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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु। [२०१ -वह तेहत्तर वर्षके वृद्ध थे । और फिर रुग्णदशामें उनके लिये . जैनधर्मकी प्रथानुसार प्रवृत्ति करना और धर्मानुकूल इन्द्रियदमनकारी भोजनों द्वारा रोगी शरीरका निर्वाह करना असाध्य होगया था। इसलिये उन्होंने सल्लेखना व्रतको ग्रहण कर लेना उचित समझा। यह व्रत उसी असाध्य अवस्थामें ग्रहण किया जाता है, जबकि व्यक्तिको अपना जीवन संकटापन्न दृष्टि पड़ता है। मुनि कल्याणकी शारीरिक स्थिति इसी प्रकारकी थी। उनने सिकन्दर पर अपना अभिप्राय प्रकट कर दिया । पहिले तो सिकंदर राजी न हुआ; परंतु महात्माको मात्मविर्सन करने पर तुला देखकर उसने समुचित -सामग्री प्रस्तुत करनेकी माज्ञा दे दी । पहिले एक काठकी कोठरी बनाई गई थी और उसमें वृक्षोंकी पत्तियां विछा दीगई थीं। इसीकी छनपर एक चिता वनाई गई थी। सिकन्दर उनके सम्मानार्थ अपनी सारी सेनाको सुसज्जित कर तैयार होगया। बीमारीके कारण महात्मा फलानस बड़े दुर्वल होगये थे। उनको लाने के लिये एक घोड़ा भेजा गया; किन्तु जीवदयाके प्रतिपालक वे मुनिराज उस घोड़े पर नहीं चढ़े और भारतीय ढंगसे पालकी में बैठकर वहां आ गये। वह उस कोठड़ीमें उनकी व्यवस्थानुसार बन्द कर दिये गये । थे। अन्तमें वह चितापर विराजमान हो गये। चितारोहण करती चार उनने जैन नियमानुसार सबसे क्षमा प्रार्थनाकी भेंट की। तथा धामिक उपदेश देते हुये केशलोच भी किया।
१-ऐइ०, पृ० ७३॥ २-केशलोच करना, जैन मुनियों का खास नियम . है। यूनानियोंने मुनि कल्याणके अंतिम समयका वर्णन एक निश्चित रूपमें नहीं दिया है । चितापर बैठकर समाधि लेना जैन दृष्टिसे ठीक नहीं है। सम्भवतः अपने शवको जलवानेकी नियतसे मुनि कल्याणने ऐसा किया हो।