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मौर्य साम्राज्य |
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(९) संयम और भावशुद्धिका होना आवश्यक है। अशोक कहते हैं कि जो बहुत अधिक दान नहीं कर सक्ता उसे संयम, भावशुद्धि, कृतज्ञता और दृढ़ भक्तिका म्याद व्यवश्य करना चाहिये ।' एक श्रावक के लिये देव और गुरुकी पूजा करना और दान देना गुरुप कर्तव्य बताये गये हैं ।" अशोक ने भी ब्राह्मण और श्रमणका आदर करने एवं दान देनेकी शिक्षा जननाधारणको दी थी। यदि वह दान न देवकें तो संयम, भावशुद्धि और दृढ़ भक्तिका पालन करें। जैनधर्ममें इन बातों का विधान खाम तौरपर हुगा मिलता है | संगम और भावशुद्धिको उपमें मुख्यस्थान गाप्त है। 1
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(६) अशोककी धर्मयात्रायें - स्त्र पर कल्याणकारी थीं उनमें भ्रमण और ब्रह्मणों का दर्शन करना और उन्हें दान देना राधा ग्रामवासियोंको उपदेश देना और धर्मविषयक विचार करना आवश्यक थे । जैन संघ विहार इसी उद्देश्यसे होता है । जैन संघ श्रावक-श्राविका साधुजनके दर्शन पूजा करके पुण्य-चन्द करते हैं और उन्हें बड़े भक्तिभाव से आहार दान देते हैं। साधुन मथवा उनके साथ पंडिताचार्य सर्व साधारणको धर्म का स्वरूप १- अध० १० १८९ - सप्तम शिला० । २-दाणं पूजा मुकावं मावय धम्मो, ण गावी तेण विणा । - कुंदकुंदाचार्य । ३-अध० पृ० १९७ २११ - अष्टम व नवम् शिला-' और श्रमण ' का प्रयोग पहिले साधारणतः साधुजनको लक्ष्य कर किया जाता था ।
४- भावो कारणमृदो गुणदोषाणं जिणाविति । अष्टपाहुड पृ० १६२ । 'संजम जीगे जुतो जो तवमा चेद अणेगविधं ।
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सो कम्म णिज्जराए विठलाए वह जीवो ॥ २४२ ॥ ५ ॥ मृठांचार | ५- अ० पृ० १९६ - अष्टमक्षि० ।
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