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श्रीमज्जिनदत्तमरिमाचीनपुस्तकोद्धारफंड-ग्रंथांकः ३५ मूलमें अन्वयके अंक तथा विशेष अर्थकी टिप्पणी युक्त शब्दार्थ मात्र हिंदी अर्थ सहित साधु-साध्वी योग्य
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पंच-प्रतिक्रमण-सत्र
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कोटिगण वज्रशाखा चंद्रकुल बृहत्खरतरगच्छगगनांगण मूर्यसमान पत्तन चैत्यवासी यतिपति विजेता मूरिपुरंदर मुविहित सिद्धांत । मागोनुसारी श्रीजिनेश्वरमूरीश्वर नवांगमूत्र टीकाकार श्रीमद् अभयदेवमूरीश्वर श्रीजिनवल्लभसूरीश्वर श्रीजिनदत्तमरीश्वर परंपरानुगत ! क्रियोद्धारक श्रीमोहनमुनीश्वर महातपस्वी श्रीजिनयशस्मूरीश्वर आज्ञानुवति अनुयोगाचार्य पंन्यासजी महाराज श्रीकेशरमुनिजी गणिके ! सदुपदेशसे श्रीसुरत बंदर निवासि झवेरी श्रेष्ठि कल्याणचंद्र सुपुत्र प्रेमचंद्र पत्नी श्राविका रतनबाई आदिकी द्रव्य सहायसे
छपवाके प्रकाशित किया. श्री सिद्धाचल कल्याण भुवन तथा सुरत नवा उपासरावाली श्राविका रतनबेन-गोपीपुरा सुरत. ।
धी “जैन विजयानंद" प्री प्रेस,-कणपीठ बजार सुरतमें शा. मोहनलाल मगनलाल बदामीने मुद्रित किया. वीर संवत् २४५९ विक्रम संवत् १९८९
मूल्य रु.१-०-०
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GAGGER-2G 205 GDOGG2G DOE इस पुस्तकको छपानेमें जिन महाशयोंने उदार चित्तसे मदद करी है ननके शुभ नाम नीचे मुजबहै ।
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एएएएए.-
५०१ झवेरी कल्याणचंदभाइके सुपुत्र प्रेमचंदभाइकी घरवाली श्राविका रतन बेन . सुरत. १०१ जेसलमेरवाले शेठजी चांदमलजी पटवाकी घरवाली श्राविका फूलकुंवर बाई कलकत्ता. १०० रायबहादुर बाबू सुखराजजी राय नाथनगर (भागलपुर-चंपापुरी)
शेठजी किसनलालजी संपतलालजी लुणावत पाली.
शेठजी फतेमलजी सिहाल पाली. ५० जौहरी इंद्रचंदजी जरगडकी बहू श्राविका शिखरुबाई तथा श्रावक हमीरमलजी गुलेछा जयपुर. २५ शेठजी उदयचंदजी हालाखंडी पाली.
१२ शेठजी लालुभाइ हेमचंदभाइ मुखडीया सुरत. ___पुस्तक १ की कीमत रु. १) ३ की २॥) ७ की ५) १० की ७) १५ की २०) २० की १२) २५ की १४) ज्ञानमें
पुस्तक । श्रीजिनदत्तसूरिजी ज्ञानभंडार, ठि० पायधूनी, श्रीमहावीर स्वामीका मंदिर मु० मुंबई.२ मिलनेका पता-श्रीजिनदत्तसूरिजी, ज्ञानभंडार. ठि० गोपीपुरा-शीतलवाडी-मु० सुरत सिटी. )
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فقدان علاقمندان ماقالاستحقاقع
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साधु-साध्वी पंच प्रतिक्रमण सूत्रादि अनुक्रमणिका.
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मूत्रांक मूत्र नाम पत्रांक मूत्रांक मूत्र नाम पत्रांक मृत्रांक मूत्र नाम पत्रांक मूत्रांक मूत्र नाम पत्रांक १ नवकार मंत्र १२ नमुथ्थुणं
थुइ (अमावस पूनमकी) २३३० सयणासण गाथा (साधु थापनाजीके तेरे बोल १३ जावंति चेइमाई
राइ पदिक्कमण विधि २३
अतिचारकी) २९ २ खमासमणा
२१४ जावंत के वि साहू २० चतुर्दशो स्तुति २६३१ मुहपत्तिके २० बोल ३ इच्छकार मुहराइ २/१५ नमोऽर्हत
२१ नवपद स्तुति २३३० अंगके २५ बोल ४ अभ्भुटिया |१६ उवसग्गहर स्तोत्र
२४३३ वांदणे ५ करेमि भंते ! (श्रावककी) १७ जय वीयराय ! |२३ श्रीवोर गर्भापहार स्तुति २५/३४ राइअं आलोकं ६ इरियावहिया
१८ जय तिहअण ११ २४ अरिहंत चेइयाणं २०३५ संथारा उट्टणकी ७ तस्स उत्तरि
११ जय महायस! २२/२५ पुख्खरवरदीवढे | २७३० ठाणे कमणे ८ अन्नत्थऊससिएणं
देवसी प्रतिक्रमण विधि २३/२६ सिद्धाणं बुद्धाणं २८३७ सात लाख ९ लोगस्स
थुइ (अरिहंतादिकी) २३/२७ वेयावच्चगराणं २९ ३८ अढारे पापस्थानक १० जयउ सामिय!
थुइ (नवपदजीकी) २३/२८ आचार्यादि वंदन २९ ३१ ज्ञानदर्शन चारित्र पाटी० ११ किंचि
थुइ (अष्टमीकी) २३/२१ पडिक्कमणे ठाऊं २०४० सव्वस्स वि
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मूत्रांक मूत्र नाम पत्रांक मूत्रांक मूत्र नाम पत्रांक मूत्रांक मूत्र नाम पत्रांक सूत्रांक मूत्र नाम पत्रांक
करेमि भंते ! (साधुकी) ३७ सिद्धाचल स्तुति ५८/६५ पाणस्स लेवाडेणके आगार६७७८ कालो गोअर गाथा f४१ चत्तारि मंगलं ३७५३ स्तवन सिद्धाचलजीका ५८/६६ आंबिल पञ्चख्खाण ६८/७१ महावीर स्तुति
इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे०३७ सिद्धाचल स्तुति ५२/६७ चोविहार उपवास ६९/८० वीर कल्याण स्तुति . ४२ पगाम सिजाए ३८५४ स्तवन सिद्धाचलजोका ६०/६८ तिविहार उपवास ६९/८१ वीर कल्याण स्तुति ४३ आयरिय उवज्झाए ४/५५ स्तवन सिद्धाचलजीका ६०/६१ भवचरिम पञ्चख्खाण ६९/८२ वीर स्तुति (संस्कृत) ४४ सकलतीर्थ नमस्कार ४१/५६ पुंडरिक गणधर चैत्यवंदन ६२७० गंठसी आदि अभिग्रह ७०/८३ पज्जुसण स्तुति ४५ इच्छामो अणुसहि ५३/५७ स्तवन (पुंडरिकजीका) ६२/७१ पञ्चरुखाण आगार संख्या७०/८४ सिद्धचक्र स्तुति ४६ परसमयतिमिरतरणि ५३८ सिद्धाचल स्तति ६३/७२ पञ्चरुखाणपारनेकीभावना७१८५ अष्टमी स्तुति ७८ ४७ यदंघ्रि स्तुति ५४/५१ नवकारसी पञ्चख्खाण ७३ तिविहार उपवास पारनेकी | देववंदनके पीछेकी देव४८ सीमंधर चैत्यवंदन |६० नवकारसी मूठसी ६४
भावना ७१ सिक प्रतिक्रमण विधि ७५ ४९ सीमंधर स्तवन |६१ देशावकाशिक पच्चसखा०६४/७४ पाणहार दिवस रिम ७२८६ श्रुतदेवी स्तुति १५० सीमंधर स्तुति ५६/६२ पोरिसी साढपोरिसी ६४/७५ दिवसचरिम चोविहार ७२/८७ क्षेत्रदेवी स्तुति
५१ सिद्धाचल चैत्यवंदन ५७/६३ पुरिम अवट्ठ मूठसी ६५/७६ दिवसचरिम दुविहार ७०८८ भवनदेवी स्तुति ५२ स्तवन सिद्धाचलजीका ५७/६४ निवि एकासणावियासणा3०1७७ थंडिल्ला परि लेहग ७०1८९ कमलदल० स्तुति
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ॐ मूत्रांक मूत्र काम पत्रांक मूत्रांक सूत्र नाम पत्रांक मूत्रांक मूत्र नाम पत्रांक मूत्रांक मूत्र नाम पत्रांक
९० भवनदेवी स्तुति ८५१०२ संथारा पोरिसी १४/११४ नवपद शांतिनाथ चै० ११५१२६ पंचमीस्तुति(भाषाकी)१२२ ११ क्षेत्रदेवता स्तुति ८.१०३ पाक्षिकादि प्रतिक्रमण ११५ पार्श्वनाथ चैत्यवंदन ११४२२७ पार्श्वनाथ चैत्यवंदन १२३ ९२ नमोऽस्तु वर्द्धमानाय ८१ _ विधि ११/११६ पार्श्वनाथ सावन ११०/१२८ चिंतामणि पार्श्वनाथ ९३ संसारदावा स्तुति ८२१०४ छींकादि दोषनिवारण ११७ इग्यारस चैत्यवंदन ११ स्तवन (संस्कृत) १०३ ९४ चिंतामणि पार्थ जिन
विधि १०२/११८ इग्यारस थड ११०/१२१ पाश्चेजिन स्तुति १०३ स्तवन ८४|१०५ अजित शांति स्तव १०२/११९ सीमंधर थुइ (पाकृत) ११. यह दूसरी वेलाके पत्र १५ लघु अजित शांति स्तव ८५१०६ पाक्षिकादि तिथि मंतव्य'१५,२० पंचमी थुइ (संस्कृत) ११० अंक १२१ से है ९६ वरकणय १७०जिनवंदन ९१ १०७ श्रीवीर चैत्यवंदन ११६/१२१ अष्टमीकी थुइ (संस्कृत)।२० पंचमीका बडा स्तवन १२१ +९७ स्तंभन पार्श्वनाथ चैत्यवंदन९११०८ श्रोवीर स्तवन ११६/१२२ इग्यारसकी थुइ (सं०) १२६ श्री गोडि पार्श्वनाथ ९८ सिरिथंभणयट्ठिय गाथा ९३/१०१ शांतिजिन चैत्यवंदन ११७/१२३ चीजको कहनेका ।
स्तवन १२२ ९१ श्री जिनदत्त मूरिजी श्रीजिन|११० सीमंधर जिन चैत्य- | सीमंधर स्तवन १२१ मौन एकादशीका के कुशल मूरिजीका काउस्सग्ग१३/ वंदन (संस्कृत) ११७/१२४ वीर चैत्यवंदन १२०
स्तवन १२३ १०० चउक्कसाय चैत्यवंदन १३/१२पंचज्ञान(तथा)अष्टमीका १२५ वीर जिन कल्याण
वीर मुणो मोरी वीनती १०१ अर्हतो भगवंत०१४
चैत्यवंदन ११८
स्तुनि १२०
स्तवन १२३
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मूत्रांक. मूत्र नाम पत्रांक १३० पाक्षिकादि अतिचार १२५ १३१ पख्खी मूत्र १३३ १३२ पाक्षिकादि खामणे १६८ १३३ धम्मो मंगल दशका
निवेदनलिक अध्ययन तीन १७१
पाठक गण! संशोधनकी १३४ ढंढणरिपि सज्झाय १७७ | सावधानि रखते हुएभी इस पुस्त
१३५ स्वार्थ सज्झाय १७७ कमें भूलसे जो कोइ अशुद्धता ॐ१३६ सज्झाय निक्षेप विधि १७७/ रह गइ हो उसको सुधारके पढ़ें,
१३७ चैत्री काउस्सग्ग १७८| क्योंकि भूल होना छद्मस्थका १३८ सज्झाय उत्क्षेप विधि १७८| स्वभाव है, इत्यलं १३९ लोच करने कगनेका
विधि १७९ श्रीवीर जिन स्तुति तथा श्री जिनदत्त मरिजी नमस्कार १८ ।
श्रीवीर स्तवन नारे वीर ! नहीं मान रे, नहीं मानुं नहीं मानु रे। नहीं मानुं तारूं अकल्याण, प्रभु गर्भकल्याण प्रमाण शनारे वीर ! नहीं मानुं रे किम मार्नु किम मार्नु रे, प्रभु अकल्याणक भूत । जे गर्भापहार तात!, नारे०१२। आषाढि मुदि छठी दिने रे, आव्या देवानंदा कूख रे। ते दिन गर्भाधाने कल्याण श्रेय, ए पंचाशक साख, नारे।। आसोज वदि तेरस दिने रे, गर्भधारण त्रिशला कूरख रे। इंद्रे श्रेय कल्याण माता ए, मान्युं कल्पमूत्र मूल साख, नारे वीर! ।४। जन्म दीक्षा केवल मोक्ष थयु रे, कल्याण श्रेय छ ए जाण रे। अकल्याण गंध मने नहीं रे. जिनचंद्र वीर वखाण, नारे वीर०।।
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__नमो नमः खरतरगच्छनभोमणिश्रीमोहनमुनीश्वरजिनयशःसूरिपदपंकजेयः मूलमें अन्वयके अंक तथा विशेष अर्थकी टिप्पणि युक्त शब्दार्थमात्र हिंदी अर्थ सहित साधु साध्वी श्रावक श्राविका योग्य
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पंच-प्रतिक्रमण-सूत्र
मूत्र ?
नमस्कारहो, १ अरिहंतोंकुं। नमस्कारहो, सिद्धोंकुं । नमस्कारहो, ३ आचार्योकुं। नमस्कारहो, उपाध्यायोंकुं। नमस्कारहो, लोकमें रहे,सर्व, नवकार नमो, अरिहंताणं।नमो,सिद्धाणं। नमो, आयरियाणं। नमो, उवज्झायाणं । नमो, लोए,सव्व. मंत्र साधुओंकुं। यह, पांच, नमस्कार । सर्व, पापाकुं, नाश करनेवाला है । मंगलामें, फेर. सर्व । पहेला, होता है, मंगल।
साहूणं। एसो,पंच, नमुक्कारो। सव्व, पाव, प्पणासणो। मंगलाणं, च, सव्वेसिं। पढम, हवइ, मंगलं। थापना- शुद्ध स्वरूपके धारक १ ज्ञान २ दर्शन ३ चारित्र सहित ४ सद्दहणा शुद्धि ५ प्ररूपणा शुद्धि ६ दर्शन शुद्धि सहित ७ जीके १.३॥ पंचाचार पाले ८ पलावे ९ अनुमोदे १० मनोगुप्ति ११ वचनगुप्ति १२ कायगुप्ति १३ आदरे । बोल
१ रागादि शत्रुओंको हणनेकाले । २ बंधे ८ कर्मोको भस्म (नाश) करनेवाले | ३ पंचाचार पालने-पलाने वाले । ४ पासमें रहे शिष्यादिको पढानेवाले । जी५ ज्ञानादि रत्नत्रयीके साधनेवाले ।
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(मैं)इच्छताहूं , हे क्षमाश्रमण !, वांदनेकुं, शक्ति मुजब, अन्यकाप निषेधके, मस्तकसे, वांदताहूं ।. खमास- इच्छामि, खमासमणो!,'वंदिवं,जावणिजाए, निसीहिआए,मत्थएण, वंदामि । मणा
(हेगुरुजी!) इच्छाकरके, सुखसे रात्रि, मुखसे दिन, सुखसे तपस्या,(और)शरीरमें, बाधा-रोग-रहित, सुखसे संयम यात्राकुं, निभाते इच्छकार
_ इच्छकार, सुहराइ, *सुहदेवसि,सुख तप, शरीर, निराबाध, सुख संजम जात्रा, निर्वहोर मुहराइ होजी ?, स्वामी ! सातामें होजी । इच्छाकरके, आज्ञादीजिये, हेभगवन् !,अभ्युत्थित(तयार)हुआहुँ, २अंदरकिये,रात्रीसंबंधी, अभ्भु-छोजी ?,स्वामि! साता छेजी ?।'इच्छाकारेण,संदिसह, भगवन् !, अाभुटिओमि अभितर, राइअं,
खमानेकेलिये,आज्ञाप्रमाणहै,खमाताहुँ,रात्रिसंबंधीर,जो, कुछ, अप्रीतिवाला,घणीअप्रीतिवाला,भोजनमें,पाणीमें,विनयमें,वेयावच्चमें', बोलनेमें, सूत्र ४ । खामेडं, 'इच्छं, खामेमि, राइअं, जं.किंचि,अपत्तिअं, परपत्तिअं, भत्ते,पाणे,विणए,वेयावच्चे,आलावे,
वारंवारबोलनेमें, ५ऊंचेआसनमें,समानआसनमें, बीचमेबोलनेसे, उपरबोलनेसे, जो, कोइ, मेरा,विनयपरिहीन हुआहो, मूक्ष्म(छोटा), संलावे, उच्चासणे, समासणे, अंतरभासाए,उवरिभासाए, जं,किंचि,मज्झ, विणयपरिहीणं, सुहुमं, १ क्षमावाले-तपस्वी । * दिनको १२ बजनेके पहले 'राई' और पीछे 'देवसी' कहना । २ रात्रिके। ३ अपराधोकुं । देवसी आदि शेषचारों पडिक्कमणोंमें अनुक्रमसे 'देवसिय-पख्खि-चउमासिअ-संवच्छरिअ' कहना। ४ सेवाभक्तिम। ५ आपसे ऊंचे आसनपर या गुरुके समान आसनपर बैटनेसे। ६ आपकी बातके । ७ आप बातकर चुकेबाद । ८ अविनय ।
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चाहे,बादर(मोटा), चाहे, आप, जानतेहो, मैं, नहीं, जानताहूं, उसका, मिथ्या हो,मेरे, दुष्कृत। वा, बायरं, वा, 'तुाभे, जाणह,अहं,न, जाणामि,तस्स,मिच्छा,मि, दुक्कडं।
करताहं, हेभगवन् !, सामायिककुं, पापसहित, योगकुं, त्यागताहूं। जहांतक, नियमकुं, से (वहांतक), दोप्रकारके१, तीनप्रकारसे, मनसे, करेमि करेमि, भंते!,सामाइयं, सावज्जं,जोगं, पच्चख्खामि। जाव,नियम,पज्जुवासामि, दुविहं, तिविहेणं,मणेणं, पहेले भूत वचनसे, कायासे, नहीं, करूं, नहीं, कराऊं, उससे२, हेभगवन् !, पीछाहटताहूं, निंदताहूं, गर्हताहूं, आत्माकुं, वोसिरा(हटा)ताहूं । लगापाप
वायाए,काएणं, न,करेमि,न,कारवेमि, तस्स, भंते!, पडिक्कमामि,निंदामि,गरिहामि,अप्पाणं,वोसिरामि॥ वो पीछे # आपकी इच्छासे, आज्ञा दो, हे भगवन् !, चलतेलगेपापकुं, पीछाहटाताहूं, आज्ञा प्रमाणहै,इच्छताहूं, पीछा हटना, चलते हुए लगी, के सज्झाय
आदि करे इरिया इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! इरियावहियं,पडिकमामि,इच्छं,इच्छामि, पडिक्कमिनं इरियावहियाए वहिया | विराधनासे, जावते आवते, प्राणीयोंकुंदबाके, बीजकुंदबाके, लीला घासदबाके, ओस, कीडिके घर, लीलफूल, पाणी, माटी,
विराहणाए, गमणागमणे,पाणक्कमणे, बीयकमणे, हरियक्कमणे, ओसा, उत्तिंग, पणग, दग, मट्टी,
लियोंके, जालोंकुं,दबाके या मसलके,जो, मैंने, जीवोंकुं, विराधे हो , एक इंद्रियवाले, दो इंद्रियांवाले,तोन इंद्रियांवाले,चार इंद्रियांवाले, मक्कडा, संताणा, संकमणे, जे, मे,"जीवा, विराहिया."एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, करने-कराने रूप सावद्यकुं ।२पहले किये-कराये पापसे ।३उस पहेलेके पापकुं आत्मसाखे ।४गुरुसाखे विशेषनिंदताहूं।५ उस पाप परिणामसे। ६ वेइद्रिय आदि। दुःखी कियेहो।
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तस्स
उत्तरि
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अन्नत्थ ऊससि
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पांच इंद्रियांवाले, लातों आदि सेमारे हो, धूलादिसे ढांकेहो, घसेहो १, भेले करे हो, संघट्टा किया (अडा) हो, परितापित किये हो २, खेदित किये ( थकाये) हो, पंदिया, अभिया, बत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया परियाविया, किलामिया,
हैरान किपेडो, एक स्थान से, दूसरे स्थान में रखेहो, जीवितसे, छुडाये (मारे ) हो, उसका, मिथ्या (निष्फल ) हो, मेरे, दुष्कृत ( प प ) | उदविया, ठाणाओ, ठाणं, संकामिया, जीवियाओ, ववरोविया, तस्स, "मिच्छा, "मि, दुक्कडं । उसकी, शुद्धि करनेके लिये, प्रायश्चित (आलोयणा) करनेके लिये, विशेष शुद्धि करनेके लिये, शल्यरहित करने के लिये, पाप (अशुभ), कमकुं, तस्स, उत्तरिकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं, पावाणं, कम्माणं,
नाश करनेके लिये, करता हूं, काउस्सग्ग ।
निग्घायणऽठ्ठाए, ठामि काउस्सगं ।
अन्यत्र, ऊंचे श्वाससे, नीचे श्वाससे, खांसीसे, छींकसे, बगासीसे, डकारसे, वायुसरणेसे, भमल (चक्कर) से, पीतकी, 'अन्नत्थ, 'ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं जंभाइएणं, उड्डुएणं, वायनिसग्गेणं, भमलीए, पित्त, मूर्छासे, सूक्ष्म (थोडा), अंगके, चलनेसे, सूक्ष्म (थोडा), श्लेष्मके, चलनेसे, सूक्ष्म दृष्टि (आंख) के चलने से. मुच्छाए, सुहुमेहिं, अंग, संचालेहिं, सुहुमेहिं, खेल, संचालेहिं, सुहुमेहिं, दिट्ठि, संचालेहिं, एवमाइएहिं,
इत्यादि,
१ आपसमें या भूमि उपर । २ तकलीफ दी हो । ३ बेहोशी ( बाटा बूट ) होना । ४ हाथ -पग आदि । ५ बलखा-कफ ।
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अरिहंत, . भगवंतोंक, ,
तबतक, कायाकुं १, स्थिराज, मे,काउस्सग्गो."
