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मौर्य साम्राज्य। [२८५लेख, जो उनके अतिम जीवनमें दिखा गया था, इस व्यवस्थाका , पुष्ट प्रमाण है।'
इप लेवमें अशोकने धर्म और ध्यानके मध्य जो भेद प्रगट किया। है, वह जनधर्मके अनुकूल है । इसी लेखमें वह कह चुके हैं कि 'धर्म दगा, दान, पत्य, शौच, मृदुता और साधुनामें है।' इन धर्म नियमोंर वह धर्मकी वृद्धि हुई मानने हैं; किन्तु ध्यानको वह विशेष महत्व देते हैं। ध्यानकी बदौलत मनुष्यों में धर्मकी वृद्धि, प्राणियोंकी . महिमा और यज्ञोंमें जीवों का अनालंभ बढ़ा, उन्होंने प्रगट किया है । जैनधर्म, दया. दान, मत्य आदिकी गणना दश धर्मोमे की गई है और ध्यान के चार भेदों में एक धर्मध्यान बताया गया है। यह धर्मध्यान शुभोपयोगरूप है, जो पुण्य और स्वर्गसुखका कारण , है। श्रावकको ध्यान करने की आज्ञा जिन शास्त्रमें मौजूद है।'
धर्मध्यान चार प्रकारचा है अर्थात् (१) आज्ञाविचय, (२) अपायत्रिचय, (३) विपाविचय और (४) संस्थान विचय । इनमें
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1-अध० पृ. ३६२ । २-धम्म सुकं च दुवे पसत्यशाणाणि णेयाणि । ॥ ३९४ ॥ मूला० मा तिविहपयारं सुहासुई सुद्धमेव गायच्वं । अहं च अहमदं मुह धम्म जिणयरिंदेहि ॥ ७६ ॥-अष्ट. पृ. २१४ । ३-धम्मेण परिणदमा अप्पा नदि सुद्धपम्पयोग जुदो । पावदि णियाण सुई, सुहोवजुत्तो व सग्गसुई ॥ ११ ॥-प्रवचनप्तार। उवओगो जदि हि सुो पुणे जीवस्स संचयं जादि । असुरो वा तध पावं, तेसिमभावे ण चपमत्यि ॥ ६७ ||--प्रवचनसार । ४-गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मळं सरगिरीघ णिपंप । तं जाणे साइज्जइ सापय ! दुक्खक्खयहाए ॥८६॥. -अष्ट. प. ३४४ १५-सयग्गेण मणं णिहभिऊण-धम्म चउबिह-शाहू। - आणापायविवाय विवो संठाण विचयं च ॥ ३९८ ॥-मूलाचार ।।