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श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [१३५ भी विदुषी श्राविकायें जैनधर्मका प्रभाव दिगन्तव्यापी बनाती और प्राणीमात्रके हितकार्यमें संलग्न रहती थीं।
इन व्रती श्रावक और श्राविकाओंके अतिरिक्त भगवान महाभगवान महावीरके वीरके और भी अनेक भक्त थे, जिनमें अन्य भक्तजन देव बड़े बड़े राजा और सेठ-साहूकार एवं देव
और राजा आदि। देवेन्द्र सम्मिलित थे। सम्राट् श्रेणिक क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे; किन्तु वे व्रती श्रावक नहीं थे। यही कारण है कि उनकी गणना श्रावकसंघके प्रमुखरूपमें नहीं की गई है। जैनधर्ममें श्रद्धा रखते हुये और उसकी प्रभावनाके कार्य करनेवाले अनेक राना थे। कुणिक अजातशत्रुके राज्यकालमें इसी कारण जैन धर्मका विशेष विकाश हुआ था । विदेहदेशस्थ विदेहनगरका राना गोपेन्द्र जैनधर्म प्रभावक था। ऐसे ही पल्लवदेशका राजा धनपतिः जिसकी राजधानी चन्द्रामा नगरी थी; दक्षिणकी क्षेमपुरीका राजा नरपतिदेव, मध्यदेशमें स्थित हेमामानगरीका राना हदमित्र, वेणुपद्मनगरका राना वसुपाल और इंसद्वीपका राजा रत्नचूल जैनधर्मके उत्कर्षका सदा ही ध्यान रखते थे। कलिङ्गदेशके, दन्तपुरके राना धर्मघोष थे और भन्तमें वह दिगम्बर जैन मुनि होगये थे। मणिवतदेशमें दारानगरके राना मणिमाली भी जैन मुनि होकर धर्मका जयघोष करते हये विचरे थे।
श्वेतपुरके राना अमलकल्प हिमालयके उत्तरमें स्थित टंच
१-श्रेच०, पृ० ३२७ ।, २-कैहिइ० पृ० १६३ । ३-उपु० पृ. ६९३ । ४ प्र० पृ. २२२-२२३. । ५-शेव: पृ. २.३३.-२३५ । ६-प्रेच० ० २४०-२५४ ।