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________________ ८६] संक्षिप्त जैन इतिहास । होकर प्रत्येक जेनी पूर्ण शाकाहारी है और उनका हृदय हर समय दयासे भीजा रहता है। जिससे वे प्राणीमात्रकी हितचिन्तना कर. नेमें अग्रसर है । जैन संघमें गृहस्थों अर्थात श्रावक और श्रावि. काओंको भी मुनियों और आर्थिकाओं के साथ स्थान मिला रहा है किन्तु बौद्ध संघमें केवल भिक्षु और भिक्षुणी-यही दो अंग प्रारंभसे हैं । विद्वानों का मत है कि जैन संघकी उपरोक्त विशेपताके कारण ही नोंका मस्तित्व मान भी भारतमें है और उसके अभावमें बौद्ध धर्म अपने जन्मस्थान में हूंढ़नेपर भी मुश्किल लसे मिलता है। बौद्ध और जैनधर्मके शास्त्र भी विभिन्न हैं। जैन शास्त्र 'अंग और पूर्व' पहलाते है; बौद्धोंके ग्रन्थ समूह रूपमें 'त्रिपिटक' नामसे प्रख्यात् हैं । जैन साधु नग्न रहते और कठिन तपस्या एवं व्रतोंका अभ्यास करना पावश्यक समझते हैं, किन्तु बौद्धोंको यह बातें पसन्द नहीं हैं । वह इन्हें धार्मिक चिन्ह नहीं मानते । बौद्ध साधु 'भिक्षु' अथवा 'श्रावक' कहलाते हैं, जैन साधु 'श्रमण 'अचेलक' अथवा 'आर्य' या 'मुनि' नामसे परिचित हैं। जैनधर्म, श्रावक गृहस्थको कहते हैं | जैन अपने तीर्थकरोंको मानते हैं और बौद्ध केवल म० बुद्धकी पूजा करते हैं। इन एवं ऐसी ही अन्य विभिन्नताओंके होते हुये भी जैनधर्म और बौद्ध धर्ममें बहुत सादृश्य भी है । 'आश्रय' 'संवर' मादि कितने ही खास शब्दों और सिद्धान्तोंको बौद्धोंने स्वयं जैनोंसे ग्रहण किया है और स्वयं म० बुद्ध पहले जैनधर्मके बहुश्रुती साधु थे; ऐसी. १-२.६० पृ० २३० । २-वहि इ० पृ० १६९। ३-हरिद भा० ७ पृ० ४७२।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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