. ३८३ । ५-ऐ० भा० ४३॥
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संक्षिप्त जैन इतिहास । दोनों ही साधु पुण्य-पापको भी नहीं मानते थे। अतः गोशाल और पूरणका एक ही मतके अनुयायी होना सिद्ध है और बहुत करके वह गुरु शिष्यवत थे ।
इस दशामें जैनाचार्यने उन दोनोंका नामोल्लेख एक साथ प्रकट करके, यह स्पष्ट कर दिया है कि उनका सम्बंध अवश्य एक ही मतसे था; निसको आनीविक कहते थे। कुछ विद्वान् गोशालको आजीविक मतका नेता और पूरणको अचेलक मतका मुखिया समझते हैं; किंतु यह यथार्थताके विपरीत है ।
वास्तवमें उस समय अचेलक नामका कोई स्वतंत्र संप्रदाय 'अचेला निधोका नहीं था। अंगुत्तर निकायमें उस समय के द्योतक है । तब इस प्रख्यात मतोंकी जो सुची दी है, उसमें नामका कोई अलग अचेलक नामका कोई संप्रदाय नहीं है।
सम्प्रदाय नहीं था। मालूम तो ऐसा होता है कि अचेलक शब्द उस समय श्रमण शब्दकी तरह नग्न साधुओंके लिये व्यवहन होता था और मुख्यतः उसका प्रयोग जैन संप्रदाय और उसके साधुओंके लिये होता था । निग्रंथ श्रावकका पुत्र सच्चा अचेलक लोगोंकी जिन क्रियायोंका उल्लेख करता है, वह ठीक जैन मुनियोंकी क्रियायोंके समान है । इसके अतिरिक्त और भी कई स्थलोंपर बौद्धोंने 'अचेलक' शब्दका प्रयोग जैनोंके लिये किया है। अतएव आनी. . 4-Js. II. Intro. XXVIII ff. २-भमबु० ० २०८ ।
३-वीर भा० ३ ० ३१९-३२१ व भा० ४ पृ. ३५३ | ४-चीनी त्रिपिटकमें भी 'अचेलक का व्यवहार जैनोंके लिये हुआ है (वीर ४।३५३), दीनि० उ० पृ. १३ व आजी० १३५ ।
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ज्ञानिक क्षत्री और भगवान महावीर। [६९ 'विक संप्रदायके समान मचेलकको भी एक संपदाय मानना उचित नहीं है और न वह आनीविकोंका ही अपर नाम था ।
किन्हीं विद्वानों का यह भी अनुमान है कि भगवान महावीभगवान महावीरपर रनीने अपने धर्म निर्माणमें बहुतसी बातोंची नौशालका प्रभाव सहायता मानीविक संप्रदायसे ली थी।
नहीं पड़ा था। खासकर वह कहते हैं कि नग्नताको भगवान महावीरने गोशालसे ग्रहण किया था; किंतु उनके इस कथनमें बहुत कम तथ्य है । जिस समय श्वेतांबरों के अनुसार गोशाल महावीरजीको मिला था, उस समय वह सवस्त्र था। भगवान के साथ रहकर उसने वस्त्रोंका त्याग किया था और तब उसको भगवानने अपना शिष्य बनाया था, यह प्रगट है। अथ च यह भी ज्ञात है कि भगवान महावीरजीने साधु दीक्षा ग्रहण करनेके समयसे ही नग्नभेष धारण किया था जैसे कि ऊपर लिखा नाचुका है । अतएव यह बिल्कुल असंभव है कि गोशाल द्वारा प्रभावित होकर महावीरजीने नग्नमेप धारण, किया हो। इसी प्रकार. आजीविककि कतिपय सिद्धांतों की सहशता भ० महावीरके सिद्धांतोंसे होती देखकर, यह कहना कि महावीरजीने अपने सिद्धांत गठनमें गोशालसे सहायता ली, कुछ महत्व नहीं रखता; क्यों कि मानीविक संप्रदायकी उत्पत्ति जिस समय हुई थी, उस समय भगवान पार्श्वनाथ द्वारा जैनधर्मका पुनः प्रचार होचुका था।
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1-Js. II. Intros. XXIX; आजी०, हिग्ली० पृ० ३८.४१ व दिनीइफि० पृ. ३९६-३९९ । २-उद० हाणले, Appendix १२।
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संक्षिप्त जन इतिहास। अतः मैनधर्ममें वह नियम आजीविककि पहले से ही स्वीटन थे। लीविज़न जैनोले भगवान महावीरने भी उन्दीका प्रतिपादन किया अपने सिद्धान्त था। माधुनिक विहानोको भी यह मान्य.
लिप थे। कि भाजीविक नेता मयखलिगोशाला, पुरण सप मादिपर मैनधर्मका विशेष प्रभाव पड़ा था और उनने जैनधमसे बहुत कुछ सीखा था । आजीविक सम्प्रदायका निवास ही मन धर्मसे हमा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। जनधर्मके आधारसे मानी.
१-स्व० जेम्स टी० एल्बिम सा सिराते है कि दिगम्बर मानीन संप्रदाय समझा जाता था और उपोत्त. सापुओं feeiale 'जन प्रभाव पड़ा था । (" In James d. Alris' paper (Ind. Anti. VIII) on the six Tirthakas the " Digaml. berus" appear to havo beou regarded ay an old order of ascetics and all of these herctical teachers betray the influence of Joinism in their doctrines. "-Ind. Antri. Vol. IX P.101), डॉ रमन जैकोबी भी यही बात प्रकट करते हैं, यया: " The preceding four Tirthakur appour all to have adopted 2016 or other doctrines or practices of the Joiun systerm, probably from the Jains themselves......It appears from tho preceding remarks that Jain ideas & practices wust bave been carrent at the time of Moliovira and indopondoptls of him. This combiped with other argoments, leads 08' to the opinion that the Nirgronthas (Jajnas ) were really in existence long before Mahavira, who was the roformer of the already existing sect. "-Ind. Anti IX. 162,
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MAKA
ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [.. विकोंने अपने सिद्धान्त निश्चित किये थे, यह एक मान्य विषय हैं। तथापि निम्न विशेषताओंको व्यानमें रखनेसे यह स्पष्ट दृष्टि पड़ता है कि भाजीविक मतका विकास जैनमतसे हुमा श्रा:
(१) आजीविक मंप्रदायचा नामकरण 'आजीविक' रूपमै इसी कारण हुमा प्रतीत होता है कि आजीविक साधु, जिनकी बाह्यक्रियायें प्रायः जन साधुओंके अनुरूप थीं, किसी प्रकारको आनीविका करने लगे थे। जैन शास्त्रोंमें साधुओंको 'मानीवो' नामक दोष अर्थात किसी प्रकारकी आनीविका करनेसे विलग रहनेका उपदेश है। वस्तुतः आजीविक साधुगण प्रायः ज्योतिपियोंकि रूपमें उस समय आनीविका करने लगे थे, यह प्रकट है। अतः उनका नामकरण ही उनका निकास जैनधर्मसे हुआ प्रगट करता है।
(२) आनीविक साधुओंका नग्नभेष और कठिन परीपह सहन करनेसे भी उनका उद्गम जैन श्रोतसे हुआ प्रतिमाषित होता है ।
(३) आनीत्रिक साधु प्रायः जैन तीर्थंकरोंक भी भक्त मिलते थे; जैसे उपक नामझ आनीविक साधु अनंतमिन नामक चौदहवें जैन तीर्थकरका उपापक श्री।
(४) सैद्धान्तिक विषयमें आनीवि जैनोंके समान ही मात्मामा अस्तित्व मानते थे और उसको 'अरोगी' अर्थात् सांसारिक मलोसे रहित स्वीकार करते थे तथा संसार परिभ्रमण सिद्धान्त भी उन्हें मान्य था।
१-कहिद०, पृ. १६२ व इरिइ० भाग पृ० २६१ १२-मूलाचार- 'घादीदनिमित्त आजीवो वणिवगेद्रयादि । ३-आजी० ० ६७-६८ । ४-आजी० पृ० ५५ व ६२ । ५-लाम० पृ. ३०, मारिय-परियेसणासुत्त, दहिवा० भा० ३ ० २४७ । ६-Js. I. Iatro. XXIX.
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७२ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
(५) जैनोंकी विशेषता अणुवाद ( Atomic Thoery ) में है और भारतीय दर्शन में उन्हींके यहां इसका सर्व प्राचीन रूप मिलता है | आजीविक संप्रदाय को भी यह नियम प्रायः जनधर्मके अनुसार ही स्वीकृत था |
(६) जैनोंके द्वादशाङ्गश्रुतज्ञानमें 'पूर्व' नामक भी १२ ग्रंथ थे । उन्हीं में से अष्टाङ्ग महानिमित्तज्ञानको आजीविकोंने ग्रहण 1
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किया था ।
(७) मक्ख लिगोशालने आजीविक संप्रदाय में 'चत्तारि पाणगायं चत्तारि अपाणगायं' नियम नियत किया था जो जैनोंके महेखनाव्रत के समान था ।
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(८) आजीविक संप्रदायने जैनोंके कतिपय खास शब्दों (Terms) को ग्रहण कर लिया था; यथा 'व्त्रे सत्ता, सव्ये पाणा, सव्बे भूता, सव्चे जीवा, 'संज्ञी', 'असंज्ञी', 'अधिकम्म' इत्यादि । (९) गोशाला है अभिजाति सिद्धान्त नैनोंके पट्लेश्या सिद्धान्त के सदृश है ।"
(१०) गोशाल अपनेको 'तीर्थंकर' प्रगट करता था | तीर्थकर- मान्यता सिवाय जैनधर्मके और किसी संप्रदाय में नहीं है । (११) जीवों के एक इन्द्री, द्वेन्द्रिय मादि भेद भी जैनोंके समान मानविकोंको स्वीकृत थे ।
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इन बातोंके देखने से आजीविकों का निकास भगवान पार्श्व१ - इरिई० ६ भम० पृ० १७७ - १७८ । ३- आजी० ७ पृ.० ३१८ । ५–Js. II. Iutro
० भा० २ ० १९९ । २ आजी० भा० १ पृ० ४१. पृ० ५३-५४ । ४-वीर भा० - Js. II. Intro.
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर ।
[ ७३०
नाथके तीर्थ में जैनधर्मसे हुआ मानना. कुछ अनुचित नहीं जंचता है । गोशाल और पुरण इस संप्रदाय के मुख्य नेता थे । गोशालने 1 - इस धर्मका प्रचार २४ वर्षतक करके श्रावणी में हालाहलाकी कुंभारशाला में महावीरजीफे निर्वाणसे सोलह वर्ष पहले मरण किया था । : इस समय उसने अपने कृतदोपों का प्रायश्चित्त भी लेलिया था और प्रगट कर दिया था कि वह सर्वज्ञ नहीं है । ' आजीविक साधु पच्युत अथवा सहस्रार स्वर्गतक गमन करते हैं। गोशालके मृत्यु उपरान्त भी आजीविकमतका प्रचार रहा था । संभवतः महापद्म नन्दः आजीविक था और अशोकने नागार्जुनी पर्वतपर इनके लिये गुफायें बनवाई थीं।
1
उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीरकी छद्मस्थ गोशाल भगवान के दशामें मक्खलि गोशाल उनके साथ अवश्य, · साथ रहा था, परन्तु रहा था । श्वेताम्वर शास्त्र तो यह स्पष्टतः . उनका शिष्य नहीं था । प्रगट करते ही हैं, किन्तु दिगम्बर, शास्त्र के . - इस कथन से कि भगवान् महावीरजी के समोशरणमें उसे अमस्थान.: - न मिलनेके कारण वह उनसे रुष्ट होकर प्रगट है कि वह भगवान महावीरजीके समय अवश्य उनके निकट था । अतः वह भगवान महावीर द्वारा:उपदेश प्रारम्भ होनेके जरा पहले हीसे अपने अज्ञानमतका प्रचार करने लगा था। डॉ० हाणले सा० भगवान महावीरके केवलज्ञान.
प्रथक होगया था, यह केवलज्ञान प्राप्त करने के..
१ - विशेपके लिये 'आजी०', 'भम', 'वीर' वर्ष 3 अंक १२-१३ व दिगम्बर जैन, भा० १९ अंक १-२ ६-७ से २ - त्रिलोकसार ५४५ व आचारसार १२७/६ । ३१५- आजी० पृ० ६७-६९ |
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७४] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्राप्त करनेके समयसे दो वर्ष पहिले गोशालने स्वधर्म प्रचार प्रारम्भ किया, बतलाते हैं।
भगवान महावीर उन्जनीसे विहार करके कौशांबी पहुंचे थे। महावीरको केवल- यहांपर उनका आहार दलित अवस्थामें ही
जानकी प्राप्ति। रहती हुई राजकुमारी चन्दनाके यहां हुमा था, जिससे भगवानका पतितोद्धारक स्वरूप स्पष्ट होकर मन मोह लेता है। कौशांबीसे भगवान पुनः एकांतवासमें निश्चल ध्यानारूढ़ रहे थे। उन्होंने एक टक बारह वर्ष तक दुद्धर तपश्चरण करनेका कठिन परन्तु दृढ़तम आत्मबल प्रगट करनेवाला नियम ग्रहण किया था। इस बारह वर्षके तपश्चरणके उपरांत उनको पूर्णज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। दिगम्बर और श्वेतांवर दोनों ही संप्रदायोंके शास्त्र जीवनकी इस मुख्य घटनाके समय महावीरजीकी अवस्था व्यालीप वर्षकी बतलाते हैं। श्वेतांबर शास्त्र कहते हैं कि उपरोक्त बारह वर्षकी घोर तपस्याका अभ्यास उनने काढ़ देशके दो भागों-वजभूमि और सुमभूमिके मध्य नाकर किया था और उनको वहीं देवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। महावीरकी महान विजयके ही कारण । लाढका उक्त प्रदेश 'विनयभूमि' के नामसे प्रख्यात् हुआ था। भगवानने 'विजय मुहूर्त में ही सर्वज्ञपद पाया था।
उस समय यह काढ़ देश बड़ा दुश्चर था और भगवानको यहापर बड़ी गहन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। किन्तु
- 1-Appendiss. २-हरि० पृ० ५७५ व Js. I. p. 269. '३-J8. I, P, 263. ४-इहिक्क.. भा० ४ पृ. ४४ । ५-केहिइ. पृ. १५८ ।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [७५ वे उन सबपर विजयी हुये थे और उन्होंने सर्वज्ञ होकर 'विजयधर्म' प्रतिपोषित करने का उच्च निनाद किया था। केवलज्ञान प्राप्तिकी महत्वपूर्ण घटनाके विषय में कहा गया है कि एक 'सुव्रत' नामक. दिनको ऋजुकूला अथवा ऋजुपालिका नदीके वामतटपर जृम्भक नामक ग्रामके निकट पहुंच कर, अपराह्नके समझ अच्छी तरहसे षष्ठोपवातको धारण करके सालवृक्षके नीचे एक चट्टानपर आसन जमाकर महावीरजीने वैशाप शुक्ला दशमीके तिथिमें सर्वज्ञपदको प्राप्त किया था। इस समय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र और विनयमुहूर्त था। जिस स्थानपर भगवानने केवलज्ञानकी विभूति पाई थी, वह स्थान सामाग नामक रुपकके खेतमें था और एक प्राचीन मंदिरसे उत्तर पूर्वकी ओर था। वहां महावीरनी सर्वज्ञ हुये और परम वंदनीय परमात्मा होगये थे। वह शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वरूप सशरीर ईश्वर अथवा पूज्य अहंत या तीर्थकर हुये थे। समस्त लोकमें आनंद छागया और देवोंने आकर उस समय आनंदोत्सव मनाया था।
आन स्पष्टरूपमें यह विदित नहीं है कि भगवान महावीरका भगवान महावीरको केवलज्ञान स्थान कहाँपर है ? भगवानके केवलहान-स्थान । जन्म व निर्वाणस्थानोंके समान जैन समाजमे किसी भी ऐसे स्थानकी मान्यता नहीं है कि वह केवलज्ञान प्राप्तिका पवित्र स्थान कहा नासके। जयपुर रियासतके चांदनगांवमें एक नदीके निकटसे भगवान महावीरजीकी एक बहुप्राचीन मूर्ति मूगर्भसे उपलब्ध हुई थी। वह मूर्ति वहीपर एक विशाल मंदिर
1-उपु० पृ० ६१४ व Js. I, 201. २-आचाराङ्ग Is. I. pp. 20/57.
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७६] संक्षिप्त जैन इतिहास। बनवाकर विराजमान करदी गई थी और वहीं निकटमें भगवान चरणचिह्न भी हैं। इस प्रकार नाहिरा शास्त्रोंमें बताये हुये केव. लज्ञान स्थानके वर्णननसे इस स्थानकी मारूति ठीक एक्सी बैठती है और इससे यह भ्रम होसक्ता है कि यही म्यान भगवान महावीरजी केवलज्ञान प्राप्त करनेका दिव्यस्थान होगा; किंतु जैन समाजमें यह स्थान केवल एक अतिशय तीर्थरूपमें 'महावीरनी के नामसे मान्य है । तिसपर शास्त्रोंमें बताया हुआ केवलज्ञान स्थान कौसाम्बीसे भगाड़ी कहीं होना उचित है; क्योंकि उज्जयनीसे कौसाम्बीको जाते हुये उपरोक्त अतिशयक्षेत्र पीछे मार्गमै रह जाता है। और श्वेतांबर शास्त्र जम्भक ग्राम भादिको लाढ देश में स्थित बतलाते हैं।
अतः यह केवलज्ञान स्थान मगधदेशमें कहीं होना युक्तिसंगत है। किन्हीं दिगम्बर जैन शास्त्रों में उसे मगरदेशमें बतलाया भी है। लाढदेशका विनयभूमि प्रान्त आजकलके बिहार ओड़ीसा प्रांतस्थ छोटा नागपुर डिवीजनके मानभुन और सिंहभूम निलों इतना माना गया है । स्व० नंदलाल डे महाशयने सम्मेदशिखर पर्वतसे २५-३० मीलकी दुरीपर स्थित झरियाको जम्भक ग्राम प्रगट किया है जो अपनी कोयलोंकी खानोंके लिये प्रसिद्ध है और बराकर नदीको ऋजुकूला नदी सिद्ध की है।' ।
१-चीर मा० ३ पृ. ३१७ पर हमने भ्रमसे उसी स्थानको केव.. लज्ञान स्थान अनुमान किया था । २-यसू० Js. I, p. 268..
वृजेश-पृ- +-इहिक्वा०-मा०-४-१०----X६ व वीर . मा० ५ पृ.
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [७७ यह स्थान मानभूम जिले में है और प्राचीन मगघका राज्याविकार यहां था। अतएव यह बहुत संभव है कि उक्त स्थान ही महावीरजीका केवलज्ञान स्थान हो। इसके लिये झिरियाके निकटवर्ती वंशावशेषोंकी जांच पड़ताल होना जरूरी है । इतना तो विदित ही है कि इन जिलों में 'सराक' नामक प्राचीन जैनी बहुत मिलते हैं
और इनमें एक समय जनों का राज्य भी था। किंतु कालदोष एवं अन्य संप्रदायोंके उपद्रवों से यहांके मैनियों का हास इतना वेढा हमा कि वे अपने धर्म और सांप्रदायिक संस्थाओं के बारेमें कुछ भी याद न रख सके । यही कारण कि इस प्रांतमें स्थित भगवान महावीरजीके केवलज्ञान स्थानका पता आज नहीं चलता है।
० स्टीन मा० ने पंजाब प्रांतसे रावलपिंडी निलेमें कोटेश नामक ग्रामके सन्निकट मति नामक पहाडीपा एक प्राचीन जीर्णन मंदिरके विषयमें लिखा है कि यहींपर भगवान महावीरनीने ज्ञान लाम किया था। किंतु कौशाम्बीसे इतनी दूरीपर और सो भी नदीके सन्निकट न होकर पहाड़ीके ऊपर भगवानका केवलज्ञान स्थान होना ठीक नहीं जंचता। केवलज्ञान स्थान तो मगरदेश में ही कहीं और बहुत करके झिरियाके सनिकट ही था । उपरोक्त स्थान भगवान के समोशरणको वहां आया हुआ व्यक्त करनेवाला अतिशयक्षेत्र होगा; क्योंकि यह तो विदित है कि भगवान महावीर विहार करते हुये तक्षशिला आये थे और मूर्तिपर्वत उसके निकट था।
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१-वविभोजस्मा० पृ० ४२-७७ । २-कजाइ० पृ० ६८३ । ३-हॉ० पृ. ८० फु० नो.
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७८]
संक्षिप्त जैन इतिहास । भगवान महावीरने जिप्स अपूर्व त्यागवृत्ति और अमोघ आत्मभगवान महावीर शक्तिका अवलंबन किया था, उसीका फल था सर्वज्ञ थे। अजैन कि वह एक सामान्य मनुष्यसे मात्मोन्नति ग्रंथोंकी साक्षी। करते२ परमात्मपद जैसे परमोल्लष्ट अवस्थाको प्राप्त हुये थे । वह सर्वज्ञ हो गये थे। जन शास्त्र कहते हैं कि ज्ञात्रिक महावीर भी अनंतज्ञान और अनंतदर्शनके धारी थे। मत्येक पदार्थको उनने प्रत्यक्ष देख लिया था और वे सर्व प्रकारके पापमलसे निर्मुल थे । वह समस्त विश्वमें सर्वोच्च और महाविद्वान थे। उन्हें सर्वोत्कृष्ट, प्रभावशाली, दर्शन, ज्ञान और चारित्रमे परिपूर्ण और निर्वाण सिद्धान्त प्रचारकोंमें सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है। यह मान्यता केवल जैनोंकी ही नहीं है। ब्राह्मण और बौद्ध अन्य भी भगवान महावीरजीकी सर्वज्ञताको स्वीकार करते हैं। बौद्धोंके अंगुत्तरनिकायमें लिखा है कि भगवान महावीरजी सर्वज्ञाता और -सर्वदर्शी थे। उनकी सर्वज्ञता अनंत थी । वह हमारे चलने, बैठने, सोते, जागते हर समय सर्वज्ञ थे। वह जानते थे कि किसने किस प्रकारका पाप किया है और कितने नहीं किया है। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि महावीर संघके आचार्य, दर्शन शास्त्रके प्रणेता, बहुप्रख्यात, तत्ववेत्ता रूपमें प्रसिद्ध, जनता द्वारा सम्मानित, अनुभवशील वय प्राप्त माधु और आयुमें अधिक थे। ( डायोलॉग्स
१-उपु० पृ. ६१४ । २-Js. II, pp. 287-270. ३-मझिमनिकाय १।२३८ व ९२-९३, अंगुत्तानिकाय ३७४, न्यायविन्दु म० ३, चुटवग्ग SBE. XX 78, Ind, Anti. VIII. 313. पंचतंत्र (Keilhorn, V_I) इत्यादि । ४-० नि. भाग १ पृ० २२० । ५-ममि० भाग २ पृ. २१४-२२८ । .
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [७९ माफ दी बुद्ध पृ०६६) वे चातुर्याम संवरसे स्वरक्षित, देखी और सुनी बातोंको ज्योंका त्यों प्रगट करनेवाले साधु थे (संयुत्त० ० १४० ९१) जनतामें उनकी विशेष मान्यता थी। (पूर्व ए० ९४)।
सचमुच तीर्थकर भगवान के दिव्य जीवन में केवलज्ञानप्राप्तिकी भगवानका दिय एक ऐसी बड़ी और मुख्य घटना है कि उसका
प्रभाव। महत्व लगाना सामान्य व्यक्तिके लिये जरा टेड़ी खीर है। हां ! जिप्तको आत्माके अनन्तज्ञान और अनन्त शक्तिमें विश्वास है, वह सहनमें ही इस घटनाका मूल्य समझ सक्ता हैं। केवलज्ञान प्राप्त करना अथवा सर्वज्ञ होनाना, मनुष्य जीवनम एक अनुपम और अद्वितीय अवसर है । भगवान महावीर जब सर्वज्ञ होगये, तो उनकी मान्यता जनसाधारणमें विशेष होगई। उस समयके प्रख्यात राजाओंने भक्तिपूर्वक उनका स्वागत किया। प्रत्येक प्राणी तीर्थकर भगवानको पाकर परमानन्दमें मग्न होगया। चौद्ध शास्त्र भी महावीरजीके इस विशेष प्रभावको स्पष्ट स्वीकार करते हैं। मालूम तो ऐसा होता है कि भगवान महावीरके कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होनेसे उस समयके प्रायः सब ही मतप्रवर्तकोंक भासन ढीले होगये थे और भगवान की प्राणी मात्रके लिये हितकर शिक्षाको प्रमुखस्थान मिल गया था।
उस समयके प्रख्यात मतपक म. गौतम बुद्ध के विषयमें म० गौतम वडके तो स्पष्ट है कि उनके जीवनपर भगवान जीवनपर भगवान महावीरकी पर्वज्ञ अवस्थाका ऐसा प्रबल महावीरका प्रभाव। प्रभाव पड़ा था कि भगवान महावीरके धर्म
१-संयुक्तनिकाय भा० १ पृ. १४ ।
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संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रचारके मन्तराल काल तक उनके दर्शन ही मुश्किल से होते हैं। म. बुद्धके ६० से ७० वर्षके मध्यवर्ती जीवन घटनाओंचा उल्लेख नहींके बराबर मिलता है रेवरेन्ड विशप विगन्डेट मातो कहते हैं कि यह काल प्रायः घटनाओं उल्लेखमे कोरा है।(An almost blank) म० बुद्धके उपरोक्त जीवनकालकी घटनाओं के न मिलनेका कारण सचमुच भगवान महावीर के धर्मप्रचारमा प्रभाव है। क्योंकि यह अन्यत्र प्रमाणित किया जाता है कि निमममय भगवान महावीरजी ने अपना धर्मप्रचार प्रारम्भ किया था, उस समय म० वुद्ध अपने 'मध्य मार्ग' का प्रचार प्रारम्भ कर चुके थे और अनुमानसे ४५ या १८ वर्षकी अवस्थामें थे। अतः यह विलकुल सम्भव है कि नहावीरनीका उपदेश इस अन्तराल कालमें इतना प्रभावशाली अवश्य होगया था कि म० बुद्धके जीवन ५० दें. वर्षसे उनकी जीवन घटनायें प्रायः नहीं मिलती हैं। ___ सामगाम सुतन्त' में भगवान नहावीनीके निर्माण प्रातिकी खबर पाकर म० बुद्धके प्रमुख शिप्य वानन्द बड़े हर्पित हुये थे
और बड़ी उत्तुस्तासे यह समाचार म० बुद्धको सुनानेके लिये दौड़े गये थे, इससे भी साफ प्रगट है कि म. गौतमबुद्धको महावीरजीके धर्मप्रचारके समक्ष अवश्य ही हानि उठानी पड़ी थी। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो महावीरजीले निर्वाण पालेनेकी घटनाको बौद्ध बड़ी उत्कण्ठा और हर्षभावसे नहीं देखते । भगवान महावीर के समक्ष म° बुद्धका प्रभाव क्षीण पड़ेनेमें एक और कारण
२-भमनु० पृ० १००-११० । २-सॉन्डर्म, गौतमबुद्ध पृ. ५४ । ३-भमबु. पृ० १०१ । ४-ढायोलॉग्स ऑफ बुद्ध भा० ३ पृ० ११२ ।
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ज्ञानिक क्षत्री और भगवान महावीर। [८१. दोनों मत प्रवर्तकों का विभिन्न मात्राका ज्ञान भी था। महावीरनी पूर्ण सर्वज्ञ और त्रिकालदर्शी थे, यह बात स्वयं बौद्ध शास्त्र प्रगट करते हैं। जैसे कि ऊपर व्यक्त किया गया है। किन्तु म० बुद्धको यद्यप बौद्ध शास्त्र सर्वन बतलाते हैं। परन्तु यह बात वह स्पष्ट स्वीकार करते हैं कि म० वुद्धकी सर्वज्ञता हरसमय उनके निकट नहीं रहती थी। वह जब मिस बातको जानना चाहते थे, उस बातको ध्यानसे जान लेते थे । अतः म० बुद्धका ज्ञान पूर्ण सर्वज्ञता न होकर एक प्रकारका अवधिनान प्रगट होता है। ज्ञानके इस तारसम्यको समझकर ही शायद म० बुद्धने कभी
.. भी जैन तीर्थ करसे मिलने का प्रयाप्त नहीं गौतम बुद्धका ज्ञान या था और न उनने महावीरजीकी वैसी तीव्र आलोचना की है, जैसे कि उन्होंने उस समयके अन्य मतप्रवनकों की की थी। किन्तु इस कथनसे यहां हमारा भाव म. बुद्ध के गौरवपूर्ण व्यक्तित्वकी अवना करनेका नहीं है। हमारा उद्देश्य मात्र भगवान महावीरके दिव्य प्रभावको प्रगट करनेका जिप्तका विशिष्ट रूप स्वयं बौद्ध शास्त्र प्रगट करते हैं । बौडों के कथनसे यह भी प्रगट होता है कि उम समयके विदेशी लोगों-यवनों (Inda-Greeks) में भी भगवान महावीरजीची मान्यता विशेष होगई थी । सर्वज्ञ प्रभुका महत्व क्रिसको अछूता छोड़ सक्ता है ? . भगवानके केवली होते ही जनता उनके अनुपम महान व्य'तित्वपर एकदम मोहित होगई प्रगट होती है। इस दिव्यं घटनाके 3" १-मिलिन्दपन्ह (SBE.) भा० ३५ १०. १५४.१।२-भमबु पृ० ७२-७५ । ३-हिग्ली० पृ० ७८ ॥
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८२] संक्षिप्त जैन इतिहास। उपलक्षमें ही उन स्थानोंके नाम भगवान महावीरजीकी अपेक्षा उल्लिखित हुये जिनका सम्पर्क महावीरजीसे था। कहते हैं मानभूमि जिला, मान्यभूमि रूपमें भगवानके अपरनाम "मान्य श्रमण" की अपेशा कहलाया था । सिंघभूम निलाका शुद्ध नाम 'सिंहभूमि' बताया गया है और कहा गया है कि वोर प्रभुकी सिंहवृत्ति थी
और उनका चिन्ह 'सिंह' था; इसलिये यह जिला उन्हीं की अपेक्षा इस नामसे प्रख्यात हुआ था। इनके अतिरिक्त विनयभूमि, वर्द्धमान (वर्दवान), वीरभूमि मादि स्थान भी भगवान महावीरजीके पवित्र नाम और उनके सम्बन्धको प्रगट करनेवाले हैं। सचमुच बंगाल व विहारमें उससमय जैनधर्मको गति विशेष थी और जनता भगवान महावीरको पाकर फूले अंग नहीं समाई थी।
म. गौतम बुद्ध बौद्धधर्मके प्रणेता थे और वह भगवान म. वुद्ध एक समय महावीरके समकालीन थे। जैन शालों में
जैन मुान थे। उनको भगवान पार्श्वनाथजी के तीर्थके मुनि पिहिताश्रवका शिष्य बतलाया है। लिखा है कि दिगम्बर जैन मुनिपदसे भ्रष्ट होकर रक्ताम्बर पहिनकर बुद्धने क्षणिकवादका प्रचार किया और मृत मांस ग्रहण करने में कुछ संकोच नहीं किया था। जैन शास्त्रके इस कथनकी पुष्टि स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंसे होती है। उनमें एक स्थानपर स्वयं गौतम बुद्ध इम वातको स्वीकार करते हैं
१-इहिरा० मा० ४ पृ. ४५। २-पूर्व प्रमाण । ३-वर भा० ३ पृ० ३७० व वविओ जैस्मा०पृ० १०९।४-भमवु० पृ० ४८-४९० बुद्धको अनात्मवाद सहसा मान्य नहीं था । उनने स्पष्टतः आलाके अस्तित्वसे इन्कार नहीं किया था । यह उनकी' जैन दशाका प्रभाव कहा जासकता है।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [८३ कि उनने दाढ़ी और सिरके बाल नोंचनेको परीषको सहन किया था। यह परीषह जैन मुनियों का खास चिन्ह है। तिसपर गया शीर्षपर उन्होंने पांच भिक्षुओं के साथ जो साधु जीवन व्यतीत किया था, वह ठीक जैन साधुके जीवन के समान था। पांच भिक्षुओं के नाम भी जैन साधुओं के अनुरूप थे। कहा गया है कि 'भिक्षु' शब्दका व्यवहार सर्व प्रथम केवल नैनों अथवा बौद्धों द्वारा हुमा था; किन्तु जिस समय म० बुद्ध उन पांच भिक्षुओं के माथ थे उमसमय उन्होंने बौद्धधर्मका नीवारोपण नहीं किया था । अतः निःसंदेह उक भिक्षुगण मैन थे और उनके साथ ही म० वुडने जैन साधुका जीवन व्यतीत किया था; जैसे कि वह स्वयं स्वीकार करते हैं। सर भाण्डारकर भी म० बुद्धको एक समय जैन मुनि हुआ नतज्ञा चुके हैं। किन्तु जैन मुनिकी कठिन परीपहों को सहन करनेपर भी म० बुद्धको शीघ्र ही क्षेवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई तो वह हताश होगये और उन्होंने मध्यका मार्ग ढूंढ़ निकाला; मो जैनधर्मकी कठिन तपस्या और हिन्दु धर्मके क्रियाकाण्डके बीच एक राजीनामा मात्र था।
किन्हीं लोगों का यह खयाल है कि म. गौतमबुद्ध और · भगवान महावीर और भगवान महावीर एक व्यक्ति थे और जैन
म. गौतमबुद्ध एक धर्म बौद्धधर्मकी एक शाखा है, किंतु इस व्यक्ति नहीं थे और जैनधर्म बौद्धधर्मको मान्यताम कुछ भी तथ्य नहीं है। स्वयं शाखा नहीं है। चौद्ध ग्रंथोंसे भगवान महावीरनीका स्वतंत्र
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• १-डिस्कोर्सस ऑफ गोतम ११९७-९९ । २-भमनु० पृ. ४७.।
-डायोलरेंस ऑफ वुद्ध (BB) Intro; ४-जैहि भा - १ ० ५ ॥ - ५-J II. Intro:
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८४ संक्षिप्त जैन इतिहास । व्यक्तित्व प्रमाणित है; जैसे कि पहले बौद्धग्रंथोंके उद्धरण दिये जा चुके हैं। इन दोनों महापुरुषोंकी कतिपय जीवन घटनायें अवश्य मिलती जुलती हैं; किंतु उनमें विभिन्नतायें भी इतनी वेढब हैं कि उनको एक व्यक्ति नहीं कहा जासक्ता है । म० गौतमबुद्धके पिताका नाम जहां शाक्यवंशी शुद्धोदन था, वहां भगवान महावीरजीके पिता ज्ञ तृकुलके रत्न नृप सिद्धार्थ थे । म० बुद्धके जन्मके साध ही उनकी माताका देहांत होगया था; किंतु भगवान महावीरकी माता रानी त्रिशला अपने पुत्रके गृह त्याग करनेके समय तक जीवित थीं। भगवान महावीर बालब्रह्मचारी थे; पर म० बुद्धका विवाह यशोदा नामक राजकुमारीसे हुआ था जिससे उन्हें राहुल नामक पुत्ररत्नकी प्राप्ति भी हुई थी। भगवान महावीरने गृहत्याग कर जैन मुनिके एक नियमित जीवन क्रमका अभ्यास किया था । म० बुद्धको ठीक इसके विपरीत एकसे अधिक संप्रदायक साधुओं के पास ज्ञान लाभकी जिज्ञासासे जाना पड़ा था । म बुद्धने पूर्ण सर्वज्ञ हुये विना ही ३६ वर्षकी अवस्था में बौद्धधर्मको जन्म देकर उसका प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया था। किंतु भगवान महावीरजीने किसी नवीन धर्मकी स्थापना नहीं की थी। उन्होंने सर्वज्ञ होकर ४२ वर्षकी अवस्थासे जैनधर्मका पुनः प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया था।
दोनों धर्मनेताओंके धर्मप्रचार प्रणालीमें भी जमीन आस्मानका अन्तर था। म० बुद्धको अपने धर्मप्रचारमें सफलता उनकी मीठी वाणी और प्रभावशाली • मुखाकृतिके कारण मिली थी। लोग मंत्रमुग्धकी तरह उनके उपदेशको ग्रहण करते थे। उसकी
१-सान्डर्ड गौतम बुद्ध पृ० ७५ ।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [८५ सार्थकता अथवा औचित्यकी ओर ध्यान ही नहीं देते थे। भगवान महावीरका धर्मप्रचार ठीक वैज्ञानिक ढंगपर होता था। उनके निकट निज्ञासुकी शंकाओं का अन्त एकदम हो जाता था। इसका कारण यही था कि वह त्रिकाल और त्रिलोकदर्शी सर्वज्ञ थे। उन्होंने आत्मा और लोकके अस्तित्व एवं कर्मवादको पूर्णतः स्पष्ट प्रतिपादित करके सद्धांतिक जिज्ञासुओंकी पूरी मनः संतुष्टि कर दी थी। उनने वनस्पति, पृथ्वी, जल, अग्नि वायु आदि स्थावर पदार्थोंमें भी जीव प्रमाणित किया था और कर्मवर्गणाओंका अस्तित्व और उनका सुक्ष्मरूप प्रकट करके अणुवादका प्राचीन रुप स्पष्ट कर दिया था। इसके विपरीत म० बुद्धने यह भी नहीं बतलाया था कि आत्मा है या नहीं। उनने आत्मा, लोक, कर्मफल मादि सैद्धांतिक बातोंको अधुरी छोड़ दिया था। इस अपेक्षा विद्वजन म० बुद्ध धर्मको प्रारम्भमें एक सैद्धांतिक मत न मानकर सामानिक क्रांति ही मानते हैं। दोनों ही धर्मनेताओंने यद्यपि अहिंसातत्त्वको स्वीकार किया है; परन्तु जो विशेषता इस तत्वको भगवान महावीरके निकट प्राप्त हुई, वह विशेषरूप उसे म०बुद्धके , हाथोंसे नसीव नहीं हुआ। ___ म० बुद्धने अहिंसा तत्त्वको मानते हुये भी मृत पशुओंके मांसको ग्रहण करना विधेय रक्खा था और इसी शिथिलताका आज यह परिणाम है कि प्रायः सर्व ही बौद्ध धर्मानुयायी मांसभक्षक मिलते हैं। किन्तु जैनधर्मके विशिष्ट अहिंसा तत्त्वसे प्रभावित - १-ममबु० पृ० ११८-१२० । २-कीय, बुद्धिस्ट फिलासफो - १२ । ३-लामाई पृ० १३१ ।
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८६] संक्षिप्त जैन इतिहास । होकर प्रत्येक जेनी पूर्ण शाकाहारी है और उनका हृदय हर समय दयासे भीजा रहता है। जिससे वे प्राणीमात्रकी हितचिन्तना कर. नेमें अग्रसर है । जैन संघमें गृहस्थों अर्थात श्रावक और श्रावि. काओंको भी मुनियों और आर्थिकाओं के साथ स्थान मिला रहा है किन्तु बौद्ध संघमें केवल भिक्षु और भिक्षुणी-यही दो अंग प्रारंभसे हैं । विद्वानों का मत है कि जैन संघकी उपरोक्त विशेपताके कारण ही नोंका मस्तित्व मान भी भारतमें है और उसके अभावमें बौद्ध धर्म अपने जन्मस्थान में हूंढ़नेपर भी मुश्किल लसे मिलता है। बौद्ध और जैनधर्मके शास्त्र भी विभिन्न हैं।
जैन शास्त्र 'अंग और पूर्व' पहलाते है; बौद्धोंके ग्रन्थ समूह रूपमें 'त्रिपिटक' नामसे प्रख्यात् हैं । जैन साधु नग्न रहते और कठिन तपस्या एवं व्रतोंका अभ्यास करना पावश्यक समझते हैं, किन्तु बौद्धोंको यह बातें पसन्द नहीं हैं । वह इन्हें धार्मिक चिन्ह नहीं मानते । बौद्ध साधु 'भिक्षु' अथवा 'श्रावक' कहलाते हैं, जैन साधु 'श्रमण 'अचेलक' अथवा 'आर्य' या 'मुनि' नामसे परिचित हैं। जैनधर्म, श्रावक गृहस्थको कहते हैं | जैन अपने तीर्थकरोंको मानते हैं और बौद्ध केवल म० बुद्धकी पूजा करते हैं। इन एवं ऐसी ही अन्य विभिन्नताओंके होते हुये भी जैनधर्म और बौद्ध धर्ममें बहुत सादृश्य भी है । 'आश्रय' 'संवर' मादि कितने ही खास शब्दों और सिद्धान्तोंको बौद्धोंने स्वयं जैनोंसे ग्रहण किया है और स्वयं म० बुद्ध पहले जैनधर्मके बहुश्रुती साधु थे; ऐसी.
१-२.६० पृ० २३० । २-वहि इ० पृ० १६९। ३-हरिद भा० ७ पृ० ४७२।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [८७ दशामें उक्त दोनों धर्मों में सादृश्य होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। दोनों धर्मो न वेदोकी ही मान्यता है और न ब्राह्मणों का आदर है । वे यज्ञोंमें होनेवाली हिंसाका घोर विरोध रखते हैं। जाति और कुलके घमंडको दोनों ही धर्मों में पाखण्ड बतलाया गया हैं और उनका द्वार प्रत्येक प्राणीके लिये सदासे खुला रहा है।
बौद्ध और जैनोंके निकट रत्नत्रय अथवा त्रिरत्न मुख्य हैं और आदरणीय हैं; परन्तु दोनों के निकट इनका अभिप्राय भिन्न भिन्न है । बौद्धधर्मके अनुसार त्रिरत्न (१) बुद्ध (२) धर्म और (३) संघ हैं। जैनधर्म, रत्नत्रय (१) सम्यग्दर्शन (Right Beliety (२) सम्यग्ज्ञान (Right Knowledge) और (३) सम्यग्चारित्र (Right Conduct) को कहते हैं । बौद्ध और जैन जगतको रचनेवाले ईश्वरका अस्तित्व नहीं मानते हैं; यद्यपि जैनधर्ममें ईश्वरवाद स्वीकत है। वे मोक्ष व निर्वाण प्राप्ति अपना उद्देश्य समझते हैं; किन्तु इसका भाव दोनों के निकट भिन्न है । बौद्द निर्वाणसे मतलब पूर्ण क्षय होनेका समझते हैं; किन्तु मैनोंके निकट निर्वाण दशासे भाव अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य और अनंतसुख पूर्ण अवस्थासे है। इस प्रकार जैनधर्म और बौद्धधर्ममें मौलिक भेद स्पष्ट है और यह भी प्रगट है कि भगवान महावीर एक स्वाधीन और म० बुद्धसे विभिन्न महापुरुष थे, जिन्हें बौह लोग निगन्ठ
1-ममयु• पृ. ११७-१७८ ।
४ बौद्धधर्ममें यही तीन शरण माने गये हैं। जैनधर्ममें (1)-अरइन्त, (२) सिद्ध, (6) साधु, (४) व केवली भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म-यह चार शरण माने है।
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८८] संक्षिप्त जैन इतिहास । नातपुत्त कहते हैं। जैनधर्मका उल्लेख बौद्ध ग्रन्थों में एक पूर्व निश्रित और म० बुद्धके पहिलेसे प्रचलित धर्मके रूपमें हुआ मिलता है। अतएव जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा नहीं कहा जासक्ता | हो ! इसके विपरीत यह कह सक्ते हैं कि म० गौतम बुद्धने मैनधर्ममे अपने धर्म निर्माणमें वहत कुछ सहायता ली थी। भगवान महाचीरके पवित्र जीवनका उनपर काफी प्रभाव पड़ा था।
निस समय भगवान महावीर सर्वज्ञ होगये तो नियमानुमार भगवान महावीरका उनकी वाणी नहीं खिरी । नियम यद
प्रारंभिक उपदेश। कि निस समय तीर्थकर केवली होजाते हैं. उस समयसे उनकी आयुपर्यंत नियमित रूपसे प्रतिदिन तीन समय मेघ गर्जनाके समान अनायास ही वाणी खिरती रहती है। जिसे प्रत्येक जीव अपनीर भाषा समझ लेते हैं । यह वाणी अर्धमाराधी भाषामय परिणत होती है, जो सात प्रकारको प्राकृत भाषाओंमेसे एक है। किन्तु भगवान महावीरजीके सर्वज्ञ होनानेपर भी यह प्रसंग सहन ही उपस्थित न हुआ। जैन शास्त्र कहते हैं कि उस समय भगवान के निकट ऐसा कोई योग्य पुरुष नहीं था, जो उनकी वाणीको ग्रहण करता । इसी कारण भगवानकी वाणी नहीं खिरी थी। देवलोकका इन्द्र अपने देवपरिकर सहित भगवानका 'केवलज्ञान कल्याणक उत्सव मनाने आया था। वहां भी वह उपस्थित था। उसने अपने ज्ञानवलसे जान लिया था कि वेदपारां: गत प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान् इन्द्रभूति गौतम भगवानकी दिव्यध्वनिको अब धारण करनेकी योग्यता रखता है। इन्द्रकी माज्ञासे भगवानके
१-चरचा समाधान पृ. ३९ ।
गिस .
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [८९ उपदेश निमित्त सभागृह पहले ही बन गया था जिनमें अनेक कोट, वापी, तड़ाग, निन मंदिर, चैत्य, स्तुप, मानस्तम्भ मादिके अतिरिक्त भगवानकी मनमोहक 'गन्धकुटी' और बारह कोठे थे। इन कोठोंमें साधु-साध्वी, देव-देवांगना, नर-नारी और तिथंच-पशु भी समान भावसे बेठकर भगवानका अन्यावाष सुख-संदेश सुनते थे । इंद्र समाननोंको भगवानकी वाणी रूपी अमृतके लिये तृषातुर देखकर शीघ्र ही बड़ी कुशलता पूर्वक इन्द्रमति गौतम और उनके भाई वायुभूति व अग्निभूतिको वहां ले आया।
वे भगवानका दिव्य उपदेश सुनकर जैनधर्ममें दीक्षित होगये और भगवानकी वाणीको ग्रहण करके उसकी अंग-पूर्वमय रचना इन्द्रमृतिने उसी रोज कर डाली थी। मनःपर्यय ज्ञानकी निधि उनको तत्क्षण मिल गई थी और वह भगवानके प्रमुख गणघर पदपर मातीन हुये थे । वायुमृति और अग्निभूति भी अन्य दो गणधर हुये थे । इनके अतिरिक्त भगवानके गणधर व अन्य शिष्य थे, उनका वर्णन अगाड़ीकी पंक्तियोंमें है । वे० शास्त्र कहते हैं कि भगवानका यह प्रथम समवशरण भपाया नामक नगरीके बाहर रचा गया था; किन्तु दिगम्बर शास्त्र उसे रानगृहके निकट जम्भक प्राममे बतलाते हैं।
. अव भगवान महावीरने उस सत्य संदेशको, जिसे उन्होंने भगवानके उपदेशका ढंग अत्यन्त कठिन तपश्चर्या के बाद प्राप्त किया . और वहुप्रचार। था, प्राकृत रूपमें सारे विश्वको देना
१-ममनु० पृ. ११०, व वीर भा० ५ पृ. २३०-२३४ । २-३० ४०.६१५ ! ३-चभम०४० २३९ ।
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९.]
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संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रारम्भ कर दिया था। उनका उपदेश हितमित पूर्ण शब्दों में समस्त जगतके जीवोंके लिये कल्याणकारी था। उस आदर्श रूप उपदेशको सुनकर किसीका हृदय जरा भी मलिन या दुखित नहीं होता था। बल्कि उसका प्रभाव यह होता था कि प्रकृत जाति विरोधी जीव भी अपने पारस्परिक वैरभावको छोड़ देते थे। सिंह और भेड़, कुत्ता और बिल्ली बड़े आनंदसे एक दुसरेके समीप बैठे हुये भगवानके दिव्य संदेशको ग्रहण करते थे । पशुओंपर भगवानका ऐसा प्रभाव पड़ा हो, इस बातको चुपचाप ग्रहण कर लेना इस जमानेमें जरा कठिन कार्य है। किंतु जो पशु विज्ञानसे परिचित हैं और पशुओंके मनोबल एवं शिक्षाओंको ग्रहण करनेकी सुक्ष्म शक्तिकी ओर निनका घ्यान गया है, वह उक्त प्रकार भगवान महावीरके उपदेशका प्रभाव उन पर पड़ा मानने में कुछ अचरज नहीं करेंगे।
सचमुच वीतराग सर्व हितैषी अथवा सत्य एवं प्रेमकी साक्षात जीती जागती प्रतिमाके निकट विश्वप्रेमका आश्चर्यकारी किंतु अपूर्व वातावरण उपस्थित होना, कुछ भी अप्राकत दृष्टि नहीं पड़ता !. विश्वका उत्कृष्ट कल्याण करनेके निमित्त ही भगवानके तीर्थकर पदका निर्माण हुआ था ! 'लेकिन उन्होंने अपना निर्माण सिद्ध करनेके निमित्त कभी किसी प्रकारका अनुचित प्रभाव डालनेकी कोशिश नहीं की और न कभी उन्होंने किसीको माचार विचार छोड़कर अपने दलमें मानेके लिए प्रलोभित ही किया। उनकी उपदेश पद्धति शांत, रुचिकर, दुश्मनों के दिलोंमें भी अपना असर पैदा करनेवाली, मर्मस्पर्शी और सरल थी। सबसे पहिले उन्होंने
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [९१ इस बातकी घोषणाकी कि जगतमा प्रत्येक प्राणी जो अशांति, अज्ञान और अत्यन्त दुःखकी ज्वालामें जल रहा है, मेरे उपदेशसे लाभ उठा सक्ता है । अज्ञानके चक्र छटपटाता हुआ प्रत्येक जीव चाहे वह तिथंच हो चाहे मनुष्य, आर्य हो चाहे म्छेच्छ, ब्राह्मण हो या शूद, पुरुष हो या स्त्री, मेरे धर्मके उदार झण्डे के नीचे आ सक्ताहै । सत्यका प्रत्येक इच्छुक मेरे पाप्त माफर अपनी आत्मपिपसाको बुझा सका है। इस घोषणाके प्रचारित होते ही हजारों सत्यके भूखे प्राणी महावीरकी शरण में आने लगे।
महावीरजीकी महान् उदार आत्माके निकट सबको स्थान मिल गया। कवि सम्राट् सर रविन्द्रनाथ टागोर कहते हैं कि 'महावीरस्वामीने गंभीरनादसे मोक्षमार्गका ऐसा संदेश भारतवर्षमें फैलाया कि धर्म मात्र सामाजिक रूढ़ियों में नहीं है, किन्तु वह वास्तविक सत्य है। संप्रदाय विशेषके बाहिरी क्रियाकाण्डका अभ्यास करनेसे मोक्ष प्राप्त नहीं होसक्ती; किन्तु वह सत्य धर्मके स्वरूपमें माश्रय लेनेसे प्राप्त होती है। धर्ममें मनुष्य और मनुष्यका भेद स्थाई नहीं रह सक्ता । कहते हुये आश्चर्य होता है कि महावीरजीकी इस शिक्षाने समानके हृदयमें बैठी हुई भेदभावनाको शव नष्ट कर दिया और सारे देशको अपने वश कर लिया |
इसप्रकार भगवानका ४३ वर्षसे ७२ वर्ष तकका दीर्घ जीवन' केवल लोक कल्याणके हितार्थ व्यतीत हुआ था। इस उपदेशका परिणाम यह निकला था कि (१) जाति-पातिका जरा भी भेद रक्खे विना जनता हरएक मनुष्यको-चाहे वह शूद्र अथवा घोर
१-चंभम० पृ. १७३ । २-मम०प० २७१ ।
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९२] संक्षिप्त जैन इतिहास । म्लेच्छ हो-धर्मसाधन करने देनेका पाठ सीख गई। उसे विश्वास होगया कि 'श्रेष्ठताका आधार जन्म नहीं बलिक गुण हैं, और गुणोंमें भी पवित्र जीवनकी महत्ता स्थापित करना । (२) पुरुपोंक ही समान स्त्रियों के विकासके लिये भी विद्या और भाचार मानके द्वार खुल गये थे | जनता महिला-महिमासे भली भांति परिचित होगई थी । (३) भगवान के दिव्य उपदेशका संकलन लोकभाषा अर्थात अर्धमागधी प्रारूतमें हुआ था, जिससे सामान्य जनतामें तत्वज्ञानकी बढ़वारी और विश्वप्रेमकी पुण्य भावनाका उद्गम हुमा था। (४) ऐहिक और पारलौकिक सुखके लिये होनेवाले यज्ञ आदि कर्मकांडोंकी अपेक्षा संयम तथा तपस्याके स्वावलम्बी तथा पुरुषार्थप्रधान मार्गकी महत्ता स्थापित होगई थी और जनता अहिंसाधर्मसे प्रीति करने लगी थी; (६) और 'त्याग एवं तपस्याके नामरूप शिथिलाचारके स्थानपर सच्चे त्याग और सच्ची तपस्याकी प्रतिष्ठा करके भोगकी जगह योगके महत्वका वायुमंडल चारों ओर उत्पन्न होगया था।
इस विशिष्ट वायुमंडल में रहती हुई जनता 'भनेकान्त' और 'स्थाहाद' सिद्धान्तको पाकर साम्प्रदायिक द्वेष और मतभेदको बहुत कुछ भूल गई थी। ऐसे ही और भी अनेक सुयोग्य सुधार उससमय साधारण जनतामें होगये थे । जनता आनन्दमग्न थी ! , भगवान महावीरने ज़म्भक ग्रामके निकटसे अपना दिव्योपदेश भाविकार प्रारंभ किया था और फिर समग्र आर्यखंडमें और धर्मप्रचार । उनका धर्मप्रचार और विहार हुआ था। सर्व १-चमम० पृ०.१७७-१७८ . . . . .
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [९३. [प्रथम उनका शुभागमन मगधर्मे राजगृहके निकट विपुलाचल पर्वतपर हुआ था । यहाँपर सम्राट् श्रेणिक और उनके अन्य पुत्रोंने भगवानकी विशेष भक्ति की थी। यहांपर भगवानका आगमन कई दफे हुआ था । राजगृहमें अभिनवश्रेष्ठोने उनका विशेष आदर किया था । अर्जुन नामक एक माली भी यहां भगवानकी शरण में माया था। अर्जुन अपनी पत्नीके दुश्चरित्रसे बड़ा क्रुद्ध होगया था
और उसने कई एक मनुष्यों के प्राण भी लेलिये थे; किन्तु भगवान महावीरनीके उपदेशको सुनकर वह बिलकुल शांत होगया और साधु दशामें उसने समताभावसे अनेक उपसर्ग सहे थे; यह श्वेतांवर शास्त्र प्रगट करते हैं । जिस समय राना श्रेणिक वीर प्रभूकी वंदनाके लिये समस्त पुरवासियों समेत जारहे थे, उस समय एक मेंढक उनके हाथीके पैरसे दबकर प्राणांत कर गया था। दिगम्बर शास्त्र कहते हैं कि वह वीर प्रभृकी भक्ति के प्रभावसे मरकर देव हुआ था।
राजगृहसे भगवान श्रावस्ती गये थे। यह आजीविक संप्रकौशलमें वोर प्रभूका दायका मुख्य केन्द्र था, किन्तु तौमी भग
प्रभाव । वानका यहांपर भी काफी प्रभाव पड़ा था। उस समय यहांपर राजा प्रसेननित अथवा अग्निदत्त राज्य करते थे। उन्होंने भगवानका स्वागत किया था. जैनोंकी मान्यता उनके निकट थी और उनकी रानी मल्लिकाने एक सभागृह बनवाया था; जिसमें ब्राह्मण, जैनी आदि परस्पर तत्वचर्चा किया करते थे। • १-डिजवा० पृ० १६। २-अंतगतदसाओ, डिजैवा० पृ. ९६ ।,
इ-आंक० भा० ३ पृ. २८८-२९३ । । ४-लावबु० पृ० ११६॥ ५-नाव, पृ .९ . . . .......
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९४] संक्षिप्त जैन इतिहास । यह इक्ष्वाकुवंशी क्षत्री थे । प्रसेनजितका पुत्र विदुग्ध था और इसके साथ ही इस वंशका अन्त होगया था । कौशल उस समय मगधके आधीन था । श्रावस्तीसे भगवानने कौशल के षष्टी आदि नगरोंमें विहार करके ज्ञानामृतकी वर्षा की थी। और इस प्रकार हिमालयकी तलहटीतक वे दिव्यधनिको प्रध्वनित करते विचरे थे।
___ मिथिलामें: भगवानने अपने सदुपदेशसे जनताको हतार्थ मिशिला वैशाली. व किया था ।वशाली में उनका शुभागमन ईचंपा आदिमें जिनेन्द्र वार हुआ था । राजा चेटक भादि प्रधान देवका धमधाप। पुरुष उनकी भक्ति और विनय करने में अमप्तर रहे थे। वहां आनंद नामक श्रेष्टी और उसकी पत्नी शिवनंदा गृहस्थ धर्म पालनेमें प्रसिद्ध थे। इनने महावीरजीके सन्नि. कट श्रावकके वारहवत ग्रहण किये थे। पोलाशपुरमें भगवानका स्वागत राना विनयसेनने बड़े आदरसे किया था। ऐमत्ता नामक उनका पुत्र भगवानके चरणों में मुनि हुआ था । अंगदेशके अधिपति कुणिकने भी चंपामें भगवान के शुभागमनपर अपने अहोभाग्य समझे थे। और वह भगवान के साथ कौशांबीतक गया था। चम्पाके राजा दषिवाहन, श्वेतवाहन, अथवा घाडीवाहन,
जो विमलवाहन मुनिराजके निकट पहले ही सठ सुशन । मुनि होगये थे, भगवान महावीरके संघमें सेठ सुदर्शन । संमिलित हुये थे । इनकी अभया नामक रानीने चम्पाके प्रसिद्ध राजसेठ सुदर्शनको मिथ्या दोष लगाया था। किन्तु सुदर्शन निर्दोष - १-भम० पृ० १०८ । २-हॉ० पृ० ३९... ३-उद० १-९० और डिजेवा० पृ० ७५।४-डिजवा० पृ. २७ १५-मम० पृ० १०८।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [९५ सिद्ध हुये थे !* अन्ततः सुदर्शन सेठके साथ ही यह राजा भी जैन मुनि हुये थे । सुदर्शन सेठ अपने शीलधर्म के लिये बहु प्रड्यात हैं। इन्होंने मुक्तिलाम किया था। राना दधिवाहन मुनि दशाने जम वीर संघमें शामिल होगये, तब एकदा वह विपुलाचल पर्वत पर समोशरणके बाहरी परकोटे में ध्यानमग्न थे। उस समय लोगोंके मुखसे यह सुनकर उनके परिणाम कद होचले थे। और उनके कारण उनकी आकृति बिगड़ी दिखाई पड़ती थी, कि उनके मंत्रिमंडलने उनके बालपुत्रको धोखा दिया है। श्रेणिक महारानने वीर प्रमुसे यह हाल मानकर उनको सन्मार्ग सुझाया था और इसके बाद शीव ही वह मुक्त हुए थे। इस घटनाके बाद ही शायद मगध का आधिपत्य अंगदेश पर होगया था | चम्पामें भैनोंका 'पुण्यम (पुण्यभद्र) चैत्य (मंदिर) प्रसिद्ध था। यहांपर एक प्रसिद्ध सेठ कामदेवने भगवानसे श्रावके बारह वन ग्रहण किये थे।
इसी विहारके मध्य एक ममय भगवान महावीरनीका समोबनारस में भगवान शरण बनारस पहुंचा था। वहांपर राना जित__ महावीर। शत्रुने उनमा विशेष आदर किया था। यहांपर चूलातीपिया और मुगदेव नामक गृहस्थोंने अपनी अपनी पत्नियों सहित श्रावकके व्रत ग्रहण किये थे । यहांके नितारि नामक राजाकी पुत्री मुण्डिकाको वृषभश्री आर्थिाने जेनी बनाया था।
* गजा दधिवाहन का समय भ. महावीर के लगभग होनेके कारण ही दर्शन सेठो उनका समकालीन लिखा है।।
सुदर्शनचरित, पृ० १-१0व हिव० पृ०२।२-उपु. १० ६९९ । ३-उद० व्या० २। ४-३६० ६०३। ५ पृ०४॥
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९६] संक्षिप्त जैन इतिहास । ___ बनारससे अन्यत्र विहार करते हुए वे कलिंगदेशमें पहुंचे वीर समोशरण कलिङथे । वहांपर राना सिद्धार्थ के बहनोई नित
व वङ्ग आदिमें। शत्रुने भगवानका खुब स्वागत किया था और अन्तमें वह दिगम्बर मुनि हो मोक्ष गये थे। उस ओर के पुण्डू, बंग, तःम्रलिप्ति आदि देशोंमें विहार करते हुए भगवान कौशांबी पहुंचे थे। कौशांबीके नृप शतानीकने भगवानके उपदेशको विशेष भाव और ध्यानसे सुना था, भगवानकी वंदना उपासना वडी विनयसे की थी और अन्त में वह भगवान के संघ संमिलित होगया था। उनका पुत्र उदयन् वत्सराज राज्याधिकारी हुआ था।
इस प्रकार राजगृह, कौशची मादिकी ओर धर्मचक्रकी प्रगति मगध आदिमें विशेष रूपसे हुई थी । बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि
धर्म प्रचार। उस समय भगवान महावीर मगध व अंग आदि देशोंमें खुब ही तत्त्वज्ञानकी उन्नति कर रहे थे।
एकदा विहार करते हुए भगवानका समोशरण पाञ्चालदेशकी पाञ्चालमें भगवानका राजधानी और पूर्व तीथकर श्री विमलना
प्रचार। थनीके चार कल्याणकोंके पवित्र स्थान कांपित्यमें पहुंचा था और वहां फिर एकवार धर्मकी अमोघवर्षा होने लगी थी। उस समय कुन्दकोलिय नामक एक शास्त्रज्ञ और धर्मात्मा श्रावक यहांपर था। यहीं पड़ोसमें संचाश्य (संकसा ) ग्राम भी विशेष प्रख्यात था। भगवान विमलनाथजीका केवलज्ञान स्थानसंभवतः वही 'अघहतिया' (मघहतग्राम ) में था। वहांपर माज
१-हरि० पू० १८ । २-हरि० पृ० ६२३ । ३-वीर वर्ष ३० ३७०। ४-भम० पृ० १०८ व उप्र० पृ० • ६३४ । ५-मनि० मा० १.प्र. २१६-उद० व्या० ६:':- .. :: . .:..
