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२६६] संक्षिप्त जैन इतिहास । यकी सेवा करना चाहिये और अपने जाति भाइयों के प्रति उचित वर्ताव करना चाहिये। (ब्रह्म गरिका द्वि०शि०, भघ० ४०९६)
(२) मनुष्य व पशु चिकित्साका प्रबन्ध करना चाहिये । फूल . फल जहां न हों, वहां भिनवाना चाहिये और मार्गोंमें पशुओं व मनुष्यों के मारामके लिये वृक्ष लगवाना व कुयें खुदवाना चाहिए।'
(३) बन्धुओंध मादर और वृहों की सेवा करनी चाहिये । (चतुर्थ शि० ) वृहों के दर्शन करना और उन्हें सुवर्णदान देना चाहिये । ( अष्टम शि०)
(४) दास और सेवकों के प्रति उचित व्यवहार और गुरुभोंका भादर करना चाहिये । (नवम शि.)
(५) और अनाथ एवं दुखियों के प्रति दया करना चाहिये। (सप्तम स्तम्भ लेख) '. इन लौकिक कार्यों को अशोक महत्वकी दृष्टिसे नहीं देखते थे। वह साफ लिखते हैं कि 'यह उपकार कुछ भी नहीं है । पहिलेके राजाओंने और मैंने भी विविध प्रकारके सुखोंसे लोगों को सुखी किया है किन्तु मैंने यह सुखकी व्यवस्था इसलिये की है कि लोग धर्मके अनुसार माचरण करें। अतः मशोकके निकट धर्मका मूल भाव पारलौकिक धर्मसे था। लौकिक धर्म सम्बन्धी कार्य मूल धर्मकी वृद्धि के लिये उनने नियत किये थे। जैनधर्म, लौकिक १-'तिणहं.दुप्पाड आरं समणाआसो त जहा ।
अगपिउणो भदिदायगस्स धम्मापरियस्व ॥' २-घोमदेव:-'माता-पित्रोश्च पूजक-श्री मण्डनगणि । -अध० पृ० ३७६-सप्तम स्तम्भ लेख ।
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