आगारोंसे, अभंग, अविराधित, . होवो, मेरा, काउस्सग्ग, . जबतक, अरिहंत, भगवंतोंकुं, नमस्कार करके, नहीं
आगारोहिं, अभग्गों,अविराहिओ,हुज्ज, मे,काउस्सग्गो, जाव,अरिहंताणं,भगवंताणं, नमुक्कारेणं, न, कपालं, तबतक, कायाकुं १, स्थिर करके, मौन रहके, ध्यान धरके, अपनी, बोसिराताहूं। पारेमि, ताव, कायं, 'ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं,अप्पाणं, वोसिरामि।
लोककुं, प्रकाशित करनेवाले । धर्मतीर्थके करनेवाले,राग-द्वेष जीतनेवाले । अरिहंतोंका,कीर्तन करूंगा।चोवीसों भी, केवल ज्ञानी ।। लोगस्स लोगस्त, उज्जोअगरे। धम्मतित्थयरे, जिणे॥ अरिहंते, कित्तइस्सं। चउवीसंपि, केवली॥२॥
ऋषभदेवकुं, अजितनाथकुं, और, वांदताहूं। संभव नाथकुं, अभिनंदनकुं, फेर,सुमतिनाथकुं,और । पद्मप्रभुकुं, मुपार्थ। जिनकं, और,
उसभ, मजियं, 'च, 'वंदे। संभव,मभिणंदणं, च, 'सुमई, च॥'पउमप्पहं,सुपासं। जिणं, च, चंद्रप्रभुकुं,वाढताहूं। २ । सुविधिनाथक,या. पुष्पदंतकुं २, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्यकुं, और। विमलनाथकुं, अनंतनाथकुं,फेर,जिनेश्वर, चंदप्पहं, वंदे ॥२॥'सुविहि, च,पुप्फदंतं। सीयल, सिज्जंस, वासुपुज्ज,च । विमल, मऽणंतं, च, जिणं, धर्मनाथकुं.शांतिनाथकुं, और,बांदताहूं। ३ । कुंथुनाथकुं, अरनाथकुं,फेर,मल्लिनाथकुं। वांदताहूं ,मुनि मुत्रतस्वामीकुं,नमिनाथ जिनकं,और । वांदताहूं, धम्म, 'संति, 'च, वंदामि॥३॥'कुंथु, अरं, च, मल्लिं। वंदे, मुणिसुव्वयं, नमि जिणं, च॥ वंदामि, , अशुभ क्रियाओं ये । २ सुविधिनायक ही दूसरा नाम है।
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॥२॥
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अरिष्टनेमिकं, पार्श्वनाथकं, तथा, बर्द्धमान स्वामीकुं, फेर |४| इसतरह, मैंने, स्तवेहुए । क्षय हुए है, कर्म, मैल निणोंके । (तथा) नाशहुए है, जरा, 'रिनेमिं, पासं, तह वडमाणं च ॥४॥ एवं, मए, अभिथुआ । विहुय, रय, मला । पहीण, जर, मरण जिणोंके। चोविसोंभी, जिनवरदेव । तोर्थके करनेवाले मेरे उपर, प्रसन्नहो । ५ । कीर्त्तना किये हुए वादे हुए, पूजेहुए। जो, थे, लोकमें, मरणा ॥ चउवी संपि, जिणवरा । तिथ्थयरा, मे, पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय, वंदिय, पहिया । जे. ए. लोगस्स, उत्तम, सिद्धहैं। (वे मुझे) आरोग्य, बोधिकेरे, लाभकुं । समाधिके, वरकुं, उत्तम, दो । ६ । चंद्रोसे, विशेष निर्मल । सूथोंसे, उत्तमा, सिद्धा ॥ आरुग्ग, बोहि, लाभं । समाहि, वर, मुत्तमं दिंतु ॥६॥ ' चं देसु, निम्मलयरा। आइचेसु, अधिक, प्रकाश करनेवाले । ४ उत्तम समुद्रसमान, गंभीर । सिद्धभगवान्, सिद्धि (मोक्ष), मुझे, दो । ७ । अहियं, पयासयरा ॥ सागर वर, गंभिरा | सिद्धा, सिद्धिं मम, दिसंतु ॥७॥
जयवंतेवर्तो, स्वामी !, जयवंतेवत हेस्वामी !, ऋषभदेव, शत्रुंजय उपर रहे, उज्जयंत उपर रहे, हे प्रभु, नेमिजिन!, जयवंतेवत, हेवीरप्रभो !, जय,'सामिय!, 'जयउ, सामिय!, 'रिसह, "सतंज, 'उजिंत, पहु, नेमिजिण!, "जयउ 'वीर ! साचोरके, मंडन, भरूचमें रहे, हेमुनिसुव्रतस्वामी !, 'मुहरिमें रहे, हे पार्श्वप्रभो !, दुःख, पापका नाश करनेवाले, दूसरे, पांचमहाविदेहमें रहे, 'सच्चाउरि, मंडण, "भरुअच्छहिं, मुणिसुव्वय!, मुहरि, पास !, दुह, दुरिय, खंडण, "अवर, विदेहिं
१. बुढापा २ चतुर्विध संघ स्थापन ३ समकित ४ समुद्रों में उत्तम स्वयंभुरमण' नामका छेला समुद्र । ५ टीटोइ गाममे ।
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तीर्थकर, (तथा) चारों, दिशिमें विदिशिमें, जो,कोइभी, अतोत, अनागत, संप्रति कालके, वांदताहूं, जिनेश्वर हो, सबकुं, भी ।। तिथ्थयरा,"चिहुँ,दिसि,विदिसि,जं,के वि, ऽती, आणागय, संपइय, "वंदुं, "जिण, सव्वे, वि ॥२॥ कर्मभूमिमें, कर्मभूमिमें, प्रथम, संघयणवाले, उत्कृष्ट(संख्या), सित्तर,एकसो(१७०), जिनवरोंकी, विचरतेहुए, मिलतीहै,
कम्मभूमिहिं,कम्मभूमिहि,पढम,संघयणि, उक्कोसय, सत्तरि, "सय, जिणवराण, विहरंत, लाभइ, 5 नवक्रोड (और), केवलीयोंकी(संख्या)। करोड, हजार, नव, साधु, मिलतेहैं । संपतिकालमें, जिनवर २, वोसहैं। मुनि(साधु), दो,
नवकोडिहिं. केवलीण। कोडि, 'सहस्स,"नव, साहु,गम्मइ। संपइ,जिणवर, वीस। "मुणि, बिहुँ, # करोडहैं, उत्तमज्ञानी(केवली) । श्रमण ३, करोडहै, हजार, दो, स्तवे जाते हैं, (वेसब) नित्य, प्रभातमें । २। सता', कोडिहिं,'वर नाण। समणह, कोडि,"सहस, "दुअ, 'थुणिज्जइ, निच्च, विहाणि॥२॥ सत्ताणवइ,
हजार, लाख, छप्पन, आठ, करोड। चारसो, छिंआसी, तीनलोकमें रहे, चैत्योकुं ४, वांदताहूं। ३ । वांदताहूं,नव सहस्सा, लख्खा , छप्पन्न, अठ,कोडिओ। चउसय,छायासीया,'तिल्लुक्के, चेइए, वंदे, ॥३॥ वंदे, नव, करोड(और),सौ। पच्चिस, करोड, लाख, तेपन । अठावीस, हजार। चारसो, अश्यासी, (जिन)प्रतिमाओंकुं ॥४॥ कोडी, सयं। पणवीसं,कोडि. लख्ख, तेवन्ना॥ अठ्ठावीस,सहस्सा। चउसय,अठासीया, पडिमा ॥४॥
१ वतमान । २ तीर्थकर । ३ सामान्य साधु । ४ जिनमंदिरोंकुं ।
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है जो, कोइ, नामके, तीर्थकुं । (तथा)स्वर्गमें,पातालमें, मनुष्य, लोकमें। जो, जिनविंवहैं। उन, सबकं, वांदताहूं । । जंकिंचिक
जं किंचि.नाम.तिथ्थं। सग्गे पायाले माणुसेलोए॥जाइंजिणबिंबाइं।ताई.सव्वाइं.वंदामि॥२॥
नमकारहो, रागादिशत्रु इणनेवाले, भगवंतोंकुं। १ आदि करनेवाले,तीर्थके २ करनेवाले,स्वयं(आपसे)योधपायेहुए। पुरुषोंमें उत्तम पुरुषोंमें, नमुथ्थुण की 'नमुथ्थुणं, अरिहंताणं,भगवंताणं ।। आइगराणं,तिथ्थयराणं, सयं संबुदाणा पुरिसुत्तमाणं,पुरिस,
जसिंहकेसमान,पुरुषोंमें, श्रेष्ठ,कमलकेसमान, पुरुषोंमें, श्रेष्ठ, गंधहस्तिकेसमान। लोगोंमें उत्तम, लोगोंके नाथ, लोगोंका हितकरनेवाले,लोगोंको के
सीहाणं,पुरिस,वर,पुंडरीयाणं,पुरिस,वर,गंधहथ्थीण।३।लोगुत्तमाणं,लोग नाहाणं,लोगहियाणं, लोग दीपकसमान,लोगोंमें,ज्ञानउद्योत, करनेवाले। अभय देनेवाले, ३ चक्षुदेनेवाले, मोक्षमार्गके देनेवाले,शरण देनेवाले, ४ बोधि देनेवाले। म पईवाणं,लोग,पज्जोअ.गराणं।४।अभयदयाणं,चख्खुदयाणं, मग्गदयाणं,सरणदयाणं, बोहिदयाण।५। ॐ धर्मके दाता, धर्मके उपदेशक, धर्मके नायक(स्वामी), धर्मके सारथि, धर्मके, श्रेष्ठ,चारगति अंतकारी,चक्रवर्ती। अप्रतिहत, उत्तम, धम्मदयाणं,धम्मदेसयाणं,धम्मनायगाणं,धम्मसारहीणं,धम्म,वर,चाउरंत,चक्कवट्टीणादाअप्पडिहय वर ज्ञान, दर्शनके,धारण करनेवाले,वीतगये,छद्म(४घातीकर्म)वाले। खुद ५ जोतनेवाले,दूसरोंको जीतानेवाले,खुद तरेहुए,दूसरोंको तारनेवाले, नाण,दंसण, धराणं, विअट्ट, छउमाणं ।७। जिणाणं, जावयाणं, तिन्नाणं, तारयाणं,
१ अपने अपने शासनकी। २ चतुर्विधसघंकी स्थापना। ३ श्रुत ज्ञानरूप । ४ समकित । ५ रागद्वेषकुं। ६ संसार समुद्रसे ।
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बोध पायेहए,बोध देनेवाले, १ मुक्त(छुटे)हुए,दूसरोंको छुडानेवाले। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी(तथा), उपद्रव रहित, अचल(स्थिर),रोगरहित,अंतरहित,
बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोअगाणं।८।सव्वन्नृणं सव्वदरिसीणं, सिव, मयल, मरुअ, मणंत, के क्षयरहित,व्यावाधारहित,पुनरागृत्ति २ रहित, सिद्धिगति, नामके, स्थानकुं, संप्राप्तहुए, नमस्कारहो.जिनेश्वरोंकुं,जीनाहै भयजिन्होंने(ऐसे)। मख्खय,मव्वाबाह,मपुणरावित्ति,सिडिगइ,नामधेयं,ठाणं,संपत्ताणं, 'नमों, जिणाणं, 'जिअभयाणं।९।। जो, फेर,वीतेकालमें (हुएहै), सिद्ध । जो, और, होचेंगे, अनागत, कालमें। संपति(अभी) फेर, वर्तमान(मौजूद) है, सबकुं, जे.अ. “अईआ, 'सिद्धा। 'जे, अ, “भविस्संति, ऽणागए, काले॥ "संपई, 'अ, "वट्टमाणा। सव्वे, त्रिविधकरके, वांदताहूं। तिविहेण, वंदामि॥२॥
जितने,चैख(जिनविंध)हो। ऊर्ध्वलोकमें, और,अधोलोकमें,और तिरछे,लोकमें, फेर। सबकुं, उन,वांदताहूं। यहां रहाहुआ(मैं),वहां रहेहुओंको। जावंति जावंति,चेइआइं। 'उढे, अ, अहे, अतिरिय, लोए,॥ सव्वाई, ताई वंदे। इह,संतो,तथ्थ, संताई।
जितने, कोइ भी,साधुहो। भरत, औरवत,महाविदेह(क्षेत्र)में, फेर। सबकं(मैं), उन, प्रणत(नमा)हं । त्रिविधकरके,तीनदंडसे,विरत(रहित) जावत जावंत केवि,साहू। भरहे,रवय,महाविदेहे, ये॥सव्वेसिं, 'तेसिं, पणओ। तिविहेण, तिदंड विरयाणं।
१ कर्नबंधनसे । २ पीछा संसारमें आकर जन्मलेने आदिसे।
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केविसाहू
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नमस्कारहो,अरिहंत, मिद्ध,आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधुओंकुं। नमोऽहतक
नमो, ऽर्हत् ,सिहा,चार्यो,पाध्याय,सर्वसाधुश्यः। उपसर्ग हरनेवाला,पार्श्वयक्षकेस्वामी। पार्चप्रभुको,वांदताहूं,कर्मरूप,मेघसे',मुक्त (रहित)। विषधर(सर्प)के,जहरको,नाशकरनेवाले । मंगल(तथा) उबसगी रेउवसग्गहरं, पासं,। पासं, बंदामि, 'कम्म,घण, मुक्कं॥ विसहर विस, निन्नासं। मंगल हर स्तोत्र
कल्याणके, आवास(घर) ।। विषधरके,स्फुलिंग नामक,मंत्रकुं । कंठमें, धारताहै, जो, सदा, मनुष्य । उसके,ग्रहपीडा,रोग,परकी( हैजा)। कल्लाण,आवासं॥१॥ विसहर, फुलिंग, मंतं । कंठे, धारेइ,'जो, सया, मणुओ॥ तस्स,गह,रोग,मारी। # दुष्ट,ज्वर(ताव),जाते(प्राप्तहोते) है,उपशांतिकुं ।। रहो, दूर, मंत्र। आपको(किया),प्रणामभी,बहुत,फलवाला,होताहै । मनुष्य,तिर्यंचोंमें, # दु, जरा, “जंति, उवसामं॥२॥ चिटउ, दुरे, मंतो। 'तुज्झ,पणामोवि बहु,फलो होइ॥ नर,तिरिएसु, भी, जीव । पाते हैं, नहीं, दुःख, दुर्भाग्यकुं ।३। तुमारा,सम्यक्त्व ,मिलनेपर । चिंतामणि, (तथा)कल्पवृक्षसे, अधिक। पातेहैं वि, जीवा। पावंति, न, दुख्ख,दोहग्गं ।३। तुह,सम्मत्ते,लहे। चिंतामणि कप्पपायव,ऽभिहिए॥'पावंति, के विना विघ्नसे । जीव, अजर, अमर,स्थानकुं।४। इसतरह,(आपकुं)स्तव है,हे महायशस्वी ! । भक्तिके समूहसे,भरपूर, हृदयसे(मैंने)।
॥१०॥ अविग्घेणं। जीवा,अयरा,मरं,ठाणं॥४॥इअ, संथुओ, 'महायस!। भत्तिाभर,निशभरेण, हियएण॥
1 अथवा कर्म समुदायसे। २ आपको प्रणामसे। 3 आपमें भक्ति । ४ जरा मरण रहित ।
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इसलिये, हे देव!, दीजीए, बोधि (सम्यक्त्व ) । भवोभवमें, हेपार्श्व, जिनचंद्र ।।५। जयवंतेवत, हे वीतराग !, हेजगद्गुरु ! | उता, देव!, 'दिज्ज, 'बोहिं । भवेभवे, पास, जिणचंद ! ॥ ५ ॥ जय, 'वीराय !, जगगुरु ! | होवो, मेरेकुं, तुमारे. प्रभावसे, हे भगवन् !। संसारसे, वैराग्य, मार्गानुसारिपणा, इष्टफलकी, सिद्धि |१| लोक विरुद्धका त्याग । 'होउ, 'ममं, 'तुह, पभावओ, भयवं॥`भव, निव्वेओ, मग्गाणुसारिया, इफल, सिद्धी ॥१॥ लोगविरुद्ध, च्चाओ। गुरु (पूज्य), पुरुषोंकी, पूजा, परोपकार, करना, और । शुभ, गुरुका, मिलाप, उनके वचनकी, पालना । उमरभर अखंड हो । २ | गुरु, जण, पूआ, परग्थ्थकरणं, च। सुह, गुरु, जोगो, तव्वयण, सेवणा । आभव, मखंडा ॥२॥ जयवंते रहो, हे तीन भुवनमें, श्रेष्ठ, कल्पवृक्ष के समान !, जयवंतेवत, हे जिनोमें, धन्वंतरि (वैद्य) !। जयवंतेवत, हेतीनभुवन में, कल्याणके, खजाने !, जयति *जय, तिहुअण, वर, कप्परुख्ख !, 'जय, जिण धनंतरि ! | 'जय, 'तिहुअण, कल्लाण, कोस!, हुअण हेपापरूप, हाथिओंमें, समान ! । तीनभुवनके, जनोंसे, अविलंघित ३ आज्ञावाले, भुवनत्रय (३भुवन) के, स्वामी । करो, सुखोंको, जिनेश्वर "दुरिअ, करि, केसरि ॥ तिहुअण, जण, अविलंघिआण, भुवणत्तय, सामिअ।"कुणसु, "सुहाई, "जिणेस!, हेपार्श्व, स्तंभनकपुर में विराजमान | १| तुमको, समरतेहुए, पामते है, जल्दी, अच्छे, पुत्र, स्त्रियोंको । धान्य, सुवर्ण, आभूषणोंसे भरे हुए, `पास, 'थंभणयपुरनिय॥१॥ तइ, समरंत, 'लहंति, 'झत्ति, 'वर, पुत्त, कलत्तइ । धन्न, सुवन्न, हिरण्ण, पुण्ण,
