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२०८] संक्षिप्त जैन इतिहास। थी।' दक्षिण भारतके इन देशोंका व्यापार एक अतीव प्राचीनकालसे देश-विदेशोंसे होता रहा है। जैनधर्मकी व्यापकता भी यहां भगवान पार्श्वनाथनीसे पहलेकी थी ! अतएव उत्तर भारतसे जैन संघका दक्षिणकी ओर जाना एक निश्चित और अभ्रांत घटना है। ___ उपरोक्त चरित्रोंमें यद्यपि किंचित् परस्पर विरोध है; किंतु जैन संघका दक्षिणको उन सबसे यह प्रमाणित है कि भद्रबाहुके प्रस्थान इत्यादि । समयमें जैन संघ दक्षिणको गया था और बारह वर्षका भीषण अकाल पड़ा था। इस बातपर भी वे करीब २ सहमत हैं कि जिन भद्रबाहुका उल्लेख है, वह अंतिम श्रुतकेवली हैं और उनके शिष्य एक राजा चन्द्रगुप्त अवश्य थे, जो उज्जैनी और पाटलिपुत्रके अधिकारी थे अर्थात उनके यह दो राजकेन्द्र थे । यह चंद्रगुप्त इसी नामके प्रख्यात् मौर्य सम्राट हैं। हां, इस बातसे हरिपेगनी, जो अन्य कथाकारोंमें सर्व प्राचीन हैं, सहमत नहीं हैं कि भद्रबाहुनी संघके साथ दक्षिणको गये थे । श्वेतांबर मान्यताके अनुसार भी उनका दक्षिणमें जाना प्रकट नहीं है। उसके अनुसार भद्रबाहुनीका अंतिम जीवन नेपालमें पूर्ण हुआ था; किंतु यह संशयात्मक है कि यह वही भद्रबाहु हैं जिन भद्रबाहुको वह नेपालमें गया लिखते हैं।
जो हो, उपरोक्त दोनों मतोंसे प्राचीन शृंगापटम्के दो शिलालेख इस बात के साक्षी हैं कि भद्रबाहुस्वामी चन्द्रगुप्त के साथ श्रव
१-कात्यायन (६० पू०.४००)को, चोल, माहिष्मत और नासिक्यका ज्ञान था। पातलि (ई० पू० १५० ) समप्र भारतको जानता था। २-जमैसो० भा० १ ० ३०८-३२० । ३-भपा० पृ० २३४-२३६ ॥