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१३०] संक्षिप्त जैन इतिहास । क्रमशः साठ और चालीस वर्षकी थी। इनकी भी भगवान महावीरके निर्वाणलाभसे पहिले ही मुक्ति होगई थी।
भगवान महावीरजीके इन प्रमुख साधु शिप्योंके अतिरिक्त .. . और भी अनेक विद्वान् और तेजस्वी मुनिपुंगव चारिपेण मुनि ।
थे जिनके पवित्र चारित्रसे जैन शास्त्र मलंछत हैं । इनमें सम्राट् श्रेणि के पुत्र वारिषेण विशेष प्रख्यात हैं। वारिपेणनी युवावस्थासे ही उदासीनवृत्तिके थे। श्रावक दशामें वह नियमितरूपसे अष्टमी व चतर्दशीके पर्वदिनोंको उपवास किया करते थे और रात्रिके समय न्न प्रतिमायोगमें स्मशान मादि एकान्त स्थानमें ध्यान किया करते थे। इसी तरह एक रोज आप ध्यानलीन थे कि एक चोर चुराया हुआ हार इनके परोंमें डालकर भाग गया। पीछा करते हुये कोतवालने इनको गिरफ्तार कर लिया। राजा अणिकने भी पुत्रमोहकी परवा न करके उनको प्राणदण्डका हुक्म सुना दिया; किन्तु अपने पुण्यप्रतापसे वह बच गये और संसारसे वैराग्यवान होका झट दिगम्बर मुनि होगये। वह खुब तपश्चरण करते थे और यत्रतत्र विहार करते हुये अपने उपदेश द्वारा लोगोंको धर्ममें दृढ़ करते थे। इस स्थितिकरण धर्म पालन करनेकी अपेक्षा ही इनकी प्रसिद्धि विशेष है। एकदा यह पलाशकूट नगर में पहुंचे। वहां इनके उपदेशसे श्रेणिक मंत्रीका पुत्र पुष्पडाल मुनि होगबा। पुष्पडाल मुनि तो होगया; किन्तु उसके हृदयमें अपनी पत्नीन प्रेम बना रहा। कहते हैं, एक रोज निमित्त पार वह उसको देख
के लिये चल पड़ा था; किन्तु वारिपेण मुनिने उसे धर्ममें पुनः स्थिर कर दिया था। पुष्पडालने प्रायश्चितपूर्वक योर तपश्चरण जिला