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________________ २६४] संक्षिप्त जैन इतिहास । एक ऐसा सुक्ष्म पुद्गल पदाथ नहीं माना गया है जिसका आश्रय होसके । दया, दान, सत्य और शौच धर्म भी जैनमतमें मान्य है। (१०) अशोकने अत्रित कराया था कि सात्मपरीक्षा बड़ी कठिन है, तो भी मनुष्यको यह देखना चाहिये कि चंडना, निम्नु. स्ता, क्रोध, मान और ईर्ष्या यह मब पाएके कारण हैं। वह इनसे दूर रहे ।' कारागारमें पड़े हुये प्राणण्ड पुरस्कन दियोंके लिये भी अशोर ने तीन दिन अवकाश दिया था जिसमें वे और उनके संबंधी उपवास, दान आदि द्वारा परमको सुधार सकें। एक धर्म- । परायणके राजाके लिये ऐमा करना नितांत स्वामाविक था। बोकी यह शिक्षा भी जैनधर्म के अनुकूल है। कैदियों का ध्यान समाधिमग्णकी ओर आर्पित करना उपके लिये स्वाभाविक था। जनना स्वभाव ही ऐसा होजाता है कि वह दूपरोंहो देवा जीविक ही न रहने दे, प्रत्युत उसका जीवन सुखमय हो, ऐसे उपाय करे। नशोक भी यही करता है। इस प्रकार मशोने जो बातें पारलौकिक धर्मके लिये माव-. श्यक बताई हैं, वह जैनधर्ममें मुख्य स्थान रखती हैं। हां, इतनी बात ध्यान रखनेकी अवश्य है कि अशोकने अपने शासन-लेखोंमें लौकिक और पारिलोकिक धर्ममें ब्राह्मण-श्रमणा मादर करना, दान देना, जीवोंकी रक्षा करना, कत पापोंसे निवृत होनेके लिये मात्म परीक्षा करना और व्रत उपवास करना मुख्य हैं। इन्हीं पांच बातों के अन्तर्गत अवशेष बातें भानाती हैं। और इन्हीं पांच बातोंच १-अघ० पृ. ३२४-नृतीय स्तंभलेख। २-अध० पृ. ३३९ । ३-माअशो० पृ० ११६-१२
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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