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संक्षिप्त जैन इतिहास |
तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ भगवान महावीरजी से श्री ज्ञातृपुत्र महावीर ढाई सौ वर्ष पहिले हुये थे । उनका वैयः और क्तिक और पारस्परिक सम्बंध उपरोक्तः भगवान पार्श्वनाथ । उल्लेखके अतिरिक्त और कुछ भी अधिक दृष्टि नहीं पड़ता । किंतु श्वेतांवर शास्त्रोंमें उनके और महावीरजीके धर्म में कुछ विशेष अन्तर बतलाया है । श्वेतांवर कहते हैं कि पार्श्वनाथजीने केवल चार व्रतोंश ही निरूपण किया था और उनके तीर्थ साधु सवस्त्र रहते थे । भगवान महावीर ने उन चार व्रतों में गर्भित शीलव्रतको प्रथक्रूप देकर पांच व्रतोंका उपदेश दिया और उन्होंने साधु जीवनको कठिन तपस्या से परिपूर्ण बनानेके लिये नग्नताका विधान किया था । श्वेतांबरोंका यह कथन उनके विशेषप्रमाणिक और मूल आचारांगादि ग्रन्थों में नहीं है । और यह 1 अन्यथा भी बाधित है।
बौद्ध ग्रन्थोंमें अवश्य भगवान महावीरको 'चातुर्याम संवर' से वेष्टित बतलाया है किन्तु वह श्वेतांबरोंके चार व्रतोंके समान नहीं है । वह ठीक वैसी ही चार क्रियायें हैं जैसी कि जैन साधुओंके लिये दि० जैन ग्रन्थों में मिलती हैं । किन्तु हमारा अनुमान .है कि उपरांत ईसवीकी छठीं शताब्दिमें जब श्वेतांबर ग्रन्थों का संकलन हुआ था, तब बौद्ध ग्रन्थोंने जैनोंके लिये ' चातुर्याम संवर " . नियमका प्रयोग देखकर श्वेतांबरोंने उसका सम्बंध पार्श्वनाथजी से बैठा दिया; क्योंकि यह तो विदित ही है कि श्वेतांबर आगम
1 १-उसू० पृ० १६९-१७५। २- दीति० भा० १ पृ० ५७-५८ । ३- भयबु० पृ० २२२-२२७ ।