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [९७ ‘भी जैनोंकी प्राचीन कीर्तियां विशेष मिलती हैं। बौद्ध और जनोंमें इस स्थानकी मालिकी पर पहिले झगड़ा भी हुआ था | उस समयके लगभग कांपिल्यके राजा द्विमुख अथवा जय प्रख्यात थे । उनके पास एक ऐपात न था कि उसको सिरपर धारण करनेसे राजाके दो मुख दृष्टि पड़ते थे ! इस ताजको उन्मैनके राजा प्रद्योतने मांगा था । जयने इसके बदले में प्रद्योतसे नलगिरि हाथी, स्थ, व रानी और लोहनंघ लेखक चाहा था । हठात दोनों राजाओंमें युद्ध छिड़ा, जिसका अन्त पारस्परिक प्रेममें हुआ था। प्रद्योतने मदनमंजरी नामक एक कन्या जय राजासे ग्रहण की थी
और वह उनको वापस चला गया था। राजा जय जैन मुनि हुये थे। श्वेताम्बर शास्त्रों में उनको प्रत्येकवुद्ध लिखा है।
कापिल्यसे अगाडी बढ़कर भगवानका समोशरण उस समयकी उत्तरमथुरा में भगवानको एक प्रख्यात नगरी सौरदेशको राजधानी
शुभागमन । उत्तर मथुरामें पहुंचा था। उस समय 'भी वहांपर जैनधर्मकी गति थी। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथनीके समय का बना हुआ एक सुन्दर स्तूप और चैत्यमंदिर वहां मौजूद था । भगवान के धर्मोपदेशसे वहां 'सत्य' खूब प्रकाशमान हुआ था। जैन शास्त्र कहते हैं कि उस समय मथुरामें पद्मोदय राजाके पुत्र उदितोदय राज्याधिकारी थे। बौद्धशास्त्रों में यहांके नृपको "अवन्तिपुत्र" लिखा । संभव है कि दोनों राजकुलोंमें परस्पर सम्बंध हो । उदितोदयका रानसेठ अईहास अपने सम्यक्त्वके लिये ___* वीर वर्ष 1 पृ० ३३६ ॥ १-हिटे० पृ० १४० । २-सको पृ०४। ३-हिइ०, पृ० १८५।
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९८ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
प्रख्यात था । उसीके संसर्गसे राजा को भी जैनधर्म में प्रतीत हुई थी । मईदास सेठने भगवान महावीरजीके निकट से व्रत नियम ग्रहण किये थे । उत्तर मथुरा के समान ही दक्षिण मथुरामें भी जैनधर्मका अस्तित्व उस समय विद्यमान थी । भगवानके निर्वाणोपरांत यहां पर गुप्ताचार्य के आधीन एक बड़ा जनसंघ होनेका उल्लेख मिलता है ।
भगवान महावीरजीका बिहार दक्षिण भारतमें भी हुआ था । दक्षिण भारत में कांचीपुरका राजा वसुपाल था और वह संभवतः वीर प्रभू । भगवानका भक्त था । (आक० भा० ३४० १८१) जिस समय भगवान हेनांगदेशमें पहुंचे थे, उस समय राजा सत्यं - धर के जीवंवर राज्याधिकारी थे | हेमांगदेश मानकल का महीसूर पुत्र ! (Mysore) प्रांतवर्ती देश अनुमान किया गया है; क्योंकि यहीं पर सोनेकी खाने हैं, मलय पर्ववर्ती वन है और समुद्र निकट है । हेमांगदेश के विषय में यह सच वातें विशेषण रूपमें लिखीं हैं । हेमांग देशकी राजधानी राजपुर थी जिसके निकट 'सुरमलय नामक उद्यान था । भगवानका समोशरण इसी उद्यानमें अवतरित हुआ था | राजा जीवंधर भगवान महावीरको अपनी राजधानी में पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ था । अन्तमें वह अपने पुत्रको राजा बनाकर मुनि ढोगया था | सुन होकर वह वीर संघके साथ रहा था । जब वीरसंघ विहार करता हुआ उत्तरापथकी ओर पहुंचा था, तब जीवंधर मुनिराजने अग्रह केवलीरूपमें राजगृह के विपुलाचल पर्वतसे
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१- कौ० पृ० ६ । २ - वीर ६ ३ पृ० ३५४ । ३- आक० भा० १ पृ० ९३ ।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [९९ ठीक उस समय निर्वाणलाम किया था, जिस समय भगवान महावीर पावामें मुक्त हुए थे। जैनशास्त्रों में इन्हें एक बड़ा प्रतापी राजा लिखा है। इनने दक्षिणके पल्ला मादि देशोंके रानाओं एवं उत्तरा पथके राजाओंसे भी युद्ध किया था। (उपु० ए० ६५१-६९७) जैन कवियोंने इनके विषयमें अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। दक्षिण भारतमें विचरते हए भगवानका समोशरण उज्जैन के निकट स्थित सुरम्य. देशकी पोदनपुर नामक राजधानी में पहुंचा था। उस समय यहाँका राजा विद्वान जैनधर्म भक्त था।
पोदनपुरसे वीर प्रमूका समोशरण मालवा और राजपूतानाकी राजपूतानामें श्रीमहा- ओर आया था। जयपुर राज्यान्तर्गत महा
वीरका विहार । वीर ( पटौंदा ) स्थान भगवानकी पुनीति पावन स्मृतिका वहां थान भी प्रगट चिन्ह है। उज्जैनमें उस समय राजा चन्द्रप्रद्योत राज्याधिकारी थे और वह जैनधर्मके प्रेमी थे। उनने कालसंदीव नामक उपाध्यायसे म्लेच्छ भाषा सीखी थी। कालसंदीव जैन मुनि हुए थे और अपने शिष्य स्वेतसंदीव सहित वीरसंघमें संमिलित होगये थे । ( माक० भा० ३१० ११०) भगवान महावीरके निर्वाण समय चन्द्रप्रद्योतका पुत्र “ पालक" राज्य सिंहासनपर बैठा था । राना प्रधोतन जैन मुनि होगये थे। 'उज्जैनके समीपमें ही दशार्ण देश था। इस समय वहाँके राना" दशरथ भगवान के निकट सम्बन्धी थे; यह पहले लिखा जाचुका है। उनके राज्यके निकट जब वीरप्रभु पहुंचे थे, तो यह सम्भव नहीं कि
१-जैप्र० पृ० २२१ । २-आक० भ.० ३ पृ०:५। ३-हरिः पृ० १२ (भूमिका)।
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२०० संक्षिप्त जैन इतिहास । जैनधर्मके प्रेमी यह राजा भगवानका विशेष स्वागत करनेमें पीछे रहे हों। उससमय मेवाड़ प्रांतमें स्थित मज्झिमिका नगरी भी बहु प्रख्यात् थी। वीर निर्वाण संवत ८४ के एक शिलालेखमें इस नगरीका उल्लेख है; उससे प्रगट होता है कि भगवान महावीरजीका मादर इस नगरके निवासियोंमें खूब था। सारांशतः जैनधर्मकी गति इस प्रांतमें अत्यन्त प्राचीनकालसे है । उडमैन तो जैनोंका मुख्य ही केन्द्र था।
राजपूतानेकी तरह गुजरातमें भी जैनधर्मका अस्तित्व प्राचीन जासतेकालसे है। भगवान महावीरजीका समोशमें वीर प्रभूका शरण दक्षिण प्रांतकी ओर होता हुमा यहां
पवित्र विहार । भी अवश्य पहुंचा था। इस व्याख्याको पुष्ट करनेवाले उल्लेख मिलते हैं । वावीसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथनीका निर्वाणस्थान इसी प्रांतमें है। गिरिनगर (जूनागढ़) के राजा जैन थे, यह जैन शास्त्रोंसे प्रगट है। कच्छदेश और सिन्धुलोवीरके राजा उदायन जैनधर्मके परमभक्त थे यह पहले लिखा जा चुका
। उनकी राजधानी रोरुकनगरमें भगवानका समोशरण पहुंचा था। रोरुक उस समय एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था। लाटदेशमें उससमय जैनधर्मका खूब प्रचार था । भृगुकच्छमें राना वसुपाल थे। यहां • १-राइ० भा० १ पृ. ३५८-स्वयं मध्यमिकासे प्राप्त वि० सं० पूर्वकी तीसरी शताब्दिके आसपासकी लिपिमें अंकित लेखोमेसे एकमें पढ़ा गया है कि "सर्व भूतों (जीवों)की दयाके निमित्त......वनवाया।" -यह उल्लेख स्पष्टतः जैनोंसे सम्बन्ध रखता है, बौद्रोंसे नहीं । क्योंकि बौद्धोने सब भूतों (पृथ्वी जलादि)में जीव नहीं माना है । देखो कैहिद० पृ० १६१ । २-हरि० पृ० ४९६ । ३-कैहिइ० पृ० २१२ ।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [१०१
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जनधर्मकी महिमा अधिक थी। (आऋ० भा० २४० ४४)
सिंधुदेश, बिहार और धर्मप्रचार करते हुये भगवानका शुभा; पंजार और माश्मीरमें गमन पंजाब और काश्मीरमें भी हुआ था। वीर-सन्देशका गांधारदेशकी राजधानी तक्षशिलामें भगवा:
प्रतिचाप । नका समोशरण खूब ही शोभा पाता था। नाम भी बहाएर कई भान जैन स्तुप मौजूद हैं। (तक्ष०, १०७२) वहीं निकटमें कोटेरा ग्रामके पास भगवान के शुभागमनको सुचित करनेवाला एक वंश नैनमंदिर अब भी विद्यमान है । जैनधर्मकी बाहुल्यता यहां खूब होगई थी। यही कारण है कि सिकन्दर महानको यहांपर दिगंबर जैन मुनि एक बड़ी संख्या मिले थे। ___फलतः भगवान महावीरनीका विहार समग्र भारतमें हुमा समन भारतमें वीरप्रभा था। ई०से पूर्व चौथी शताब्दी में जैन
धर्मचक्र प्रवर्तन। धर्म लंका भी पहुंच गया था। मतएव इस समयसे पहिले जैनधर्म दक्षिण भारतमें आ गया था, यह प्रगट होता है । जनशास्त्र कहते हैं कि भगवान महावीरका समोशरण दक्षिण प्रान्तके विविध स्थानोंमें पहुंचा था। आज भी कितने ही अतिशयक्षेत्र इस व्याख्याका प्रकट समर्थन करते हैं।
श्री जिनसेनाचार्यनीके कथनसे भगवानका समग्र भारत किंवा अन्य मार्य देशोंमें विहार करना प्रगट है। वह लिखते हैं कि "निसप्रकार मव्यवत्सल भगवान ऋषभदेवने पहिले अनेक देशोंमें विहार कर उन्हें धर्मात्मा बनाया था, उसीपकार भगवान महावीरने
भी मध्यके (काशी, कौशल, कौशल्य, कुसंध्य, अश्वष्ट, सारव, त्रिगत . .. -जाद पृ० ६८२-६८३ । २-लाम० पृ. २०॥
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१०२] संक्षिप्त जैन इतिहास । पांचाल, भद्रकार, पाटचा, मौक, मत्स्य, कनीय, सौरसेन एवं वृकार्थक) समुद्रतटके (कलिंग, कुरुनांगल, कैकेय, आत्रेय, कांबोज, वाल्हीक, यवनश्रुति, सिंधु, गांधार, सौवीर, सुरभीर, दशेरुक, वाडवान, भारद्वाज और क्वाथतोय) और उत्तर दिशाके (ताण, कार्ण, प्रच्छाल आदि) देशोंमें विहारकर उन्हें धमकी ओर ऋजु किया था।"
श्वेताम्बरानायके 'कल्पसूत्र' ग्रंथमें भगवान के विहारका उल्लेख श्वेताम्वर शास्त्रों में चातुर्मासोंके रूपमें किया है। वहां लिखा है
चातुर्मास वर्णन। कि चार चतुर्माप्त तो भगवानने वैशाली और वणियग्राममें विताए थे; चौदह राजगृह और नालन्दाके निकटवर्तमें, छै मिथिलामें; दो भद्रिकामें एक अलभीक में; एक पाण्डभूमिमें; एक श्रावस्तीम और अंतिम पादापुरमें पूर्ण किया था। किन्तु दिगम्बरानायके शास्त्र इस कथनसे सहमत नहीं है। उनका कथन है कि एक सर्वज्ञ तीर्थकरके लिये 'चतुर्मास' नियमको पालन करना भावश्यक नहीं है । उधर श्वेताम्बर शास्त्रोंमें परस्पर इस वर्णनमें मतभेद है।
उपरोक्त वर्णनसे शायद यह ख्याल हो कि भगवानका विहार भगवान महावीरजीका केवल भारतवर्ष में हुआ था; किन्तु यह सुखदविहार और विदे- मानना ठीक नहीं होगा। जैन शास्त्र
शोंमें धर्मप्रचार। स्पष्ट कहते हैं कि भगवानका विहार और धर्मप्रचार समस्त मार्यखंडमें हुआ था। भरतक्षेत्रके अन्तर्गत
आर्यखंडका जो विस्तृत क्षेत्रफल जैन शास्त्रोंमें बतलाया गया है, :- उसको देखते हुये वर्तमानका उपलब्ध जगत उसीके अन्तर्गत सिद्ध
१-हरि० पृ० १८।
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ANRAVANA
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ज्ञानिक क्षत्री और भगवान महावीर। [१०३ होता है। श्रवणबेलगोलाके मान्य पंडिताचार्य श्री चारुकीनिनी महाराज एवं स्व. पं. गोपालदासजी बरैया प्रभृति विद्वान भी इस ही मतका पोषण कर चुके हैं। उक्त पंडिताचार्य महाराजा तो कहना था कि दक्षिण भारतमें करीब एक या डेढ़ हजार वर्ष पहिले बहुतसे नैनी भरवदेशसे आकर बसे थे। अब यदि वापर जैन धर्मका प्रचार न हुआ होता तो वहांपर भनियोंहा एक बड़ी संख्या में होना असंभव था। श्री निनसेनाचर्यजी महाराजने जिन देशोंमें भगवानका बिहार हुआ लिखा है, उनमेसे यवनश्रुति, काथतोय, सुरभी, तार्ण, कार्ण आदि देश अवश्य ही भारत के बाहर स्थित प्रतीत होते है । इसके अतिरिक्त प्राचीन ग्रीक (यूनानी) विद्वान् भगवान महावीरनीके समयके लगभग जैन मुनियों का अस्तित्व चैक्ट्रिया और अवीसिनिया वतलाते हैं । विलफर्ड माने 'शंकर प्रादुर्भव'
१-पा०, पृ. १५६ । २-ऐरि०, भा० ९ पृ. २८३1 3-यवन श्रुति पारस्य अथवा यूनानका वोधक प्रतीत होता है । ४-क्वाथतोप अर्थात् दस समुद्र तटमा देश जिनका जल क्वाथके समान था। अतः इस प्रदेशका रेटकी' (Red Sen) के निकट होना उचित है । उस समुद्रके किनारे वाले देशों जैसे अबीसिनिया, अरब आदिमें जैन धर्मका अस्तित्व मिलता है। देखो लाम० पृ० १८-१९ व भपा० पृ. १७३-२०२। ५-सरामी देश संभवतः 'सुरभि' नामक देशका बोधक है, जो मध्य ऐशियामें क्षीरसागर (.Caspian Sea.) के निकट अक्षम (Oxus ) नदीसे उत्तरकी ओर स्थित था । यह आज कल के स्त्रीय (Khiva) प्रान्तका खनत अथवा खरिस्म प्रदेश है । देखो इहिना० मा० २ पृ. २९ । ६-एइमे० पृ० १०४ "Sarmanaeans were the pbilosopers of the Baktrians," a Hâra go 903 (श्रमण जैन मुनिको कहते है)।
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१०४] संक्षिप्त जैन इतिहास । नामक वैदिक ग्रन्धके आधारसे जैनोंका उल्लेख किया है। उपमें भगवान पार्श्वनाथ और महावीनी इन अंतिम दो नीधरोंचा उल्लेख 'जिन' 'भईन अथवा 'महिमन' ( महामान्य ) पर हुआ। उक्त माने लिखा है कि साईन'ने चारों ओर विचार किया था और उनके चरणचिद्र दा दूर देशों में मिलने हैं। मंत्रा, श्याम, मादिमें इन चरणचिन्होंकी पूजा भी होती है। पारस्य, सिरिया (Srria) और ऐशिया भव्यमें 'महिमद (महामान्य-महावीरजी) के मारक मिलते हैं। मित्रो नमनन' trenion) की प्रसिद्ध मृति महिमन् ' ( महामान्य ) की पवित्र स्मृति और आइरके लिये निर्मित हुई थी। अतः इन उल्लेखों में भी भगवान महाशका भारतेवर देशोंमें विहार और धर्म प्रचार आना मिह है। जैन शास्त्रों में कितने ही विदेशी पुलांचा वर्णन मिलता है. जिन्होंने जैनधर्म धारण त्रिया था। आईक नामक यदन अथवा पारम्यदेशः चामी गजकुमारका उडेख र होचुधा है । उसी तरह यूनानी लोगों (येवाओं) का भगवान महावीरजोका मक्त होना प्रष्ट है। फणिक अथवा पणिक (Phonecin) देशके प्रसिद्ध व्यापारियोंमें जैनधर्मकी प्रवृत्ति होनेके चिह्न मिलते हैं। भगवानका ममोशण जिस समय वहां पहुंचा था, उस समय एक 'पणिक व्यापारी उनले दर्शनोंको गया था | भगवानका उपदेश सुनकर वह प्रति. बुद्ध हुआ था और जैन मुनि होकर वीर संघके साथ भारत माया था। जिस समय वह गंगानदीको नावपर बैठे हुये पार कर रहा
१-ऐरि० मा० ३, पृ० १९३-1९४ । २-पा० पृ. ९७-१९॥ ३-एरि० मा० ३, १९६-१९९ । ४-भपाः पृ० २०९-२०२ ।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [१०५
था, उसी समय बड़े जोरोंका आंधी-पानी आया था और नांवके 'हवते २ उनने अपने ध्यानवलसे केवलज्ञान विभूतिको प्राप्त करके मोक्ष सुख पाया था। इनके अतिरिक्त भगवानके भक्त विद्याधर लोग अवश्य ही विदेशोंके निवासी थे । अतः यह स्पष्ट है कि भगवान महावीरनीका उपदेश संपूर्ण आर्यखण्डमें हुआ था, जो वर्तमानकी उपलब्ध दुनियासे कहीं ज्यादा विस्तृत है।
ज्ञातपुत्र महावीरने ठीक तीस वर्षतक चारोंओर विहार करके भगवान महावीरका पतितपावन सत्यधर्मका संदेश फैलाया था। उपदेश अर्थात् सत्य सदासे है और वैसा ही रहेगा।
जैनधर्म। भगवान महावीरने भी उसी सनातन सत्यका प्रतिपादन अपने समयके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार किया था। उन्होंने स्पष्ट प्रकट कर दिया था कि केवल थोथे क्रियाकाण्डद्वारा अथवा वनवासी जीवनमें मात्र ज्ञानका माराधन करके कोई भी सच्चे सुखको नहीं पासक्ता है। और यह प्राकृत सिद्धान्त है कि प्रत्येक प्राणी सुखका भूखा है। सांसारिक भोगोपभोगकी सलौनी सामग्रीको भोगते चले जाइए किन्तु तृप्ति नहीं होती है । वासना और तृष्णा शान्त नहीं होती, मनुष्य अतृप्त और दुखी ही रहता है। फलतः भोगोपभोगकी सामग्री द्वारा सच्चा सुख पालेना मसंभव है। उसको पालेने के लिये त्यागमय जीवन अथवा-निवृत्तिमार्गका अनुसरण करना मावश्यक है। भगवानने उच्च स्वरसे यही कहा कि सुख भोगसे नहीं योगसे मिल सका है। वासनाका क्षय हुये बिना-मनुप्यको पूर्ण और अक्षयसुख नहीं होसक्ता । त्यागमई
मा: भा० २ पृ. २४३ । '
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१०६] संक्षिप्त जैन इतिहास । सन्यास जीवनमें भी यदि वासना-तृप्तिके साधन जुटाये स्क्वे जांये और केवलज्ञानकी आराधनासे अविनाशी सुख पालेनेका प्रयत्न किया जाय तो उसमें असफलताका मिलना ही संभव है । त्यागी हुये-घर छोड़ा-स्त्री पुत्रसे नाता तोड़ा और फिर भी निर्लिप्तभावकी आड़ लेकर वासना वढन सामग्रीको इकट्ठा कर लिया, वासनाको तृप्त करने का सामान जुटालिया, तो फिर वास्तविक सत्यमें विश्वास ही कहां रहा ? यह निश्चय ही शिथिल होगया कि भोगसे नहीं, योगसे पूर्ण और अक्षय सुख मिलता है। और यह हरकोई जानता. है कि किसी कार्यको सफल बनाने के लिये तहत विश्वास ही मूल कारण है। दृढ़ निश्चय अथवा अटल विश्वास फलका देनेवाला है।
भगवान महावीरने इन आवश्यक्ताओंको देखकर ही और उनका प्रत्यक्ष अनुभव पाकर 'सम्यग्दर्शन' अथवा यथार्थ श्रद्धाको सच्चे सुखके मार्ग में प्रमुख स्थान दिया था। किन्तु वह यह भी जानते थे कि जिस प्रकार कोरा कर्मकांड और निरा ज्ञान इच्छित फल पानेके लिये कार्यकारी नहीं है, उसी प्रकार मात्र श्रद्धानसे भी काम नहीं चल सक्ता। इसीलिये इन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यक्चारित्रका युगपत होना अक्षय और पूर्ण सुख पानेके लिये आवश्यक बतलाया था।
सम्यग्दर्शनको पाकर मनुष्योंको निवृत्ति मार्गमें दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। वह जान गये थे कि यह जगत अनादि निधन' है। जीव और मजीवका लीला-क्षेत्र है। यह दोनों द्रव्य अक्रत्रिम अनंत और अविनाशी हैं । अनीवने जीवको अपने प्रभावमें दवा रक्खा है। जीव शरीर बन्धनमें पड़ा हुआ है। वह इच्छाओं और
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [१०७. वासनाओंका गुलाम बन रहा है। ज्यों ज्यों वह भोगवासनाओंको तृप्त करनेका प्रयत्न करता है, वैसे ही इसके दुःख और पट अधिक बढ़ते हैं । एक मूक्ष्म अनीव पदार्थ, जिसको 'कर्मवर्गणा' (Karmic Molecules) कहते हैं, उसके इस भोगप्रयासमें कषायोद्रेकसे आकपित होकर उसमें एक काल विशेषके लिये सम्बद्ध होजाता है और . फिर अपना सुख दुख रूप फल दिखाकर वह अलग होता है। इस आगमन क्रियाको भगवानने 'मानव' तत्व बतलाया और बन्धन तथा रुकने व विलग होनेके प्रयोगको क्रमशः "बंध", "संवर" और "निरा" तत्त्वके नामसे उल्लेख किया था। कर्मोके गावागमनका यह तारतम्य उस समय तक बराबर जारी रहता है, जबतक कि जीवात्मा इच्छाओं और वासनाओंसे अपना पिंड छुड़ा नहीं लेता है।
जिप्त समय वह भोगके स्थानपर योगका महत्व समझ जाता है, उस समय उसका जीवन एक नये ढंगका होजाता है । पहले जहां वह भोगवार्ताओंको प्रमुखस्थान देता था, वहां अब वह पद पद पर संयमी जीवन वितानेकी कोशिश करता है। वह सच्चे सुखके सनातन मार्गपर आनाता है और क्रमशः इच्छाओं
और वासनाओं का पूर्ण निरोध करके कर्मोसे अपना पीछा छुड़ा लेता है । बस, वह मुक्त होनाता है और सदाके वास्ते पूर्ण एवं अक्षय मुखका भोक्ता बन जाता है।
लोग उसे पूर्णताका आदर्श मानकर उसकी उपासना और विनय करते हैं । वह जगतपूज्य बन जाता है। और सिद्ध-बुद्ध, सच्चिदानन्द परमात्मा कहलाता है। भगवान महावीरने इस सनातन मार्गका पूरा २ अनुसरण अपने जीवन में किया था और
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१.०८] संक्षिप्त जैन इतिहास । वह सफल हुये थे। त्रिलोक वंदनीय परमात्मा कहकर बान जगत उनको नमस्कार करता है।
इसप्रचार भगवान महावीरने मोक्षमार्गको निर्दिष्ट करते हुये मनुप्योकी स्वाधीनताका पाठ पढ़ाया था। उन्होंने बतला दिया कि अपने आप पर विश्वास करो। और सच्ची श्रद्धाके साथ अपने आपका और अपने चहंओरके पदार्थोश यथार्थ ज्ञान प्राप्त करो। जिस समय मनुष्यको सचे ज्ञानका भान हो जायगा, वह कभी भी असत्प्रवृत्ति में लीन नहीं होगा। भोगविलास उसे नीरस जंचेंगे और त्यागके कार्य बड़े मीठे और सुहावने । बस उपका चारित्र यथार्थ और निर्मल होगा। भगवान यह अच्छी तरह जानते थे कि मनुष्यमात्रके लिये यह संभव नहीं है कि वह उनके समान ही एकदम रसीली रमणी और राजसी भोगसामग्रीको पैरोंसे टुकरा कर नीरसयोग और महान त्यागके बीहड़ मगचा पथचर बन जावे। और वह यह भी समझते थे कि गृहन्यजीवन में निरे योगकी शिक्षासे भी काम नहीं चल सका है। इसीलिये भगवानने दो प्रकारके धर्म मार्गचा निरूपण किया था। पहला मार्ग तो उन निस्टही साधुओंके लिये बतलाया था, जो उसी भवसे मोक्षसुख पानेके लालसी हों और दूसरा उसीका अपर्याप्तरूप गृहस्थों के लिये निर्दिष्ट किया था। दोनों मार्गवालोंके लिये अहिंसा, सत्य, पचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतोंका पालना आवश्यक बतलाया था। साधुलोग इन 'ब्रतोंको पूर्णरूपसे पालते हैं; किन्तु एक गृहस्थ इनको एक देश
अयोत मांशिवरूपमें व्यवहारमें लाता है। . . एक मुनि प्रत्येक दशामें मन वचन काय पूर्वक पूर्ण अहि
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [ १०९ सक रहेगा। वह अपनी क्षुषा और तृषाकी निवृत्त के लिये अन्नजल भी स्वतः ग्रहण नहीं करेगा। यथानात नग्नरूपमें रहकर शेष व्रतोंका एवं अन्य नियमों और तप ध्यानका अभ्यास करेगा। किन्तु इसके प्रतिकूल एक गृहस्थ केवल जानबूझकर कपायके वश होकर किसीके प्राणोंको पोड़ा नहीं पहुंचायेगा। वह गृहस्थी जीवनको सुविधा पूर्वक व्यतीत करनेके लिये आजीविका भी करेगारोटी पानी भी लायगा और बनायेगा । अधर्मी और अत्याचारीके मन्यायका प्रतीकार करनेके लिये शस्त्र-प्रयोग भी करेगा। सारांशतः उसके लिये हर हालतमें पूर्ण अहिंसक रहना असंभव है। इसलिये ही वह इन व्रतोंको आंशिकरूपमें ही पाल सक्ता है; यद्यपि वह अपने विसात पूर्ण अहिंसक बननेकी ही कोशिश करेगा। यही नहीं कि स्वयं जीवित रहे और अन्य प्राणियोंको जीवित रहने दे, किन्तु वह अन्य प्राणियोंको जीवित रहने देने में अपनी जान भरसक प्रयत्न करेगा, स्वयं स्वाधीन रहेगा और दूसरोंको भी स्वतंत्रताका सलौना स्वाद लेने देगा।
मतलब यह है कि वह संसारमें शांति और प्रेमका साम्राज्य फैलानेमें अग्रसर होगा। अहिंसा के साथ अन्य व्रतोंका भी यथाशक्ति अभ्यास करेगा । अपनी इच्छाओं और आवश्यक्ताओंको नियंत्रित और कमती करता हमा, वह आत्मोन्नतिके मार्ग अगाड़ी बढ़ जायगा और एक रोम अवश्य ही पूर्ण योगका अभ्याप्त करनेमें दत्तचित्त हुआ मिलेगा। इसका परिणाम यह होगा कि वह कर्माको परास्त कर विजय लाम करेगा और पूर्ण सुखका अधिकारी बनेगा। उसके अभ्युत्थान और मानंदकी कुंनी उसकी मुट्ठीमें है
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११०] संक्षिप्त जैन इतिहास । उसको संभाले और काममें ले । वप्त, मानंद ही आनंद है।
यह स्वावलम्बी जीवनका संदेश भगवान महावीरने उस सम. यके लोगोंको बताया था और इसको सुनकर उनमें नवस्फूर्ति और नवजीवनका संचार हुआ था । यही विजयमार्ग जैनधर्म है। इसमें कायरता और भीरुताको तनिक भी स्थान नहीं है | भगवानने स्पष्ट कहा था कि यदि तुम मेरे धर्ममें श्रद्धा लाना चाहते हो तो पहले निशङ्क होने का अभ्यास करलो । यदि तुम निशक नहीं हो, तो विनयमार्गपर तुम नहीं चल सक्ते । जैनधर्म तुम्हारे लिये नहीं है। वह निशङ्क वीरोंका ही धर्म है।
भगवान महावीरका यह उपदेश जैनधर्मके पुरातन रूपरेखासे भगवान महावीर और कुछ भी विरोध नहीं रखता था। ऐसा ही
अवशेष तीर्थङ्कर। उपदेश महावीरनीसे पहले हुये तेईस तीर्थकर एक दूसरेसे बिलकुल स्वाधीनरूप वैज्ञानिक ढंगपर अपने समयकी आवश्यक्तानुसार करते हैं। तीर्थकर स्वयंबुद्ध होते हैं और वह सर्वज्ञ दशामें सत्य धर्मका प्ररूपण करते हैं। इसलिये उनके द्वारा प्रतिपादित धर्ममें परस्पर कुछ भी विरोध नहीं होता। वह मूलमें सर्वथा एक समान होता है और उनका विवेचित सैद्धांतिक अंश तो पूर्णतः कुछ भी परस्परमें विपरीतता नहीं रखता है। व्यवहार चारित्र सम्बन्धी नियमोंमें यह अवश्य है कि प्रत्येक तीर्थङ्कर अपने समयानुकूल उसको निर्दिष्ट करता है। इसी कारण जैन शास्त्रोंमें कहा गया है कि-"अनितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत वाईस तीर्थकों ने सामायिक संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगबानने 'छेदोपस्थापना संयमका उपदेश दिया है।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [१११
भाव यह है कि ऋभदेव और महावीर भगवानने सामा'विकादि पांच प्रकारके चारित्रका प्रतिपादन किया है, जिसमें छेदोपस्थापनाकी यहां प्रधानता है । शेष बाईस तीर्थंकरोंने केवल ही केवल सामायिक चारित्रका प्रतिपादन किया है। इस शासन भेदका कारण आचार्यने बतलाया है कि "पांच महाव्रतों (छेदोपस्थापना ) का कथन इस चनहसे किया गया है कि इनके द्वारा सामायिकका -दूसरोंको उपदेश देना, स्वयं अनुष्ठान करना, टथक् २ रूपसे भावनामें लाना सुगम होजाता है | आदि तीर्थ में शिष्य मुश्किलसे शुद्ध किये जाते हैं; क्योंकि वे अतिशय सरल स्वभाव होते हैं । और अंतिम तीर्थ में शिव्यजन कठिनतासे निर्वाह करते हैं; क्योंकि वे अतिशय वक्र स्वभाव होते हैं। साथ ही इन दोनों समयोंके शिष्य स्पष्ट रूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते हैं। इसलिये आदि और अन्त तीर्थों में इस छेदोपस्थापनाके उपदेशकी जरूरत पैदा हुई है ।"
इसी प्रकार ऋषभ और महावीरजीके तीर्थके लोगोंके लिये अपराधके होने और न होने की अपेक्षा न करके प्रतिक्रमण करना अनिवार्य होता; किन्तु मध्य बाईस तीर्थंकरोंका धर्म अपराधके होनेपर ही प्रतिक्रमणका विधान करता है । इस तरह तीर्थंकरोंका यह शासनभेद क्रप, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार है और मूलभाव में परस्पर कुछ भी विरोध नहीं रखता । सब ही तीर्थंकरोंका महान् व्यक्तित्व और उनका धर्म प्रायः एक समान होता है ।
१- मूला० ७-३२ । २-मूला० ७।१२५ - १२९ विशेषके लिये देखो जैन हितेपी भा० १२ अंक ७-८ ।
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संक्षिप्त जैन इतिहास |
तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ भगवान महावीरजी से श्री ज्ञातृपुत्र महावीर ढाई सौ वर्ष पहिले हुये थे । उनका वैयः और क्तिक और पारस्परिक सम्बंध उपरोक्तः भगवान पार्श्वनाथ । उल्लेखके अतिरिक्त और कुछ भी अधिक दृष्टि नहीं पड़ता । किंतु श्वेतांवर शास्त्रोंमें उनके और महावीरजीके धर्म में कुछ विशेष अन्तर बतलाया है । श्वेतांवर कहते हैं कि पार्श्वनाथजीने केवल चार व्रतोंश ही निरूपण किया था और उनके तीर्थ साधु सवस्त्र रहते थे । भगवान महावीर ने उन चार व्रतों में गर्भित शीलव्रतको प्रथक्रूप देकर पांच व्रतोंका उपदेश दिया और उन्होंने साधु जीवनको कठिन तपस्या से परिपूर्ण बनानेके लिये नग्नताका विधान किया था । श्वेतांबरोंका यह कथन उनके विशेषप्रमाणिक और मूल आचारांगादि ग्रन्थों में नहीं है । और यह 1 अन्यथा भी बाधित है।
बौद्ध ग्रन्थोंमें अवश्य भगवान महावीरको 'चातुर्याम संवर' से वेष्टित बतलाया है किन्तु वह श्वेतांबरोंके चार व्रतोंके समान नहीं है । वह ठीक वैसी ही चार क्रियायें हैं जैसी कि जैन साधुओंके लिये दि० जैन ग्रन्थों में मिलती हैं । किन्तु हमारा अनुमान .है कि उपरांत ईसवीकी छठीं शताब्दिमें जब श्वेतांबर ग्रन्थों का संकलन हुआ था, तब बौद्ध ग्रन्थोंने जैनोंके लिये ' चातुर्याम संवर " . नियमका प्रयोग देखकर श्वेतांबरोंने उसका सम्बंध पार्श्वनाथजी से बैठा दिया; क्योंकि यह तो विदित ही है कि श्वेतांबर आगम
1 १-उसू० पृ० १६९-१७५। २- दीति० भा० १ पृ० ५७-५८ । ३- भयबु० पृ० २२२-२२७ ।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [११३
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ग्रन्थोंमें बहुत कुछ बौद्धोंके पिटश्चयके ही समान और सम्भवतः उनका उद्धरण है।
डॉ. जैकोबीने भी बौद्धोंके उपर्युक्त चातुर्याम संवर नियमको भगवान पार्श्वनाथका चातुवंत नियम प्रगट किया है। जैसे कि श्वेतांबर बतलाते हैं; किन्तु उनकी यह मान्यता निराधार है। अतएव यह उचित नंचता है कि भगवान पार्धनाथनी और महावीरगीके वर्मों में सामायिक और छेदोपस्थापना (पंच महाव्रत) रूप प्रधानताको पाझर, श्वेतांबरोंने पार्श्वनाथनी के धर्ममें चार व्रत और महावीर भगवानके धर्ममें पंचमहावतों का होना प्रगट कर दिया। वैसे यथार्थमें दोनों ही तीर्थंकरों के धर्मोमें व्रत पांच ही माने गये थे। यही हाल नग्नताके विषयमें है। भगवान पार्श्वनाथनीको अथवा उनके तीर्थके मुनियों को वस्त्र धारण करते हुए बतलाना निराधार है।
बौद्ध ग्रन्थोंखे यह सिद्ध है कि पार्श्वनाथ नीके तीर्थक साधु नग्न रहते थे । और मुनि भेषका नग्न होना प्रारूत समुचित है; जैसे कि पहिले प्रगट किया जाचुका है और जिससे श्वेतांवर शास्त्र भी सहमत हैं । अतएव यह कहना कि भगवान महावीरने नग्नताका प्रचार किया, कुछ भी महत्व नहीं रखता। किन्हीं विद्वानों का यह स्वयाल है कि पार्श्वनाथ नीके धर्ममें तात्विक सिद्धांत पूर्णतः निर्दिष्ट नहीं थे। किन्तु यह खयाल गैन मान्यताके विरुद्ध है। जैन स्पष्ट कहते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ के धर्ममें भी वैसे ही तत्त्व
1-Js. Pt., Intro. p. 23. २-भमबु० पृ. २२४ । ३-भमबु० पृ० २३६-२३७ । ४-हिप्रिइफि० पृ. ३९६......
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११४] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
और सिद्धांत थे, जैसे कि अन्य तीर्थदरोंके धर्मोमें थे और ननोंकी इस मान्यताको सब कई विद्वान् सत्य स्वीकार कर चुके हैं।
किन्हीं विद्वानों का यह मत है कि भगवान महावीरजी जैन श्री महावीर न जैनधर्मके धर्मके संस्थापक हैं और उन्होंने ही संस्थापक थे औरन जैन जैनधर्मका नींवारोपण वैदिक धर्मके धर्म हिन्दू धर्मको विरोध में किया था किंतु उनका यह मत
शाखा है। निर्मल है। आजसे करीब दो हजार वर्ष पहलेके लोग भी भगवान ऋपभनाथ नीकी विनय करते थे। और उन लोगोंने अन्य तेईस तीर्थंकरों की मूर्तियां निर्मित की थी। अब यदि जैनधर्म गंगथापक भगवान महावीरजी माने जावें, तो कोई कारण नहीं दिखता कि इतने प्राचीन जमाने में लोग भगवान ऋषभनाथको जैनधर्मका प्रमुख समझने और उनकी एवं उनके बाद हये तीर्थक्षरोंकी मूर्तियां बनाते और उपासना करते. निमपर स्वयं वैदिक एवं बौद्धग्रन्थों में इस युगमें जैनधर्मके प्रथम प्रचारक श्री ऋषभदेव ही बताये गये हैं। ___अथच नोंके सुक्ष्म सिद्धान्त, जैसे एत्री, जल, अग्नि आदिमें जीव बतलाना, अणु और परमाणुओं का अति प्राचीन पर मौलिक एवं पूर्ण वर्णन करना, आदर्श पूना आदि ऐसे नियम हैं जो जैनधर्मका अस्तित्व एक बहुत ही प्राचीनकाल तकमें सिद्ध कर
१-भपा० पृ. ३८५-3८८ । -डॉ० ग्लैंसेनाथ (Dev jainur smus). और डॉ० जालकोपन्टियर यह स्वीकार करते हैं (केहिइ. पृ० १५४के उसू० भूमिका पृ० २१) ३-जैविओसो भा० ३ पृ. ४४७ व
जेस्तू० पृ. २४...... ४-वविओजैस्मा० पृ. ८८-१००। ५-भागवत .४.५ व भपा० भूमिका । ६-प्रतशाच, वीर वर्ष ४ पृ० ३५३ ।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [११५ नेको पर्याप्त है । अतः उसकी स्थापना मानसे केवल ढाईहजार चर्प पहले भगवान महावीरजी द्वारा हुई मानना बिलकुल निराधार है।यही बात उसे वैदिक धर्मके विरोधरूप प्रगट हुआ बताने में है। किसी भी वैदिकग्रंथमें यह लिखा हुआ नहीं मिलता कि जैनधर्मका निकास वैदिक धर्मसे हुआ था । प्रत्युत दोनों धर्मोके सिद्धान्तोंकी परम्पर तुलना करनेसे जैनधर्मकी प्राचीनता वैदिक धर्मसे अधिक प्रमाणित होती है। हिन्दुओंके 'भागवत' में ऋषभदेवनीको आठवां अवतार माना है और बारहवें अवतार वामनका उल्लेख वेदोंमें है।
मतः ऋषभदेवनी, मोकि नोंके प्रथम तीर्थकर हैं, का समय वेदोंसे भी पहले ठहरता है । ऋषभदेवनीको वृपम और आदिनाथ भी कहते हैं । ऋग्वेद आदिमें वृषभ अथवा ऋषभ नामक महापुरुषका उल्लेख माया है। यह ऋषभ अवश्य ही जैन तीर्थकर होना चाहिये क्योंकि हिन्दू पुगणकारोंके वर्णनसे यह स्पष्ट है कि हिन्दुओंको मिन अपभदेवका परिचय था, वह जैन तीर्थकर थे। अतएव जैनधर्मको वैदिक धर्मकी शाखा कहना कुछ ठीक नहीं जंचता । कतिपय हिन्दू विद्वानों भी यही मत है।
इस प्रकार भगवान महावीरका सम्बन्ध अन्य तीर्थकरी और भगवान महावीरका घाँस देखकर हम अपने प्रकृत विषयपर
निर्वाण। आजाते हैं । पहिले लिखा जाचुका है कि भगवान महावीरका विहार समग्र आयखंड में होगया था। भगवा
१-विशेषके लिये 'भगवान पार्श्वनाथ' नामक हमारी पुस्तककी भूमिका देखिये । २-सजे० पृ. ७-८७. ३-भागवत ५। ४-५-६. "म०; हिवि० मा० ३ पृ० ४४४. ४-हिग्ली• पृ० ७५ व भपा० प्रस्तावना पु०२०-२२. ५ वीर व ५० २३५ २० भपा. प्रस्तावना. पृ० २२.
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११६] संक्षिप्त जैन इतिहास । नने अपनी ४२ वर्षकी अवस्थासे यह धर्म प्रचार कार्यप्रारम्भ करके ७२ वर्षकी अवस्था तक बड़ी सफलतासे किया था। जिस समय भगवान ७२ वर्षके हुये, उस समय उन्हें निर्वाण लाभ हुआ था। जैन शास्त्र कहते हैं कि भगवान विहार करते हुये पावापुर नगरमें पहुंचे और वहांके 'मनोहर' नामक वनमें सरोवर के मध्य महामणियोंको शिलापर विराजमान हुये थे।
पाबानगर धन सम्पदामें भरपूर मल्लराजाओंकी राजधानी थी। उस समय यहां राजा हस्तिपाल थे और वह भगवान महावीरके शुभागमनकी वाट जोह रहे थे। अपने नगरमें त्रैलोक्य पूज्य प्रमको याकर वह बड़े प्रसन्न हुये और उनने खूब उत्सव मनाया। कहते हैं कि भगवानका यहां ही अन्तिम उपदेश हुमा था। अन्ततः "विहार छोड़कर अर्थात् योग निरोधकर निर्जराको बढ़ाते हुये वे दो दिन तक वहां विराजमान रहे और फिर शार्तिक कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिके अंतिम समयमें स्वाति नक्षत्र में तीसरे शुक्लध्यानमें तत्पर हये। तदनन्तर तीनों योगोंको निरोधकार समुच्छिन्न क्रिया नामके चौथे शुक्लध्यानका आश्रय उन्होंने लिया और चारों अघातिया कर्मोको नाश कर शरीर रहित केवल गुणरूप होकर सबके द्वारा वान्छनीय ऐसा मोक्षपद प्राप्त झिया । रे
इस प्रकार मोक्षपद पाकर वे अनन्त सुखचा उपभोग उसी क्षणसे करने लगे। इस समय भी इन्द्रों और देवोंने मानन्द उत्सव
मनाया था !. सारे संसार, अलौकिक आनन्द छा गया था। अंधेरी . रात थी, तो भी एक अपूर्व प्रकाश चहुं ओर फैल गया था।
१-उपु० पृ० ७४४ व सुनि० १०-८८.२-अपु० पृ० ७४४-७४५,
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [१९७
भगवानको निर्वाण लाभ हुआ सुनकर आसपास के प्रसिद्ध राना लोग भी पावापुर के उद्यानमें पहुंचे थे और वहांपर दीपोत्सव मनाया था। 'इल्पसूत्र में लिखा है कि " उस पवित्र दिवस जब पूज्यनीय श्रमण महावीर सर्व सांसारिक दुःखोंसे मुक्त होगए तो शाशी और कौशल के १८ राजाओंने, ९ मल्लराजाओंने और ९ लिच्छिवि राजाओंने दीपोत्सव मनाया था। यह प्रोषधका दिन था और उन्होंने पहा-ज्ञानमय प्रज्ञाश तो लुप्त होचुका है, आओ भौतिक प्रकाशसे जगतको दैदीप्यमान बनावें । ""
भगवान महावीरनीका निर्वाण होगया। भारतमेसे ज्ञानका भगवान महावीर के साक्षात् प्रकाश विलुप्त होगया। तत्कालीन
पविन स्मारक। जनताने इस दिव्य अवसरकी पवित्र स्मृतिको चिरस्थाई बनाने में कुछ उठा न रक्खा । उसने भगवान के निर्वाणस्थानपर एक भव्य मंदिर और स्तुप भी बनाया था, जहां आज भी भगवानके चरण-चिन्ह विराजमान हैं। साथ ही भक्तवत्सल प्रमाने एक राष्ट्रीय त्यौहार 'दीपोत्सव' अथवा दिवालीकी सृष्टि इन महापुरुषके पावन स्मारकरूप की थी। इस त्यौहारको आज भी समस्त भारतीय पारस्परिक भेद-भावनाको भूलकर एक-मेक होजाते हैं और प्रेममई दिवाली मनाते हैं। इसके अतिरिक्त तत्कालीन ननताने भगवान के निर्वाणकालसे एक मन्द प्रारम्भ किया था जैसे कि बालीग्रामसे प्राप्त और अजमेर अजायबघरमें रक्खे हये वीर निर्वाण सं० ८४ के प्राचीन शिलालेखसे प्रगट है। जनताकी - . १-Js. I,d. 266. २-भम० पृ० १९० । ३-हरि० १९-३३० व -२१-६६ । ४-भम० पृ. २४४-२४५ ।
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११८]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
अटल भक्ति इतने में ही समाप्त नहीं हुई थी। उसने भगवान के दिव्य संदेशको और उनके महान् व्यक्तित्व के महत्वको चहुंओर फैलानेके लिये इन बातोंको चित्रबद्ध ( Pictographic ) भाषामें प्रकट करनेवाले सिक्के ढाले थे । किन्हीं विद्वानोंको संशय है कि सिक्कोंका सम्बन्ध शायद ही धार्मिक बातों से हो; किन्तु यह बात नहीं है। आज भी हम किन्हीं राजाओंके प्रचलित सिक्कोंपर त्रिशूल व गायका चिन्ह देखते हैं; जो उनकी साम्प्रदायिकता प्रकट करनेके लिये पर्याप्त हैं । प्राचीन काल के राजाओं के भी ऐसे सिक्के मिले
1
जिनमें लक्ष्मी, त्रिशूल आदि धार्मिक और साम्प्रदायिक भेदको प्रकट करनेवाले चिन्ह हैं । फिर उस समय शास्त्रार्थका चैलेश देनेके लिये अपनी मुद्रायें आदि रखनेका रिवाज था । इस दशा में उनपर साम्प्रदायिक चिन्ह होना अनिवार्य था । और यह भी रिवाज उस समय था कि व्यापारी आदि लोग अपने निजी सिक्के ढालते थे;+ जिनपर उनके वंशगत मान्यताओं के चिह्न होना उचित ही हैं।
सचमुच भारत में अज्ञात कालसे साम्प्रदायिक महत्व दिया जाता रहा है । जैन तीर्थंकरोंके चिन्ह खास मूर्तियों से भी अधिक महत्व रखते हैं? और उनमें से एकाध तो इतिहासातीतकालके पुरातत्त्वमें मिलते हैं। ऐसी दशा में ऐसा कोई कारण नहीं, जिससे कहा. जासके कि वीरप्रभुके उपदेशको प्रकट करनेवाले सिक्के नहीं ढले
"
~. १- भूम० पृ० २४५-२४६ व वीर वर्ष ३ पृ० ४४२ व ४६७ । २- भाप्रारा० भा० - २ - सिक्का: नं०, २५ । * उद० ६ । + रेपसन, इंडियन क्कायन्स, पृ० ३ । ३-३० भा० ९ पू० १३८ । ४- प्री० हिस्टोरीकल इंडिया पृ० १९२-१९३ ।
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श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [११९ थे। कितने ही उपलब्ध सिक्कोंसे, जो भगवान के समयसे लेकर
आन्ध्रमालतकके हैं, भगवान महावीरजीके धर्मका सम्बन्ध प्रगट होता है। अतः इन सब बातोंको देखते हुये, यह अन्दान सहन ही लगाया जाता है कि भगवान के निर्वाण उपरान्त उनका आदर जनतामें विशेष था।
इस प्रकार ज्ञ तृवंश क्षत्रियों का परिचय है। भारतीय इतिउपरान्तके ज्ञात अथवा हासमें इनका महत्त्व किस विशिष्टको लिये
नाथ क्षत्री। हुये है, यह बताना वृथा है | किन्तु भगवान महावीरजीके उपरान्त इस वंशका और कुछ विशेष परि. चय हमें नहीं मिलता है। हां, अब भी पूर्वीय भारतकी ओर एक नायवंशका उल्लेख मिलता है। किंतु मालूम नहीं कि उनका संबंध किस वंशसे है।
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श्री कीर संघ और अन्य राजा
(ई० पू० ५७४-५२०) जिस समय इस कल्पकालके आरम्भमें! भोगमूमिका अन्त जैनधर्ममें संघ " होगया और लोगोंको जीवन के कर्तव्यपथ संस्थाकी प्राचीनता। पर मारूढ़ होना पड़ा अर्थात् कर्मभूमिका प्रादुर्भाव हुआ, तो भगवान ऋषभदेवने तत्कालीन प्रजाको सम्यताकी प्राथमिक शिक्षा दी थी। उसी समय गृहत्याग करके दिगम्बर भेषमें घोर तपश्चरण करनेके उपरान्त ऋषभदेवको केवलज्ञानकी विमृति प्राप्त हुई थी। और तब उन्होंने समस्त आर्यखंड में जैन
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१२०] संक्षिप्त जैन इतिहास ! धर्मका प्रचार किया था। उनकी शरण में अनेक भव्य प्राणी भाये थे। कोई मुनि हुआ था, कोई उदासीन श्रावकके व्रत लेकर भगवान के साथ रहने लगा था और कोई मात्र अमयत सम्यग्दृष्टी होगया था। भारतीय महिलायें अपनी धार्मिकता के लिये प्रसिद्ध हैं । वह भी एक बड़ी संख्या भगवानकी शरणमें आकर आत्म. कल्याणके पधपर लगी थीं । इसी समय भगवानके तीर्थमें प्रथम जनसंघका नींवारोपण हा था। भगवान ऋषभदेवकी प्राचीनता इतिहासातीत कालमें है जिसका पता लगाना कठिन है।
अतः जैनों में संघ व्यवस्था भी कुछ कम प्राचीन नहीं है।
वीर अशा उसके उद्गम सहन पता पालेना एक कठिन महावीर संघमें कार्य है। तो भी भगवान ऋषभदेवके द्वारा
चार अङ्ग थे। उसका प्रथम संगठन हा था। उसके चार अंग थे; अर्थात् (१) मुनि, (२) आर्यिका, (३) श्रावक और (४) श्राविका । इस प्रकारकी संघव्यवस्था प्रत्येक तीर्थकरके समवशरणमें रही थी और भावान महावीरनीका संघ भी ऐसा ही था। वह 'वीर-संघ' अथवा 'महावीर-संघ के नामसे प्रख्यात था। उसके भी चार अङ्ग थे। यद्यपि श्वेताम्बर मानायकी मान्यता ऐसी प्रगट होती है कि भगवान के संघमें केवल मुनि और मार्यिका साथ रहते थे। श्रावक-श्राविका तो वह धर्मवत्सल महानुभाव थे, जो घरमें रहकर धर्माराधन करते थे। ( गिहिणो गिहिमज्झ वसन्ता) किन्तु यह
१-संजैइ० तृतीय परिच्छेद । २-उद० २।११९ व दिजै० वर्ष २१ पृ० ३८ किन्तु उनके कल्पसूत्रमें वीर संघ चारों अंग गिनाये गये है (Js. pt. I.) ऐसे ही श्री हेमचन्द्राचार्य भी प्रगट करते है। (निषसाद यथास्थानं सङ्घस्वत्रचतुर्विधः । परि० प. १)।
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श्री वीर-संघ और अन्य राना। [१११ मान्यना बौद्ध ग्रंथोंसे बाधित है। उनसे यह स्पष्ट पता चलता है कि वीरसंघमें मुनि आर्यिकाओं के साथ र श्रावक-श्राविका भी थे। यह अवश्य ही गृहत्यागी उदासीन श्रावक थे; यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थों में इन्हें 'गिही ओदात वसना' 'मुण्ड सावक' और 'एकशाटक निगन्थ' कहा दिगम्बर जैन शास्त्रोंके अनुसार गृहत्यागी श्रावकको श्वेत वस्त्र धारण करने, सिर मुंडा रखने और उत्कृष्ट दशामें मात्र एक वस्त्र धारण करने का विधान मिलता है। दिग० जन शास्त्र भी उत्कष्ट श्रावक नियाथका उल्लेख 'एकशाटक' नामसे करते हैं। अतएव वीर संघमें साधु-साध्वियों के साथर श्रावक -श्राविकाओंका संमिलित होना प्रमाणित है । __ . बौड ग्रन्थोंसे यह भी प्रगट है कि भगवान महावीरनीका चीर सपना संघ उस समय था और उममें गणरूप मेद
और गणधर । भी विद्यमान थे क्योंकि बौद्ध लोग भगवान महावीरको संघ और गणका आचार्य (निगन्ठो नातपुत्तो संघी चेव गणी च गणाचार्यों च....) बतलाते हैं। जैन ग्रन्थोंसे भी भग
१-दीनि० भा० ३ पृ० ११७-११८ यहां भगवान के निर्वाण उपरान्त निग्रंथ मुनियोंके परस्पर विवाद करनेका उल्लेख है; जिसे देखकर संघके श्रावक (निगन्ठस्स नाथपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना ) दुखी हुये थे२-भमबु० परिशिष्ट पृ० २०८-२१० 'एकशाटक का व्यवहार उत्कृष्ट श्रावकके लिये हुआ है । बुघोष इन्हें एक वसधारी, लंगोटी या खंडचेलघारी कहते है:-"एकशाटक ति एकेम्प पिलोतिक खन्डेन पुरतो पतिच्छादानका ।"-मनोरथपूरिणी ३५० १५६ | "पुस्ताल लम्वते दसा - दिव्यावदन पृ० ३७० (With hanging cloth). ३-सागारंधर्मामृत ३०-४८ । ४-आदिपुराण 3८1१५० व ३९७७ । ५-दीनि० भाग १५० ४८-४९।
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१२२]
संक्षिप्त जैन इतिहास।
वानके संघमें गण भेदका पता चलता है। वीर संघमें कुल ग्यारह गणघर थे जिनमें प्रमुख इन्द्रभूति गौतम थे। श्वेतांवर शास्त्रों के अनुसार यद्यपि गणघर ग्यारह थे; परन्तु गण कुछ नौ थे। यह नौं वृन्द अथवा गण इस प्रकार बनाये गये हैं:
(१) प्रथम मुख्य गणधर इन्द्रभूति गौतम, गौतम गोत्रके थे और उनके गणमें ५०० श्रमण थे।
(२) दुसरे गणधर अग्निभूति भी गौतम गोत्रके थे। इनके गणमें भी ५०० मुनि थे।
(३) तीसरे गणघर वायुभूति, इन्द्रभूति और अग्निभूतिके भाई थे और गौतम गोत्रके थे। इनके आधीन गणमें भी ५०० मुनि थे।
(४) आर्यव्यक्त चौथे गणघर भारद्वाज गोत्रके थे। इनके गणमें भी ५०० श्रमण थे।
(५) अग्नि वैश्यायन गोत्रके पांचवें गणधर सुधर्माचार्य ये, निनके..आधीन ५०० श्रमण थे। .
(६) मण्डिकपुत्र अथवा मण्डितपुत्र वशिष्ट गोत्रके थे और २५० श्रमणोंको धर्म शिक्षा देते थे।
(७) मौर्यपुत्र काश्यप गोत्री भी २६० मुनियोंके गणधर थे।
(८) अपित गौतम गोत्री और हरितायन गोत्रके अचल व्रत दोनों ही साथर तीनसौ श्रमणों को धर्मज्ञान अर्पण करते थे।
..(९) मैत्रेय और प्रभास कौंडिन्य गोत्रके थे। दोनों के संयुक्त गणमें ३०० मुनि थे।
१-लाआम० पृ० ५६ व कसु० Js. I. 265.
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श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [१२३ 'इसप्रकार महावीरजीके ग्यारह गणघर, नौ वृन्द और ४२०० वीरसंघके मनि- श्रमण मुख्य थे। इसके सिवाय और बहुतसे
योकी संख्या । श्रमण और आनिकाएं थीं, जिनकी संख्या कमरे चौदहहनार और छत्तीसहमार थी। श्रावकोंकी संख्या. १५००० थीं और श्राविकाओं की संख्या ३१८००० थी।"
दिगम्बर नाम्नायके ग्रंथों में भगवान के इन्द्रभृति, अग्निभूति वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदाय और प्रभास, ये ग्यारह गणधर बताये गए हैं। ये समस्त ही सात प्रकारकी ऋद्धियों से संपन्न और द्वादशाके वेत्ता थे । गौतम आदि पांच गणधरोंके मिझकर सब शिष्य दशहजार छतो पचास और प्रत्येक दोहनार एकसौ गीत २ थे। छठे और सातवें गणधरोंके मिलकर सब शिष्य माठसौ पचास और प्रत्येकके चारसौ पच्चीस २ थे। शेष चार गणघरों से प्रत्येकके छैपो. पच्चीस २ और सब मिलकर ढाईहनार थे । सब मिलकर चौदहहमार थे। ___ गणों के अतिरिक्त भात्मोन्नतिके लिहानसे यह गणना इस-- प्रकार थी, अर्थात् १९०० साधारण मुनिः ३०० अंगपूर्वधारी मुनिः १३०० भवधिज्ञानधारी मुनि, ९०० ऋद्धिविक्रिया युक्त श्रमण, ५०० चार ज्ञानके धारी; ७०० केवलज्ञानी; ९०० अनुत्तरवादी । इस तरह भी सब मिलकर १४००० मुनि थे।
-गम पृ. १८१ । २-हरि० पृ० २० (सर्ग ३ श्लो० ४०४६) ३-दरि० पृ० २० ।
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१२४] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
इन्द्रभूति गौतम वीर संघ प्रमुख गणधर थे। श्री गौतम प्रमुख गणधर इन्द्रभूति अथवा गौतम स्वामोझे नामसे भी इनकी -गौतम और अग्निभूति प्रसिद्धि है । म० गौतम बुद्ध और गणधर
व वायुभूति । इन्द्रभूतिके गोत्र नाम 'गौतम' की अपेक्षा कितने ही विद्वानोंने भ्रममें पड़कर दोनों व्यक्तियोंको एक माना है और बौद्ध धर्मको जैनधर्मसे निकला हुआ बताया है। किन्तु वास्तवमें भगवान महावीरजीके समय म गौतम बुद्ध, इन्द्रभूति गौतम और न्याय सूत्रोंके कर्ता अक्षयपाद गौतम तीन स्वतंत्र व्यक्ति थे । उनका एक दुसरेसे कोई सम्बंध नहीं था । इन्द्रमृति गौतमझा जन्म मगधदेशके 'गोवरग्राम में हुआ था। इनका पिता गौतम गोत्री ब्राह्मण वसुभूति अथवा शांडिल्य था; जो एक सुप्रसिद्ध धनाट्य प्रतिष्ठित विद्वान और अपने गांवका मुखिया था।
और सुलक्षणा स्त्रीके उदरसे इन्द्रभूतिका जन्म हुआ था । इंद्रभूतिके लघु भ्राता अग्निभूति भी पृथ्वीके गर्भसे जन्मे थे; इन दोनों भाइयोंका जन्म सन् ई०के प्रारम्भसे क्रमशः ६२५ वर्ष और ५९८ वर्ष पहले हुआ था। इनका तीसरा छोटा भाई वायुमृति था जिसका जन्म वसुभूतिकी दृमरी विदुषी स्त्री केशरीके उदरसे ३ वर्ष पश्चात अर्थात् सन् ई०से ५९५ वर्ष पूर्व हुमा था।
यह तीनों ही भाई सबसे पहले जैनधर्ममें दीक्षित होकर वीर संघ सर्व प्रथम मुनि हुए थे और तीनों ही गणधरपदको सुशोभित करते थे। गौवरग्राममें उस समय प्रायः ब्राह्मण लोग ही वसते थे और उनका ही वहांपर प्राबल्य था। किन्तु उनमें गौतमी ब्राह्मण ही बल, वैभव, ऐश्वर्य और विद्वत्ता मादिके कारण अधिक
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श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [१२५ प्रतिष्ठित गिने जाते थे। इसीलिये इस ग्रामका नाम 'ब्राह्मण 'ब्राह्मपुरी' अथवा 'गौतमपुरी' भी प्रसिद्ध होगया था। यह तीनों ही भाई विद्याके अगाध पंडित थे। यह कोप, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार, तर्क, ज्योतिष, सामुद्रिक, वैद्यक और वेदवेदांगादि पढ़कर विद्यानिपुण होगए थे । इनकी विद्वत्ता और बुद्धिमताकी याच खूब जम गई थी और इनके गुणोंकी लोक-प्रसिद्धि ऐसी हुई कि दूर दूर तको विद्यार्थी विद्याध्ययन करनेके लिये इनके पास आते थे।
'सन ई० से ५७५ वर्ष पूर्व मिती श्रावण कृष्ण २ को इन्द्रमति गौतम यपनी लगभग ५० वर्षकी अवस्थाम, देवेन्द्रके कौशल द्वारा भगवान महावीरसे शास्त्रार्थ करनेके विचारसे उनके निकट पहुंचे; जब कि वीर प्रभूको उक्त मितीसे ६६ दिन पूर्व मिती वैशाख शुक्ला १०को कैवल्यपद प्राप्त होचुका था; तो भगवानके तप, तेन और ज्ञानशक्तिसे प्रभावित होकर तुरन्त गृहस्थ. दशाको त्याग कर मुनि होगये। अग्निभूति और वायुभूति भी इनके साथ गये थे । वे भी मुने होगये । अपने गुरुओंको भगवानकी शरण में पहुंचा देखकर इन तीनों भाइयों के पांच सौ से अधिक शिष्य भी वीरसंघमें सम्मिलित होगये थे।
इन्द्रभूति गौतमने जिनदीक्षाके साथ ही उसी दिन पूर्वाहमें निर्मल परिणामों द्वारा सात ऋद्धियों और मनःपर्यय ज्ञानको पा लिया था तथा रात्रिमें उन्होंने जिनपतिके मुखसे निकले हुये, पदार्थोका है विस्तार जिसमें ऐसे उपाङ्ग सहित द्वादशाङ्ग श्रुतकी पद रचना कर ली थी। इनकी कुल आयु ९२ वर्षकी थी; .
