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मौर्य साम्राज्य।
[२३१ मौर्यकालकी सामानिक दशा भगवान महावीरके समयसे
कुछ अधिक विलक्षण नहीं थी। वह प्रायः सामाजिक दशा मीही थी। ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्रयह चार प्रधान जातियां थी और इनको अपना वंशगत व्यवसाय करना अनिवार्य था। किन्तु प्रत्येक प्राणीको राजाज्ञासे दूसरा अथवा एकसे अधिक व्यवसाय करनेकी स्वाधीनता प्राप्त थी। इन वामें परस्पर उदारताका व्यवहार था। जातीय कट्टरताका नामशेष नहीं था। पारस्परिक सहयोगसे रहते हुये यहांके लोग बड़े सुखप्तम्पन्न और सदाचारी थे । वे मनुष्य जीवनके चारों पुरुपार्थो-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-का समुचित साधन करते थे। ब्रह्मचर्यदशामें रहकर विद्याध्ययन करनेसे उनकी बुद्धि कुशाग्र
और स्वास्थ्य अनुपम रहता था। वे सदा सत्यवादी थे। और शिल्प एवं कलाकौशलमें बड़े निपुण थे। सोने चांदी और जवाहरातके मामृपण बनाने के लिये देशमें सोने, चांदी, तांबे, लोहे, रत्न मादिकी खाने थी। तब भारतीय मच्छर शस्त्र और बड़े जहान बनाते थे। उस समय यहांका शिल्प और वाणिज्य उन्नतिकी चरमसीमापर पहुंचा हुआ था । सिंधुदेशके सुन्दर वस्त्र और देशकी बनी हुई अन्य वस्तुयें दूर २ विदेशोंमें विकनेके लिये जाती थीं। मेगास्थनीन लिखता है कि "भारतीय यद्यपि सरल स्वभाव हैं और सादगीको बहुत पसंद करते हैं; परंतु रत्नों, अलं-- कारों और परिच्छेदोंका उनको स्वास शौक है । परिच्छदोंपर सुन
१-माप्रारा. भा० २ पृ. ९१ । २-लाभाइ० मा० १० १४९।। ३-माप्रा०० मा० २ पृ० ९२.।
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