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________________ ८२] संक्षिप्त जैन इतिहास। उपलक्षमें ही उन स्थानोंके नाम भगवान महावीरजीकी अपेक्षा उल्लिखित हुये जिनका सम्पर्क महावीरजीसे था। कहते हैं मानभूमि जिला, मान्यभूमि रूपमें भगवानके अपरनाम "मान्य श्रमण" की अपेशा कहलाया था । सिंघभूम निलाका शुद्ध नाम 'सिंहभूमि' बताया गया है और कहा गया है कि वोर प्रभुकी सिंहवृत्ति थी और उनका चिन्ह 'सिंह' था; इसलिये यह जिला उन्हीं की अपेक्षा इस नामसे प्रख्यात हुआ था। इनके अतिरिक्त विनयभूमि, वर्द्धमान (वर्दवान), वीरभूमि मादि स्थान भी भगवान महावीरजीके पवित्र नाम और उनके सम्बन्धको प्रगट करनेवाले हैं। सचमुच बंगाल व विहारमें उससमय जैनधर्मको गति विशेष थी और जनता भगवान महावीरको पाकर फूले अंग नहीं समाई थी। म. गौतम बुद्ध बौद्धधर्मके प्रणेता थे और वह भगवान म. वुद्ध एक समय महावीरके समकालीन थे। जैन शालों में जैन मुान थे। उनको भगवान पार्श्वनाथजी के तीर्थके मुनि पिहिताश्रवका शिष्य बतलाया है। लिखा है कि दिगम्बर जैन मुनिपदसे भ्रष्ट होकर रक्ताम्बर पहिनकर बुद्धने क्षणिकवादका प्रचार किया और मृत मांस ग्रहण करने में कुछ संकोच नहीं किया था। जैन शास्त्रके इस कथनकी पुष्टि स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंसे होती है। उनमें एक स्थानपर स्वयं गौतम बुद्ध इम वातको स्वीकार करते हैं १-इहिरा० मा० ४ पृ. ४५। २-पूर्व प्रमाण । ३-वर भा० ३ पृ० ३७० व वविओ जैस्मा०पृ० १०९।४-भमवु० पृ० ४८-४९० बुद्धको अनात्मवाद सहसा मान्य नहीं था । उनने स्पष्टतः आलाके अस्तित्वसे इन्कार नहीं किया था । यह उनकी' जैन दशाका प्रभाव कहा जासकता है।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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