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संक्षिप्त जैन इतिहास |
- जिसमें लगभग ४५ वर्षतक वह मुनिदशा में रहे थे' । वीर संघके प्रमुख गणाधीश रूपमें इनके द्वारा जैनधर्मका विशेष विकाश हुआ था । जिससमय भगवान महावीरको निर्वाण लाभ हुआ था, उप समय इन्हें केवलज्ञान लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई थी । इमी कारण दिवालीके रोज गणेश पूजाका रिवाज चला है । वीर प्रभृके उपरान्त यही संघके नायक रहे थे और वीरनिर्वाणसे चारवर्ष बाद भगवान के अनुगामी हुये थे । ई० पूर्व ५३३ में इनको विपुलाचल = पर्वत पर (राजगृही) से मोक्ष सुख प्राप्त हुआ था । चीन यात्री हुइनसांग ने भी इनका उल्लेख भगवान के गणधर रूपमें किया है । अग्निभूति और वायुभूति भी द्वादशांग के वेत्ता थे और इनकी आयु क्रमशः २४ और ७० वर्षकी थी । यह भी केवली थे, और इन्हें भगवान के जीवन में ही मोक्षसुख मिला था । इसप्रकार भग वानके प्रारंभिक शिष्य अथवा मनुयायी जन्मके नैनी नहीं थे; • प्रत्युत वे वैदिकधर्म से जैनधर्म में दीक्षित हुये थे ।
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चौथे गणधर व्यक्त थे । इनको अव्यक्त और शुविदत्त भी चौथे गणधर कहते थे | यह भारद्वाज गोत्री ब्रह्मग थे और व्यक्त | जैनधर्म में दीक्षित हुये थे । कुण्डग्रामक पार्श्व में स्थित कोल्लाग सन्निवेश में एक धनमित्र नामक ब्राह्मण था । उसकी बाहणी नामक स्त्रीकी कोख से इनका जन्म हुना था । इनकी आयु ८० वर्षकी थी और इन्होंने भगवान महावीरजीके जीवनकाल में ही निर्वाणपद पाया था ।
१ - वृजेश० पृ० ७ । २ - उपु० पृ० ७४४ । ३ भम० पृ० ११५ । ४- वृजेश० पृ० ६१ । ५० वृजेश० पृ० ७ ।