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संक्षिप्त जैन इतिहास |
चाणक्य जैनाचार्य हुये थे और अपने ५०० शिष्यों सहित उनने देश विदेशों में विहार करके दक्षिणके वनवास नामक देशमें स्थित क्रौंचपुर नगरके निकट प्रायोपगमन सन्यास ले लिया था । चाणक्य के साधु होने का जिक्र जैनेतर शास्त्रोंमें भी है। इस अवस्थामें चाणक्यको जैन ब्राह्मण मानना अथवा उनपर जैनधर्मका प्रभाव पड़ा स्वीकार करना कुछ अनुचित नहीं है। चाणक्यको अवश्य ही जैनधर्मसे प्रेम था । अतएव चन्द्रगुप्तने उनको मंत्रीपददेकर एक उचित कार्य ही किया था । चाणक्य के मंत्री होनेसे उनके जैनत्वमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है। यही बात प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री विन्सेन्ट स्मिथ स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि 'चंद्रगुप्त ने राजगद्दी एक कुशल ब्राह्मणकी सहायता से प्राप्त की थी, यह बात चंद्रगुप्तके जैन धर्मावलम्वी होने के कुछ भी विरुद्ध नहीं पड़ती ।' (आहिइ० ० ७९ ) इस अवस्थामें सम्राट् चंद्रगुप्त और चाणक्यके जैन होनेके कारण भारतवर्षके प्रथम उद्धारका यश जैनियों को ही प्राप्त है ।
कहते हैं कि चंद्रगुप्तने कुल चौवीस वर्षे राज्य किया था । धर्म-प्रभावन कार्य और अन्त में वह जैन साधु होगया था। के और समाधिमरण | उसने अपनी राज्यावस्था में जैनधर्म प्रभावनाके लिये क्यार कार्य किये थे, उनका पता लगा लेना आज कठिन
१-आक० भा० ३ पृ० ५१-५२ । २ - हिड्राव०, भूमिका पृ० १०२६ । ३ - जविओोसो० भा० १ पृ० ११५ - ११६. मि० जायसवाल ने चन्द्रगुप्तका राज्य काल सन् ३२६ ई० पु० से सन ३०२ ई० पू०तक लिखा किन्तु श्री० नगेन्द्रनाथ वसु इससे बहुत पहिले उनका राज्यकाल निर्धारित करते है; उनका कहना है कि " सिकन्दरका समकालीन चन्द्रगुप्त न