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श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [ २१३ नहीं लिया था, जिसको श्वेताम्बराचार्य स्थूलभद्रने एकत्र किया था। 'श्री संघके बुलानेपर भी वे पाटलिपुत्र को नहीं आये जिसके कारण श्री संघने उन्हें संघबाह्य कर देनेकी भी धमकी दी थी।'* इसके विपरीत दिगम्बर जैनी भद्रबाहु श्रुतक्षेवलीका वर्णन बड़े गौरव और महत्वशाली रीतिसे विशेष रूपमें करते हैं। श्वेतांवरोंने उनको प्राचीन गोत्रका वतलाकर दिगम्बर मान्यताकी पुष्टि की है; जो निग्रंथ ( नग्न ) रूपका भद्रबाहुके समान आर्षमार्गका अनुगामी है।
श्वेतांबरोंने स्थूलभद्रकी अध्यक्षता स्वीकार करके सवस्त्र भेषको मोक्षलिङ्ग माना है और पुरातन नियमों एवं क्रियाओंमें अंतर डाल लिया है । वप्त वह प्राचीन 'भद्रबाहु' को विशेष मान्यता न देते हुये भी अपने अंग Jथों और भाष्योंको पुरातन और प्रामाणिक सिद्ध करने के लिये और ईस्वीसन के प्रारम्भवाले भद्रबाहुको प्राचीन भद्रबाहु व्यक्त करनेके मावसे, केवल उन्हींका वर्णन करते हैं। दुसरे भद्रबाहुके विषयमें वह एकदम चुप हो जाते हैं, किंतु वह अपने आप उनको वराहमिहिरका समकालीन वताकर उनकी अर्वाचीनता स्पष्ट कर देते हैं।
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: १-उसु० भूमिका, पृ० १४ । * परि० व जेशिसं० पृ० ६७ ।
२-एक जैन पावलीमें एक तीसरे भद्रवाहुका उल्लेख है और उनका “समय ईसवीकी प्रारम्भिक शताब्दियां है। उनके एक शिष्य द्वारा श्वेतार घर संप्रदायकी उत्पत्ति होना लिखा है। संभव है, श्वेतांवरोंके द्वितीय भद्रबाहु यही हो; जिनका उन्हें पता नहीं है । (ऐ० भा० २१ पृ०५८) मसाइ० पृ० २४-२५। .. .. . . . . . .