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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु । [१९५ हियों तथा अन्यान्य मनुप्योंके पदचिन्हित पृथ्वीपर ही पैर रखकर चलते थे। जैनाचार्योंने जहां मुनियोंके माचारका कथन किया है, वहां विहार वर्णनमें स्पष्ट रूपसे लिखा है कि मुनियों को तथा साधुओंको मर्दित तथा पददलित भूमिपर ही चलना चाहिये। इस कथनसे ग्रीक इतिहास लेखकों का कथन बड़ी अभिन्नतासे मिलता है।
उपरोक्त खास विशेषताओंको देखते हुये यह निस्सन्देह स्पष्ट है कि सिकन्दर महानको जो नग्न साधु तक्षशिलाके आसपास मिले थे, वह दिगम्बर जैन साधु थे | आनीविक साधु वह नहीं होसते; क्योंकि आनीविक साधु पूर्णतः निरामिष भोजो नहीं होते, मानीविका करते हैं और एक लाठी (डन्डा) भी हाथमें लिये रहते हैं। तथापि उनका वैदिक ऋषि और बौद्ध भिक्षु होनाभी असंगत है। इन दोनों साधुओंका उल्लेख तो यूनानियोंने प्रथक रूपमें किया है। अतएव इन नग्न साधुको दिगम्बर जैन श्रमण मानना अनुचित नहीं है। तक्षशिलामें तब इनकी बाहुल्यता और प्रतिष्ठा अधिक थी। इससे कहा जा सका है कि उस समय जैनधर्म अवश्य ही उत्तर-पश्चिमीय सीमावर्ती देशोंतक फैल गया था। यूनानी लोगों के वर्णनसे तबके जैन साधुधर्मके स्वरूपका भी दिग्दर्शन होनाता है और वह म० महावीरके समयके अनुकूल प्रगट होता है।
१-जेसि भा०, भा० १ कि० ४ पृ० ६॥ २-भमबु० पृ० २०-२२ च वीर वर्ष २ पृ० ५४७ । ३-जेमिमा०, भा० १ कि० २-३ पृ. ८1 ४-डॉ. स्टीवेन्सन (जराऐसो० जनवरी १८५५), प्रो० कोलघुक (ऐरि० मा० १ पृ. ३९९) और इन्साइकोपेडिण टेनिका (११वीं आवृत्ति) भा० १५ पृ० १९८में इन नग्म श्रमणो हो-जनमुनि,लिखा है।
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