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संक्षिप्त जैन इतिहास |
दोनों सम्प्रदायों में क्यों मतभेद है ? जो हो, श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रथम श्रुतकेवली प्रभव हैं । वह चवालीस वर्षतक सामान्य मुनि रहे थे और उनने ग्यारह वर्षतक पट्टाधीश पदपर व्यतीत किये थे । उनने राजगृह के वत्सगोत्री यजुर्वेदीय यज्ञारंभ करनेवाले शिय्यंभव नामक ब्राह्मणको प्रबुद्ध किया था और वही इनका उत्तराधिकारी हुआ था | श्री प्रभवस्वामीने ८५ वर्षकी अवस्था में वीर नि० सं० ७५ में मुक्त पद पाया था । श्री शिय्यंभव अट्ठाइस वर्षकी उमर में जैन सुनि हुये थे । ग्यारह वर्षेतक प्रभवस्वामी के शिष्य रहकर वह पट्टपर आरूढ़ हुये थे । तेईस वर्षतक युगप्रधान पद भोगकर ६२ वर्षकी अवस्थामें वीर नि० सं० ९८ में स्वर्गवासी हुये थे । इनने अपने छै वर्षके बालक पुत्रको दीक्षित किया था और उसके लिये दशवैकालिकसूत्रकी रचना की थी।
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इनके उत्तराधिकारी श्री यशोभद्रनी थे । यह तुंगीकायन गोत्र थे और गृहस्थी में बाईस वर्षतक रहकर जैन मुनि हुये थे । छत्तीस वर्षके हुये तव यह पट्टाधिकारी होकर पचास वर्षतक इस पदपर विभूषित रहे थे । वीरनिर्वाणसे एकसौ व्यालीस वर्षोंके बाद यह तीसरे श्रुतकेवही स्वर्गवासी हुये थे। इनके उत्तराधिकारी श्री संभूतिविजयसूरि थे; जिनके गुरुभाई श्री भद्रबाहु स्वामी थे । इस प्रकार श्वेताम्बर चौथे और पांचवें श्रुतके वलियोंको समकालीन प्रगट करते हैं। वह कहते हैं कि संभूतिविजयसुरि तो पट्टाधीश थे और भद्रबाहुस्वामी गच्छकी सारसंभाल करनेवाले थे । संमूर्ति
१ - जेसा० भा० १ वीरवं० पृ० ३ व परि० पृ० ५४... २ - जैसा० भा० १ षीरंवं० पृ० ४ व परि० पृ० ५८ ।