जय
वियराय
१७
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१ या मोक्ष प्राप्तितक २ रागद्वेषके जीतनेवाले । देवसी में पहले की ५ अंकी २ कुल ७, पख्खी चोमासी-संवच्छरीमें ३० गाथा कहना। ३ नहीं उल्लंघ सके बसी । ४खंभात ।
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प्राचीन
समाचारीमें
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प्राणी, भोगवते है, राज्योंको। देखतेहैं, मोक्षको, असंख्य सुखवाले, तुमारे, हेपार्थ!, प्रसादसे। इसलिये, तीनभुवनमें,
जण,भुंजइ, रजइ॥"पिरुखइ,मुरुख,असंखसुख्ख, तुह, पास!, पप्ताइण।"इय, तिहुअण, 5 उत्तम,कल्पवृक्षकेतुल्य, सुखोंको, करो, मेरेलिये,हेजिन(देव)!।। ज्वरसे,जर्जरता वाले, सडेहुए कानवाले,नष्टहुएओठवाले, गलितकोढसे ।
वर,कप्परुरुख,“सुख्खइ,कुण, मह, जिण!॥२॥'जर, जज्जर, परिजुण्णकण्ण, नळुछ, 'सुकुठिण। नेत्रोंसेक्षीणतेजवाले,क्षयरोगसे,दुर्वलहुए,मनुष्य, शल्यवाले, शूलरोगसे । आपके, हेजिन !, स्मरणरूप, रसायन से, जल्दी, होते हैं,
चरुखुरुखीण,खएण,खुण्ण, नर, सल्लिअ, सूलिण ॥तुह, जिण!, "सरण, रसायणेण, लहु, हुंति, फिरनवीन(युवान)। जगत्केधन्वंतरि(वैद्य), हेपार्श्व !, मेरेकोभी, आप,रोगहरनेवाले, हो । ३। विद्या,ज्योतिप, मंत्र, तंत्रोंकी सिद्धि(तथा),
"पुणण्णव । जयधन्नंतरि, पास!,"महवि,"तुहु, रोगहरो,भव॥३॥विज्जा,जोइस,मंत तंत, सिद्धिउ. से विनाप्रयत्नसे। भुवनमें अद्भुत ,आठ प्रकारकी सिद्धियां सिद्धहोतीहै, तुमारे, नामसे। तुमारे, नामसे, अपवित्रभी, मनुष्य, |
अपयत्तिण । भुवणऽभुअ,अविह, सिद्धि, सिज्झहि, तुह,नामिण॥ तुह,नामिण, अपवित्तओवि,जण होताहै, पवित्र । इसलिये, तीनभुवनमें, कल्याणके,खजाने, आप, हेगर्थ, कहेगयेहो । ४ । क्षुद्रोंसे प्रयुक्तहुए ४,मंत्र, तंत्र,यंत्रोंको, होइ, पवित्तउ। 'तं, तिहुअण,कल्लाण,कोस, तुह, पास!, निरुत्तउ॥४॥ खुद्दपउत्तइ,मंत तंत जंताई, अशक्ति । २ औषध । 3 लोकमें आश्चर्यकारी । ४ नीच मनुष्योंने किये हुए ।
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निष्फलकरताहै। जंगम,थावर,जहरको,ग्रहोंको, उग्र, तरवारवाले,शत्रुकेवर्गको, हराताहै। दुःस्थितोंके,सार्थकोरे, अनर्थोसे, घेरेहुए,
विसुत्तइ। चर, थिर, गरल, गहु, ग्ग, खग्ग, रिउवग्ग, विगंजइ। दुत्थिय,सत्थ, अणत्थ, घत्थ. पारपहुंचाताहै, दयाकरके । (मेरे)पापोंको,हरो, वह, पार्श्वदेव, पापरूपहाथिको, सिंहसमान । ५। आपकी, आज्ञा, रोकतीहै, भयंकर, 'नित्थारइ, दयकरि।दुरियइं,हरउ, स, पासदेउ, दुरियकरि, केसरि॥५॥'तुह, आणा, थंभेइ, भीम, के अभिमानसे उद्धृत, (भूतादि)देववर । राक्षस, यक्ष, फणींद्रोंके ,वंद, चोर, अग्नि, जलधर(मेघ)को । जलमें, भूमिमें,चलनेवाले,रौद्र(भयंकर), है दप्पुद्धर, सुरवर ।रख्खस,जख्ख, फणिंद, विंद, चोरा,ऽनल, जलहर । जल,थल, चारि, रउद्द, क्षुद्र-हिंसक,पशुओंको,योगिनी,योगीओंको । इसलिये,तीनभुवनमें,अविलंधितआज्ञावाले,जयवंतेवों,हेपार्श्व .,हे मुस्वामि ! ।। प्रार्थनाकिये,
खुद्द, पसु, जोइणि,जोइय। इय,तिहुअण,अविलंघिआण, जय, पास!, सुसामिय!।६पत्थिय, अभिलाषवाले,अनर्थोसे,त्रासपायेहुए भक्तिकेसमुदायसे, भरेहुए । रोमांचसे युक्त, सुंदरकायावाले, किन्नर मनुष्य, देववर। जिसके,
अत्थ, 'अणत्थ, तत्थ, भत्तिाभर निश्भर रोमंचंऽचिय. 'चारुकाय, किन्नर नर, सुरवर॥ जसु,
सेवतेहै, चरण, कमलके, युगल को, धो डाला है, क्लेशरूप, मैल(जिसनेऐसे)। वह, भुवनत्रय(३लोक)के स्वाभी,पार्श्वप्रभु, मेरे,पर्दनकरो, # सेवहि, कम,कमल, जुयल, पख्खालिय,कलि, मलु । “सो, भुवणत्तय,सामि, पास, मह, मद्दउ
चलते सर्पादि । २ अफीम आदि । तीक्ष्ण । ३दुःखित समुदाय । ४ आठ जातिके सर्प । ५ हर्षसे रोमोका खडे होना । ६ व्यंतर या भवनपति देव । ७ या ज्योतिषी देव । ८ जोडला
॥१३॥
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शत्रुकेबलको ।७। जयवंतेव”,हेयोगियोंके,मनरूप, कमलमें, भ्रमर !,हेभयरूप,पिंजरेकोर, हाथी !। हेतीनभुवनके, जनोंको, आनंदकेलिये, रिउ बलु॥७॥ जय, 'जोइय, मण, कमल,भसल!, भय, पंजर,कुंजर!। तिहुअण, जण, आणंद, # चंद्र !. हेभुवनत्रय, दिनकर(मूर्य) ! । जयवंतेरहो, हेमतिरूप, मेदिनीकोर, मेघ !, हेजगज्जीवोंके, पितामह(दादे) ! । खंभातमें विराजमान है
चंद!,भुवणत्तय, दिणयर !॥ जय, मइ, मेइणि,वारिवाह !, जयजंतु, पियामह! । थंभणयठिय. हेपार्श्वनाथ !, नाथपणा,(आप)करो, मेरा । ८ । बहुतप्रकारके,वर्णसे, अवर्णसे ,शून्यपणेसे ,वर्णवागयाहै, (जो)पंडितोंसे । मोक्ष, धर्म, पासनाह !, नाहत्तण,कुण, मह ॥८॥'बहुविहु, वन्नु, अवन्नु, सुन्नु, वन्निउ, 'छप्पन्निहि। 'मुख्ख,धम्म में
काम, अर्थ(धन)के,अभिलाषी,मनुष्य, अपनेअपने, शास्त्रों में। जिसको, ध्याते हैं, बहुत, दर्शनों में रहे, (वास्ते)बहुत,नामोंसे प्रसिद्धहै । काम, ऽत्थ, काम, नर, नियनिय, सत्थिहि ॥जं, ज्झायइ, बहु ,दरिसणथ्थ, “बहु, नाम,पसिद्धन। + वह, योगियोंके,मनरूप,कमलमें,भमरे( जैसे), मुखकी,पार्थप्रभु, वृद्धिकरो । ९ । भयसे, विह्वल ,रणझणाटकरते,दांतवाले,थरथरितहुए,
सो,जोइय,मण,कमल,भसल, सुहु, पास.२पवन॥९॥'भय,विभिल, रणझणिर,दसण,थरहरिय, शरोरवाले। चंचलहुए, नेत्रवाले, खेदपाये,शून्यचित्तवाले, गद्गद,बोलीवाले,दीनतावाले । तुमको, जल्दी, समरतेहुए, होतेहैं, मनुष्य, कसरीरय।तरलिय.नयण.विसन्न, सन्न, गग्गर, गिर. करुणय ॥'तड."सहसत्ति.'सरंत. हंति. नर. nam 51 रागद्वेषादि। २ तोडनेकेलिये। ३ पृथ्वीको भीजानेमें। ४ रूपी-अरूपीपणेसे । ५ निराकार रूपसे । ६ मतोंमें । ७ आकुलव्याकुल-डाकाचक । ८ धूजतेहुए ।
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| नाशकिये, मोटे, भयवाले। मेरे, नाशकरो, भयोंको. हेपार्थ!,भयके,पिंजरेको,हाथीतुल्य । १०। (आप)स्वामीको, देखके,
नासिय,गुरु, दर । मह, विज्झवि,"सज्झसइ पास!, भय,पंजर,कुंजर॥१०॥ 'पइं, पासि, विकसित(खिले)हुए,नेत्ररूप,रपत्रकेअंतसे,प्रवर्तितः । आंसुओंके,पवाहसे ,अत्यंतवहगयेहै',जमेहुए,दुःख,दाह(जिनके ऐसे), अच्छेपुलकित हुए।
वियसंत, नित्त, पत्तंऽत,पवित्तिय ।बाह, पवाह, पवढ, रूढ, दुह, दाह, सुपुलइय ॥ मानतेहैं, मान्य, भाग्यवंत, पवित्र,अपनेआपको, देव, मनुष्य । इसलिये,तीनभुवनके,आनंदमें,चंद्रजैसे,जयवंतेवर्तो, हेपार्श्वजिनेश्वर ! ११॥ 'मन्नइ, मन्नु, सउन्नु, पुन्नु, अप्पाणं, सुर, नर। इय,तिहुअण,आणंद, चंद, “जय, पासजिणेसर!।११॥
आपके, कल्याणक,महोत्सवोंमें, घंटाके,टंकारशब्दसे, प्रेरितहुए। हिलतीहुइ,मालावाले,(तथा)मोटी, भक्ति वाले, देववर ९, रोमांचित हुए। है तुह, कल्लाण, महेसु, 'घंट,टंकाऽऽरव,पिल्लिय। वल्लिर, मल्ल, महल्ल, भत्ति, 'सुरवर, गंजुल्लिय॥ + (तथा)उतावलेहुए, प्रव । भुवनमेंभी०, महोत्सव । इसलिये, तीनभुवनके, आनंदवास्ते,चंद्रजैसे(तथा),जयवंतेवर्ती, हेपार्श्व !, # हल्लुप्फलिय, पवत्तयंति, भुवणेवि, महसव। इय, तिहुअण, आणंद, चंद, जय, ‘पास !,
मुखकीखान । १२। निर्मल, केवलज्ञानकी, किरणोंके,समुदायसे, नाशकियाहै, अज्ञान, समूहजिसने । दिखायेहै, सकल, पदार्थोके, में 'महाभव॥१२॥ निम्मल, केवल, किरण, नियर, विहुरिय, तम, पहयर । दसिय, सयल.पयत्थ, Fila तोडनेकेलिये । २ कमल । ३ शुरुहुए । ४ पूरसे । ५ नाश हुए है। ६ प्रफुलित रोमांच । ७ जन्मादि । ८ मुधोषाआदि । ९ चोसठ इंद्र। 10 आखे लोकमें । 11 सब जीवाजीवादि ।
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सार्थजिसने, विस्तृत,प्रभा(कांति)के,समूहवाले । कलिकालसे,कलुषित(मेले),मनुष्यरूप, उल्लू,लोगोंके, लोचनोंसे, अगोचर२। ३अंधेरोंको
सत्थ,वित्थरिय, पहा, भर ॥ कलि, कलुसिय, जण, घूय, लोय.लोयणह,अगोयर। तिमिरेइ, निश्चय,हरो, हेपार्श्वनाथ !, भुवनत्रयके, दिनकर । १३ । आपके, स्मरणरूप,जलकी, वर्षासे,सींचोहुइ,मनुष्योंकी,मतिरूप, मेदिनी। निरु,हर, पासनाह !,'भुवणत्तय.दिणयर ॥१३॥'तुह,समरण, जल,वरिस,सित्त, माणव, मइ,मेइणि । दूसरेदसरे,मूक्ष्मपदार्थोके,बोधरूप,नवे अंकुर,पत्रोंसे,शोभित । होती है, फलके,समूहसे,भरिहुइ,हरागयाहै,दुःख,दाह(जिसकाऐसी),उपमारहित। अवरावर,सुहमऽथ्थ,बोह कंदल.दल,रेहणि॥'जायइ, फल,भर,भरिय,हरिय.दुह, दाह, अणोवम । इसवास्ते,मतिरूप,मेदिनीको,मेघसमान, दीजीये, हेपार्थ ,सदबुद्धि, मुझे। १४ । करीहै, संपूर्ण, कल्याणकी, वेल, नाश कियाहै, 'इय, मइ, मेइणी,वारिवाह, दिस, पास!, मई, मम॥१४॥ कय, अविकल.कल्लाण,वल्लि, उल्लारिय. दुःखरूपवन । दिखायाहै,स्वर्गअपवर्ग(मोक्ष)का, मार्ग, (जो दुर्गति,गमनको ,वारनेवाला । जगजंतुओंके,जनक(पिता)के,तुल्य(ऐसा),जिसने दुहवणु। दाविय, सग्गऽपवग्ग, मग्ग, 'दुग्गइ, गम, वारणु ॥ जयजंतुह, जणएण, तुल्ल, जं. उत्पन्नकियाहै, हितकारी। रम्य, धर्म, वह, जयवंतेव”,पार्च(प्रभु), जगज्जीवोंके, पितामहादे)।१५। भुवनरूप अरण्यमें,बसनेवाले,
जणिय, हियावहु । रम्मु,धम्मु, सो,"जयउ, पास,जयजंतु,पियामहु।१५। भुवणारण,निवास १ फैलिहड । २ नहीं दीखने वाले। ३ अज्ञानरूप । ४ दिनका करने वाला सूर्य । ५ विरतिरूप । ६ पृथिवीको सींचनेमें । ७ प्रयाणको । ८ तीन जगतरूप अटवीं'।
॥१६॥
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अभिमानी, अन्य दर्शनी, देवता। जोगणी, पूतना', क्षेत्रपाल, क्षुद्र(दुष्ट) असुररूप,पशुओंका,समूह । तुमसे,त्रासपाके, भागेहुए, अच्छीतरह दरिय,परदरिसण देवय। जोइणि पूयण,खित्तवाल, खुद्दाऽसुर, पसु, वय॥'तुह,उत्तठ्ठ,सुनछ, सुठ्ठ, व्याकुलतारहित, रहते है । इसलिये,त्रिभुवनरूप, वनमें,सिंहतुल्य,हेपार्च !,(मेरे पापोंको, अत्यंतविनाशो।१६। धरणेंद्रके,फणमें(रहे),अत्यंत, अविसंठुलु,चिठहि । इय, तिहुअण, वण, सीह,पास!, पावाइ, पणासहि॥१६॥'फणि, फण, फार, देदीप्यमान,रत्नोंको,किरणोंसे रंगेहुए,आकाशतलमें। प्रियंगु(वेल)के,नवेअंकुरे,पत्ते,तमालवृक्ष,नीलकमल (जैसे),श्यामरंगवाले। कमठामुरनेकिये, फुरंत रयण, कर, रंजिय, नहयल। फलिणि,कंदल,दल, तमाल,नीलुप्पल, सामल ॥ कमठाऽसुर,
उपसर्गसमुदायके, संसर्गसे,नहींहारनेवाले। जयवंतेरहो, प्रत्यक्षहुए, जिनेश :, हेपार्थ, स्तंभनकपुरमें रहेहुए ।१७। मेरा, मन, Fउवसग्गवग्ग संसग्ग,अगंजिय! 'जय, पच्चरुख जिणेस!, पास,थंभणयपुरठिय ॥१७॥ मह, मणु, म चंचल, प्रमाण, नहीं है,वाचा(वाणी)भी,विसंस्थुल है । ३नहीं है, और, शरीरभी, अविनयस्वभाववाला, आलससे, परवश (ऐसा)।
तरलु, पमाणु,नेय, वायावि, विसंठुलु। 'न, 'य, तणुरवि, "अविणयसहावु,आलस,विहलंघलु॥ (किंतु) आपका, महात्म्य, प्रमाणहै, हेदेव !, करुणाभावसे, प्रवृत्तहुए। इसलिये, मेरेको, मत, अवगणो, हेपार्थ !, (किंतु)पालो, +
"तुह, माहप्पु, पमाणु, देव!, कारुण्ण,पवित्तउ।"इय,"मइ, मा,अवहीरि,२पास !, पालहि, ॥१७॥ १दुष्ट व्यंतरी । - १७ मा काव्य बोलते हुए भगवानकी प्रतिमा प्रत्यक्षहुइ,इसीलिये श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजने यहां पचरूख'शब्द वापराहै ।२ चलविचल । प्रमाण । ४आपकी कृपाम ।
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# क्लिापकरतेहुए । १८ । क्या क्या,कल्पा(विचारा),नहींज,करुणाकारी,क्या क्या, या, नहीं, बोला। क्या, अथवा,नहीं,चेष्टाकरी,
