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तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति । [ १४१
ऐसा भेद होना संभव था ।" अतः मनुष्यजाति एक है। उसमें जाति अथवा कुलका अभिमान करना वृथा है । एक उच्च वर्णी ब्राह्मण भी गोमांस खाने और वेश्यागमन करने आदिसे पतित हो सक्ता है और एक नीच गोत्रका मनुष्य अपने अच्छे आचरण द्वारा ब्राह्मणके गुणों को पासक्ता है।
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भगवान महावीरजी के दिव्य संदेश में मनुष्यमात्र के लिये व्यक्ति स्वातंत्र्यका मूल मंत्र गर्भित था । भगवानने प्रत्येक मनुष्यका आचरण ही उसके नीच अथवा उंचपनेका मूल कारण माना था। उनने स्पष्ट कहा कि संतानक्रमसे चले आये हुये जीवके आचरणकी गोत्र संज्ञा है । जिसका ऊंचा आचरण है उसका उच्च गोत्र है और जिसका नीच आचरण हो, उसका नीच गोत्र है। शूद्र हो या स्त्री हो अथवा चाहे जो हो गुणका पात्र है, वही पूजनीय | देह या कुलकी वंदना नहीं होती और न जातियुक्तको ही मान्यता प्राप्त है । गुणहीनको कौन पूजे और पाने ? भ्रमण भी गुणोंसे होता है और श्रावक भी गुणोंसे होता है। महावीरजीके इस संदेश से
१ - उपु० प ७४ ० ४९१ - ४९५ | २ - आदिपुराण पर्व ३८ लोक ४५ । ३-उ० प ७४३लो० ४९० । ४- अमितगति श्रावकाचार इलो० ३० परि०१७ व भा० पृ० ४९ ।
५- ताणकमेणागय जीववरणस्स गोदमिदि सण्णा उधं नींचे चरणं उधं नीचे हवे गोदं ॥ ६- शिशु खयं वा यदस्तु तत्तिष्ठतु तदा । गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च टिनं न च वयः ॥
७- वि देहो दिन ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुतो । को वंदमि गुणहीणो ण हु स्रवणो णेय सावओ होई ॥२७॥ - दर्शनपाहुर |
- गोमहवार ।