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श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य । [२०७ वास्तव में मौर्य साम्राज्यकी दो राजधानियां उज्जैनी और पाटलिपुत्र प्रारम्भसे रहीं हैं । अतएव जैन कथाकारोंने अपनी रुचिके अनुसार दोनोंमेंसे एक का उल्लेख समय पर किया है । इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्तके पुत्र का नाम सिंहसेन लिखा है; जिसे राज्य देकर चन्द्रगुप्त सुनि होगये थे और भद्रबाहुजीके साथ दक्षिणको चले गये थे । एक पर्वतपर भद्रबाहुनी और चन्द्रगुप्त रहे थे । शेष संघ चोलदेशको चला गया था । तामिलभाषाके "नाल डियार" नामक नीतिकाव्यसे भी दक्षिणके पांड्य देशतक इस संघका पहुंचना प्रमाणित है । इस नीतिकाव्यकी रचना इस संघके साधुओं द्वारा हुई कही जाती है। पांड्य राजाने इन जैन साधुओंका बड़ा आदर और सत्कार किया था । वह इनके गुणोंपर इतना मुग्ध था कि उसने सहसा उन्हें उत्तरापथकी ओर जाने नहीं दिया था ।
आज भी अर्काट जिलेमें 'तिरुमलब' नामक पवित्र जैनस्थान उत्तर भारत से जैनसंघ आनेकी प्रत्यक्ष साक्षी देरहा है। यहांपर पर्वतके नीचे अनेक गुफायें हैं। एक गुफा विद्याभ्यासके लिये है, जिनमें जम्वृद्वीप व्यादिके नक्शे बने हुए हैं। यह प्रसिद्ध है कि भद्रबाहु के मुनिसंघवाले वारह हजार मुनियोंमेंसे आठ हजार मुनियोंने यहां आकर विश्राम किया था । पतिपर डेढ़फुट लम्बे चरणचिन्ह उसकी प्राचीनता स्वयं प्रमाणित करते हैं । सचमुच उससमय और उससे बहुत पहले से चोल, पांड्य आदि देशों का अस्तित्व और उनकी ख्याति दूर २ देश देशांतरों में होगई---
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१० प्र० पृ० ३०-३२ । २- जैहि० भा० ३- प्रमेप्राजेस्मा० पृ० ७४ ।