विलवंतउ॥१८॥ किंकिं, कप्पिउ, णेय, 'कलुणु, किं किं, व,न,जंपिउ ॥"किं, ३व, 'न,चिठिउ, में फकष्टकारी, हेदेव !, दीनताकुं, अवलंबके। किसकी, नहीं, करी, निष्फल, खुशामद, हमने, दुःखसेपीडायेहुए। तौभी,
किछु, "देव!, दीणय,मऽवलंबिउ॥"कासु,'न,किय,"निप्फल्ल,लल्लि, अम्हेहि, दुहऽत्तिहि । तहवि, नहीं, पाया, शरण, कुछभी, आपको, हेप्रभो !, सर्वथात्यागनेवाले । ११ । तुम, स्वामीहो, तुम, मातापिताहो, तुम, मित्रहो,
"न,पत्तउ, ताणु,२किंपि, पइ, 'पहु!, परिचत्तिहि॥१९॥'तुहु,सामिउ,तुहु, माय बप्पु, तुहु, 'मित्त, #प्रियकरनेवाले। तुम,गतिहो, तुम,मतिहो, तुमही,रक्षकहो,तुम, गुरुहो,क्षेम करनेवाले। मैं, दुःखके,भारसे, भारित(दवा)हूं,वराक(रांक),राजाहूं, पियंकरु। तुहु,गइ,तुहु,मइ,तुहुजि,ताणु,तुहु, गुरु, खेमंकरु॥हउं, 'दुह,भर, भारिउ, वराउ, राउल, निर्भाग्योंका। लीनहुआहूं, आपके, चरणकमलके, शरणमें,(वास्ते)हेजिन !,(मुझे)पालो, उत्कृष्ट । २०। आपने,कितनेही, कियेहै, निाभग्गह।"लीणउ,'तुह,कमकमल, सरण, "जिण !, पालहि, चंगह॥२०॥'पइ, किवि, 'कय, नीरोगी, लोकोंको,कितनेहीको,माप्तकरायेहै,मुख, सैकडों। कितनेही,मतिमंत २,मोटेहुए, कितनेही,कितनेहीने, साधाहै, शिवपद। नीरोय, लोय, किवि, पाविय, मुह, सय। किवि,मइमंत,"महंत, केवि, किवि,"साहिय, सिवपया ॥१८॥
कल्याण । २ आपकी कृपासे । ३ बुद्धिवान् ।
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कितनेहीने, हरायाहै, शत्रुसमुदायकुं,कितनेहीने, (स्व)यशसे,धौला करा (तो),भुमितलकुं। मेरेकुं, अवगणतेहो ?, क्यों, हेपार्श्व !,
किवि, "गंजिय, रिनवग्ग, केवि, जस, धवलिय, भूयल । मइ,अवहीरहि ?, केण,पास!, शरणागतोपर,वत्सल(प्रेम)वाले ।२१। प्रत्युपकारकी',इच्छारहित,हेनाथ !, निष्पन्न(सिद्ध हुए,प्रयोजनवाले। आप, हेजिनपार्थ!,परकाउपकार, 'सरणागय,वच्छल॥२२॥ पच्चुवयार,निरीह,नाह!, निप्पन्न, पओयण। 'तुह, जिणपास!, परोवयार, करनेमेंही एक, तत्पर। शत्रुमित्रमें, समानचित्तवृत्तिवाले,नमे में, निंदकमें, समान मनवाले । मत, अवगणोर, अयोग्यभी, .. मेरेको, करणिक,परायण॥ सत्तुमित्त,समचित्त वित्ति, नय, निंदय, सममण। मा,अवहीरि, अजुग्गओवि,मइ, - हेपार्थ !, पापरहित । २२। मैं, बहुतमकारके,दुःखोंसे,तपेहुए,शरीरवालाहूं,आप,दुःखनाशकरनेमें,तत्परहो । मैं,सुजनोंकी, करुणाकाएक, ई
पास!,'निरंजण॥२२॥'हनं, बहुविह, दुह, तत्त, गत्तु, तुहु,दुहनासण परु। हउं,सुयणह,करुणिक, स्थानहूं, आप,निश्चय, करुणा, तत्परहो। मैं, हेजिनपार्थ!, विनास्वामीवालाहूं, आप,तीनभुवनके,स्वामीहो(वास्ते)। जो,अवगणतेहो, ठाणु,तह, निरु,करुणा, परु॥हां,जिणपास!, असामिसालु.तहतिहअण, सामिय। जं,अवहीरहि मेरेको, विलापकरते, यह, हेपार्श्व !, नहीं शोभताहै । २३ । योग्यअयोग्यके, विभागको, हेनाथ !, नहींज, देखतेहैं, आप, सरीखे । मइ, 'झखंत, इय, पास!, न सोहिय॥२३॥ जुग्गाऽजुग्ग, विभाग, नाह !, नहु,जोयहि, 'तुह, सम। ॥१९॥ 1 उपकार का बदला। २ मेरा तिरस्कार मत करो। 3 आपको।
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भुवनकेउपकार, स्वभाववाले,भावकरुणाकेर, रससे, उत्तम। सम, विषमभूमि, क्या, मेघ, देखताहै ? ३, भूमिमें,गर्मीको,शमाताहुआ। भुवणुवयार, सहाव, भावकरुणा,रस,सत्तम ॥'सम,विसमई, किं, घणु, नियइ ?,'भुवि,दाह, समंतउ। इसलिये,दुःखियोंके,बांधव,हेपार्श्वनाथ !, मेरेको, पालो, “स्तवतेहुए । २४ । नहीं है,दीनोंकी', दीनताकुं,छोडके, अन्यभी, कोइ,
इय, दुहि,बंधव,पासनाह !,१मइ,पाल, थुणंतउ॥२४॥'नय, 'दीणह, दीणयु,मुयवि, अनुवि, किवि, 15 योग्यता । जिसको देखके, उपकार, करतेहैं, उपकारमें, भलेउद्यमी । दीनोंसेदीन हूं,सवतरहहीनहूं, जिससे,आप,नाथने, (मुझे)त्यागाहै।
जं,जोइवि उवयारुकरहि. उवयार समुज्जय॥ दीणहदीणु,निहीणु,जेण तइनाहिण,चत्त। इसलिये, योग्यहूं, मैं हो, हेपार्थ :, पालो, मेरेकुं, अच्छीतरह ।२५। अब, अन्यभी, योग्यताविशेष, कोइ,
तो,"जुग्गउ, अहमेव, पास!, १३पालहि, मइ,चंगउ ॥२५॥'अह, अत्रुवि, जुग्गय विसेसु, 'किवि, मानतेहोकि,दीनोंकी । जिसको, देखकर, उपकार, करतेहो, आप,हेनाथ !, समग्रलोगोंका। वह ही, निश्चय,कल्याणकारीहै, जिससे,
मन्नहि, दीणह । “जं.पासिवि,उवयारु,करइ, तुह, नाह! समग्गह॥सुच्चिय,किल,कल्लाणु, जेण, हेजिन !, आप, प्रसन्नहोवें। क्याहै ?, अन्य से, वहही हो, हे देव !, मत, मेरेको, अवगणो । २६ । आपसे प्राथना,नहींज, जिण!,तुम्ह,पसीयह। किं?,"अन्निण,"तंचेव, देव!,"मा,“मइ, अवहीरह॥२६॥'तुह,पत्थण, नहु, ॥२०॥ १ जगत्का उपकार करनेके । २ धर्महीन जीवोपर दया। ३ नहीं देखता । ४ आपको । ५ लाचारोंकी लाचारता। ६ गरीबोंसे गरीब । ७-८ योग्यता। ९ करी हुइ । र
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फारमुश्किलसे जाजित होने
पीलिये।
केवलज्ञान)
होतीहै, विफल १, हेजिन !,( मैं )जानताहूंकि,क्याहैकि.फिर। मैं, दुःखितहूं, निश्चय,सत्व,रहितहूं,दुरंजनीयहूं२,उत्सुक,मनवालाहूं। इसलिये
होइ, विहलु,'जिण!, जाणउ, किं. पुण। हां,दुख्खिउ,निरु,सत्त.चत्त, दुक्कहु,उस्सुय, मण । तं, आंखमीफ (यह)मानुंकि निमेषमात्रसे,यह यह भी, यदि, मिले(तो)। सत्यहै,जो, भूखेके, वशसे,क्या,ऊंबरा,पकताहै ?(नहीं)।२७। तीनभुवनके, चके उधाम मन्नउ, निमिसेण,एउएउवि, जइ, लाभइ।सच्चं,ज,भुख्खिय,वसेण,किं,उंबरु,पच्चइ ?॥२७॥'तिहुअण, फलप्राप्तिके
5 स्वामी, हेपार्श्वनाथ !, मैंने,आत्मा,प्रकाशितकियाहै। करो, जो, निजरूपके ,सरीखाहो(वह),नहीं,जानताहूं,(मैं)बहुत, बोलना। दर्शन सामिय,पासनाह!,मइ,अप्पु, पयासिउ।किज्जउ, नियरूव, सरिसु, 'न,मुणउ, बहु, जंपिउ ॥ इच्छासी चारित्रादि अन्य,नहीं है, हेजिन !,जगत्में, आपके समानभी दाक्षिण्य(लिहाजऔर)दयाका आश्रय। यदि, अवगणते हैं(तो), आपही, दुःखहैकि अकाल दुःख तथा अन्नु. न, जिण!,जगि, तुह,समोवि, दख्खिन्नु,दयाऽऽसउ। जइ,अवगन्नसि,"तुहुजि,अहह!! मनोरथ कहेहै। (मैं)कैसा,होऊंगा, हताश हुआ । २८ । यदि, आपके, रूपसे, किसीभी, प्रेतप्रायने१०,(मुझे)ठगलियाहै। तोभी,जानताहूंकि, हेजिन !
कह, होसु, "हयासउ॥२८॥ जइ, तुह,रूविण,किणवि,पेयपाइण,वेलवियउ। तुवि,जाणउ,'जिण!, हेपार्श्व!, आपसे, मैं, अंगीकारकियागयाहूं । इसलिये, मेरा,इच्छित १, जो,नहीं,होताहै,वह,आपकी,अपहापनाहै१२ । रखतेहुए(आपको), पास!, तुम्हि, हउं, "अंगीकिरिउ॥ इय, मह,इच्छिउ,जं.न,होइ,सा, तुह, ओहावणु। रख्खंतह, - आप अपने योग्य | ८ अधिककी तो बातही क्या कहना । ९ हणागइहै आशा जिसकी। १० व्यतरादिक । ११ मनोरथ । १२ लघुता ।
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से अपनी, कीर्तिको, नहींज, युक्तहै, (मुझे)अवधीरना' ।२१। यह, (मेरी)महायोग्य,यात्रा, हेदेव !, यह, स्नात्र, महोत्सव । जो,
निय. कित्ति, णेय,जुज्जइ,'अवहीरणु॥२९॥ एह, महारिय,जत्त, 'देव !,इहु न्हवण,महूसउ । 'जं, अनलीक(सत्य),गुणोंका, ग्रहण,आपके, मुनिजनोंको, अनिषिद्धहै । इसलिये, प्रसन्नहो, हेश्रेष्ठपार्श्वनाथ !, स्तंभनकपुरमें, रहेहुए।
अणलिय गुण,गहण, तुम्ह, मुणिजण,अणिसिद्धउ॥एम, पसीह, सुपासनाह !, थंभणयपुर,ठिय । इसतरह,मुनियों में,उत्तम, श्रीअभयदेव(मूरि), विनवे है,(किसीसे)नहींनिंदित ॥३०॥
इय, मुणि,वरु सिरिअभयदेउ,विनवइ, अणिंदिय॥३०॥
जयवंतेरहो,हेमोटे यशवाले ,जयवंतेरहो,हेबडेयशवाले !,जय०,हेमहाभाग्यशालि !,जय०,हेचिंतित(इष्ट), शुभफलदाता!, जय० हेसमस्त, जय जय, महायस!, जय, महायस!, जय, महाभाग!,जय, चिंतिय, सुहफलय !,जय, समत्थ, महाशय में परमार्थ(तत्त्व)के जानकार !,सदाजयवंतेरहो,हेमोटी,गौरवतावाले गुरो !,जय०,हेदुःखपीडित,प्राणिओंके रक्षक ! खंभातमेंरहेहुए, हेपार्धजिन !,
में परमत्थ,जाणय !, जय जय, गुरु, गरिम, गुरु!,जय, दुहत्त,सत्ताण,ताणय!,थंभणयव्यि,पासजिण!. हेभविकोंके,भयंकर,भवको ३, अस्त्र(शस्त्र) ! हेभयको,हटानेवाले !,हेअनंतगुणवान् !,आपको,तीनोंसंध्यामें, नमस्कारहो।
भवियह,भीम, भव, ऽत्थु!, भय,अवणिता!, णंतगुण!,तुज्झ, तिसंज्झ, नमोऽत्थु । FR १ मेरी अवगणना करनी । २ मेरे उपर । ३ नष्ट करनेके लिये ।
२२॥
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देवसीम - तिक्रमण विधि
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सामायिक लेके पच्चख्खाण करे, जय तिहुअण० चैत्यवंदन नमुत्थुणं० अरिहंतचेइयाणं० अन्नत्थ० १ नवकार का उस्सग्ग पारके नमोऽर्हत् ० थुइ कहके लोगस्स ० सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं० अन्नत्थ० १ नवकार काउस्सग्ग थुइ पुरुखरवरदी ० बंदणवत्तिआए अन्नत्थ० १ नवकार काउस्सग्ग थुइ सिद्धाणं बुद्धाणं०वेयावच्चगराणं० अन्नत्थ० १ नवकार काउस्सग्ग थुइ कहके नमुत्थुगं० ४ खमासमणेसे आचार्यमिश्र आदि ४ वांदे, इच्छा० संदि० भग० देवसिय पडिक्कमणे ठाउं ?, इच्छं, सव्वस्त वि देवसिय० करेमि भंते !० इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे देवसिओ० तस्स उत्तरि० अन्नत्थ०८नवकार काउस्सग्ग उपर लोगस्स मुहपत्ति पडिलेके दो वांदणे इच्छा० भगवन् देवसिअं आलोउं ? इच्छं आलोएम जो मे देवसिओ० सात लाख० अठारे पापस्थानः ज्ञानदर्शन० बोले सव्वस्पवि०३ नवकार ३ करेमि भंते इत्यादि आगे लिखीविधिकरे नमो अरिहंतादिने थापना थापी, त्रिविधे वांद साधु साखे जी। करेमि भंते ! सामाइयं. सावज्जं, पाप जोगने पहली. पच्चख्खे जी || पछी इरियावहिए. शुद्धि करीने, सज्झाय चैत्य. वंदन कीजे जी । आवश्यक टीकादि. महानिशीथमां, करो सुर सहाय. ए श्रद्धिजे जी ।। १. --४ ॥ नवपद आराधो. जाणी गुण अपार । अरिहंतादि पूजी. करो आंबिल निरधार ।।
अन्न जल के द्रव्यथी. आंबिल भाख्युं सार । श्री महानिशीथादिमां श्रुतदेवी देजो सुविचार ||१-४॥ अष्टमी दिने. अष्टम जिन पूजो, आठ करमने. हणवा जी। आठ पहोरी पौषध करीने, त्रिकाले त्रिअष्ट. जिन वांदवा जी ॥ आठ पोरी. पहेली अष्टमी ए, पौषध आदि. किम निषेधुं जी । हे शासन सुर ! पर्व तिथि ते, अपर्व कही. किम विराधुं जी ।।१४।। शासन नायक वीर जिणंद वांदी, नमुं ऋषभादि मुख सिंधु जी । अमावस ने पूनम अधिके, चउदस किम. विराधुं जी ॥ उदय चउदस. तेरस मनावी किम पौषधादि निषेधुं जी । सिद्धायिका देवी. शुद्ध बुद्धि देजो, पर्वतिथि तेह. आराधुं जी ॥१-४॥ उपर कही विधि से प्रभातकी सामायिक लेके खमासमणा देके कहे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! चैत्यवंदन करूं ?, इच्छे, जयउ सामिय
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विधि
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फफफफफफफ
फफफफफफफ
| विधिपत्र
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राइपडि- जयउ सामिय' से लेके 'आभवमखंडा' मुधि 'जय वीयराय ! तक करे,खमा०देके 'इच्छा संदि० भग० ! कुसुमिण दुस्मुमिण ओहडावणत्य कमण राइयपायच्छित्त विसोहणत्थं काउस्सग करूं!. इच्छं कुमुमिण दुस्मुमिण ओहडाव०विसोहणत्थं करेमि काउस्सगं.अन्नत्थ०' कहके १६नवकार विधि या ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, उपर लोगस्स कहे, एक एक खमासमणेसे आचार्यआदि ४ कुं वांदके "सव्वस्स वि राइय" मूत्रसे
पडिक्कमणा ठायके नमुत्थुणं करेमि भंते !०इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे राइओ०तस्स उत्तरि० अन्नत्थ० कहके चारित्रशुद्धि निमित्त ४ नवकार या? लोगस्सका काउस्सग्ग करे.पारके दर्शन शुद्धिनिमित्त प्रगट लोगस्स सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं० बंदणवत्तिआए० अन्नत्थ.