१-वृजेश० पृ० ६०-६१ । २-उ० पु० पृ० ६१६ ।
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१२६ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
- जिसमें लगभग ४५ वर्षतक वह मुनिदशा में रहे थे' । वीर संघके प्रमुख गणाधीश रूपमें इनके द्वारा जैनधर्मका विशेष विकाश हुआ था । जिससमय भगवान महावीरको निर्वाण लाभ हुआ था, उप समय इन्हें केवलज्ञान लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई थी । इमी कारण दिवालीके रोज गणेश पूजाका रिवाज चला है । वीर प्रभृके उपरान्त यही संघके नायक रहे थे और वीरनिर्वाणसे चारवर्ष बाद भगवान के अनुगामी हुये थे । ई० पूर्व ५३३ में इनको विपुलाचल = पर्वत पर (राजगृही) से मोक्ष सुख प्राप्त हुआ था । चीन यात्री हुइनसांग ने भी इनका उल्लेख भगवान के गणधर रूपमें किया है । अग्निभूति और वायुभूति भी द्वादशांग के वेत्ता थे और इनकी आयु क्रमशः २४ और ७० वर्षकी थी । यह भी केवली थे, और इन्हें भगवान के जीवन में ही मोक्षसुख मिला था । इसप्रकार भग वानके प्रारंभिक शिष्य अथवा मनुयायी जन्मके नैनी नहीं थे; • प्रत्युत वे वैदिकधर्म से जैनधर्म में दीक्षित हुये थे ।
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चौथे गणधर व्यक्त थे । इनको अव्यक्त और शुविदत्त भी चौथे गणधर कहते थे | यह भारद्वाज गोत्री ब्रह्मग थे और व्यक्त | जैनधर्म में दीक्षित हुये थे । कुण्डग्रामक पार्श्व में स्थित कोल्लाग सन्निवेश में एक धनमित्र नामक ब्राह्मण था । उसकी बाहणी नामक स्त्रीकी कोख से इनका जन्म हुना था । इनकी आयु ८० वर्षकी थी और इन्होंने भगवान महावीरजीके जीवनकाल में ही निर्वाणपद पाया था ।
१ - वृजेश० पृ० ७ । २ - उपु० पृ० ७४४ । ३ भम० पृ० ११५ । ४- वृजेश० पृ० ६१ । ५० वृजेश० पृ० ७ ।
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श्री वीर संघ और अन्य राजा। [१२७ श्री सुधर्माचार्य पांचवे गणधर थे। इन्द्रभूति गौतमके पश्चात मर्माचार्य और इन्होंने ही वीरसंघका नेतृत्व बारह वर्षजैनधर्म प्रचार। तक ग्रहण किया था। इनके द्वारा जैन धर्मका प्रभाव खुब ही दिगन्तव्यापी हुआ था। जिस समय इन्द्रमृति गौतमको निर्वाणलाम हुआ था, उप समय इनको केवलज्ञानकी विभूति मिली थी और जम्बूकुमार (मन्तिम केवली) श्रुतकेवलज्ञान प्राप्त हुआ था। सुधर्म स्वामो भी ब्राह्मण वर्णके थे। इनका गोत्र अग्निवैश्यायन था। इनके गोत्रकी अपेक्षा ही बौद्धोंने महावीरजीका उल्लेख 'मग्निवैश्यायन' रूपमें किया है। इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि वीर संघमें यह एक बड़े प्रभावशाली और प्रसिद्ध नेता थे। यह 'लोहार्य' नामसे भी विख्यात थे * इनका जन्म स्थान कोल्लाग सनिवेश था और इनके माता-पिताका नाम क्रमशः धम्मिल और भद्रिला था। इनको आयु सौ वर्षकी थी । मुनि जीवनमें इन्होंने सारे भारतवर्ष विहार किया था। पुंडूवईनमें (बङ्गालमें) इनका विहार और धर्मप्रचार विशेष रूपमें हुआ था। __उदेशके धर्मनगरमें उस समय गना यम राज्य करता था। उडदेशका राजा यम उसकी धनवती नामक रानीके उदरसे
मुनि हुआ था। कोणिका नामकी एक अन्या और गईम नामक एक पुत्र था । अन्य रानियोंसे इस रानाके ५०० पुत्र और थे। श्री सुधर्माचार्यका संघ इस गनाकी राजधानीमें पहुंचा । पहले तो इसने मुनिसंघकी अवज्ञा के'; किंतु हठात् यह प्रतिबुद्ध हो
१-उपु० प्र० ७४४ । २-ममबु. पृ० २३ । * जैसा सं० भा० १.१०.१४८ ! ३-वृजेश पृ० ५। ४-वीर वपं. ३ पृ. ३७० ।
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१२८ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
जैन मुनि होगया । ५०० पुत्र भी अपने पिता के साथ मुनि हो गये । गर्दमने श्रावक व्रत ग्रहण किये और वह उडूदेशका राजा हुआ इसी प्रकार कितने ही अन्य देशों के राजाओं और भव्य पुरुषों को सन्मार्गपर लाकर सुधर्मास्वामी ने भी मोक्ष प्राप्त किया था । इस। समय श्रुतकेवली जम्बूकुमार केवलज्ञानी हुए थे ।
उठे गणधर मंडिकपुत्र भी ब्राह्मण वर्णी थे। इनको मंडितठे गणधर पुत्र मौण्ड अथवा मांडव्य भी कहते थे । इनका 1 मण्डिलपुत्र | गोत्र वशिष्ट था और यह मौर्थ्यास्य नामक देशमें जन्मे थे । इनके पिता ब्राह्मण घनदेव और माता विजया थी । इनकी आयु ८३ वर्षकी थी और इन्होंने भगवान महावीर के जीवमें ही मोक्षलाभ किया था 12
मौर्यपुत्र सातवें गणधर कश्यप गोत्री थे। इनका जन्म स्थान भी मौर्या देशमें था और इनके पिताका नाम मौर्यकथा | जैन शास्त्र इनको भी ब्राह्मण बतलाते हैं । किन्तु इनकी जन्मभूमि, इनके पिता और इनका नाम 'मौर्य:वाची है; जो कुल प्रत्यय नाम प्रगट होता है । उबर मौर्यदेशकी अपेक्षा सम्राट् चन्द्रगुप्तका मौर्यक्ष भी होना प्रगट है । सतः संभव है यह मौर्य पुत्र भी क्षत्री हों । इनका काश्यपगोत्र भी इसी चातका द्योतक हैं: क्योंकि उपरान्तके जन लेखकोंने मौर्योको सूर्यवंशी लिखा है; जिसमें काश्यपगोत्र मिलता है । जो हो, मौर्यपुत्र गणधर एक प्रतिठित पुरुष थे । उनकी आयु ९९ वर्षकी थी और उनका निर्वाण । भगवानकी - जीवनावस्था में हुआ था ।
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सातवें गणधर मौर्यपुत्र
१- मा० भा० पृ० १८९ । २८ - जैशे० पृ०७३ - नृजेश० पृ०७।४-क्षत्रीक्लैन्स० २०५। ५- राइ० भा० १ पृ. ६० । ६ ब्रुजैश० पु.
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श्री वीर संघ और अन्य राना। [१२९ अकम्पित आठवें गणधर थे, जिन्हें अकम्पन भी कहते हैं । अकम्पित आठवें यह गौतमगोत्री ब्राह्मण थे। मिथिलापुरी निवासी
गणधर थे। विप्रदेव इनके पिता थे और जयन्ती इनकी माता थी । इनकी आयु ७८ वर्षकी थी और यह भगवानके गमनके पहले ही निर्वाण कर गये थे। किन्हीं लोगों का अनुमान है कि राजा चेटकके पुत्र अकम्पन ही, यह गणधर थे।
न गणधर अचलवन थे। यह धवल और अचलभ्रात नामसे नवे गणधर भी परिचित हैं। यह भी ब्राह्मण थे और हरिताअचलवृत्त। पनगोत्रके रत्न थे। इनका जन्म कौशलापुरी वसु नामक ब्राह्मणके घर उसकी नन्दा नामक स्त्रीके उदरसे हुआ था। इनकी मायु ७२ वर्षकी थी। जिस प्रकार इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मास्वामी के अतिरिक्त अवशेष गणधर वीरप्रभुके जीवनकाल में ही मुक्त होगये थे; वैसे ही यह भी वीरप्रभुके समक्ष मोक्ष पागए थे। यह अकम्पन गणधरके साथ२ छौपच्चील शिष्यों नायक थे ।
दशवें मैत्रेय और अन्तिमप्रभास कौन्डिन्यगोत्रके ब्राह्मण थे। मैत्रेय और प्रभास मैत्रेयको मेतार्य अथवा मेदार्य भी कहते थे। - गणधर। यह वत्सदेशमें तुंगिकाव्य ग्रामके निवासी दत्त और उसकी भार्या करुणाके सुपुत्र थे। प्रभास राजगृहके निवासी ब्राह्मण बलके गृहमें उसकी स्त्री भद्राकी कोखसे जन्मे थे। यह दोनों ही गणधर एक संयुक्त गणके नायक थे और इनकी आयु - १-वृजेश० पृ० ५। २-जैप्र० पृ० २२७ । ३-वृजेश० पृ० ७॥ १४-वृजेश?. पृ1, . .. . . . . . . . . .
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१३०] संक्षिप्त जैन इतिहास । क्रमशः साठ और चालीस वर्षकी थी। इनकी भी भगवान महावीरके निर्वाणलाभसे पहिले ही मुक्ति होगई थी।
भगवान महावीरजीके इन प्रमुख साधु शिप्योंके अतिरिक्त .. . और भी अनेक विद्वान् और तेजस्वी मुनिपुंगव चारिपेण मुनि ।
थे जिनके पवित्र चारित्रसे जैन शास्त्र मलंछत हैं । इनमें सम्राट् श्रेणि के पुत्र वारिषेण विशेष प्रख्यात हैं। वारिपेणनी युवावस्थासे ही उदासीनवृत्तिके थे। श्रावक दशामें वह नियमितरूपसे अष्टमी व चतर्दशीके पर्वदिनोंको उपवास किया करते थे और रात्रिके समय न्न प्रतिमायोगमें स्मशान मादि एकान्त स्थानमें ध्यान किया करते थे। इसी तरह एक रोज आप ध्यानलीन थे कि एक चोर चुराया हुआ हार इनके परोंमें डालकर भाग गया। पीछा करते हुये कोतवालने इनको गिरफ्तार कर लिया। राजा अणिकने भी पुत्रमोहकी परवा न करके उनको प्राणदण्डका हुक्म सुना दिया; किन्तु अपने पुण्यप्रतापसे वह बच गये और संसारसे वैराग्यवान होका झट दिगम्बर मुनि होगये। वह खुब तपश्चरण करते थे और यत्रतत्र विहार करते हुये अपने उपदेश द्वारा लोगोंको धर्ममें दृढ़ करते थे। इस स्थितिकरण धर्म पालन करनेकी अपेक्षा ही इनकी प्रसिद्धि विशेष है। एकदा यह पलाशकूट नगर में पहुंचे। वहां इनके उपदेशसे श्रेणिक मंत्रीका पुत्र पुष्पडाल मुनि होगबा। पुष्पडाल मुनि तो होगया; किन्तु उसके हृदयमें अपनी पत्नीन प्रेम बना रहा। कहते हैं, एक रोज निमित्त पार वह उसको देख
के लिये चल पड़ा था; किन्तु वारिपेण मुनिने उसे धर्ममें पुनः स्थिर कर दिया था। पुष्पडालने प्रायश्चितपूर्वक योर तपश्चरण जिला
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श्री वीर संघ और अन्य राजा। [१३१ और वह मुक्त हो गया। मुनि वारिपेणका पवित्र जीवन धर्मसे शिथिल होते हुये मनुष्यों को पुनः उनके पूर्वपद और धर्मपर ले मानेके लिये आदर्शरूप है। श्रेणिक महाराजका एक अन्य पुत्र मेघकुमार भी जैन मुनि होगया था ।*
बौद्ध शास्त्रों में भी कतिपय जैन मुनियों का उल्लेख आया है; अन्य प्रसिद्ध किन्तु उनका पता मैनसाहित्यमें प्रायः नहीं मिलता जैन मुनि। है । बौद्धग्रंथ 'मज्झिमनिकाय' में एक चूकसकलोदायो नामक जैन मुनिको पंच व्रतों का प्रतिपादन करते हुये लिखा है। उसी ग्रन्थमें अन्यत्र निग्रंथ श्रमण दीवतपरली (दीर्वतपस्वी) का उल्लेख है। इन्होंने म० गौतमवुद्धसे तीन दन्डों ( मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड ) पर वार्तालाप किया था। इससे इनका एक प्रभावशाली मुनि होना प्रकट है। सुणखत्त नामक एक लिच्छविराजपुत्र भी प्रसिद्ध जैन मुनि थे। पहले यह बौद्ध थे; किन्तु उनसे सम्बन्ध त्यागकर यह जैन मुनि होगये थे। संभवतः जैन मुनिके कठिन जीवनसे भयभीत होकर वह फिर म बुद्धक पास पहुंच गये थे; छिन्तु म बुद्ध के निकट उनकी मनस्तुष्टि नहीं हुई थी, इमलिये उनने फिर पाटिकपुत्र नामक जैन मुनिके निकट जैन दीक्षा लेली थी।
श्रावस्ती के कुल पुत्र (Councillor's Son) मर्जुन भी एक समय जैन मुनि थे और अभयराजकुमारका जैन मुनि होना, जन • *-भम० पृ० १२४-१२६ ॥ १-मनि० मा० २ पृ०,३५-३६॥ २-१नि० भा० १५० ३७१-३८७१ ३-आजी० पृ०३५॥ ४-ममनु० पृ. २६६॥
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१३२] संक्षिप्त जैन इतिहास । शास्त्रोंसे भी प्रकट है । किन्तु इन दोनों मुनियों के सम्बन्धमें कहा गया है कि वह बौद्ध होगये थे, सो ठीक नहीं है। यह जैन मान्यताके विरुद्ध है । सचमुच भगवान महावीरजीका प्रभाव म० बुद्ध और उनके शिष्योंपर वेढब पड़ा था। यहांतक कि वह जैन मुनियोंकी देखादेखी अपनी प्रतिष्टाके लिये नन्न भी रहने लगे थे क्योंकि उस समय नयना ( दिगम्बर भेष ) की मान्यता विशेष थी।
वीरसंघका दूसरा अंग साध्वियों अथवा आर्यिकाओंका था । चन्दना आदि दिगम्बर जैन शास्त्रों में इनकी संख्या छत्तीसहजार
आर्यिकायें। बताई गई है। यह विदुषी महिलायें केवल एक सफेद साड़ीको ग्रहण किये गर्मी और जाड़ेकी घोर परीपद सहन करती हुई अपना आत्मकल्याण करती थीं और लोगोंको सन्मार्गपर लगाती थीं। वह भी मुनियों के समान ही कठिन व्रत, संयम और भात्मतमाधिका अभ्यास करती थीं। सांसारिक प्रलोभन उनके लिये तुच्छ थे। उनके संसर्गसे वे अलग रहती थीं। इन मार्यिकाओंमें सर्वप्रमुख राजा चेटककी पुत्री राजकुमारी चंदना थी; जिसका परिचय पहिले लिखा जाचुका है । चन्दनाकी मामी यशस्वती माविका भी विशेष प्रख्यात् थी। चंदनाकी बहिन ज्येष्ठाने इन्हींसे निन दीक्षा ग्रहण की थी। इन आर्यिकाओंका त्यागमई जीवन पूर्ण पवित्रतामा आदर्श था।वे बड़ी ज्ञानवान और शास्त्रोंकी
१-इंसेजै० पृ० ३६ । २-इंऐ० भा० ९ पृ० १६२ । ३-भम० पृ० १२० व हरि० पृ. ५७९ में २४००० वताई है। उपु० पृ० ६१६ में ३६००० है।
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श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [१३३ पंडिता थीं। बौद्धशास्त्रोंमें भी कई जैन साध्वीयोंका उल्लेख मिलता हैं। उनके वर्णनसे पता चलता है कि उस समय यह जैन साध्वीयां देशमें चारों ओर विहार करके धर्मप्रचार करती थी और लोगोंमें ज्ञानका प्राश फैलाती थीं।
राजगृहके राजकोठारीकी पुत्री भद्रा कुन्दलकेसाका जीवन इस व्याख्यानका साक्षी है। वह अपने गृहस्थ जीवनसे निराश होकर आर्यिका होगई थी। उसने केशलोंच किया और एक सादड़ी ग्रहण करली थी फिर वह चहुंओर विहार करने लगी थी। बड़े लोग उसके उपदेशसे प्रभावित होते थे और वह बड़े२ धर्माचार्योंसे वाद भी करती थी। श्रावस्तीमें उसने प्रसिद्ध बौद्धाचार्य सारीपुत्तसे वाद किया था। अतः उस समय भारतीय महिलासमाजकी महत्वशाली दशाका सहन ही अनुमान लगाया जासका है। भारतीय महिलाओंको यह गौरव भगवान महावीरके दिव्यसंदेशसे प्राप्त हुआ था। जिसको सुनकर लोग स्त्रियोंको हेय दृष्टिसे देखना भूल गये थे। भगवानने व्यक्तिविशेप अथवा जातिविशेषको मादरका पात्र नहीं बताया था। उन्होंने गुणवान्को ही पुननीय ठहराया था। फिर चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष ! जैनधर्ममें प्रत्येक मात्माको एक समान कहा गया है। महावीरजीका यह व्यक्ति स्वातंत्र्यवाला संदेश उस समय खुब ही जनकल्याणका कारण हुआ था। वीरसंघमें जितना दर्ना एक मुनिका माना जाता था, मार्यिकाका भी उपचारसे उतना ही था। वह भी 'महाव्रती' कही गई है। वैसे आर्थिकायें पांचवें गुणस्थानवी ही होती हैं।
१-मम० पृ० २५९-२६१ । २-अष्टपाहुड़ पृ० ७३ ।
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२३४] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
भगवान महावीरके संघका तीसरा अंग उदासीनव्रती श्रावव्रती श्रावक और कोंसे अलंकृत था। इनकी संख्या दिगम्बर श्राविका संघ । मैन शास्त्रों में एक लाख बताई गई है और यह श्वेत वस्त्र धारण करते थे। इन श्रावकोंमें मुख्य सांखस्तक थे। इनके विषयमें कुछ विशेष विवरण प्राप्त नहीं है। वैशाल.के सेनापति सिंह भी उनमें प्रख्यात हैं। वह संभवतः सम्राट् चेटकके पुत्र थे । उनको जैनधर्ममें दृढ़ श्रद्धान था । मुनियोंको आहारदान व उनकी विनय वह खुव किया करते थे । ( भमबु० ४० २३१ ) संघके अन्तिम अंगमें तीनलाख श्राविकायें थीं। यह भी व्रती और उदासीन थीं। इनमें मुख्य सुल्सा और रेवती थीं। बौद्धशास्त्रों में नंदोतरा नामक एक जैन श्राविकाका उल्लेख है। जिससे यह स्पष्ट है कि जैन संघमें जो श्राविका थी, वह अव्रती गृहस्थ श्राविका
ओंके अतिरिक्त उदासीन गृहत्यागी ब्रह्मचारिणीं थीं। जैन संघ स्त्रियोंके लिये आर्यिका और उदासीन श्राविकाके दर्ने नियुक्त थे. जिनमें सर्वोच्च आर्यिका पद था, यह भी बौद्धशास्त्रोंसे सिद्ध है। उपरोक्त उदासीन श्राविका नन्दोत्तराको जन्म कौरवोंके राज्यमें स्थित कम्मासदम्म ग्रामके एक ब्राह्मण कुलमै हुणा था। उसने जैनसंघमें रहकर शिक्षा ग्रहण की थी और अन्ततः वह उन्हीके संघमें सम्मिलित होगई थी। वह अपनी वादशक्तिके लिये प्रख्यात् थी और. सर्वत्र संघसहितं विहार करके वाद करती थी। बौद्धाचार्य महामौद्लायनसें भी उसने शास्त्रार्थ किया था। इसी प्रकार और • भम० पृ. १२० । २-हरि० पृ. ५७९.। ३-भमपृ
२५९-२६ । भमबु पृ० २५८ ।'
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श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [१३५ भी विदुषी श्राविकायें जैनधर्मका प्रभाव दिगन्तव्यापी बनाती और प्राणीमात्रके हितकार्यमें संलग्न रहती थीं।
इन व्रती श्रावक और श्राविकाओंके अतिरिक्त भगवान महाभगवान महावीरके वीरके और भी अनेक भक्त थे, जिनमें अन्य भक्तजन देव बड़े बड़े राजा और सेठ-साहूकार एवं देव
और राजा आदि। देवेन्द्र सम्मिलित थे। सम्राट् श्रेणिक क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे; किन्तु वे व्रती श्रावक नहीं थे। यही कारण है कि उनकी गणना श्रावकसंघके प्रमुखरूपमें नहीं की गई है। जैनधर्ममें श्रद्धा रखते हुये और उसकी प्रभावनाके कार्य करनेवाले अनेक राना थे। कुणिक अजातशत्रुके राज्यकालमें इसी कारण जैन धर्मका विशेष विकाश हुआ था । विदेहदेशस्थ विदेहनगरका राना गोपेन्द्र जैनधर्म प्रभावक था। ऐसे ही पल्लवदेशका राजा धनपतिः जिसकी राजधानी चन्द्रामा नगरी थी; दक्षिणकी क्षेमपुरीका राजा नरपतिदेव, मध्यदेशमें स्थित हेमामानगरीका राना हदमित्र, वेणुपद्मनगरका राना वसुपाल और इंसद्वीपका राजा रत्नचूल जैनधर्मके उत्कर्षका सदा ही ध्यान रखते थे। कलिङ्गदेशके, दन्तपुरके राना धर्मघोष थे और भन्तमें वह दिगम्बर जैन मुनि होगये थे। मणिवतदेशमें दारानगरके राना मणिमाली भी जैन मुनि होकर धर्मका जयघोष करते हये विचरे थे।
श्वेतपुरके राना अमलकल्प हिमालयके उत्तरमें स्थित टंच
१-श्रेच०, पृ० ३२७ ।, २-कैहिइ० पृ० १६३ । ३-उपु० पृ. ६९३ । ४ प्र० पृ. २२२-२२३. । ५-शेव: पृ. २.३३.-२३५ । ६-प्रेच० ० २४०-२५४ ।
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१३६] संक्षिप्त जैन इतिहास । म्पाके शालमहाशाल, हस्तिशीर्षके अदिनशत्रु; ऋषभपुरके धनवाइ; वीरपुरके वीर कृष्णमित्र, विजयपुरके राजा वासवदत्ता कनकपुरके प्रियचंद्र; साकेतपुरके मित्रनंदि; और महापुरके बल राजा भगवान महावीरके मित्र थे। पोदनपुरके प्रसन्नचंद्र भगवान महावीर के समोशरणमें दीक्षा ले राजर्षि हुये थे', मोरियगण राज्यके प्रख्यात् पुरुष जैनधर्मके पोषक थे। भगवान के दो गणघर इसी देशके थे। इनके अतिरिक्त अनेक विदेशी राजा भी भगवान के भक्त थे जिनका उल्लेख विद्याधररूपमें हुआ है। जिप्त समय भगवान महावीरजीका समोशरण सम्मेदशिखिरपर विराजमान थ; उस समय भूतिलकनगरका विद्याधर राना हिरण्यवर्मा भगवानकी शरणमें आया था। इसके पिता हरिवलने विपुलमति नामक चारण मुनिसे दिगम्बरीय दीक्षा ग्रहण की थी। इसी प्रकार अन्य कितने ही विदेशी लोगोंने जैनधर्म में विश्वास रखकर आत्मकल्याण किया था।
राजाओंके अतिरिक्त बहुतसे श्रावक धनसम्पदामें भरपूर अव्रती गृहस्थ श्रावक प्रख्यात सेठ थे। इनमें उज्जैनीके धन्यऔर श्राविकाये वीर कुमार सेठका उल्लेख पहिले किया जाचुका प्रभूके अनन्य है। उनके विशिष्टगुणों को देखकर श्रेणिक
भक थे। महाराजने उन्हें अपना जमाई बनाया था। इसी तरह राजगृहके सेठ शालिभद्र थे; जिन्होंने विदेशोंसे व्यापार करके खुब धन संचय किया था और खूब धर्मप्रभावना की थी। उस समय विदेहदेश अपने व्यापारके लिये प्रमिद्ध था। वहांके
१-एइजै० पृ० ६५० । २-गुवापरि० पृ. ४० । ३-उपु० १० २७३ | ४-उपु० पृ. २७२ ।
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श्री वीर- संघ और अन्य राजा ।
[ १३७
सुप्रतिष्ठनगर में राजा जयसेनका राज्य था और कुबेरदत्त प्रख्यात् जैन सेठ था । इसकी पत्नी धनमित्रा सुशोला और विदुषी थी । सुप्रतिष्ठ नगर में इसने खुच चैत्य - चैत्यालय बनवाये थे । सागरसेन 1 मुनिराज के मुखसे यह जानकर कि उनके एक चरमशरीरी पुत्र होगा, वह बड़े प्रसन्न हुये थे | उनने पुत्रका नाम प्रीतंकर रक्खा था | प्रीतिंकरको उनने सागरसेन सुनिराज के सुपुर्द शिक्षा पानेके लिये क्षुल्लकरूपमें कर दिया था । सुनिराज उसको धान्यपुर के निकट अवस्थित शिखिभूधर पर्वतपरके जैन मुनियोंके आश्रम में लेगये थे और वहां दश वर्षमें उसे समस्त शास्त्रोंका पंडित बना दिया था। प्रीतिंकर अपने घर वापस आया और अवसर पाकर अपने भाई सहित समुद्रयात्रा द्वारा धन कमाने गया था । भूतिलक नगरकी विद्याधर राजकुमारीकी इसने रक्षा की थी और अन्तमें उसके साथ इसका विवाह हुआ था । बहुत दिनोंतक सुख भोगकर प्रीतंकर ने अपने पुत्र प्रियंकरको धन संपदा सुपुर्द की थी और वह राजगृह में भगवान महावीरजीके समीप जैन -मुनि होगया था। उस समय भारतके बंदरगाहोंमें भृगुकच्छ (भडौंच) खुब प्रख्यात् थी। दूर दूरके देशोंसे यहां नहान आया और जाया करते थे। तब यहाँपर वसुपाल नामक राजा राज्य करता था और जिनदत्त नामक एक प्रसिद्ध जैन सेठ रहता था । यह जैनधर्मका परमभक्त था । इसकी स्त्री जिनदत्तासे इसके नीली नामक एकं सुन्दर कन्या थी । वहींके एक बौद्ध सेठने छलसे नीलीके साथ विवाह कर लिया था | इस कारण पिता और पुत्रीको मान
१-उ० पु० पृ० ७२०-७३५ | २ - केहिइ० पृ०
३१२ ।
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१३८] संक्षिप्त जैन इतिहास । सिक दुःख हुआ था । सारांशतः उस समय भारत एवं विदेशोंमें भगवान महावीरके भक्त अनन्य राना और श्रेष्ठीपुत्र विद्यमान थे, जिनके द्वारा जैनधर्मकी प्रभावना विशेष होती थी। जैन संघमें श्रावक और श्राविकाओंको भी फिर चाहे वे व्रती हों या अवती, जो मुख्य स्थान मिला हुआ था; उप्तीके कारण जैनधर्मकी नींव भारतमें दृढ़ रही और घोरतम अत्याचारोंके सहते हुये भी वह सजीव है।
तत्कालीन सभ्यता और
परिस्थिति।
(ई० पू० ६००-७००) कोई भी देश हो, यदि उसके किसी विशेष कालकी सभ्यता भारतको तत्कालीन राज. और स्थितिका ज्ञान प्राप्त करना अभीष्ट
नैतिक अवस्था। हो, तो प्राकृत उस देशकी उस समयकी राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितिको नान लेना आवश्यक होता है। जहां उस देशकी इन सब दशाओंका सजीव चित्र हमारे नेत्रों के अगाड़ी खिंच गया; फिर ऐसी कौनसी बात बाकी रही कही जासक्ती है; जिससे तत्कालीन परिस्थितिका परिचय प्राप्त न हो ? भारतकी दशा भगवानके समय क्या थी ? उसकी सम्यता उस समय किस अवस्था पर थी? इन प्रश्नोंका यथार्थ उत्तर पानेके लिये श्रेष्ठ और निरापद मार्ग यही है कि
१-जैस्मा० पृ० २१ ।
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तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१३९
उस समयके भारतकी राजनेतिक सामाजिक और धार्मिक परिस्थितिका पर्ययलोचन कर लिया नावे । वप्त भारतकी तब जो दशा' थी वह स्पष्ट हो जायगी और उसके साथ जैनधर्म और जैन समानका जो स्वरूप उस समय था, वह भी प्रकट हो जायगा। मतः राजनैतिक विषय में तो उपरोक्त वर्णनसे पर्याप्त प्रकाश पड़ चुका है। उस समय भारत राजनैतिक रूपमें आनसे कहीं अधिक स्वाधीन और बलवान था। उसकी राष्ट्रीय दशा विशेष उन्नतशील और समृद्धिशाली थी। उस समय यहां एक समूचा राज्य नहीं था। भारत छोटेर राज्यों में विभक्त था, जिनकी संख्या सोलह थी। इनमें कोई तो परम्परीण सत्ताधिकारी राजाओंके अधिझारमें थे और किन्हींका शासन प्रजातंत्र प्रणालीके ढंगपर होता. था । प्रजातंत्र प्रणाली ऐसी उत्कृष्ट दशामें थी कि आनके उन्नत. शील प्रजातंत्र राज्यों के लिये वह एक अच्छा खासा आदर्श है। इस प्रकार उस समयकी राजनेतिक स्थिति थी। णिक महारान महामंडलेश्वर अर्थात एक हजार राजाओं के स्वामी थे।
निस देशकी राजनैतिक स्थिति सुचारु और समृद्धिशाली उस समयकी सामा- हो, उसका समान अवश्य ही उन्नतशील
जिक दशा। भवस्थामें होता है । ऐहिक सुख सम्पन्न दशामें व्यक्ति स्वातंत्र्य भात्महितकी वातोंकी ओर लोगों का ध्यान खतः जाता है। उस समयका भारतीय समान ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र वर्गामें विभक्त था। चाण्डाल आदिमी थे | भगवान
१-प्रेच. पृ० ३३९ ।
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१४०] संक्षिप्त जैन इतिहास । महावीरनीके जन्म होनेके पहिले ही ब्राह्मण वर्णकी प्रधानता थी। उसने शेष वर्णोके सब ही अधिकार हथिया लिये थे । अपनेको पुनवाना और अपना अर्थसाधन करना उसका मुख्य ध्येय था। यही कारण था कि उस समय ब्राह्मणोंडे अतिरिक्त किसीको भी धर्मकार्य और वेदपाठ करनेकी आज्ञा नहीं थी। ब्राह्मणेतर वर्णों के लोग नीचे समझे जाते थे। शूद्र और स्त्रियोंको मनुष्य ही नहीं समझा जाता था । किन्तु इस दशासे लोग ऊब चले-उन्हें मनुप्योंमें पारस्परिक ऊंच नीचका भेद अखर उठा । उधर इतनेमें ही भगवान पार्श्वनाथका धर्मोपदेश हुआ और उससे जनता अच्छी तरह समझ गई कि मनुष्य मनुष्यमें प्राकृत कोई भेद नहीं है। प्रत्येक मनुष्यको मात्म-स्वातंत्र्य प्राप्त है। कितने ही मत प्रर्वतक इन्हीं बातोंका प्रचार करनेके लिये अगाडी आगये। जैनी लोग इस आन्दोलनमें अग्रसर थे।
साधुओंकी बात जाने दीजिये, श्रावक तक लोगोंमेंसे जातिमूढ़ता अथवा जाति या कुलमदको दूर करनेके साधु प्रयत्न करते थे | रास्ता चलते एक श्रावकका समागम एक ब्राह्मणसे होगया । ब्राह्मण अपने जातिमदमें मत्त थे; किन्तु श्रावकके युक्तिपूर्ण वचनोंसे उनका यह नशा काफूर होगया। वह जान गये कि "मनुण्यके शरीरमें वर्ण आकृतिके भेद देखनेमें नहीं माते हैं, जिससे वर्णभेद हो; क्योंकि ब्राह्मण आदिका शूद्रादिके साथ भी गर्भाधान देखने में आता है। जैसे गौ, घोड़े आदिकी जातिका भेद पशुओंमें है, ऐसा । नातिभेद मनुष्योंमें नहीं है। क्योंकि यदि आकारभेद होता तो
१-भम० पृ. ४७-५६ । २-भमवु० पृ. १५-१७ ।
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ऐसा भेद होना संभव था ।" अतः मनुष्यजाति एक है। उसमें जाति अथवा कुलका अभिमान करना वृथा है । एक उच्च वर्णी ब्राह्मण भी गोमांस खाने और वेश्यागमन करने आदिसे पतित हो सक्ता है और एक नीच गोत्रका मनुष्य अपने अच्छे आचरण द्वारा ब्राह्मणके गुणों को पासक्ता है।
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भगवान महावीरजी के दिव्य संदेश में मनुष्यमात्र के लिये व्यक्ति स्वातंत्र्यका मूल मंत्र गर्भित था । भगवानने प्रत्येक मनुष्यका आचरण ही उसके नीच अथवा उंचपनेका मूल कारण माना था। उनने स्पष्ट कहा कि संतानक्रमसे चले आये हुये जीवके आचरणकी गोत्र संज्ञा है । जिसका ऊंचा आचरण है उसका उच्च गोत्र है और जिसका नीच आचरण हो, उसका नीच गोत्र है। शूद्र हो या स्त्री हो अथवा चाहे जो हो गुणका पात्र है, वही पूजनीय | देह या कुलकी वंदना नहीं होती और न जातियुक्तको ही मान्यता प्राप्त है । गुणहीनको कौन पूजे और पाने ? भ्रमण भी गुणोंसे होता है और श्रावक भी गुणोंसे होता है। महावीरजीके इस संदेश से
१ - उपु० प ७४ ० ४९१ - ४९५ | २ - आदिपुराण पर्व ३८ लोक ४५ । ३-उ० प ७४३लो० ४९० । ४- अमितगति श्रावकाचार इलो० ३० परि०१७ व भा० पृ० ४९ ।
५- ताणकमेणागय जीववरणस्स गोदमिदि सण्णा उधं नींचे चरणं उधं नीचे हवे गोदं ॥ ६- शिशु खयं वा यदस्तु तत्तिष्ठतु तदा । गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च टिनं न च वयः ॥
७- वि देहो दिन ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुतो । को वंदमि गुणहीणो ण हु स्रवणो णेय सावओ होई ॥२७॥ - दर्शनपाहुर |
- गोमहवार ।
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जनताकी मनमानी मुराद पूरी हुई और वह अपने जाति अथवा कुलमदको भूल गई थी !
तब भारत में विश्वप्रेमी पुण्यधाराका अटूट प्रवाह हुआ ।
जनता गुणोंकी उपासक बन गई। ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्यत्वका उसे अभिमान
तव जाति या कुलकी मान्यता न होकर
ही शेष न रहा ! सब ही गुणोंको पाकर श्रेष्ट बनने की कोशिश करते थे | धन्य- कुमार सेठको देखिये; उनके गुणोंका आदर करके सम्राट श्रेणिकने अपनी पुत्रीका विवाह उनसे कर दिया था और उन्हें राज्य देकर अपने समान राज्याधिकारी बना दिया था । यही बात इनसे पहले
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गुणोंका आदर होता था ।
सेठ भविष्यदत्तके विषय में घटित हुईं थी । वह वैश्यपुत्र होकर भी राज्याधिकारी हुये थे । हस्तिनागपुर के राजसिंहासनपर आरूढ़ होकर उन्होंने प्रजाका पालन समुचित रीति से किया था | सेठ प्रीतिंकरको क्षत्री राजा जयसेनने आधा राज्य देकर राजा बनाया था | सारांशतः स्वतंत्र मन्वेषणके आधारसे विद्वानोंको यही कहना - पड़ा है कि " उस समय ऊपरके तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य) - तो वास्तव में मूलमें एक ही थे; क्योंकि राजा, सरदार और विप्रादि तीसरे वैश्य वर्णके ही सदस्य थे; जिन्होंने अपनेको उच्च सामाजिक - पदपर स्थापित कर लिया था । वस्तुतः ऐसे परिवर्तन होना जरा कठिन थे, परन्तु ऐसे परिवर्तनोंका होना संभव था । गरीब मनुष्य राजा - सरदार (Nobles) बन सक्ते थे और फिर दोनों ही ब्राह्मण
१ - धन्यकुमार चरित्र देखो । २ - भविष्यदत्तचरिव । ३ - उपु० पर्व -७६, लो० ३४६-३४८
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तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। २४३ होसक्ते थे। ऐसे परिवर्तनों के अनेक उदाहरण ग्रन्थोंमें मिलते हैं। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणोंके क्रियाकांडयुक्त एवं सर्व प्रकारकी सामानिक परिस्थितिके पुरुष स्त्रियोंके परस्पर सम्बन्धके भी उदाहरण मिलते हैं और यह उदाहरण केवल उच्च वर्णके ही पुरुष और नीच सन्याकि सम्बन्धके नहीं हैं, बल्कि नीच पुरुष और उच्च स्त्रियों के भी है।"
सचमुच उस समय विवाहक्षेत्र अति विशाल था । चारों विधाह क्षेत्रको वर्गों के स्त्री-पुरुष सानन्द परस्पर विवाह सम्बन्ध विशालता । करते थे। इतना ही क्यों, म्लेच्छ और वेश्याओं आदिसे भी विवाह होते थे। राजा श्रेणिकने ब्राह्मणीसे विवाह किया था, जिसके उदरसे मोक्षगामी अभयकुमार नामक पुत्र जन्मा था। वैश्यपुत्र जीवंधरकुमारने क्षत्रिय विद्याधर गरुड़वेगकी कन्या गन्धर्वदत्ताको स्वयंवरमें वीणा बनाकर पास्त किया और विवाहा था। स्वयंवरमंडपमें कुलीन अकुलीनका भेदभाव नहीं था। विदेह देशके धरणीतिलका नगरके राजा गोविन्दकी कन्याके स्वयंवरमें उपरके तीन वर्णावाले पुरुष आये थे। जीवंधरकुमारके यह मामा ये । जीवन्धरने चंद्रक यंत्रको वेषकर अपने मामाकी कन्याके साथ पाणिग्रहण किया था। पल्लवदेशके गजाकी कन्याका सर्पविष दूर
. १-बुइ० पृ. ५५-५९१२-पु० पर्व ७५ श्लो० २९ । ३-उपु० पर्व ७५ श्रो० ३२०-३२५ ।
४-पल्या वृणीते कवितं स्वयंत्रग्गतां वर • कुलीनमकुलीनं या मो नास्ति स्वयंवरे ॥ इरि०.जिलदासकृतः। ५-क्षत्रचूड़ामणिकाव्य लंच १० श्लो०२३-२४ । .
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करके उसे भी जीवंघरने व्याहा था । वणिकपुत्र प्रीतंकरका विवाह राजा जयसेनकी पुत्री के साथ हुआ था । विवाह सम्बन्ध करनेमें जिस प्रकार वर्णभेदका ध्यान नहीं रक्खा जाता था, वैसे ही धर्मविरोध भी उसमें बाधक नहीं था । वसुमित्र श्रेष्ठो जैन थे; किन्तु उनकी पत्नी धनश्री अजैन थी। साकेतका मिगारसेठी जैन था किन्तु उसके पुत्र पुण्यवर्द्धनका विवाह वौद्ध धर्मानुयायी सेठ धनंजयकी पुत्री विशाखासे हुआ था । सम्राट् श्रेणिक के पिता उपश्रेणिक ने अपना विवाह एक भीलकन्यासे किया था ।
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भगवान महावीरके निर्वाणोपरान्त नन्दराजा महानंदिन जैन थे । इनकी रानियोंमें एक शूद्रा भी थी; जिससे महापद्मका जन्म हुआ थी । चम्पाके श्रेष्टी पालित थे । इनने एक विदेशी कन्यासे विवाह किया था। प्रीतंवर सेठ जब गये थे, तो वहांसे एक राजकन्याको ले आये थे; जिसके साथ
विदेश में
धनोपार्जन के लिये
उनका विवाह हुआ था । इस कालके पहले से ही प्रतिष्ठित जैन पुरुष जैसे चारुदत्त अथवा नागकुमारके विवाह वेश्या - पुत्रियोंसे हुये थे । सारांशतः उस समय विवाह सम्बन्ध करनेके लिये कोई I बन्धन नहीं था । सुशील और गुणवान् कन्या के साथ उसके उपयुक्त वर विवाह कर सक्ता था | स्वयंवरकी प्रथाके अनुसार विवा - हको उत्तम समझा जाता था ।
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१ - क्षाच्० लंब ५ श्लो० ४२ - ४९ । २ - उपु० पर्व ७६ श्लो० ३४६३४८ । ३-आक० भा० ३ पृ० ११३ | ४- भमनु० पृ० २५२ । i ५, आक० भा० ३ पृ० ३३ । ६ वीर वर्ष ५ पृ० ३८८ । ७ -उलू०
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२१ । ८-उ० पु० ७३३ ।
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महिलाओं का आदर और प्रतिष्ठा भी उस समय काफी थी। महिलाओंकी महिमा पुरुष स्त्रियोंको अपनी अर्द्धाङ्गनो समझते और प्रतिष्ठा । थे और उनके साथ बड़े सौजन्य और प्रेमपूर्वक व्यवहार करते थे । परदेका रिवाज तब नहीं था । स्त्रियां बाहर निकलतीं और शास्त्रार्थं तक करतीं थीं । राजा सिद्धार्थ जिस समय राजदरवार में थे, उस समय रानी त्रिशला वहां पहुंची थीं। राजाने बड़े मानसे उनको अपने पाम राजसिंहासन पर बैठाया था । और अन्य राजकार्यको स्थगित करके उनके आगमन का कारण जानना चाहा था । पुरुष स्त्रियोंसे उचित परामर्श और मंत्रणा भी करते थे। जम्बूकुमार जिस समय जैन दीक्षा धारण करनेको उद्यत हुये थे, उस समय उनकी नवविवाहिता स्त्रियोंने खूब ही युक्तिपूर्ण शब्दों द्वारा उन्हें घर में रहकर विषयभोग भोगने के लिये उत्माहित किया था | जम्बूकुमारने भी उनके परामर्शको बड़े गौर से सुना था और उनको सर्वथा संतुष्ट करके वह योगी हुये थे। उनके साथ उनकी पत्नियां भी साध्वी होगई थीं। सचमुच उस समय स्त्रियोंको भी धर्माराधन करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी ।
गृहस्थ दशा में वे भगवानका पूजन अर्चन और दान अथवा सामायिक आदि धर्म कार्य करतीं थीं। साधु संगतिका लाभ उठाती थीं । मथुग के अईंदास सेटने अपनी स्त्रियों सहित रात्रि जागरण करके भगवानका पूजन-भजन किया था । स्त्रियोंकी और उनकी जो ज्ञानचर्चा उस समय हुई थी, उसको सुनकर मथुराके राजा एवं 'अंजन चोर भी प्रतिबुद्ध होगये थे। सचमुच उस समयकी स्त्रियां
१ - उ० पु० पृ० ६०५ -६०६ । २-उ० पु० पृ० ७०२-७०४ । ३-० पृ० ५-१४७ |
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बड़ी ही ज्ञानवती और विदुषी होतीं थीं। वह शृङ्गार करना और सुन्दर वस्त्र पहनना जानती थीं; किन्तु शृङ्गार करनेमें ही तन्मय नहीं रहती थीं। वह बाह्य सुन्दरता के साथ अपने हृदयको भी अच्छे गुणोंसे सुन्दर बनातीं थीं। वह कन्यायें योग्य अध्यापि - काओं अथवा साध्वीयोंके समीप रहकर समुचित ज्ञान प्राप्त करतीं थीं और प्रत्येक विषयमें निष्णात वननेकी चेष्टा करतीं थीं । उस समयकी एक वेश्या भी बढ़त्तरकला, चौसठ गुग और अठारह देशो भाषाओं में पाराङ्गत होती थी । ( विपाक सुत्र १ - ३ ) विद्याका बहुत प्रचार था |
संगीत
जीवंधरकुमारने गंधर्वदत्ता आदि कुमारिकाओं को वीणा बजानेमें परास्त करके विवाह किया था । सुरमंजरी और गुणमाला नामक वैश्य पुत्रियां वैद्य विद्याकी जानकार थीं। जीवंघरकी माता मयू यंत्र नामक वायुयान में उड़ना सीखती थीं। ब्राह्मग कन्या नंदश्रीने राजा श्रेणिककी चतुराईकी खासी परीक्षा ली थी । उस समय पढ़ लिखकर अच्छी तरह होशियार हो जानेपर कन्याओं के विवाह युवावस्था में होते थे । जबतक कन्यायें युवा नहीं हो लेतीं थीं, तबतक उनका वाग्दान होनानेपर भी विवाह नहीं होता था । कनकलताको उसके निर्दिष्ट पतिसे इसी कारण अलग रहने की आज्ञा हुई थी। बहुधा कन्यायें वरकी परीक्षा करके, उसे योग्य पानेपर अपना विवाह उसके साथ कर लेतीं थीं । युवावस्था में विवाह होने से उनकी संतान भी बलवान और दीर्घजीवी होती थी । यही
* ईऐ० भा० २० पृ० २६ । १ - क्षत्रचूडामणि काव्य व भ्रमपृ० १२७-१३४ ॥ २-३० पु० पृ० ६१७३-३० पु० पृ० ६४२ ।
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कारण है कि तब विधवाओं का विलाप प्रायः नहीं के बराबर सुननेको मिलता था । विधवा हुई स्त्रियां, फिर अधिक समय तक गृहस्थीमें नहीं रहती थीं । वे साध्वी होनाती थीं अथवा उदासीन श्राविका रूपमें अपना जीवन बिताती थीं। उनका चित्त माला- . रिक भोगोपभोगकी ओर आकृष्ट नहीं होता था। हां, यदि भाग्यवशात् कोई कुमारी कन्या अथवा विधवा सन्मार्गसे विचलित हो जाती थी तो उसके साथ घृणाका व्यवहार नहीं किया जाता था। उन्हें सब ही धर्मकार्य करने की स्वाधीनता रहती थी।
चंपानगरकी कनकलताका अनुचित सम्बंध एक युवासे हो गया था। इसपर यद्यपि वे लजित हुये थे; परन्तु उनके धर्मकायो में बाधा नहीं आई थी। वे पति-पत्नीवत् रहते हुये, मुनिदान और देवपूजन करते थे। इसी तरह ज्येष्ठा आर्यिकाके भृष्ट होने पर. उसे प्रायश्रित और पुनः दीक्षा देकर शुद्ध कर लिया गया था। महिलायें विपत्तिमें पड़नेपर बड़े साहससे अपने शोधर्मकी रक्षा करती थीं और समान भी इसी तरह पीडित हुई कन्याक्षा अनादर नहीं करती थी। चंदनाका उदाहरण स्पष्ट है। मागंशतः भगवान महावीरनीके समयमें महिलाओं का जीवन विशेष आदरपूर्ण और स्वाधीन था। ___निस देश अथवा समानकी स्त्रियां विदुषी और ज्ञानवान उस समयके और और होती हैं, वहाँका पुरुष वर्ग स्वभावतः 'पराक्रमी पुरुष। विद्यापटु और विचक्षण बुद्धिवाला होता है।
१-30.पु. पृ०.६५३ । २-आक० मा० २.पृ० १६.। ३.उ. पु० पृ० ६३७ ।
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और
भगवान महावीरके समय में भारत के पुरुष ऐसे ही कला कुशल विद्वान् थे । वह लोग बालकको, जहां वह पांच वर्षका हुमा, विद्याध्ययन करने में जुटा देते थे; किन्तु उस समयकी पठन पाठन प्रणाली आज से बिल्कुल निराली थी । तब किसी एक निर्णीत ढांचे पढ़े-लिखे लोग विद्यालयोंसे नहीं निकाले जातेये और न आजकलकी तरह 'स्कूल' अथवा 'कालेज ' ही थे । उस समयके विद्वान् ऋषि ही बालकों की शिक्षा दीक्षाका भार अपने ऊपर लेते थे । सर्व शास्त्रों और कलाओं में निपुण इन ऋषियोंके आश्रम में ' जाकर विद्यार्थी युवावस्थात शास्त्र और शस्त्रविद्या में निणात हो वापिस अपने घर आते थे। तक्षशिला और नालंदा के विद्या आश्रम प्रसिद्ध थे । जैन सुनियोंके आश्रम भी देशभर में फैले हुए थे । विदेह में धान्यपुर के समीप शिखर भूधर पर्वतपरके जैन आश्रम में प्रोतंकर कुमार विद्याध्ययन करने गये थे । मगध देशमें ऋषि गिरिपर भी जैन मुनियों की तपोभूमि थी ।
ऐसे ही अनेक स्थानोंपर आश्रमोंमें उपाध्याय गुरु बालकबालिकाओं को समुचित शिक्षा दिया करते थे । विद्यार्थी पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहते थे जिसके कारण उनका शरीर गठन भी खूब अच्छी तरह होता था । विद्याध्ययन कर चुकने पर युवावस्था में योग्य कन्याके साथ विवाह होता था । किन्तु विवाह के पहिले ही युवक अर्थोपाजैन के कार्य में लगा दिये जाते थे। इसके साथ यह भी था कि कई युवक आत्मकल्याण और परोपकार के भावसे गृहस्थाश्रम में आते ही
१ - जैप्र० पृ० २३१ । २-३५० पृ० ७२० - ७३५ । ३ - मनि० भा० १ पृ० ९२-९३ | ४-जैप्र० पृ० २२६-२२७ ।
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तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१४९ नथे । वे साधु होकर कल्याणके कार्यमें लग जाते थे। सब लोग अपने ९ वर्णके उपर्युक्त साधनों द्वारा ही आनीविकोपार्जन करते थे। किन्तु ऐसा करते हुये वे सचाई और ईमानदारीको नहीं छोड़ते थे । लाखों करोड़ों रुपयों का व्यापार दुररके देशोंसे बिना लिखा पढ़ीके होता था। विदेह व्यापारका केन्द्र था। बनारस, राजगृह, ताम्रलिप्ति, विदिशा, उज्जैनी, तक्षशिला मादि नगर व्यापारके लिये प्रसिद्ध थे। रौहानगर, सुरपारक ( सोपारा बम्बईके पास) भृगुकच्छ (भड़ोंच) आदि नगर उस समयके प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। इन बन्दरगाह तक व्यापारी लोग अपना माल और सामान गाड़ियों और घोड़ोंपर लाते थे और फिर महानों में भरकर उसे विदेशोंमें लेनाते थे । सेठ शालिभद्र और प्रीतिकर आदिकी कथाभोंमें इसका अच्छा वर्णन मिलता है।
उस समयके भारतीय व्यापारी लंका, चीन, जावा, वेथीलोनिया, मिथ आदि देशों में व्यापारके लिये जाया करते थे और खूब धन कमाकर लौटते थे। उनके निजी जहान थे और वे मणि एवं मंत्रका भी प्रयोग करना जानते थे। संतानको अच्छे संम्हारोंमे संस्कृत करने का रिवाज भी चालू था। गरीब और अमीर सापारिक कार्योको करते हुये भगवद्भनन और जाप सामायिक करना नहीं भूलते थे। राना चेटक युद्धस्थलमें मिनेन्द्र प्रतिमाके . समक्ष पूना करते थे। किंतु व्रतोंको पालते हुये भी लोग दुष्टका
१-मया० पृ. ३८-४६ । २-कैहि ई० पृ० २१२ व जराएसो १९२७ पृ०१५। ३-एरि० भा०९ पृ. ४१-४६ ॥ ४-इहिका० भा०
पृ०-६१३-६९६ ६ मा० २ पृ० ३८-४२. ५-अप्र० पृ० २३० । .. ६-जैप्र० पृ० २२८ । ७-जम० पृ० २२८
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१५०] संक्षिप्त जैन इतिहास । निग्रह करनेसे नहीं चूकते थे । राजाओंका तो यह कर्तव्य ही था; किंतु वणिक लोग भी शस्त्रविद्यामें निपुण होते थे और वक्त पड़नेपर उससे काम लेना जानते थे।' प्रीतिकरने भीमदेव नामक विद्याधरको परास्त करके राजकन्याकी रक्षा की थी। सचमुच उस समयके पुरुष पुरुषार्थी थे और उनके शिल्प कार्य भी अनूठे होते थे। सातर मंजिलके मकान बनते थे और उनकी कारीगरी देखते ही बनती थी। सोनेके रथ और अम्बारियां दर्शनीय थे। उनके घोड़े और हाथियों की सेना जिस समय सजघनके निकलती थी, तो देवेन्द्रका दल फीका पड़ा नजर पड़ता था। उस समयके चत्य और मूर्तियां अद्भुत होती थीं । उनके एकाध नमूने आज भी देखनेको मिलते हैं। लोग बड़े पुरुषार्थी, दानी और धर्मात्मा थे। सारांशतः उस समयकी सामाजिक स्थिति आजसे कहीं ज्यादा अच्छी और उदार थी। . ___ उस उदार सामाजिक स्थितिमें रहते हुये, भारतीय अपनी धार्मिक स्थिति।
... धार्मिक प्रवृत्तिमें भी उत्कृष्टताको पाचुके थे।
जिस समय भगवान महावीरजीका जन्म भी नहीं था, उसके पहिलेसे ही यहां वैदिक क्रियाकाण्डकी बाहुल्यता थी । धर्मके नामपर निर्मुक और निरपराध जीवोंकी हत्या करके यज्ञ-वैदियां रक्तरंजित की जाती थीं। कल्पित स्वर्गसुखके लाल
चमें इतर समान ब्राह्मणोंके हाथकी कठपुतली बन रहा था। उन्हें न बोलनेकी स्वाधीनता थी और न ज्ञान काम करनेकी खुली माज्ञा !
-जैप्र० पृ० २२९ । २-भमे० पृ० ५८ ॥ 3-उपु० पृ० ७५० । ४-मम० पृ० ५२-५६ ।
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तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१५१ किंतु यह 'पोमडम' अधिक दिनोंतक नहीं चल सका, यह हम देख चुके हैं और जानते हैं। भगवान पार्श्वनाथनी के सदुपदेशसे मानवोंको ज्ञान नेत्र मिल गये थे। अनेकों मत प्रवर्तक हर किसी जातिमेसे मगाड़ी भाकर विना किसी भेद भावके प्रचलित धार्मिक क्रियाकाण्डके विरोवमें अपना झंडा फहराते विचर रहे थे। शासक समुदाय इन लोगोंको माश्रय देने में संकोच नहीं करता था। फिर इसी समय भगवान महावीर और म० बुद्ध का जन्म हुआ। लोगोंके भाग्य खुल गये | आत्म-स्वातंत्र्यका युग प्रवर्त गया। दोनों महापुरुषोंने वैदिक कर्मकाण्डकी असारता और उसका घोर हिंसक और भयावह रूप प्रकट कर दिया।
जैन ग्रन्थों में कई स्थलोंपर ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनमें मैनोंने लोगोंके हृदयोंपर यज्ञमें होनेवाली हिंसाका क्रूर परिणाम अंकित करके उन्हें महिंसामार्गी बना दिया था। साथ ही उस समय वृक्षोंकी पना और गंगा नदियों में स्नान अथवा नाति और कुलको धर्मका कारण मानना पुण्यकर्म समझे जाते थे। जैन शिक्षकोंने बड़ी सरल रीतिसे इनका भी निराकरण कर दिया था; निसका प्रभाव जनतापर काफी पड़ा था। वह बड़ी ही सुगमतासे अपनी मूल समझ सकी थी। इस सबका परिणाम यह हुआ कि अहिंसाकी दुन्दुभि चहुओर बनने लगी और महावीर स्वामी के जयघोपके निनादसे आकाश गुंज गया ।
1-ममनु० पृ. १४-१७ । २-प्रच० पृ० ३३५-३३६ व उसू० ३५. (. Pt. II. pp. 139-140) ३-श्रेच० पृ० ३३२-३३८ ब उपु० पृ० ६२४-६२६ ।
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१५२] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
जैनधर्म जैसा आज मिल रहा है, उपका ठीक वैसा ही रूप तद और अवका उम समय था, यह मान लेना जरा कठिन है; ___ जैनधर्म! क्योंकि जब इसी जमानेके किप्ती मतप्रर्वतकके सिद्धान्त ठीक से नहीं रहते, जैसे वह बनाता है तब यह कैसे संभव है कि ढाई हजार वर्ष पहिले प्रतिपादित हुआ धर्म आन ज्योंडा त्यों मिल सके ! किन्तु इतनी बात निःसन्देह सत्य है कि जैनधर्मके दार्शनिक और सैद्धांतिक रूपमें बिल्कुल ही नहीं, कुछ मन्तर पड़ा है। इसका कारण यह है कि जैनधर्म एक वैज्ञानिक धर्म है । विज्ञान सत्य है । वह जैसा है वैसा हमेशा रहता है । इसी लिये जैनधर्मका दार्शनिक रूप आज भी ठोक वैसा ही मिलता है, जैसा उसे भगवान महावीरने बतलाया था। इसका समर्थन बौद्ध ग्रन्थोंसे होता है। जहां जैनोंके प्राचीन दार्शनिक मिडांत ठीक वैसे प्रतिपादित हुये हैं, जैसे आज मिलते हैं। और इसप्रकार यह कहा जासक्ता है कि भगवान महावीर के मूल धर्मसिद्धांत आज भी अविकृतरूपमें मिल रहे हैं-सिर्फ अन्तर यदि है तो उनके द्वारा बताये हुए कर्मकांड अथवा चारित्र सम्बंधी नियमों में है । अतः उस समयके धार्मिक क्रियाकांडपर एक नजर डाल लेना उचित है।
पहेले ही मुनिधर्मको ले लीजिये। इस ममय यह मतभेद उस समयका है कि जैन मुनिका भेष मूलमें नग्न था अथवा
मुनिधर्म। वस्त्रमय भी था; किंतु बौद्धशास्त्रों के आधारसे यह प्रगट किया जाचुका है कि जैन मुनि नग्न भेषमें रहते थे और . उनकी क्रियायें प्रायः वैसी ही थी सी कि आज दिगम्बर जैन
१-भमबु पृ. ११७-२७० ।
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तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१५३ मुनियोंकी मिलती हैं। वह दातारके घर जाकर जो शुद्ध आहार विधिपूर्वक मिलता था, उसको ग्रहण कर लेते थे। यह बात नहीं थी कि वह भिक्षा मांगकर उपाश्रयमें ले आकर उसे मक्षण करते हों। भाजीविक साधु ऐसा करते थे। इसी कारण श्वेतांबरोंने उनपर आक्षेप किया है। एक बात और है कि उस समय मुनिधर्म पालन करने का द्वार प्रत्येक व्यक्तिके लिये खुला हुआ था। चोर, डाकू, व्यभिचारी, पतित इत्यादि पुरुष भी मुनि होकर आत्मकल्याण कर सक्ते थे। अननचोरकी कथा प्रसिद्ध है-वह मुनि हुआ था। सूरदत्त डाकू मुनि होकर मुक्तधामका बासी हुआ था। सात्यकि व्यभिचार कर चुक्नेपर पुनः दीक्षित हो मुनि होगये थे । व्यभिचारजात रुद्र मुनि ग्यारह आछा पाठी विद्वान् साधु था। ऐसे ही उदाहरण और भी गिनाये जासक्ते हैं, किंतु यही पर्याप्त हैं । इस उदारताके साथ उस समय जैन मुनियोंमें यह विशेषता और थी कि वह अष्टमी और चतुर्दशी इत्यादि पर्वके दिनों में बाजार के चौराहोंपर खड़े होकर जैनधर्मका प्रचार करते थे और मुमुक्षुओंकी शकाओंका समाधान करके उनको जैनधर्ममें दीक्षित करते थे। इस क्रिया द्वारा उनके अनेकों शिष्य होते थे । इन नव दीक्षित जनोंके यहां वह आहार लेने में भी संकोच नहीं करते थे। मक्तामरचरित काव्य २१ की कथासे यह स्पष्ट है। उप्त समयके मुनि बड़े
१-ममबु० पृ. ५४-६५ ॥२-औपपातिक सूत्र १२० । ३-आक० मा० १ पृ. ७४ । ४-आक० भा० १ पृ० १५५ । ५-आक० भा० २ पृ० १००-१०१।६-ममवु १० २४० व विनयपिटक । ७-जैप्र० पुं० २४० ।
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१५४ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
विद्वान् और सर्वथा अरण्य में रहकर ज्ञान ध्यानमें लीन रहते थे । इस प्रकार उस समयका मुनिधर्म था ।
मुनियोंकी तरह आर्थिकाओंकी भी उस समय बाहुल्यता थी; उस समयको आर्थि. यह गार्थिकायें भी जैनधर्म प्रचार में बड़ी काओंका धर्म । सहायक थीं । गरीब और अमीर-सराय और महल सबमें इनकी पहुंच थी । बनारस के राजा जितारिकी राजकन्या मुण्डिकाको वृषभश्री आर्यिकाने श्राविका बनाया थी । राजगृहके कोठारी की पुत्री भद्राकुन्दलकेशाने अपना विवाह विप्र पुत्र सत्युक के साथ किया था; जिसे डकैती के लिये राजदंड मिल चुका था । सत्थूक भद्रासे इतना प्रेम नहीं करता था, जितना कि वह उसके गहनों को चाहता था, भद्रा उसके इस व्यवहारसे बड़ी दुखी हुई । एक रोज उसने उसे घोकेसे एक गढ़में ढकेल दिया और वह भयभीत होकर जैन संघमें आकर मार्थिका होगई । एक हत्यारी और विषयलम्पट स्त्री भी संबोधिको पाकर जैन साध्वी हो गई। उसके मार्ग में कोई बाधा नहीं आई। इससे भगवान महावीरके मार्यासंघका विशालरूप स्पष्ट है । जिस समय यह भद्रा जैन संघर्मे पहुंची तो उस समय इससे पूछा गया था कि वह किस कक्षाकी दीक्षा ग्रहण करना चाहती है ? उत्तर में उसने सर्वोत्कृष्ट प्रकार अर्थात् आर्यि के व्रत लेना स्वीकार किये थे । इसपर उसने केशकोंच करके जैन नायिकाका भेष धारण किया था । वह एक वस्त्र धारण किये रहती थीं। मैले-कुचैले रहनेका उसे कुछ ध्यान न था | इसके विपरीत उदासीनं व्रती श्राविका वालोंको मुण्डाये रहतीं ० पृ० ९८ २ - भमवु पृ० २५९-२६० ।
१ - सकौ ०
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श्री वीर संघ और अन्य गना। [१५५ थीं, पृथ्वीपर मोती थीं और सूर्यास्त होने के पश्च तू भोगनपान नहीं करती थीं। इस ताक्षका आर्यिका धर्म उस जमानेका था। भगवान महावीरजीके समयका श्रावकाचार उन्नत और विशाल
था। उसमें पाखण्ड और मिथ्यात्वको तत्कालीन श्रावकाचार। स्थान प्राप्त नहीं था। श्रावक और श्राविका नियमित रूपसे देवपूजल, गुरु उपासना और दान कर्म किया करते थे। वे नियमसे मद्य मांमादिका त्याग करके मूल गुणोंको धारण करते थे। व्रत और उपवासोंमें दत्तचित्त रहते थे। अष्टमी और चतुर्दशीको मुनिवत् नग्न होकर प्रतिमायोग. धारण करके स्मशान आदि एकांत स्थानमें आत्मध्यानका अम्यास किया करते थे। किंतु त्यागी होते हुये भी भारंभी हिंसासे विलग नहीं रहते थे। वे कृषि कार्य भी करते थे। तथापि बड़े चतुर
और ज्ञानवान होते थे । अनेकोंसे शास्त्रार्थ करनेके लिये तैयार रहते थे। आजकलके श्रावकोंकी तरह धर्मके विषयमें परमुखापेक्षी नहीं रहते थे। उस समय मुद्रा व दुपट्टा रखकर श्रावक लोग शास्त्रार्थ करनेका माम चलेंज देते थे। कापित्यके कुन्दकोलिय जनने मुद्रा और दुपट्टा रखकर शास्त्रार्थ किया था। जैन स्तूपों मांदिकी खुदाई होनेपर ऐसी मुद्रायें निकली हैं। श्राविकायें भी इन शास्त्रार्थोंमें भाग लेती थीं। इस क्रिया द्वारा धर्मका बहुप्रचार होती था और श्रावकों की संख्या बढ़ती थी। जीवंधरकुमारने एक
१-भमबु० पृ० २५८-२६० । २-जैप्र० पृ० २३४ । ३-अनं० पृ० २३२ १ ४-ममबु० पृ. २०६-२०७। ५ ० ० २३४ । - ६-वसू० व्या० ६। ७-दिजे० भा० २१ अंक १-२ पृ. ४० ।। मम० पृ० १५॥
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१५६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । अन तपस्वीको जैनधर्मका उपदेश देकर जैनी बनाया था। इसी तरह उन्होंने एक अन्य गरीब शूद्र वर्णके मनुष्यको ननधर्मका -अधानी बनाकर उसे अपने आभूषण आदि दिये थे।'
___गृहस्थ धर्मका पालन करने का अधिकार प्रत्येक प्राणीको था। श्रावक लोग नवदीक्षित जैनी के साथ प्रेममई व्यवहार करके वात्स. त्यधर्मकी पूर्ति करते थे। उसके साथ जातीय व्यवहार स्थापित करते थे। जिनदत्त सेठने बौद्धधर्मी समुद्रदत्त सेठके जन होनानेपर उसके साथ अपनी कन्या नीली का विवाह किया था। खानपानमें शुद्धिका ध्यान रखा जाता था; किन्तु यह बात न थी कि किसी इतर वर्णी पुरुषले यहाँके शुद्ध भोजनको ग्रहण कानेसे किसीका धर्म चला जाता हो ! राजा उपश्रेणिकने भील कन्यासे शुद्ध भोजन बनवाकर ग्रहण किया था। (आइ० भा० २ ४० ३३ ) जैन मंदिरोंका द्वार प्रत्येक मनुष्यके लिये खुला रहता था। चम्पाके बुद्धदास और बुद्धसिंह जैन मंदिरके दर्शन करने गये थे और अंत में वह जैनी होगये थे। पशु तक भगवानका पूजन कर सक्त थे । कुमारी कन्याको पत्नीवत ग्रहण करके उसके साथ रहनेवाले पुरुषके यहां मुनिराजने आहार लिया था। आजकल ऐसे व्यक्तियोंको “दस्सा' कहकर धर्मागधन करनेसे रोक दिया जाता है। किंतु उस समय 'दस्सा' शब्दका नामतक नहीं सुनाई पड़ता था। किसी भी व्यक्तिके धर्मकार्यों में बाधा डालना उस समय अधर्मका कार्य समझा जाता था। और न उस समय अग्नि पूना, तर्पण आदिको धर्मका अंग
१-क्षत्रचूडामणि लम्ब ६ श्लो० ७-९ व लम्ब ७० २३-३० । २-आक० भा० २ पू०२८।३-सको० पृ० १०५। ४-उपु० पृ. ६४२ ।
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भगवान महावीरका निर्वाणकाल। [२५७. माना जाता था। सामान्यतः उस समयके धर्मका यह विशालरूप है।
इस प्रकार उस समयके भारतकी परिस्थिति थी और वह आजसे कहीं ज्यादा सुघर और मच्छी थी। प्रत्येक प्राणी स्वाधीन और पराक्रमी था । रूढ़ियों की गुलामी, धार्मिकताका अंधविश्वास अथवा रुपये पसेकी चारी उस समय लोगों में छू नहीं गई थी। सब प्रसन्न और मानन्दमई जीवन बिताते थे। इनका उल्लेख ही उम. समय नहीं मिलता है। हां, एक बात का बहुत उल्लेख मिलता है। वह यह कि वैराग्य होनेपर मुमुक्षु पुरुषोंको न राज्यका लालच, न स्त्री पुत्रों का मोह और न धन-संपदाका लोभ साधु होनेसे रोक सक्ता था। यह तो एक नियम था कि अंतिम जीवन में प्रायः सब ही विचारवान गृहस्थ माधु होकर आत्मज्ञान और जनकल्याण के कार्य करते थे। किंतु ऐसे भो उदाहरण मिलते हैं जिनमें वैराग्यको पाकर व्यक्ति भरी जवानी में मुनि होगए थे।*
भगवान महावीरकादकोणाकाल।
भगवान महावीरजीके निर्वाणकी दिव्य घटनाको आजसे करीब निर्वाण-कालकी ढाई हजार वर्ष पहले अर्थात ईस्वी सन् ९२७.
