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________________ A ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [८७ दशामें उक्त दोनों धर्मों में सादृश्य होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। दोनों धर्मो न वेदोकी ही मान्यता है और न ब्राह्मणों का आदर है । वे यज्ञोंमें होनेवाली हिंसाका घोर विरोध रखते हैं। जाति और कुलके घमंडको दोनों ही धर्मों में पाखण्ड बतलाया गया हैं और उनका द्वार प्रत्येक प्राणीके लिये सदासे खुला रहा है। बौद्ध और जैनोंके निकट रत्नत्रय अथवा त्रिरत्न मुख्य हैं और आदरणीय हैं; परन्तु दोनों के निकट इनका अभिप्राय भिन्न भिन्न है । बौद्धधर्मके अनुसार त्रिरत्न (१) बुद्ध (२) धर्म और (३) संघ हैं। जैनधर्म, रत्नत्रय (१) सम्यग्दर्शन (Right Beliety (२) सम्यग्ज्ञान (Right Knowledge) और (३) सम्यग्चारित्र (Right Conduct) को कहते हैं । बौद्ध और जैन जगतको रचनेवाले ईश्वरका अस्तित्व नहीं मानते हैं; यद्यपि जैनधर्ममें ईश्वरवाद स्वीकत है। वे मोक्ष व निर्वाण प्राप्ति अपना उद्देश्य समझते हैं; किन्तु इसका भाव दोनों के निकट भिन्न है । बौद्द निर्वाणसे मतलब पूर्ण क्षय होनेका समझते हैं; किन्तु मैनोंके निकट निर्वाण दशासे भाव अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य और अनंतसुख पूर्ण अवस्थासे है। इस प्रकार जैनधर्म और बौद्धधर्ममें मौलिक भेद स्पष्ट है और यह भी प्रगट है कि भगवान महावीर एक स्वाधीन और म० बुद्धसे विभिन्न महापुरुष थे, जिन्हें बौह लोग निगन्ठ 1-ममयु• पृ. ११७-१७८ । ४ बौद्धधर्ममें यही तीन शरण माने गये हैं। जैनधर्ममें (1)-अरइन्त, (२) सिद्ध, (6) साधु, (४) व केवली भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म-यह चार शरण माने है।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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