कहके ४ नवकार वा १ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारके ज्ञानाचार शुद्धिनिमित्त पुख्खरवरदी० सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सगं जवंदणवत्तिआए० अन्नत्थकहके ८ नवकारका काउस्सग्ग करे या "आजुना चार प्रहर रात्रिमांहि जे मे जीवविराध्या होय सात लाख०" 5 इत्यादि चिंतवे, काउस्सग्ग पारके सिद्धाणं बुद्धाणं० कहके मुहपत्ती पडिलेही वांदणे दो देवे, पीछे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !
राईयं आलोऊ?' गुरु कहे 'आलोएह' बाद 'इच्छं आलोएमि जो मे राइओ०' कहके 'आजना चार प्रहर रात्रिमें जे मे जीव विराध्या होय सात लाख पृथिवीकाय! अढारे पापस्थानक आलोऊ ! इच्छं पहले प्राणातिपात० ज्ञानदर्शन चारित्र पाटीपोथी०' बोलके 'सव्वस्स वि राइय०' कहके श्रावक सूत्र आदेश लेके बैठके ३ नवकार ३ करेमि भंते !०,(साधुको चत्तारि मंगलं०)इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे राइओ.
(साधुको इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए० इच्छामि पडिक्कमिडं पगामसिज्जाए०) वंदित्तु० बोले दो वांदणे अभ्भुठिया दो वांदणे आय5 रिय उवज्झाए करेमि भंते ! इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे राइओ० तस्स उत्तरि० अन्नत्थ० छमासी तपचितवन वा छ लोगस्स का उस्सग्ग
प्रगट लोगस्स० मुहपत्ति पडिलेहके दो वांदणे सद्भक्त्या देवलोके० नवकारसी आदि पच्चख्खाण करके परसमयतिमिरतरणिं० नमुत्थुणं. अरिहंतचेइयाणं चार थुइए देववंदन नमुत्थुणं० खमासमणे ३से आचार्यमिश्र आदि वंदन श्रीसीमंधर तथा श्रीसिद्धाचल चैत्यवंदनादि करे।
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विधिपत्र
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२१
नवपद
स्तुति
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कि धपमप धुधुमि घोंघों धसकि धरधप धोरवं, दोंदोंकि दोंदों दागिदि दागिदिकि दमक द्रण रण द्रेणवं । झझि झेंकि झेंझें झणण रण रण निजकि निजजन रंजनं, सुरशैलशिखरे भवतु सुखदं पार्श्वजिनपतिमज्जनं ॥ २ ॥ कटरेंगिनि योगिनि किटति गिगड़दां धुधुक घुटन पाटवं, गुणगुणण गुणगण रणकि र्णेणें गुणण गुणगण गौरवं । झझि झेंकि झैंझें झणण रणरण निजकि निजजन सज्जनाः, कलयंति कमला कलित कलमल मुकल मीशमहे जिना : २ ठकि चूँकि ठे ठर्हि ठर्हकि ठर्हि पट्टा ताड्यते, तललोंकि लोलों खि खिनि डोंखे डेंखिनि वाद्यते । तँ तँकि तँतँ थुगि थुंगिनि धोंगि धोंगिनि कलरवे, जिनमतमनंतं महिम तनुतां नमति सुरनरमुत्सवे ॥३॥ खुंदांकि खुदां खुखुदि खुदां खुखुदि दोंदों अंबरे, चाचपट चचपट रणकि णेंणें डणण डेंडें डंबरे । तिहां सरगमपधुनि निधप मगरस सस सस सुरसेवता, जिननाट्यरंगे 'कुशल' मनिशं दिशतु शासनदेवता ॥४॥
निरुपम सुख दायक जगनायक लायक शिवगति गामी जी, करुणा सागर निजगुण आगर
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# शुभ समता रस धामीजी। श्री सिद्धचक्र शिरोमणि जिनवर ध्यावे जे मनरंगे जी, ते मानव श्री
पालतणी परे पामे सुख सुर संगेजी॥१॥ अरिहंत सिद्ध आचारज पाठक साधु महागुणवंता जी, दरिसण नाण चरण तप उत्तम नवपद जग जयवंता जी। एहनुं ध्यान धरंतां लहिये अविचल पद अविनाशी जी, ते सघला जिननायक नमिए जिणे ए नीति प्रकाशी जी॥२॥ आसो मास मनोहर तिमवलि चैत्रक मास जगीसे जी, उजवाली सातमथी करिये नव आंबिल नव दिवसे जी। तेरे सहस वलि गुणिये गुणणो नवपद केरों सारो जी, इणिपरे निर्मल तप आदरिये आगम साख
उदारोजी ॥३॥ विमल कमल दल लोयण सुंदर श्रीचक्केसरि देवी जी, नवपद सेवक भविजन # केरा विघ्नहरो सुर सेवी जी।श्रीखरतरगच्छ नायक सदगुरु श्रीजिनभक्ति मुणिंदा जी.तासु पसाये २२ । इणिपरे पभणे श्रीजिनलाभसूरिंदा जी ॥४॥ पजुस वलि वलि हूं ध्यावं गाऊं जिनवर वीर,जिन पर्व पजुसण दाख्या धर्मनी सीर। आषाढ चोमासे
हंति दिन पचास, संवच्छरी पडिक्कमणुं करिये त्रण उपवास ॥१॥ चउवासे जिनवर पूजा सतर
॥२४॥
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| प्रकार करिये भले भावे भरिये पुन्यभंडार । वलि चैत्यप्रवाडे फिरतां लाभ अनंत, इम पर्व पजुसग सहुमें महिमावंत ॥२॥ पुस्तक पूजावी नव वाचनाये वंचाय,श्रीकल्पसूत्र जिहां सुणतां पाप पुलाय। प्रतिदिन परभावना धूप अगर उखेव, इम भवियण प्राणि पर्व पजुसण सेव ॥३॥ वलि साहमिवच्छल करिये वारंवार, केइ भावना भावे केइ तपसि शीलधार । अदीह पजुसण
इम सेवत आणंद, सुपदेवी सांनिध कहे 'जिनलाभसूरींद ॥ ४ ॥ श्रीवीर कल्याण गर्भहि वीर हरण ते धारण,त्रिशला कूखे अवतरीया (संक्रमिया) जी। कल्याण श्रेय गर्भा-5
फल कल्याण सुपने, वे माता इंद्रादि सह मान्या जी ॥ नीव उच्च वे गोत्रे अच्छे कल्याण जे. ते किम कहूं अकल्याण जी। कल्याण जे उच्च गोत्रे ते नीच विपाक निंब, कही किम थापुं अकल्याण जी। ॥१॥ सर्व जिन माता कूखे जब आव्या, 'के मन्ने कल्लाणे फल मान्या जी। कल्याण ते श्रेय सुख समृद्धि पुत्र लाभ, सुपने पाठके दिखलाया जी ॥ राणी राजा इंद्रे सर्वे तिम मान्या, श्रुतकेवली भद्रबाहुए जी । कल्पसूत्र पंचाशके जिन गर्भ धारण, कल्याण
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वहार स्तुति
॥२५॥
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श्रेय बताये जी ॥२॥ श्रीजिन पडिमा पूजा भाँखी, ऋतुवंती नहीं पूजे नार जी। धन हाणी काया रोग इह भवे होवे, शासन मलिनता कार जी। जिन अंग पूजती ऋतुवंती थाय जे, करे देव प्रभाव निसार जी। ते स्त्री न पूजे देवाधिष्ठ मूल बिंब, जे शासन नन्नति कार जी ॥३॥ वीर शासन सिद्धायिका देवी, सुर गण करे सदा सार जी। वीर कल्याण श्रेय गुण गण गातां, श्रेय फल कल्याण अपार जी॥ नीच निंद्य अकल्याणक भूत मानी, किम बांधूं कर्मनो भार जी। जिन आशातना अवगुण बोले. श्रीजिनचंद्रशासन दर जी ॥४॥
सर्वलोकमें, अरिहंत चैत्यों (किंवों)की, करताहूं, काउस्सग, वंदनाके निमित्त, पूजनके निमित्त, सत्कारके निमित्त, सव्वलोए.अरिहंत चेइयाणं, करेमिकाउसग्गं१. वंदणवत्तियाए.पअणवत्तियाए सकारवत्तियाए सन्मानके निमित्त, बोधिसमकितलाभकेनिमित्त, निरुपसर्ग(मोक्ष)के निमित्त। श्रद्धासे, मेधा(बुद्धि)मे, धृति(धीरजता) से, धारणासे, सम्माणवत्तियाए,बोहिलाभवत्तियाए, निरुवसग्गवत्तियाए। सडाए, मेहाए, धिईप धारणाए. अनुप्रेक्षातत्त्वविचारणासे, वधतीहुइ, ठाताहूं, काउस्सग्गकुं। 5 अणुप्पेहाए, “वढमाणीए, ठामि, काउस्सग्गं ॥३॥ अन्नत्थ०
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अरिहंत चेइयाणं
॥॥२६॥
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पुखर
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पुष्कर वर, द्वीप आधे (रहे)। धातकी खंडमें, तथा, जंबूदीपमें, और। भरत, ऐवत, महाविदेहमें । धर्मकी आदिकरनेवालोंकुं.
पुख्खरवर, दीवावे। धायइसंडे, अ,'जंबूदीवे, अ। भरहे,रवय, विदहे। धम्माइगरे, 5. नमस्कार करताहूं । अज्ञानरूप,अंधकारके,समुदायका, नाश करनेवाले,देवसमूह(तथा),नरेंद्रोंसे, पृजित । मर्यादा,धरनेवालेकुं,वांदता हूं। निमंसामि ॥२॥ 'तम, तिमिर, पडल, विडं-सणस्स. सुरगण, नरिंद,महियस्स ॥सीमा,धरस्स, वंदे।
फोडदी है, मोहकी, जालजिसने(ऐसे)। जन्म, जरा, मरण, शोकका, अत्यंतनाशकरनेवाले। कल्याणकारी,पुष्कल(बहुन), विशाल(मोक्ष) पप्फोडिअ.मोह, जालस्स॥२॥'जाइजरामरण,सोग पणासणस्स। कल्लाण, पुख्खल, विसाल, मुखके देनेवाले। कौन. देव, दानव, नरेंद्रोंके.समुदायसे, अर्चित ऐसे । श्रुत धर्मके, सारकुं प्राप्तकरके, करेगा?, प्रमादकुं। सुहावहस्स॥को. देवदाणव नरिंद, गण, च्चिअस्स। धम्मस्स,सारमुवलाभ, "करे?. “पमायं ॥३॥ नयप्रमाणसेसिद्ध हे भव्यो . प्रयत्नसे नमस्कारहो जिससे.जिनमतकुं वृद्धि होतीहै, सदा, संजममें। वैमानिकदेव,नागकुमार,सुवर्णकुमार,किन्नरोंके 5
'सिद्धे, 'भो!, “पयओ, "णमो, जिणमए. नंदि, सया, संजमे। देवं, नाग, सुवन्न, किन्नर गणसे.सदभूत (शुद्ध), भावपूर्वक, अचित ! लोक(ज्ञान-तथा) जिसमें, रहाहै (वह), जगत् , यह, तीनलोकके.मनुष्य अमुरादिरूप । श्रुतधर्म. गण, स्सा भूअभाव, च्चिए॥"लोगो, जत्थ,"पइटिओ,"जग, मिणं, तेलुक्क, मच्चासुरं। 'धम्मो.
१ श्रुतज्ञानकुं । २ पृजित । ३ जैन आगमकुं।
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वृद्धि पामो, शाश्वता. विजयसे. (इससे)चारित्रधर्म वृद्धि पामो। श्रुतधर्मका, पवित्र(पूज्य), करताहूं, काउस्सम्ग, वंदनाके "वढउ, 'सासओ, विजयओ, धम्मुत्तरं, वहउ ॥४॥सुअस्स, भगवओ, करेमिकाउस्सग्गं,वंदणका
सिद्धहुए, वोध पायेहुर । पार पहूंचेहुए, परंपरासेगयेहुए। लोकके अग्रभागकुं, प्राप्तहुए। नमस्कारहो, सदा, सर्व सिद्धीकुं। जो. सिद्धाणं सिद्धाणं. बुडाणं । पारगयाणं परंपरगयाणं ॥लोअडग्ग मुवगयाणं। नमो. सया, सव्वसिहाणं। जो. बुद्धाण देवोंकाभी, देवहै । जिसकुं देवता,हाथजोडके,नमस्कार करतेहैं। उम,देवोंकेदेवसे,पूजितहै। शिरसे,बांदताहूं.महावीर प्रभुकुं। (किया)एकभी, जदेवाणवि,देवो । जं, देवा, पंजली, नमंसंति। तं, 'देवदेव महिअं! सिरसा,वंदे, महावीरं ।। इक्कोवि.
नमस्कार । जिनवरों में, वृषभ(प्रधान),वर्द्धमानस्वामीकुं । संसार(रूपी), समुद्रसे, तारदेताहै.पुरुपकुं,अथवा, स्वीकुं। उज्जयंत(गिरनार), जनमुक्कारो। जिणवर,वसहस्स.वहमाणस्स ॥ संसार, सागराओ,तारेइ, नरं, व,नारिवा ॥३॥' उजिंत.
पर्वतके.शिखरपर । दीक्षा,(केवल)ज्ञान, मोक्ष हुएहैं, जिसके । उस, धर्म चक्रवर्ती, अरिष्ट नेमिनाथकुं,नमस्कार करताहूं। चार, सेल,सिहरे । दिख्खा,नाणं,निसीहिया, जस्स ॥ तं,धम्मचक्कवटिं। अरिठ्ठनमि, नमसामि।४। चत्तारि,
आठ, दश, दो, और। स्वांदेहए, जिनवर, चोवीसों। (जो)परमार्थसे,कृतकृत्यहुए। सिद्धहएहै (वे), सिद्धि,मझकं, दो। में अठ्ठ,दस, दो, य। बंदिया, जिणवरा, चउव्वीसं। परमठ्ठ,निठिअठ्ठा । सिद्धा, सिडिं, मम, दिसंतु। ५।
1 संसारमे । २ इंद्रोसे । ३ अष्टापद तीर्थ उपर ।
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गराणं म
आचाया
वेयावच्च करनेवाले, शांति करनेवाले, सम्यग्दृष्टियोंकु, समाधि करनेवाले (देवोंका), करताहूं, का उस्सग्ग, अन्यत्र। वेयावच्च- 'वेयावच्चगराणं, संतिगराणं, सम्मदिठि, समाहिगराणं, करेमि, काउस्सग्गं, अन्नत्थ० ।
आवार्य मिश्रकुं, उपाध्यायमिश्रकू, . वर्तमानगुरुकुं, सर्वसाधुओंकु,
आचार्यमिश्रं १,नपाध्यायमिथर,वर्तमानगुरुन्३.सर्वसाधून ४। (खमासमणे ।४।) दि वंदन इच्छा करके, (आप)आज्ञा दो, हेभगवन् !, राइअ, पडिक्कपणा, था?, आज्ञा प्रमाणहै। सबही, रात्रीसंबंधी.
२८ इच्छाकारेण,संदिसह, भगवन् !, राइअ, पडिक्कमणे, ठाऊं ?, इच्छं। सव्वस्सवि, राइअ, पडिक्कC Hदुष्ट चितवन, दुष्ट भाषण, दुष्ट चेष्टासे(लगा), मिथ्याहो, मेरा, दुष्कृत(पाप)। २. | दुन्चिंतिअ.दुभासिअ, दुञ्चिठिअ, "मिच्छा, मि, दुक्कडं। (नमुत्थुणं करेमि भंते!, इच्छामि ठामि
काउस्सग्गं जो मे राइओ०। देवसीमें करोमि भंते!.इच्छामि ठामि काउस्सग्गंजो मे देवसिओ०।
शयन(संथारियादि)में, आसनमें, आहारमें, पाणोमें। चैत्यवंदनमें, साधुभक्तिमें, शय्याम, लघुनीति, वडिनीतिमें, । पांचसमिति, सयणास
सयणा, सण, ऽन्त्र, पाण। चेइअ, जइ, सिज्ज, काय, उच्चार, णगाथा
१ सारसभाल । ॐ देवसीमें 'देवसिव' (दिवस संबंधी) कहना । २ या दशविध यति धममें। ३ उपाशय प्रमार्जन दिने । ४ टल्ले-मातरे जान आने परटने आदिने ।
फफफफफप्तमानतद्रकान्य
"सिज, काय, उच्चारे, ॥ समि
ज॥२९॥
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३१.
