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१४०] संक्षिप्त जैन इतिहास । महावीरनीके जन्म होनेके पहिले ही ब्राह्मण वर्णकी प्रधानता थी। उसने शेष वर्णोके सब ही अधिकार हथिया लिये थे । अपनेको पुनवाना और अपना अर्थसाधन करना उसका मुख्य ध्येय था। यही कारण था कि उस समय ब्राह्मणोंडे अतिरिक्त किसीको भी धर्मकार्य और वेदपाठ करनेकी आज्ञा नहीं थी। ब्राह्मणेतर वर्णों के लोग नीचे समझे जाते थे। शूद्र और स्त्रियोंको मनुष्य ही नहीं समझा जाता था । किन्तु इस दशासे लोग ऊब चले-उन्हें मनुप्योंमें पारस्परिक ऊंच नीचका भेद अखर उठा । उधर इतनेमें ही भगवान पार्श्वनाथका धर्मोपदेश हुआ और उससे जनता अच्छी तरह समझ गई कि मनुष्य मनुष्यमें प्राकृत कोई भेद नहीं है। प्रत्येक मनुष्यको मात्म-स्वातंत्र्य प्राप्त है। कितने ही मत प्रर्वतक इन्हीं बातोंका प्रचार करनेके लिये अगाडी आगये। जैनी लोग इस आन्दोलनमें अग्रसर थे।
साधुओंकी बात जाने दीजिये, श्रावक तक लोगोंमेंसे जातिमूढ़ता अथवा जाति या कुलमदको दूर करनेके साधु प्रयत्न करते थे | रास्ता चलते एक श्रावकका समागम एक ब्राह्मणसे होगया । ब्राह्मण अपने जातिमदमें मत्त थे; किन्तु श्रावकके युक्तिपूर्ण वचनोंसे उनका यह नशा काफूर होगया। वह जान गये कि "मनुण्यके शरीरमें वर्ण आकृतिके भेद देखनेमें नहीं माते हैं, जिससे वर्णभेद हो; क्योंकि ब्राह्मण आदिका शूद्रादिके साथ भी गर्भाधान देखने में आता है। जैसे गौ, घोड़े आदिकी जातिका भेद पशुओंमें है, ऐसा । नातिभेद मनुष्योंमें नहीं है। क्योंकि यदि आकारभेद होता तो
१-भम० पृ. ४७-५६ । २-भमवु० पृ. १५-१७ ।
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