असम्बद्धता। वर्ष पहले घटित हमा माना जाता है। जेनों में मानकल निर्वाणाव्द इसी गणनाके अनुसार प्रचलित है। किन्तु उसकी गणनामें अन्तर है। जिसकी ओर मि० काशीप्रसाद जायसंवाल, प्रो० कोबी और पं० विहारीलालजी जैनों ध्यान
* प्र० पृ. २३१ । १-अविओसो, भा० १.४० ९९ ॥ २-धीर पर्व । ३-वृजेश पृ०.८॥
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संक्षिप्त जैन इतिहास |
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आकर्षित कर चुके हैं। महावीरस्वामीके निर्वाण मी प्राचीन घटनाका ठ ेक पता न रखना सचमुच जेनोंके लिये एक बड़ी लज्जाकी बात है । और आज इस पुरानी चातका बिलकुल टोक पता लगा लेनेका वायदा करना धृष्टता मात्र है । इतनेपर भी उपलब्ध प्रमाणोंसे जिस निरापद मन्तव्यपर हम पहुंचेंगे उसे प्रगट करना अनुचित नहीं है। दुर्भाग्यवश आनसे करीब डेढ़ हजार वर्ष पहले भी वीर निर्वाणान्दके विषय में विभिन्न मत थे । लगभग तीसरी शता'बिदके ग्रंथ 'त्रिलोक प्रज्ञप्ति' की निम्नगाधाओं से वे इसप्रकार प्रगट हैं:'वीरजिणं सिद्धिगदे चउसइगिट्ठि वास परिमाणो । कार्लमि अदिक्कते उप्पण्णा एत्थ सगरामो ॥ ८६ ॥ अहवा वीरे सिद्धे सहस्सणवर्कमि सगसयन्भहिये । पणसीदिमि यती पणमाले सगणिओ जादा ॥ ८७ ॥
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॥ पाठान्तरं ॥ चौदस सहस्त सगसय तेणउदी वास काल विच्छेदे । वीरेसर सिद्धीदा उप्पण्णा सगणिओ अहवा ॥ ८८ ॥
॥ पाठान्तरं ॥
पंचवरिसेतु । अहवा ॥ ८६ ॥
णिव्वाणे दीरजिणे छन्वाससदेतु पणमसिसु गदेसु संजादा सगणिओ अर्थ - "वीर भगवान के मोक्षके बाद जब ४६१ वर्ष बीत गये तब यहाँपर शक नामका राजा उत्पन्न हुआ | अथवा भगवानके - मुक्त होनेके बाद ९७८९ वर्ष ५ महीने वीतनेपर शक राजा हुआ । · ( यह पाठान्तर है ) अथवा वीरेश्वर के सिद्ध होने के १४७९३ वर्ष
·
बाद शक राजा हुआ ( यह पाठान्तर है ) अथवावीर भगवानके
- निर्वाणके ६०.९ वर्ष और ५ महीने बाद शुकराना हुआ ।". • (जैहि०, भा० १३ ४० ३३)
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भगवान महावीरका निर्वाणकाळ |
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प्रभु मोक्ष गए।।
प्रारम्भिक शताब्दियों में ही निर्वाणस्थिति
arre इस प्रकार विभिन्न मतों को देख
•
ईश्वी सन्की
प्रचलित नहीं था ।
चीर निर्वाण सम्वत् पाइलेसे प्रचलित है कर किन्हीं लोगोंकी धारणा होजाती है और विभिन्न मत । कि पहले निर्वाण व् वह बाद में किन्हीं लोगों द्वारा चहा दिया गया है। किंतु इस कल्पना में कुछ भी तय नहीं है; क्योंकि वीर निर्वाणान् ८४का rs from area ग्रामसे मिला है जो अजमेर के अनायव घर में मौजूद है | माध्यमे यह मिळालेख टूटा हुआ अधूरा है | इस कारण उसके आधारपर निर्माणका पता नहीं चल सक्ता है। तो भी उसमें माध्यमिच नगरीच उडेल, निमपर हिन्दुओंका अधिकार ई० पूर्व दूसरी शताब्दि तक रहा था, इस बातका द्योतक है कि इस ममय बहुत पहले जब वहां पर जैनोंका प्राबल्य था न यह मिलालेख दिखा गया था । श्रतएव भगवान महावीरकी निर्वाण तिथि ईस्वी मनसे हजारों वर्ष पहले नहीं मानी जासक्ती | ऐसी मान्यता शेखचिल्ली की कहानीसे कुछ अधिक महत्व नहीं रखती । वही शेष मनोंकी बात, मो उनपर अलग २ विवेचन करना उचित है । आनकल वीरनिर्वाण तिथिके मम्बंध में निमलिखित मत मिलते हैं:--
(१) शहराज के उत्पन्न होनेसे ४६१ वर्ष पहले वीर भगवानका निर्वाण हुआ ।
।
(२) शक राजा होने से ६०५ वर्ष ५ महीने पहले वीर
(३) स्त्रीससे ७६८ वर्ष पहले वीर निर्माण हुआ ।।
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१६०] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
(४) विक्रमाब्दसे ५५० वर्ष पहले महावीरजी मोक्ष गये। (५) शकाब्दसे ७४१ वर्ष पहले वीर भगवानका निर्वाण हुआ।
(६) विक्रम राजाके जन्मसे ४७० वर्ष पहले महावीरस्वामी मुक्त हुये।
प्रथम मतके अनुमार वीर-निर्वाणको माननेपर प्रश्न होता है कि यह शक राजा कौन था? इस मतका प्रतिपादन 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति में निम्न गाथाओं द्वारा हुआ है:"णिव्वाणगदे वीर चरसदागिसहि वासविच्छेदे । जादी च सगणरिदो रज्ज वसस्ल दुसय वादाला ॥३॥ दौण्णि सदा पणवण्णा गुत्ताणं चउमुहस्स वादाले । वस्सं होदि सहस्सं केई एवं पवति ॥ १४ ॥ "
अथोत-वार निवाण ४६१ वर्ष बीतनेपर शक राजा हुमा और इस वंशके राजाओंने २४२ वर्ष राज्य किया। उनके बाद गुप्तवंशके राजाओंका राज्य २५५ वर्षतक रहा और फिर चतुर्मुख (कलिक ) ने ४२ वर्ष राज्य किया । कोई २ लोग इस तरह एक हजार वर्ष बतलाते हैं। इन गाथाओंके कथनसे यह स्पष्ट है कि गुप्तवंशके पहले
___भारतमें जिस शकवंशका अधिकार था, प्रथम मतपर विचार उसमें ही वह शक राजा हआ था। और उसका उल्लेख जैन ग्रन्थों में खुन मिलता है, इसलिये उसका सम्पर्क जैनधर्मसे होना संभव है । दंतकथाके अनुसार शक संवत् प्रवर्तक रूपमें यह राजा जैन धर्ममुक्त प्रगट है। किंतु आधुनिक विद्वानोंका इस शकरानाको शक संवत प्रवर्तक मानना कुछ ठीक नहीं जंचता। यदि उनको. द्वितीय मतके अनुसार.६०९ वर्ष ६ मास वीरनिर्वा
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________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल। [161' णके उपरान्त हुमा मानें तो शायद किसी अंशमें ठीक भी हो; परन्तु उन्हें तबसे 461 वर्ष पश्चात हुआ मानकर शक संवत वतलाना प्रचलित शक संवतकी गणनासे बाधित है। इस दशा शक संक्त प्रवर्तकको ही जन ग्रन्थोंका शकराना मान लेना जाग कठिन है। इसके साथ ही शक संवत् प्रवतंकका ठीक पता भी नहीं चलता ! कोई कान द्वारा इस संवत्का प्रारम्भ हुमा बताते हैं, तो अन्योंका मत है कि नहपान अथवा चष्टनने इस संवतको चलाया था। किंतु ये सब आधु नेक विद्वानों के मत हैं और कोई भी निश्चयात्मक नहीं हैं। इसके प्रतिकूल प्राचीन मान्यता यह है कि शक संवत् शालिवाहन नामक राना द्वारा शकोंपर विनय पानेकी याददाश्तमें चलाया गया था। इस प्राचीन मान्यताको तुला देना उचित नहीं जंचता / रुद्रदामनके अन्धौवाले शिलालेखक माधारपर शक संवतको चलानेवाला गीतमो पुत्र शातकणी (शतवाहन या सालिवाहन) प्रगट होता है। गौतमी पुत्रने अपने विषयमें स्पष्ट कहा है कि उसने शकों, पलवों और यवनों एवं क्षहरातवंशको जड़मूलसे नष्ट करके सातवाहन वंशका पुनरुद्धार किया था। किंतु कोई विद्वान इसे सन् 120 के लगभग हुमा बताते हैं और इस समय उसका नहपानसे . युद्ध करके विनयोपलक्षम सवत चलाना ठीक नहीं बैठता क्योंकि शकसंवत सन 78 ई. से प्राम होता है / इसी कारण सातवाहन वंशके हालनामक रानाको इस संवतका प्रवर्तक कहा जाता है। किंतु अब उपरोक्त अन्धौवाले शिलालेखसे नहपानका समय १-जमीयो०, मा० 17, पृ०:३३४ 1 २-जमीसो०, मा० 15 पृ० 335-336 // --
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१६२] . संक्षिप्त जैन इतिहास । ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दिका अंतिम भाग प्रमाणित होता है। इस अवस्थामें गौतमीपुत्र शातकवीका समय भी सन् १२० के बहुत पहले प्रगट होता है और यह उचित जंचता है कि उसने शहरात वंशनोंको सन ७०-८० के लगभग परास्त किया था। अतः यह समय शक संवतके प्रारम्भकालसे ठीक बैठता है और शालिवाहन (गौतमीपुत्र शातकर्णी ) द्वारा उसका चलाया जाना तथ्यपूर्ण प्रतीत होता है। इस दशामें जैन शास्त्रोंमें निस शक रानाका उल्लेख है वह शक संवतका प्रवर्तक नहीं होसक्ता क्योंकि वह शकवंशका राजा था! पहले के जन शिलालेखों और राजा वलीकथे' से भी इस बातका समर्थन होता है। जैसे कि हर्मा भगाड़ी देखेंगे।
तो अब देखना चाहिये कि जैन शास्त्रों शक राना कौन , नहपान हो शकरोजा था ? मैनोंके अनुसार उसका वीर निर्वाहै। अतः दूसरा मत जसे ४६१ या ६०५ वर्ष बाद होना,
मान्य नहीं है। उसके वंशका २४२ वर्ष तक राज्य करना और उनके बाद गुप्तवंशी रानाओंका अधिकारी होना प्रगट है। भारतीय इतिहास में गुप्तवंशके पहले क्षत्रपवंशी राजाओंका राज्य प्रख्यात था । यह शक जातिके विदेशी लोग थे ! तब इनमें वह रात शाखाके राजा प्रत्रक थे जिसकी स्थापनाका मुख्य श्रेय नहपानको प्राप्त है । नहपान के बाद सन् ३८८ ई. तक इस वंशमें 'बई राजा हुए थे । मन्तमें गुप्तवंशी राना समुद्रगुप्तने इन्हें जीत लिया था। इमप्रकार इनका राज्यकाल लगभग ढईमौ वर्षातक
१-जमीयो०, मा० १ ० ११-
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भगवान महावीरका निर्वाणकाल
प्रकट है।' इन बातों का सादृश्य जेनोंके उपरोक्त उल्लेखसे है। साथ ही आजकल जो नहपाना अंतिम समय ई० पूर्व ८२ से १२४ ई० तक माना जाता है वह भी जनोंकी प्राचीन मान्यतासे टीक बैठता है। क्योंकि उनके अनुसार वीर निर्वागसे ४६१ से ६०५ वर्ष बाद तक शक राना हुआ था । अब यदि वीर निर्वाण ई० पूर्व ५४६ में माना जाय, निसका मानना टोक होगा, जैसे हम अगाड़ी प्रगट करेंगे, तो उक्त समय ई० पूर्व ८४ से ई. ६० तक पहुंचता है । चै के यह समय शक रानाके उत्पन्न होने का है । इसलिये इसका सामञ्जम्ध नहपानके उपरोक्त अंतिम ममबसे करीबर टीक बैठता है। इसके साथ ही नहपानमा जैन सम्बंध भी प्रगट है। जैन शास्त्रों में नहपानका उल्लेख नरवाहन, नरसेन, नहवाण और नभोवारण रूपमें हुआ मिलता है। 'त्रिलोकपनति में उसका उल्लेख नरवाहन रूपमें हुमा है। एक पट्टावली में उन्हें 'नहवाण' के नामसे उल्लिखित किया है। इस नाममें नहपानसे प्रायः नाम मात्रका अन्तर है। इसी कारण श्रीयुत् काशीप्रसाद नायमवा और पं० नागमनी प्रेमीने नरवाहनको नहपान ही प्रगट किया है।
१-माप्राग०, भा० १ पृ० १२-11 २-जेह, भा. १३० ५३३-पदावर शायद यह आपत्ति हो सकती है कि यदि त्रिलोकप्रजाति के कर्ताको शगजा नामसे नहपानका डोष करना था, तो उन्हें ९३९४ गाथाओमें शगजाके स्थानपर नाबाहन नाम लिखना उचित था! . इसके उत्तरमें हम यही कहेंगे कि त्रि०प्र०' के रचना काल के समय इस यातका पता लगाना कठिन था कि नहपान और शकराजा एक ही थे। विशेषके लिये देखो वीर वर्ष ६ । 3-ऐ०; भा० ११० २५१ । ४-जैसा #०, भा० भ० ४०२१११५-हि० मा ०५३४॥
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२६४] संक्षिप्त जैन इतिहास । . . उधर विबुध श्रीधरकी कथासे नरवाहन रानाका जन सम्बंध प्रगट है; जिसके अनुसार दिगम्बर जैन सिद्धांत ग्रन्थों के उद्धारक मुनि भूतबलि नामक आचार्य वही हुए थे। नहपानका एक विन्द 'भट्टारक' था और यह शब्द जैनोंमें रूढ़ है । तथापि नहपानके उत्तराधिकारियोंमें क्षत्रप रुद्रसिंहका जैनधर्मानुयायी होना प्रगट है।' अतएव नरवाहनका नहपान होना और उन्हें जैनधर्मानुयायी मानना उचित प्रतीत होता है । इस अवस्था पूर्वोक्त पहले दो मतोंके अनुसार वीर निर्वाण शकाव्दसे ४६१ वर्ष अथवा ६०५ वर्ष ५ मास पूर्व मानना ठीक प्रमाणित नहीं होता; क्योंकि जन शास्त्रोंका शकराजा शक संवतका प्रवर्तक नहीं था, वह नहपान था।
तीसरा मत प्रो. जॉर्ड चारपेन्टियरका है; जिस स्थापन निर्वाणकाल ई. प. उन्हाने इन्डियन एन्टीश्वरी मा०४३
४६८नहीं होसका। में किया है। उनके मतसे वीर-निवाण ई० पू० ४६८में हुआ था। उनने अपने इस मतकी पुष्टि में पहले ही दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके उस मतके निरापद होनेमें शक्षा की है, जिसके अनुसार सन् १२७ ई० पूर्व वीरनिर्वाण माना जाता है किन्तु इसमें जो वह दिगम्बरों के अनुसार विक्रमसे ६०५ वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण बतलाते हैं, वह गलत है। किसी भी प्राचीन दिगम्बरग्रंथ विक्रमसे ६०५ वर्ष पहले वीर निर्वाण होना नहीं
१-सिद्धांतसारादि संग्रह, पृ. ३१६-३१८ । २-इ०, पृ० १०३ । ३-इंऐ०, भा० २० पृ०:३६३ । ४-त्रिलोकसार गार ८५०-त्रिलोकसारके टीकाकार एवं उनके वादके लोगोंको शकराजासे मतलब विक्रमा- : दित्यसे भ्रमवश था। असलमें वह नहपानका द्योतक है.!; ... :.:.."
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भगवान महावीरका निर्वाणकाल । [१६५ लिखा है; वहिक विक्रमके जन्मसे ४७० वर्ष पहले महावीरका मोक्षगमन बताया गया है । शायद प्रो० मा० को यह भ्रम, उपरान्तके कतिपय जैन लेखकोंके अनुरूप, 'त्रिलोकमार की ८५०वीं गाथाकी निम्न टीकासे होगया है, जिसमें शक राजाको 'विक्रमाङ्क कहा है। " श्री वीरनाथनिवृते सकाशात पंचोत्तरषट्शतवर्षाणि पंचमाप्तयुतेन गत्वा पश्चात् विक्रमाङ्कशकरानो जायते ।" यहांपर विक्रमाक शक राजाका विशेषण है। वह विक्रमादित्य राजाका खास नामसूचक नहीं है । इस कारण त्रिलोकप्तारके मतानुसार विक्रमसे ६०५ वर्ष ५ मास पहले वीर निर्वाण नहीं माना जासक्ता और यह शकाव्दसे भी इतने पहले हुआ नहीं स्वीकार किया जासक्ता; यह पहले ही लिखा जाचुका है। श्वेताम्बरों के ग्रन्थ 'विचारश्रेणि'की विक्रमसे ४७० वर्षपूर्व वीर निर्वाण हुमा प्रगट करनेवाली गाथाओंका समर्थन उससे प्राचीन ग्रंथ 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति ' से होता ही है और उघर बौद्ध सं० ई० पूर्व ५४३ से प्रारम्भ हुआ खारवेलके शिलालेखसे प्रमाणित है। इसलिये वह ई० पू० ४७७ में नहीं माना नासक्ता । तथापि उसके साथ वीर निर्वाण संवत् ई०पू० ४६८ से मानना भी बाधित है। क्योंकि यह बात बौद्धशास्त्रोंसे स्पष्ट है कि म. वुद्धके जीवनकालमें ही भ० महावीरका निर्वाण होगया था। उक्त प्रो० सा० इस असम्बद्धताको स्वयं स्वीकार करते हैं । मि. माशीप्रसाद जायसवालने प्रो० सा०के इस मतका निरसन मच्छी तरह "कर दिया है। अतएव इस मतको मान्यतादेने में भी हम असमर्थ हैं।
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१-जविओमो०, मा० १ पृ९९-१०.५। २-मज्झिम०.२२२४३ व दीनि० भा० ३ पृ० १। ३-६ऐ०, भा० ४९ पृ० ४३...। .
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१६६] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
चौथा मत श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीका है और उसके विक्रमासे ५५० पूर्व अनुसार विक्रमाब्दसे १५० वर्ष पहले वीर भी निर्वाणकाल प्रभू मोक्ष गये प्रगट होते हैं। इस मतका
नहीं होसका। आधार श्री देवसेनाचार्य और श्री अमितगति आचार्यका उल्लेख है; जिनमें समयको निर्दिष्ट करते हुए 'विक्रमनृपकी मृत्युसे' ऐसा उल्लेख किया गया है । होसक्ता है कि इन आचार्योंको विक्रमसंवतको उनकी मृत्युसे चला मानने में कोई गलती हुई हो; क्योंकि विक्रमकी मृत्युके बाद प्रजा द्वारा इस संवतका चलाया जाना कुछ जीको नहीं लगता। 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' मादि प्राचीन ग्रन्थोंमें इस मतका उल्लेख नहीं मिलता है। यदि इस मतको मान्यता दीजाय तो सम्राट अजातशत्रुके राज्यकालमें भगवान महावीरका निर्वाण हुआ प्रगट नहीं होता और यह वाधा पूर्वोक्त तीन मतोंके सम्बन्धमें भी है। दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों एवं बौद्धोंके शास्त्रोंसे यह बिल्कुल स्पष्ट ही है कि महावीरजीके निर्वाण समय अजातशत्रुका राज्य था। उसके राज्यके अंतिम भागमें यह घटना घटित हुई थी। अजातशत्रुका राज्यकाल सन् ५९२ से ५१८ ई० पू० मथवा सन् १९४ से ६२७ ई० पू० प्रगट है। विक्रमाव्दसे ५६० वर्ष पूर्व भगवानका मोक्षलाभ माननेसे वह सम्राट् श्रेणिकके राज्यकालमें हुआघटित होता है और यह प्रत्यक्ष बाधित है। अतः इस मतको स्वीकार कर लेना भी कठिन है।
... १-दर्शनसार पृ० ३६-३७ १२-जविओसो०, भा०१पृ०.७९-११५
व उपु० । जबिओसी०, भा० १ पृ. ९९-११५ ६ महिइं०, पृ० ३४.३८ ।
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भगवान महावीरका निर्वाणकाल। [१६७ पांचवें मतके अनुमार शकाव्दसे ७४१ वर्ष पहले वीर भगशादसे ७४१ वर्ष वानका निर्वाण हुआ प्रगट होता है । उस पूर्व भी भ्रांतमय है। मतका प्रतिपादन दक्षिण भारतके १८ वीं शताब्केि शिलालेखोंमें हुआ है । जैसे दीपनगुड़ीके मंदिरवाले बड़े शिलालेखमें इसका उल्लेख यूं है;" " वदमानमोक्षगताव्दे अष्टत्रिंशदधिपंचशतोत्तरहितहस्रपरिंगते शालिवाहनशककाले सप्तनवतिसप्तशतोत्तरसहस्रवर्यसमिते भवनाम सवत्सरे। इसमें शाका ११९७में वीर सं० २५५८ होना लिखा है। वर्तमान प्रचलित सं०से इसमें १३७ वर्षका अन्तर है। इस अन्तरका कारण त्रिलोकसारके ८५०३ नं०की गाथाकी टीका है, जैसे कि हम उपर बता चुके हैं। दक्षिण भारतके दिगम्बर जैन इतिहास ग्रन्थ 'रामा वलीकथे' से भी इसका समर्थन होता है । उसमें लिखा है कि 'महावीरनी मुक्त हुये तब कलियुगके २४३८ वर्ष बीते थे और विक्रमसे ६०५ वर्ष पूर्व वह मुक्त हुये थे ।२ उपरोक्त टीकाके कथनसे भ्रममें पड़कर ऐसा उल्लेख किया गया है और इस भ्रमात्मक मतको भला कैसे स्वीकार किया भासता है ?
अंतिम मत है कि विक्रम जन्मसे ४७० वर्ष पहले महावीरअन्तिम मत स्वामीका निर्माण हुआ था। और इस मतके अनु
मान्य है। सार ही आनकल जैनोंमें वीरनिर्वाण संवत प्रचलित है। यह संवत् ताजा ही चला हुआ नहीं है बल्कि प्राचीन साहित्यमें भी इसका उल्लेख मिलता है। किन्तु इसकी गणनामें पहलेसे
1-ममेप्राजैस्मा०, पृ० ९८-९९ । २-जनमित्र, वर्ष ५ अंक ११ पृ० ११-१२ । ३-डाका लिखे हुएके गुटकेमें इसका उल्लेख है।
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१६८. संक्षिप्त जैन इतिहास । ही भूल हुई है। उसको देखनेके लिये यहांपर उन प्रमाणोंको उपस्थित करना उचित है, जिनके आधारसे यह गणना हुई है:(१) सत्तरि चदुसदजुत्तो तिणकाला विकमा हवइ जम्म।। अठवरस...सोडसवासेहि भम्मिए देसे ॥ १८ ॥
नंदिसंघ पटावली (जेसिभा०, कि० ४ पृ. ७५) (२) सत्तरि चदुसदजुत्तो तिणकाले विको हयइ जम्मा ।
अठवरस वाललीला, साडसबासेहि भम्मये देसो ॥ रसपण वीसा रज्जो कुणंति मिच्छोपदेश संजुत्ते।। चालीस वरस जिनवर धम्मे पालेय सुरपयं लहियं ॥
॥विक्रम प्रबध ॥ ' (३) सरस्वती गच्छकी पट्टावलीको भूमिका स्पष्टरूपसे वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका जन्म होना लिखा है; यथा:"बहुरि श्री वीरस्वामीकू मुक्ति गये पोछे च्यारसौ सत्तर ४७० वर्ष गये पीछे श्रीमन्महाराज विक्रम रानाका जन्म भया ।" (8) जरयणि कालगओ अरिहा तित्थंकरो महावीरो।
तं रणि अति वई अभिसित्तो पालयो राया ॥ सट्टी पालग रन्नो पण पण्णसंयतु होई नंदाणं । अट्ठसयं मुरियाणं तीसचिभ पुस्तमित्तस्स ॥ वलमित्त-भानुमित्तो सही वरिसाणि चत्तं नरवाहणे। तह गद्दभिल्ल रन्तो तेरसवरिसा सगस्स चउ ॥
-तीर्थोबार प्रकीर्ण । : (१) वसुनंदि श्रावकाचारमें विक्रम शकसे ४८८ वर्ष पूर्व महावीर निर्वाण होना लिखा है । ( देखो.जैनमित्र, वर्ष ५ अंक ११.१०.११-१.२ )... .. . .. : . ..
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भगवान महावीरका निर्वाणकाल । [१६९ उपरोक्त सवही उल्लेखोंमें प्रायः भगवान महावीरसे ४७० व वाद विक्रमरानाका जन्म होना लिखा है और वर्तमान विक्रम संवत उनके राज्यकालसे चला हुआ मिलता है। यही कारण है कि वसुनंदि श्रावकाचार में विक्रमसंवतसे ४८८ वर्षपूर्व वीरनिर्वाण हुआ निर्दिष्ट किया गया है; क्योंकि विक्रमके जन्मसे राज्याभिपेकको कालान्तर १८ वर्षका माना जाता है । इस अवस्थामें प्रचलित वीरनिर्वाण संवतका संशोधन होना आवश्यक प्रतीत होता है। शायद उपरोक्त प्रमाणों में नं० ४ पर आपत्ति की जाय, जिसमें वीरनिर्वाणमे ४७० वर्ष बाद शकरानाका राज्यान्त होना लिखा है। किन्तु यह बात ठीक नहीं है । यहाँपर शकरानासे भाव शकारिराजा विक्रमादित्यसे प्रगट होता है। डॉ. जैकोबी भी यही बात प्रगट करते हैं। यदि ऐसा न माना जाय और शकराना भाव शक संवत् प्रवर्तकके लिये जाय, तो उक्तगणना के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्यका अभिषेक काल ई० पूर्व १७७ वर्ष माता है और यह प्रत्यक्ष वाधित है। साथ ही उपरोक्त गाथाओंका गणनाक्रम आपनिजनक है, जैसे हमने अन्यत्र प्रगट किया है। मालूम होता है कि विक्रमसे ४७० वर्ष पूर्व वीर निर्वाण बतलाने के लिए श्वेतांवराचार्योंने अपने मनोनुकूल उक्त गाथाओंका निरूपण कर दिया है। इस दशामें यह नहीं कहा जासता कि उनको विक्रमके जन्म राज्य अथवा मृत्युसे ४७० वर्ष पूर्व वीर निर्वाण मान्य था। किन्तु अवशेप मोंके समक्ष विक्रमके जन्मसे ४७० वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण हुआ मानना ठीक है।
१-मदनकोय व भाषाए । २-जैसा ६०।३-वीर, वर्ष-६।।
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१७०] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
इस गणनाके अनुसार अर्थात् विक्रमके जन्मसे १७० वर्ष निर्वाणकाल ई० पू० पूर्व (५४९ ई० पू०) वीर निर्वाण मान
५४५ में था। नेसे, उसका अजातशत्रुके राज्य कालमें ही होना ठीक बैठता है और म० बुद्धका तब जीवित होना भी प्रगट है । अतः यह गणना तथ्यपूर्ण प्रगट होती है। शायद यहांपर यह भापत्ति की जाय कि चंकि अजातशत्रुका राज्यकालका अंतिम वर्ष ई० पूर्व ५२७ है और म० बुद्धकी देहांत तिथिका शुद्धरूप ई० पू० ४८२ विहानोंने प्रगट किया है। इसलिये वीर निर्वाण कोई ई० पर्व ६२७ वर्ष में हआ मानना ठीक है। किन्तु पहिले तो यह आपत्ति उपरोक्त शास्त्रलेखोंसे बाधित है। दूसरे अजातशत्रु वीर निर्वाणके कई वर्ष उपरांत तक जीवित रहा था, यह बात जैन एवं बौद्ध ग्रन्थोंसे प्रगट है। इसलिये उनके अंतिम राज्यवर्ष ई० पूर्व ५२७ में वीर निर्वाण होना ठीक नहीं जंचता। साथ ही यदि म० बुद्धकी निधन तिथि ४८० वर्ष ई० पू० थोड़ी देरके लिये मान भी ली जाय तो भगवान महावीरके उपरांत इतने लम्बे समय तक उनका जीवित रहना प्रगट नहीं होता । अन्यत्र हमने भगवान महावीर और म० बुद्धकी अंतिम तिथियों में केवल दो वर्षों का अन्तर होना प्रमाणित किया है। डॉ. हार्णले सा. इस अन्तरको अधिकसे अधिक पांच वर्ष बताते हैं, परन्तु म. बुद्ध और भ० महावीरके जीवन सम्बंधको देखते हुये, यह अन्तर कुछ अधिक प्रतीत होता है ।, भ० महावीरके जीवनमें केवलज्ञान ... १ जयिओसो०, भा० १,पृ०.९९-११५ व उपु०१ २-वीर, वर्ष ६.३-आजीविक-इरिह०। ।
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भगवान महावीरका नित्रणकाल। [१७१
प्राप्त करने की घटना मुख्य थी, इस हमारी गणनाके अनुसार उस समय म० बुद्धकी अवस्था ४८ वर्षकी प्रगट होती है और इसका समर्थन उस कारणसे भी होता है, जिसकी बनहसे म० बुद्धके ५० से ७० वर्षके मध्यवर्ती जीवन घटनाओं का उल्लेख ही नहीं के बराबर मिलता है।
बात यह है कि भगवान महावीरके सर्वज्ञ होने और धर्मप्रचार प्रारम्भ करने के पहलेसे ही म० बुद्ध अपने मध्यमार्गका प्रचार करने लगे थे, जैसे कि बौद्ध ग्रंथोंसे भी प्रगट है।' मतएव दो वर्षके भीतर २ भगवान महावीरके वास्तु स्वरूप उपदेशका दिगन्तव्यापी होना प्रारूत सुमंगत है । और भगवान महावीरके प्रभावके समक्ष उनका महत्व क्षीण होनाय तो कोई आश्चर्य नहीं है । यह बात हम पहले ही प्रगट कर चुके हैं और इसका समर्थन स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंसे होता है। अतएव उपरोक्त गणना एवं भ० महावीर
और म० बुद्ध के परस्पर जीवन सम्बन्धका ध्यान रखते हुये म: बुद्धकी निधन-तिथि ई० पूर्व ४८२ या ४७७ स्वीकार नहीं की जासती ! बल्कि हमारी गणनासे प्रगट यह है कि भ० महावीरसे छ वर्ष पहले म० बुद्धका जन्म हुआ था और उनके निर्वाणसे दो वर्ष बाद म• बुद्धकी जीवनलीला समाप्त हुई थी। वेशक बौद्ध शास्त्रों में म० बुद्धको उस समयके मत-प्रवर्तकोंमें सर्वलघु लिखा है; किन्तु उनका यह कथन नि ष नहीं है, क्योंकि उन्हीं के एक अन्य शास्त्रोंमें म० बुद्ध इस बातका कोई स्पष्ट उत्तर देते नहीं -- १-मनि० भा० १ पृ० २२५; सनि० भा० ११ पृ० ६६ ष "वीर" वर्ष ६ । २-भमवु० पृ० १०३-११०।।
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१७२] संक्षिप्त जैन इतिहास । मिलते कि वे सर्वलघु हैं !' इससे यह ठीक जंचता है कि वायुमें भ० महावीरसे म० बुद्ध अवश्य बड़े थे; परन्तु एक मतप्रवर्तककी भांति वह सर्वलघु थे क्योंकि अन्य सब मत म० बुद्धसे पहलेके थे ! इसप्रकार भ० महावीरका निर्वाण म० बुद्धके शरीरान्तसे दो वर्ष पहले मानना ठीक है और चूंकि बौद्धोंमें म० बुद्धका परिनिव्वान ई० पूर्व ५४३ वर्षमें माना जाता है, इसलिये भ० महावीरका निर्वाण ई० पूर्व ५४५में मानना आवश्यक और उचित है । जैसे पहिले भी यही अन्यथा प्रगट किया जाचुका है।
दिगम्बर जैनशास्त्रोंके कथनसे भी भ० महावीरकी जीवन दि. जैन शाहले घटनाओंा उक्त प्रकार होना प्रमाणित है ।
उक्त मतका यह लिखा जाचुका है कि श्रेणिक विम्बप्तारकी समर्थन होता है। मृत्यु भ० महावीरके जीवन में ही होगई थी और उनके बाद कुणिक अनातशत्रु विधर्मी होगया था; निसे भ० महावीरके निर्वाणोपरान्त श्री इन्द्रमृति गौतमने जैनधर्मानुयायी बनाया था। इतिहाससे श्रेणिकका मृत्युकाल ई० पू० ५५२ प्रकट है । तथापि सं० १८२७की रची हुई 'श्रेणिकचरित्र' की भाषा बचनिकामें है कि:" श्रेणिक नीति सम्भालकर, करे राज अविकार। वारह वर्ष जु वौद्धमत, रहा कर्मवश धार. ५२॥ बारह वर्ष तने चित धरो, नन्दनाम यह मारग करो। तह थी सेठि साथि चालियो, तव वेणक नगर आयियो॥५३॥ नन्दश्री परणी सुकुमाल, वर्ष दूसरे रह सुवाल। सात वर्ष भ्रमण धर रहे, पाछे आप राजसंग्रहे ॥५४॥ १-मुत्तनिपात (S. B.E; X) पृ० ८७ व भमबु० पृ. ११०.
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भगवान महावीरका निर्वाणकाल। [१७३ . नन्दयोने विसरी राय, तीन वर्ष जु पिता घर थाय । आठ वर्पना अभयकुमार, राजगृही आयो चितधार ॥१५॥ चार वर्षमें न्याय जु किया, वारह वर्षतणां युव भया। श्रेणिक वर्ष छवीस मंझार, महावीर केवलपद धार ॥१६॥
अधिकार १५॥" इससे प्रकट है कि श्रेणिकको १२ वर्षको उम्र में देशनिकाला हुआ और रास्तेमें वह बौद्ध हुये । दो वर्ष तक नन्दनीके यहां रहे । बादमें ७ वर्ष उनने भ्रमणमें विताये और २२ वर्षको उनमें उन्हें राज्य मिला । तथापि उनकी २६ वर्षकी अवस्थामें भगवान महावीरको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। इससे प्रत्यक्ष है कि भ० महावीरक सर्वन होने और धर्मप्रचार भारम्भ करनेके पहले ही म० बुद्ध द्वारा बौद्धधर्मका प्रचार होगया था। यही कारण है कि देशसे निर्वासित होनेपर श्रेणिक बौद्ध होसके थे। इस दशामें न शास्त्रानुसार भी हमारी उपरोक जीवन-संबंध व्याख्या ठीक प्रगट होती है । साथ वीर निर्वाणकाल ई० पूर्व ५४५ माननेसे भ०का केवलज्ञान प्राप्ति समय ई० पू० ५७९ ठहरता है । इस समय श्रेणि
की अवस्था २६ वर्षकी थी अर्थात् श्रेणिकका जन्म ई० पू० ९८० में प्रगट होता है । राज्यारोहण कालसे २८ वर्ष उपरान्त राज्यसे अलग होकर उनकी मृत्यु हुई माननेपर ई० पू० ५५२ . उनका मरणकाल सिद्ध होता है । इतिहाससे इस तिथिका ठीक , सामञ्जस्यं चैठता है । अतएव भगवान महावीरका निर्वाणकाल ई० पृ०.६४६ मानना उचित है। वर्तमान प्रचलित वीरनिर्वाण संक्तका शुद्ध रूप २४७० होना उचित है !.. ... ... . . . . . ,
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१७४] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
भगवान महावीरकी मुख्य तिथियाँ । १. भगवान महावीरका जन्म".........""ई. २. , , गृहत्याग"""""""", ३. , , केवलज्ञान"............",
" ९७५ ४. , , निर्वाण................ "
६१७
" ९८७
" ११६
जम्बूखामी।
अंतिम केवली श्री जम्बूरामी।
(ई० पूर्व ५२१-४४०) भगवान महावी!जीके निर्वाण लाभ करने के पश्चात् चौवीस
वर्षमें श्री इन्द्रभृति गौतम और सुधर्मास्वामी भी
"। उनके अनुगामी हुये थे। सुधर्मास्वामीके मोक्ष प्राप्त करलेनेपर वीर-संघका शासन श्री जम्बूम्वामीके आधीन रहा था। यह अतिम केवली थे। इनके उपरांत इस देशसे कोई भी जीव सर्वज्ञ और मुक्त नहीं हुआ है। लोग कहते हैं कि जम्बूस्वामी - अपने साथ ही मोशा द्वार बंद कर गये थे। जम्बृस्वामीका जन्म भगवान महावीरके जीवनकालमें हुमा
था। मगधदेशके राजगृह नगरमें एक महँदास वाल्य-जीवन ।।
जान' नामक जैन सेठ रहते थे । जिनमती अथवा जिनदांसी नामक उनकी सुशील और विंदुषी पत्नी थी। जम्बूकुमा
१-उ० पृ० ७१० । २-उसुः पृ० ५०२ व जम्बूकुमार चरित पृ० १८. किन्तु श्वे० आम्नायमें इनके माता-पिताका नाम क्रमशः रुषभदत्त व धारणि लिखा है । रुषभदत्त वाश्यपगोत्री श्रेष्ठी थे। (जैसा सं. भा० १ -वीरवंशावलि पृ०२)
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अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामी। [१७५ रका जन्म इन्हींकी कोखसे हुआ था। जिप्त समय यह गर्भमें आये थे उससमय इनकी माताने हाथी, सरोवर, चांवलोका खेत, धूम रहित मग्नि और जामुनके फल-यह पांच शुभ स्वप्न देखे थे। जामुनके फलोंको देखनेके कारण इनका नाम 'जम्बू कुमार' खखा गया था। इन्होंने बाल्यकालमें बड़ी ही कुशलता पूर्वक समग्र शस्त्रशास्त्र विषयक विद्याओं में योग्यता प्राप्त करली थी। किन्तु इनका स्वभाव वचपनसे ही उदाप्तीन वृत्तिको लिये हुए था । युवा होनेपर भी इन्हें कोई विकार नहीं हुआ था।
इनका आदर राजगृहके राजदरबारमें अधिक था। एकदा जम्बूस्वामीकी केरलदेशके राना मृगाङ्कने श्रेणिकके पाप्त सहाय
वीरता। ताके लिये एक दूत भेना था। इसका कारण यह था कि मृगाकपर इंसद्वीप (लंका)के राजा रत्नचूतने आक्रमण किया था और वह उनकी राजकुमारी विलासवतीको वलात् लेनाना चाहता था। मृगांकको यह मामा था। वह राना श्रेणिकको अपनी क्या देना चाहता था। इघर जम्बूकुमारके पराक्रम और शौर्य की प्रशंसा पहिलेसे ही थी। राना श्रेणिकने उनके ही आधीन अपनी सेनाको राजा मृगांककी सहायताके लिये भेना था। जम्बू कुमारने अपने बाहुबल और रणकौशलसे रत्नचूलको हरा दिया था । और राना मृगांकने प्रसन्न होकर विलासवतीका विवाह श्रेणिकके साथ किया था। एक वैश्यपुत्रमें इस पगक्रम और संग्राम-कौशल का होना थानालके 'वनियों के लिये समुचित शिक्षा पानेका मादर्श है।
१-वेताम्बर केवलं जम्बवृक्ष देखा बतलाते हैं- जैसा २०मा०'... अंक ३ वीर पृ०.२)
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संक्षिप्त जैन इतिहास |
जम्बू कुमारकी मनोवृत्ति वैराग्यमई थी । युवावस्था होनेपर भी वह सांसारिक प्रलोभनोंसे विरक्त थे । एक दिन
'१७६' ]
वैराग्य | विपुलाचल पर्वत पर श्री सुधर्मास्वामी संघसहित आये और राजा अजातशत्रु रनवास और पुरमन सहित वन्दना करनेके किये गये थे । जम्बूकुमार भी गये थे और वह जिनदीक्षा ग्रहण करना चाहते थे; किन्तु सम्बन्धियोंके विशेष आग्रह से घर वापिस लौट आये ।' श्वेताम्बर आम्नायकी मान्यता है कि इससमय उनकी अवस्था सोलहवर्षकी थी और उनने श्रावक के व्रत धारण किये थे ।
घरपर आते ही जम्बूकुमारके माता- पिताको उनका विवाह
कर देनेकी फिक्र हुई थी । उनने देखा कि यदि उनका विवाह । इकलौता बेटा भोगोपभोगको सामिग्री और सुन्दर रमणियोंको पाकर सांसारिकता में संलन न हुआ तो अवश्य ही उन्हें उससे हाथ धो लेने होंगे । यही सोचकर उनने आठ सेठपुत्रियोंसे . उनका विवाह कर दिया था । माता-पिता के याग्रह से उनने विवाह तो कर लिया; किन्तु आपने अपनी पत्नियोंके प्रति स्नेहकी एक दृष्टि भी न डाली ।
वह विवाह के दूसरे दिन ही तपोभूमि की ओर जानेके लिये. उद्यत होगये ! मांने बहुत समझाया और प्रेम दर्शाया । पत्नियों ने विषयभोगोंकी सारता और अपना अधिकार उनपर सुझाया; किन्तु कोई भी जंबू कुमार को दीक्षा ग्रहण करनेकी दृढ़ प्रतिज्ञासे शिथिल : न कर सका ! उसीसमय एक विद्युत नामक चोर, जो अर्हद्दास के
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यहां चोरी करने आया था, जम्बूकुमारके इस वैराग्य और निलमको
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१-उपु० पृ० ७०३ । २-जैसा सं० सं० १ ० ३ - वीर० पृ०:२
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अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामी। [१७७. देखकर प्रतिबुद्ध होगया । सबने ही श्री सुधर्माचार्यके निकट जाकर निनदीक्षा ग्रहण कर लो। इस समय अजातशत्रु भो अपनी मट रह प्रकारकी सेनाके साथ वहां भाया था। जंवूष्मारके साथ. विद्याचोर और उसके पांचसो साथी एवं सेठानी जिनदासी और जम्बू कुमारकी माटों पत्नियोंने भी मिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कुल ५२७ मनुष्य उनके साथ मुनि हुये थे। नौ क्रोड सुवर्ण मुद्राओं और इतनी धन-संपदाका नम्वृकुमारने मोह नहीं किया था
और न रमणी-रत्नोंकी मनमोहक रूप राशि ही उनको कर्तव्यपथसे विचलित कर सकी थी। __ जम्बूकुमार मुनि होकर सुधर्मास्त्र मीके निकट तपश्चरण करने
लगे थे। जब उनका उपवास पूर्ण हुआ तो उनका मुनि जीवन । प्रथम पारणा राजगृहके सेठ जिनदास के गृहमें हा था। इसके उपरान्त वह वनमें जाकर उग्रोग्र तप करने लगे थे। श्वेतांबरोंका कथन है कि बीस वर्ष तक उनने यह घोर तपस्या की थी और वह सोलह वांकी अवस्थामें दीक्षित हुये थे । दिगम्मर शास्त्रोंमें उन्हें युवावस्थामै मुनि हुआ लिखा है। इस मुनि दशाके पश्चात उनको ज्येष्ठ सुदी सप्तमीके शुभ दिम केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। इसी दिन सुधमोस्वामी मुक्त हुये थे। जम्बूकमार
-श्वेतांवर वंशावलिमें चोरका नाम प्रभव है और वह जयपुरके गजाका पुत्र था । जम्बूकुमारके उपगंत वही पट्टाधीश हुआ था; किन्तु दिगम्बर ग्रन्थ नंदि अपवा विष्णुको जम्बूका उत्तराधिकारी बताते है। (जैसासं० लण्ड १ वीर वंश० पृ. ३ व जहि० भा० १ पृ. ५३१ । २-उपु० पृ० ७०९ । ३-सासं० भा० १ वीर वंशा० पृ० २ ॥४-जम्बू० पृ०६३ । ५-जैशासं० खण्ड । वीर० पृ. २-३ । ६-जम्वृ० पः ६३ व उपु० पृ० ७१० . . .. ..