२५ बोल
अंगके २५ बोल
5 भावना', तीनगुप्तिके । विपरीत, आचरणेमें(लगे), अतिचार (याद करे)। भावणा, गुत्ती। वितहा, ऽऽयरणे, अईयारो ॥१॥
मूत्र अर्थ साचो सद्दहूं।। सम्यक व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय २ मिश्र मोहनीय ३ परिहरू ५। कामराग १ स्नेहराग २ दृष्टिराग ३ परिहरु २७ सुदेव १ मुगुरु २ मुधर्म ३ आदरुं३ ।१०। कुदेव १ कुगुरु २ कुधर्म३ परिहरु।१३। ज्ञान १ दर्शन २ चारित्र ३ आदरूं।२६। ज्ञान विराधना १ दर्शन विराधना २ चारित्र विराधना ३ परिहरूं ।१२। मनोगुप्ति १ वचनगुप्ति २ कायगुप्ति ३ आदरूं ।२२। मनोदंड १ वचनदंड २ कायदंड ३ परिहरूं ।२५।
हास्य १ रति २ अरति ३ परिहरु, (डाबी भुजामें मुहपत्तीसे पूंजना)। भय १ शोक २ दुगंछा ३ परिहरूं, (जीमणी भुजामें)। कृष्ण लेश्या ? नील लेश्या २ कापोत लेश्या ३ परिहर, (मस्तक-ललाट उपर)। ऋद्धिगारव १ रसगारव २ सातागारव ३ परिहरूं. (मुख उपर)।मायाशल्य ? नियाणाशल्य २ मिच्छादसण शल्य ३ परिहरु, (हृदय-छातो उपर)। क्रोध १ मान २ परिहरू, (डावे खंधे)। माया । लोभ परिहरूं, (जीमणे खंधे)। पृथिवीकाय ? अप्काय २ तेउकाय ३ रक्षाकर्मी, (ओघेसे चरवलेसे जीमणे पग उपर)। वाउकाय १ वनस्पतिकाय २ सकाय ३ रक्षा करूं, (डावे पग उपर पूंजना)।
१ अनित्यादि १२. या पांच महाव्रतोकी २५ भावना । २ ये सात बोल बोलने हुए मुहपत्ती खोलके तीन वेला उलट पलट फिगनी बादमें दोबडी करके मुहपत्तीके तीन सल पाडके जीमणे हाथ में पकडे, और डाबी हथेली उपर फिराते हुए आगे लिखे बोल बोलने । ३ आदरु बाले बोल बोलते हुए मुहपत्ति पंजेकी तरफ लेजानी. और परिहरु वाले बोल बोलते हुए मुहपत्ती अंगुलियोंकी तरफ लेजानी । ४ प्रतिक्रमणकी पुस्तकोंमें 'कृष्ण लेदया' आदि बोल यद्यपि पहले लिग्ने है, परंतु साधुविधि प्रकाश-प्रवचनसारोद्धारकी टीका-मुहपत्ती पडिलेहणकी सज्झाय तथा स्तवनादिमें हास्य' आदि बोल पहले होनेसे हमनेभी इसी तरह लिखेहै । ये 10 बोल साध्वीयोंको तथा श्राविकाओंको नहीं कहने और इन + स्थानोंकी पडिलेह भी नहीं करना ।
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३३
चांदणे
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इच्छताहूं (वास्ते), हेक्षमाश्रमण ! वंदनकरना, शक्तिअनुसार दूसरे काम निषेधके । आज्ञादो, मेरेकुं, मित अवग्रहकी २ "इच्छामि, खमासमणो !, 'वंदिउं, जावणिजाए, निसीहिआए । अणुजाण, मे मिउग्गहं२ । निषेधके३ । अधःकायकुंड, कायासे, संस्पर्शताहूं, खमने के योग्य है. आपकुंद, कमहुआ (बहू) ६, अल्पग्लानीवाले, बहुत शुभ (मुख) से, 'निसीहि, अहो कार्य, काय, संफासं, खमणिज्जो, भे, किलामो, "अप्पकिलंताणं, बहुसुभेण, आपके, रात्रिव्यतिक्रमी (वीती ) | ( संयम ) जात्रा', आपकी । शरीरपीडारहित है ?, और, आपका | खमाता हूँ, हे क्षमाश्रमण !, भे, राइ कता ? ३ | "जत्ता, भे ४ | "जवणिज्जं ?, च, भे ५ । खामेमि, खमासमणो!, रात्रिसंबंधी, व्यतिक्रमकुं", आवश्यक के अतिचारसे, पीछाहटता हूं, (आप) क्षमाश्रमणोंकी, रात्रिसंबंधी, आशातनाकरके (और), तेतीस से राइयं, वइक्कम ६। आवस्सियाए, पडिक्कमामि, खमासमणाणं, राइआए, आसायणाए, तित्तीसकोइभी, जो, कुच्छ, मिथ्याभावसे, मनकीदुष्टतासे, वचनकीदुष्टतासे, कायाकीदुष्टतासे, क्रोधसे, मानसे, मायासे, लोभसे (कीहुइ), ऽन्नयराए. २४जं, किंचि, मिच्छाए, मणदुक्कडाए, वयदुक्कडाए, कायदुक्कडाए, कोहाए, माणाए, मायाए, लोभाए,
२.
१ मेरे शरीरकी । २ साढ़े तीन ( ३॥ ) हाथ प्रमाण जगहकी । ३ दूसरे काम । ४ आपके चरणकुं । ५ मेरे स्पर्शसे जो । ६ खेद हुआ । ७ थोडी थकावटवाले । ८ बाधारहितं । देवसी आदि शेष चार प्रतिक्रमणोंमें 'दिवसो वइकतो' ( दीवस वीता), 'पख्खो वइकंतो' (पक्ष-वीता), 'चोमासी बहकता' (चोमासी बीती), 'संबच्छगे asकतो' (सवत्सर वर्ष बीता) ऐसा अनुक्रमसे कहना १९ अपराधकुं । x देवसी आदि चार प्रतिक्रमणोंमें अनुक्रमसे देवसि परिख्ख-वउमासि संवच्छरि कहना + दूसरी वेलामें यह पद नहीं बोलना ।
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३४
सर्वकालसंबंधी, सर्वमिथ्याउपचार वाली, २सर्वधर्मके अतिक्रमणवाली, आशातनाकरके, जो, मैंने, अतिचार कियाहो, उससे. सव्वकालियाए, सव्वमिच्छोवयाराए, सव्वधम्माइक्कमणाए,आसायणाए,जो, मे, अइयारो,कओ, तस्स, हे क्षमाश्रमण !, पीछाहटताहूं, निंदताहूं, गर्हताहूं, आत्माकुं, वोसिराताहूं। खमासमणो !,पडिक्कमामि,निंदामि,गरिहामि,अप्पाणं, बोसिरामि ॥७॥
इच्छाकरके, आज्ञादीजिये, हे भगवन् !, रात्रिके अतिचार, आलोचूं ?, आज्ञास्वीकार है,आलोचताहूं, जो, मैंने।
इच्छाकारेण,संदिसह, भगवन् !, राइअं, आलोऊं ?, इच्छं, आलोएमि,जो, मे०। आलोऊ
संथारा,एकवेलाफेरनेमे,वारंवारफेरनेसे, भेलेकरनेसे, पसारनेसे,षट्पदिका(जू)को, संघहने(अडने) से, विनादेखी, मातरेकीभूमियाकुंडोईवापरीहो
संथारा,उट्टणकी,परिअट्टणकी,आउट्टणकी,पसारणकी,छप्पइय,संघट्टणकी,अचख्खुविसय. कायिकी। संथारा उट्टणको अविधे संथारो कीधो, संथारा पोरिसी तणो विधि भणवो विसार्यो, संथारा पोरिसी माहिं
ऊंध्या, ऊंघ आवी कुसुपनां लाधां, कुविकल्प चिंतव्या, मातरं अविधे परठव्युं, उत्तरपट्टा ढलता रह्या, काबली तणा छेडा साचव्या नहीं.अष्टप्रवचन माता रुडिपरे पाली नहीं, जे कोइ ।
१ कूड-कपट । २ अष्टप्रवचन माताप । ३ उसी अतिचारकु आत्मसाखे। ४ गुरुसाखे विशेष निंदताई। ५ उसी अतिचारसे । देवसी आदि चारोंमें अनुक्रममे E 'देवसिअं-परिख-चोमासिअ-संवच्छरिअं' ऐसे कहना। ६ विना पूंजे, पसवाडा। ७ हाथ पग आदि अंगोपांग ।
राइ
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॥३२॥
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ठाणे
कमणे
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खंडन विराधना हुइ होय, ते सवि हु मन वचन कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
बैठने में चलने में घूमने में, उपयोगसे, (या) विनाउपयोगसे, हरितकायको र, संघट्टा (अडा) हो, बीजकायको, संघट्टा हो, ठाणे, कमणे, चंकमणे, आउत्ते, अणाउते, हरियक्काय, संघट्टे, बीयक्काय, संघट्टे, सकायको५, संघट्टाहो, यावर काय को, संघट्टाहो, पट्पदिकको, संघट्टाहो, (इनकुं) स्थान से, स्थानमें, संक्रामे ( रखे ) हो । सकाय, संघट्टे, थावरकाय संघट्टे छप्पइय, संघट्टे, ठाणाओ, ठाणं, संकामिया । देहरे उपासरे ठल्ले मातरे जातां आवतां नीलफूल खुंदी होय, हरियक्काय तणा संघट्टा हुआ होय, जिनभवन तणी चोरासी आशातना - गुरु प्रत्ये तेत्रीस आशातना कीधी, पर पाखंडी परिचय की, उत्सूत्र परूपणा कीधी, ओघा मुहपत्ती चोलपट्टा संघट्टीया, पुरुष स्त्री तिर्यंच तणा संघट्टा परंपर निरंतर हुआ, उघाडे मुखे बोल्या, ऊंघ आवी, विकथा कीधी, गौचरीतणा दूषण साचव्या नहीं, आर्त रौद्रध्यानध्याया, धर्मध्यान शुक्लध्यान ध्याया नहीं, कुविकल्प चिंतव्या, 'अणुजाणह जस्स गो' को नहीं, परठव्या पूठे वार त्रण वोसिरे वोसिरे को नहीं, देहरा उपासरा मांहिं
या खड़े रहने में । २ इधर उधर । ३ लीलोतरी । ४ धान्यादि । ५ बेइंद्रियादि । ६ पृथ्वी-पाणी आदि । ७छ पगवाले जू भमरे आदि । ८ एक जगहसे दूसरी जगहमें ।
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सात
लाख
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पेसतां निसीहिं नीसरतां आवस्सई कहेवी विसारी, पुढवी अप तेउ वाउ वनस्पति त्रसकाय तणा संघट्टा हुआ. अष्ट प्रवचनमाता रूडिरीते पाली नहीं, जे कोइ खंडन विराधना हुइ होय ते सवि हु मन वचन कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥
आजके चार प्रहर दिवसमें 'जे मे जीव विराध्या होय - सात लाख पृथिवीकाय, सात लाख 'अप्पकाय,सात लाख तेन काय सात लाख 'वाउकाय, दश लाख प्रत्येक वनस्पति काय, चउदे लाख साधारण वनस्पति काय, दोय लाख बेइंद्रिय, दोय लाख तेइंदिय दोय लाख चोरिंद्रिय, चार लाख देवता, चार लाख नारकी, चार लाख तिर्यंच पंचेंद्रिय, चउदे लाख मनुष्य, एवं चार गतिके चोराशी लाख जीवायोनिमें महारे जीवे जे कोइ जीव हण्यो होय,
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१ सर्वेर 'रात्रिमें' बोलना । २ पाणिरूप कायावाले जीव । ३ अग्नि! ४ पवन०। ५ थड मूल पत्ते आदिमें जुटे जुदे जीववाले वृक्षादि। ६ अंगुलके असंख्यातमें 卐 भाग प्रमाण एकही छोटे शरीरमें अनंते जीव रहे वैसे कंदमूलादि। ७ योनि नाम जीवोंके उपजनेका स्थान, वे ८४ लाख स्थान यो तो गिनतीसे बहुत ज्यादाहै. परंतु
वर्ण (रूप), रस, गंध, स्पर्शसे समानतावाले अनेकों को भी एक मानके ८४ लाख जीवा जोनि कहींहै,जसे ७ लाख पृथिवीवायके लाख दीठ ५०) तो मूलभेद ३५०) ७ 卐 लाखके होतेहै, उनको पांच वर्णसे गुणने पर १७५०) होतेहै. उनको दो गंधसे गुणने पर ३५००) हए, उनको पांच रसोंके साथ गुणनेसे १७५००) हुए, उनको आठ जफरसके साथ गुणनेसे १४००००) हुए, इनको पांच संठाणसे गुणने पर सात लाख भेद पृथिवीकायके होतेहै, इसीतरह लाख दीठ ५० लेनेसे सबकी गिनती समझ लेना।
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अढारे पापस्था
नक
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हणाव्यो होय,हणतां प्रत्ये अनुमोद्यो होय,ते सव्वे हु मने वचने कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
अढारे पापस्थानक आलोऊं,- पहेले प्राणातिपात', बीजे मृपावाद, तीजे अदत्तादान'. चोथे मैथुन', पांचमे परिग्रह', छठे क्रोध, सातमे मान, आठमे माया', नवमे लोभ', दशमे राग", इग्यारमे द्वेष'', बारमे कलह, तेरमे अायाख्यान'३, चउदमे पेशून्य'', पंदरमे रति, अरति", सोलमे पर परिवाद६. सत्तरमे माया मृपावाद", अढारमे मिथ्यात्वशल्य'. ए अढारे पर पापस्थानक माहे माहरे जीवे जे कोइ पाप सेव्यु होय, सेवराव्युं होय, सेवतां प्रत्ये अनुमोदाई
मफफफफफफफफफफ555फफफफफफफफ
१ अन्य जीवोंके प्राणोंका नाश (हिंसा)। २ झूट बोलना । ३ कीसीकी कोइभी चीज मालिकके विना दिये लेना। ४ वी आदिसे विषय सेवन । , वंदित्तुकी १८मी' गाथामें बताया हुआ धनादि नव प्रकार का वाह्य. और मिथ्यात्व 1 स्त्रीवेद आदि ३. हास्य आदि इ. क्रोध आदि ४. ये चउंदै प्रकारका अभ्यंतर परिग्रह. नाम वस्तुको सवतरह ग्रहण करना । ६ दुसरेके उपर आकरे स्वभावसे मुख दि अवयवोंको तपाना (चिडजाना)। ७ मिली न मिली वस्तुका अहंकार । ८ गुप्तपणे अपना मतलब
साधनेकी इच्छा । ९ धनादि संपत्ति भेली करके संग्रह कर रखनेकी इच्छा । १० पौद्गलिक (जड) वस्तुमें प्रीति । 11 खुदको अनिष्ट पदार्थों में अप्रीति । १२ दूसरेसे स लडाइ -- ढंटा करना। १३ बिना देखा विना सुणा उँटा कलंक दुसरे उपर देना । १४ चगली खाना-परके दोष दूसरेको कहना । १५सख दःखमें राजीनाराजीका होना।
१६ गुणी या निगुणी जीवकी निंदा करनी । १७ दूसरेको ठगनेके लिये कपटसे झूट बोलना । १८ द्रव्यसे कुदेव कुगुरु कुधर्म माननेकी इच्छा और निश्चयसे आत्मस्वरूके अनुभवको विन्नकर्ता आम परिणामरूप जो मिव्यात्व यो ही शल्य (दुःस)।
॥३५॥
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दर्शन
होय, ते सव्वे हु मने वचने कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं। ज्ञान ज्ञान दर्शन चारित्र,पाटी पोथी, ठवणी कवली,नवकरवाली,देवगुरु धर्मकी आशातना करी
होय.पन्नरे कर्मादानोंकी आसेवना करी होय,राजकथा, देशकथा. स्त्रीकथा, भक्तकथा करी होय, है और जो कोइ पाप पर निंदादि कीg होय. कराव्यु होय, करतां अनुमोद्यं होय,ते सव्वे हमने वचने कायाए करी दिवस' आलोयण करके पडिक्कमणामें आलोऊं तस्स मिच्छामि दुकडं।
सब, भी, रात्रिसंबंधी, दुष्टचितवनसे, दुष्टभाषणसे, दुष्टचेष्टासे २, इच्छाकरके, आज्ञादो, हेभगवन् !, आज्ञा प्रमाणहै, सव्वस्स में सव्वस्स, वि, राइअ, दुचिंतिअ,दुषभासिअ,दुञ्चिठिअ, इच्छाकारेण,संदिसह, भगवन् !, "इच्छं,
उससंबंधी, मिथ्याहो, मेरा, दुष्कृत ।
तस्स, 'मिच्छा, "मि, दुक्कडं ॥ (३ नवकार, ३ करेमि भंते!) 卐 १ सवेरके पडिकमणेमें 'गई' बोलना । २ लगे पापोंसे पीछाः । * देवसी आदि शेष चार पडिकमणोंमें अनुक्रमसे देवसिअ-पख्खिअ-चउमासिअ-संवच्छरिअ' कहना । 卐 x इतनेतक कहे वाद राइ तथा देवसीमें 'पडिकमद' पख्खीमें 'चउत्येण पडिकमह' चोमासीमे 'छद्रेण पडिकमह' और संवच्छरीमें 'अपमेण पडिकमह' ऐसा गुरु कहदेवे
बाद शिष्य 'इच्छ' आदि कहे।
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४०
ज॥३६॥
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नमस्कार हो, अरिहंतोंकुं०। करताहूं,हेभगवन् !, सामायिककुं,सबतरहके,पापसहित, योगकुं, त्यागताहूं,जहांतकनी (वहांतक),त्रिविधकुं, करेमि नमो,अरिहंताणं करेमि, भंते!, सामाइयं, सव्वं,सावज्जं, जोगं,पच्चरुखामि,जावज्जीवाए, तिविहं,
के तीनप्रकारसे, मनकरके,वचनकरके, कायाकरके, नहीं, करूं, नहीं, कराऊं, करनेकुं, भी, दुसरेकुं, नहीं, अनुमोदूं(भलासमझू ),
तिविहेणं,मणेणं, वायाए, काएणं, 'न,करेमि, न, कारवेमि, 'करंतं, पि, अन्नं, न, समणुजाणामि, ४१ उससे', हेभगवन् !,(मैं) पोछाहटताहूं, निंदताहूं, गर्हताएं (गुरुसाखे),आत्माकुं, वोसिरा(हटा)ताहूं। अर्थ संथारापोरिसिमें देखो चत्तारितस्स, भंते!, १२पडिक्कमामि,निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं, वोसिरामि। चत्तारि मंगलं अरिहंता
# मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवली पन्नत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साह लोगुत्तमा केवली पन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो।चत्तारि सरणं पवजामि अरिहंते की सरणं पवज्जामि सिद्धे सरणं पवज्जामि साहू सरणं पवज्जामि केवली पन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि
इच्छताहूं, पीछाहटना, जो, मैंने, रात्रिसंबंधी, अतिचार,कियाहो(तथा),कायासंबंधी, वचनसंबंधी, मनसंबंधो, मूत्रविरुद्ध.. 'इच्छामि,पडिक्कमिनं, जो मे, राइओ",अइआरो, कओ, काइओ, वाइओ,माणसिओ, नस्सुत्तो, ५ करने कराने अनुमोदने रूप पापकुं । २ पहलेके पापसे । ३ आत्मसाखे । ४ उस पापसे । *देवसी आदि में 'देवसिओ-पख्खिओ-चउमासिओ-संवच्छरिओ' ऐसे बोलना
मंगलं
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इच्छामि
वडि
॥३७॥
जाम०
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(विरुद्ध),अकल्प्य,अकरणीय, (नकरनेयोग्य)दुष्टध्यायाहो,दुष्टचिंतवाहो, नहीं आचरने योग्य,नहीं इच्छने योग्य, नहीं साधुके(प्रा)योग्य, नम्मग्गो, अकप्पो,अकरणिज्जो, दुज्झाओ,दुविचिंतिओ,अणायारो,अणिच्छियव्वो, असमण पानग्गो, ज्ञानमें, तथा, दर्शनमें, चारित्रमें श्रुतधर्म में, सामायिकमें, तीन, गुप्तिसंबंधी, चार, कषायों संबंधी, पांच, महाव्रत संबंधी, छ, नाणे,तह,दंसणे, चरित्ते, सुए, सामाइए, "तिन्हं, गुत्तीणं, चउन्हं, कसायाणं,पंचन्हं,महव्वयाणं,छन्हं, जीव निकायसंबंधी,सातप्रकारकी पिंडैषणासंबंधी, आठ,प्रवचन माता संबंधी, नव, ब्रह्मचर्यकी,गुप्ति(वाड)संबंधी,दशविध, साधु, धर्ममें, जीवनिकायाणं,सत्तन्हं,पिंडेसणाणं, अठ्ठन्हं,पवयणमाऊणं,नवन्हं,बंभचेर गुत्तीणं,दसविहे,समण, धम्मे, श्रमणोंके,योगों(आचारों)का,जो,खंडा(भांगा)हो,जो, विराधाहो,उससंबंधी,मिथ्याहो,मेरा, दुष्कृत ।। समणाणं,जोगाणं. जं, खंडियं, जं, विराहियं,तस्स, मिच्छा, मि,दुक्कडं । इच्छामि पडिक्कमिउं इरिया में
इच्छताहूं, पीछाहटना, अत्यंत(रात्रिभर),मुणेसे। (हमेशां)अत्यंत, मुणेसे, संथारेमें,(पसवाडाविना पूंजे) फिरानेसे,वारंवार फिरानेसे, पगाम
इच्छामि,पडिक्कमिनं.पगाम, सिजाए।निगाम, सिज्जाए,संथारा, नव्वट्टणाए, परियट्टणाए, सिजाए
- हाथपगादिभेलेकरनेसे,पसारनेसे, षट्पदीको,संघटनेसे, खांसनेसे,शय्याके दोषकहनेसे, छींकनेसे,बगासीलेनेसे, स्पर्शनेसे,रजवाली वस्तुस्पर्शनेसे,
आनंटणाए.पसारणाए,छप्पइय,संघट्टणाए,कूइए, ककराइए, छीए, जंभाइए,आमोसे,ससरख्खामोसे, 卐१ आचार विरुद्ध । २ आहारादिकी तलाशी । ३ खुले मुखसे । ४ विनापूंजे किसी वस्तुको ।
जफफफफफफफफफफ
॥३८॥
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आकुलव्याकुलतासे,स्वप्ननिमित्तवाली विराधनासे.स्त्रीविपर्यास(स्वममें कुशोलसेवनादि)से,दृष्टिविपर्यास(स्त्रोमेरागनजर)से, मनकेविपर्यासआनलमानलाए. सोअण वत्तिआए, इत्थी विप्परिआसिआए दिठ्ठी विपरिआसिआए मणविप्परि(मनोविकार)से,पाणी भोजनके,विपर्यास(रात्रिमें खानेपीनेकी इच्छा)से,जो,मैंने रात्रिसंबंधी,अतिचार,कियाहो,उसका मिथ्याहो,मेरे, दुष्कृत(पाप) ।
आसिआए.पाणभोअण, विप्परिआसिआए, जो,मे,*राइओ,अइआरोकओ,तस्स,मिच्छा,मि.दुक्कडं पीछाहटताहूं, गौके चरणेकी रीतिवाली,भिक्षाचर्या में(लगेदोषोंसे),थोडेउघडे,कमाड, उघाडनेसे, श्वान(कुत्ते),वाछरडे,स्त्री बच्चेकुं, संघटनेसे, पडिकमामिगोअरचरिआए.भिख्खायरिआए नग्घाड,कवाड,नग्घाडणाए.साणा वच्छा,दारा,संघट्टणाए.
