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________________ २१४] संक्षिप्त जैन इतिहास ।। श्रुतकेवली भद्रबाहुके जीवनकी सबसे बड़ी घटना उत्तर भेत भारतमें घोर दुष्काल पड़नेकी वजहसे जनसंघके स्थापना। दक्षिण भारतकी ओर गमन करनेकी है । इस घटनाका अंतिम परिणाम यह हुआ था कि जैन संघके दो भेदोंकी जड़ इसी समय पड़ गई । बारह वर्षका अकाल जानकर श्री विशाखाचार्यकी अध्यक्षतामें संपूर्ण संघ दक्षिणको गया, किंतु स्थूलभद्र और उनके कुछ साथी पाटलिपुत्रमें ही रह गये थे। घोर दुष्कालके विकराल कालमें ये पाटलिपुत्रवाले जैन मुनि प्राचीन क्रियायोंको पालन करनेमें असमर्थ रहे । उन्होंने आपदरूपमें किंचित वस्त्र भी अहण कर लिये और मुनियोंको अग्राह्य भोजन भी वे स्वीकार करने लगे थे। निस समय विशाखाचार्यकी प्रमुखतावाला दक्षिण देशको गया हुमा संघ सुभिक्ष होनेपर उत्तरापथकी ओर लौटकर आया और उसने पीछे रहे हुये स्थुलंभद्रादि मुनियों का शिथिलरूप देखो तो गहन कष्टका अनुभव किया। विशाखाचार्यने स्थूलभद्रादिसे प्रायश्चित्त लेकर पुनः आर्ष मार्गपर आजानेका उपदेश दिया; किंतु होनीके सिर, उनकी यह सीख किसीको पसंद न आई । स्थूलभ की अध्यक्षतामें रहनेवाला संघ अपना स्वाधीन रूप बना बैठा और वह पुरातन मूल संघसे प्रथक होगया। यही संघ कालांतरमें श्वेतांव' श्रव० ३९-४०; उसू० भूमिका पृ०१५-१६ व ऐइ जै० पृ० १. में श्वे० बिद्वान श्री पूर्णचेंन्द्र नाहरने भी यही लिखा है। हार्णले 'वे ल्युमन ग्रा० भी इसे कथाको मान्यता देते है (Vionha oriental gournol, VII, 382 व ईऐ• २१॥५९-६०।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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