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१७८] संक्षिप्त जैन इतिहास । सर्वज्ञ होकर चालीस वर्ष तक जिनधर्मका प्रचार सर्वत्र करते रहे थे।' इनका भव नामकशिप्य प्रख्यात्था । विद्युच्चोर भी महातपस्वी मुनि हुये थे। उनने भी चहुँओर विहार करके धर्मकी मन्दाकिनी विस्तृत की थी। एक दफे मथुरामें उनपर एक वनदेवताने घोर उपसर्ग किया था; जिसमें वह दृढ़परिकर रहे थे । बारह वर्ष तक तप करके वह सर्वार्थसिद्धिमें महमेन्द्र हुये। अर्हदास सेठ समाधिमरण पूर्वक छठवें स्वर्गम देव हुये। जिनमती सेठानी एवं अन्य महिलायें भी मरकर देव हुई थी।
__ यद्यपि जम्वृकुमारका विहार और धर्म प्रचार प्रायः समग्र मन-दशामें देशमें हुआ था; किन्तु ऐपा मालूम होता है कि
धर्मप्रचार। बंगाल और विहारसे उनका सम्पर्क विशेष रहा था। सुधर्मा और जम्वृत्वामी पुण्ड्वर्द्धनमें विशेष रीतिसे धर्मपचार करने आये थे और उपरांत यह स्थान जेनों का मुख्य केन्द्र होगया था। कहते हैं कि जम्बूम्बामीको निर्वाण लाभ भद्रबाहुके जन्मस्थान कोटिकपुरमें हुआ था, किन्तु भगवान सकलकीर्तिके शिष्य व्र जिनदासने उनका निर्वाणस्थान विपुलाचा पर्वत बतलाया है।' उघर दि० जैनों की मान्यता है कि जम्बू-वामी मथुरासे मोक्षधाम सिघारे थे। उनकी इस पवित्र स्मृतिमें वहांपर वार्षिक मेला भी भरता है। भतः निश्चितरूपमें यद्यपि यह नहीं कहा जा
१-उपु० पृ० ७१०; किन्तु एक प्राचीन गाथामें यह समय ३० वर्ष लिखा है। ('अठतीस वास रहिये केवलणाणीय उकिटो) श्वेता. वर ४४ वर्प और कुल आयु ८० वर्षकी बताते है । जैसा सं० खण्ड १ वीर वंशा० पृ. ३ । २-उपु० पृ० ७१० । ३-जम्बू. पृ०६४-६५ । ४-बीर वर्षे ३ पृ० ३७० । ५-पूर्व ब राजा चलीकये-जैहि भा०.११ • १६३९१ ६-जैहिः भा० ११ पृ० ६१९ ।
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अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामी। [१७९ सक्ता कि जम्बुम्वामीका निर्वाण स्थान कहां था; किन्तु जैन मान्यता और मथुगके जैन पुगतत्वको देखते हुये मथुगमें उनका मोक्षस्थान होना टीक जंचता है। विपुलाचल पर्वतपर उनने दीक्षा ग्रहण की थी, यह स्पष्ट है। संभवतः इसीपरसे व जिनदासने उनका निर्वाणस्थान भी उसे ही लिख दिया है। कोटकपुर समाधिस्थान कहा जाता है। संभव है, वह केवलज्ञान स्थान हो । वह पुण्ड्वर्द्धन देश कोटिवष नामक ग्राम अनुमान किया गया है जहांसे गुप्त व पालवंशी रानाओंके सिक्क मिले हैं। संभवतः इसी समय अंताकत केवलियों में सर्व अंतिम श्रीधर नामक केवली कुण्डलगिरिसे मुक्त हुए थे। इस समय भगवान महावीरको मोक्ष गये ६२ वर्ष होचुके थे।
श्वेतांवर सम्प्रदायकी मान्यता है कि जम्बू कुमारके समयमें भी लाम्बरीय भगवान पार्श्वनाथकी शिष्य-परम्परा अलग मौजूद फथन। थी और रत्नप्रभसूरि आचार्य पदपर नियुक्त थे। उन्होंने वीरपके मोक्ष जाने के बाद पचहत्तरव वर्ष में ओइपा नगकी चामुण्डाको प्रतियोघ कर कितने जीवों को अभयदान दिया था और वहांके परमार वंशी राजा श्री उपलदेव एवं अन्य लोगों को जैनी बनाकर उपकेश जातिका प्रादुर्भाव किया था। किंतु दि० शास्त्रों का कथन है कि भगवान पार्श्वके तीर्थके मुनि वीर संघ समिलित होगये थे। श्वेतांबरोंके 'उत्तराध्ययनसूत्र' से भी यही प्रगट है। परमार वंशकी उत्पत्ति अर्वाचीन है, इस कारण जम्वृत्वामीके.समय परमार वंशी रामाका होना अशक्य है। १-धीर वर्ष ३ पृ० ३७० १२-अहि. भा० १३.१०.५३११३-श्वेतांबर ६४ वर्ष मानते हैं । जैसा खण्डः वीर: वंशावली १.० ३१.४-जसासं०, खण्ड चीर वंशा० पृ० ३१५-उसू. पृ० १३३:६-नाइ० मा० १-३०.६४-६८।
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१८०]
संक्षिप्त जैन इतिहास।
R
ANA
VARANA
हद कश
(ई० पूर्व ४५९-३२६) शिशुनागवंशके अंतिम दो रानाओं-नन्दवन्दन और महान
न्दिका उल्लेख पहिले किया जाचुका है। किन्तु इनके नव-नन्द ।
१' नामके साथ 'नन्द' शब्द होने के कारण, यह नन्द. वंशके राजा अनुमान किये जाते हैं। नंदवंशमें कुल नौ राजा अनुमान किये जाते हैं; किन्तु मि० जायसवाल 'नव-नन्द' का अर्थ 'नवीन-नन्द करते हैं। इस प्रकार नन्दवर्द्धन और महानंदि तथा महादेवनन्द व नन्द चतुर्थ प्राचीन नंदराजा ठहरते हैं । क्षेमेन्द्रके 'पूर्वनन्दाः' उल्लेखसे भी इनका प्राचीन नन्द होना सिद्ध है। नवीन नंद राजाओंमें कुल दोका पता चलता है। इस प्रकार कुल छै राजा नंदवंशमै हुये प्रगट होते हैं । कवि चन्दबरदाई (१२ वीं श० ई.) ने 'नव' का अर्थ नौ किया था; किन्तु वह भ्रम मात्र है। हिन्दपुराणों के अनुसार नंदवंशने १०० वर्ष राज्य किया था; किन्तु जैनग्रन्थोंमें उनका राज्यकाल १६५ वर्ष लिखा मिलता है।
. १-जविओसो, भा० १ पृ ८७-सिकन्दर महानको वृपल नन्द सिंहासन पर मिला था (३२६ ई० पू० ) और चन्द्रगुतने दिसम्बर ई० पू० ३२६ में अंतिम नन्दको परास्त किया था। इस कारण मि. जायसवाल एक महीनेमें आठ राजाओंका होना उचित नहीं समझते । २-अहिइ पृ० ४५ । ३-जविओसो, भा० १ पृ. ८९...व भाप्राग० भा० २ पृ० ४३ । ४-हरि० भूमिका पृ० १२ व त्रिलोकप्रज्ञप्ति गाया ९६-(पालकरज्जं सहि इगिमय पणषण्ण विजयनसंभवा।) जैन ग्रंथों में इस वंशका नाम ' विजयवंश' लिखा है
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नन्द-वंश | विद्वान् लोग जैनोंकी इस गणनासे सहमत नहीं हैं ।" वह पालक राजाके राज्यकाल सम्बन्धी ६० वर्ष भी इन्हीं ११५ वर्षों में सम्मि लित करते हैं । 2 और जैनोंकी यह गणना भारतीय इतिहास में नितान्त विलक्षण बतलाते हैं ।
यद्यपि नन्दवंशकी प्राचीन शाखा के दोनों राजाओं का वर्णन पहिले किंचित् लिखा जाचुका है; किन्तु वह पर्याप्त नन्दिवर्द्धन । नहीं है। नन्दवर्द्धनुका नाम 'नन्द' था और 'वर्डन' उसकी उपाधि थी; जिससे वह महानंदसे पृथक् प्रगट होता है । उसका सम्बन्ध शिशुनाग और लिच्छवि, दोनों ही वंशोंसे था । उसकी माता संभवतः लिच्छवेि कुलकी थी । मि० जायसवालने उसको चालीस वर्षतक राज्य करते लिखा है । नन्दवर्द्धन के समय में ही चौडोंका दूसरा संघसम्मेलन हुआ था । इसी कारण बौद्धोंके द्वारा व्यवहृत इनका अपरनाम ' कालाशोक' अनुमान किया गया है | नन्द प्रथम अथवा नन्दवर्द्धन ने अपने राज्यका विस्तार खुब फैलाया था। यही वजह है कि वह 'वर्द्धन' की सम्मानसूचक विरुदसे विभूषित हुये थे । नन्दवर्द्धन ने अपने राज्यके दशवें वर्ष में प्रधोतराजाको जीतकर अवन्तीपर अधिकार जमा लिया था ।
मालूम होता है कि उसने एक भारतव्यापी 'दिग्विजय' की थी । इस दिग्विजय में उसने दक्षिण - पूर्वी और पश्चिमीय समुद्रतटवर्ती देशों को अपने राज्य में मिला लिया था । उत्तर में हिमालय' पर्वत तराईके देश जीत लिये थे । काश्मीर और कलिङ्गको भी
१ - अहि पृ० ४२, व हरि० भूमिका पृ० १२ । २ - जविओसो, भा० १० ८९... ।
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१८२] संक्षिप्त जैन इतिहास । उसने अपने आधीन कर लिया था। ई० पूर्व ४४९-४०९ में पारस्थ-साम्राज्य नष्ट होने लगा था। इसी अवसरपर नन्दवर्द्धन्ने काश्मीरसे लौटते हुये तक्षशिलावाले पारस्थ राज्यका अन्त कर दिया था। उनकी यह दिग्विजय उनके विशेष पराक्रम, शौर्य और रणचातुर्यका प्रमाण है। नन्दवईनने अपने राज्यारोहण कालसे एक संवत् भी प्रचलित किया था, जो ई० पू० ४५ से प्रारम्भ हुआ था और अलवेरूनीके समय तक उसका प्रचार मथुरा द कन्नौजमें था* उन्हें जैनधर्मसे प्रेम था, यह पहिले ही लिखा नाचुका है। सर जान ग्रीयेर्सन सा० कहते हैं कि नन्दराजाओंका ब्राह्मणोंसे द्वेष था I+
नन्द द्वितीय अथवा 'महा' नन्दके विषयमें कुछ अधिक ___.. परिचय प्रायः नहीं मिलता है। हां, इतना स्पष्ट महा नन्द ।
है कि उनके समयमें तक्षशिला तक नन्दराज्य निष्कण्टक होगया था। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि महा नन्दके मित्र थे और वह तक्षशिलासे पाटलिपुत्र पहुंचे थे। यह भी सच है कि महा नन्दकी एक रानी शूदा थी और उसके गर्भसे महा-पद्मनन्दका जन्म हुआ था। इसका राज्यकाल ई०पूर्व-४ ०९:३७४ मानाजाता है।
महानंदकी शूद्रा रानीके गर्भसे महापद्मका जन्म हुआ था। महा पद्मनन्द । ....... इसने नन्द राज्यके वास्तविक उत्तराधिकारी अपने
'सौतेले भाईको धोखेसे मार डाला था और स्वयं जिविओसी० मा १ ७७.८ जविमोसो भी०१३ पृ. २४01+ महिइ ४५॥२-जविसों भा । पृ० ८२॥
राइ' भी० १ ० ५८-५९ व हिंह . ४। कुछ लोग कहते है कि सांप्रदायिक द्वेषसे ऐसा लिखा गया है।
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नन्द-वंश।
[.१८३ राना वन बैठा था। प्राचीन जैन कानूनकी दृष्टि से यद्यपि महानन्दका शूद्रा स्त्रीसे विवाह करना ठीक सिद्ध होता है; किंतु इस विवाह संबंधसे उत्पन्न हुआ पुत्र महापद्म केवल भरण-पोषणके योग्य सहायता पाने का अधिकारी ठहरता है । वह राज्यसिंहासनपर मारूद होने के योग्य अधिकार नहीं रखता था ! राना उपश्रेणिकके संबंधमें भी यही बात घटित हुई प्रतीत होती है। वह एक भील कन्याको इस शतपर विवाह लाये थे कि उसके पुत्रको राजा बनायेंगे। किंतु शास्त्र और नियमानुसार श्रेणिक ही राज्य पानेके
अधिकारी थे। हठात उपश्रेणिक महारानने अपना वचन निभानेके लिये, श्रेणिकको देशसे निर्वासित कर दिया था; यह सब कुछ लिखा जाचुका है। महापद्मको इस नियमका उल्लंघन करना पड़ा था और उसने वास्तविक उत्तराधिकारीको जीवनलीला असमयमें ही समाप्त करके स्वयं नन्दराज्यकी बागडोर अपने हाथमें ली थी। मालूम होता है कि इस घटनासे जैन रुष्ट हुये होंगे और महाप
झको घृणाकी दृष्टिसे देखने लगे होंगे। यही कारण है कि महापद्म द्वारा जनोंके सताये जानेका उल्लेख मिलता है।
उड़िया भाषाके एक ग्रन्थमे (१४वीं श० ) मगधके नन्दरानाको वेद धर्मानुयायी लिखा है। उधर जैनोंक हरिषेण कृत कथाकोपमें (८वी श०) भी एक नन्दराजाको ब्राह्मण धर्ममें दीक्षित करनेकी कंधा मिलती है। वहां महापद्म नामक एक जैन मुनिने
१-विनोखो मा० १ पृ. ४७ वं माप्रारा. मा० २ पृ० ४५ द अहिह पृ. ४०-४१ । २-का० । ३-भगवतीसूत्र-ऑजे० • मी० १ पृ० ५८... जविओसो० मा० ३ पृ. १८२१ ५-इस
कथाकोपके अनुसार " आराधना कंयाकोष' मा० ३ पृ० ७४०४१ ।
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१८४] संक्षिप्त जैन इतिहास | उनको प्रतिवुद्ध किया था। हमारे विचारमें यह महापद्म नाम नंद
राजाका ही द्योता है । जो हो, इतना स्पष्ट है कि नंदराजा ब्राह्म‘गोंके द्वेषी थे और वह जैनधर्मसे प्रेम रखते थे। उनका जन धर्मानुयायी होना कुछ आश्चर्यजनक नहीं है । इन नव नंदोंके मंत्री निस्सन्देह जैन धर्मानुयायी थे। महापद्म का मंत्री पल्पक नामक था और इसका ही पुत्र अगाडीके नन्दका मंत्री रहा था। महापद्मनन्दमें अपने दादा नन्दवन के समान क्षात्रशक्ति
और रणकौशलकी बाहुल्यता थी। उसने नंदराज्यको
। विस्तत बनाने के प्रयत्न किये थे। उसने कौशाम्बीको जीतकर वहांके पौरववंशका अंत किया था। गंगा व जमनाको तरा. ईवाले और भी छोटे२ स्वाधीन राज्यों-पांचाल, कुरु आदिको उसने अपने अधिकारमें कर लिया था । इमप्रकार कुशलतापूर्वक वह ई० पूर्व ३३६-३३८ तक राज्य करता रहा था। महापद्मके पहिले महानन्दके वास्तविक उत्तराधिकारी दो पुत्र नन्द महादेव
और नंद चतुर्थ कुल ३७४ से ३६६ ई० पूर्वतक नाममात्रको राज्याधिकारी रहे थे। उनका संरक्षक महापद्म था और अन्तमें उसने ही राज्य हथिया लिया था।
अतिम नन्द सझल्य अथवा धननन्द था। यह बड़ा लालची अन्तिम-नन्द ।
___था। इपका मंत्री सम्टाल जैन धर्मानुयायी था;
• जो अन्तमें .मुनि होगया था। इसके पुत्र स्थूलभद्रं और श्रीयक थे। स्थूलभद्र जैनमुनि होगये थे और श्रीय• १-अहि० पृ० ४५-४६ ॥२-केहिइ० पृ० १६४ ॥ ३-हिलिजे० पू०४५। ४-जविओमो०, भ.० १ ० ८९-९० ।५-भाक० भा० ३पृ० ७८-८१॥
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नन्द-वंश। को मंत्रीपद मिला था। इसीका अपरनाम संभवतः राक्षस 'था। धननन्दमें इतनी योग्यता नहीं थी कि वह इतने विस्तृत
राज्यको समुचित रीतिसे संभाल लेगा; यद्यपि उस समय भारत में • वह सबसे बड़ा राना समझा जाता था। यूनानियोंने उसको मगध
और कलिङ्गका राजा लिखा है और बतलाया है कि उसकी सेनामें २ लाख पैदल सिपाही, २० हजार घुड़सवार, २ हजार स्थ और "३ या ४ हजार हाथी थे। यूनानियोंने यह भी लिखा है कि
उसकी प्रना उससे अप्रसन्न थी। उपर कलिंगमें ऐर वंशके 'एक रानाने धननंदसे युद्ध छेड़ दिया। धननन्द उसमें परास्त हुआ
और कलिंग उसके अधिकारसे निकल गया था। इधर चाणिक्यकी सहायतासे चन्द्रगुप्तने भी नन्दपर माक्रमण कर दिया था। नन्दका सेनापति भद्रमाल था। इस युद्ध में भी उसकी हार हुई और उसके साथ ही ई० पू० ३२६ में नंदवंशकी समाप्ति होगई थी। कहते हैं कि इसने ही ननों तीर्थ पञ्चपहाड़ीमा निर्माण • पटना में भराया था।
१-हिलिज. पृ. ४५। २-मुद्रा० नाटकमें नंदराजाके मंत्रीका नाम यही है। इसका भी जैन होना प्रगट है। वीर वर्ष ५ पृ० ३० ।
३-अहिइ० ० ४०-४१। ४-जविओसो. भा० ३ पृ० ४८३ । . ५-मिलिन्द० २११४७ ॥ ६-चीनी लोग नन्दराजाकी मृत्यु ई० पूर्व ३२७ 7 बताते है । ऐरि० भा० ९ पृ० ८७ । ७-अहिइ. पृ० ४६ ।
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१८६.] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
(१०) सिकन्दर महानका क्रमण और
तत्कालीन जैन साधु ।
(ई० पू० ३२७-३२३) यूनानमें मेसीडन नामक एक छोटेसे देशका राजा फलकूम
___ (फिलिप) था। इसीका पुत्र सिकन्दर था । सिकन्दर महान् सिकन्दर वडा साहसी, पराक्रमी और प्रतिभाशाली था। उसने अपने पिताके छोटेसे राज्यका खुब विस्तार किया था। और वह बड़े साम्राज्यका स्वामी था । तीन वर्ष (३३४३३१ ई० पू० ) उसने एशिया माइनर, सिरिया, मिस्र, ईरान, आदि देशोंको जीत लिया था और फिर भारतको नीतनेका संकल्प करके वह फर्वरी अथवा मार्च सन् ३२६ ई० पू० में ओहिन्द नामक स्थानपर सिंधु नदी पार करके भारतमें मापहुंचा था। पहिले ही उसके मार्ग में तक्षशिलाका हिंदु राज्य माया था; किन्तु यहांके शिशुगुप्त नामक राजाने सिकन्दरका विरोध नहीं किया था। उसने एक मित्रके समान उसका स्वागत किया था। इस प्रकार भारतवर्षमें पहिले पहिल सिकन्दरके सम्मानित होने तक्षशिलाधीश और पुरु ( पोरस ) एवं अन्य राजपूतोंका पारस्परिक मनोमालिन्य ही मूल कारण था । पुरु और भन्यं राजा लोग तक्षशिलोपर कईवार चढ़ाई करते रहे थे । सिकन्दर तक्षशिलाधीशके इस स्वागतपर बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने उसे तक्षशिलाका राज्य पुनः सौंप दिया। किन्तु पुरु (पोरस)ने, जो. सिंधु और झेलम नदीक बीचवा देशपर
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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु । [ १८७ राज्य करता था, उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी। पुरुने बड़ी वीरतासे लड़ाई में सिकन्दरका सामना किया था; किंतु उसके हाथियों ने बड़ा धोखा दिया और हठात् उसने सिकन्दरका माधिपत्य स्वीकार कर लिया था।
इस विनयके बाद सिकन्दर अगाड़ी पूर्व दिशाकी ओर बढ़ा था और व्याप्त नदी किनारपर पहुंचा था। यहां उसकी सेनाने जवाब देदिया-वह थक गई थी। उसने अगाडी बढ़ने से इन्कार कर दिया था। वरवश सिकन्दरको वापप्त अपने देश लौट जाना पड़ा था । झेलम नदीके पास उसके सैनिकोंने दो हमार नावोंका वेड़ा तैयार कर लिया और उसपर सवार होकर अक्टूबर सन् ३२६ ई० पू० में वह झेलम नदीके मार्गसे वापस हुआ था। मार्गमें उसे कठिन कठिनाइयां झेलनी पड़ीं और दस महीनेकी यात्राके बाद वह फारस पहुंचा था। जून सन् ३२३ ई० पू० में वेबीलनमें ३२ वर्षकी अवस्था में सिकन्दरका देहान्त होगया था। उसका विचार सिन्ध और पंजाबको अपने साम्राज्यमें मिला लेनेका था; किन्तु अपनी असामायिक मृत्युके कारण वह ऐसा नहीं कर सका था। उसकी मृत्युके बाद उसका साम्राज्य छिन्नमिन्न होगया और भारतके उत्तर-पश्चिमीय सीमावर्ती प्रदेशपर जो उसका अधिकार कुछ जमो था; उसे चन्द्रगुप्त मौर्यने नष्ट कर दिया था। ___ यूनानियोंके इस आक्रमणका भारतपर कुछ भी असर नहीं यूनानियोंकः आंक्रम- पड़ा था। भारतकी सभ्यता और उसके "णको प्रमावः। आचार-विचार मर्छन्न रहें थे। भारतीयोंने
१-माह० पृ० ५५-५८।
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१८८] संक्षिप्त जैन इतिहास । यूनानी सभ्यताको ग्रहण नहीं किया था। सिकन्दरका भारतआक्रमण एक तेन आंधी थी; जो चटसे भारतके उत्तर-पश्चिमीय देशसे होती हुई निकल गई । उससे भारतका विशेष अहित भी नहीं हुमा था । यही कारण है कि भारतवासी सिकन्दरको शीघ्र ही भूल गये थे। किसी भी ब्राह्मण, जैन या बौद्धग्रंथमें इस माक्रमणका वर्णन नहीं मिलता है। किंतु इस आक्रमणका फल इतना
अवश्य मानना पड़ेगा कि इसके द्वारा संसारकी दो सम्य और 'प्राचीन जातियों का सम्पर्क हुआ था। यूनानियोंने भारतवर्षके विद्वानोंसे बहुतसी बातें सीखी थीं और यहांके तत्वज्ञानका यूनानी 'दार्शनिकोंके विचारोंपर गहरा प्रभाव पड़ा था। सिकन्दर और उसके साथियों का विशेष संसर्ग दिगम्बर जैन मुनियोंसे हुआ था। परिणामतः यूनानियों में अनेक विद्वान् “भहिंसा परमो धर्मः" सिद्धांत पर जोर देनेको तुल पड़े थे। इन लोगोंने जो भारत एवं जैन मुनियों (Gymnosophists ) के सम्बन्धमे जो बातें लिखी हैं; 'उनका सामान्य दिग्दर्शन कर लेना समुचित है। भारतवर्षके विषयमें यूनानियोंने बहुत कुछ लिखा है, मगर खास
... जानने योग्य बात यह हैं कि वह उस समय भारतकी भारत वर्णन। जनसंख्या तमाम देशोंसे अधिक बताते हैं; नो अनेक संप्रदायोंमें विभक्त था और यहां विभिन्न भाषायें नोली जाती थीं। एक संपदाय ऐसा भी है कि न उप्तके अनुयायी किसी जीवित प्राणीको ___..!-पैथागोरस ऐसा ही उपदेश देता था (देखो ऐइ० पृ० ६५) • और पोरफेरियस ( Porphyrious ) ने मांस निषेध पर एक अन्य। लिखा था । (ऐइ० पृ० १६९) । २-ऐइ० पृ० १ ।
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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालिन जैन साधु [१८९. मारते हैं और न खेनी करते हैं । वह घरों में नहीं रहते। और शाकाहार करते हैं। वह उस अनाजको प्रयोगमें लाते हैं जो अपने आप पृथ्वीमें उपनता है और मकई (millet) जैसा होता है। बहुत करके यह वर्णन जैनोंके व्रती श्रावकों को लक्ष्य करके लिखा गया प्रतीत होता है । ब्राह्मणोंमें कतिपय ऐसे भी थे, जो मांसनहीं खाते और न मद्य पीते थे। भारतवासियोंको यूनानियोंने. मितव्ययी किन्तु आभूषणों के प्रेमी लिखा है। उनने मिश्रदेशके. समान यहां भी सात जातियों का होना लिखा है; किन्तु यह राजनतिक अपेक्षासे सात भेद कहे जासक्त हैं।
वैसे चार जातियां-बामग, क्षत्री, वैश्य, शूद्र-यहां थीं। रूपक लोग अधिक संस्थामें थे । वे बड़े साल और दयालु थे । उन्हें युद्ध नहीं करना पड़ता था। क्षत्री लोग युद्ध करते थे। प्रत्येक जातिके लिये अपना व्यवसाय करना अनिवार्य था । युद्धके समय भी खेती होती रहती थी। कोई भी उनको नहीं छेड़ता था, फसलका भाग स्वयं रखते और शेष रानाको देते थे। भार. तीय घने बुने हुए कपड़ेको लिखनेके काममें लाते थे। ___भारतमें अन्ननलकी बाहुल्यता और विशेषता थी। उनका शरीर गठन साधारण मनुष्योंसे कुछ विक्षेषता रखता था और उसका उन्हें गर्व था। वह शिल्प और ललित कलाओंमें खूब निपुण थे। घरती शाक और अनाज तो उगता ही है परन्तु अनेक प्रकारकी धातुयें भी निकलती थीं । सोना, चांदी और लोहा विशेष परिणाममें निकलता __ -ऐइ० पृ० २ । २-ऐइ० पृ० १८३ । ३-ऐइ० पृ० ३८ । ४-ऐइ मे पृ० ४०-४३ । ५-एइ० पृ. ६-ऐइ० पृ. ५६। ।
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१९०] संक्षिप्त जैन इतिहास। बताया है। नदियोंसे भी सोना निकलता था। इसीकारण कहा जाता है कि भारतमें कभी अकाल नहीं पड़ा और न किमी विदेशी रानाने भारतको विनय कर पाया । उनमें झूट बोलने और चोरी करने का प्रायः अभाव था। वे गुणोंका आदर करते थे। वृद्ध होनेसे ही कोई भादरका पात्र नहीं होता। उनमें बहु विवाहकी प्रथा प्रचलित थी। कहीं कन्यापक्षको एक जोड़ी बैल देनेसे वरका विवाह होता था और कहीं वर-कन्या स्वयं अपना विवाह करा लेते थे। स्वयंवरकी भी प्रथा थी। विवाहका उद्देश्य झामतृप्ति और संतान वृद्धिमें था। कोई२ एक योग्य साथी पाने के लिये ही विवाह करते थे। वे छोटीसी तिपाईपर सोनेकी थाली में रखकर भोजन करते थे । उनके भोजनमें चांवल मुख्य होते थे। यूनानियोंने भारतवर्षके तत्ववेत्ताओंका वर्णन किया है, वह
बड़े मार्केका है। उन्होंने भारतकी सात भारतीय तत्ववेत्ता । जातियों से पहली जाति इन्हीं तत्ववेत्ता. ओंकी बतलाई है। इनमें ब्राह्मण और श्रमण यह दो भेद प्रगट किये हैं। ब्राह्मण लोग कुल परम्परासे चली हुई एक जाति विशेष थी। अर्थात् जन्मसे ही वह ब्राह्मण मानते थे। किंतु श्रमण सम्प्रदायमें यह बात नहीं थी। हरकोई विना किसी.मातिपांतके भेदसे श्रमण होसक्ता था। ब्राह्मणों का मुख्य कार्य दान, दक्षिणा लेना और यज्ञ कराना था। वे साहित्य रचना और वर्षफल भी प्रगट करते थे । वर्षारम्भमें वे अपनीर रचनायें लेकर राजदर
१-मेऐइ० पृ. ३१-३३ । २-ऐइमे० पृ० ५०-५१ । १३-ऐइ. १० ३८१.४-मेएइ० .पृ० .२२२ । ५-मेऐइ०, ०५१ मेऐव, पृ. ७४ । ७-मेऐइ०, पृ. ९८ । ८-ऐइ. पृ० १६९ व १०१।
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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालिन जैन साधु [ १९१ -- रबारमें पहुंचते थे और मान्यता पाते थे। यदि उनका वर्षफल मादि कोई कार्य ठीक नहीं उतरता तो उन्हें जन्मभर मौन रहनेकी आज्ञा होती थी। इस कार्यमें श्रमण भी भाग ले सक्त थे। . ब्राह्मणों में ऐसे भी थे, जो वानप्रस्थ दशामें रहते थे।
श्रमण भी कई तरह के थे; किंतु उनमें मुख्य वह थे नो नग्न बोसोमिला, रहते थे। यह ब्राह्मण और बौद्धोंसे भिन्न थे। दिगम्बर जैन इनको विद्वानोंने दिगम्बर जैन मुनि माना है;
साधु थे । यद्यपि कोई विद्वान इन्हें आजीविक साधु अनुमान काते हैं। किंतु इनका यह अनुमान निर्मुल है। यूनानियोंने इन नग्न साधुओंकी मिन विशेष क्रियाओं का उल्लेख किया है। उनसे इनका दिगम्बर जैन मुनि होना सिद्ध है। उदाहरणके लिये देखिये:
(१) यूनानियोंका कथन है कि " श्रमण कोई शारीरिक परिश्रम (Labour=भारम्भ) नहीं करते हैं; नग्न रहते हैं; सर्दी में खुली हवा और गरमियोंमें खेतों में व पेड़ों के नीचे शासन जमाते हैं; और फलोंपर जीवन यापन करते हैं। यह सब क्रियायें जैन मुनियोंके जीवनमें मिलती हैं। जैन मुनि आरम्भके सर्वथा त्यागो होते हैं। वे पानीतक स्वयं ग्रहण नहीं करते यह बौद्धशास्त्रोंसे भी प्रगट है। उनका नग्नभेष भी जैनशास्त्रोंके अनुकूल है। जैसे कि पहले लिखा जाचुका है। वनों और गुफाओं आदि 'एकान्त स्थानमें जैन मुनिको रहने का आदेश है। तथा वह निरामिपभोनी और उद्दिष्ट त्यागी होते हैं।
१-ऐ४० पृ४७२-जसि मा. 10 कि०३-1, पृ०i ३-रेइ० पृ. ४७ । ४-मनबु० पृ २२३ ।
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१९२] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
(२) 'श्रमण नग्न रहते, कठिन परीपह सहन करते और किसीका निमंत्रण स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी मान्यता जनसाधारणमें खूब है।" जैन मुनि कठिन परीपह सहन करने और निमंत्रण स्वीकार करने के लिये प्रख्यात हैं। ___(३) 'इन्डियाके साधु नग्न रहते और कोह कॉफका (Caucasus) बर्फ तथा सर्दीका वेग विना संलेश परिणामोंके सहन करते हैं और जब वे अपने शरीरको अग्निके सुपुर्द कर देते हैं और वह जलने लगता है, तो उनके मुखसे एक आह भी नहीं निकलती है। सर्दी, गर्मी, दंश आदि बाईस परीपहोंको जैन मुनि समताभावसे सहन करते हैं उनको शरीरसे ममत्व नहीं होता। अंतिम समयमें वे सल्लेखना व्रत करते हैं और प्राणान्त होजानेपर भग्निचिता उनकी देह भस्म होजाती है। कल्याण (Kalanos) नामक एक जैन मुनिके सल्लेखना व्रतका विशद वर्णन, यूनानियोंने किया है निम्नमें उसको प्रकट करते हुये इस विषयका स्पष्टीकरण होजायगा | आन भी जैन साधु इस व्रतका अभ्यास करते हुये मिलेंगे। इससे भाव आत्महत्याना नहीं है।
(४) 'उन (भारतीयों) के तत्ववेत्ता, जिनको वे 'निन्मोसोफिस्ट कहते हैं, प्रातः कालसे सूर्यास्त तक सूर्यकी ओर टकटकी लगा कर खडे रहते हैं । खूब जलती हुई रेतपर वह दिनभर सभी इस पैरसे और कभी दूसरेसे स्थित रहते हैं। यहांपर जैन मुनियोंको आतापन योग नामक तपस्याका साधन करते हुये बताया गया है।
(५) साधारण मनुष्यों को संयमी और संतोषमय जीवन वितानेकी१-ऐइ० पृ० ६३ । २-ऐइ. १०६८ फुट०-१ । ३-ऐइ पृ०६८ फु०२।
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or
सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालिन जैन साधु [ १९३ सलाह इन श्रमणोंने दी थी।' जैन मुनि सदा ही ऐसी शिक्षा दिया करते हैं।
(६) श्रमण और अंमणी ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते हैं । श्रमणी तत्वज्ञानका अभ्यास करती हैं। जनसंघके मुनि आर्यिकाओं को पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करना अनिवार्य होता है। आर्यिकायें तत्वज्ञानका खासा अध्ययन करती हैं।
(७) श्रमण संघमें प्रत्येक व्यक्ति सम्मिलित होसक्ता है। . जैनसंघका हार भी प्रत्येक जीवित प्राणी के लिये सदासे खुला रहा है।'
(८) 'श्रमण नग्न रहते हैं । वे सत्य का अभ्यास करते हैं । . भविष्य विषयक वक्तव्य प्रगट करते हैं। और एक प्रकारके 'पिरामिड' (Pyramid) की पूजा करते हैं, जिनके नीचे वे किसी महापुरुषकी अस्थियां रखी हुई मानते हैं।" नग्न रहना, सत्यका अभ्यास करना और भविष्य सम्बंधी वक्तव्य घोषित करना जैनः . मुनियों के लिये कोई अनोखी बात नहीं है। ज्योतिष और भविष्य फल प्रगट करने के लिये वे अनेन ग्रन्थों में भी सन्मानकी दृष्टिसे देखे गये हैं। सिद्ध प्रतिमा संयुक्त स्तूप ठीक 'पिरामिड' जैसे होते हैं। जनोंमें इनकी मान्यता बहु प्राचीनकालखे है । यह स्तू
१-ऐइ० पृ० ७० । २-ऐइ० पृ० १८३ व भेऐइ० पृ. १०३ । ३-ऐइ०, पृ० १६७ । ४-बीरे, वर्ष ५ पृ० २३०-२३४१ ५-ऐइ०, पृ. १८३ ॥ ६-न्यायविन्दुः (अ०:३) में श्री ऋषभ, व वर्तमान महावीरजीको . ज्योतिप विद्यामें निष्णात. होनेके कारण सर्वज्ञ 'आदर्शन प्रगट किया है। मुद्रा राक्षस (अं० ४), प्रबोध चद्रोदय (अं० ३) आदिमें जन. मुनि भविष्य विषयक घोषणा करते वताये गये हैं। देखो जैन० भागः १४ पृ० ४५-६१।
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१९४] संक्षिप्त जैन इतिहास । केवली भगवानके समाधिस्थानपर बनते हैं। तक्षशिलामें मान भी कई भग्न जैन स्तुप मिले हैं।
(९) 'सूर्यकी प्रखर धूपमें खड़े हुए दिगम्बर (नग्न) साधुओंसे सिकन्दरने पूछा कि आप लोग क्या चाहते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया कि, आप अपने साथियोंकि साथ कहीं छायाका आश्रय लें । वस, इमको यही चाहिये ।' यह क्रिया दया दाक्षिण्यादि गुणयुक्त जैन साधुओंके उपयुक्त है। उन्होंने यूनानियों के लिये सूर्या ताप असहिष्णु समझन्नर शीतल प्रदेशके उपयोगमा उपदेश दिया प्रतीत होता है।
(१०) श्रमणोंने कहा था कि 'इस परिभ्रमणना कभी अन्त होनेवाला नहीं। जब हमारी मृत्यु होगी तो इस शरीर और मात्माका जो अस्वाभाविक मिलन है, वह छूट नायगा। मृत्युके वाद हमें एक अच्छी गति प्राप्त होगी। यह मान्यतायें ठीक जैनोंके समान हैं।
(११) "एकबार सिकन्दरने ध्यानमग्न दश साधुओंको बलाकारसे पकड़कर मंगा लिया था। साधुओंसे उसने दम प्रश्न किये और धमकी दी कि यदि इनका ठीक उत्तर नहीं होगा, तो हम सबको एक साथ मरवा देंगे । परन्तु साधुओं के संघनायकने बड़ी निर्मीकतासे सिकन्दरसे कहा था कि यद्यपि तुम्हारा शारीरिक और सैनिक बल हमसे बढ़ा चढ़ा है, किंतु आत्मिक बल तुम्हाग हमसे प्रबल नहीं होसक्ता । कहा जाता है कि ये नग्न साधु सिकन्दरके सिपा
जैसि भा० मा० १ कि० २-३, पृ. ८ .२-पूर्ववत् । ३-ऐइ० पृ. ४५
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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु । [१९५ हियों तथा अन्यान्य मनुप्योंके पदचिन्हित पृथ्वीपर ही पैर रखकर चलते थे। जैनाचार्योंने जहां मुनियोंके माचारका कथन किया है, वहां विहार वर्णनमें स्पष्ट रूपसे लिखा है कि मुनियों को तथा साधुओंको मर्दित तथा पददलित भूमिपर ही चलना चाहिये। इस कथनसे ग्रीक इतिहास लेखकों का कथन बड़ी अभिन्नतासे मिलता है।
उपरोक्त खास विशेषताओंको देखते हुये यह निस्सन्देह स्पष्ट है कि सिकन्दर महानको जो नग्न साधु तक्षशिलाके आसपास मिले थे, वह दिगम्बर जैन साधु थे | आनीविक साधु वह नहीं होसते; क्योंकि आनीविक साधु पूर्णतः निरामिष भोजो नहीं होते, मानीविका करते हैं और एक लाठी (डन्डा) भी हाथमें लिये रहते हैं। तथापि उनका वैदिक ऋषि और बौद्ध भिक्षु होनाभी असंगत है। इन दोनों साधुओंका उल्लेख तो यूनानियोंने प्रथक रूपमें किया है। अतएव इन नग्न साधुको दिगम्बर जैन श्रमण मानना अनुचित नहीं है। तक्षशिलामें तब इनकी बाहुल्यता और प्रतिष्ठा अधिक थी। इससे कहा जा सका है कि उस समय जैनधर्म अवश्य ही उत्तर-पश्चिमीय सीमावर्ती देशोंतक फैल गया था। यूनानी लोगों के वर्णनसे तबके जैन साधुधर्मके स्वरूपका भी दिग्दर्शन होनाता है और वह म० महावीरके समयके अनुकूल प्रगट होता है।
१-जेसि भा०, भा० १ कि० ४ पृ० ६॥ २-भमबु० पृ० २०-२२ च वीर वर्ष २ पृ० ५४७ । ३-जेमिमा०, भा० १ कि० २-३ पृ. ८1 ४-डॉ. स्टीवेन्सन (जराऐसो० जनवरी १८५५), प्रो० कोलघुक (ऐरि० मा० १ पृ. ३९९) और इन्साइकोपेडिण टेनिका (११वीं आवृत्ति) भा० १५ पृ० १९८में इन नग्म श्रमणो हो-जनमुनि,लिखा है।
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१९६] संक्षिप्त जैन इतिहास।
यूनानियोंने इन नग्नसाधुओंमें मन्दनीस और कलोनस नामक दिगम्बर जैन साध दो साधुओंकी बड़ी प्रशंसा की है । इनको
मन्दनीस और उन्होंने ब्राह्मण लिखा है और इस अपेक्षा __ कलानस। किन्हीं लेखकोंने उनका चरित्र वैदिक ब्राह्मणों की मान्यताओं के अनुकूल चित्रित किया है। किंतु उनको सबने नग्न बतलाया है। तथापि कलोनसको जो केशलोंच मादि करते लिखा है, उससे स्पष्ट है कि ये साधु जैन श्रमण थे। एक यूनानी लेखकने कलोनसको ब्राह्मण पुरोहित न लिखकर 'श्रमण' बतलाया भी है। अतः मालूम ऐसा होता है कि जन्मसे ये ब्राह्मण होते. हुये भी जैन धर्मानुयायी थे। इनका मूल निवास तिरहूतमें था। सिकन्दर जब तक्षशिलामें पहुंचा तो उसने इन दिगम्बर साधुओंकी बड़ी तारीफ सुनी । उसे यह भी मालम हुआ कि वह निमंत्रण स्वीकार नहीं करते । इसपर वह खुद तो उनसे मिलने नहीं गया; किंतु अपने एक अफसर ओनेसिक्रिटस (Onesikritos)को उनका हालचाल लेने के लिये भेजा। तक्षशिलाके बाहर थोड़ी दूरपर उस अफसरको पन्द्रह दिगम्बर साधु असह्य धूपमें कठिन तपस्या करते. मिले थे । कलोनस नामक साधुसे उसकी वार्तालाप हुई थी। यही साधु यूनान जानेके लिये सिकन्दरके साथ हो लिया था। मालूम होता है कि 'कलोनस' नाम संस्कृत शब्द 'कल्याण' का अपभ्रंश है। ' १-विशेषके लिये देखो वीर, वर्ष ६। २-ऐइ०, पृ. ७२ । ३-ऐरि० भा० ९ पृ. ७० । ४-ऐ०, पृ. ६९। ५-यूनानी लेखक. प्लूटाईका कथन है कि यह मुनि आशीर्वादमें 'कल्याण' शब्दको प्रयोग करते थे। इस कारण कलॉनस कहलाते थे। इनका यथार्थ नाम 'स्फाइन्स' (Sphines) था। मेरेइ० पृ० १०६ ॥
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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालिन जैन साधु [२९७ अतः इन साधुका शुद्ध नाम ठीक है, जो जैन साधुओंके नामके
समान है।
मुनि कल्याणने इस विदेशीके प्रचण्ड लोम और तृष्णाके चश हो घोर कष्ट सहते हुये वहां माया देखकर जरा उपहासभाव धारण किया और कहा कि पूर्वकालमें संसार सुखी था-यह देश अनानसे भरपुर था। वहां दृष और अमृत आदिके झरने वहते थे, किन्तु मानव समाज विषयभोगोंके आधीन हो घमण्डी और उद्दण्ड होगया । विधिने यह सब सामग्री लुप्त करदी और मनुप्यके लिये परिश्रमपूर्वक जीवन विताना (A life of toil) नियत कर दिया । संसारमें पुनः संयम मादि सद्गुणोंकी वृद्धि हुई और अच्छी चीजों की बाहुल्यता भी होगई ! किन्तु अब फिर मनुष्योंमें असन्तोप और उच्छृङ्खलता आने लगी है और वर्तमान अवस्थाका नष्ट होजाना भी आवश्यक है। सचमुच इस वक्तव्य द्वारा मुनि कल्याणने भोगभूमि और कर्मभूमिके चौथे काल और फिर पंचमकालके प्रारंभका उल्लेख किया प्रतीत होता है।
उनने यूनानी अफसरसे यह भी कहा था कि 'तुम हमारे समान कपड़े उतारकर नग्न होनाओ और वहीं शिलापर मासन जमाकर हमारे उपदेशको श्रवण करो। वेचारा यूनानी अफसर इस प्रस्तावको सुनकर बड़े असमंजसमें पड़ गया था; किन्तु एक जैन मुनिके लिये यह सर्वथा उचित था कि वह संसार में बुरी तरह फँसे हुये प्राणीका उद्धार करनेके भावसे उसे दिगम्बर मुनि होना.. १-ऐइ०, पृ. ७० । २-ऐ४० पृ. ७० ।
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१९८] संक्षिप्त जैन इतिहास । नेकी शिक्षा दें । प्रायः प्रत्येक जैन मुनि अपने वक्तव्य के अन्तमें ऐसा ही उपदेश देते हैं और यदि कोई व्यक्ति मुनि न होसके तो उसे श्रावके व्रत ग्रहण करनेका परामर्श देते हैं। मुनि कल्याणने भी यही किया था। किन्तु एक विदेशीके लिये इनमें से किसी भी प्रस्तावको स्वीकार कर लेना सहसा सुगम नहीं था। मुनि मन्दनीस, जो संभवतः संघाचार्य थे, यूनानी अफसरकी इस विकट उल्झनमें सहायक बन गये | उन्होंने मुनि कल्याणको रोक दिया
और यूनानी अफसरसे कहा कि 'सिकन्दर' को प्रशंसा योग्य है । वह विशद साम्राज्यका स्वामी है, परन्तु तो भी वह ज्ञान पानेकी लालसा रखता है। एक ऐसे रणवीरको उनने ज्ञानेच्छु रूपमें नहीं देखा ! सचमुच ऐसे पुरुषोंसे बड़ा काम हो, कि जिनके हाथोंमें बल है, यदि वह संयमाचारका प्रचार मानवसमाजमें करें। और संतोषमई जीवन वितानेके लिये प्रत्येकको बाध्य करे। ___महात्मा मन्दनीसने दुभाषियों द्वारा इस यूनांनी अफसरसे वार्तालाप किया था । इसी कारण उन्हें भय था कि उनके भाव ठीक प्रकट नं होसकें। किन्तु तो भी उनने नो' उपदेश दिया था उसका निष्कर्ष यह था कि विषय सुख और शोकसे पीछा कैसे छूटें । उनने कहा कि शोक और शारीरिक श्रममें भिन्नता हैं। शोक मनुष्यका शत्रु है और श्रम उसका मित्र है । मनुष्य अंम इसलिये करते हैं कि उनकी मानसिक शक्तियां उन्नत हों, जिससे कि वे भ्रमका मन्त कर सकें और सबको मच्छा परामर्श देसकें। वे तक्षशिला वासियोंसे सिकन्दरको स्वागत मित्ररूपमें करने के लिये
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सिकन्दर - आक्रमण व तत्कालीन जन साधु । [१९९ कहेंगे; क्योंकि अपने से अच्छा पुरुष यदि कोई चाहे तो उसे भलाई करना चाहिये ।"
इसके बाद उनने यूनान के तत्ववेत्ताओं में जो सिद्धान्त प्रच किते थे उनकी बाबत पूछा और उत्तर सुनकर कहा कि 'अन्य विषयों में यूनानियों की मान्यताएं पुष्ट प्रतीत होती हैं, जैसे अहिंसा म्यादि, किन्तु वे प्रकृति के स्थानपर प्रवृत्तिको सम्मान देनेमें एक बड़ी गलती करते हैं । यदि यह बात न होती तो वे उनकी तरह नग्न रहनेमें और संयमी जीवन विताने में संकोच न करते; क्योंकि वही सर्वोत्तम गृह है, जिसकी मरम्मत की बहुत कम जरूरत पड़ती है । उनने यह भी कहा कि वे (दिगम्बर मुनि) प्राकृतवाद, । ज्योतिष, वर्षा, दुष्काल, रोग आदिके सम्बन्ध में भी अन्वेषण करते हैं। जब वे नगर में जाते हैं तो चौराहे पर पहुंचकर सब तितरवितर होजाते हैं । यदि उन्हें कोई व्यक्ति मंगूर आदि फल लिये मिल जाता है, तो वह देता है उसे ग्रहण कर लेते हैं । उसके 1 बदले में वह उसे कुछ नहीं देते । प्रत्येक धनी गृहमें वह अन्तः
१- ऐड़० पृ० ७०-७१ सन्तोपी और संयमी जीवन वितानेकी शिक्षा देना, दूसरोंके साथ भलाई करनेका उपदेश देना और प्रवृतिको प्रधानता देना, जैन मान्यताका द्योतक है। २ इस उल्लेखसे उस समयके मुनियोंका प्रत्येक वियपूर्ण मिध्यात होना सिद्ध है । ३- आहार क्रियाका art किया गया है । नियत समयपर संघ भाहार के लिये नगर में जाता होगा और वहां चौराहेवर पहुंचकर east अलग २ प्रस्थान कर जोनी टीक ही है । ४-कैसे और कौनसा आहार वे ग्रहण करते है ? इस प्रश्न के उत्तर में महात्मा मन्दनीधने यह वाक्य कहे प्रगट होते है। जैन साधु को एक व्यक्ति भक्तिपूर्वक जो भी शुद्ध निरामिष भोजन देता है, उसे ही वह
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२००] संक्षिप्त जैन इतिहास । •पुर तक बिना रोकटोके जासक्त हैं | भाचार्य मन्दनीमने सिकन्दरके लिये यह भी उपदेश दिया था कि वह इन सांसारिक सुखोंकी आशामें पड़कर चारों तरफ क्यों परिभ्रमण कर रहा है ? उसके इस परिभ्रमणका कभी अन्त होनेवाला नहीं। वह इस पृथ्वी-पर अपना कितना ही अधिकार जमाले, किन्तु मरती बार उसके शरीरके लिये साडेतीन हाथ नमीन ही बात होगी।"
इन महात्माके मार्मिक उपदेश और जैन श्रमणोंकी विद्याका प्रभाव सिकन्दर पर बेढब पड़ा था। उसने अपने साथ एक साधुको भेजनेकी प्रार्थना संघनायकसे की थी; किन्तु संघनायकने यह बात अस्वीकार की थी। उन्होंने इन जैनाचार हीन विदेशियों के साथ -रहकर मुनिधर्मका पालन अक्षुण्ण रीतिसे होना अशक्य समझा था । यही कारण है कि उनने किसी भी साधुको यूनानियोंके साथ जानेकी माज्ञा नहीं दी। किन्तु इसपर भी मुनि कल्याण (अलॉनस) धर्मप्रचारकी अपनी उलट लगनको न रोक सके और वह सिक-न्दरके साथ हो लिये थे। उनकी यह किया संघनायकको पसंद न * आई और मुनि कल्याणकको उनने तिरस्कार दृष्टि से देखा था। ____ भारतसे लौटते हुये जिप्ससमय सिकन्दर पारस्यदेशमें पहुंचा; कलोनसको विदेशमें तो वहाक सुसा (Susa) नामक स्थानमें
समाधिमरण। इन महात्मा कलानसको एक प्रकारकी व्याधि जो अपने देशमें कभी नहीं होती थी होगई। इस समय ग्रहण करते हैं। उसके बदलेमें वह उसे कुछ भी नहीं देते । भोजनके नियममें वे भक्तजनका कोई भी उपकार नहीं करते। : .१-ऐइ० पृ. ७३ । २-जैसि भा०, मा० १ कि० ४ पृ० ५।
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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु। [२०१ -वह तेहत्तर वर्षके वृद्ध थे । और फिर रुग्णदशामें उनके लिये . जैनधर्मकी प्रथानुसार प्रवृत्ति करना और धर्मानुकूल इन्द्रियदमनकारी भोजनों द्वारा रोगी शरीरका निर्वाह करना असाध्य होगया था। इसलिये उन्होंने सल्लेखना व्रतको ग्रहण कर लेना उचित समझा। यह व्रत उसी असाध्य अवस्थामें ग्रहण किया जाता है, जबकि व्यक्तिको अपना जीवन संकटापन्न दृष्टि पड़ता है। मुनि कल्याणकी शारीरिक स्थिति इसी प्रकारकी थी। उनने सिकन्दर पर अपना अभिप्राय प्रकट कर दिया । पहिले तो सिकंदर राजी न हुआ; परंतु महात्माको मात्मविर्सन करने पर तुला देखकर उसने समुचित -सामग्री प्रस्तुत करनेकी माज्ञा दे दी । पहिले एक काठकी कोठरी बनाई गई थी और उसमें वृक्षोंकी पत्तियां विछा दीगई थीं। इसीकी छनपर एक चिता वनाई गई थी। सिकन्दर उनके सम्मानार्थ अपनी सारी सेनाको सुसज्जित कर तैयार होगया। बीमारीके कारण महात्मा फलानस बड़े दुर्वल होगये थे। उनको लाने के लिये एक घोड़ा भेजा गया; किन्तु जीवदयाके प्रतिपालक वे मुनिराज उस घोड़े पर नहीं चढ़े और भारतीय ढंगसे पालकी में बैठकर वहां आ गये। वह उस कोठड़ीमें उनकी व्यवस्थानुसार बन्द कर दिये गये । थे। अन्तमें वह चितापर विराजमान हो गये। चितारोहण करती चार उनने जैन नियमानुसार सबसे क्षमा प्रार्थनाकी भेंट की। तथा धामिक उपदेश देते हुये केशलोच भी किया।
१-ऐइ०, पृ० ७३॥ २-केशलोच करना, जैन मुनियों का खास नियम . है। यूनानियोंने मुनि कल्याणके अंतिम समयका वर्णन एक निश्चित रूपमें नहीं दिया है । चितापर बैठकर समाधि लेना जैन दृष्टिसे ठीक नहीं है। सम्भवतः अपने शवको जलवानेकी नियतसे मुनि कल्याणने ऐसा किया हो।
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२०२]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
उससमय सिकन्दरको यह दृश्य मर्मभेदी प्रतीत हुआ; तो भी उसने अपनी भक्ति दिखानेके लिए अपने सभी रणवाद्य बजवाये और सभी सैनिकों के साथ शोकसूचक शब्द किया तथा हाथियोंसे भी चिंघाड करवाई | सिकन्दर उनके निकट मिलने के लिये भी आया; किंतु उन्होंने कहा कि " मैं अभी आपसे मुलाकात करना नहीं चाहता; अब शीघ्र ही आपसे मुझे भेंट होगी ।" इस कथनका भावार्थ उस समय कोई भी न समझ सका; परन्तु कुछ समय के बाद जब सिकन्दर कालकवलित होनेके सम्मुख हुआ तो म० कलॉनसके इस भविष्यद्वक्तृत्व शक्तिकी याद सबको होमाई । ' उस चिताकी धधकती हुई विकराल ज्वालामें महात्मा कलोनसका शरीरान्त हो गया था । इन जैनसुनिने विदेशियोंके हृदयों पर कितना गहरा प्रभाव जमा लिया था, यह प्रकट है। सचमुच यदि वह यूनान पहुंच जाते तो वहां पर एकवार जैन सिद्धांतों की शीतलऔर विमल जान्हवी बहा देते !
SRB
१-म० कलॉनसके भविष्यद्वक्तत्वके इंस उदाहरणसे उनको अपने
•
अंतिम समयका ज्ञान हुआ मानना कुछ अनुचित नहीं जंचता और वह चितापर ठीक उसी समय बैठे होंगे; जिस समय उनके प्राण पखेरूः इस नश्वर शरीरंको छोडने लगे होंगे । २ - जैसि मा० भा० १ किं०
०७-८
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vie
श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [ २०३
(११) श्रुतकेवली महावाहुजी और
अन्य आचायें।
(ई० पृ० ४७३-३८३) जम्बूस्वामी अंतिम केवली थे । इनके बाद केवलज्ञान-सूर्य श्री भवानीको इस उपदेशमै अस्त होगया था, परन्तु पांच __ समय। मुनिराज श्रुतज्ञानके पारगामी विद्यमान रहे थे। यह नंदि, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु नामक थे।' नंदिके स्थानपर दूसरा नाम विष्णु भी मिलता है। यह पांचों मुनिराज चौदह पूर्व और बारह अंगके ज्ञाता श्री नम्बूस्वामी के बाद सौ वर्षमें हुए बताये गये हैं और इस अपेक्षा अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी ई० पू० ३८३ अथवा ३६६ तक संघाधीश रहे प्रगट होते हैं । किन्तु अनेक शास्त्रों और शिलालेखोंसे यह भद्रबाहुत्वामी मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तके समकालीन प्रगट होते हैं,
और चन्द्रगुप्तका समय ई० पू० ३२६-३०२ माना जाता है।.. अब यदि श्री भद्रबाहुस्वामीका अस्तित्व ई० पू० ३८३ या ३६६ के बाद न माना जाय तो वह चन्द्रगुप्त मौर्यके समकालीन नहीं होसक्ते हैं।
'उघर तिलोयपण्णति' जैसे प्राचीन ग्रन्थों से प्रमाणित है कि. भगवान महावीरनीके निर्वाण कालसे २१५ वर्ष (पालकवंश ६०
१-तिल्लोयपण्णति गा० ७२-७४ । २-श्रुतावतार कथा पृ० १३ व अंगपण्णति गा० ४३-४४। -जैसि भा०, भा० कि० १-
भवणं वे पृ० ३५-४०१४-जविओसी० मा० १ पृ. १५६॥
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२०४] संक्षिप्त जैन इतिहास । वर्ष+नन्दवंश १५५) बाद मौर्यवंशका मभ्युदय हुआ था। श्वेतावर पट्टावलियोंसे सम्राट चन्द्रगुप्तका वीर निर्वाणसे २१९ वर्ष बाद ई० पू० ३२६ या ३२५ के नवम्बर मातमें सिंहासनारूढ़ होना प्रगट है। इस प्रकार चन्द्रगुप्तका राज्यारोहण काल जो ३२६ ई० पू० अन्यथा माना जाता है, वह जैन शास्त्रोंके अनुसार भी ठीक बैठता है । अतएव थी भद्रबाहु स्वामीका अस्तित्व ई० पू० ३८३ था ३६९ के बाद मानना समुचित प्रतीत होता है । जैन . शास्त्रोंसे प्रकट है कि भद्र बाहुस्वामीके ही जीवनकालमें विशाखाचार्य नामक प्रथम दशपूर्वीका भी अस्तित्व रहा था। इस श्लोकमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही संप्रदायके ग्रंथोंसे भद्रबाहु और चंद्रगुप्त प्रायः समसामयिक सिद्ध होते हैं। पहिलेके चार श्रुतकेवलियोंके विषयमें दिगम्बर जैन शास्त्रों में
कुछ भी विशेष वर्णन नहीं मिलता है। हां, भद्राहुका चरित्र। भद्रबाहके विषयमें उनमें कई कथायें मिलती हैं। श्री हरिपेणके 'वृहत्कथाकोष (सन् ९३१ ) में लिखा
-तिप० गा० ९५-९६ । २-ईऐ० भा० ११ पृ० २५१ । ३-दिगम्बर जैनप्रन्थोसे प्रगट है कि भद्रबाहुस्वामी चन्द्रगुप्त सहित कटिपर्व नामक पर्वतपर रह गये थे और विशाखाचार्यके आधिपत्यमें जैनसंघ चोलदेशको चला गया था। उधर श्वेताम्बरोंकी भी मान्यता है कि भद्रबाहु अपने अन्तिम जीवनमें नेपालमें जाकर एकान्तवास करने लगे थे और स्थूलभद्र पट्टाधीश थे । (परि० पृ० ८७-९०) अतः निस्संदेह भद्रवाहुजीके जीवनकाल में ही उनके उत्तराधिकारी होना और उनका ई० पू० ३८३ के वादतफ जीवित रहना उचित जंचता है। २९ वर्ष तक वे पट्टपर रहे प्रतीत होते है और फिर मुनिशासक या उपदेशक -रूपमें शेष जीवन व्यतीत किया विदित होता है। ४-जेशिसं०, पृ०६६ !
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श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [२०५है कि पौण्ड्वर्द्धन देश देवकोट्ट नामक ग्राम था; निसको प्राचीन समयमें 'कोटिपुर' कहते थे । यहां पद्मस्थ राना राज्य करता था। पद्मस्थका पुरोहित सोमशर्मा था। उसकी सोमश्री नामक पत्नीके गर्भसे भद्रवाहका जन्म हुआ था । एक दिन जब भद्रबाहु खेल रहे थे, चौथे श्रुतकेवळी गोवर्द्धनस्वामी उपर आ निकले और यह देखकर कि भद्रबाहु पांचवें श्रुतकेवली होंगे, उन्होंने भद्रबाहुके माता-पिताकी अनुमतिसे उन्हें अपने संरक्षणमें ले लिया | भद्रवाह अनेक विद्यायों में निष्णात पंडित होगये। वे गोवर्द्धन नदीके किनारे एक वागमें ठहरे थे। उस समय उज्जनमें जैन श्रावक चंद्रगुप्त राना था और उसकी रानी मुप्रभा थी।
मिस समय भद्रबाहुम्वामी वहां नगरमें आहारके लिये गये, तो एक घरमें एक मकेला बालक पालने में पड़ा रोरहा था, उसने भद्रबाहुनीसे लौट जाने के लिये कहा । इससे उनने जान लिया कि उस देशमें बारह वर्षका मशाल पड़नेवाला है। यह जानकर उनने संघको दक्षिण देशकी ओर जानेकी आज्ञा दी और स्वयं उनके. निकट भद्रपाद देशमें जाकर समाधिलीन होगये । राजा चंद्रगुप्तने भी अकालकी बात सुनकर भद्रबाहुके निकट दीक्षा ग्रहण कर ली थी। उन्हींका नाम विशाखाचार्य रक्खा गया था और वे संघाधीश होकर दक्षिणकी ओर पुन्नाट देशको संघ लेगये थे। जब वारह वर्षका अकाल पूर्ण हुआ तब वे संघसहित लौटकर मध्यदेशमें आगये थे। श्री रत्ननंदिनीके 'भद्रबाहु चारित्र ! में भी ऐसा ही वर्णन है, परंतु उसमें थोड़ासा अन्तर है । इसके अनुसार .
1-अहि. भा० १४ पृ० २१७१ श्रव० पृ० २७। । ।
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२०६] संक्षिप्त जैन इतिहास । सम्राट् चंद्रगुप्तने भद्रबाहुस्वामीसे सोलह स्वप्नोंका फल पूछा था; जिसे सुनकर वह मुनि होगये थे। ___बारह वर्षका अकाल जानकर सब दक्षिणको चले गये थे। इस चारित्रमें भद्रबाहुनीको भी संघके सहित दक्षिणकी ओर गया लिखा है परंतु मार्गमें अपना अन्तसमय सन्निकट जानकर उनने संघको चोलदेशकी ओर भेज दिया था और स्वयं चंद्रगुप्ति मुनिके साथ वहीं रह गये थे। वहींपर उनका स्वर्गवास हुआ था। चंद्रगुप्ति मुनि कान्यकुब्जको चला आया था। कनड़ी भाषाके दो ग्रंथ 'मुनिवंशाभ्युदय' (१६८० ई.) और " राजापलीकथे" (१८३८ ई०)में भी भद्रबाहुका वर्णन मिलता है । पहिले ग्रन्थसे यह स्पष्ट है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु श्रमणवेकगोला तक आये थे
और वहांके चिक्कोट्ट (पर्वत) पर रहे थे । एक व्याघके पाक्रमणसे उनका शरीरान्त हुआ था । जनाचार्य महद्वलिकी आज्ञासे दक्षि। णाचार्य भी यहां दर्शन करने आये थे। उनका समागम चन्द्रगुप्तसे हुमा था, जो यहां यात्राके लिये भाया था। इस अन्य के अनुसार चंद्रगुप्तने दक्षिण आचार्यसे दीक्षा ग्रहण की थी। मालूम ऐसा होता है कि इस ग्रन्थके रचयिताने द्वितीय भद्रबाहुको चन्द्रगुप्तका समकालीन समझा है। यही कारण है कि वह मईद्वलि आचार्यका माम ले रहा है। किंतु चंद्रगुप्त के समकालीन द्वितीय भद्रबाहु नहीं होसक्ते । उनके समयमें किसी भी चन्द्रगुप्त नामक राजाका अस्तित्व भारतीय इतिहासमें नहीं मिलता। 'राजावलीये में यह विशेषता है कि उसमें चंद्रगुप्त पाटलिपुत्रका राजा प्रगट किया गया है।
१-भरबाहु चरित्र पृ० ३१:३५ प ४५...
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श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य । [२०७ वास्तव में मौर्य साम्राज्यकी दो राजधानियां उज्जैनी और पाटलिपुत्र प्रारम्भसे रहीं हैं । अतएव जैन कथाकारोंने अपनी रुचिके अनुसार दोनोंमेंसे एक का उल्लेख समय पर किया है । इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्तके पुत्र का नाम सिंहसेन लिखा है; जिसे राज्य देकर चन्द्रगुप्त सुनि होगये थे और भद्रबाहुजीके साथ दक्षिणको चले गये थे । एक पर्वतपर भद्रबाहुनी और चन्द्रगुप्त रहे थे । शेष संघ चोलदेशको चला गया था । तामिलभाषाके "नाल डियार" नामक नीतिकाव्यसे भी दक्षिणके पांड्य देशतक इस संघका पहुंचना प्रमाणित है । इस नीतिकाव्यकी रचना इस संघके साधुओं द्वारा हुई कही जाती है। पांड्य राजाने इन जैन साधुओंका बड़ा आदर और सत्कार किया था । वह इनके गुणोंपर इतना मुग्ध था कि उसने सहसा उन्हें उत्तरापथकी ओर जाने नहीं दिया था ।
आज भी अर्काट जिलेमें 'तिरुमलब' नामक पवित्र जैनस्थान उत्तर भारत से जैनसंघ आनेकी प्रत्यक्ष साक्षी देरहा है। यहांपर पर्वतके नीचे अनेक गुफायें हैं। एक गुफा विद्याभ्यासके लिये है, जिनमें जम्वृद्वीप व्यादिके नक्शे बने हुए हैं। यह प्रसिद्ध है कि भद्रबाहु के मुनिसंघवाले वारह हजार मुनियोंमेंसे आठ हजार मुनियोंने यहां आकर विश्राम किया था । पतिपर डेढ़फुट लम्बे चरणचिन्ह उसकी प्राचीनता स्वयं प्रमाणित करते हैं । सचमुच उससमय और उससे बहुत पहले से चोल, पांड्य आदि देशों का अस्तित्व और उनकी ख्याति दूर २ देश देशांतरों में होगई---
१४.१० / ३३२ ।
१० प्र० पृ० ३०-३२ । २- जैहि० भा० ३- प्रमेप्राजेस्मा० पृ० ७४ ।
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२०८] संक्षिप्त जैन इतिहास। थी।' दक्षिण भारतके इन देशोंका व्यापार एक अतीव प्राचीनकालसे देश-विदेशोंसे होता रहा है। जैनधर्मकी व्यापकता भी यहां भगवान पार्श्वनाथनीसे पहलेकी थी ! अतएव उत्तर भारतसे जैन संघका दक्षिणकी ओर जाना एक निश्चित और अभ्रांत घटना है। ___ उपरोक्त चरित्रोंमें यद्यपि किंचित् परस्पर विरोध है; किंतु जैन संघका दक्षिणको उन सबसे यह प्रमाणित है कि भद्रबाहुके प्रस्थान इत्यादि । समयमें जैन संघ दक्षिणको गया था और बारह वर्षका भीषण अकाल पड़ा था। इस बातपर भी वे करीब २ सहमत हैं कि जिन भद्रबाहुका उल्लेख है, वह अंतिम श्रुतकेवली हैं और उनके शिष्य एक राजा चन्द्रगुप्त अवश्य थे, जो उज्जैनी और पाटलिपुत्रके अधिकारी थे अर्थात उनके यह दो राजकेन्द्र थे । यह चंद्रगुप्त इसी नामके प्रख्यात् मौर्य सम्राट हैं। हां, इस बातसे हरिपेगनी, जो अन्य कथाकारोंमें सर्व प्राचीन हैं, सहमत नहीं हैं कि भद्रबाहुनी संघके साथ दक्षिणको गये थे । श्वेतांबर मान्यताके अनुसार भी उनका दक्षिणमें जाना प्रकट नहीं है। उसके अनुसार भद्रबाहुनीका अंतिम जीवन नेपालमें पूर्ण हुआ था; किंतु यह संशयात्मक है कि यह वही भद्रबाहु हैं जिन भद्रबाहुको वह नेपालमें गया लिखते हैं।
जो हो, उपरोक्त दोनों मतोंसे प्राचीन शृंगापटम्के दो शिलालेख इस बात के साक्षी हैं कि भद्रबाहुस्वामी चन्द्रगुप्त के साथ श्रव
१-कात्यायन (६० पू०.४००)को, चोल, माहिष्मत और नासिक्यका ज्ञान था। पातलि (ई० पू० १५० ) समप्र भारतको जानता था। २-जमैसो० भा० १ ० ३०८-३२० । ३-भपा० पृ० २३४-२३६ ॥
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श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य । [ २०९.
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चेकगोलमें चन्द्रगिरि पर्व पर आये थे। इनसे भी प्राचीन शिला-लेख चंद्रगिरिपर नं० ३१ वाला है । उसमें भी इन दोनों महात्माओं का उल्लेख है।' इस दशामें भद्रबाहुनीका श्रवणबेलगोल में पहुंचना, कुछ अनोखा नहीं जंचता । हरिषेणज़ोने शायद दूसरे भद्रबाहूकी घटनाको इनसे जोड़ दिया होगा; क्योंकि प्रतिष्ठानपुर के द्वितीय भद्रबाहु का भाद्रपाद देशमें स्वर्गवास प्राप्त करना बिल्कुल संभव है । अतएव प्रथम भद्रबाहुनीका समाधिस्थान श्रवणबेलगोल मानना और उनके समय में ही प्रथम दशपूर्वी को रहते स्वीकार करना उचित है ।
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श्वेतांबर संप्रदाय के अनुसार श्री जम्बूस्वामीके उपरांत एक. प्रभव नामक महानुभाव उनके उत्तराधिकारी श्वेताम्बर पट्टावली | और प्रथम श्रुतकेवली हुये थे । यह वही चोर थे, जिनने अवुद्ध होकर श्री जम्बूस्वामीके साथ दीक्षा ग्रहण की थी । श्वेतांबरोंने प्रभवको जयपुर के राजाका पुत्र लिखा है, जो बचपन से ही उद्दण्ड था । राजाने उसकी उद्दण्डतासे दुखी होकर अपने देश से निकाल दिया था और वह राजगृहमें चौर्य कर्म करके जीवन व्यतीत करता था । ' दिगम्बर जैन ग्रन्थों में भी विद्युच्चर चोरको एक राजाका पुत्र लिखा है । किन्तु उसे वे जम्बूस्वामीका उत्तराधिकारी नहीं बताते हैं । समझमें नहीं आता कि जब दिगम्बर और श्वेताम्बर भेदरूप दीवालकी जड़ भद्रबाहु श्रुतके वली के समय में पड़ी थी, तब उनके पहिले हुये श्रुतकेवलियोंकी गणना में
१-प्रव०, पृ० ३३-३४ । २- परि०, पृ० ४२-५० वा०,
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वीर, भा० १ पृ० ३ । ३ - उपु०, पृ० ७०३
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२१० ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
दोनों सम्प्रदायों में क्यों मतभेद है ? जो हो, श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रथम श्रुतकेवली प्रभव हैं । वह चवालीस वर्षतक सामान्य मुनि रहे थे और उनने ग्यारह वर्षतक पट्टाधीश पदपर व्यतीत किये थे । उनने राजगृह के वत्सगोत्री यजुर्वेदीय यज्ञारंभ करनेवाले शिय्यंभव नामक ब्राह्मणको प्रबुद्ध किया था और वही इनका उत्तराधिकारी हुआ था | श्री प्रभवस्वामीने ८५ वर्षकी अवस्था में वीर नि० सं० ७५ में मुक्त पद पाया था । श्री शिय्यंभव अट्ठाइस वर्षकी उमर में जैन सुनि हुये थे । ग्यारह वर्षेतक प्रभवस्वामी के शिष्य रहकर वह पट्टपर आरूढ़ हुये थे । तेईस वर्षतक युगप्रधान पद भोगकर ६२ वर्षकी अवस्थामें वीर नि० सं० ९८ में स्वर्गवासी हुये थे । इनने अपने छै वर्षके बालक पुत्रको दीक्षित किया था और उसके लिये दशवैकालिकसूत्रकी रचना की थी।
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I ।
इनके उत्तराधिकारी श्री यशोभद्रनी थे । यह तुंगीकायन गोत्र थे और गृहस्थी में बाईस वर्षतक रहकर जैन मुनि हुये थे । छत्तीस वर्षके हुये तव यह पट्टाधिकारी होकर पचास वर्षतक इस पदपर विभूषित रहे थे । वीरनिर्वाणसे एकसौ व्यालीस वर्षोंके बाद यह तीसरे श्रुतकेवही स्वर्गवासी हुये थे। इनके उत्तराधिकारी श्री संभूतिविजयसूरि थे; जिनके गुरुभाई श्री भद्रबाहु स्वामी थे । इस प्रकार श्वेताम्बर चौथे और पांचवें श्रुतके वलियोंको समकालीन प्रगट करते हैं। वह कहते हैं कि संभूतिविजयसुरि तो पट्टाधीश थे और भद्रबाहुस्वामी गच्छकी सारसंभाल करनेवाले थे । संमूर्ति
१ - जेसा० भा० १ वीरवं० पृ० ३ व परि० पृ० ५४... २ - जैसा० भा० १ षीरंवं० पृ० ४ व परि० पृ० ५८ ।
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श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [२११ विजय मादर गोत्रके थे । जब वे ४२ वर्षके थे, तब उनने मुनिदीक्षा ग्रहण की थी। ८६ वर्षकी उमरमें वह युगप्रधान हुये थे
और केवल आठ वर्ष इस पदपर रहकर वी० नि० सं० १५६ में स्वर्गवासी हुये थे।
संभूति विजयके स्वर्गवासी होनेपर भद्रवाहस्वामी संघाधीश ताम्वर शालों में हुए थे। जब वह बयालीस वर्षके थे, तब श्री श्री भद्रवाहु। यशोभद्रसुरिने उनको जैन मुनिकी दीक्षा दी थी। यशोभद्रकी उन्होंने १७ वर्ष तक शिष्यवत् सेवा की थी। फिर वह युगपधान हुए थे और इस पदपर चौदह वर्षतक आसीन रहे थे। वीर निर्वाणसे १७० वर्ष बाद उनका स्वर्गवास हुआ था' उनके उत्तराधिकारी स्थूलभद्र हुए थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार यद्यपि श्रुतकेवलियोंकी नामावलीमें परस्पर मन्तर है; किन्तु वह दोनों ही भद्रबाहुको अंतिम श्रुतकेवली स्वीकार करते हैं । श्वेतांबर केवल इन्हीं एक भद्रबाहु का उल्लेख करते हैं
और इन्हें प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिरका भाई व्यक्त करते हैं। उनके अनुसार इनका जन्मस्थान दक्षिण भारतका प्रतिष्ठानपुर है।
-पूर्व प्रमाण । २-जैसासं० भा० । वीरवं० प्र० ५ व परि० पृ० ८७.। यद्यपि हेमचन्द्राचार्यने वीर निर्वाण १७० वर्ष बाद भद्रबाहूका स्वर्गवास हुआ लिखा है, परन्तु वह ठीक नहीं प्रतीत होता; जैसे कि पहिले लिखा जाचुका है। उनने स्वयं उनका स्वर्गवास मौर्य सम्र विन्दुपारका वर्णन कर चुकने पर लिखा है । दिगम्बर मतमें वीर नि० से १६२ वर्ष श्रुतकेवलियोंका होना लिखा है। इससे भी यही भाव लिया जाता है कि इस समयमें ही भद्रवाहुका स्वर्गवास होगया था; किन्तु यह मानना . ठीक नहीं जंचता । इस समय वह संघनायक पदसे.विलग होगये होंगे
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२१२] ... संक्षिप्त जैन इतिहास । . और वह इनका गोत्र प्राचीन बतलाते हैं; जो विलकुल अश्रुतपूर्व है और उसका स्वयं उनके ग्रन्थोंमें अन्यत्र कहीं पता नहीं चलता है। वराहमिहिरका अस्तित्व ई० सन्के प्रारम्भसे प्रमाणित है। इस अवस्था, श्वेतांबरोंकी मान्यताके अनुसार भद्रबाहुका समय भी ज्यादासे ज्यादा ईस्वीके प्रारम्भमें ठहरता है; जो सर्वथा असंभव है। मालूम ऐसा होता है कि प्रथम भद्रबाहु और द्वितीय भद्रबाहु दोनोंको एक व्यक्ति मानकर द्वितीय भद्रबाहुकी जीवन घटनाओंको प्रथम भहुबाहके जीवन में जा घुसेड़नेकी भारी भूल करते हैं। 'कल्पसूत्र' इन्हीं भद्रबाहुका रचा कहा जाता है। आवश्यक सूत्र, उत्तराध्ययनसुत्र, मादिकी निरुक्तियां भी इन्हींकी लिखीं मानी जाती हैं; किंतु वह भी ई०के प्रारम्भमें हुए भद्रबाहुकी रचनायें प्रगट होती हैं, जैसेकि महामहोपाध्याय डा. सतीशचंद्र विद्याभूषण मानते हैं। मालूम यह होता है कि श्वेताम्बरोंको या तो भद्रबाहु श्रुतकेवलीका विशेष परिचय ज्ञात नहीं था अथवा वह जानबूझकर उनका वर्णन नहीं करना चाहते हैं। क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहुने उस संघमें भाग
और फिर उपदेशक रूपमें रहे होंगे। श्वे. मान्यतासे उनकी आयु. १२६ वर्ष प्रगट है । यदि उन्हें ४० वर्षकी उनमें भाचार्य पद मिला मानें तो ६५ वर्षकी आयुमें वे आचार्य पदसे अलग हुये प्रगट होते हैं। शेष आयु उनने मुनिवत विताई थी और इस कालमें वे चंद्रगुप्तकी सेवाको पा सके :
१-जैसासं० भा०१ वीर पं० पृ० ५ व परि० पृ० ५८ ॥ २-उसू० भूमिका पृ० १३ । ३-डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषणने इस्वी प्रारम्भमें बराहमिहिरका अस्तीत्व माना है (जैहि० भा०८ पृ० ५३२) किन्तु कर्न आदी छठी शताब्दीका मानते हैं । ४-हिष्टी आफ मेडिविल इण्डीयन लाजिक, 'जैहि० मा० ८ पृ० ५३१ ।'
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श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [ २१३ नहीं लिया था, जिसको श्वेताम्बराचार्य स्थूलभद्रने एकत्र किया था। 'श्री संघके बुलानेपर भी वे पाटलिपुत्र को नहीं आये जिसके कारण श्री संघने उन्हें संघबाह्य कर देनेकी भी धमकी दी थी।'* इसके विपरीत दिगम्बर जैनी भद्रबाहु श्रुतक्षेवलीका वर्णन बड़े गौरव और महत्वशाली रीतिसे विशेष रूपमें करते हैं। श्वेतांवरोंने उनको प्राचीन गोत्रका वतलाकर दिगम्बर मान्यताकी पुष्टि की है; जो निग्रंथ ( नग्न ) रूपका भद्रबाहुके समान आर्षमार्गका अनुगामी है।
श्वेतांबरोंने स्थूलभद्रकी अध्यक्षता स्वीकार करके सवस्त्र भेषको मोक्षलिङ्ग माना है और पुरातन नियमों एवं क्रियाओंमें अंतर डाल लिया है । वप्त वह प्राचीन 'भद्रबाहु' को विशेष मान्यता न देते हुये भी अपने अंग Jथों और भाष्योंको पुरातन और प्रामाणिक सिद्ध करने के लिये और ईस्वीसन के प्रारम्भवाले भद्रबाहुको प्राचीन भद्रबाहु व्यक्त करनेके मावसे, केवल उन्हींका वर्णन करते हैं। दुसरे भद्रबाहुके विषयमें वह एकदम चुप हो जाते हैं, किंतु वह अपने आप उनको वराहमिहिरका समकालीन वताकर उनकी अर्वाचीनता स्पष्ट कर देते हैं।
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: १-उसु० भूमिका, पृ० १४ । * परि० व जेशिसं० पृ० ६७ ।
२-एक जैन पावलीमें एक तीसरे भद्रवाहुका उल्लेख है और उनका “समय ईसवीकी प्रारम्भिक शताब्दियां है। उनके एक शिष्य द्वारा श्वेतार घर संप्रदायकी उत्पत्ति होना लिखा है। संभव है, श्वेतांवरोंके द्वितीय भद्रबाहु यही हो; जिनका उन्हें पता नहीं है । (ऐ० भा० २१ पृ०५८) मसाइ० पृ० २४-२५। .. .. . . . . . .