मंडिपाभूतिकासे२, बलिपाभृतिकासे३, स्थापना प्राभृतिकासे, शंकावालीसे,उतावलकरके', (दोपोंकी)विनातलाशीस,प्राणीवाले भोजनसे, मंडी पाहुडिआए,बलिपाहुडिआए.ठवणा पाहुडिआए.संकिए, सहसागारे, अणेसणाए. पाणभोअणाए. बीजवाले भोजनसे, लीलोतरीवालेभोजनसे, पश्चात्कर्मसे, पुरः(पूर्व)कर्मसे,नहीं देखो चीज लाइलेनेसे,पाणीके संबंधवालीलानेसे, बीअ भोअणाए, हरिअभोअणाए, पच्छाकम्मियाए,पुरेकम्मियाए, अदिठ्ठ हटाए, दग संसठ्ठ हडाए,
ज॥३९॥
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१ खी भोगादि वीवाहादि युद्धादि जंजालसे । २ उपरका अन्न हटाके या अन्य वर्तनमें निकालके देवे । ३ दिशाओमें या अग्निमें बलि (जेति आहुति) नांखके देवे । ४ साधुके निमित्त स्थापन करके रखी लेनेसे 1 x आधाकर्मादि दोषकी । ५ अशुद्ध भिक्षालेनेसे । ६ वहोगए पीछे या पहले कच्चे पाणीसे हाथ धोना आदि । * देखो पृष्ट ३७ में।
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रजके स्पर्शवाली लानेसे, ढोलते दी हुइ लेनेसे, परठके दिया लेनेसे, उत्तम वस्तु मांगनेरूप भिक्षासे,जो, उद्गमसे, उत्पादना एपणासे,
रयसंसठ्ठहडाए पारिसाडणियाए, पारिठ्ठावणियाए, ओहासण भिख्खाए,जं,नग्गमेणं,नप्पायणेसणाए, में पूराशुद्धनहींहै',ग्रहणकियाहो, खायाहो, अथवा,जो,नहीं, परठाहो, उससंबंधी,मिथ्याहो,मेरे, दुष्कृत। पीछाहटताहूं, चारकालमें,
अपरिसुद्ध,पडिग्गहियं,परिभुत्तं, वा, जं, न,परिठवियं तस्स, मिच्छा.मि,दुक्कडंश पडिकमामि,चानक्कालं. में सज्झाय(मूत्रपाठ)के, नहींकरनेसे, उभय(दोन) काल, (वस्त्रादि)भांडोपकरणको, नहींपडिलेहणेसे, खरावपडिलेहणेसे, नहींप्रमार्जनेसे', सज्झायस्स अकरणयाए उभओ.कालं,मंडोवगरणस्स,अप्पडिलेहणाए,दुप्पडिलेहणाए.अप्पमजणाए. खरावप्रमार्जनेसे, अतिक्रममें ,व्यतिक्रममें ,अतिचारमें,अनाचारमें,जो,मैंने रात्रिसंबंधी, अतिचार,कियाहो, उसका,मिथ्याहो, मेरे, दुष्कृत । दुप्पमजणाए, अइक्कमे,वइक्कमे,अइयारे,अणायारे,जो,मे, राइओ, अइयारो,कओ.तस्स,मिच्छामि,दुक्कडं
पीछाहटताहूं, एकप्रकारके, असंजमसे। पीछाहटताहूं, दो, बंधनोंसे-रागके, बंधनसे, द्वेषके, बंधनस।
पडिक्कमामि, एगविहे.असंजमे ॥ पडिकमामि,दोहिं,बंधणेहिं - राग,बंधणेणं,दोस,बंधणेणं २॥ ज१ वहरानेके भाजनमें रही चीजउतावलसे नाखके उसी भाजनसे । २ वैसा आहागदि। ३ परठने योग्यको। ४ नजरसे न देखनेसे । ५ ओघेसे न पूंजनेसे । ६ आधाकर्मादि
दोष दूषित आहारके निमंत्रणको स्वीकारना. 'अतिक्रम.'। ७ दूषित आहार लेनेको जाना. 'व्यतिक्रम'। ८ उसीको ले लेना 'अतिचार' । ९ वह दूषित आहार लाकर - खालेना. 'अनाचार' है। * देखो पृष्ट ३७मे । x आधाकर्मादि सोले उद्गमके. उद्देशिकादि सोले उत्पादनाके तथा शकितादि दश एषणाके दोषोंसे ।
॥४०॥
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+ पीछाहटताहूं, तीन, दंडोंसे मन दंडसे, वचन दंडसे, काय दंडसे। पीछाहटताहूं, तीन गुप्तियोंके(दोष)से, मनगुप्तिसे,वचनगुप्तिसे.
पडिक्कमामि,तिहिं.दंडेहि-मणदंडेणं,वयदंडेणं,कायदंडेणं। पडिकमामि,तिहिंगुत्तीहिं-मणगुत्तीए.वयगुत्तीए. # काय गुप्तिसे । पीछा हटताहूं, तीन, शल्योंसे-कपट शल्यसे, नियाणा' शल्यसे, मिथ्या दर्शन शल्यसे। पीछा हटताहूं, कायगुत्तीए। पडिक्कमामि,तिहिं,सल्लेहिं मायासल्लेणं,नियाणसल्लेणं, मिच्छादसणसल्लेणं । पडिक्कमामि, नि.गारवों(अभिमानों से ऋद्धिके गर्वसे, रसके गर्वसे, साताके गर्वसे। पीछाहटताहूं, तीन, विराधनाओंसे-ज्ञानकी विराधनासे, तिहिं,गारवेहिं - इट्ठीगारवणं,रसगारवेणं.सायागारवेणं। पडिक्कमामि.तिहिं,विराहणाहिं - नाणविराहणाए. ॐ दर्शनकी विराधनासे, चारित्रकी विराधनासे। पीछाहटताहूं, चार, कषायोंसे-क्रोध कषायसे, मान कषायसे, माया
सण विराहणाए.चरित्तविराहणाए । पडिक्कमामि,चनहिं,कसाएहिं कोहकसाएणं,माणकसाएणं,माया
कषायसे, लोभ कषायसे। पीछाहटताहूं, चार, संज्ञा(वांछा)ओंसे-आहार संज्ञासे, भय संज्ञासे, मैथुन(दुराचार)संज्ञासे, परिग्रह ॐ कसाणं.लोभकसाएणं। पडिक्कमामि.चनहि,सन्नाहि-आहारसन्नाए,भयसन्नाए मेहुणसन्नाए, परिग्गह
संज्ञास। पीछाहटनाहूं. चार. विकथाओंसे-स्त्रीयोंकी कथासे,भोजनकी कथासे,देशकीकथासे,राजकीकथासे । पीछाहटताहूं, चार, सन्नाए। पडिकमामि,चनहि,विकहाहि-इत्थीकहाए,भत्तकहाए,देसकहाए,रायकहाए।पडिक्कमामि.चनहिं
१ तपस्यादिके प्रभाव से भवांतरमें देव मनुष्यादि ऋद्धिकी अभिलाषा रूप ।
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ध्यानों(के दोष)से-आत ध्यानसे, रौद्र ध्यानसे, धर्म ध्यानसे, ३शुक्ल ध्यानसे। पीछाहटताहूं, पांच, क्रियाओंसे
झाणेहि-अटेणं झाणेणं, रुदेणं झाणेणं,धम्मणं झाणेणं,सुक्केणं झाणेणं । पडिक्कमामि पंचहिं, किरियाहिंकायिकीसे ,अधिकरणिकी(शस्त्रादि)से.प्रादेषीकी से, पारितापनीकी से, प्राणातिपात(हिंसा)कीक्रियास। पीछाहटताहूं. पांच, कामकाइयाए, अहिगरणियाए.पानसियाए, पारितावणियाए,पाणाइवायकिरियाए।पडिक्कमामि.पंचहि काम5 गुणोंसे-शब्दसे, रूपसे. ससे, गंधसे, स्पर्शसे। पीछाहटताहूं. पांच. महादतों(के दोष से-प्राणातिपात(हिंसा)से, विरमना, गुणेहिं-सद्देणं,रूवेणं, रसेणं, गंधेणं,फासेणं । पडिक्कमामि, पंचहिं, महव्वएहि-पाणाइवायाओ, वेरमणं. मृपावाद(झूट)से, विरमना, अदत्तादान(चोरी)से, विरमना,मैथुन(कुशील)से,विरमना, (धनादि नवविध)परिग्रहसे,विरमना। पीछाहटताहूं, मुसावायाओ,वेरमणं,अदिन्नादाणाओ, वेरमणं, मेहुणाओ, वेरमणं, परिग्गहाओ, वेरमणं । पडिकमामि.
पांच, समितिओं(के दोष)से-ईर्या समितिसे, भाषा समितिसे, एषणा ‘समितिसे, लेने(तथा),भांडमात्र के, रखनेकी, समितिसे, पंचहि,समिईहिं-ईरिया समिइए,भासासमिइए.एसणासमिइए आयाण, भंडमत्त, निख्खेवणा,समिइए,
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1 दुःख चिंता। २ जीव मारणादिके । ३ ये दो ध्यान नहीं थ्यानेसे। ४ काया संबंधी। ५ दृसरों पर द्वेषसे । ६ स्वपरको ताप (दुःख) दनसे। ७ निवतना । ८ चलनमें उपयोग रखना. वह न रखनेसे । ९ गौचरि आदिके दोषोंकी तलाशी। 10 सब उपकरणों ।
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- ठल्ला, मातरा, चूंक(खंखारा), 'मैल,नाकमल(सेडा), परठणेकी, समितिकेदोपसे। पीछा हटताई, छ,जीवनिकायों(कीविराधना से
नच्चार,पासवण, खेल, जल्ल.सिंघाण,पारिठ्ठावणिया,समिइए । पडिकमामि,छहिं, जीवनिकाएहिंहै पृथीवीकायसे, अपकायसे, . अग्नीकायसे, वायुकायसे, वनस्पतिकायसे, त्रसकायसे। पीछाहटताहूं, छ,लेश्याओं २ से
पुढविकाएणं,आनकाएणं,तेनकाएणं,वानकाएणं,वणस्सइकाएणंतसकाएणं। पडिक्कमामि,छहिं,लेसाहिं में कृष्ण लेश्यासे, नील लेश्यासे, कापोत लेश्यासे, तेजो लेश्यासे, पद्म लेश्यासे, शुक्ल लेश्यास। पीछाहटताहूं, सातों, भयकेकिन्ह लेसाए,नील लेसाए,कान लेसाए,तेनलेसाए,पम्ह लेसाए,सुक्कलेसाए । पडिकमामि,सत्तहिं भय
स्थानोंसे। आठ, मदकेस्थानोंसे। नव, ब्रह्मचर्यकी,गुप्ति(वाडों)से ।(क्षमादि)दशविध, श्रमणधर्म में। इग्यारे, प्रायककी,प्रतिमाओंसे। ठाणेहिं । अहिं,मयठाणेहि। नवहि,बंभचेर,गुत्तीहिं। दसविहे,समणधम्मे। इगारसहिं,उवासग,पडिमाहिं।
वारे, साधुकी, प्रतिमाओंसे । (अर्थक्रियादि)तेरे,क्रियाके स्थानोंसे । चउदे,जीव समुदायों(कीहिंसा)से । पनरे,परमाधामिओं(कीप्रशंसा से। बारसहिं,भिख्खु,पडिमाहिं। तेरसहिं,किरिया ठाणेहिं। चनहसहिं,भूयगामेहि। पन्नरसहिं,परमाहम्मिएहिं।। (म्यगडांग )सोले,गाथाषोडशकोंसे । सतरेप्रकारके, असंयममें(वर्तनसे)। अट्ठारेप्रकारके, अब्रह्मो । एक कम वीम(११), ज्ञातअध्ययनोंसे । ॥४३॥ सोलसहि,गाहासोलसएहिं । सत्तरसविहे,असंजमे।अठ्ठारसविहे,अबंभे।एगणवीसाए,णायऽज्झयणेहि। शरीरादिका । २ में वर्तते हुए लगे दोषों । ३ एकंद्रिय आदि । ४ प्रथम श्रुतस्कंधके । ५ गाथा बद्ध १६अध्ययनोंको न पढनेसे । ६ कुशील सेवनसे। ज्ञातासूत्र प्रथम श्रुत स्कंधके
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प्रकारके या
वीस.असमाधिके स्थानोंसे ।( हस्तकमादि)एकवीस,शवलोंसे । (क्षुधादि)बावीस,परीपहोंसे । तेवीस.सूयगडांग(२श्रुतस्कंधों)के,अध्ययनोंसे। ' चारित्र वीसाए,असमाहिठाणेहिं । एकवीसाए.सबलेहिं । बावीसाए,परीसहेहिं । तेवीसाए,सूअगड,ऽज्झयणेहि। करनेवाले चोवीस२,(तीर्थंकर)देवोंसे । (५ महाव्रतोंकी)पच्चिस,भावनाओंसे । छब्बोस,दशाकल्पव्यवहारके, (उद्देशादिविधिरूप)उद्देशनकालोंसे । सत्तावीस. २ भवनपचनवीसाए,देवेहि। पणवीसाए, भावणाहिं। छवीसाए,दसाकप्पववहाराणं,नद्देसणकालेहिं।सत्तावीसाए त्यादि २४
के अनगारके,गुणों(में न वर्त्तने)से । अठावीस, आचारप्रकल्पोंसे । एक कम तीस,(अष्टांगनिमित्तादि पापश्रुतकेप्रसंगोंसे। तीस, मोहनीयस्थामें अणगार, गुणेहिं । अठ्ठावीसाए,आयारपकप्पेहि। एगणतीसाए,पावसुअपसंगेहिं।तीसाए,मोहणीयठानोंसे। एकतीस, सिद्धोंके आदि, गुणोंसे । (आलोयणा')बत्तीस,योगसंग्रहोंसे । (गुरुकी)तेत्तीस, आशातनाओंसे। अरिहंतोंकी,
हिं। इगतीसाए,सिद्धाइ, गुणेहिं। बत्तीसाए,जोगसंगहेहिं। तेत्तीसाए, आसायणाहिं। अरिहंताणं, # आशातनासे। सिद्धोंकी, आशातनासे। आचार्योकी, आशातनासे। उपाध्यायोंकी, आशातनासे। साधुओंकी, के आसायणाए।सिहाणं, आसायणाए। आयरियाणं,आसायणाए। नवज्झायाणं,आसायणाए।साहणं, 卐 आशातनासे। साधीओंकी, आशातनासे। श्रावकोंकी, आशातनासे। श्राविकाओंकी, आशातनासे । देवोंकी, आशात-5
आसायणाए।साहुणीणं,आसायणाए।सावयाणं,आसायणाए,सावियाणं,आसायणाए।देवाणं,आसाय ॥४४॥ आचारांगके २५ अध्ययन तथा उद्घात, अनुद्घात, और आरोपणा, ये तीन भाग निशीथके, कुल । ४ एक साथ उत्पन्न होनेवाले । ५ लेना देना आदि । ६ अवर्णवाद बोलनेकी ।
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प्ररूपणा।
नासे। देविओंकी,आशातनासे । इस(मनुष्य)लोककी,आशातना से। परलोककी, आशातनासे । केवलीओंकी, आशातनासे। असत्यणाए।देवीणं,आसायणाए। इहलोगस्स,आसायणाए।परलोगस्स,आसायणाए। केवलीणं,आसायणाए। 5 केवलीने प्ररूपे हुए, धर्मको, आशातनासे । देवमनुष्यअसुर(भवनपतिदेव)सहित,१४लोककी, आशातनासे। सर्व, प्राणी, भूत, केवलिपन्नत्तस्स,धम्मस्त,आसायणाए।स देवमणुआऽसुरस्स,लोगस्स,आसायणाए। सव्व,पाण,भूअ, जीव, सत्वोंकी,आशातनासे । दिन पक्षादिकालकी,खोटी परूपणा आशातनासे । श्रुत(ज्ञान)की,आशातनासे । श्रुतदेवताकी, आशातनासे ।
जीव सत्ताणं,आसायणाए। कालस्स.आसायणाए। सुअस्स,आसायणाए।सुअदेवयाए,आसायणाए। २ उपाध्या वाचनाचार्यकी, आशातनासे। जो(पद),आगेपीछेबोलाहो, अन्य पदादिमिलाकेबोलाहो,हीनअक्षरबोलाहो, अधिक अक्षरवोलाहो. यकीआज्ञासे उद्देशादि
वायणारिअस्स,आसायणाए। जं, वाइडं, वच्चामेलियं, हीणऽख्खरं, अच्चऽख्खरं,
पदहीनबोलाहो, विनयहीनपढाहो,घोषहीनबोलाहो,जोगहीन भणाहो,५अच्छीतरेदिया,(मैंने)दुष्टपणे,अंगीकारकियाहो,अकालमें, कियाहो. में पयहीणं, विणयहीणं, घोसहीणं, जोगहीणं, सुठु दिन्नं, दुछु, पडिच्छियं,अकाले, 'कओ, स्वाध्याय(पढना),कालमें, नहीं,कियाहो,स्वाध्याय(पढना), असज्झायमें स्वाध्यायकियाहो,सज्झायमें,नहीं,स्वाध्याय कियाहो,उसका,मिथ्याहो.
