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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [ १०९ सक रहेगा। वह अपनी क्षुषा और तृषाकी निवृत्त के लिये अन्नजल भी स्वतः ग्रहण नहीं करेगा। यथानात नग्नरूपमें रहकर शेष व्रतोंका एवं अन्य नियमों और तप ध्यानका अभ्यास करेगा। किन्तु इसके प्रतिकूल एक गृहस्थ केवल जानबूझकर कपायके वश होकर किसीके प्राणोंको पोड़ा नहीं पहुंचायेगा। वह गृहस्थी जीवनको सुविधा पूर्वक व्यतीत करनेके लिये आजीविका भी करेगारोटी पानी भी लायगा और बनायेगा । अधर्मी और अत्याचारीके मन्यायका प्रतीकार करनेके लिये शस्त्र-प्रयोग भी करेगा। सारांशतः उसके लिये हर हालतमें पूर्ण अहिंसक रहना असंभव है। इसलिये ही वह इन व्रतोंको आंशिकरूपमें ही पाल सक्ता है; यद्यपि वह अपने विसात पूर्ण अहिंसक बननेकी ही कोशिश करेगा। यही नहीं कि स्वयं जीवित रहे और अन्य प्राणियोंको जीवित रहने दे, किन्तु वह अन्य प्राणियोंको जीवित रहने देने में अपनी जान भरसक प्रयत्न करेगा, स्वयं स्वाधीन रहेगा और दूसरोंको भी स्वतंत्रताका सलौना स्वाद लेने देगा।
मतलब यह है कि वह संसारमें शांति और प्रेमका साम्राज्य फैलानेमें अग्रसर होगा। अहिंसा के साथ अन्य व्रतोंका भी यथाशक्ति अभ्यास करेगा । अपनी इच्छाओं और आवश्यक्ताओंको नियंत्रित और कमती करता हमा, वह आत्मोन्नतिके मार्ग अगाड़ी बढ़ जायगा और एक रोम अवश्य ही पूर्ण योगका अभ्याप्त करनेमें दत्तचित्त हुआ मिलेगा। इसका परिणाम यह होगा कि वह कर्माको परास्त कर विजय लाम करेगा और पूर्ण सुखका अधिकारी बनेगा। उसके अभ्युत्थान और मानंदकी कुंनी उसकी मुट्ठीमें है