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मौर्य साम्राज्य | मेगास्थनीजके कथने एवं 'मुद्राराक्षस' नाटकके वर्णनसे होता है । " मौख्यदेश में जैनधर्मका प्रचार विशेष था । एक मौर्थ्यपुत्र स्वयं भगवान महावीरजीके गणधर थे । और नन्दवंश भी जैनधर्म भक्तथा, यह प्रगट है । इस दशा में चन्द्रगुप्तका जैन- एक श्रावक होना कुछ भी प्रत्योक्ति नहीं रखता । जैन शास्त्र उसे एक आदर्श और धर्मात्मा राजा प्रगट करते हैं । किन्तु उनके जैन न होने में सबसे बड़ी मापत्ति यह की जाती है कि वह शिकार खेळते थे । पर चंद्रगुप्तके शिकार खेलने संबन्ध में जो प्रमाण दिया जाता है, वह यूनानी लेखकोंका भ्रान्त वर्णन है । क्योंकि युनानियोंने जहांपर I शिकार खेलनेका वर्णन दिया है; वहां चन्द्रगुप्तका स्पष्ट नामोल्लेख. नहीं है । वह कथन साधारण रूपमें है । और इधर जैनशास्त्रोंसे यह प्रगट ही है कि चंद्रगुप्तने कभी शिकार यदि कोई संकल्पी हिंसाकर्म नहीं किया था ।
अतः मालुम यह पड़ता है कि चन्द्रगुप्त जन्म से अविरत सम्यग्दृष्टी जैनी थे; किन्तु फिर जैन मुनियोंके उपदेशको पाकर उन्होंने अहिंसा मादि व्रतोंको ग्रहण करके अपना शेष जीवन धर्ममय बना लिया था । यदि उन्होंने पहिलेसे श्रावकके व्रतोंका अभ्यास न किया होता, तो यह सम्भव नहीं था कि वह एकदम जैन मुनि होजाते । उनका जैन मुनि होना प्राचीनतम साक्षीसे सिद्ध है और उसे
१ - जरा सो० भा० ९ पृ० १७६ । २ - वीर वर्ष ५ पृ० ३९० ॥ ३- ईसाकी पहिली या दूसरी शताब्दिके ग्रन्थ 'तिलशेयपण्णति' (गा० ७१) में चन्द्रगुप्तको जैन मुनि होना लिखा है । और उसे "मुकुटधर " राजा लिखा है। 'मुकुटधर से भाव सम्भवतः उस राजासे है जिसके