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२१४] संक्षिप्त जैन इतिहास ।। श्रुतकेवली भद्रबाहुके जीवनकी सबसे बड़ी घटना उत्तर
भेत भारतमें घोर दुष्काल पड़नेकी वजहसे जनसंघके स्थापना। दक्षिण भारतकी ओर गमन करनेकी है । इस घटनाका अंतिम परिणाम यह हुआ था कि जैन संघके दो भेदोंकी जड़ इसी समय पड़ गई । बारह वर्षका अकाल जानकर श्री विशाखाचार्यकी अध्यक्षतामें संपूर्ण संघ दक्षिणको गया, किंतु स्थूलभद्र
और उनके कुछ साथी पाटलिपुत्रमें ही रह गये थे। घोर दुष्कालके विकराल कालमें ये पाटलिपुत्रवाले जैन मुनि प्राचीन क्रियायोंको पालन करनेमें असमर्थ रहे । उन्होंने आपदरूपमें किंचित वस्त्र भी अहण कर लिये और मुनियोंको अग्राह्य भोजन भी वे स्वीकार करने लगे थे।
निस समय विशाखाचार्यकी प्रमुखतावाला दक्षिण देशको गया हुमा संघ सुभिक्ष होनेपर उत्तरापथकी ओर लौटकर आया
और उसने पीछे रहे हुये स्थुलंभद्रादि मुनियों का शिथिलरूप देखो तो गहन कष्टका अनुभव किया। विशाखाचार्यने स्थूलभद्रादिसे प्रायश्चित्त लेकर पुनः आर्ष मार्गपर आजानेका उपदेश दिया; किंतु होनीके सिर, उनकी यह सीख किसीको पसंद न आई । स्थूलभ
की अध्यक्षतामें रहनेवाला संघ अपना स्वाधीन रूप बना बैठा और वह पुरातन मूल संघसे प्रथक होगया। यही संघ कालांतरमें श्वेतांव' श्रव० ३९-४०; उसू० भूमिका पृ०१५-१६ व ऐइ जै० पृ०
१. में श्वे० बिद्वान श्री पूर्णचेंन्द्र नाहरने भी यही लिखा है। हार्णले 'वे ल्युमन ग्रा० भी इसे कथाको मान्यता देते है (Vionha oriental gournol, VII, 382 व ईऐ• २१॥५९-६०।
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श्रुतकेवली भद्रवाह और अन्य आचार्य । [ २१५
रानायके रूप में परिवर्तित हुआ । जैसे कि अगाड़ी लिखा गया है। जिस पुरातन संघके प्रधान पहिले 'प्राचीन' भद्रबाहु थे और फिर उनके उत्तराधिकारी विशाखाचार्य हुये, वह अपने सनातन स्वरू पमें रहा और आर्ष रीतियों का पालन करता रहा। यही आजकल दिगम्बर सम्प्रदाय के नामसे विख्यात् है ।
स्थूलभद्रादिका संघ, जब मूलसंघसे पृथक् होगया; तो प्राकृत उसे अपने धर्मशास्त्रोंको निर्दिष्ट करनेकी
श्रुतज्ञानकी विक्षिप्ति ।
आवश्यक्ता हुई। दुकालकी भयंकरता में श्रुतज्ञान छिन्नभिन्न होगया था । भद्रबाहुके समय तक तो जैनसंघ एक ही था; किन्तु उनके बाद ही जो उसमें उक्त प्रकार दो भेद हुये जिसके कारण श्रुतज्ञानका पुनरुद्धार होना अनिवार्य हुआ । दिगम्बर जैनोंका मत है कि इस समय समस्त द्वादशांग ज्ञान लुप्त होगया था। केवल दश पूर्वोके जानकार रह गये थे। किन्तु श्वेतांबरों की मान्यता है कि पाटलिपुत्र में जो संघ एकत्रित हुआ था और जिसमें भद्रबाहुने भाग नहीं लिया था, उसने समस्त श्रुतज्ञानका संशोधित संस्करण तैयार कर लिया था । स्थूलभद्रने पूर्वोका ज्ञान स्वयं भद्रबाहुस्वामी से प्राप्त किया था किन्तु उनको अंतिम चार अन्यों को पढ़ानेकी आज्ञा नहीं थी ।
इस प्रकार ग्यारह अङ्ग और दश पूर्वका उद्धार श्वेतांबरोंने कर लिया था; किन्तु उनके ये ग्रन्थ दि० जैनोंको मान्य नहीं थे । उनका विश्वास था कि पुरातन अंग व पूर्व ग्रंथ नष्ट होचुके हैं । केवळ दश पूर्वोका ज्ञान श्री विशाखाचार्य एवं उनके दश परम्परीण उत्तराधिकारियोंको स्मृतिमें शेष रहा था । दिगम्बर जैनोंकी इस
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२१६ संक्षिप्त जैन इतिहास । मान्यताकी पुष्टि जनसम्राट् खारवेलके हाथीगुफाबाले प्राचीन शिलालेखसे भी होती है, जिसमें लिखा है कि श्रुतज्ञान मौर्यकाल में लुप्त होगया था, उसका पुनरुद्धार करने के लिये सम्र टू खारवेलने ऋषियोंकी एक सभा बुलाई थी और उसमें अवशेष उपलब्ध अङ्ग ग्रंथोंका संग्रह करके श्रुत विच्छेद होनेसे बचा लिया गया था। यह समय अंतिम दश पूर्वोके अंतिम जीवनकालके लगभग बैठता है और इसके बाद दिगम्बर जैनोंके भनुमार ग्यारह अंगधारी मुनियोंगा अस्तित्व मिलता है।।
यद्यपि #नशास्त्रों में सम्राट खारवेल और उनके उपरोक्त प्रशस्त कार्यका उल्लेख कहीं नहीं है; किन्तु उक्त प्रकार दशपूर्वियोंके बाद ग्यारह अंगधारियों का अस्तित्व मानकर अवश्य ही दिगम्बर जैन मान्यता इस बातका समर्थन करती है कि इस समय अंग ग्रंथों का उद्धार किन्हीं महानुभावों द्वारा हुगा था । इस दशामें श्वेताम्बर संप्रदायके मतपर विश्वाप्त करना जरा कठिन है जो दृष्टिव द अंगके अतिरिक्त शेष समूचे श्रुतज्ञानका मस्तित्व आज भी मानता है।
श्वेतांबर ग्रन्थोंमें स्थूलभद्को अतिम नन्दराजाके मंत्री शकताचार्य डालका पुत्र लिखा है। जिस समय शिक्षा पाकर,
स्थूलभद्र। यह घरको लौटे तो उनके पिताने उन्हें एक वेश्याके सुपुर्द कर दिया। उसके पास रहकर स्थूलभद्र दुनियादारीके कामोंमें दक्षता पाने लगे। वेश्याके यहां रहते हुये बहुत समय व्यतीत होगया और इसमें धन भी बहुत खर्च हुआ। इनके छोटे भाई श्रीयकको अपने पिताकी यह लापरवाही पसंद न भाई। - १-जविओसो, भा० १३ १० २३६. . . ..
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श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [२१७ उसने पिताके जीवनका अन्त करना ही उचित समझा | स्थूलभद्रको इस घटनासे संवेगका अनुभव हुआ और वह तीस वर्षकी अवस्थामें मुनि होगये । चौवीस वर्षतक उन्होंने श्री संभूतिविनयकी सेवा की और उनसे चौदह पूर्वोको सुनकर, उनने दशपूर्वो का अर्थ ग्रहण किया। संभृतिविजयके उपरांत वे युगप्रधान पदके अघिकारी हुये और इस पदपर ४५ वर्ष रहे। वीरनिर्वाण सं० २१५ में स्वर्गलाम हुआ कहा जाता है। इन्हीक समयमें अर्थात वीर नि० सं० २१४में तीसरा निहन्व (संघभेद) उपस्थित हुमा कहा जाता है। यह अपाढ़ नामक व्यक्ति द्वारा स्वेतिका नगरीमें घटित हुआ था; किंतु वह मौर्यबलभद्र द्वारा राजगृहमें सन्मार्ग पर ले आया गया लिखा है।
१-जैसास०, भा० १ वीर पृ० ५-६; किन्तु श्वेतांबरोंकी दूसरी मान्यताके अनुसार स्थूलभद्रने दश पूर्वोका अर्थ भद्रबाहुस्वामीसे प्रहण किया था और वह उनके वाद ही पट्टपर आये होंगे। श्वेतांपरोंका यह भी मत प्रगट होता है कि स्यूलभद्र अंतिम श्रतकेंवली थे; किंतु उन्हींकी मान्यतासे भद्रवाहुका अंतिम श्रुतकेवली होना प्रगट है। (उसू० भूमिका --१०५४).० हेमचन्द्राचार्यने राज्योंकी काल गणनामें ६० वर्षकी भूल की
है; इसी कारण वी. नि. २१५ में स्थूलभद्रका अंतिम समय प्रगट किया गया है । २-ईऐ० भा० २१ पृ० ३३५.. ... ... .
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२१८] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
(१२) माय साम्राज्छ।
(ई० पूर्व० ३२६-१८८) सिकन्दर महानके आक्रमणके बाद मगधका राज्य नन्दवंशके.
. हाथसे जाता रहा था। ब्राह्मण चाणिक्यके चन्द्रगुप्त माय । सहयोगसे चंद्रगुप्त नामक एक व्यक्ति मगधका राजा हुआ था । जब ई० पूर्व ३२६ अक्टूबरको सिकन्दर महान् पंजाबसे वापिस हुमा, उस समय मगधमें नन्दराजा राज्य कर रहा था । किन्तु इसके एक महीने बाद अर्थात् ई० पूर्व ३२६ के नवम्बर मासमें चन्द्रगुप्तने मगधके राज्यपर अपना अधिकार जमा लिया था । यद्यपि यह निश्चय नहीं है कि चन्द्रगुप्तने पहिले पंजाब विजय किया था या मगधको अपने अधिकारमें कर लिया था, . किन्तु मालूम होता है कि उसने पहिले पंजाबको अपना मित्र बना लिया था और उसकी सहायतासे मगध जीता था। यूनानी लेखकोंके कथनसे सिकन्दरके लौटते समय चन्द्रगुप्तका पंजाबमें होना प्रमाणित है । सिकन्दर कामिनियामें था, तब ही भारतवासियोंने उसके यूनानी सुवेदार फिलिप्सकी जीवनलीला उस समयमें ही. समाप्त करके अपनी स्वाधीनताका बीज वो लिया था। 'मुद्राराक्षस' में जिस राना पवर्तककी हत्या होनेका बखान है वह यही फिलिप्स था । इस घटनामें अवश्य ही चंद्रगुप्तका हाथ था । इसप्रकार पंजाबवासियोंने चन्द्रगुप्तके निमित्तसे अपनेको विदेशी युना.
१-जविओसो० भाग १ पृ० ११२...पर्वतककी समानता यु दर्शाई गाई. है-पर्वतक परवओ=पिरवओ-फिलिप्पोस।..
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मौर्य-साम्राज्य। [२१९ नियों की पराधीनतासे मुक्त होता जानकर उसका पूरा साथ दिया था और वह उनकी सहायतासे मगधका राजा बनगया था। यह चंद्रगुप्त कौन था ? इस प्रश्नका उत्तर खोजने में हमारा
ध्यान सर्व प्रथम मुद्राराक्षस नाटकके टीका. चन्द्रगुप्त कौन था ?
कारके कथनपर जाता है। उसने 'वृपल' शब्दके आधारपर अपनी टीमें लिखा है कि 'नन्दवंशके अंतिम रानाकी वृपल (शद्र) जातिको मुग नामक रानीसे चन्द्रगुप्त उत्पन्न हुमा और अपनी माताके नामसे मौर्य कहलाया" बस, इसको पढ़कर ईसवी द्वितीय शताब्दिके यूनानी लेखकों एवं अन्य विद्वा. नोंने मान लिया कि चन्द्रगुप्त मुरा नामकी शूद्रा स्त्रीकी कुंखसे जन्मा था, इसलिये उसका नाम मौर्य पड़ा। किन्तु इस मान्यतामें तथ्य तनिक भी नहीं है । संस्कृत व्याकरण के अनुसार मुराका पुत्र 'मोरय' कहलायगा, न कि मौर्य ! चाणक्यने जरूर चन्द्रगुप्त के प्रति सम्बोधनमें 'वृप' शब्दका प्रयोग किया है किन्तु उसका अर्थ शुद्ध न होकर मगषमा राना होना उचित है जैसे कि कोपकार बतलाते हैं। अशोकके लिये 'देवानां प्रिय' सम्बोधन बहु प्रयुक्त हुआ है किन्तु उसको साधारण (मर्यात मूर्ख) अर्थमें कोई ग्रहण नहीं करता। 1-'मल्लदो नन्दनामानः केचिदान्महीभुजः ॥ २३॥ सायसिनिनामासीतपु विख्यातपौरुपः... ॥ २४॥ राशिः पली सुनन्दासोज्ज्येष्ठान्या वृपलात्मना । मुराख्या सा प्रिया गर्नुः शीललावण्यधपदा ॥२५॥ मुरा प्रस्तं तनयं मोर्याख्यं गुणवतर...॥ ३१॥ २-11६० मा १ पृ. ५९ व अघ. पृ० ६-७ । -हेमचन्द्राचार्यका हेमकोप देखो।
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२१०] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
इसी प्रकार वृषलका साधारण अर्थ ग्रहण करना अनुचित है। फिर यह असंभव है कि चाणक्य के समान समझदार व्यक्ति, अपने 'उस कपाभाजनके प्रति ऐसे क्षुद्र शब्दका प्रयोग कर उसे लज्जित करे, जो एक बड़े साम्राज्यका योग्य शासन था और जिसकी भ्रकुटि 'जरा टेढ़ी होनेपर किसीको अपने प्राण बचाना दुर्भर होजाता था। फिर चाणक्य तो स्वयं लिखता है कि दल रानाको भी न कछ समझना भूल है। असल बात यह है कि चाणक्य 'वृषल' शब्दका व्यवहार मादर रूपमें-मगधके राजाके अर्थ में-इसलिये करता था कि इससे उसके उस प्रयत्नका महत्व प्रगट होता था जो उसने चन्द्रगुप्तको मगधका राजा बनाने में किया था और इसकी स्मृति उसके आनन्दका कारण होना प्राकृत ठीक है । मुद्राराक्षसके ब्राह्मण टीकाकारने साम्प्रदायिक द्वेषवश चन्द्रगुप्तको शूदनात लिख मारा है वरन् स्वयं हिन्दू पुराणोंमें चंद्रगुप्तके शूद्र होनेका कोई पता नहीं चरता है। ___ 'विष्णुपुराण' में उनको नन्देन्दु अर्थात् 'नंद-चंद्र' (गुप्त), भविष्यपुराणमें 'मौर्य-नंद' और बौद्धोंके 'दिव्यावदान' में केवल 'नन्द लिखा है। इन उल्लेखोंसे चंद्रगुप्तका कुछ संबंध नंदवंशसे प्रगट होता है । कोई विद्वान् ‘मुद्राराक्षस' से भी यह संबंध प्रगट होता लिखते हैं; किन्तु इन उल्लेखोंसे भी चन्द्रगुप्तका शूद्रानात
१-'दुर्वलोऽपि राजानावमन्तव्यः नास्त्यग्ने दौर्बल्यम् ।'
२-अधः पृ० ६ ५.हिडाव० परि० पृ० ७१...और राइ• भा० १ पृ० ६०-६१ भाइ० पृ. ६२ । ३-जविओसो० भा० . १ पृ. ११६ फुटनोट । ४-हिद्राव०, भूमिका पृ०. १.१-१९ व अध: पृ९, ५ ।
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मौर्य साम्राज्य
[२११ होना सिद्ध नहीं है । जैन लेखक तो स्पष्ट रीतिसे चन्द्रगुप्तको क्षत्रिय कहते हैं। हेमचन्द्राचायने 'मयूरपोपक' ग्रामके नेताकी पुत्रीको चन्द्रगुप्तकी माता लिखा है। किंतु इससे भाव 'मोर पालनेवाले के लगाना अन्याय है। प्रत्युत इस उल्लेखसे पुराणों के उपरोक्त उल्लेखोंका स्पष्टीकरण हुआ दृष्टि पड़ता है। संभवतः नंद: रानाकी एक रानी मयूरपोपक देश के नेताकी पुत्री थी और उसीसे चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ था। जब शूद्रानात महापद्मने नंद राज्यपर आधिपत्य जमा लिया तो चन्द्रगुप्त अपनी ननसालमें जाकर रहने लगा हो तो असंगत ही क्या है? वहींपर चाणक्यकी उससे भेट हुई होगी।
मन शास्त्रों में एक मौर्याख्य देशका अस्तित्व महावीरस्वामीसे पहलेका मिलता है । वहाँके एक क्षत्रिय पुत्र-मौर्यपुत्र भगवान के
1-सिमा० मा० १ कि० ४ १० १९; भाइ.० ६२ घ राइ० भाग १ पृ० ६.। २-'मापोपकमा तस्मिश्च चणिनन्दनः ।
प्राविशतकणभिक्षा परित्रानवेषभृत् ॥ २३० ॥ मयूरपोपमहत्तास्य दुहितुस्तदा ।
अमृदापनसत्त्वायाश्चन्द्रपानाय दोहदः ॥ २३१||-८ ॥' इत्यादि। श्री हेमचन्द्र के इस कथनसे चन्द्रगुमको 'मोरोको पालनेवालेकी कन्याका पुत्र' लिखना ठीक नहीं है; जब कि वह प्रामका नाम मया पोपक लिख रहे है। मि० वरोदिया (हिलिज० पृ. ४४) और उनके अनुसार मि० हैवल (हिआइ० पृ० ६६) ने 'मयूरपोपक' का शब्दार्थ ही प्रगढ़ किया है।
३-डॉ. विमलाचरण लॉ० नन्दराजाका विवाह विपलिवनके मोरिय (मौर्य) क्षत्रियों की राजकुमारीसे हुभा समझते हैं। देखो क्षत्रीलेन्द्र० पृ० २०५१
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२२२] संक्षिप्त जैन इतिहास । गणधर भी थे। उधर 'महावंश' नामक बौद्ध ग्रंथसे प्रगट ही है कि 'चन्द्रगुप्त हिमालय पर्वतके आसपासके एक देशका, जो पिप्पलिवनमें था और मोर पक्षियों की अधिकताके कारण मौर्य राज्य कहलाता था, एक क्षत्रिय राजकुमार था। हेमचन्द्राचार्या मयुरपोषक ग्राम, दिगम्बर जैनों मौर्याख्य देश और वौद्धोंके मोरिख (मौर्य) क्षत्रियोंशा पिप्पलिवनवाला प्रदेश एक ही प्रतीत होते हैं
और इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त इस देशकी अपेक्षा ही मौर्य कहलाता था । ऐसा ही मत्रक्रिन्डलका लेख है।
चन्द्रगुप्तका वाल्यजीवन मौर्याख्यदेशकी अपेक्षा अधिकतर बाबा . मगवदेशमै व्यतीत हुआ था। तब मोरिय
जीवन। (मौर्य) क्षत्रियोंकी राजधानी पिप्पलीवन थी। इन लोगोंमें भी उस समय गणराज्य प्रणालीके ढंगपर राज्य प्रबंध होता था। यही कारण प्रतीत होता है कि हेमचंद्राचार्यने मयूरपोषक देशके एक नेताका उल्लेख किया है। उनके उसे वहांचा राजा नहीं लिखा है। किन्तु महापद्म नन्दने इन्हें भी अपने . आधीन बना लिया था और एक मौर्य क्षत्री उनका सेनापति भी रहा था; यद्यपि अन्तमें उन्होंने उसे और उसकी सन्तानको मरवा डाला था। महापद्मके आधीन रहते हुये मौर्य क्षत्री सुखी नहीं रहे थे। चन्द्रगुप्तके भी प्राण सदैव संकटमें रहते थे क्योंकि नंद राजाको उससे स्वभावतः भय होना अनिवार्य था; किंतु चंद्रगुप्तकी विधवा माताने उनकी रक्षा बड़ी तत्परतासे की
१-वृजेश पृ० ७ । २-महावंश-टीका (सिंहलीयावृत्ति) पृ० ११९...। ३ भाइ० पृ. ३२.1 ४-जैसिभा०भा० कि० ४१० २१।।
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मौर्य साम्राज्य। थी। फलतः निससमय चंद्रगुप्त युवावस्था पर्दापण कर रहे थे, उससमय उनका समागम चाणक्यसे हुआ, जो नंदराना द्वारा अपमानित होकर उससे अपना बदला चुकानेकी दृढ़ प्रतिज्ञा कर चुका था। चाणक्यने साथ रहकर चंद्रगुप्त शस्त्र-शास्त्रमें पूर्ण दक्ष होगया और वह देश-विदेशोंमें भटकता फिरा था, इससे उसका अनुभव भी खुब बढ़ा था।जो हो, इससे यह प्रकट है कि चन्द्रगुप्त का प्रारंभीक जीवन बड़ा ही शोचनीय तथा विपत्तिपूर्ण था।
निससमय चंद्रगुप्त मगधक्के राज्य सिंहासनपर आरूढ़ हुये राज-तिलक और उस समय वह पच्चीस वर्षके एक युवक थे।
राज्यवृद्धि। उनकी इस युवावस्थाका वोरोचित और भारत हितका अनुपम कार्य यह था कि उन्होंने अपने देशको विदेशी यूनानियोंकी पराधीनतासे छुड़ा दिया । सचमुच चन्द्रगुप्तके ऐसे ही देशहित सम्बन्धी कार्य उसे भारत के राजनैतिक रंगमंचपर एक प्रतिष्टित महावीर और संसारके सम्राटोंकी प्रथम श्रेणीका सम्राट प्रगट करते हैं। 'योग्यता, व्यवस्था, वीरता और सैन्य संचालनमें चन्द्रगुप्त न केवल अपने समय में अद्वितीय था, वान् संसारके इतिहातमें बहुत थोड़े ऐसे शाप्तक हुये हैं, जिनको उसके बराबर कहा
नासक्ता है।* मगधके राज्य प्रात करनेके साथ ही नंद रानाकी विराट् सेना उसके आधीन हुई थी। चन्द्रगुप्तने उस विपुलवाहिनीशी वृद्धि की थी। उसकी सेन में तीस हजार घुड़सवार, नौ हजार हाथी, छ लाख पैदल और बहुसंख्यक रथ थे। ऐसी दुर्नय .
१-वादोंके 'अर्थ कथाको' में भी यह उल्लेख है । जैसि भा० पूर्व पृ० २१ । २-लामाइ०, मा० पृ० १४२ । ३-अहिए. पृ० १२४ ।
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२२४] संक्षिप्त जैन इतिहास । सेनाकी सहायतासे उसने समस्त उत्तर भारत के राजाओंको जीत लिया था। उसके सिंहासनारूढ़ होने के पहले उत्तरी भारतमें ही . छोटे २ बहुतसे राजा थे, जो आपसमें लड़ा करते थे। धीरे धीरे चन्द्रगुप्तने उन सबको अपने अधिकारमें कर लिया और उसके साम्राज्यका विस्तार बंगालकी खाड़ीसे मरव-समुद्र तक होगया । इस प्रकार " वह शृङ्खलाबद्ध ऐतिहासिक युगका पहला राजा है,, जिसे भारत सम्राट् कह सकते हैं ।
महीसुर प्रांतकी अर्वाचीन मान्यताओंसे प्रगट है कि उस
___ प्रांतपर नंदवंशका भी अधिकार था। यदि यह : दक्षिण-विजय।
बात ठीक मानी जाय तो नंदवंशके उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त मौर्यका अधिकार भी इन देशोंमें होना युक्तिसंगत है। तामिल भाषाके प्राचीन साहित्यमें अनेकों उल्लेख हैं, जिनसे स्पष्ट है कि मौर्योने दक्षिण भारतपर आक्रमण किया था और उसमें वे सफल हुये थे। किन्तु इससे यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सक्का कि दक्षिण भारतकी यह विजय चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा ही हुई थी अथवा उसके पुत्र और उत्तराधिकारी बिन्दुसारने दक्षिण प्रदेश अपने आधीन किया था । परन्तु यह विदित है कि चन्द्रगुप्तका पौत्र अशोक जब सिंहासनपर बैठा, तब यह दक्षिण देश उसके साम्राज्यमें शामिल था। मैन मान्यताके अनुसार चन्द्रगुप्तका साम्राज्य दक्षिण भारत तक होना प्रमाणित है।' * १-भाइ० पृ० ६२ । २-ऑहिइ० पृ० ७४ । ३-श्रवण० पृ० ३८ ॥
ममप्राजेस्मा० पृ० २०५ व जराएसो०; १९१८, पृ० १३५। .
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मौर्य साम्राज्य ।
[२२५ जिससमय चन्द्रगुप्त भारतमें उक्त प्रकार एक शक्तिशाली सिल्यूकस नाइके- केन्द्रिक शासन स्थापित करने में संलग्न था,
टरसे युद्ध। उसी समय पश्चिमीय मध्य ऐशियामें सिकंदर महान्का सिल्यूकस नाइकेटर नामक एक सेनापति अपना अधिकार जमानेका प्रयास कर रहा था। उसने बड़ी सफलतासे सिरिया, एशिया माइनर और पूर्वीय प्रदेशोंको हस्तगत कर लिया था। उसने भारतको भी फिरसे जीतना चाहा और ३०५ ई० पू० में सिन्धु नदी पार कर आया। चन्द्रगुप्तकी अजेय सेनाने उसका सामना किया । पहिली ही मुठभेड़में सिल्यूकसकी सेना पिछड़ गई और उसे दवार सँघि कर लेनी पड़ी। इस संधिक अनुमार सिंधु नदीके पश्चिमी मृगों-विलोचिस्तान और अफगानिस्तानको चंद्रगुप्तने अपने राज्यमें मिला लिया। सिल्यूकस ५०० हाथी लेकर संतुष्ट होगया। उसने अपनी बेटी भी चन्द्रगुप्तको व्याह दी।
इस विनयसे चंद्रगुप्त का गौरव और मान विदेशोंमें बढ़ गया। सिल्यूकमका दुत उसके राजदरबार में आकर रहने लगा और उसके सम्पर्कसे भारतका महत्वशाली परिचय और तान्त्रिक ज्ञान त्रिदेशियोंको हुआ 1 पैहो (Pyrrho ) नामक एक यूनानी तत्ववेत्ता जैन श्रमणोंसे शिक्षा ग्रहण करनेके लिये यहां चला आया और व्यापारको भी खूब उन्नति हुई । चन्द्रगुप्तके इस साम्राज्य विस्तारके अपूर्व कार्य और फिर उसे व्यवस्थित भावसे एक सूत्र में बांध रखनेसे उसकी अदभुत तेनम्मिता, तत्पाता और बुद्धिमत्ताका परिचय मिलता है। साधारण भवस्यासे उठकर वह एक महान सम्राट
१-भाइ० पृ० ६२-६३१२-हिग्ली० पृ० ४२ व लाम० पृ० ३४ ।
१५
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२२६)
संक्षिप्त जैन इतिहास । होगया, यह उसके मदम्य पुरुषार्थ और कर्मठताका प्रमाणपत्र है। सिल्यूकसकी ओरसे जो दूत मौर्य दरवारमें आया था, वह
मेगास्थनीज नामसे विख्यात् था। वह कई शासन अवय । वर्षांतक चन्द्रगुप्तके दरबारमें रहा था और बड़ा विद्वान् था । उसने उससमयका पुरा वृतान्त लिखा है | वह चन्द्रगुप्तको योग्य और तेजस्वी शासक बतलाता है। उसके वृत्तांत "एवं कौटिल्यके अर्थशास्त्रसे चन्द्रगुप्त के शासन-प्रबन्ध और उस समयकी सामाजिक स्थितिका अच्छा पता चलता है। राज्यका शासन पंचायतों द्वारा होता था; यद्यपि प्रत्येक प्रान्त भिन्न २ गवर्नरोंके आधीन था । इन प्रांतिक अधिकारियोंको छ पंचायतों द्वारा राज्यप्रबन्ध करना पड़ता था। 'एक पंचायत प्रनाके जन्ममरणका हिसाब रखती थी । दुप्सरी टैक्स यानी चुंगी वसुल करती थी। तीसरी दस्तकारीका प्रबंध करती थी। चौथी विदेशीय लोगोंकी देखभाल करती थी। पांचवीं व्यापारका प्रबंध करती थी।
और छठी दस्तकारीकी चीजों के विक्रयका प्रबंध करती थी। कुछ विदेशीय लोग भी पाटलिपुत्र में रहते थे। उनकी सुविधा के लिये अलग नियम बना दिये गये थे।" पाटलिपुत्र उस समय एक बड़ा समृद्धिशाली नगर था । और
वह मौर्य सम्राट्की राजधानी थी। तब यह नगर राजधान सोन और गंगाके संगमपर ९ मीलकी लम्बाई और १३ मील चौड़ाईमें बता था। इसप्रकार वह वर्तमानं पटनाकी तरह लंबा, संकीर्ण और समांतर चतुर्भुनाकार था। उसके चारों ओर
माइ पृ०६३
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मौर्य साम्राज्य । [२२७ एक लकड़ीकी दीवार थी। इसमें ६४ फाटक और ५७० मीनार थे। इसके बाहर २०० गन चौड़ी और १५ गन गहरी खाई थी, जो सोनके जलसे भरी रहती थी। वर्तमान पटना नगरके नीचे यह प्राचीन पाटलिपुत्र तुपा पड़ा है। बांकीपुरके निकटमें खुदाई करनेसे चंद्रगुप्त के राजप्रासादका कुछ अंश मिला है। यह रानभवन भी लकड़ीका बना हुमा था, परंतु सनधन और सुंदरतामें किसी राजमहलसे कम न था। राज्यके शासन-प्रबन्धक समान ही नगरका प्रबंध एक म्युनिसिपल कमीशन द्वारा होता था। इसमें भी छै पंचायतें थीं और प्रत्येक पंचायतमें पांच सदस्य इनके द्वारा देश और नगरका सुचारु और आदर्श प्रबंध होता था।
चन्द्रगुप्तका शासन प्रबन्ध आनकलके प्रजातंत्र राज्यों के लिये शासन प्रबन्धकी एक अनुकरणीय आदर्श था| माजालकी
विशेषताये। म्युनिसिपिल कमेटियोंसे यदि उसकी तुलना की जाय, तो वह प्राचीन प्रबन्ध कई बातों में अच्छा मालम देगा। चन्द्रगुप्तके इस व्यवस्थित शासनमें प्रत्येक मनुष्य और पशुतककी रक्षाका पूरा ध्यान रखा जाता था। कौटिल्यके अर्थशास्त्रमें पशुओंके भोजन, गौओंके दुहुने और दूध, मक्खन मादिकी स्वच्छताके सम्बंध, नियम दिये हुये मिलते हैं । पशुओंको निर्दयता और चोरीसे बचाने के नियम सविस्तर दिये गये हैं। एक जैन सम्राटके लिये ऐसा दयालु और उदार प्रबंध करना सर्वथा उचित है। मनुष्योंकी रक्षाका भी पुरा प्रबंध था। व्यापारियों के लिये कई सड़कें बनवाई गई थीं; जिनपर मुसाफिरोंकी रक्षाका पूरा प्रबन्ध था।
१-मेएइ. 1 लामाइ०.१०:१६७ ।
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२२८] संक्षिप्त जैन इतिहास । भारतकी सीमासे पाटलिपुत्रता राजमार्ग बना हुआ था। यह मार्ग शायद पुप्चलावती (गान्धारकी राजधानी ) से तक्षशिला होकर इलन, व्यास, सतलज, जमनाचो पार करता हुआ तथा हस्तिनापुर, कन्नौज और प्रयाग होता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचता था। सड़कों की देखभाला विमाग अलग था x दुर्भिक्षकी व्यवस्था उच्च न्यायालय करते थे। जो बन्न सरकारी भण्डारोंमें माता या उसका भाषा भाग दुर्भिक्षके दिनोंके लिये सुरक्षित रखता जाता था और मकान पड़नेपर इस भाण्डारीले भन्न बांटा जाता था। जगली फसलके वीजके लिये भी यहीसे दिया जाता था
चन्द्रगुतके राज्य के अंतिन चालमें एक भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था। खेतोंकी सिंचाईना पुरा प्रबन्ध रखा जाता था, जिसके लिये एक विभाग अलग था। चन्द्रगुतके काठियावाड़के शासक पुचगुप्तने गिरनार पर्वतके समीप 'सुदर्शन' नामक झील बनवाई थी। छोटी बड़ी नहरों द्वारा सारे देशमें पानी पहुंचाया जाता था। नहरमा महकमा भावपाशी-कर वमुल करता था। इसके अतिरिक्त किसानोंसे पदावारचा चौधाई भाग दमूल किया जाता था। मायात निर्यात आदि और भी कर प्रजापर लगू थे। राज्यमें किसी प्रचारकी अनीति न होने पाये, इसके लिये
__ चन्द्रगुप्तने एक गुप्तचर विभाग स्थापित जिया गुप्तचर विभाग
"' था। नगरों और प्रांतोंकी समस्त घटनामोंपर दृष्टि रखना बोर सम्राट अथवा अधिकारी वर्गको गुप्तरीलिसे सुचना
४ भामारा० मा० २ पृ० ४९ | १-लाभाइ० पृ. १३७ । २-माइ० पृ. ६४ । ३-जराएतो. सन् १८९१ पृ. ४७ ।
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मौर्य-साम्राज्य।
[२२९ देना इनका कार्य था। मेगास्थनीज लिखता है कि इन गुप्तचरोंपर कोई मिथ्या समाचार देनेका दोषारोपण कभी नहीं हुआ; क्योंकि किसी भी भारतीयसे यह अपराध कभी नहीं बन पड़ा । सचमुच प्राचीन भारतके निवासी सचाई और ईमानदारीके लिये वहत ही विख्यात थे।
चन्द्रगुप्तका फौनदारी कानून कठोर था। यदि किसी कारी
___ गरको कोई चोट पहुंचाता, तो उसे प्राणदण्ड ही दण्ड विधान मिलता था। यदि कोई व्यक्ति किसीको अंगहीन कर देता तो दण्ड स्वरूप वह भी उसी अंगसे हीन किया जाता था और हाथ धातेमें काट लिया जाता था। झूठी गवाही देनेवालेके नाक कान काट लिये जाते थे। पवित्र वृक्षोंको हानि पहुंचानेवाला भी दण्ड पाता था । सिरके बाल मुड़ दिये जानेका दण्ड बड़ा लज्जाजनक समझा जाता था। साधारणतः चोरीके अपराधमें अंग छेदका दण्ड दिया जाता था। चुङ्गीका महसूल देनेमें टालमटूल करनेवाला मृत्युदण्ड पाता था। अपराधी कड़ी यातनाओं द्वारा अपराध स्वीकार करने के लिये वाध्य किये जाते थे। चन्द्रगुप्तके फौजदारी कानुनकी यह कठोरता किंचित् मापत्तिजनक कही जा सक्ती है; किन्तु जिन्होंने इंग्लेन्ड आदि यूरोपीय देशोंका निकट मृतकालीन इतिहास पढ़ा है, वह जानते हैं कि इन देशोंमें भी जरार से अपराधके लिये भी प्राणदण्ड देनेका रिवाज था।
ऐसा मालूम होता है कि प्राचीनकालमें दण्डकी कठोरतामें १-माइ० पृ० ६४, महिइ० पृ० १२९ और लामाह पृ० १५०, २-भाइ० पृ० ६४ और लामाइ० पृ० १५९-१६० ।
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२३० ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
सदाचार और सुनीतिकी बढ़वारीका विश्वास था । चन्द्रगुप्तके विपयमें कहा जासक्ता है कि उसका यह कठोर दण्डविधान सफल हुआ था | मेगास्थनीज लिखता है कि जितने समय तक यह चंद्रगुप्तकी सेनामें रहा, उस समय चार लाख मनुष्यों के समूहमें कभी किसी एक दिन में १२०) रुपयेसे अधिक की चोरी नहीं नहीं हुई । और यह प्रायः नहीं के बराबर थी । भारतीय कानूनकी शरण बहुत कम लेते थे । उनमें वायदाखिलाफी और खयानत के मुकद्दमें कभी नहीं होते थे । उन्हें साक्षियोंकी भी जरूरत नहीं पड़ती थी। वे 1 भारतीय अपने घरोंको विना ताला लगाये ही छोड़ देते थे । इस 'उल्लेखसे स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्तके दण्ड विधानका नृशंसरूप जनताको सदाचारी और राज्याज्ञानुवर्ती बनाने में सहायक था | इस दशामें उसका प्रयोग अधिकता के साथ प्रायः नहीं होना संभव है। चन्द्रगुप्तकी विशाल सेनाकी व्यवस्था के लिये एक सैनिक विभाग था । सेना के चारों भागों - (१) पैदक सैनिक विभाग । सिपाही, (२) अश्वारोही, (३) रथ, (8) हाथीका प्रबन्ध चार पंचायतों द्वारा होता था । पांचवीं पंचायत कमसरियट विभाग और सैनिक नौकर-चाकरोंका प्रबन्ध करती थी । छठी पंचायत जहाजों का प्रबन्ध करती थी । सेनाको वेतन नगद मिलता था । " जहान आदि सब यहीं बनाये जाते थे । इस व्यवस्थासे स्पष्ट है कि चंद्रगुप्तका सैनिक प्रबंध सर्वाङ्ग पूर्ण और सराइंनीय था । यदि उसकी व्यवस्था ठीक न होती तो इतने बड़े साम्राज्यपर वह सहसा अधिकार न जमा सक्ता !
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"
१-मेऐइ० पृ० ६९-७० । २-माइ० १०६६ ।
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मौर्य साम्राज्य।
[२३१ मौर्यकालकी सामानिक दशा भगवान महावीरके समयसे
कुछ अधिक विलक्षण नहीं थी। वह प्रायः सामाजिक दशा मीही थी। ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्रयह चार प्रधान जातियां थी और इनको अपना वंशगत व्यवसाय करना अनिवार्य था। किन्तु प्रत्येक प्राणीको राजाज्ञासे दूसरा अथवा एकसे अधिक व्यवसाय करनेकी स्वाधीनता प्राप्त थी। इन वामें परस्पर उदारताका व्यवहार था। जातीय कट्टरताका नामशेष नहीं था। पारस्परिक सहयोगसे रहते हुये यहांके लोग बड़े सुखप्तम्पन्न और सदाचारी थे । वे मनुष्य जीवनके चारों पुरुपार्थो-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-का समुचित साधन करते थे। ब्रह्मचर्यदशामें रहकर विद्याध्ययन करनेसे उनकी बुद्धि कुशाग्र
और स्वास्थ्य अनुपम रहता था। वे सदा सत्यवादी थे। और शिल्प एवं कलाकौशलमें बड़े निपुण थे। सोने चांदी और जवाहरातके मामृपण बनाने के लिये देशमें सोने, चांदी, तांबे, लोहे, रत्न मादिकी खाने थी। तब भारतीय मच्छर शस्त्र और बड़े जहान बनाते थे। उस समय यहांका शिल्प और वाणिज्य उन्नतिकी चरमसीमापर पहुंचा हुआ था । सिंधुदेशके सुन्दर वस्त्र और देशकी बनी हुई अन्य वस्तुयें दूर २ विदेशोंमें विकनेके लिये जाती थीं। मेगास्थनीन लिखता है कि "भारतीय यद्यपि सरल स्वभाव हैं और सादगीको बहुत पसंद करते हैं; परंतु रत्नों, अलं-- कारों और परिच्छेदोंका उनको स्वास शौक है । परिच्छदोंपर सुन
१-माप्रारा. भा० २ पृ. ९१ । २-लाभाइ० मा० १० १४९।। ३-माप्रा०० मा० २ पृ० ९२.।
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२३२] संक्षिप्त जैन इतिहास । हला और रुपहला काम कराते हैं । वे निहायत बारीकसे बारीक मलमलपर फूलदार कामकी बनी हुई पोशाकें पहिनते हैं । उनके ऊपर छतरियां लगाते हैं, क्योंकि भारतीयोंको सौन्दर्यका बहुत ध्यान है।
एरियन निर्याकसके अनुसार लिखता है कि " भारतवासी नीचे रुईका एक वस्त्र पहनते हैं, जो घुटने के नीचे माधी दूर तक रहता है । और उसके ऊपर एक दूसरा वस्त्र पहिनते हैं । जिसे कुछ तो वे कंधोंपर रखते हैं और कुछ अपने सिरके चारों ओर लपेट लेते हैं । वे सफेद चमड़ेके जूते पहनते हैं; जो बहुत ही अच्छे बने हुये होते हैं । इस लेखसे प्राचीन ग्रंथों में लिखे हये 'अधोवस्त्र' और 'उत्तरीय'का चोध होता है। अधिकांश जनता शाकाहारी थी और मद्यपान नहीं करती थी। आबनूमके चिकने वेलनोंको त्वचापर फिराकर मालिश करानेका बहुत रिवाज था। ब्राह्मणों और श्रमणोंका आदर · विशेष था। श्रमण संप्रदायमें प्रत्येक मुमुक्षु आत्मकल्याण करनेका साधन प्राप्त कर लेता था। .. चारों वर्गों में परस्पर विवाह सम्बन्ध प्रचलित था । विवाह महिलाओं की जवान पुरुषों और युवती कन्यायोंके होते थे। · महिमा । तब बाल्यविवाहका नाम सुनाई नहीं पड़ता था। विवाह के समय पति स्त्रीको अलङ्कार आदि देते थे, पर आजकलके मुसलमानोंके 'मेहर के समान 'वृत्ति' (या स्त्रीधन) नामका निश्चित घन भी देते थे। इस धन एवं अन्य जो सम्पत्ति स्त्रीको अपने
१-ऐइमे०, पृ. ७० । २-भाप्रारा० भा० २ पृ० ८९ :
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मौर्य-साम्राज्य। रिश्तेदारों से मिलती, उसपर उसका पूरा अधिकार होता था। वह जैसे चाहे वैसे उसको खर्च कर सक्ती थी। स्त्री-धनकी रक्षा के लिये कड़े नियम राज्यकी ओरसे बने हुये थे ।* किन्तु यदि पतिकी मृत्युके उपरान्त स्त्री दूसरा विवाह करती थी, तो उसका सारा स्त्रीधन जप्त होजाता था। हां, श्वसुरकी सम्मतिसे दूसरा विवाह करनेपर वह उस धनको पासक्ती थी। पर इतना स्पष्ट है कि पुनर्विवाह हेय दृष्टि से ही देखा जाता था। पुनर्विवाह करने के लिये अतीव कठिन नियम बना दिये गये थे जिनमें स्त्रियोंके इस मधिकारको यथासंभव परिमित करने का प्रयास था। पुरुषों में बहु विवाह करनेका रिवान था; किन्तु इसके लिये भी समुचित राजनियम बने हुए थे।
एक पत्नीसे यदि संतान न हो, तो दुसरा विवाह करनेकी साधारण माज्ञा थी । और दूसरी पत्नीसे भी पुत्रोत्पन्न न हो, तो पुरुष तीसरा और फिर चौथा इत्यादि सामर्थ्यके अनुसार विवाह कर सक्ता था; किन्तु दूसरा विवाह करनेके पहले उसे प्रथम पत्नीके भरण-पोषणका पूरा प्रबन्ध कर देना अनिवार्य था। इस नियमके होने के कारण बहुत कम ऐसे पुरुष होते थे जो बहुपत्नीक हों। किन्हीं विशेष अवस्थाओंमें विवाह विच्छेद करनेकी भी रानाज्ञा थी। किंतु उस समय एक पतिव्रत और एक पत्नीव्रतकी प्रधानता थी।'
-जन कानुनमें इस वातका खास ध्यान रक्खा गया है । उसीके अनुसार चन्द्रगुप्त जैसे जैन सम्राट्का गज्य नियम होना उपयुक्त है। १-सरस्वती, भा० २८ खण्ड २ पृ० १३६७ ।
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२३४] संक्षिप्त जैन इतिहास । उस समयकी समाजमें वैदिक, जैन और बौद्ध एवं माजीविक
.. धर्म प्रचलित थे। जैनधर्मका प्रचार खुन था; धार्मिक स्थिति । जैसे कि मुद्राराक्षस नाटकसे प्रकट है।' प्रत्येक संप्रदायके धर्मायतन बने हुये थे। त्यौहारों और पाके अवसरोंपर बड़ी धूमधामसे उत्सव मनाये जाते थे और समारोहपूर्वक बड़े २ जुलूस निकाले जाते थे जिनमें सोने और चांदीके गहनोंसे सजे हये विशालकाय हाथी सम्मिलित होते थे। 'चारर घोड़ों और बहुतसे बैलोंकी नोड़ियोंवाली गाड़ियां और वल्लमबरदार होते थे। जुलसमें अतीव बहुमूल्य सोने चांदी और जवाहरातके कामके वर्तन और प्याले मादि साथ जाते थे। उत्तमोत्तम मेन,. कुरसियां और अन्य सजावटकी सामिग्री साथ होती थी। सुनहले तारोंसे काढी हुई नफीस पोशाकें, जंगली जन्तु, बैल, भैसे, चीते, पालतु सिंह, सुन्दर और सुरीले कण्ठवाले पक्षी भी साथ चलते थे ।
माजकलकी जैन स्थयात्रा प्रायः इस ही ढंगपर सुसज्जित निकाली जाती हैं । पशु, पक्षियोंको साथ रखनेमें, श्री तीर्थकर भगवान समोशरणको प्रत्यक्षमें प्रगट करना इष्ट था। मशोकका पोता संप्रति ऐसी ही एक जैन यात्राको अपने राजमहल परसे देखते हुये सम्बोधिको प्राप्त हुमा था। इससे भी उससमय जैनधर्मकी प्रधानता स्पष्ट होजाती हैं। तब वह राष्ट्र-धर्म होनेका गौरव प्राप्त किये हुये था।
१-धीर वर्ष ५ पृ. ३८७-३९१॥ २-लामाइ० मा• १५० । ३-परि० पृ. ९२-९६।
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मौर्य साम्राज्य। उपरोक्त वर्णनसे सम्राट चंद्रगुप्तके राजनैतिक जीवनका चन्द्रगतका वैयक्तिक परिचय प्राप्त है । 'प्रत्येक मनुष्य स्वयं
जावन । विचार कर सकता है कि यह कैसा प्रतापी और विलक्षण राना था; निसने केवल २४ वर्षके अल्पसमयमें ही अपने हाथों स्थापित किये नवीन राज्यको ऐसी उन्नत दशापर पहुंचा दियो । मानसे २२ सौ वर्ष पूर्वके इसके राज्य प्रबंधका वर्णन पढ़कर हमारे पूर्वजोंको मूर्ख समझनेवाली आजकलकी साम्याभिमानी जातियां भी आश्चर्यचकित होती हैं ।' चन्द्रगुप्तका वैयक्तिक जीवन भी आदर्श था। वह दिनमर राजसभा बैठकर न्याय किया करता था और वैदेशिक दुतों भादिसे मिलता था। राजाकी, रक्षा के लिये यवनदेशकी स्त्रियां नियत थीं, जो शस्त्रविद्या और संगीत शास्त्रमें चतुर होती थीं। इस देशकी भाषा और रहन सहनसे उनका ही बिलकुल परिचय न होने के कारण किसी षड़यन्त्र में उनका संमिलित होना मसंभव था। राना भड़कीली पोशाक पहिनता था और उसकी सवारी भी बड़ी शान शौकतसे निकलती थी। उसकी सवारीके चारों ओर सशस्त्र यवन स्त्रियां चलती थी और उनके इर्दगिर्द बछीवाले सिपाही रहते थे। मार्गमें रस्सियोंसे सीमा निर्धारित कर दी जाती थी। इस सीमाको उल्लंघन करनेवाला मृत्युदण्ड पाता था। रानाको भावनूसके बेलनोंसे देह दववानेका बड़ा शौक था। रान दरबार में भी उनकी इस सेवाके लिये चार परिचारक नियत रहते थे। रानाकी वर्षगांठ बड़ी धूमधामसे मनाई जाती थी। राजा नियमित रूपसे धार्मिक क्रियायें करते थे और मुनिजनों (श्रमणों)
-आरा० भा० २ पृ. ४५।२-मामारा. भा. २ पृ. ८०००।
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२३६] संक्षिप्त जैन इतिहास । को माहार देते थे। उनके एकसे अधिक रानियां थीं। रानी सुप्रभा उनमें प्रधान थी। एक रानी वैश्य वर्णकी थी, जिसका भाई पुप्पगुप्त गिरनार प्रांतका शासक था। उस समय राजाके निकट सम्बंधियोंको विविध प्रांतों में शासक नियत करने का रिवान था। तीसरी रानी विदेशी यवन राना सिल्यूकसकी पुत्री थी। यवन लोगोंको यद्यपि आन म्लेच्छ समझते हैं, किन्तु मालूम होता है, उस समय उनके साथ विवाह सम्बंध करना अनुचित नहीं समझा जाता था। - इन तीन रानियों के अतिरिक्त उनके और भी कोई रानी थी, यह विदित नहीं है । सम्राट् चन्द्रगुप्तका पुत्र और उत्तराधिकारी बिन्दुसार था । 'राजाबलीकथे' में शायद इन्हींका नाम सिंहसेन लिखा है। इनके अतिरिक्त चन्द्रगुप्तके और कोई संतान थी, यह मालूम नहीं है। इस प्रकार गार्ह स्थिक आनन्दका उपयोग करते हुये भी चंद्रगुप्त निशङ्क नहीं थे। गुप्त षड्यंत्रोंके कारण उन्हें सदा ही अपने प्राणों का भय लगा रहता था। उनके पास प्रचुर धन था और ठाठवाटका सामान भी खूब था।
जैन शास्त्रोंसे प्रगट है कि सम्राट चंद्रगुप्त जैन धर्मानुयायी
... थे। वह दिगम्बर जैन मुनियों (निग्रंथश्नमणों) चन्द्रगुप्त जैन थे।
14' की वन्दना-पूजा करते थे और उनको विनयपूर्वक आहारदान देते थे। जैन ग्रन्थों के इस वक्तव्यका समर्थन
. १-जराएसो० भा० ९ १० १७६ ॥२-श्रवण पृ०२०। ३-संप्रा. जैस्मा० पृ० १७८ । ४-भाइ० पु. ६५। ५-श्रमण, पृ. ३१ । • ६-माइ० पृ०६६। ७-प्रवण० पृ० २५-४० ।
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[ २३७
मौर्य साम्राज्य | मेगास्थनीजके कथने एवं 'मुद्राराक्षस' नाटकके वर्णनसे होता है । " मौख्यदेश में जैनधर्मका प्रचार विशेष था । एक मौर्थ्यपुत्र स्वयं भगवान महावीरजीके गणधर थे । और नन्दवंश भी जैनधर्म भक्तथा, यह प्रगट है । इस दशा में चन्द्रगुप्तका जैन- एक श्रावक होना कुछ भी प्रत्योक्ति नहीं रखता । जैन शास्त्र उसे एक आदर्श और धर्मात्मा राजा प्रगट करते हैं । किन्तु उनके जैन न होने में सबसे बड़ी मापत्ति यह की जाती है कि वह शिकार खेळते थे । पर चंद्रगुप्तके शिकार खेलने संबन्ध में जो प्रमाण दिया जाता है, वह यूनानी लेखकोंका भ्रान्त वर्णन है । क्योंकि युनानियोंने जहांपर I शिकार खेलनेका वर्णन दिया है; वहां चन्द्रगुप्तका स्पष्ट नामोल्लेख. नहीं है । वह कथन साधारण रूपमें है । और इधर जैनशास्त्रोंसे यह प्रगट ही है कि चंद्रगुप्तने कभी शिकार यदि कोई संकल्पी हिंसाकर्म नहीं किया था ।
अतः मालुम यह पड़ता है कि चन्द्रगुप्त जन्म से अविरत सम्यग्दृष्टी जैनी थे; किन्तु फिर जैन मुनियोंके उपदेशको पाकर उन्होंने अहिंसा मादि व्रतोंको ग्रहण करके अपना शेष जीवन धर्ममय बना लिया था । यदि उन्होंने पहिलेसे श्रावकके व्रतोंका अभ्यास न किया होता, तो यह सम्भव नहीं था कि वह एकदम जैन मुनि होजाते । उनका जैन मुनि होना प्राचीनतम साक्षीसे सिद्ध है और उसे
१ - जरा सो० भा० ९ पृ० १७६ । २ - वीर वर्ष ५ पृ० ३९० ॥ ३- ईसाकी पहिली या दूसरी शताब्दिके ग्रन्थ 'तिलशेयपण्णति' (गा० ७१) में चन्द्रगुप्तको जैन मुनि होना लिखा है । और उसे "मुकुटधर " राजा लिखा है। 'मुकुटधर से भाव सम्भवतः उस राजासे है जिसके
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२३८] संक्षिप्त जैन इतिहास । आधुनिक विद्वान भी मान्य ठहराते हैं । भद्रबाहु श्रुतकेवलीसे चंद्रगुप्तने दीक्षा ग्रहण की थी और उनका दीक्षित नाम मुनि प्रमाचंद्र था। इन्होंने अपने गुरु भद्रवा के साथ दक्षिणको गमन किया · था और श्रवणवेलगोलमें इनने समाधिपूर्वक स्वर्ग लाम किया था।
___ इस स्पष्ट और जोरदार मान्यताके समक्ष चंद्रगुप्तको जैन न मानकर शेव मानना, सत्यका गला घोंटना है । हिन्दु शास्त्रों में अवश्य उनके जैन साधु होनेका प्रगट उल्लेख नहीं है; परन्तु हिंदू शास्त्र उन्हें एक शूद्राजात लिखनेका दुस्साहस करते हैं; वह किस बातका द्योतक है ? यदि चंद्रगुप्त जैन नहीं थे, तो उन्होंने एक क्षत्री रानाको भकारण वर्ण-शंकर क्यों लिखा? इस वर्णनमें सांप्रदायिक द्वेष साफ टपक रहा है। जैसे कि विद्वान् मानते हैं और इस तरह भी चंद्रगुप्त का न होना प्रगट है। कोई विद्वान उनके नृशंस दंड विधान मादिपर आपत्ति करते हैं और यह क्रिया एक जैन सम्र के लिये उचित नहीं समझते। किन्तु उनका दण्डविधान कठिन होते हुये भी अनीति पूर्ण और अनाआधीन एक हजार राजा हो। चन्द्रगुप्त मौर्य ऐसे ही प्रतापी राजा थे। शिलालेखीय साक्षी ई०. सन्के प्रारम्भिक कालकी है । (देसी० श्रवण पृ० २५-४० व जैसिमा० भा० )।
१-अहिइ० पृ० १५४; मैसूर एण्ड कुर्ग-राइस, मा. 1; हिवि० - मा० ७ पृ० १५६, इरिइ०-चन्द्रगुप्त; हिद० भा० १ १० ४८४ और
साइजै० पृ० २०-२५,.हिआइ० पृ० ५९ अनीम और ी भी फेय ..ाव अशोक पृ० २३ व जविओसो भा० ३ ०। २-जैसिमा० भा०
१ कि०२-३-४ व कैहिइ. भा०१ पृ० ४८५। ३-राइ० मा० १ ० १६१ । ४-लीभाइ :पृ० १५३ ।।
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मौर्य साम्राज्य |
[ २३९
चारको बढ़ानेवाला नहीं था । उसका उद्देश्य जनसाधारण में सुनीतिका प्रचार करना था । और इस उद्देश्यमें वह सफल हुआ था; जैसे कि हम देख चुके हैं। तथापि उसमें जब पशुओं और वृक्षों तककी रक्षाका पूर्ण ध्यान था, तब उसे जैनधर्मके विरुद्ध खयाल करना मूल भरा है । चन्द्रगुप्त अवश्य ही एक बड़े नीतिज्ञ और उदारमना जैन सम्राट् थे । यही कारण है कि प्रत्येक धर्मके शास्त्रों में उनका उल्लेख हुआ मिलता है। जैन शास्त्रोंमें उनका विशेष वर्णन है और वह उनके अंतिम जीवनका एक यथार्थ वर्णन करते हैं; वरन् अन्य किसी जैनेतर श्रोतसे यह पता ही नहीं चलता है कि उनका -राज्य किस प्रकार पूर्ण हुआ था। जैन शास्त्र बतलाते हैं कि वह अपने पुत्रको राज्य देकर जैन मुनि होगये थे और यह कार्य उनके समान एक धर्मात्मा राजाके लिये सर्वथा उपयुक्त था । अतएव चंद्रगुप्तका जैन होना निःसंदेह ठीक है । मि० स्मिथ कहते हैं कि ""जैनियोंने सदैव उक्त मौर्य सम्राट्को विम्बसार (श्रेणिक) के सटश "जैन धर्मावलंबी माना है और उनके इस विश्वासको झूठ कहने के "लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं है ।"*
कोई विद्वान कहते हैं कि यदि चन्द्रगुप्त जैन धर्मानुयायी थे, तो वह एक ब्राह्मणको अपना मंत्री नहीं रख चाणक्य | सक्ते थे । किंतु इस आपत्ति में कुछ तथ्य नहीं है, क्योंकि कई एक जैन राजाओंके मंत्री वंश परम्परा रीतिपर अथवा स्वाधीन रूपमें ब्राह्मण थे । और फिर जैन शास्त्रों का कहना
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१ - अवण० पृ० ३७ व आहि० पृ० ७५-७६ । २ - आहि० पृ० ७५ व जैशिसं० भू० पृ० ६९ ।
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२४०] संक्षिप्त जैन इतिहास । है कि चंद्रगुप्तके ब्राह्मण मंत्री चाणक्य, जिनको विष्णुगुप्त, द्रोमिल, द्रोहिण, अंशुल, कौटिल्य आदि अनेक नामोंसे संबोधित किया जाता है, एक जैन ब्राह्मणके पुत्र थे। गोल्ल नामक ग्राममें चणक नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह पक्का श्रावक था। चणेश्वरी उसकी भार्या थी। चाणक्यका जन्म इन्हींके गृहमें हुमा था। वह भी अपने माता पिताके समान एक श्रमणोपासक आवक था। नन्दराना द्वारा अपमानित होकर उसने राज्यभ्रष्ट चंद्रगुप्तका माश्रय लिया था। उसका साथ देकर वह चंद्रगुप्त के राना होनेपर स्वयं उसका राज-मंत्री हुआ था।
चाणक्यने संभवतः चंद्रगुप्त के लिये राजनीतिका एक अच्छा ग्रन्थ लिखा था। उसका एक अर्वाचीन संस्करण प्राप्त है । वह 'कौटिल्यका अर्थशास्त्र' नामसे छप भी चुका है । इस ग्रन्थमें कई एक ऐसी बातें हैं जो जैनधर्मसे संबंध रखती हैं। पशुओं की रक्षाका विधान करना, लेखकको अहिंसा धर्मप्रेमी प्रकट करनेको पर्याप्त है। एक जैन विद्वान उसमें खास जेन शब्दोंका प्रयोग हुआ बत३-परि०, पृ० ७७॥
चणी चाणक्य इत्याख्यां ददौ तस्यांगजन्मनः । चाणक्योऽपि प्रायकोऽभूत्सर्व विद्यब्धिपारगः ॥२०॥ श्रमणोपासकत्वेन स सन्तोप धनः सदा ।
कुलीन ब्राह्मणस्यैकामेव कन्यामुपायत ॥ २० ॥ इत्यादि ! दिगम्बर जैन ग्रन्थों ( हरिपेण कथाडोप व साक० भा० ३ पृ० .४६) में चाणक्यके पिताका नाम कपिल और उनकी माताका नाम देविला लिखा है । वे वेद पाङ्गत विद्वान थे। महीधर नामक जनमुनिसे उनने जैन दीक्षा ग्रहण की थी। .
