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श्रुतकेवली भद्रवाह और अन्य आचार्य । [ २१५
रानायके रूप में परिवर्तित हुआ । जैसे कि अगाड़ी लिखा गया है। जिस पुरातन संघके प्रधान पहिले 'प्राचीन' भद्रबाहु थे और फिर उनके उत्तराधिकारी विशाखाचार्य हुये, वह अपने सनातन स्वरू पमें रहा और आर्ष रीतियों का पालन करता रहा। यही आजकल दिगम्बर सम्प्रदाय के नामसे विख्यात् है ।
स्थूलभद्रादिका संघ, जब मूलसंघसे पृथक् होगया; तो प्राकृत उसे अपने धर्मशास्त्रोंको निर्दिष्ट करनेकी
श्रुतज्ञानकी विक्षिप्ति ।
आवश्यक्ता हुई। दुकालकी भयंकरता में श्रुतज्ञान छिन्नभिन्न होगया था । भद्रबाहुके समय तक तो जैनसंघ एक ही था; किन्तु उनके बाद ही जो उसमें उक्त प्रकार दो भेद हुये जिसके कारण श्रुतज्ञानका पुनरुद्धार होना अनिवार्य हुआ । दिगम्बर जैनोंका मत है कि इस समय समस्त द्वादशांग ज्ञान लुप्त होगया था। केवल दश पूर्वोके जानकार रह गये थे। किन्तु श्वेतांबरों की मान्यता है कि पाटलिपुत्र में जो संघ एकत्रित हुआ था और जिसमें भद्रबाहुने भाग नहीं लिया था, उसने समस्त श्रुतज्ञानका संशोधित संस्करण तैयार कर लिया था । स्थूलभद्रने पूर्वोका ज्ञान स्वयं भद्रबाहुस्वामी से प्राप्त किया था किन्तु उनको अंतिम चार अन्यों को पढ़ानेकी आज्ञा नहीं थी ।
इस प्रकार ग्यारह अङ्ग और दश पूर्वका उद्धार श्वेतांबरोंने कर लिया था; किन्तु उनके ये ग्रन्थ दि० जैनोंको मान्य नहीं थे । उनका विश्वास था कि पुरातन अंग व पूर्व ग्रंथ नष्ट होचुके हैं । केवळ दश पूर्वोका ज्ञान श्री विशाखाचार्य एवं उनके दश परम्परीण उत्तराधिकारियोंको स्मृतिमें शेष रहा था । दिगम्बर जैनोंकी इस