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२९१] संक्षिप्त जैन इतिहास । हैं, जिसप्रकार उनका यह कहना कि अशोक अपने भाई-बहिनों के निरपराध खुनसे हाथ रङ्गकर सिंहासनपर बैठा था। किन्तु इनसे भी इतना पता चलता है कि अशोकके घराने में जैनधर्मकी मान्यता अवश्य थी।
किन्हीं विद्वानों का मत है कि जैनधर्म और चौडमतका प्रचार धर्म-प्रचार भारतीय होजानेसे एवं सम्राट अशोक हारा इन वेद पतनका कारण विरोधी मतों का विशेष भादर होने के कारण
नहीं है। भारतीय जनतामें सांप्रदायिक विद्वेपकी जड़ जम गईं; जिसने भारतकी स्वाधीनताको नष्ट करके छोड़ा। उनके खयालसे बौद्धकालके पहिले भारतमें सांप्रदायिकताका नाम नहीं था और वैदिक मत अक्षुण्ण रीतिसे प्रचलित थी। किन्तु यह मान्यता ऐतिहासिक सत्यपर हरताल फेरनेवाली है । भारतमें एक बहु प्राचीनकालसे जैन और जनेतर संप्रदाय साथ २ चले मारहे हैं। वैदिक धर्मावलंबियोंमें भी अनेक संप्रदाय पुराने जमाने में थे।' किन्तु इन सबमें सांप्रदायिक कट्टरता नहीं थी; जैसी कि उपरांत कालमें होगई थी। भगवान महावीर तक एवं मौर्यकाल के उपरांत कालमें भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जिनसे एक ही कुटुम्नमें विविध मतोंके माननेवाले लोग मौजूद थे। यदि पिता बौद्ध है, तो पुत्र जैन है। स्त्री वैष्णव है तो पति जैनधर्मका श्रद्धानी है। अतः यह नहीं कहा जासका कि मौर्यकालसे ही सांप्रदायिक विद्वेषकी ज्वाला भारनीष जनतामें धधकने लगी थी। यह नाशकारिणी भाग तो मध्य
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-इंऐ०, भा० ९पृ० १३८ । २-देखो हिस्ट्री ऑफ प्री० बुद्धि स्टिक इंडियन फिलसफी । ३-इंहिक्का० भा० ४ पृ. १४८-४९।