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मौर्य साम्राज्य |
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चारको बढ़ानेवाला नहीं था । उसका उद्देश्य जनसाधारण में सुनीतिका प्रचार करना था । और इस उद्देश्यमें वह सफल हुआ था; जैसे कि हम देख चुके हैं। तथापि उसमें जब पशुओं और वृक्षों तककी रक्षाका पूर्ण ध्यान था, तब उसे जैनधर्मके विरुद्ध खयाल करना मूल भरा है । चन्द्रगुप्त अवश्य ही एक बड़े नीतिज्ञ और उदारमना जैन सम्राट् थे । यही कारण है कि प्रत्येक धर्मके शास्त्रों में उनका उल्लेख हुआ मिलता है। जैन शास्त्रोंमें उनका विशेष वर्णन है और वह उनके अंतिम जीवनका एक यथार्थ वर्णन करते हैं; वरन् अन्य किसी जैनेतर श्रोतसे यह पता ही नहीं चलता है कि उनका -राज्य किस प्रकार पूर्ण हुआ था। जैन शास्त्र बतलाते हैं कि वह अपने पुत्रको राज्य देकर जैन मुनि होगये थे और यह कार्य उनके समान एक धर्मात्मा राजाके लिये सर्वथा उपयुक्त था । अतएव चंद्रगुप्तका जैन होना निःसंदेह ठीक है । मि० स्मिथ कहते हैं कि ""जैनियोंने सदैव उक्त मौर्य सम्राट्को विम्बसार (श्रेणिक) के सटश "जैन धर्मावलंबी माना है और उनके इस विश्वासको झूठ कहने के "लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं है ।"*
कोई विद्वान कहते हैं कि यदि चन्द्रगुप्त जैन धर्मानुयायी थे, तो वह एक ब्राह्मणको अपना मंत्री नहीं रख चाणक्य | सक्ते थे । किंतु इस आपत्ति में कुछ तथ्य नहीं है, क्योंकि कई एक जैन राजाओंके मंत्री वंश परम्परा रीतिपर अथवा स्वाधीन रूपमें ब्राह्मण थे । और फिर जैन शास्त्रों का कहना
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१ - अवण० पृ० ३७ व आहि० पृ० ७५-७६ । २ - आहि० पृ० ७५ व जैशिसं० भू० पृ० ६९ ।