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मौर्य साम्राज्य। _ [२४१ लाते हैं; जैसे उपभेद वाची 'प्रकृति' शब्द । जैनदर्शनमें कर्मोके १४८ भेदोंको 'प्रकृतियां' कहते हैं । कौटिल्य भी इस शब्दको इसी अर्थमें प्रयुक्त करता है, यथा “ अरि और मित्रादिक राष्ट्रोंकी सब कुल प्रकृतियां ७२ होती हैं । " उनने अपने नीतिसूत्रों में जैन प्रभावके कारण ही जैनाचार विषयक कई सिद्धांतोंको भी लिखा है; जैसे " दया धर्मस्य जन्मभूमिः"; "अहिंसा लक्षणो • धर्मः ", " मांसभक्षणमयुक्तं सर्वेषाम् ", " सर्वमनित्यं भवति";
"विज्ञानदीपेन संसारभयं निवर्तते ।" इत्यादि । ____ उन्होंने अपने अर्थशास्त्रमें राय दी है कि राना अपने नगरके बीच, विनय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नामक देवता
ओं की स्थापना परे! ये चारों ही देवता जैन हैं ! और जैन पंडित कहते हैं कि सांसारिक दृष्टिले नगरके बीच इनके मंदिरोंके बनवानेकी यों जरूरत है कि ये चारों ही देवता उस स्थानके रहनेवाले हैं, जहांकी सभ्यता और नागरिकता ऐसी बढ़ी चढ़ी है कि वहांपर प्रजासत्तात्मक राज्य अथवा साम्राज्यशून्य ही संसार बसा हुभा है । ये अपनी पढ़ी-चढ़ी सभ्यताके कारण सबके सब अहमिन्द्र कहलाते हैं और इनके रहने के स्थानको ऊँचा स्वर्ग जैन शास्त्रों में माना है। लोक शिक्षाके लिये तथा राजनीतिका उत्कृष्ट ध्येय बतलाने के लिये इन देवताओं का प्रत्येक नगरके बीच होना जरूरी है। इन उल्लेखों एवं ऐसे ही अन्य उल्लेखोंसे, मो अर्थ शास्त्रका अध्ययन करनेसे प्रगट होते हैं, चाणक्यका जैनधर्म विषय ही श्रद्धान प्रगट है। और अन्तमें चाणिक्यने जैन शास्त्रानुसार जैन साधुकी वृत्ति ग्रहण करली थी।
१-आक० भा० ३ पृ. ५१-५२ ।
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२४२ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
चाणक्य जैनाचार्य हुये थे और अपने ५०० शिष्यों सहित उनने देश विदेशों में विहार करके दक्षिणके वनवास नामक देशमें स्थित क्रौंचपुर नगरके निकट प्रायोपगमन सन्यास ले लिया था । चाणक्य के साधु होने का जिक्र जैनेतर शास्त्रोंमें भी है। इस अवस्थामें चाणक्यको जैन ब्राह्मण मानना अथवा उनपर जैनधर्मका प्रभाव पड़ा स्वीकार करना कुछ अनुचित नहीं है। चाणक्यको अवश्य ही जैनधर्मसे प्रेम था । अतएव चन्द्रगुप्तने उनको मंत्रीपददेकर एक उचित कार्य ही किया था । चाणक्य के मंत्री होनेसे उनके जैनत्वमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है। यही बात प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री विन्सेन्ट स्मिथ स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि 'चंद्रगुप्त ने राजगद्दी एक कुशल ब्राह्मणकी सहायता से प्राप्त की थी, यह बात चंद्रगुप्तके जैन धर्मावलम्वी होने के कुछ भी विरुद्ध नहीं पड़ती ।' (आहिइ० ० ७९ ) इस अवस्थामें सम्राट् चंद्रगुप्त और चाणक्यके जैन होनेके कारण भारतवर्षके प्रथम उद्धारका यश जैनियों को ही प्राप्त है ।
कहते हैं कि चंद्रगुप्तने कुल चौवीस वर्षे राज्य किया था । धर्म-प्रभावन कार्य और अन्त में वह जैन साधु होगया था। के और समाधिमरण | उसने अपनी राज्यावस्था में जैनधर्म प्रभावनाके लिये क्यार कार्य किये थे, उनका पता लगा लेना आज कठिन
१-आक० भा० ३ पृ० ५१-५२ । २ - हिड्राव०, भूमिका पृ० १०२६ । ३ - जविओोसो० भा० १ पृ० ११५ - ११६. मि० जायसवाल ने चन्द्रगुप्तका राज्य काल सन् ३२६ ई० पु० से सन ३०२ ई० पू०तक लिखा किन्तु श्री० नगेन्द्रनाथ वसु इससे बहुत पहिले उनका राज्यकाल निर्धारित करते है; उनका कहना है कि " सिकन्दरका समकालीन चन्द्रगुप्त न
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मौर्य साम्राज्य। [२४३ है। किन्तु उनके समान एक न्यायशील और धर्मात्मा राजाने अवश्य ही धर्मके लिये कोई ठोस कार्य किये होंगे, यह मान लेना ठीक है। इतना तो कहा जाता है कि दक्षिणके जैनतीर्थ 'श्रवणबेलगोलके पाप्त जो गांव है उसको सम्राट चंद्रगुप्तने ही वसाया था । अजैन विद्वान भी कहते हैं कि उन्होंने दक्षिण भारत के श्री शालम् प्रांतमें एक नगरको जन्म दिया था। मालूम होता है कि वह उस ओर जब अपना साम्राज्य-विस्तार करते हुए पहुंचे थे, तब उक्त जैन तीर्थकी वन्दना की थी और वहांपर एक ग्रामकी जड़ जमाई थी। उपरांत यह ग्राम जैनधर्मका मुख्य केन्द्र हुआ और अब भी है। भले ही चंद्रगुप्त के अन्य धर्म कार्यों का पता मान न चले; किन्तु जैनधर्मके इतिहाप्समें उनका नाम और उनका राज्य अवश्य हो प्रमुख स्थान प्राप्त किये रहेगा। इसका कारण है कि उनके समयमें ही जैनधर्मका पूर्णश्रुत व्यक्षिप्त हुआ था और नेन संघमें दिगम्बर एवं श्वेतांबर भेदकी जड़ भी तब ही नमी थी। अशोकके समयमें संकलित हुए बौद्ध शास्त्रोंसे भी इसी समयके लगभग जैन संघमें मतभेद खड़ा होने का समर्थन होता है। (भवतु। Z० २१३) दि. जैन शास्त्र कहते हैं कि सम्राट चंद्रगुप्तने होकर अशोक था। उनका समय ३७२ ई० पू० ठीक है । हिन्दू, बौद्ध
और जैन श्रोतोसे यही प्रमाणित होता है" (देखो हिवि० भा० १५० ५८७) यदि ३७२ ई० पू० चन्द्रगुप्तका समय माना जाय तो भद्रबाहुका समय ६० पृ० ३८३ उनके समयसे करीब २ आ मिलता है। किन्तु अशोकके लेखों में जिन विदेशी राजाओंका उल्लेख है, उनका समय इतना प्राचीन है कि अशोकको सिकन्दरका ममकालीन माना जावे।
१-ममैप्राजस्मा० पृ. २०५ । २-ऐहि० मा० ९ पृ० १९ ।
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२४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । सोलह स्वप्न देखे थे; जिनका फल श्री भद्रवाहुनी श्रुतकेवलीने बतलाया था। ___इसका निष्कर्ष इस कलिकाल में जैनधर्म और मार्य मर्यादाक्षाः हास होना था; किन्तु पं० जुगलकिशोरनी मुख्तार इन स्वप्नोंको कल्पित ठहराते हैं । जो हो, इतना स्पष्ट है कि जैनधर्ममें और खासकर दिगम्बर जैनधर्ममें चंद्रगुप्तका स्थान बड़े गौरव और महस्वका है। जैनियोंने उनकी जीवन घटनाओंको पत्थरकी शिलाओंपर सुन्दर चित्रकारीमें अंकित कर रक्खा है। अवणवेलगोलके चन्द्रगिरिवाले मंदिरों में सम्राट् चन्द्रगुप्त और उनके गुरु भद्रबाहुनीके. जीवन सम्बन्धी नयनाभिराम चित्रपट अपूर्व हैं और वह माज भी सम्राट चंद्रगुप्तके जैनत्वकी स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं। चंद्रगुप्त के नामसे ही इस पर्वतका नाम 'चन्द्रगिरि हुमा है और वहांपर एक. गुफामें उनके गुरुके चरणचिन्ह भी विराजमान हैं।
जैन शिलालेखोंमें सम्राट चन्द्रगुप्तकी मुनि अवस्थाका स्मरण बड़े गौरवास्पद शब्दों में हुआ मिलता है । उन्हें मुनींद्र चन्द्रगुप्त व महामुनि चन्द्रगुप्त अथवा चन्द्र प्रशोज्वल सान्दकीर्ति चंद्रगुप्त. .या मुनिपति चन्द्रगुप्त लिखा गया है। और यह विशेषण उनके समान एक महान और तेजस्वी राजर्षिके लिये सर्वथा उचित थे। महामुनि चन्द्रगुप्तने श्रवणबेलगोलसे ही समाधिमरण द्वारा स्वर्गलाभ किया था।
१-भद्रबाहु चरित्र पृ० ६-३२ । २-जैहि० भा० १३ पृ० २३६ । 3-हिवि० भा० ७ पृ० १५०, जैसि० मा० १ कि. २-३ पृ० ८५ व ममप्राजैस्मा० पृ० २०५ ॥ ४-जैसिभा० भा० 1 किरण २-३ पृ०७-६॥
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मौर्य साम्राज्य | [२४५ चंद्रगुप्त के बाद मौर्यवंशका दूसरा राना विदुपार था । विद्वान
चाहते हैं कि वह भी अपने पिता समान जैनधर्माबार नुयायी और पराक्रमी राना था। जैन शास्त्रोंमें इसका नाम सिंहसेन लिखा है । सन् ३०० ई० पू० के लगभग वह मगध राज्यसिंहासनपर बैठा था । इसका विशेष इतिहास कुछ ज्ञात नहीं है। किन्तु इस राज्यका संपर्क विदेशी राजाओंसे बढ़ा था; यह प्रगट है, मेगास्थनीनके चले जानेके बाद इसके राजदरवारमें सिल्युकसके पुत्र एण्टिओकस नया दुत समूह मेगा था; फिर मिसनरेश टोल्मी फो डोलफसने भी डेओनीसे उसकी अध्यक्षतामें एक दुत समूह भेजा था।२ बिन्दुसारके राज्यकालमें विदेशोंसे व्यापारके अनेक मार्ग खुले थे और आपसमें दुतोंकना शब्द मदल बदल होता था । यूनानी विद्वानोंने इसका नाम कुछ ऐसे शब्दोंमें लिखा है जो अमित्रघात अथवा अमित्रखादका अपभ्रंश प्रतीत होता है। बिन्दुमारकी एक रानी ब्राह्मण जातिकी सुभद्रांगी नामकी थी।
___अशोकका जन्म इसीकी कोखसे हुआ अशोकका राजतिलक । था। कहते हैं कि अशोकका एक बड़ा भाई और था; किन्तु सब भाइयोंमें योग्यतम होनेके कारण उसके पिताने उसे ही युवराज पद प्रदान किया था। बिन्दुसारके उपरान्त वही मगधका राना हुआ था। उसके हाथों में राज्यभार ।
१-हिवि० मा० ७ पृ० १५७ । २-लामाइ• पृ० १६९ । ३-जराएम्रो० सन् १९२८ भा० १ पृ. १३२-१३५ । ४-माप्रारा० भा० २ पृ०-९६।
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२४६] संक्षिप्त जैन इतिहास । यद्यपि ई० पू० २७७ में आगया, परंतु उसका राज्याभिषेक इसके चार वर्ष बाद सन् २७३ ई० पू० में हुआ था। इन चार वर्षों तक वह युवराजके रूपमें राज्य शासन करता रहा था। इस अवधि तक राजतिलक न होनेका कारण कोई विद्वान् उसका बड़े भाईसे झगड़ा होना अनुमान करते हैं; परंतु यह बात ठीक नहीं है।
नालम ऐसा होता है कि उस समय अर्थात सन् २७७ ई. पू० में अशोककी अवस्था करीब २१-२२ वर्षकी थी और प्राचीन प्रथा यह थी कि जबतक राज्यका उत्तराधिकारी २५ वर्षकी अवस्थाका न होनाय तबतक उसका राजतिलक नहीं होसका था; यद्यपि वह राज्यशासन करनेका अधिकारी होता था। इसी प्रथाके अनुरूप जैनसम्राट् खारवेलका भी राज्य अभिषेक कुछ वर्ष राज्यशासन युवराजपदसे कर चुकने पर २५ वर्षकी अवस्थामें हुमा था। मशोकके संबंधमें भी यही कारण उचित प्रतीत होता है। जब वह २५ वर्षके होगये तब उनका अभिषेक सन् २७३ ई०पू० में हुआ । और उनका अद्भुत राज्य शासन सन् २३६ ई० पू० तक कुशलता पूर्वक चला था। ___बिन्दुसारके समयमें अशोक उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्त और अशोक तक्षशिला व पश्चिमी भारतका सुवेदार रह चुका था। • उज्जनाका सूवेदार। इन प्रदेशोंका उसने ऐसे अच्छे ढंगसे शासन-प्रबंध किया था कि इसके सुप्रबन्ध और योग्यताका सिक्का
१-कोई विद्वान विन्दुसारकी मृत्यु सन् २७३ ई० पू० और अशोकका राज्याभिषेक सन् २६९ ई०पू० मानते है । (भाइ० पृ० ६७-६८) २-लाभाइ०, पृ० १७०1 8-अविमोसो० भा० ३ पृ० ४३८ ! ४-जविभोसो. भा० ! पृ० ११६ ।
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मौर्य-साम्राज्य ।
[२४७
तब ही जम गया था। उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्तका राज्य 'तक्षशिलाके राज्य के नामसे प्रगट था और उसमें काश्मीर, नेपाल, हिन्दुकुश पर्वत तक सारा अफगानिस्तान, बलोचिस्तान और पंजाब मिले हुये थे। तक्षशिला वहांकी राजधानी थी, जो अपने विश्वविद्यालयके लिये प्रख्यात थी । वड़े २ विद्वान वहां रहा करते थे।
और दूर दूरके लोग वहां विद्याध्ययन करने आते थे। तक्षशिलाके अतिरिक्त अशोक पश्चिमी भारतका भी शासक रहा था। उस समय वहांकी राजधानी उज्जैन थी, जो तक्षशिलासे कुछ कम प्रसिद्ध न थी। यह पश्चिमी भारतका द्वार और एक बड़ा नगर था। वहांका विद्यालय गणित और ज्योतिषके लिये विख्यात था। उज्जैन जैनोंका मुख्य केन्द्र था और जैन साधु अपने प्रिय विषय ज्योतिष और गणितके लिये जगप्रसिद्ध थे। उन्होंने उस समय उज्जैनको भारतका ग्रीनिच बना दिया था। अशोकने इन दोनों स्थानोंका शासन सुचारु रीतिसे किया था। जब अशोक रानसिंहासनपर भासीन होगये तो उनको भी
___ अपने पूर्वनोंकी भांति साम्राज्य विस्तार करकलिङ्ग-विजय । नेकी सझी। उस समय बंगालकी खाड़ीके किनारे महानदी और गोदावरी नदियों के बीचमें स्थित देश कलि. ङ्गके नामसे प्रसिद्ध था और यह देश मगध साम्राज्यका शासनमार उतारकर स्वाधीन होगया था। अशोकने उसे पुनः अपने राज्यमें मिला लिया था। इस कलिङ्गविजयमें बड़ी घनघोर लड़ाई हुई . १ लामाइ० पृ. १७०-१७१ व माप्रारा० भा० २ पृ० ९६ । २-लामाइ० पृ० ११ । ३-हिइ. भा० १ पृ० १६७ ।
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२४८] संक्षिप्त जैन इतिहास । थी। अशोकने इस युद्ध में जो भयानक इत्याकाण्ड देखा, उसका उसके हृदयपर गहरा प्रभाव पड़ा ! उसकी मात्मा इस तृशंप्त नर. संहारको देखकर भयभीत हो गई। और उसके हृदयमें दया एवं प्रेमका स्रोत वह निकला | लिङ्ग विजयने अशोकको एक कट्टर धर्मात्मा बना दिया। वह रांजलोलुपी न रहा। उसने प्रण कर लिया कि वह फिर कभी छोई युद्ध नहीं करेगा। इतना ही क्यों बल्कि उसने अपना शेप जीवन धर्म प्रचारमें व्यतीत करनेका रह संकल्प करलिया और अपने उत्तराधिकारियोंके लिये भी आदेश किया कि ' मेरे पुत्र और प्रपौत्र इस यातको सुन लें और युद्ध विजयको बुरा समझ छोड़ दें। तीर चलाने के समय भी शांति
और थोड़े दण्ड देनेको ही पसंद करें । धर्मविजयको ही माली विनय समझें ।' इस आदेशमें निस अनूठे ढंगसे प्रिय-सत्यका प्रतिबिम्ब अंकित है, वह हृदयको मोह लेता है। सम्यग्दर्शन अथवा संबोधिको प्राप्त होनेपर संसारी नीव धर्मके मर्मको समझ जाता है, यह बात अशोकके उक्त हृदयोद्गारसे स्पष्ट है ।' अशोकने अपने शासनकालमें केवल एक उक्त चढ़ाई की और
उसके बाद उसने धर्म-विनयके सच्चे प्रयत्न अशोकका साम्राज्य।
किये थे। इतनेपर भी उसके समयमें मौर्य साम्राज्यकी वृद्धि हुई थी। उसका राज्य उत्तरमै हिमालय और हिंदुकुश पर्वततक पहुंचता था। अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान
और सिन्ध उसके आधीन थे। बंगाल उसके राज्यका पर्वीय सब था | कलिंग और आंध्र देश भी उसके राज्यमें सम्मिलित थे।२ .
१-भातारा० भा०.२ पृ० ९७-९८ । २-भाइ० पृ० ६८ ।
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मौर्य-साम्राज्य।
[२४९
काश्मीरमें उसने एक नई राजधानी वसाई; जिसका नाम श्रीनगर रक्खा । नेपाकमें भी ललितपाटन नामक एक नई राजधानी स्थापित की थी। दक्षिण भारतमें नेलोर प्रदेशसे लेकर पश्चिमी किनारे अर्थात कल्याणपुरी नदीतक उसका राज्य था। इस प्रदेशके दक्षिणमें जो पांड्य, केरलपुत्र और सतियपुत्र तामिल राज्य थे, वे स्वतंत्र और स्वाधीन थे । इस प्रकार दक्षिणके थोड़ेसे भागके अतिरिक्त सारे भारतवर्ष में उसीका साम्राज्य था।
इस वृहत साम्राज्यको अशोकने कई भागोंमें विभक्त कर रक्खा था। इनमें मध्यवर्ती भागके अतिरिक्त शेष भागोंमें चार राजप्रतिनिधि-संभवतः राजकुमार राज्य करते थे। एक रानप्रतिनिधि तक्षशिलामें रहता था दूसरा कलिंग प्रांतकी राजधानी तोपलीमें, तीसरा उज्जैनमें और चौथा दक्षिण में रहकर सारे दक्षिणी देशपर शासन करता था। उनके राज प्रतिनिधि मालवा, काठियावाड़ और गुजरातका शासन प्रबंध करता था। कलिंगके शाप्तनकी अशोको बड़ी फिकर रहती थी। वहांपर उसके राज्यप्रतिनिधि कमी२ अच्छा शासन नहीं करते थे। इसलिये उसने वहांपर दो शिलालेख खुदवाकर रानप्रतिनिधियोंको समुचित शिक्षा दी थी।
अशोभने शासन प्रबन्ध धर्मको प्रधान स्थान दिया था। अशोकका शासन इसी कारण उसके राज्यमें राष्ट्रका रूप बदल . प्रवन्ध। गया था। राजनीति संबंधी कार्योंमें धार्मिक कार्य आ मिले थे। इसलिये 'राज्यका कर्तव्य न केवल देशमें शांति 'स्थापित रखना और प्रजाकी रक्षा करना था, वरन् धर्मका प्रचार
• १ लाभाइ०. पृ० १५५-१७६ ॥ २-अधः पृ० ३७.. .
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२५० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । करना भी था। इसके लिये अशोकने भरसक प्रयत्न किया। उसके महामात्र राज्यमें दौरा करते थे और जनताको धर्मका उपदेश करते थे । प्रत्येक वर्ष में कुछ दिन ऐसे नियत कर दिये गये जिनमें राजकर्मचारी सर्कारी काम करनेके अलावा प्रजाको उसका कर्तव्य बतलाते थे । जनसाधारणके चाल-चलनकी निगरानी के लिये निरीक्षक नियुक्त थे। इनका काम यह देखना था कि लोग मातापिताका आदर करते हैं या नहीं, जीव हिंसा तो नहीं करते । ये लोग रानवंशकी भी खबर रखते थे। स्त्रियोंके चाल-चलनकी देखभालके लिये भी अफसर थे। राज्यका दान विभाग अलग था। यहांसे दीनोंको दान मिलता था। पशुओंको मारकर यज्ञ करनेकी किसीको आज्ञा नहीं थी।
अशोक एक बड़ा राजनीतिज्ञ, सच्चा धर्मात्मा और प्रजापालक अशोकको वैयक्तिक राजा था। इसकी अभिलाषा थी कि प्रत्येक ___ जीवन । प्राणी अपने जीवनको सफल बनाये और परभवके लिये खुब पुण्य संचय करे । दया, सत्य, और बड़ोंका आदर करनेपर वह बड़ा जोर देता था। वह प्रजाके सुखमें अपना सुख और दुःखमें दुःख समझता था ! वह एक आदर्श राना था
और उसकी प्रजा खुब सुखी और समृद्धिशाली थी। वह अपने अभिषेकके वार्षिकोत्सव पर एक एक कैदी छोड़ा करता था। इससे प्रगट है कि उसके राज्यमें मपराध बहुत कम होते थे और
जेलखानोंमें कैदियोंका जमघट नहीं रहता था। उसकी एक . उपाधि 'देवानां प्रिय' थी और उसे 'प्रियदर्शी भी लिखा गया
१-भाइ० पृ० ७३-७४ । २ भाप्रारा० भा० ३ पृ० १३१ ।
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मौर्य साम्राज्य |
[ २५१
है ।' जैन शास्त्रोंमें जैन राजाओंके लिये 'देवानां प्रिय 'का प्रयोग हुआ मिलता है | भगवान महावीरके पिता राजा सिद्धार्थको भी लोग 'देवानां प्रिय' कहकर पुकारते थे और उनकी माता रानी त्रिशलाको 'प्रियकारिणी' कहते थे ।
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अशोकपर जैनधर्मका विशेष प्रभाव पड़ा था । वह अपने पितामह और पिता के समान जैन धर्मानुयायी ही था; यद्यपि अपने धर्मप्रचार के समय उसने पूर्ण उदारता से काम लिया था और जैन धर्मके आधारपर अपने धर्मका निरूपण किया था । बौद्ध ग्रंथ 'महावंश' के आधारपर विद्वान् उसे ब्राह्मण धर्मानुयायी बतलाते किन्तु इस ग्रन्थके कथन निरे कपोल-कल्पित प्रमाणित हुये हैं ।" इस कारण उसपर विश्वास करना कठिन है, तिसपर सिंहलके लोगोंके निकट ब्राह्मणसे भाव वौद्धेतर संप्रदायोंका होना उचित दृष्टि पड़ता है; " क्योंकि बौद्ध ग्रन्थोंमें ब्राह्मण और श्रमण रूप जो उल्लेख हैं; उनमें भ्रमण से भाव चौद्ध भिक्षुओंका है । और ब्राह्मण केवल वेदानुयायी ब्राह्मणोंका द्योतक नहीं हो सक्ता । उसके कुछ व्यापक अर्थ ठीक जंचते हैं । इस कारण यह संभव है कि इसी भाव से सिंहलवासियोंने अशोकको बौद्ध न पाकर उसे ब्राह्मण ( बौद्ध - विरोधी ) लिख दिया है। वरन् एक उस राजाके लिये जिसके पितामह और पिता जैनी थे, और जिसका प्रारंभिक जीवन
१ - अघ० द्वितीय अध्याय, व ईऐ० भा० २० पृ० २३२ । २ - कसू० पृ० २६-३० व ५४ । ३- अशोक० पृ० २३ । ४-अशोक पृ० २३ - ४७, भाभशो० पृ० ९६, मैबु० पृ० ११० । ५ मि० ई० टॉम खा० भी यही ठीक समझते हैं। जराएसो० भा० ९ पू० १८१ ।
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२५२] संक्षिप्त जैन इतिहास । जैनोंके दो प्रधान नगरों तक्षशिला और उन्जेनीमें व्यतीत हुआ हो, यह संभव नहीं है कि वह अकारण ही अपने वंशगत धर्मको तिलांजलि देदे।
इस विषय अगाडीकी पंक्तियोंसे बिल्कुल स्पष्ट होजायगा कि वास्तवमै अशोक मूलमें जैनधर्मानुयायी था । उज्नेनमें निप्त समय वह थे, तब उनका विवाह विदिशागिरि (वेसनगर-भिलसाके निकट) के एक श्रेष्टीकी कन्यासे हुआ था। उनकी पट्टरानी क्षत्रीयवर्णकी थी और वह पाटलिपुत्रमें थी। मशोक जत्र राजा होकर पाटलीपुत्र पहुंचे तब उनके साथ उनके सब पुत्र-पुत्रियां भी वहां गये थे; किन्तु पट्टरानी आदिके अतिरिक्त उनकी अन्य स्त्रियां उज्जैनमें रहीं थीं । अशोकने इनका उल्लेख 'अवरोधन ' रूपमें किया है। इससे अनुमान होता है कि यह महिलाएं परदेमें रहतीं थीं। किन्तु परदेका भाव यहांपर इतना ही होता है कि वह जनसाधारणकी तरह आम तौरसे जहां-तहां मा जा नहीं सक्ती होंगी । राजमर्यादाका पालन करते हुये, उनके जाने-माने में रुकावट नहीं थीं। यदि यह बात न होती तो अशोककी रानियां महात्मालोगोंके दर्शन नहीं कर सक्ती थीं और न दान-दक्षिणादि देसक्ती थीं। बौद्धशास्त्र अशोकको प्रारम्भमें एक दुष्ट व्यक्ति प्रगट करते हैं और कहते हैं कि उनने अपने ९९ भाइयों की हत्या करके राज्यसिंहासन पर अधिकार जमाया था; किन्तु उनके शिलालेखोंसे उनके राज्यकालमें भाइयों और वहिनोंका नीवित रहना प्रमाणित है । अतः बौद्धोंका यह कथन कोरा कल्पित है । तब १-भाशो० पृ० १३ । २-अशोक० पृ० २३ व भाइ पृ० ६१ ।
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मौर्य साम्राज्य |
[ ९५३.
अशोक चौद्ध न होकर जैन थे, इसलिये बौद्धोंने उनको दुष्ट लिखा है ।
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किन्हीं लोगों का कहना है कि पहिले अशोक मांभोजी था । अशोक प्रारंभ में उसकी भोजनशाला में हजारों जानवर मारे जाते जैनी था । थे ।' एक जैन के लिये इस प्रकार मांसलोलुपी होना जी को नहीं लगता और इसीसे विद्वानोंने उसे शैव धर्मानुयायी प्रकट किया है। किन्तु इस उल्लेखसे कि अशोक के राज घराने की रसोई में मांस पकता था, यह नहीं कहा जासक्ता कि अशोक के नांभोजी था । संभव यह है कि अन्य मांसभोजी राजवर्गके लिये ऐसा होता होगा । जन्मसे जैनी होनेके कारण अशोकका मांसभक्षी होना सर्वथा असंगत है । यह उल्लेख उसके अन्य सम्बंधिचोंके दिपयमें ठीक ऊंचता है; जिनको भी उसने अन्तमें अपनेसमान कर लिया था। पहले एक ही कुटुम्बमें विभिन्न मतों के अनुयात्री रहते थे, यह सर्वमान्य बात है । इसके विपरीत यदि पहलेसे ही सातत्वका प्रभाव और खासकर जैन महिंसाका, अशोक हृदयमें घर किये हुये न माना जाय तो उसका कलिंग - विजयमेंभयानक नरसंहार देखकर भयभीत होना असंभवता होजाता है । और यह भी तब संभव नहीं कि उसके रसोई घरमें एकदम हजारोंकी संख्या कम होकर केवल तीन प्राणी ही मारे जाने लगते और फिर वह भी बन्द कर दिये जाते । यह ध्यान रहे कि वैदिक महिंसा में मांसभोजनका हर हालत में निषेध नहीं है और न वौद्धअहिंसा ही किसी व्यक्तिको पूर्ण शाकाहारी बनाती है । यह केवळ
१- प्राप्रा० पृ० ७१ । २- भाप्रारा० भा० २ ० ९८ ।
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२५४] संक्षिप्त जैन इतिहास | जैन अहिंसा है जो हर हालतमें प्राणीवपकी विरोधी है और एक व्यक्तिको पूर्ण शाकाहारी बनाती है ।
उस समय वैदिक मतावलंबियोंमें मांसभोजनका बहुप्रचार था और बौद्धलोग भी उससे परहेज नहीं रखते थे। म० बुद्धने कई वार मांसभोजन किया था और वह मांस खास उनके लिये ही लाया गया था । अतएव अशोकका पूर्ण निरामिष भोजी होना ही उसको जैन बतलानेके लिए पर्याप्त है। इस अवस्थामें उसे जन्मसे ही जैनधर्मका श्रद्धानी मानना अनुचित नहीं है । जैन ग्रन्थोंमें उसका उल्लेख है और जैनोंकी यह भी मान्यता है कि श्रवणवेलगोलामें चन्द्रगिरिपर उसने अपने पितामहकी पवित्रस्मृतिमें चंद्रवस्ती मादि जैन मंदिर बनवाये थे। ___राजावलीकथा में उसका नाम भास्कर लिखा है और उसे अपने पितामह व भद्रबाहु स्वामीके समाधिस्थानकी वंदनाके लिये अवणवेल्गोल आया बताया है । (शि सं०, भूमिका ट० ६१) अपने उपरान्त जीवनमें मालूम पड़ता है कि अशोकने उदारवृत्ति ग्रहण करली थी और उसने अपनी स्वाधीन शिक्षाओं का प्रचार करना प्रारंभ किया था; जो मुख्यतः जैन धर्मके अनुसार थी। यही कारण प्रतीत होता है कि जन ग्रंथोंमें उसके शेष जीवनका हाल नहीं है। जैन दृष्टिसे वह वैनयिक-रूपमें मिथ्यात्व ग्रसित हुआ कहा जासक्ता है; परन्तु उसकी शिक्षाओंमें मैनत्व कूटर कर भरा हुआ मिलता है। उसने बौद्धों, ब्राह्मणों और मानीविकोंके साथ
१-भमबु० पृ० १७ । २-राजावलीकथा भौर परिशिष्ट पर्य (पृ० ८७) ३-हिवि० भा० ७ पृ० १५० ।
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मौर्य साम्राज्य। [२५५ मैनोंको भी भुलाया नहीं था, यह बात उसके शिलालेखोंसे स्पष्ट है।
प्रो० कनके समान बौद्ध धर्मके प्रखर विद्वान् अशोकका जैन अजैन साक्षी।
. होना बहुत कुछ संभव मानते हैं और मि० ,
। टॉमसने तो जोरोंके साथ उनको जैन धर्मानुयायी प्रगट किया है। मि० राइस और प्राच्य विद्या महार्णव पं० नागेन्द्रनाथ वसु भी अशोकको एक समय जैन प्रगट करते हैं। यह चात भी नहीं है कि केवल आधुनिक विद्वान ही अशोकको पहिले जैनधर्मका श्रद्धानी प्रगट करते हों; बल्कि भानसे बहुत पहिलेके भारतीय लेखक भी उनका जैनी होना सिद्ध करते हैं। 'राजतरिड्रेणी में लिखा है कि अशोकने जिन शासनका उद्धार या प्रचार काश्मीरमें किया था। 'जिनशासन स्पष्टतः जनधर्मका द्योतक है। किन्तु विद्वान् इसे बौद्ध धर्मके लिये प्रयुक्त हुआ बतलाते हैं। हमारी समझसे "बौद्धधर्म" में 'जिन' शब्दका व्यवहार अवश्य मिलता है। किन्तु मैनधर्ममें जैसी प्रधानता इस शब्दको मिली हुई है, वैसी बौद्ध धर्म में नहीं। इस शब्दकी अपेक्षाही जब जैनधर्मका नामकरण हुआ है, तब वह शब्द इसी धर्मका द्योतक माना जा सक्का है। राजतरिणी में अन्यत्र काशमीरके राजा मेघवाहनको
१-जमीसो० भा० १७ पृ० २७५। २-इंऐ० भा०२० पृ० २४३ । 3-जगएमो. भा० ९ पृ० १५५-१९१ । ४-मैसूर एण्ड कुर्ग देखो। ५-हिवि० भा० २ पृ० ३५० । ६-'यः शान्त जिनो राजा प्रपन्नो जिनशासनम् ।
शुकलेऽत्र वितस्तात्री तसार स्तूपमाडले ॥राजतरिंगणी भ०१ ७-महिपवा० भा० ३ पृ० ४७१-१७६ ।
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२५६] संक्षिप्त जैन इतिहास । जैनोंके समान हिंसासे घृणा करनेवाला लिखा है। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि कवि कल्हणके निकट 'जिन' शब्द नोंके अर्थमें महत्व रखता था।
अबुरफनलने 'आइने मकवरी' में जो काश्मीरमा हाल लिखा है, उससे भी इस बातका समर्थन होता है कि अशोकने वहां जैनधर्मका प्रचार किया था। अबुलफनलने 'जन' शब्दका प्रयोग अशोकके संबन्धमें किया है और गाड़ी "बौद्ध" शब्दका प्रयोग बौद्धधर्मके वहांसे अवनत होनेके वर्णनमें किया है। इस दशामें अशोकका प्रारम्भमें जैनमतानुयायी होना संभव है। श्रवणवेलगोलमें जो राजा जैनमंदिर बनवा सक्ता है, वह जैनधर्मका प्रचार काश्मीरमें भी कर सक्ता है । अशोक स्वयं कहता है कि उसके पूर्वजोंने धर्मप्रचार करनेके प्रयत्न किये, पर वह पूर्ण सफल नहीं हुए। अब यदि अशोकको बौद्धधर्म अथवा ब्राह्मणमतका प्रचारक मानें तो उसका धर्म वह नहीं ठहरता है जो उसके पूर्वजोंका था । सम्राट चंद्रगुप्तने जैन मुनि होकर धर्मप्रचार किया था। इस दशामें अशोक भी अपने पूर्वजोंके धर्मप्रचारन हामी प्रतीत होता है । जिस धर्मका प्रचार करनेमें उसके पूर्वन असफल रहे, . उसीका प्रचार अशोक्ने नये दंगसे कर दिखाया और अपनी इस
सफलता पर उसे गर्व और हर्ष था। - वह केवल साम्प्रदायिकतामें संलग्न नहीं रहा-उदारवृत्तिसे उसने सत्यका प्रचार मानवसमाजमें किया। प्रत्येक मतवालेको
१-राजतरिंगणी अ० १ इलो०७२ व १०३ दलो० ७॥२-जराएमो० भा० ९ पृ. १८३ । ३-सप्तमस्तंभलेख-अघ० पृ० ३७१।
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मौर्य-साम्राज्य। [२५७ उसने उसके मतमें अच्छाई दिखा दी और वह सबका मादर करने रुगा । साम्प्रदायिक दृष्टिसे जैन अशोकके इन वैनयिक भावसे संतुष्ट न हुये और उनने उसके संबन्धमें विशेष कुछ न लिखा। इतनेपर भी अशोकका शासन प्रवन्ध और उसके धर्मकी शिक्षाओंमें जैनत्वकी झलक विद्यमान है। डॉ. कर्न मा० लिखते हैं कि "अशोकके शासन प्रबन्ध बौद्धभावका घोतक कुछ भी न था। अपने राज्यके प्रारंभसे वह एक अच्छा राजा था। उसकी जीवरक्षा संवन्धी आज्ञायें बौद्धोंकी अपेक्षा जैनोंकी मान्यताओंसे अधिक मिलती हैं। अपने राज्यके तेरहवें वर्षसे अशोकका राजघराना एक जैनके समान पूर्ण शाम्भोजी होगया। उनने जीव हत्या करनेवाले के लिये प्राणदंड जैसी कड़ी सना रक्खी थी। जैनराजा कुमारपालनी भी ऐमी ही राजाज्ञा थी। यज्ञमें भी पशुहिंसाका निषेध अशोकने किया था । कहते हैं कि इस कार्यसे उसकी वैदिक धर्मावलम्बी प्रना असंतुष्ट थी। मबुद्धके समयमें बौद्ध. लोग बाजारसे मांस लेकर खाते थे; किन्तु अशोकने भोजनके लिये भी पशुहिंसा बन्द करदी थी, यह कार्य सर्वथा एक नैनके ही उपयुक्त था। प्रीतिभोज और उत्सवोंमें भी कोई मांस नहीं परोस सक्ता था।
आखेटको भी अशोकने बन्द कर दिया था। उसने बैलों, अशोककी शिक्षा न बकरों, घोड़ों आदिको बधिया करना भी . ___ धर्मानुसार हैं। बन्द कराया था। पशुओंकी रक्षा और चिकित्साका भी उसने पिंजरापोलके ढंगपर प्रबंध किया था। कहते
-ऐ० भा० ५ पृ० २०५ । २-मअशो० पृ०४९।३-अहिइ.. पृ० १८५-१९० । ४-मैअशो० पृ० ४९।
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२५८] संक्षिप्त जैन इतिहास । हैं कि पिंजरापोल संस्थाका जन्म जैनोंद्वारा हुआ है और मान भी नैनोंकी ओरसे ऐसी कई संस्थायें चल रही हैं।' माशोने कई वार जनों की तरह 'अमारी घोष (अभयदानकी घोषणा ) कराई थी। सारांश यह है कि अशोषको पशुरक्षा पूरा ध्यान था। कोई विद्वान् कहते हैं कि पशुरक्षाको उसने इतना महत्व दिया था कि उसके निकट मानवसमाजकी भलाई गौण थी। यह ठीकसा ही लाञ्छन है जैसा कि आज जनोंपर वृथा ही आरोपित किया जाता है; किन्तु इसे अशोककी प्रवृत्ति जनों के समान थी, यह प्रकट होता है। अशोकने मानवोंकी भलाई के कार्य भी अनेक किये थे। उनकी जीवनयात्रायें धार्मिक कार्योको करते हुए व्यतीत हों, इमलिये अशोकने उनको धर्मशिक्षा देने का खाप प्रान्त किया था। प्राणदण्ड पाये हुये वीके जीवनको भी भविष्य सुखी बनाने लिये उनने उसको धर्मोपदेश मिलनेका प्रबन्ध किया था। नपा. पके लिये पश्चाताप और उपवास करने से मनुष्य अपनी गति सुधार सक्ता है। जैनधर्ममें इन बातोंपर विशेष महत्व दिया गया है।
अशोक भी इन हीकी शिक्षा देता था। उसने केवल मन. प्यक परभवका ही ध्यान नहीं रखा था। वह जानता था कि धर्म पारलौकिक और लौकिकके भेदसे दो तरहका है। एक श्रावस्के लिये यह उचित है कि वह दोनों का अभ्यास सुचारु रीतिसे भरे। अशोकने अपनी शिक्षाओंसे धर्मके इस भेदछ। पूरा ध्यान रखता।
-अशो. पृ० ४९-५० । २-अध• पृ० १६३-१६७-पंचम शिलालेख । ३-अध० पृ. ३३: । ४-२००३10-प्रथम स्तम्म लेख।
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मौर्य साम्राज्य। उसकी शिक्षाओंमें निम्न बातोंका उपदेश मनुष्यके पारलौकिक धर्मको लक्ष्य करके दिया गया था, जो जैनधर्मके अनुकूल है:
(१) जीवित प्राणियों की हिंसा न की जादे' और इसका अमली नमूना स्वयं अशोजने अपने राजघरानेको शाकमोनी बनाकर उपस्थित किया था। हम देख चुके हैं कि अशोकका बहिसातत्व विकुल जैनधर्मके समान है। वह कहता है कि सनीव तुषको नहीं जलाना चाहिये (तुसे सनीवे नो झापेउविपे) और न वनमें आग लगाना चाहिये। यह दोनों शिक्षायें जैनधर्म में विशेष महत्व रखती हैं। वनसतिकाय, नलकाय मादिमें ननोंने ही नीव बसलाये हैं।'
(२) मिथ्यात्ववर्द्धक सामाजिक रीति-नीतियों को नहीं करना चाहिये' अर्थात ऐसे रीति रिवाज जो किसी बीमार होनेपर, किसीके पुत्र-पुत्रीके विवाहोत्सवपर अथवा जन्मकी खुशी में
और विदेशयात्राके समय किये जाते हैं, न करना चाहिये । इनको वह पापबर्द्धक और निरर्थक बतलाता है और खासकर उस समय नब इनका पालन स्त्रियों द्वारा हो, कारण कि इनका परिणाम संदिग्य और फल नहीं के बराबर है। और उनका फल केवल इस भवमें मिलता है। इनके स्थानपर वह धार्मिक रीति रिवानों को जसे गुरुओं का आदर, प्राणियोंकी महिमा, श्रमण और बाह्मणों को दान देना भादि क्रियायों का पालन करनेका उपदेश देता है। यहापर अशोक प्रगटतः भोले मनुष्योंकी देवी, भवानी, यक्ष, पित
१-अध० पृ. १४८-चतुर्थ व ग्यारस शिलालेख । २-अ१० पृ. ३५२-२५३-पंचम स्तम्भ लेख । ३-Js.PlsId II II tro.४-अध. पृ० २११-नवम शिलालेख ।
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२६० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । ' मादिकी मान्यता मनाने आदि लौकिक पाखण्डका विरोध कर रहा है। भारतीय समान यह पाखण्ड बड़े मुद्दतोसे बढ़ रहा है। अशोक लाख उपदेश देनेपर भी मानतक यह निरर्थक और पापवर्द्धक रीति नीति जीवित है । लोग अब भी देवी, भवानी, पीर-पैगम्बर आदिकी मान्यतायें मनायर सांसारि भोगीपभोगकी सामग्रीके पालनेकी लालसामे पागल हो.हे हैं। अशोककी यह शिक्षा भी ठीक जैनधर्म के अनुभार है। जैन शास्त्रों में मिथ्यात्वपाखण्डका घोर विरोध किया गया है और धार्मिक क्रियायोके कानेका उपदेश है।
(३) सत्य बोलना चाहिये-जनोंके पंचाणवतोंमें यह एक सत्याणुव्रत है।
(४) अल्प व्यय और अल्पभांडताका अभ्यास करना अर्थात थोड़ा व्यव करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है। अशोककी इस शिक्षाका भाव जनों परिग्रह प्रमाण के समान है। श्रावक इस व्रतको ग्रहण दरके इच्छाओंभ निरोध करता है और अल्म व्ययी एवं अल्प परेनही होता है। १-उपु० ५० ६२४ तथा रत्नएरण्ड श्रापकाचारमें लिखते हैं:
भाषगासागरस्नानमुच्चरः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च टोकमूढं निगद्यते ॥१॥ २२ ॥ घरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेपमलीमसाः ।
देवता यदुपासीत देवतामूदमुच्यते ॥ १ ॥ २३ ॥ २-अध० पृ० ९६-ब्रह्म० द्वि० शिलालेख । ३-तत्वार्थसत्रम म०. ७ सूत्र० ।। ४-अध० पृ. १३१-तृतीय शिला। ५-धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिये.पु निःस्पृहता। परिमितपरिप्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥ ३ ॥१५॥
~लकरण्डा०।
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मौर्य साम्राज्य |
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(९) संयम और भावशुद्धिका होना आवश्यक है। अशोक कहते हैं कि जो बहुत अधिक दान नहीं कर सक्ता उसे संयम, भावशुद्धि, कृतज्ञता और दृढ़ भक्तिका म्याद व्यवश्य करना चाहिये ।' एक श्रावक के लिये देव और गुरुकी पूजा करना और दान देना गुरुप कर्तव्य बताये गये हैं ।" अशोक ने भी ब्राह्मण और श्रमणका आदर करने एवं दान देनेकी शिक्षा जननाधारणको दी थी। यदि वह दान न देवकें तो संयम, भावशुद्धि और दृढ़ भक्तिका पालन करें। जैनधर्ममें इन बातों का विधान खाम तौरपर हुगा मिलता है | संगम और भावशुद्धिको उपमें मुख्यस्थान गाप्त है। 1
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(६) अशोककी धर्मयात्रायें - स्त्र पर कल्याणकारी थीं उनमें भ्रमण और ब्रह्मणों का दर्शन करना और उन्हें दान देना राधा ग्रामवासियोंको उपदेश देना और धर्मविषयक विचार करना आवश्यक थे । जैन संघ विहार इसी उद्देश्यसे होता है । जैन संघ श्रावक-श्राविका साधुजनके दर्शन पूजा करके पुण्य-चन्द करते हैं और उन्हें बड़े भक्तिभाव से आहार दान देते हैं। साधुन मथवा उनके साथ पंडिताचार्य सर्व साधारणको धर्म का स्वरूप १- अध० १० १८९ - सप्तम शिला० । २-दाणं पूजा मुकावं मावय धम्मो, ण गावी तेण विणा । - कुंदकुंदाचार्य । ३-अध० पृ० १९७ २११ - अष्टम व नवम् शिला-' और श्रमण ' का प्रयोग पहिले साधारणतः साधुजनको लक्ष्य कर किया जाता था ।
४- भावो कारणमृदो गुणदोषाणं जिणाविति । अष्टपाहुड पृ० १६२ । 'संजम जीगे जुतो जो तवमा चेद अणेगविधं ।
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सो कम्म णिज्जराए विठलाए वह जीवो ॥ २४२ ॥ ५ ॥ मृठांचार | ५- अ० पृ० १९६ - अष्टमक्षि० ।
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२६२) संक्षिप्त जैन इतिहास । समझाते हैं और खूब ज्ञान गुदड़ी लगती है । मलम होता है कि अशोक ने अपनी धर्मयात्रायोंका ढांचा जनसंघके आदर्शपर निर्मित किया था।
(७) सर्व प्राणियों की रक्षा, संयम, समाचारण और मार्दव ( सवभूतानं अउति, संयम, समचरियं, मादवं च ) धर्मका पालन करनेकी शिक्षा अशोर ने मनुष्यों को परभव सुखके लिये समुचित रीत्या दी थी। जैनधर्ममें इन नियमोंका विधान मिलता है। समाचरण वहां विशेष महत्व रखता है । जैन मुनियोंका आचरण 'समाचार' रूप और धर्म साम्यभाव कहा गया है। सर्व प्राणिवोंकी रक्षा, संयम और मार्दव नेनोंके धर्मके दश अंगों में मिलते हैं।'
(८) मशोक कहते हैं कि 'एकान्त धर्मानुराग, विशेष मात्मपरीक्षा, बड़ी सुश्रूषा, बड़े भय और महान् उत्साह के बिना ऐहिक
और पारलौकिक दोनों उद्देश्य दुर्लभ हैं। जैनों को इस शिक्षासे कुछ भी विरोध नहीं होसक्ता । श्राव के लिये धर्मध्यानका अभ्यास करना उपादेय है और भात्मपरीक्षा करना-प्रतिक्रमणका नियमित
...१-अध० पृ० २५०-त्रयोदश शि०।। २-समदा सामाचारो सम्माचारो समो व भाचारो।
सम्वेसिहि सम्माणं सामाचारो दु आचारो ॥२३॥॥ मूला1. अथवा:-"चारितं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोति णिहिो ।
मोहवखोह विहीणो, परिणामो अप्पणो हि समो ॥॥ प्रवचनसार । . ३-"संतीमदव अज्जव लाघव तव संजमो मचिणदा।
वह होइ बह्मचेरं सच्चं चाभो य दस धम्मा ॥७५२ ॥-मूला। ४-अध० पृ० ३१०-प्रथम स्तंभलेख । ५-अष्टपाहुइ पृ० १४ { २२१ ३४
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मौर्य साम्राज्य । [२६३ विधान रखना जैनधर्ममें परमावश्यक है।' बड़ीसुश्रूषा वैयावत्यकी द्योतक है। बड़ा भय संसारका भय ६३ और उससे छूटनेका दृढ़ अनुराग बड़ा उत्साह है।'
(९) अशोक धर्म पालन करने का उपदेश देते थे और धर्म यही बताते थे कि 'व्यक्ति पापाश्रव (अपासक)से दूर रहे, बहुतसे अच्छे काम करे, दया, दान, सत्य और शौचका पालन करे ।' अशोकने ज्ञान दान दिया था पशुओं और मनुष्यों के लिये चिकित्सालय खुलवाकर औषधिदानका यश लिया था. वृद्धों और गरीबोंके भोजनका प्रबंध करके माहारदानका पुण्यवंध उपार्जन किया था और जीवोंको प्राण-दक्षिणा देकर, परमोत्कृष्ट अभयदानका अभ्यास किया था। जैनधर्ममें दान ठीक इसी प्रकार चार तरहका बताया गया है। जैनधर्ममें ही कर्मवर्गणाओंके आश्रव होनेपर पापबन्ध होता लिखा है।" अशोक भी पापकी व्याख्या ठीक ऐसी ही कर रहा है। पापकी व्याख्या वैदिक और बौद्धधर्मो के सर्वथा प्रतिकूल है; क्योंकि इन दोनों दर्शनोंमें कर्म
१-मुला० पृ० ११ व । २-अष्टपाड पृ. २३५ । ३-जिणवयणमणुगणेता संपार महाभयपि चितंता । गमवसदी भीदा भीदा पुण जम्ममरणेषु ॥८०५॥-मुला० ।
णस्थि भय मरणे समं।' -मूला० । ४-उच्छंस्वभावणावं पसंघसेवा सुदंसणे सन्द्रा ।
ण जहदि जिण सम्मतं फुब्बतो गाणमग्गेण ॥१४॥ अष्ट० पृ० ८९॥ ५-६. अध० पृ. ३१७-द्वितीय स्वंभलेख । -अध० । ..८-अघ० पृ. ३७३-३८०-सप्तम स्तंभलेख । ९ अध० पृ० ३१७ द्वितीय स्तंमलेख । १०-तंत्वार्य० पृ० ५५। ११-प्रवचनसार टीका खंड २ पृ. १३२ १ तत्वार्थ० पृ० १२४ ।
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२६४] संक्षिप्त जैन इतिहास । एक ऐसा सुक्ष्म पुद्गल पदाथ नहीं माना गया है जिसका आश्रय होसके । दया, दान, सत्य और शौच धर्म भी जैनमतमें मान्य है।
(१०) अशोकने अत्रित कराया था कि सात्मपरीक्षा बड़ी कठिन है, तो भी मनुष्यको यह देखना चाहिये कि चंडना, निम्नु. स्ता, क्रोध, मान और ईर्ष्या यह मब पाएके कारण हैं। वह इनसे दूर रहे ।' कारागारमें पड़े हुये प्राणण्ड पुरस्कन दियोंके लिये भी अशोर ने तीन दिन अवकाश दिया था जिसमें वे और उनके संबंधी उपवास, दान आदि द्वारा परमको सुधार सकें। एक धर्म- । परायणके राजाके लिये ऐमा करना नितांत स्वामाविक था। बोकी यह शिक्षा भी जैनधर्म के अनुकूल है। कैदियों का ध्यान समाधिमग्णकी ओर आर्पित करना उपके लिये स्वाभाविक था। जनना स्वभाव ही ऐसा होजाता है कि वह दूपरोंहो देवा जीविक ही न रहने दे, प्रत्युत उसका जीवन सुखमय हो, ऐसे उपाय करे। नशोक भी यही करता है।
इस प्रकार मशोने जो बातें पारलौकिक धर्मके लिये माव-. श्यक बताई हैं, वह जैनधर्ममें मुख्य स्थान रखती हैं। हां, इतनी बात ध्यान रखनेकी अवश्य है कि अशोकने अपने शासन-लेखोंमें लौकिक और पारिलोकिक धर्ममें ब्राह्मण-श्रमणा मादर करना, दान देना, जीवोंकी रक्षा करना, कत पापोंसे निवृत होनेके लिये मात्म परीक्षा करना और व्रत उपवास करना मुख्य हैं। इन्हीं पांच बातों के अन्तर्गत अवशेष बातें भानाती हैं। और इन्हीं पांच बातोंच
१-अघ० पृ. ३२४-नृतीय स्तंभलेख। २-अध० पृ. ३३९ । ३-माअशो० पृ० ११६-१२
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मौर्य साम्राज्य। [२६५ 'उपदेश जैन शास्त्रोंमें मिलता है। सब जीवोंपर दया करना, दान
देना, गुरुओंकी विनय और उनकी मूर्ति बनाकर पुना करना, कृत्पा. मौके लिये प्रतिक्रमण करना और पर्व दिनों में उपवास करना एक श्रावकके लिये भावश्यक कर्म है।
अशोक यह भी कहते हैं कि धर्मको चाहे सर्व रूपेणं पालन करो और चाहे एक देशरूप, परन्तु करो अवश्य ! और वह यह मो बतला देते हैं कि सर्वरूपेण धर्मका पालन करना महाकठिन है। यहांपर उन्होंने स्पष्टतः जैन शास्त्रोंमें बताये हुये धर्मके दो मेद-(१) मनगार धर्म और (२) सागार धर्मका उल्लेख किया है। मनगार-श्रमण धर्ममें धार्मिक नियमोंधा पूर्ण पालन करना पड़ता है; किन्तु सागार धर्ममें वही बातें एक देश-आंशिक रूपमें पाली जाती हैं। इस अवस्थामें अशोकका पारलौकिक धर्मके लिये जो बातें आवश्यक बताई हैं, उनसे भी नैनोंको कुछ विरोध नहीं है। क्योंकि वह सम्यक्त्वमें बाधक नहीं हैं।" तिसपर जैन शास्त्रों में उनका विधान हमा मिलता है। अशोक लौकिक धर्मके ही लिये कहते हैं कि
(१) माता-पिताकी सेवा करना चाहिये । विद्यार्थीको माचा
ल्पसूत्र पृ० ३२-जराएमो० भा० ९ पृ० १७२ फुटनोट १ । २-अध० पृ० १०९-सप्तम शिला० । ३-अध० पृ. २२०-शि० ११॥ -~-अष्टपाड.पृ. ९४ व १९॥ ५-दो हि धर्मो गृहस्यानां लौकिकः पारलौकिकः ।
लोकाश्रयो गवेदाद्यः परः स्यादांगमाश्रयः ॥ सर्थ एव हि जैनानां प्रमाण लौकिको विधिः । . . यत्र सम्यक्त्व हानिन यत्र न प्रतदूषणम् ॥
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२६६] संक्षिप्त जैन इतिहास । यकी सेवा करना चाहिये और अपने जाति भाइयों के प्रति उचित वर्ताव करना चाहिये। (ब्रह्म गरिका द्वि०शि०, भघ० ४०९६)
(२) मनुष्य व पशु चिकित्साका प्रबन्ध करना चाहिये । फूल . फल जहां न हों, वहां भिनवाना चाहिये और मार्गोंमें पशुओं व मनुष्यों के मारामके लिये वृक्ष लगवाना व कुयें खुदवाना चाहिए।'
(३) बन्धुओंध मादर और वृहों की सेवा करनी चाहिये । (चतुर्थ शि० ) वृहों के दर्शन करना और उन्हें सुवर्णदान देना चाहिये । ( अष्टम शि०)
(४) दास और सेवकों के प्रति उचित व्यवहार और गुरुभोंका भादर करना चाहिये । (नवम शि.)
(५) और अनाथ एवं दुखियों के प्रति दया करना चाहिये। (सप्तम स्तम्भ लेख) '. इन लौकिक कार्यों को अशोक महत्वकी दृष्टिसे नहीं देखते थे। वह साफ लिखते हैं कि 'यह उपकार कुछ भी नहीं है । पहिलेके राजाओंने और मैंने भी विविध प्रकारके सुखोंसे लोगों को सुखी किया है किन्तु मैंने यह सुखकी व्यवस्था इसलिये की है कि लोग धर्मके अनुसार माचरण करें। अतः मशोकके निकट धर्मका मूल भाव पारलौकिक धर्मसे था। लौकिक धर्म सम्बन्धी कार्य मूल धर्मकी वृद्धि के लिये उनने नियत किये थे। जैनधर्म, लौकिक १-'तिणहं.दुप्पाड आरं समणाआसो त जहा ।
अगपिउणो भदिदायगस्स धम्मापरियस्व ॥' २-घोमदेव:-'माता-पित्रोश्च पूजक-श्री मण्डनगणि । -अध० पृ० ३७६-सप्तम स्तम्भ लेख ।
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[२६७. कार्योको करना पारिलौकिक धममें सहायक होने के लिये बताया है। प्रवृत्ति भी निवृतिकी ओर ले जानेवाली है। भशो भी इस मुख्य भेदके महत्त्वको स्पष्ट करके तद्रूप उपदेश देते हैं। ।
जिसप्रकार अशोककी धार्मिक शिक्षायें जैनधर्मके अनुकूल हैं; अशोकने जैनोंके उसी प्रकार उनके शासन-लेखोंकी भाषामें भी पारिभाषिक शब्द भनेक बातें जनधर्मकी द्योतक हैं । खास बात व्यवहृत किए थे। तो यह है कि उन्होंने अपने शासन-लेख प्राकृत भाषाओं में लिखाये हैं। जैसे कि जैनोंके ग्रंथ इसी भाषा में लिखे गये हैं। अशोककी प्राकृत जैनोंकी अपभ्रंश प्राकृतसे मिलती जुलती है।' तिसपर उन्होंने जो निम्न शब्दों का प्रयोग किया है, वह खास जैनोंके भावमें है और जैनधर्ममें वे शब्द पारिभाषिक रूप (Technical Term) में व्यवहृत हुये हैं; यथाः
(१) श्रावक या उपासक-शब्दमा प्रयोग रूपनाथके प्रथम कधु शिलालेख वैराट और सहसरामकी आवृतिमें हुआ है । जैन धर्ममें ये शब्द एक गृहस्थके द्योतक हैं। बौद्ध धर्ममें श्रावक उस साधुको कहते हैं जो विहारों में रहते हैं। अतः यह शब्द अशोकके जेनत्वका परिचायक है। .
(२) पाण-शब्द ब्रह्मगिरिक द्वितीय लघु शिलालेखमें प्रयुक्त हुआ है। जैनधर्म, संसारी जीवके दश प्राण माने गये हैं
१-शाइवाजगढी और मन्सहराकी शिलाओंपर खुदी हुई अशोककी प्रशस्तियोंकी भाषा जैन अपभ्रंशके समान है। देखो ' प्राकवलक्षण' by Dr. R. Hoornle, Calcutta, 1880. Introduction. २-अष्टपाइ पृ० १९ व उद: । ३-ममबुः भूमिका, पृ० १३ ॥
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२६८] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
और उन्हीके अनुसार कमती बढ़ती रूपमें संसारी जीवोंक विविध भेद ही हुये हैं।
(३) जीवशब्दका व्यवहार प्रथम शिलालेखमें हुआ है। मैनधर्ममें 'जीव' सात तत्वों में प्रथम तत्व माना गया है।
(४) श्रमण शब्द तृतीय व अन्य शिलालेखोंमें मिलता है। जैन साधु और जैन धर्म क्रमशः श्रमण और श्रमणधर्म नामसे परिचित है।
(५) प्राण अनारम्भ शब्द तृतीय शिलालेखमें है। जनोंमें यह शब्द प्रतिरोध रूपमें "पाणारम्म" रूपरें मिलता है। ___ (६) भूत शब्द चतुर्थ शिलालेखमें प्रयुक्त हुआ है। जैन शास्त्रों में जीवके साथ इस शब्दका भी व्यवहार हुभा मिलता है।' १-पंचवि इन्दियपाणा मणवचिकाया व तिणि वलपाणा ।
आणप्पाणप्पाणो आउगपाणेण होति दम्पाणा ॥५॥ प्रवचनसार । २-तत्वार्थाधिगम सूत्र ४-५०६ ।। ३-मूलाचार पृ० ३१८ व कल्पसूत्र पृ० ८३ ।। ४-सव्वं पाणारंभ पच्चक्खामि अलीयवणं च ।।
सबमदत्तादाणं मेहूण परिग चेर ॥ ४ ॥ मूला.
५-Js. Pt I & II Intro. और मूला० १० २०४ यया:• अशोकने जीव, पाण, भूत और जात शब्दोंका जो व्यवहार किया है वह 'आचाराणसत्र (S. B.E. P: 36XXII ) के इस वाक्य अर्थात् पाणा-भूया-जीवा-सत्ता के विल्कुल समान है । येशक मशोकने इनका व्यवहार एक साथ नहीं किया है, किन्तु इनने प्राण व भूत (अनारंभो प्रांणांना भविषहिंसा भूतानों) का व्यवहार साथ • करके -स्पत: इन शब्दोके पारस्परिक मैदको स्वीकार किया है; जैसे कि जैन प्रकट करते हैं। (भाअशो० पृ. १३७) दि. जैनोके प्रतिक्रमणमें भी "पाणभूद जीवसत्तीणं " रूपमें इसका उल्लेख है। (श्रावक प्रतिक्रमण पुं०५)
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मौर्य साम्राज्य।
२६९.
(७) कल्प शब्दका व्यवहार पंचम शिलालेखमें हुमा है। जनोंकी कालगणनामें कल्पकाल माना गया है।'
(८) एक देश शब्द सप्तम शिलालेखमें मिलता है । जैन-- धर्ममें भी आंशिक धर्मको एक देश धर्म बताया गया है।'
(९) सम्बोधिका प्रयोग अष्टम शिलालेखमें है। जैनशास्त्रमें वोघि सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिको कहा गया है।
(१०) वचन गुप्तका उपदेश बारहवें शिलालेखमें है कि अपने धर्मसे भिन्न धर्मोके प्रति वचन गुप्तिका मन्यात करो, निससे परस्पर ऐक्यकी बढ़वारी हो । गुप्ति जैनधर्ममें तीन मानी गई हैं(१) मनगुप्ति (२) वचनगुप्ति और (३) कायगुप्ति । अन्यत्र यह मेद नहीं मिलता है।
(११) समवायका व्यवहार भी बारहवें शिलालेखमें है। जैन द्वादशांगमें एक अंग ग्रन्थका नाम 'समवायांग' है।
(१२) वेदनीय शब्द त्रयोदश शिलालेखमें अशोहने दुःख प्रकाशके लिये प्रयुक्त किया है। जैनधर्ममें भी वेदनीय शब्द दुःख मुखश द्योत माना गया है और आठ कर्मामें एक मर्मका नाम है।
• जो समो सबभृदेसु तलेसु थावांसुध । जस्स रागो य दोमो य वि िण जति दु ॥५२६॥ मुला । १-" पपलियमाणकाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो । पावइ तिहुश्णमा वोही जिणसासणे जीवो ७॥"-अट० पृ०२१५ २-पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४१७ । 3-'सेय भवभयमहणी बोधी ।'-मूला० पृ. २७७
४-मूलाचार पृ० १३५ व तत्वार्थ पृ० १७५-१७६ । ५-तत्वार्थ: विगमसूत्र, पृ० ३० । ६ तत्वार्थधिगमसूत्र, पृ० १६० .
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२७०] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
(१३) अपासिनवे (अपासव) शब्दका प्रयोग द्वितीय स्तम -लेखमें पापरूपमें हुआ है। जैनधर्ममें आस्रव शुभ और अशुभ ही माना गया है। अशुम अथवा अप आसत्र पाए कहा गया है।
(१४) आसिनद नो 'आसव' शब्दका अपभ्रंश है तृतीय स्तम्भ लेखमें व्यवहृत हुआ है। मैन शब्द ' अण्हय', और यह दोनों एक ही धातुसे बने हैं। यह और मानव शब्द समानवाची हैं। आस्रव शब्द बौद्धों द्वारा भी व्यवहृत हुआ है; किन्तु अशोच्ने इस शब्दका व्यवहार उनके भावमें नहीं किया है। खास बात यहां दृष्टव्य यह है कि इस स्तंभलेखमें आलब (आसिनर ) के साथर अशोकने पापका भी उल्लेख किया है। डॉ भांडारकर कहते हैं कि बौद्ध दर्शनमें पाप और मानव, ऐसे दो भेद नहीं हैं। उनके निकट पाप शब्द आसवका द्योतक है । किन्तु जैनधर्ममें पाप अलग माने गये हैं और आस्रव उनसे भिन्न बताये गये हैं। कषायोंके वश होकर याप किये जाते और मानवका संचय होता है। क्रोध, मान, म.या, लोम रूप चार कषाय हैं । अशोक क्रोध और मानका उल्लेख पापासबके कारण रूपमें करता है । अशोकनी ईर्ष्या जैनोंके द्वेष था ईर्ष्याके समान हैं । चंडता और निष्ठुरता जैनों की हिंसाके । अन्तर्गत समिष्ट होते हैं। यह पाप और आस्रवके कारण है। इस प्रकार अशोक यहां भी बौद्ध या किसी अन्य धर्मके सिद्धांतों
और पारिभाषिक शब्दों का व्यवहार न करके जैनोंके सिद्धान्त और उनके पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग कर रहा है। " १-तत्वार्थधिगमसूत्र,:पृ० १२४ । २-इपीप्रफिया इण्डिया मा० २ ' पृ० २५०। ३-भाभशो 'पृ..१२६-१२७ ॥
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AURA
मौर्य साम्राज्य। [२७१ (१५) द्विपदचतुष्पदेषु पक्षिवारिचरेषु-(दुपदचतुपदेसु पखिवालिचलेसु ) वाक्य द्वितीय स्तम्भ लेखमें मिलता है । यहां पशुओंके भेद गिनाये हैं, जिनपर अशोध्ने अनुग्रह किया था और यह नोंकि तीन प्रकारके बताये हुये तियचोंके समान हैं । जनों के पंचेन्द्रिय तिथंच जीव (१) जलचर (२) थलचर और (३) नभचर इस तरह तीन प्रकार हैं।
(१६) जीवनिकाय शब्द-पंचम स्तम्भ लेखमें आया है और इस रूपमें इसका व्यवहार जैनोंके शास्त्रोंमें हुआ मिलता है।'
(१७) प्रोपय शब्द पंचम स्तम्भलेखमें है और जैनों में यह प्रोषधोपवास खास तौरपर प्रतिपादित है।'
(१८) धर्मदृद्धि शब्द पष्टम स्तम्भलेखमें प्रयुक्त है । जैन साधुओं द्वारा इस शब्दका विशेष प्रयोग होता है और नैनों को धर्मवृद्धिका विशेष ध्यान रहता है। ___ इस प्रकार मेनकि उपरोक्त खास शब्दों का व्यवहार करनेसे
अशोकके दार्शनिक भी अशोकका जन होना प्रमाणित है। वि.
