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मौर्य साम्राज्य। [२६५ 'उपदेश जैन शास्त्रोंमें मिलता है। सब जीवोंपर दया करना, दान
देना, गुरुओंकी विनय और उनकी मूर्ति बनाकर पुना करना, कृत्पा. मौके लिये प्रतिक्रमण करना और पर्व दिनों में उपवास करना एक श्रावकके लिये भावश्यक कर्म है।
अशोक यह भी कहते हैं कि धर्मको चाहे सर्व रूपेणं पालन करो और चाहे एक देशरूप, परन्तु करो अवश्य ! और वह यह मो बतला देते हैं कि सर्वरूपेण धर्मका पालन करना महाकठिन है। यहांपर उन्होंने स्पष्टतः जैन शास्त्रोंमें बताये हुये धर्मके दो मेद-(१) मनगार धर्म और (२) सागार धर्मका उल्लेख किया है। मनगार-श्रमण धर्ममें धार्मिक नियमोंधा पूर्ण पालन करना पड़ता है; किन्तु सागार धर्ममें वही बातें एक देश-आंशिक रूपमें पाली जाती हैं। इस अवस्थामें अशोकका पारलौकिक धर्मके लिये जो बातें आवश्यक बताई हैं, उनसे भी नैनोंको कुछ विरोध नहीं है। क्योंकि वह सम्यक्त्वमें बाधक नहीं हैं।" तिसपर जैन शास्त्रों में उनका विधान हमा मिलता है। अशोक लौकिक धर्मके ही लिये कहते हैं कि
(१) माता-पिताकी सेवा करना चाहिये । विद्यार्थीको माचा
ल्पसूत्र पृ० ३२-जराएमो० भा० ९ पृ० १७२ फुटनोट १ । २-अध० पृ० १०९-सप्तम शिला० । ३-अध० पृ. २२०-शि० ११॥ -~-अष्टपाड.पृ. ९४ व १९॥ ५-दो हि धर्मो गृहस्यानां लौकिकः पारलौकिकः ।
लोकाश्रयो गवेदाद्यः परः स्यादांगमाश्रयः ॥ सर्थ एव हि जैनानां प्रमाण लौकिको विधिः । . . यत्र सम्यक्त्व हानिन यत्र न प्रतदूषणम् ॥