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________________ २३० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | सदाचार और सुनीतिकी बढ़वारीका विश्वास था । चन्द्रगुप्तके विपयमें कहा जासक्ता है कि उसका यह कठोर दण्डविधान सफल हुआ था | मेगास्थनीज लिखता है कि जितने समय तक यह चंद्रगुप्तकी सेनामें रहा, उस समय चार लाख मनुष्यों के समूहमें कभी किसी एक दिन में १२०) रुपयेसे अधिक की चोरी नहीं नहीं हुई । और यह प्रायः नहीं के बराबर थी । भारतीय कानूनकी शरण बहुत कम लेते थे । उनमें वायदाखिलाफी और खयानत के मुकद्दमें कभी नहीं होते थे । उन्हें साक्षियोंकी भी जरूरत नहीं पड़ती थी। वे 1 भारतीय अपने घरोंको विना ताला लगाये ही छोड़ देते थे । इस 'उल्लेखसे स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्तके दण्ड विधानका नृशंसरूप जनताको सदाचारी और राज्याज्ञानुवर्ती बनाने में सहायक था | इस दशामें उसका प्रयोग अधिकता के साथ प्रायः नहीं होना संभव है। चन्द्रगुप्तकी विशाल सेनाकी व्यवस्था के लिये एक सैनिक विभाग था । सेना के चारों भागों - (१) पैदक सैनिक विभाग । सिपाही, (२) अश्वारोही, (३) रथ, (8) हाथीका प्रबन्ध चार पंचायतों द्वारा होता था । पांचवीं पंचायत कमसरियट विभाग और सैनिक नौकर-चाकरोंका प्रबन्ध करती थी । छठी पंचायत जहाजों का प्रबन्ध करती थी । सेनाको वेतन नगद मिलता था । " जहान आदि सब यहीं बनाये जाते थे । इस व्यवस्थासे स्पष्ट है कि चंद्रगुप्तका सैनिक प्रबंध सर्वाङ्ग पूर्ण और सराइंनीय था । यदि उसकी व्यवस्था ठीक न होती तो इतने बड़े साम्राज्यपर वह सहसा अधिकार न जमा सक्ता ! - " १-मेऐइ० पृ० ६९-७० । २-माइ० १०६६ ।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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