सिद्धांत जैनमता- पर उनके शान लेखोंसे जिन घार्मिक सिद्धां
नुसार हैं। न्तों में उनका विश्वास प्रगट होता है, वह भी जैनधर्म के अनुकूल है । जैसे:
(१) अशोक प्राणियोंके अच्छे बुरे कामों के अनुसार मुखदुःखरूप फल मिलना लिखते हैं। वह पाप सबको एक मात्र - १-"यायथे प्रचलताध नया प्रमादा
देकेन्द्रियप्रमुख जीवनिकाय बाधा।' इत्यादि। २-लकरण्ड प्रावकाचार ४-१६ व २० । ३-वीर वर्ष ५१०३११॥ १-चतुर्प, नवम एवं त्रयोदश शिलालेख-जमेसो. मा० १७ पृ० २६९ ।
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२७२] - संक्षिप्त जैन इतिहास | विपत्ति बतलाते हैं। जैन से यह विस्कुल ठीक है । आसवका नाश होनेपर ही जीव परमसुख पा सका है। अशोकने आसव शब्दको मैन भाव में प्रयुक्त किया है, यह लिखा जाचुका है । अतएव अशोकमा श्रद्धान ठीक जैनों के अनुपारी कि प्राणियोंका संसार स्वयं उनके अच्छे बुरे कर्मोंपर निर्भर है। कोई सर्वशक्तिशाली ईश्वा उनको सुखी बनानेवाला नहीं है । कर्मवर्गणाओंका बागमन (अनब) रोक दिया जाय, तो आत्मा सुखी होजाय ।
(२) आत्माका अमरपना यद्यपि अशोकने स्पष्टतः स्वीकार नहीं किया है, किन्तु उन्होंने परमवमें आत्माको अनन्त सुखका उपभोग करने योग्य लिखा है। इससे स्पष्ट है कि वह आत्माको . अमर-अविनाशी मानते हैं और यह जैन मान्यता के अनुकूल है।'
(३) लोको विषयमें भी अशोकमा विश्वास जनों के अनुकूल प्रतीत होता है । वह इहलोक और परलोका भेद स्थापित करके
आत्माके साथ लोक्का पनातन रूप स्पष्ट कर देते हैं । उनके निकट लोक अनादि है; मिसमें जीवात्मा अनंत कालतक मनंत सुखना उपभोग कर सकता है। किंतु अशोक बल्ल-बाल'का उल्लेख करके लोक-व्यवहार, मो यहां परिवर्तन होते रहते हैं, उनका भी संकेत कर रहे हैं । जैन कहते हैं कि यद्यपि यह लोक मनादि निधन है, पर भरतखण्डमें इसमें उलटफेर होती रहती है। जिसके
१-दशम शिलालेख-अध० पृ. २२० । २-तत्वार्थ० अ० ६-१०।: ३-जमीसो० भा० १७ पृ० २७० । ४-एको मे सासदो अप्पाणाणदसण लक्खणो सेसा मे बाहिरा भावा सम्वे संजोग लक्खणा ॥८॥-कुन्दकुन्दाचार्यः । ५-अध० ए० २६८-त्रयोदश शि० १६-अध० पृ० १४८ व १६३चतुर्थ व पंचम शिला।
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मौर्य-साम्राज्य । - [२७३ कारण इसका आदि और अंत है। एक परिवर्तन अथवा उलटफेर 'कल्प' कहलाता है।
(४) धर्मके सिद्धांतमें अशोक जीवोंकी रक्षा अथवा अहिं. साको मुख्य मानते हैं। उनके निकट अहिंसा ही धर्म है । जैन शास्त्रों में भी धर्म दयामई अथवा अहिंसामई निर्दिष्ट किया गया है। उसमें धर्मके नामपर यज्ञमें भी हिंसा करने की मनाई है। . अशो ने भी यही किया था।
(१) धर्मधा पालन प्रत्येक प्राणी कर सक्ता है । जैनधर्मकी शरणमें भाकर क्षुद्रसे क्षुद्र जीव अपना भात्मकल्याण कर सक्ता है। ठीक इस उदावृत्तका अनुसरण अशोकने किया था। उनका . प्रतिघोप था कि धर्मविषयक उद्योगके फलको केवल बड़े ही लोग पास ऐमी बात नहीं है क्योंकि छोटे लोग भी उद्योग करें तो महान स्वर्गका सुख पासक्ते हैं। इस प्रकार उन्होंने धर्माराधनकी स्वतंत्रता प्रत्येक प्राणीके लिये कर दी थी और इस बात का प्रयत्न किया था कि हरकोई धर्मका अभ्यास करे । उनका यह कार्य भी । यज्ञ-हिंसाके प्रतिरोधकी तरह वैदिक मान्यताका लोप था । ब्राह्मण समुदायका श्रद्धान और व्यवहार था कि धार्मिक कार्य करनेका । पूर्ण अधिकार उन्हींको प्राप्त है | अशोकने भगवान महावीर के उपदेशके अनुसार प्रत्येक प्राणीको आत्म-स्वातंत्र्य और पुण्यसंचय
१-धर्ममहिमारूपं संशवन्तोपि ये परित्यक्तुम् । __ स्थावरहिंसामसहानमहिमा तेऽपि मुंचन्तु ॥७५-पुरुषार्थसिद्धयुगय। २-मूलाचार पृ० १०८ व उमः । ३-वीर. वर्ष ५ पृ. २३०-२३४।। ४-रूपनाथ और सहसरामके शिलालेख, मश्कीका शिष ब्रह्मगिरीका शिला।
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२७४] संक्षिप्त जैन इतिहास। करने का अधिकार देकर ब्राह्मणोंकी इप्स मान्यताको नष्टप्राय कर दिया था। उपरोक्त पांचों बातोंका श्रद्धान रखने और तद्वत प्रयन करनेसे उनने यहां सत्य धर्मका सिक्का जमा दिया था। उनसे कई सौ वर्षों पहलेसे जो मनुष्य (अर्थात् ब्राह्मण) यहां सच्चे माने जाते थे, वे अपने देवताओं सहित झूठे सिद्ध कर दिये गये। यह वह स्वयं बतलाते हैं।
(६) धर्मका पालन पूर्ण और आंशिकरूपमें किया जाता है। जैनशास्त्रों में यह भेद निर्दिष्ट है। अशोक भी एक देश अथवा पूर्णरूपमें धर्मका पालन करनेकी सलाह देते हैं । तथापि वह सावधानतापूर्वक कह रहे हैं कि आश्रवके फंदेसे तबही छूटा (अपरिस्रवे) जासक्ता है, जब सब परित्याग करके बड़ा पराक्रम किया नाय ! यह बड़ा पराक्रम त्यागके परमोच्चपद श्रमणके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जैनशास्त्रों का ठीक यही उपदेश है।
(७) अशोकके निकट देवताओंकी मान्यता भी जैनोंके समान थी। वह कहते हैं कि देवताओंका सम्मिश्रण यहां के लोगोंके साथ बन्द होरहा था; उमको उन्होंने फिर जीवित कर दिया । जैनशास्त्रों का कथन है, जैसे कि सम्राट चन्द्रगुप्तके सोलह स्वप्नोंमसे एक स्वपके फलरूप बतलाया गया है कि अब इस पंचमकालमें देवता लोग यहां नहीं आयेंगे; ठीक यही बात अशोक कर रहे हैं।
१-अध० पृ०७४-७५ सानाधका प्रथम लघु० शिला। -अध पृ० १८९ सप्तमशिला। ३-अध० पृ० २२० दशमशिला । ४-जैमू, भा० २ पृ० ५७ व अपाहुड़ पृ० ३८-४० व ५७ । ५-रूपनाशक प्रथम लघु शला०-जगएपो० सन् १:१ पृ. १४। ६-जैहि० मा. १३.०० २३९ ।... . . . .
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मौर्य साम्राज्य |
[ ५७५
उन्होंने इस अभावकी पूर्तिके सद्प्रयत्न किये और लोगोंको देवयोनिके अस्तित्वका पता बतानेका प्रयत्न किया । देवतालोग स्वयं तो आ नहीं सक्ते थे । अतएव अशोकने उनके प्रतिबिम्ब लोगोंको . । दिखाये ।' विमान दिखलाकर वैमानिक देवताओंका दिव्यरूप लोगोंको दर्शा दिया ! इन देवताओंके इन्द्रका ऐरावत हाथी जैन लोगों में बहुप्रसिद्ध है । जब तीर्थंकर भगवानका जन्म होता है तब इन्द्र इसी हाथीपर चढ़कर आता है । आजकल भी जैन रथयात्राओं में काठ वगैरह के बने हुए ऐसे ही हाथी निकाले जाते हैं । अशोक ने भी ऐसे ही हाथी जलसमें दिखाये थे । 'अग्नि- स्कंध ' दिखलाकर अशोकने ज्योतिषी देवोंके अस्तित्वका विश्वास लोगोंको कराया प्रतीत है; क्योंकि इन देवोंका शरीर अग्निके समान ज्योति- . मय होता है । शेषमें भवनवासी देव रह गये | अशोकने इनके दर्शन भी लोगों को अन्य दिव्यरूप दिखलाकर करा दिये थे। सारांशतः अशोककी यह मान्यता भी जनों की देव योनिके वर्णन से ही समानता रखती है | इससे यह भी पता चलता है कि अशोकको ' मूर्तिपूजा' से परहेज नहीं था । जेनों के यहां तीर्थंकर भगवानकी मूर्तियां स्थापित करके पूजा करनेका रिवाज बहुप्राचीन है ।
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(८) अशोक सब धार्मिक कार्यों का फल स्वर्ग-मुखका मिलना बतलाता है । उसने मोक्ष अथवा निर्वाणका नाम उल्लेख भी नहीं किया है। बौद्ध दर्शन में 'निर्वाण' ही जीवन अथवा अर्हत् पदका अंतिम फल लिखा गया है; किन्तु अशोक उसका कहीं नाम भी
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१ - अध० पृ० १४६ - पंचम शिलाः । २-हरि० १० ११ । ३- अ६० पृ० १४७ । ४ - तत्वाध० ४।१ ।
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२७६ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
नहीं लेते हैं।' इसी तरह जैन शास्त्रोंमें मोक्ष ही मनुष्य का अंतिम ध्येय बताया गया है; पर अशोक उसका भी उल्लेख नहीं करते हैं । किन्तु उनका मोक्षके विषय में कुछ भी न कहना जन दृष्टिसे ठीक है; क्योंकि वह जानते थे कि इस जमाने में कोई भी यहांसे उस परम पदको नहीं पासक्ता है और वह यहांके लोगोंके लिये. धर्माराधन करनेका उपदेश दे रहे हैं। वह कैसे उन बातों का उपदेश दें अथवा उल्लेख करें जिसको यहांके मनुष्य इस कालमें पाही नहीं सक्ते हैं । जैन शास्त्र स्पष्ट कहते हैं कि पंचमकाल में (वर्तमान समय में) कोई भी मनुष्य - चाहे वह श्रावक हो अथवा मुनि मोक्ष लाभ नहीं. कर सक्ता । वह स्वर्गीके सुखोंको पासक्ता है। फिर एक यह बात भी. विचारणीय है कि अशोक केवल धर्माराधना करनेपर जोर देरहा है और यह कार्य शुभरूप तथापि पुण्य प्रदायक है। जैन शास्त्रानु पार इस शुभ कार्यका फल स्वर्ग सुख है। इसी कारण अशोकने लोगों को स्वर्ग प्राप्ति करने की ओर आकृष्ट किया है। उसके बताये हुए. धर्मः कार्यों से सिवाय स्वर्ग सुखके और कुछ मिल ही नहीं सक्ता था |
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(९) कृत अपराधको अशोक क्षमा कर देते थे, केवल इस शर्त पर कि अपराधी स्वयं उपवास व दान करे अथवा उसके संबंधी वैसा करे। हम देख चुके हैं कि जैन शास्त्रों में प्रायश्चित्तको विशेष महत्व दिया हुआ है। गर्हा, निन्दा, आलोचना और प्रतिक्रमण ।
१ - जमीसो० भा० १७ * पृ० २७१ । २-अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएचि लहद्द इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआणिव्बुदिं जंति ॥७७॥ अष्ट० पृ० ३३८ ३ - धम्मेण परिणदप्पा, अप्पा जदि सुद्धसम्पयोग जुदो । पावदिः निव्वाणसुहं, सुहोषजुप्तो व सगस ॥ ११ ॥ - प्रवचनमार टीका भा० १. पृ० ३९ । ४-स्तम्भ लेख ७ व जमेसो ० भा० १७ पृ० २७० ॥
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मौर्य-साम्राज्य । [२७७ करके कोई भी प्राणी कृतपापके दोपसे विमुक्त होता है। उसे कायोसर्ग और उपवास विशेष रूपमें करने पड़ते हैं। जिनेन्द्र भगवानकी पूजन व दान भी यथाशक्ति करना होता है। अतएव कृत पापके दोषसे छूटने के लिये अशोकने जो नियम निर्धारित किया 'था, वह जैनोंके अनुसार है !
इस प्रकार स्वयं अशोकके शासन-लेखों तथापि पूर्वोल्लिखित स्वाधीन माक्षीसे यह स्पष्ट है कि मशोना सम्बन्ध अवश्य जैन धर्मसे था। हमारे विचारसे वह प्रारम्भमें एक श्रावक (जैन गृहस्थ) या और अपने जीवन के अंतिम समय तक वह भाव अपेक्षा जैन था; यद्यपि प्रगटमें उसने उदारवृत्ति ग्रहण करकी थी। ब्राह्मणों, माजीविकों और बौद्धोंका भी वह समान रीतिसे मादर करने लगा था। मालूम होता है कि बौद्ध धर्मकी ओर वह कुछ अधिक सदय हुमा था। यद्यपि उसके शासन लेखोंमें ऐसी कोई शिक्षा नहीं है नो खास बौद्धोंकी हो। अकबर के समान " दीन इलाही" की तरह यद्यपि अशोकने कोई स्वतंत्र मत नहीं चलाया था, तौमी उसकी अंतिम धार्मिक प्रवृत्ति मकबरके समान थी। जैन अकबरको जैनधर्मानुयायी हुआ प्रकट करते हैं । यह ठीक है कि अशोकके विषयमें जैन शास्त्रों में सामान्य वर्णन है; किन्तु इससे *. १-देखो प्रायश्चित्त संग्रह-माणिकचन्द प्रन्यमाला । २-अध० .पू. "३६१-पष्ठम स्तम्भ लेखे । ३-मैवु० ५० ११२, सेना; इंऐ० मा०२०१० २६. जमीयो० भा० १७ पृ० २७१-२७५ । ४-अशोक साफ लिखता है कि 'मेरे मत' में अथवा 'मेरा उपदेश है (१-२ कलिंग शिलालेस च षष्ठम व सप्तम स्तम्भ लेख) अतः उनका निजी मत किसी सम्प्रदाय विशेषसे भन्तमें मवलंबित नहीं था। ५-ससू० पृ० ३७७ ।
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.२७८) संक्षिप्त जैन इतिहास । हमारी मान्यतामें कुछ बाधा नहीं आती; अशोकका नामोल्लेख तक जैन शास्त्रोंमे न होता तो भी कोई हर्न ही नहीं था। क्योंकि हम जानते हैं कि पहिलेके जैन लेखकोंने इतिहासकी ओर विशेष रीतिसे ध्यान नहीं दिया था। यही कारण है कि खारवेल महामेघवाहन जैसे धर्मप्रभावक जन सम्राटका नाम निशान तक जेन शास्त्रोंमें नहीं मिलता | अतः अशोकपर जैनधर्मका विशेष प्रभाव जन्मसे पड़ा मानना और वह एक समय श्रावक थे, यह प्रगट करना कुछ अनुचित नहीं है। उनके शाप्तनलेखक स्तम्भ आदिपर जैन चिट मिलते हैं। सिंह और हाथीके चिह्न जैनोंके निकट विशेष मान्य हैं । अशोकके स्तंभोंपर सिंहकी मुर्ति बनी हुई मिलती है और यह उस ढंगपर है, जैसे कि मन्य जैन स्तम्भों में मिलती है। यह भी उनके जैनत्वका घोतक है।
किंतु हमारी यह मान्यता आजकलके अधिकांश विद्वानों के • अशोकको बौद्ध मानना मतके विरुद्ध है। आजकल प्रायः यह ___ ठीक नहीं है। सर्वमान्य है कि अशोक अपने राज्यके नवे वर्षसे बौद्ध उपासक हो गया था। किंतु यह मत पहिलेसे
१-ये दोनों क्रमशः अन्तिम और दूसरे तीर्थङ्करके चिन्ह है और इनकी मान्यता जैनोंमें विशेष है । (वीर० भा० ३ पृ० ४६६-४६०) -मि० टॉमसने भी जैन चिन्होंका महत्व स्वीकार किया है और कुहाङके जैन स्तंभपर सिंहकी मूर्ति और उसकी बनावट अशोकके स्तम्भों जैसी बताई है । (जराएसो० भा० ९ पृ० १६१ व १८८ फुटनोट नं० २) 'तक्षशिलाके जैन स्तूपोंके पाससे जो स्तंभ निकले है उनपर भी सिंह है। (तक्ष. पृ० ७३) श्रवणबेलगोलके एक शिलालेखके प्रारम्भमें हायीका चिन्ह है । २-ईऐ० मा० २० पृ. २३० ।
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मौर्य साम्राज्य। [२७५ ही अशोकके बौद्धत्वको वास्तविक मानकर विद्वानोंने स्वीकार किया है, वरन् ऐसा कोई स्पष्ट कारण नहीं है कि उन्हें बौद्ध माना जावे । यह मत नया भी नहीं है । डा. फ्लीट, मि. मेकफैल, मि० मोनहन और मि० हेरसने अशोकको बौद्ध धर्मानुयायी प्रगट नहीं किया था । डॉ. कर्न' और डॉ० सेनार्ट व हल्श सा. भी अशोकके शासन लेखोंमें कोई वात खास बौद्धत्वकी परिचायक नहीं देखते हैं, किंतु वह बौद्धोंके सिंहकीय ग्रंथोंके आधारपर अशोकको बौद्ध हुआ मानते हैं । और उनकी यह मान्यता विशेष महत्वशाली नहीं है क्योंकि बौद्धोंके सिंहलीय अथवा ४ थी से ६ ठी श० तक मन्य ग्रन्थ काल्पनिक और अविश्वसनीय प्रमाणित हुये हैं। तथापि रूपनाथके प्रथम लघु शिलालेखके आधारसे जो अशोकको बौद्ध उपासक हुमा माना जाता है, वह भी ठीक नहीं है क्योंकि बौद्ध उपासकके लिये श्रावक शब्द व्यवहृत नहीं होसक्ता है जैसे कि इस लेख में व्यवहृत हुआ है। बौद्धोंके निकट श्रावक शब्द विहारों में रहनेवाले भिक्षुओंका परिचायक है"
और उपरोक्त लेख एवं अन्य लेखोंसे प्रकट है कि अशोक उससमय एक उपासक थे।११
१-जराएलो, १९०८, पृ० ४९१-४९२ । २-मैअशो० पृ० ४८ । ३-अर्ली हिस्ट्री आफ वंगाल पृ० २१४ । ४-जमीसो० भा० १७ पृ० २७२-२७६ । ५-मै७० पृ० ११२ । ६-इंऐ० भा० २० पृ० २६० । ७-C. J. J. I. p. XIIx जमीसो० भा० १७ पृ. २७१। ८-अशो० पृ० १९ व २३, भाअशो. पृ० ९६ और मैवु• पृ० ११०। ९-अध० पृ० ६९। १०-भमबु० भूमिका पृ. १२ । ११-अघ० पृ० ७२-८०...1
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२८०] संक्षिप्त जैन इतिहास । . मस्कीके शिलालेखमें उनका उल्लेख 'एक बुद्ध शाक्य के नामसे अवश्य हुआ है; किंतु यह उनके ज्ञानप्राप्तिका द्योतक ही माना गया है। इससे यह प्रकट नहीं होता कि अशोने चौद्धधर्मकी दीक्षा ली थी। हां, यह स्पष्ट है कि वह श्रावक अथवा उपासक हुआ था, जसे कि वह स्वयं कहता है । इससे भाव व्रती श्रावक होनेके हैं। किंतु अगाड़ी अशोक कहता है कि करीब एक वर्षसे कुछ अधिक समय हुआ कि जबसे मैं संघ आया हूं तबसे मैंने अच्छी तरह उद्योग दिया है। बौद्धग्रन्थोंमें भी अशोकके बौद्धसंघमें आनेकी इस घटनामा उल्लेख है। वुल्हर, स्मिथ और टॉमस सा० ने इस परसे अशोकको चौद्धसंघमें सम्मिलित हुआ ही मान लिया था। डॉ० भाण्डारकर अशोकको बौद्ध भिक्षु हुआ नहीं मानते; बल्कि कहते हैं कि संघ मशोक एक 'भिक्षुगतिक' के रूपमें अवश्य रहा था। किंतु मि० हेरस कहते हैं कि वह बौद्धसंघमें सम्मिलित नहीं हुआ था। अशोक बौद्ध संघमें गया अवश्य था, और भिक्षुनीवनकी तपस्याका उसपर प्रभाव भी पड़ा था; किंतु इतनेपर भी उसने बौद्धधर्मही दीक्षा नहीं ली थी। इस घटना के बाद अशोभने दो शासनलेख प्रगट किये थे।
एक रूपनाथवाला शिलालेख है जो साधारण जनताको लक्ष्य करके लिखा गया है और दुसरा कलकचा वैराटवाला शिलालेख है, जिप्सको उन्होंने बौद्धसंघको लक्ष्य करके लिखा है। रूपनाथवाला
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. १-जमीसो० भा० १७ पृ०.२७३ । २-अध० पृ. ७३-७४.। ३-महावंश (कोलम्बो) पृ० २३ । ४-जमीसो. भा० १७. पृ० २७४ । ५-माअशो० पृ० ७९-८०। ६-जमीसो० भा० १७ पृ० २७२-२७६१
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मौर्य साम्राज्य । [२८१ शिलालेख यद्यपि चौद्धसंघमें हो आनेके बाद लिखा गया है; परन्तु उसमें कोई भी ऐसी शिक्षा नहीं है जो चौद्ध कही जातके । दुसरे वैराटवाले शिलालेखके अनुसार तो अशोकको बौद्ध हुआ ही प्रकट किया जाता है। किन्तु वह सर्व प्रजाको लक्ष्य करके नहीं लिखा गया है। यदि वस्तुतः अशोक बौद्ध हुये थे तो वह अपने इस श्रद्धानका प्रतिघोष सर्वसधारणमें करते और उनके लेखमें बौद्धशि•क्षाका होना लाजमी था। फिर उनके बौद्ध हो जानेपर यह भी संभव नहीं था कि वह उन मतवालों-जैसे ब्राह्मणों, नैनों, आनिविक मादिका सत्कार कर सक्ते, जिनका बौद्धग्रन्थोंमें खासा विरोध किया गया है। वैराट शिलालेख केवल बौद्ध संघको लक्ष्य करके लिखा गया है और उसमें अशोक संघको अभिवादन करके जो यह कहते हैं कि 'हे भदन्तगण, आपको मालूम है कि बुद्ध धर्म और संघमें हमारी कितनी भक्ति और गौरव है' वह ठीक है। यह 'एक सामान्य वाक्य है, इसमें किसी धार्मिक श्रद्धानको व्यक्त नहीं किया गया है।
अशोकके समान उदारमना राजाके लिये यह उचित है कि वह जब एक संप्रदायविशेषके संघमें अपने मतको मान्यता दिलाना 'चाहता है, तो वह शिष्टाचारके नाते उनका समुचित आदर करे
और विश्वास दिलावे कि वह उनके मतके विरुद्ध नहीं है। अशोकने यही किया था। उनने यह नहीं कहा था कि हमें बौद्धधर्ममें विश्वास है और हम उसमें दीक्षित होते हैं। शिष्टाचारकी पूर्ति करके उनने संघको बौद्धधर्मके उन खास ग्रन्थोंके अध्ययन व अचार-करनेका परामर्श दिया, जो उनके मतके अनुकूल थे क्योंकि
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२८२]
संक्षिप्त जैन इतिहास । अशोक यह अन्यत्र पगट कर चुके हैं कि वह प्रत्येक धर्मावल. म्बीको अपने ही धर्मका पूर्ण आदर करना उचित समझते हैं। इसके अतिरिक्त उस लेखमें कोई भी ऐसी बात या उपदेश नहीं है जिससे बौद्धधर्मका प्रतिभास हो । तिसपर इस लेखके साथ ही उपरोक्त रूपनाथका शिलालेख लिखा गया था। इन दोनों शिकालेखों में पारस्परिक भेद भी दृष्टव्य है । रूपनाथ वाले शिलालेखमें कुछ भी बौद्धधर्म विषयक नहीं है। यह बात मि० हेरस भी प्रकट करते हैं।
यह भी कहा जाता है कि अशोकने अपनी प्रथम धर्मयात्रा में कई बौद्ध तीर्थोके दर्शन किये थे। किन्तु आठवें शिलालेखमें प्रयुक्त हुये 'सम्बोधि' शब्दसे जो म० बुद्ध के 'ज्ञानप्राप्तिके स्थान (बोधिवृक्ष) का मतलब लिया जाता है, वह ठीक नहीं है। यहां सम्बोधिसे भाव 'सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर लेनेसे' है । जैन शास्त्रोंमें 'बोषि' का पालेना ही धर्माराधनमें मुख्य माना गया है। अशो. कके यह 'बोधिलाभ' उनके राज्याभिषेक के बाद दश वर्षमें हुमा था। हां, अपने राज्यप्राप्तिसे बीसवें वर्षमें मशोक अवश्य म० बुद्धके जन्मस्थान लुम्बिनिवनमें गये थे और वहां उनने पूजा-अर्चा की थी और उस ग्रामवासियोंसे कर लेना छोड़ दिया था। इसके पहिले अपने राज्यके १४वें वर्षमें वह बुद्धको नाकमन (कनकमुनि)
. १-जमीयो० भा० १७ पृ. २७४-२७५ । २--इंऐ०, १९१३, पृ० १५९ । ३-अध० पृ• १९७ । ४-सेयं भवमय महणी नोधी गुणवित्यज मगे लदा । जदि पडिदा महु सुलहा तदा ण समं पमादो मे ॥७५८॥-मूलाचार• । ५-अध० पृ०३८३-कम्मिन देई स्तम्भ लेख..।
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मौर्य साम्राज्य । | २८३ के स्तृपका पुनरुहार कर चुके थे। किन्तु उनका बौद्धधर्मके प्रति यह मादरभाव कुछ अनोखा नहीं था। वह स्पष्ट कहते हैं कि. मैंने पत्र संप्रदायोंका विविध प्रकारसे सत्कार किया है। आनीविकोंके लिये उनने कई गुफायें वनवाई थीं। इसीप्रकार ब्राह्मण
और निर्ग्रन्थों (जनों) का भी उन्हें ध्यान था। ___ 'महावंश' में लिखा है कि अशोकने कई बौद्धविहार बनवाये थे; तो उधर 'राजतरिङ्गणी' से प्रगट है कि उन्होंने काश्मीरमें कई ब्राह्मण मंदिर बनवाये थे। जैनोंकी भी मान्यता है कि अशोकने श्रवणबेलगोल आदि स्थानोंपर कई जैन मंदिर निर्मित कराये थे। अतएव अशोकको किसी सम्प्रदायविशेषका अनु. यायी मान लेना कठिन है । उपरोक्त वर्णनको देखते हुये उनका चौद्ध होना अशक्य है । बौद्धमतको भी वह अन्य मतोंके समान आदरकी दृष्टिसे देखते थे और बौद्धसंघकी पवित्रता और अक्षुण्ण.. ताके इच्छुक थे । विदेशोंमें नो उन्होंने अपने धर्मका प्रचार किया. था उससे भी उनके चौद्धत्वका कुछ भी पता नहीं चलता है। मिश्र, मेकोडोनिया प्रभृति देशोंमें अशोकके धर्मोपदेशक गये थे किन्तु इन देशोंमें बौद्धोंके कुछ भी चिन्ह नहीं मिलते; यद्यपि मिश्र, मध्यएशिया और यूनानमें एक समय दिगम्बर जैन मुनियों के अस्तित्व एवं इन देशोंकी धार्मिक मान्यताओंमें जैनधर्मका प्रभाव
१-अघ० पृ. ३८६-निग्लीव स्तम्भ लेख (वुद्ध कनक मुनि नौमतके विरोधी देवदत्तकी संप्रदायमें विशेष मान्य है) २-अध० पृ.
३६०-पष्ठ स्तम्म टेख । ३-अध० पृ. ४०१-तीन गुहा लेख । . '.४-महावंश पृ० २३ । ५-राजतरंगिणी भा० १ पृ. २०। ६-हिवि०. भा० ७ पृ. १५० । ७-जमीयो० मा० १. पृ. २७२ ।
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“२८४] संक्षिप्त जैन इतिहास । 'अक्ट होता है। चीन आदि एशियावर्ती देशोंमें चौद्धधर्मका प्रचार अशोरके बाद हुआ था और इन देशोंमें अशोकने अपने कोई धर्मोपदेशक नहीं भेजे थे | अतः मध्याऐशिया, चीनं भादि देशोंमें बौद्धधर्मके चिन्ह मिलने के कारण यह नहीं कहा जाता • कि अशोकने उन देशोंमें बौद्धधर्मका प्रचार किया था। 'महावंश में 'लिखा है कि अशोकका पिता ब्राह्मणोंका उपासक था; किन्तु बौद्धग्रंथोंके इस उल्लेख मात्रसे बिन्दुमार और अशोकको ब्राह्मण मान लेना भी ठीक नहीं है; अब कि हम उनकी शिक्षाओंमें प्रगटतः 'बाह्मण मान्यताओं के विरुद्ध मतोंकी पुष्टि और उनकी अवहेलना हुई देखते हैं। .
इस प्रकार मालम यह होता है कि यद्यपि अशोक प्रारम्भमें अशोकका श्रद्धान अपने पितामह और पिताके समान जैनधर्मका जैन तस्वीपर अन्त मात्र श्रद्धानी था, किन्तु जैनधर्मके संसर्गसे
समय तक था। उसका हृदय कोमल और दयालु होता जारहा 'था। यही कारण है कि कलिंग विजयके उपरांत वह श्रावक हो गया और अब यदि वह ब्राह्मण होता तो कदापि यज्ञोंका निषेध न करता। वह स्पष्ट कहता है कि उसे 'बोधी' की प्राप्ति हुई है। नो जैनधर्ममें आत्मकल्याणमें मुख्य मानी गई है। यद्यपि अशोकने अपने शेष जीवन में उद्धारवृत्ति--ग्रहण कर ली थी और समान -मावसे वह सव सम्प्रदायोंका आदर और दिनय करने लगा था। किन्तु उसकी शिक्षाओंमें ओरसे छोर तक जेनसिद्धांतों का समावेश और उनका प्रचार किया हुआ मिलता है। उनका सप्तम स्तम्भ १-भया० पृ० १८६-२०२। २-महावंश पृ० १५ ।
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मौर्य साम्राज्य। [२८५लेख, जो उनके अतिम जीवनमें दिखा गया था, इस व्यवस्थाका , पुष्ट प्रमाण है।'
इप लेवमें अशोकने धर्म और ध्यानके मध्य जो भेद प्रगट किया। है, वह जनधर्मके अनुकूल है । इसी लेखमें वह कह चुके हैं कि 'धर्म दगा, दान, पत्य, शौच, मृदुता और साधुनामें है।' इन धर्म नियमोंर वह धर्मकी वृद्धि हुई मानने हैं; किन्तु ध्यानको वह विशेष महत्व देते हैं। ध्यानकी बदौलत मनुष्यों में धर्मकी वृद्धि, प्राणियोंकी . महिमा और यज्ञोंमें जीवों का अनालंभ बढ़ा, उन्होंने प्रगट किया है । जैनधर्म, दया. दान, मत्य आदिकी गणना दश धर्मोमे की गई है और ध्यान के चार भेदों में एक धर्मध्यान बताया गया है। यह धर्मध्यान शुभोपयोगरूप है, जो पुण्य और स्वर्गसुखका कारण , है। श्रावकको ध्यान करने की आज्ञा जिन शास्त्रमें मौजूद है।'
धर्मध्यान चार प्रकारचा है अर्थात् (१) आज्ञाविचय, (२) अपायत्रिचय, (३) विपाविचय और (४) संस्थान विचय । इनमें
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1-अध० पृ. ३६२ । २-धम्म सुकं च दुवे पसत्यशाणाणि णेयाणि । ॥ ३९४ ॥ मूला० मा तिविहपयारं सुहासुई सुद्धमेव गायच्वं । अहं च अहमदं मुह धम्म जिणयरिंदेहि ॥ ७६ ॥-अष्ट. पृ. २१४ । ३-धम्मेण परिणदमा अप्पा नदि सुद्धपम्पयोग जुदो । पावदि णियाण सुई, सुहोवजुत्तो व सग्गसुई ॥ ११ ॥-प्रवचनप्तार। उवओगो जदि हि सुो पुणे जीवस्स संचयं जादि । असुरो वा तध पावं, तेसिमभावे ण चपमत्यि ॥ ६७ ||--प्रवचनसार । ४-गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मळं सरगिरीघ णिपंप । तं जाणे साइज्जइ सापय ! दुक्खक्खयहाए ॥८६॥. -अष्ट. प. ३४४ १५-सयग्गेण मणं णिहभिऊण-धम्म चउबिह-शाहू। - आणापायविवाय विवो संठाण विचयं च ॥ ३९८ ॥-मूलाचार ।।
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२८६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । अपायविचय धर्मध्यानके भाराधकके लिये आत्म-इल्याणको प्राप्त करनेवाले उपायों का ध्यान करना अथवा जीवोंके शुभाशुभ मौका नाश और उनमें धर्मकी वृद्धि कसे हो, ऐसा विचार करना आवश्यक होता है। अशोक इसी धर्मकी वृद्धि हुई स्वीकार करते हैं। उन्होंने इस धर्मध्यानका विशेष चितवन किया प्रतीत होता है । और उसीके बलपर वह अपनी धर्म-विजयमें मफळमनोरथ हुये थे। जिस धर्मप्रचारको उनके पूर्वन नहीं कर सके उसको उन्होंने सहन ही दिगन्तव्यापी बना दिया । अतः यह कहा जासका है कि अशोक अपने अंतिम समय तक भावोंकी अपेक्षा बहुत करके जैन था । उसने राजनीतिका आश्रय लेकर अपने आधीन प्रजाके विविध धर्मोकी मान्यताओंका आदर किया था और उन्हें धमके उस रूपको माननेके लिये बाध्य कर दिया था, जिसपर वह स्वयं विश्वास रखता था।
लोगोंमें धर्मवृद्धि करनेके जिन उपायोंको अशोकने अपने धर्म-प्रचारका ढंग ध्यान बलसे प्रतिष्ठित किया था, उनको वह
और . क्रियात्मक रूप देकर शांत हुआ था। अशो. उसमें सफलता । कने अपने सब ही छोटे बड़े राज-कर्मचारियोंको याज्ञा दे रक्खी थी कि-"वे दौरा करते हुये 'धर्म का प्रचार करें और इस बातकी कड़ी देखभाल रक्खे कि लोग सरकारी आज्ञाओंका यथोचित पालन करते हैं या नहीं। तृतीय शिलालेख इसी विषयके सम्बंध है। उसमें लिखा है कि-देवताओंके प्रिय प्रिय.
१-इल्याण पावगाओ पाओ विचिणोदि जिणमदमुविच्च । विचि. णादि वा अपाये जीवाणमुहे य अमुद्देय ॥ ४०० ॥-मूलाचार ।
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मौर्य साम्राज्य । .. [२८७ दर्शी राजा ऐसा कहते हैं:-मेरे राज्यमें सब जगह युक्त (छोटे कर्मचारी ) रज्जुक ( कमिश्नर ) और प्रादेशिक (पांतीय अफमर) पांच२ वर्षपर इस कामके लिये अर्थात् धर्मानुशासनके लिये तथा
और कामों के लिये यह कहते हुए दौरा करें कि-" माता-पिताकी सेवा करना तथा मित्र, परिचित, स्वजातीय, ब्राह्मण और श्रमणको दान देना अच्छा है । जीव हिंसा न करना अच्छा है। कम खर्च करना और कम संचय करना अच्छा है।"
अपने राज्याभिषेके १३ वर्ष बाद अशोकने 'धर्म महामात्र नये कर्मचारी नियुक्त किये । ये कर्मचारी समस्त राज्यमें तथा यवन, काम्बोज, गांधार इत्यादि पश्चिमी सीमापर रहनेवाली जातियोंके मध्य धर्मप्रचार करनेके लिये नियुक्त थे। यह पदवी बड़ी ऊँची थी और इस पदपर स्त्रियां भी नियत थी। धर्म महामात्रके नीचे 'धर्मयुक्त ' नामक छोटे कर्मचारी भी थे जो उनको धर्मप्रचारमें सहायता देते थे।
अशोकके १३वें शिलालेखने पता चलता है कि उन्होंने इन देशोंमें अपने दून अथवा उपदेशः धर्मप्रचारार्थ भेजे थे | अर्थात (१) मौर्य साम्राज्यके अन्तर्गत भिन्न भिन्न प्रदेश, (२) सामाज्यके सीमान्त प्रदेश और सीमापर रहनवाली यवन, काम्बोज, गान्धार, राष्ट्रिक, पितनिक, भोन, आंध्र, पुलिन्द आदि नातियों के देश; (३) साम्राज्यकी जंगली जातियों के प्रान्त, (४) दक्षिणी भारतके स्वाधीन राज्य जैसे केरलपुत्र, (चे ), सत्य पुत्र (तुलु-कोंकण), चोड़ (कोरोमण्डल ), पांड्य (मदुः। व. तिनाली जिले ), (६)
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२८८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । ताम्रपर्णी अर्थात् लङ्काद्वीप; और (६) सीरिया, मिश्र, माइसीनी, मेसिडोनिया और एपिरस नामक पांच ग्रीक राना निनपा क्रमसे अंतियोक ( Antiochos II, 261-216 B. C.), तामय (Ptolong Philadelphoz; 285-247 BC.;75(Iluga. 285-254 B. अतिफिनि (Antigonos; Gonatas 277239 B.C.) और मलिक सुन्दर (Alextuder 27:25 B. C.) नामके राजा राज्य करते थे। __ ईसवी सन्के पूर्व २५ में ये पांचों गना एक माथ नौवित थे । मतः अनुमान किया जाता है कि इसी समय अशो धोपदेशक धर्मका प्रचार करने के लिये विदेशों में भेजे गए थे। इस प्रकार यह प्रकट है कि अशोका धर्मप्रचार का भारतमें ही सीमित नहीं रहा था। प्रत्युन ए शया, माछा और चोहरमें भी उमने धर्मोपदेशक भेजे थे। हा मुख्य कार्यश्री पेक्षा समारभरके माधुनिक इतिहापौ कोई भी स्म्राट अशोककी समानता नहीं कर सका । वह एक अद्वितीय राना थे। अशोकने निन उपरोक्त देशोंमें धर्मप्रचार किया था, उनमें किसी न किसी रूपमें मैंन चिन्होंके अस्तित्वका पता चलता है।
१-लका जनधर्म का प्रचार एक अत्यन्त प्राचीनकालने था, पर जैन शात्रोसे प्रगट है । लंकाका सक्षमवंश, जिसमें प्रसिद्ध राजा गवग हुआ, जैनधर्मानुयायी था। (भपा० पृ० १६०-१६८) अशोरले पहिले सम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें लंका पादुमय नामक राजा राज्य करता था (३६७-३०७ ई० पू०) । इसने निप्रन्यो (नौ) के लिये अपनी राजधानी अनुरुद्रपुरमें मंदिर व विहार बनाये थे । (ईसे० पृ० ३७)। २-अध० पृ०.५४-५५ । ३-भपा० पृ. १८६-२०२।।
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मौर्य साम्राज्य। __ [२८९ अशोकके पोते संप्रतिने अपने पितामहके इस प्रचार कार्यका पुनरुद्धार किया था और उन्होंने प्रगटतः जैनधर्मका प्रचार भारतेतर देशोंमें किया था। यदि मुनि कल्याण और फिर सम्राट अशोक अपने उदाररूपमें उन धर्मसिद्धांतोंका, जो सर्वथा जैन धर्मानुकूल थे, प्रचार न करते, तो संपतिके लिये यह सुगम न था कि वह जैन धर्मका प्रचार और जैन मुनियों का विहार विदेशोंमें करा पाता । इस देशोंमें अशोचने अपने धर्मप्रचार द्वारा जैनधर्मकी नो सेवा की है वह कम महत्वकी नहीं है। उन्हें उसमें बड़ी सफलता मिली थी। उसे वे बड़े गौरवके साथ 'धर्मविनय' कहते हैं।'
सम्राट अशोकने अपनी धर्म शिक्षाओंको बड़ीर शिकाओं अशोकके शिलालेख व और पाषाण स्तम्भोंपर अंकित कर दिया
शिल्पकार्य। था। उनके यह शिलालेख आठ प्रकार के माने गये हैं-(१) चट्टानों के छोटे शिलालेख नो संभवतः २५७ ई० पू० से प्रारम्भ हुए केवल दो हैं, (२) भाबूका शिलालेख भी इसी समयका है, (३) चौदह पहाड़ी शिलालेख संभवतः १३ या १४ वर्षके हैं; (४) कलिङ्गके दो शिलालेख संभवतः २५६ ई० पू० में अंकित कराये गये; (५) तीन गुफा लेख; (६) दोत. राईके शिलालेख (२४९ ई० पू०), (७) सात स्तम्भोंके लेख छै पाठोंमें हैं (२४३ व २४२ ई० पू०) और (८) छोटे स्तम्भोंके लेख (२४० ई० पू०)। इन लेखोंमसे शाहबाज और मानसहराके लेख तो खरोटीमें और बाकी उस समयकी प्रचलित ब्राह्मी . १-परि० पृ० ९४ व सं० प्रागैस्मा० १० १७९ १२-अध० पृ. २१२-त्रयोदश शिलालेख । ३-लामाह. पृ० १७३।
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२९० ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
लिपि में हैं । भारतवर्षके प्राप्त लेखों में यह लेख सर्व प्राचीन समझे जाते हैं और इनसे उस समय के भारतकी दशाका सच्चा २ हाल प्रकट होता है । एक बड़े गौरव और महत्वकी बात यह मालम होती है कि 'उस समय पाश्चात्य लोग भी हमारे ही पूर्वजोंसे घर्मला उपदेश सुना करते थे ।"
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इन लेखों के अतिरिक्त अशोकने स्तूप आदि भी बनवाये थे उसके समय वास्तुविद्या और चित्रणकलाकी खूब उन्नति हुई थी । Fast पत्थरपर पालिश करनेकी दस्तकारी विशेष प्रख्यात है । कहते हैं कि ऐसी पालिश उसके बाद आज तक किसी अन्य पत्थर पर देखने में नहीं मिली है । अतएव पड़ना होगा कि अशोकके समय धर्मवृद्विके साथ साथ लोगोंमें सुख-सम्पत्तिकी समृद्धि भी काफी हुई थी; क्योंकि विद्या और ललितकला की उन्नति किसी देश में उसी समय होती है; जब वह देश सब तरह भरपूर और समृद्धिशाली होता है ।
सम्राट अशोक ने करीब ४० वर्ष तक अपने विस्तृत साम्रज्य अशोकका अन्तिम पर सुशासन किया था । और अन्तमें लगभग
जीवन | सन् २३६ ई० पू० वह इस असार संसारको छोड़ गये थे । बौद्धशास्त्रों में जो इनके अंतिम जीवनका परिचय मिलता है, उससे प्रकट है कि उस समय राज्यका अधिकार उनके पौत्र सम्प्रतिके हाथों में पहुंच गया था और वह मनमाने तरीके से धर्मकार्य में रुपया खर्च नहीं कर सक्ते थे। कह नहीं सक्ते कि बौद्धोंके
१ - प्रा० भा० २ पृ० १२८ - १२९ । २- भाद्वारा० भा० २
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पृ० १३० ।
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मौर्य-साम्राज्य । [२९१ इस धन कहांतक सच्चाई है ? उनके ग्रन्थोंसे यह भी पता चलता है कि उनका एक भाई चीतशोक नामक 'तित्थियों' (जैनों) का भक्त था । वह बौद्ध भिक्षुओंको वासनासक्त ऋहकर चिढ़ाया करता था। अशोकाने प्राणमय द्वारा उसे बौद्ध बनाया था। बौद्ध शास्त्रोंमें यह भी लिखा है कि अशोकने एक जैन द्वारा बुद्धमूर्तिकी अविनय किये जाने के कारण हजारों जैनोंको पुण्ड्वईन यादि स्थानोकर मावा दिया था। पाटलिपुत्रमें एक जैन मुनिको बौद्ध होने के लिये उन बाध्य किया था किन्तु बौद्ध होने की अपेक्षा उन मुनि महाराजने प्राणों की बलि चढ़ा देना उचित समझा था। किन्तु चौद्धोंकी इन धाओंमें पत्यताका अंगविण्कुल नहीं प्रतीत होता है।
सांचीके बौद्ध पुगतत्वसे प्रगट है कि ई० पू० प्रथम शताब्दिता अविनयके भयसे म० बुद्धकी मूर्ति पाषाणमें अकित भी नहीं की जाती थी। फिर भला यह तो असंभव ही ठहरता है कि अशोक समय म० वुद्धकी मूर्तियां मिलती हों। तिसपर अशोककी शिक्षायें उनको एक महान उदारमना राजा प्रमाणित करती हैं। उनके द्वारा उक्त प्रकार हत्याकांड रचने की संभावना स्वप्नमें भी नहीं की जासक्ती । बौद्धोंकी उक्त कथायें उसी प्रकार असत्य
१-अशोक० पृ. २५४ । २-दिव्यावदान ४२७-मैत्रु० पृ० ११४। ३-जैग० भा० १४ पृ० ५९ । ४-जमीसो. भा० १७ पृ० २७२-पाणिनिसूत्रके पातञ्जलि भाष्य (Goldstuckor's Panini. p. 228) में मौर्योको सुवर्ण मूर्तियां बनवाते और वेचते लिखा है। भाष्य में लिखा है कि शिव, स्कन्ध, विशाखकी मूर्तियां नहीं बेची जाती थीं। और बौद्ध मूर्तियां । भी उस समय नहीं थीं। अत: मौधों द्वारा बनाई गई मूर्तियां जैन होना चाहिये । इस तरह पातञ्जलिभाष्यसे भी मौर्योका जैन होना प्रकट है।
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२९१] संक्षिप्त जैन इतिहास । हैं, जिसप्रकार उनका यह कहना कि अशोक अपने भाई-बहिनों के निरपराध खुनसे हाथ रङ्गकर सिंहासनपर बैठा था। किन्तु इनसे भी इतना पता चलता है कि अशोकके घराने में जैनधर्मकी मान्यता अवश्य थी।
किन्हीं विद्वानों का मत है कि जैनधर्म और चौडमतका प्रचार धर्म-प्रचार भारतीय होजानेसे एवं सम्राट अशोक हारा इन वेद पतनका कारण विरोधी मतों का विशेष भादर होने के कारण
नहीं है। भारतीय जनतामें सांप्रदायिक विद्वेपकी जड़ जम गईं; जिसने भारतकी स्वाधीनताको नष्ट करके छोड़ा। उनके खयालसे बौद्धकालके पहिले भारतमें सांप्रदायिकताका नाम नहीं था और वैदिक मत अक्षुण्ण रीतिसे प्रचलित थी। किन्तु यह मान्यता ऐतिहासिक सत्यपर हरताल फेरनेवाली है । भारतमें एक बहु प्राचीनकालसे जैन और जनेतर संप्रदाय साथ २ चले मारहे हैं। वैदिक धर्मावलंबियोंमें भी अनेक संप्रदाय पुराने जमाने में थे।' किन्तु इन सबमें सांप्रदायिक कट्टरता नहीं थी; जैसी कि उपरांत कालमें होगई थी। भगवान महावीर तक एवं मौर्यकाल के उपरांत कालमें भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जिनसे एक ही कुटुम्नमें विविध मतोंके माननेवाले लोग मौजूद थे। यदि पिता बौद्ध है, तो पुत्र जैन है। स्त्री वैष्णव है तो पति जैनधर्मका श्रद्धानी है। अतः यह नहीं कहा जासका कि मौर्यकालसे ही सांप्रदायिक विद्वेषकी ज्वाला भारनीष जनतामें धधकने लगी थी। यह नाशकारिणी भाग तो मध्य
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-इंऐ०, भा० ९पृ० १३८ । २-देखो हिस्ट्री ऑफ प्री० बुद्धि स्टिक इंडियन फिलसफी । ३-इंहिक्का० भा० ४ पृ. १४८-४९।
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मौर्य साम्राज्य। [२९३ कालसे और खासकर श्री शङ्कराचार्यनीके समयसे ही खुब धधकी थी।
साम्प्रदायिकताका उद्गम यद्यपि भारतमें बहुत पहले होचुका था, परन्तु उसमें कट्टरता बादमें ही आई थी। अशोकके नामसे जो लेख मौजूद हैं, वे उसके धर्म और पवित्रताके भावसे लबालब भरे हुए हैं। उनसे स्पष्ट है कि अशोक एक बड़ा परिश्रमी उद्योगी और प्रजाहितैषी राजा था। यही कारण है कि उसके इतने दीर्घकालीन शासन-काल में एक भी विद्रोह नहीं हआ था। प्रनाकी शिक्षा-दीक्षाका उसे पूरा ध्यान था। वस्तुतः इतने विशाल साम्राज्यका एक दीर्घकाल तक बिना किसी विद्रोहके रहना इस बातका पर्याप्त प्रमाण है कि अशोकके समयमें सारी प्रजा बहुत सुखी और समृद्धिशाली थी। वह साम्प्रदायिकताको बहुत कुछ भुला चुकी थी। अशोकके उस बड़े साम्राज्यके सार-समालके योग्य उनका कोई भी उत्तराधिकारी नहीं था। इसी कारण उनके साम्राज्यका पतन हुआ था। धर्मप्रचार उसमें मुख्य कारण नहीं था। प्रत्युत जिस रानाने राजनीतिमें धर्मको प्रधानता दी उसका राज्य रामराज्य होगया और इतिहासमें उसका उल्लेख बड़े गौरवसे हुआ। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, हर्षवईन, कुमारपाल, अमोघवर्ष, मकघर इत्यादि ऐसे ही आदर्श सम्राट थे। सन् २३६ ई० पू०के लगभग अशोककी मृत्यु हुई थी।
.. यह निश्चय रूपमें नहीं कहा जासक्ता ... अशोकके उत्तराधिकारी। कि उसकी जीवनलीला किस स्थानपर . समाप्त हुई थी। उसके बाद उसका बेटा कुणाल ई० पृ० २३६
१-बैग. मा० १४ पृ० ४५...। २-जविभोसो० भा० १. पृ० ११६ ।
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से २२८ तक राज्य करता रहा | कुणालका उत्तराधिकारी उसका भाई दशरथ हुआ। दशरथने सन् २२८-२२० ई०पू० तक शासनभार ग्रहण किया | उपरांत अशोकका पोता सम्प्रति राज्य सिंहासन पर बैठा । यह जनधर्मानुयायी था और इसने जैनधर्म प्रचार दूर र देशोंमें किया था । श्वेतांवर शास्त्रोंका कथन है कि स्थूलभद्रस्वामी के उत्तराधिकारी श्री आर्य महागिरि थे । इनके गुरु भाई श्री आर्य सुहस्तिसूरि थे । सम्प्रतिकी राजधानी उज्जयनि थी । श्री आर्य सुहस्ति सुरिने यहां चातुर्मास किया था । चातुर्मास के पूर्ण होने पर श्री जिनेन्द्रदेवका रथयात्रा महोत्सव होरहा था । संप्रति राजा भी अपने राजप्रासाद में बैठा हुआ उत्सव : देख रहा था। भाग्यवशात् उसकी नजर श्री आर्य सुहस्तिसूरिपर जा पड़ी।
संप्रतिने गुरुके चरणों में जाकर प्रणाम किया और उनसे धर्मोपदेश सुनकर व्रत ग्रहण किया । व्रती श्रावक होचुकने पर संप्रतिने धर्म प्रभावनाकी ओर बड़ी दिलचस्पी से ध्यान दिया । पहिले वह दिग्विजय पर निकला और उसने अफगानिस्तान, तुर्क, ईरान आदि देश जीते। अपनी दिग्विजयसे लौटनेपर संप्रतिने जैनधर्म प्रभावक अनेक कार्य किये । कहते हैं कि उसने सवालाख नवीन जैन मंदिर बनवाये, दो हजार धर्मशालायें निर्माण कराई, सवा करोड़ जिनबिम्बों की स्थापना कराई, ग्यारह हजार वापिका और कुण्ड खुदवाये तथा छत्तीस हजार स्थानोंमें जीर्णोद्धार कराया
१ - परि० पृ० ९४ व जैसा० भा० १ पृ० ८-९ वीर वंश०यहां संप्रतिको कौरवकुल मोरियवंशका लिखा है । २- गुखापरि० जैन १० ८३ ।
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थी | मालूम नहीं इस गणना में कहांतक तथ्य है ! किंतु वर्तमान जैन मंदिरोंमें बहुत ही कम ऐसे मिलते हैं, जिनको लोग संप्रतिका बनवाया हुआ मानते हों। राजपूताना और गुजरात में इन मंदिरोंकी संख्या अधिक बताई जाती है; परन्तु अभीतक कोई भी ऐसा पुष्ट प्रमाण नहीं मिला है, जिससे इन मंदिरोंको संप्रति द्वारा निर्मित स्वीकार किया जा सके । वह सब मंदिर संप्रतिसे बहुत पोछेके बने हुये प्रगट होते हैं | (राइ० भा० १ ४० ९४) जो हो, यह स्पष्ट है कि संप्रतिने धर्म प्रभावनाचा खास उद्योग किया था और उन्होंने जैन उपदेशक देश विदेशमें भेजे थे। वहांके निवासियोंको जैनधर्म में दीक्षित कराया था।' 'तीर्थकल्प' से प्रकट है कि उन्होंने अनार्य देशों में भी विहार (मंदिर) बनवाये थे । ( राइ० भा० १ ८० ९४ ) दुःख है कि अशोककी तरह संप्रतिके कोई भी लेख मादि नहीं मिलते हैं, जिससे उनके धर्मप्रभावक सुकृत्यों का पता चल सके । तो भी जैनधर्मके लिये संप्रति दूसरे कान्स टिन्टायन थे । उनने सौ वर्षकी आयु तक जैनधर्म और राज्यसेचन करके 1 स्वर्गसुख काम किया था |
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दिगम्बर जैन ग्रंथों में राजा संप्रतिका कोई उल्लेख देखने को संप्रति और उसके नहीं मिलता है। संप्रतिके परपितामह समयका जैन संघ । सम्राट् चंद्रगुप्तका उल्लेख दोनों ही संप्र
१ - जैसा सं० भा० १ वीरवंश पृ० ८ । २- परि० पृ० ९४, जैसासं● भा० १ वीरवंश पृ० ९ व पाटलीपुत्र कल्पन्य; यथा: - "कुणालस्तुखिमंडभरताधिपः परमाईतो, अनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितः श्रमण विहारः सम्प्रति महाराजोऽभवद "
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दायोंके शास्त्रों में है; किंतु संप्रतिका उल्लेख केवल एक संप्रदाय के शास्त्रों में होना, संभवतः संघमेदका द्योतक है । वि० सं० १३९में दिगंबर और श्वेताम्बर भेद जैनसंघमें प्रगट हुआ था; तबतक दिग म्बर जैन दृष्टिके अनुसार अर्घफालक नामक संप्रदायका अस्तित्व जैनसंघ में रहा था। मथुराकी मूर्तियोंसे इम संप्रदायका होना सिद्ध है । अतएव यह उचित मंचता है कि श्वेतांबरोंके इप पूर्वरूप 'अर्धफालक' संप्रदाय के नेता आर्य सुहस्तिरि थे और संप्रतिको भी उन्होंने इसी संप्रदाय में भुक्त किया था। यही कारण है कि सुहस्तिसूरि और संप्रतिके नाम तकका पता दिगम्बर जैन शास्त्रों में नहीं चलता । सम्राट् चन्द्रगुप्तका जितना विशद वर्णन और उनका आदर दिगंबर जैन शास्त्रोंमें है, उतना ही वर्णन और मादर श्वेतांवरीय ग्रन्थोंमें संप्रतिका है ।
हिंदुओंके वायु पुराणादिकी तरह बौद्धोंने भी संप्रतिका उल्लेख 'संपदी' नामसे किया है और अशोकके अंतिम जीवन में उसके द्वारा ही राज्य प्रबंध होते लिखा है । किंतु ऊपर जिस संघभेदका उल्लेख किया जाचुका है, उसके होते हुये भी मालूम होता है कि मूल जैन मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं पड़ा था। श्री आर्य सुहस्तिसूरि के गुरुभाई श्री मार्य महागिरिने जिनकल्प ( दिगम्बर भेष )का आचरण किया था । जैनमूर्तियां ईसवीकी प्रथम शताव्दि तक और संभवतः उपरांत भी बिल्कुल नग्न ( दिगम्बर मेष ) में बनाई जातीं थीं । दिगम्बर जैनोंके मतानुसार भद्रबाहुनी के बाद वि
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१–जैहि० भा० १३ पृ० २६५ | २- भद्रबाहुचरित्र पृ० ६६ । ३-धीर वर्ष ४ पृ० ३०७ - ३०९ । ४- अशोक, पृ० २६५ । ५ - परि० पृ० ९२
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मौर्य-साम्राज्य। शाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय आदि दस पूर्वधारी मुनि हुये थे। संप्रतिके समयमें संभवतः क्षत्रिय अथवा जयाचार्य विद्यमान होंगे। श्वेताम्बरोंका कथन है कि महावीरजीसे २२८ वर्ष बाद जैन
संघमें गंग नामक पांचवां निहन्ट उत्पन्न हुमा सेठ सुकुमाल ।
' था; किंतु वह भी निष्फल गया था। उज्जनीके प्रसिद्ध सेठ सुकुमालको भी वह इसीसमय हुये अनुमान करते हैं, परंतु यह बात ठीक नहीं, क्योंकि इससमय मोक्षमार्ग बन्द था । - मंप्रतिके बाद मौर्यवंशमें पांच राजा और हुये थे। परन्तु अन्तिम मौर्य राजा और उनके विषयमै कुछ भी विशेष वृतान्त मौर्य साम्राज्यका अन्त । मालूम नहीं होता। इनमें सर्व अतिम राजा वृहद्रथ नामक थे। सन् १८४ ई० पू०में यह अपने सेनापति पुष्पमित्रके हाथसे मारा गया था। और इनके साथ ही मौर्य वंशकी समाप्ति होगई ! अशोकके बाद ही मौर्य साम्राज्यका पतन होना प्रारम्भ होगया था, यह हम पहिले लिख चुके हैं । अशोकके उत्तराधिकारियोंमें कोई इस योग्य नहीं था जो समूचे साम्राज्यकी वाग्डोर अपने सुदृढ़ हाथोंमें ग्रहण करता । मालूम होता है कि पूर्वीय भागमें अशोकका पोता दशरथ राज्याधिकारी रहा था,
और पश्चिमकी ओर संप्रति सुयोग्य रीतिसे शासन करता रहा था। हिन्दू पुराणोंसे विदित है कि इसी समय शुङ्ग-वंशने राजविद्रोह किया था। मौर्य साम्राज्यके पतनका यह भी एक कारण था। कट्टर ब्राह्मण अवश्य ही संप्रतिके जैनधर्म प्रचारके कारण उनसे असंतुष्ट थे। इनके अतिरिक्त और भी कारण थे; निनके परिणामरूप मौर्य 1 इंऐ० मा० २१ पृ. ३३५। २-जैसासं० भा०१ वीर वंश• पृ०६॥
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२९८] संक्षिप्त जैन इतिहास । साम्राज्य छिन्नभिन्न होगया ! मध्य भारत, गंगाप्रदेश, आंभ और कलिङ्गदेश पुनः अपनी स्वाधीनता प्राप्त करने की चेष्टा करने लगे थे । सीमांत प्रदेशोंचा यथोचित प्रवन्ध न होने के कारण विदेशीय आक्रमणकारियोंको भी अपना नभीष्ट सिद्धकानेका अवसर मिला था।
मौर्यवंशकी प्रधान शाखामा वद्यपि उपरोक्त प्रकार अंत हो उपतकालने गया था, किन्तु इस शाखाके वंशज जो अन्यत्र मौर्य वंशज । प्रांतोंमें शामनाधिकारी थे, वह सामन्तोंकी तरह मगध और उसके आसपासके प्रदेशोंने ई० सातवीं शताब्दि तक विद्यमान थे। ई० ७वीं शताब्दिमें एक पुराणवर्मा नामक मौर्यवंशी राजाका उल्लेख मिलता है | किन्हीं अन्य लेखोंसे मौर्याचा राज्य ईसाकी छठी, सातवीं और आठवीं शताब्दिता कोण और पश्चिमी भारतमें रहा प्रगट है । ई० सन् ७३८ मा एक शिलालेख कोटा (राजपूताना )के सवा ग्राममें धवल नामक मौर्यवंशी राजाका मिला है। इससे ईसाकी आठवीं शताब्दिमें राजपूतानेमें मौर्यवंशके सामंत राजाओंका राज्य होना प्रगट है । चितौड़का किला मौर्य राजा चित्रांग (चित्रांगद) का बनाया हुआ है। चित्रांग तालाब भी इन्हींका बनाया हुआ वहां मौजूद है। कहते हैं कि मेवाड़के गुहिल वंशीय राजा वापा (कालभोज)ने मानमोरीसे चित्तौड़गढ़ लिया था। भाजकल राजपूतानेमें कोई भी मौर्यवंशी नहीं है। हा, बम्बईके खानदेशमें जिन मौर्य रानाओंका राज्य था, उनके वंशन भवतक दक्षिणमें पाये जाते हैं और मोरे कहलाते हैं।'
१-भाइ० पृ० ७५ ॥२-भापारा०, भा० २ पृ० १३६ ॥ ३-कुमारपाल प्रवन्ध, पत्र ३०२-रोह पूर (५। भाइ भा१९५५
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मौर्य साम्राज्य।
[२९९ मौर्योके सेनापतिने वृहद्रथ मौर्यकी हत्या करके मगधर्म अपना
... राज्य जमा लिया। इसका वंश 'शुङ्गमंश के नामसे शु बंश।
- प्रसिद्ध हुआ। कहते हैं कि इस वंशका राज्य ११२ वर्ष तक रहा। पुप्पमित्रक समयमें यूनानी राना मैनेन्डरने भारतपर आक्रमण किया, परन्तु उसे पीछे लौट जाना पड़ा था।' जन सम्राट् खारवेलने पुप्पमित्र पर आक्रमण किया था, जिसके कारण पुप्पमित्रको मगध छोड़कर मयुरा भाग जाना पड़ा था। जन धर्मके प्रभावक मौर्य रानवंशका असमयमें ही अन्त करनेवाले राजद्रोही व्यक्तिको एक जैन राना आनन्दसे कैसे रहने देता ? शुङ्गवंशके वाद सन् ७३ ई० पृ०में वसुदेव काण्वसे ' काण्ववंश' का जन्म हुआ था। काण्ववंशके अन्तिम रानाको सन् २७ ई० पू० के लगभग एक मान्ध्रवंशीय राजाने मार डाला था। अशोककी मृत्युके बाद ही मांघ्र राज्य स्वाधीन होगया था और इस समय उसका विस्तार बहुत बढ़गया था। किन्तु उत्तरी भारतमें वह अधिक दिन तक न टिक सके । यूनानी और सिथियन शासकों ने उन्हें. श्रीव निकाल बाहर कर दिया था।
इति शम् ।
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१-माइ...६।२-भहिद
पृ. २०१।३-माइ. पृ.०६
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OMINAINGATAN ANLAMNOMMEND
बाबू कामताप्रसादजी रचित ग्रंथ-है EMMOMMANN ANG AMING MANIA है भगवान महावीर २)
भगवान महावीर व महात्मा बुद्ध ११) ई संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग )
महारानी चेलनी है भगवान पार्श्वनाथ है सत्य मार्ग
नवरत्न पंचरत्न तैयार होरहा है। विशाल जैन संघ ।)
जैन जातिका हास, उन्नतिके है जैनधर्म सिद्धान्त ) है भगवान महावीर व उनका उपदेश ।) है । जैन मुनिकी नग्नता ) है
मिलनेका पता६ मैनेजर, दिगंबरजैन पुस्तकालय-सूरत । है
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ANASI
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