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२७२] - संक्षिप्त जैन इतिहास | विपत्ति बतलाते हैं। जैन से यह विस्कुल ठीक है । आसवका नाश होनेपर ही जीव परमसुख पा सका है। अशोकने आसव शब्दको मैन भाव में प्रयुक्त किया है, यह लिखा जाचुका है । अतएव अशोकमा श्रद्धान ठीक जैनों के अनुपारी कि प्राणियोंका संसार स्वयं उनके अच्छे बुरे कर्मोंपर निर्भर है। कोई सर्वशक्तिशाली ईश्वा उनको सुखी बनानेवाला नहीं है । कर्मवर्गणाओंका बागमन (अनब) रोक दिया जाय, तो आत्मा सुखी होजाय ।
(२) आत्माका अमरपना यद्यपि अशोकने स्पष्टतः स्वीकार नहीं किया है, किन्तु उन्होंने परमवमें आत्माको अनन्त सुखका उपभोग करने योग्य लिखा है। इससे स्पष्ट है कि वह आत्माको . अमर-अविनाशी मानते हैं और यह जैन मान्यता के अनुकूल है।'
(३) लोको विषयमें भी अशोकमा विश्वास जनों के अनुकूल प्रतीत होता है । वह इहलोक और परलोका भेद स्थापित करके
आत्माके साथ लोक्का पनातन रूप स्पष्ट कर देते हैं । उनके निकट लोक अनादि है; मिसमें जीवात्मा अनंत कालतक मनंत सुखना उपभोग कर सकता है। किंतु अशोक बल्ल-बाल'का उल्लेख करके लोक-व्यवहार, मो यहां परिवर्तन होते रहते हैं, उनका भी संकेत कर रहे हैं । जैन कहते हैं कि यद्यपि यह लोक मनादि निधन है, पर भरतखण्डमें इसमें उलटफेर होती रहती है। जिसके
१-दशम शिलालेख-अध० पृ. २२० । २-तत्वार्थ० अ० ६-१०।: ३-जमीसो० भा० १७ पृ० २७० । ४-एको मे सासदो अप्पाणाणदसण लक्खणो सेसा मे बाहिरा भावा सम्वे संजोग लक्खणा ॥८॥-कुन्दकुन्दाचार्यः । ५-अध० ए० २६८-त्रयोदश शि० १६-अध० पृ० १४८ व १६३चतुर्थ व पंचम शिला।