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मौर्य साम्राज्य। उसकी शिक्षाओंमें निम्न बातोंका उपदेश मनुष्यके पारलौकिक धर्मको लक्ष्य करके दिया गया था, जो जैनधर्मके अनुकूल है:
(१) जीवित प्राणियों की हिंसा न की जादे' और इसका अमली नमूना स्वयं अशोजने अपने राजघरानेको शाकमोनी बनाकर उपस्थित किया था। हम देख चुके हैं कि अशोकका बहिसातत्व विकुल जैनधर्मके समान है। वह कहता है कि सनीव तुषको नहीं जलाना चाहिये (तुसे सनीवे नो झापेउविपे) और न वनमें आग लगाना चाहिये। यह दोनों शिक्षायें जैनधर्म में विशेष महत्व रखती हैं। वनसतिकाय, नलकाय मादिमें ननोंने ही नीव बसलाये हैं।'
(२) मिथ्यात्ववर्द्धक सामाजिक रीति-नीतियों को नहीं करना चाहिये' अर्थात ऐसे रीति रिवाज जो किसी बीमार होनेपर, किसीके पुत्र-पुत्रीके विवाहोत्सवपर अथवा जन्मकी खुशी में
और विदेशयात्राके समय किये जाते हैं, न करना चाहिये । इनको वह पापबर्द्धक और निरर्थक बतलाता है और खासकर उस समय नब इनका पालन स्त्रियों द्वारा हो, कारण कि इनका परिणाम संदिग्य और फल नहीं के बराबर है। और उनका फल केवल इस भवमें मिलता है। इनके स्थानपर वह धार्मिक रीति रिवानों को जसे गुरुओं का आदर, प्राणियोंकी महिमा, श्रमण और बाह्मणों को दान देना भादि क्रियायों का पालन करनेका उपदेश देता है। यहापर अशोक प्रगटतः भोले मनुष्योंकी देवी, भवानी, यक्ष, पित
१-अध० पृ. १४८-चतुर्थ व ग्यारस शिलालेख । २-अ१० पृ. ३५२-२५३-पंचम स्तम्भ लेख । ३-Js.PlsId II II tro.४-अध. पृ० २११-नवम शिलालेख ।
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