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संक्षिप्त जैन इतिहास |
विद्वान् और सर्वथा अरण्य में रहकर ज्ञान ध्यानमें लीन रहते थे । इस प्रकार उस समयका मुनिधर्म था ।
मुनियोंकी तरह आर्थिकाओंकी भी उस समय बाहुल्यता थी; उस समयको आर्थि. यह गार्थिकायें भी जैनधर्म प्रचार में बड़ी काओंका धर्म । सहायक थीं । गरीब और अमीर-सराय और महल सबमें इनकी पहुंच थी । बनारस के राजा जितारिकी राजकन्या मुण्डिकाको वृषभश्री आर्यिकाने श्राविका बनाया थी । राजगृहके कोठारी की पुत्री भद्राकुन्दलकेशाने अपना विवाह विप्र पुत्र सत्युक के साथ किया था; जिसे डकैती के लिये राजदंड मिल चुका था । सत्थूक भद्रासे इतना प्रेम नहीं करता था, जितना कि वह उसके गहनों को चाहता था, भद्रा उसके इस व्यवहारसे बड़ी दुखी हुई । एक रोज उसने उसे घोकेसे एक गढ़में ढकेल दिया और वह भयभीत होकर जैन संघमें आकर मार्थिका होगई । एक हत्यारी और विषयलम्पट स्त्री भी संबोधिको पाकर जैन साध्वी हो गई। उसके मार्ग में कोई बाधा नहीं आई। इससे भगवान महावीरके मार्यासंघका विशालरूप स्पष्ट है । जिस समय यह भद्रा जैन संघर्मे पहुंची तो उस समय इससे पूछा गया था कि वह किस कक्षाकी दीक्षा ग्रहण करना चाहती है ? उत्तर में उसने सर्वोत्कृष्ट प्रकार अर्थात् आर्यि के व्रत लेना स्वीकार किये थे । इसपर उसने केशकोंच करके जैन नायिकाका भेष धारण किया था । वह एक वस्त्र धारण किये रहती थीं। मैले-कुचैले रहनेका उसे कुछ ध्यान न था | इसके विपरीत उदासीनं व्रती श्राविका वालोंको मुण्डाये रहतीं ० पृ० ९८ २ - भमवु पृ० २५९-२६० ।
१ - सकौ ०