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________________ २६० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । ' मादिकी मान्यता मनाने आदि लौकिक पाखण्डका विरोध कर रहा है। भारतीय समान यह पाखण्ड बड़े मुद्दतोसे बढ़ रहा है। अशोक लाख उपदेश देनेपर भी मानतक यह निरर्थक और पापवर्द्धक रीति नीति जीवित है । लोग अब भी देवी, भवानी, पीर-पैगम्बर आदिकी मान्यतायें मनायर सांसारि भोगीपभोगकी सामग्रीके पालनेकी लालसामे पागल हो.हे हैं। अशोककी यह शिक्षा भी ठीक जैनधर्म के अनुभार है। जैन शास्त्रों में मिथ्यात्वपाखण्डका घोर विरोध किया गया है और धार्मिक क्रियायोके कानेका उपदेश है। (३) सत्य बोलना चाहिये-जनोंके पंचाणवतोंमें यह एक सत्याणुव्रत है। (४) अल्प व्यय और अल्पभांडताका अभ्यास करना अर्थात थोड़ा व्यव करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है। अशोककी इस शिक्षाका भाव जनों परिग्रह प्रमाण के समान है। श्रावक इस व्रतको ग्रहण दरके इच्छाओंभ निरोध करता है और अल्म व्ययी एवं अल्प परेनही होता है। १-उपु० ५० ६२४ तथा रत्नएरण्ड श्रापकाचारमें लिखते हैं: भाषगासागरस्नानमुच्चरः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च टोकमूढं निगद्यते ॥१॥ २२ ॥ घरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेपमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूदमुच्यते ॥ १ ॥ २३ ॥ २-अध० पृ० ९६-ब्रह्म० द्वि० शिलालेख । ३-तत्वार्थसत्रम म०. ७ सूत्र० ।। ४-अध० पृ. १३१-तृतीय शिला। ५-धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिये.पु निःस्पृहता। परिमितपरिप्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥ ३ ॥१५॥ ~लकरण्डा०।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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