सज्झाओ, काले, न,कओ, सज्झाओ, असज्झाइए,सज्झाइयं,सज्झाइए,न,सज्झाइयं.तस्स, मिच्छा. ॥४५॥ ३ उदात्तादि उच्चारण-अवाज । ४ योगवहे विना 'योगरहितं-सम्यगकृतयोगोपचार' आव०१०पत्र ७३१ । ५ आप गुरुने । ६ ग्रहण तारा तूटना आदि । ७ असज्झायका कारण न होनेपर।
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मेरे, दुष्कृत । नमस्कारहो, चोवीसों, तीर्थंकरोंकुं, ऋषभ आदि, महावीर(स्वामी)पर्यंत, यहही, निग्रंथोंका,प्रवचन(सिद्धांत), मि,दुकडे ॥ नमो, चउवीसाए.तित्थयराणं,'उसभाइ.महावीरपज्जवसाणाणं, इणमेव,निग्गंर्थ, पावयण
सत्यहै,अनुत्तरहै ३, अद्वितीयहै, प्रतिपूर्ण है,मोक्षलेजानेवालाहै,सम्यक्शुद्धहै. पशल्योंकुंकाटनेवालाहै, सिद्धिकामार्गहै, मुक्तिका मार्ग है, ॐ सच्चं,अणुत्तरं,केवलियं, पडिपुन्नं, नेआउयं, संसुद्धं, सल्लगत्तणं, सिद्धिमग्गं, मुत्तिमग्गं,
निरुपमयान का,मार्गहै, निर्वाणका मार्गहै,अवितथ(सत्य है,विच्छेदरहितहै, सर्वदुःखप्रहीणका मार्ग है। इसमें१, रहेहुए, जीव, में निजाण, मग्गं, निव्वाणमग्गं, अवितह, मविसंधि, सव्वदुख्खप्पहीण मग्गं । इत्थं,ठिया,जीवा, में सिद्धहोतेहैं,१२बोधपाते हैं,मुक्तहोते हैं। ३,सबतरहशांतहोते हैं, सब दुःखों का अंत, करते हैं। उस’, धर्मकुं, सद्दहताहूं, १४स्वीकारताहूं, सिझंति,बुझंति, मुच्चंति,परिनिव्वायंति,सव्वदुख्खाणमंतं,करंति। तं, धम्म,सहहामि,पत्तिआमि, में रोचताहूं,फरसताहूं, पालताहूं, विशेषपालताई। उस’, धर्मकुं,सदहताहुआ,स्वीकारताहुआ,रोचताहुआ,फरसताहुआ,पालताहुआ, विशेष
रोएमि,फासेमि,पालेमि,अणुपालेमि। तं, धम्म, सदहतो,पत्तिअंतो, रोअंतो, फासंतो, पालंतो, अणु1 सामायिकादि द्वादशांग रूप । २ द्रव्य भाव ग्रंथ रहित मुनि। ३ सर्वोत्तमह । ४ इसके समान दूसरा नहीं है। : मोक्ष प्राप्तिके गुणोसे । ५ माया आदि तीन । ६ कर्मोंसे म छटनेका । ७ मोक्ष स्थानके प्रयाण । ८ कर्म अग्नि बुझानेका । ५ महाविदेहमें निरंतर होनेसे या शाश्वताहै । १० सब दुःखोंका नाश है जिसमें ऐसे मोक्षका । ११ निग्रंथके ) F प्रवचनमें । १२ केवलज्ञान-दर्शनसे। 1३ कर्मोसे छूटतेहैं। x निग्रंध प्रवचनमें कहे। १४ प्रीति पूर्वक ।
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पालताहुआ, उसा, धर्मकी, केवलीने परूपे हुए, अभ्युत्थित(तयार)हुआहूं,आराधनाकेवास्ते, विरता(रुका)हूं, विराधनासे, असंजमकुं, पालंतो, तस्स,धम्मस्स, केवलिपन्नत्तस्स,आभुठिओमि,आराहणाए, विरओमि, विराहणाए, असंजमं, में सवतरहजाणताहूं,संजमकुं,अंगीकार करताहूं,अब्रह्म(कुशील)कुं, सबतरहजाणताहूं,ब्रह्म(शील)कुं, अंगीकार करताहूं,अकल्प कुंसवतरह
परियाणामि,संजर्म,नवसंपज्जामि, अभं, परियाणामि, बंभं, नवसंपज्जामि,अकप्पं,परिया. जाणताहूं,कल्पकुं,अंगीकार करताहूं, अज्ञान कुं,सबतरहजाणताहूं, ज्ञानकुं,अंगीकार करताहूं, अक्रिया कुं,सबतरहजाणताहूं, क्रिया कुं, मणामि,कप्पं,नवसंपज्जामि, अन्नाणं,परियाणामि, नाणं,नवसंपज्जामि,अकिरियं,परियाणामि, किरियं,
अंगीकार करताहूं, मिथ्यात्वकुं, सबतरहजाणताहूं,सम्यक्त्वकुं,अंगीकार करताहूं, अबोधि कुं,सबतर हजाणताहूं,बोधि कुं,अंगीकारकरताहूँ, नवसंपज्जामि.मिच्छत्तं, परियाणामि,सम्मत्तं.नवसंपज्जामि,अबोहि,परियाणामि,बोहिं,उवसंपज्जामि, # अमार्ग कुं,सवतरहजाणताहूं,मार्गी कुं, अंगीकारकरताहूं, जो, मेरेकुं याद है, जो,फेर,नहीं,यादआताहै, जो, पडिक्कपताहूं,जो,फेर, १ नहीं है
अमग्गं,परियाणामि, मग्गं,उवसंपज्जामि, जं.संभरामि,जं,च, न,संभरामि,जं,पडिक्कमामि,जं.च, न,
॥४७॥
१ निग्रंथ प्रवनमें बताये। २ जागनेकी बुद्धिसे जाणके त्याग बुद्धिसे त्यागताह, ऐसा सर्वत्र समझना। ३ अनाचार । ४ मिथ्याज्ञान । ५ नास्तिकवाद । ६ सम्यग्रवाद। मिथ्यात्वके कार्य। ८ सम्यक्त्त्वके कार्य । ९ मिथ्यात्व कषायादि। १० सम्यग्दर्शनादि । ११ उपयोगादिसे जाणा हुआ दोष । १२ अजाणमें रहे हुए सूक्ष्म दोष ।।
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म पडिक्कमताहूं, उस, सब, रात्रिसंबंधी, अतिचारकुं, पडिक्कमताहूं, श्रमणहूं, मैं,संयमवाला,विरता हुआ,नाशकिये(तथ),
पडिकमामि,तस्स,सव्वस्स,राइअस्स*,अइयारस्स,पडिक्कमामि,समणोऽहं,संजय, विरय, पडिहय, 5 त्यागेहैं, पापकर्म जिसने, नियाणा रहित,सम्यगदृष्टियुक्तहुआ,मायायुक्तमृषासे, विवर्जितहुश्रा(मैं)। आधेतीसरे(२), द्वीप, समुद्रों में,
पञ्चरुखाय,पावकम्मो,अनियाणो,दिठिसंपन्नो,माया मोस, विवज्जिओ । अढाइज्जेसु.दीव,समुद्देसु, -(भरतादि)पनरे,कर्मभूमिओंमें, जितने, कोइभी, साधुहै, रजोहरण, गुच्छे, पात्रोंके, धारक, पांच महाव्रतोंके, धारक, अढारे,
पन्नरससु,कम्मभूमिसु, जावंत,केवि, साहू,'रयहरण,गुच्छ,पडिग्गह,धारा. पंचमहव्वय, धारा,अठ्ठारस, | हजार, शोलांगके, धारक, अखंड आचारयुक्त चारित्रवाले, उन, सबकुं,शिरनमाके, मनसे), मस्तकसे, वांदताहूं। खमानाहूं, सहस्स,सीलंग, धारा, अख्खयायारचरित्ता, 'ते,सव्वे,सिरसा मणसा,मत्थएण,वंदामि । 'खामेमि सब,जीवोंकुं। सर्व, जीव, खमाओ, मेरेकुं। मित्रताहै,मेरे, सर्वभूतों(जीवों) में । वैर(भाव),मेरे,नहींहै,किसीसे । इसतरहमैं, आगेचके,
सव्व,जीवे। सव्वे,जीवा, खमंतु, मे। मित्ती, मे,सव्व,भूएसु। वेरं, मज्झ,'न, केणई। ऐवमहं, आलोइय, 5 निंदके। गर्हकेर, दुगुंछित कुं,अच्छीतरह ! त्रिविध करके,पीछाहटाहुआ। वांदताहूं, जिनेश्वरोंकुं,चोवीसों।। २ वांदणे,.. निंदिय । गरहिय, दुगुंछियं, सम्म। तिविहेण,पडिकंतो।"वंदामि, जिणे, चउवीसं २ अाभुठ्ठिया वांदणे * देवसी आदिमें क्रमसे 'देवसिअस्स-पख्खिअस्स-चउमासिअस्स-संवच्छरिअस्स' कहना। १भावपूर्वक । २आत्मसाखे । ३गुरुसाखे विशेषनिंदके। ४निंदित-दोष । ५मन-वचन-काया ।
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उवज्जाए
आचार्य, उपाध्यायोंकुं। शिष्योंकुं, साधर्मियोंकुं, कुल,गणोंकू,फेर। जो,मैंने, कोइ, रीसायेहो। सबकुं, त्रिविधकरके, खमाताहूं। भा, *आयरिय,नवज्झाए। सीसे,साहम्मिए,कुल,गणे,अ। जे,मे,केइ,कसाया।सव्वे.तिविहेण,खामेमिश
सब, श्रमण संघ(साधुसमुदाय)से । पूज्य, अंजलि, करके, शिरपर। सबकुं, खमवाके। खमाताहूं, (उन)सबकुं, सव्वस्त, समणसंघस्स। भगवओ, अंजलिं,करिय, सीसे ॥ सव्वं,खमावइत्ता। खमामि, सव्वस्स.. मैं भी। सब, जीवोंकी राशिसे। भावसे, धर्म में, स्थापित, निज,चित्तवाला(मैं)। सबकुं, खमवाके ।
पंपि॥२॥सव्वस्स,जीव रासिस्स।'भावओ,धम्म,निहिअ.निअ. चित्तो॥ सव्वं, खमावइत्ता। खमाताहूं, (उन)सबकुं, मैं भी। देवसिमें करेमि भंते इच्छामि ठामि०,चारित्र दर्शन ज्ञानके काउसग्ग २-१-१ लोगस्सके। जखमामि, सव्वस्स, अहयंपिकरेमि भंते इच्छामिठामि छमासी तपचिंतवन छ लोगस्स काउसग्ग।
ॐ अच्छि भक्तिसे, देवलोकमें, मूर्य, चंद्रके,विमानमें, व्यंतरोंके, निकायमें। नक्षत्रोंके, निवासमें, ग्रहगणके,पटलमें", तारोंके, सकल
सद्भक्त्या, देवलोके,रवि,शशि,भवने,व्यंतराणां,निकाये।नक्षत्राणां,निवासे,ग्रहगण,पटले,तारकाणां 5 विमानमें। पातालमें, नागेंद्रोंके, प्रगट,मणियोंकी,किरणोंसे,नाशहए, अतिअंधकारवाले। श्रीमत् तीर्थंकरोंके,प्रतिदिन(हमेशा), मैं,
विमाने॥पाताले, पन्नगेंद्रे.स्फुट,मणि, किरणे, ध्वस्त,सांद्रांधकारे। श्रीमत्तीर्थंकराणां, प्रतिदिवस, महं, * यह सहो"योगशास्त्र द्वीर प्रश्नमें श्रावकको बोलनेकाहै या श्रावककी तरफसे साधु बोले । १ मेरे अपराधोंकु । २ जीवोंके समुदायसे । ३निवास स्थानमें । ४ विमानमें । ५. प्रतरमै ।
3555555555555फ
४४
तीर्थ
नमस्कार
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के वहां रहे, चैत्योंकु, वांदताहूं । वैताठ्यपर्वतपर,मेरुशिखरपर,रुचक गिरिवरउपर,कुंडलगिरिपर,गजदंतेपर। वक्षस्कारपर, ५२कूटवालेनंदीश्वरद्विपमें,
तत्र, चैत्यानि,' वंदे।शवैताब्ये,मेरुशंगे, रुचक गिरिवरे, कुंडले, हस्तिदंते। वरुखारे, कूट नंदीश्वर, कनकगिरिउपर, निषधगिरिपर,नीलवंत उपर । चित्रपर्वतउपर,विचित्रगिरिउपर,यमक गिरिवर उपर, चक्रवाल(गिरि) में, हिमवंतगिरि उपर । कनक गिरौ, नैषधे, नीलवंते॥ चित्रे शैले, विचित्रे, यमक गिरिवरे, चक्रवाले, हिमाद्रौ। # श्रीमत्तीर्थंकरोंके० ।। श्रीशैलउपर,विंध्याचलकेशिखरउपर,विमलगिरिवरमें निश्चय आबूजीमें, पावापुरिमें, तथा। सम्मेतशिखरपर,
श्रीमत्तीर्थंकराणां०।।श्रीशैले, विंध्यशंगे, विमल गिरिवरे, ह्यऽर्बुदे, पावके, वा। सम्मेते, तारंगाजीमें,तथा,कुलगिरिके शिखरपुर,अष्टापदजीमें, स्वर्णशैलमें । सह्याचलमें, वैजयंत(गिरि)में, विपुलगिरिवरमें,गुजरातमें, रोहणाचलमें। तारके,वा,कुलगिरिशिखरे, ऽष्टापदे,स्वर्णशैले॥ सह्याद्रौ, वैजयंते, विपुलगिरिवरे.गुर्जरे, रोहणाद्रौ।
श्रीमत्तीर्थंकरोंके० ॥३॥ आघाटदेशमें,मेवाडदेशमें,पृथ्वीतटके, मुकुट(समान),चितोडउपर त्रिकूटाचलमें। लाटमें,नाटमें,और घाट(घाट)देशमें, श्रीमत्तीर्थंकराणा०।३।आघाटे,मेदपाटे,क्षितितट. मुकुटे. चित्रकूटे, त्रिकूटे। लाटे,नाटे,च,घाटे(धाटे), क्षोंसे,घांठेतटवाले,देवगिरिउपर,विगड(देश)में । कर्णाटकम, हेमकूटमें, अत्यंतविशाल,कटवाले,चक्रकूटपर,और,भोटदेशमें । श्रीमत्तीर्थंकरोंके० ४ विटपि,घन तटे, देवकूटे, विराटे॥ कर्णाटे,हेमकूटे, विकटतर, कटे,चक्रकूटे,च,भोटे।श्रीमत्तीर्थंकराणां४ १ राजगृहीके पांच पहाडोंमें चोथा या शाश्वते दो सौ । २ जालोर(मारवाड)का गढ,या गवालियरके पास रहा सोनागिरि, जोकि अभी दिगंबरोके ही आधीनहै । ३ राजगृहीके प्रथम पहाड ।
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+ श्रीमालमें, मालवेमें,तथा.मलय(मलवार)में निपधमें, मेखलमें, पिच्छलमें, तथा । नेपालमें, नाडलमें,तथा, भूमंडलके, तिलकसमान, सिंहलमें,
श्रीमाले,मालवे,वा, मलयनि, निषधे,मेखले,पिच्छले,वा। नेपाले,नाहले,वा,कुवलय, तिलके, सिंहले, # केरलमें,तथा। डाहालमें (हालार), कोशलमें, तथा,विगलित(नष्टहुए),पाणीवाले,जंगलदेशमें,तथा,त(ढ)मालदेशमें, श्रीमत्तीर्थंकरोंके० ।। केरले,वा।डाहाले(*हालारे),कोशले,वा, विगलित,सलिले,जंगले,वा,त(ढ)माले,श्रीमत्तीर्थंकराणां०५। अंगदेशमें,बंगालमें,कलिंगमें, बौद्धोंके, देशमें, अच्छे प्रयागमें, तिलंगमें । गौडदेशमें,चौड देशमें,मुरंडदेशमें,श्रेष्ठतरद्रविण(बल)वाले,ऊद्रियाणमें२, अंगे, बंगे,कलिंगे.सुगत,जनपदे,सत्प्रयागे,तिलंगे। गोडे, चौ डे, मुरंडे, वरतर द्रवि(डे)णे,नद्रियाणे. और,पौंडदेशमें। आईकदेशमें,माद्रदेशमें पुलिंद्रमें,द्रविडदेशके,भूमंडलमें, कन्नोजदेशमें, सोरठमें। श्रीमत्तीर्थंकरोंके० । चांपानगरीमें च, पौंड्रे॥ आई, मादे.पुलिंदे, द्रविड,कुवलये.कान्यकुब्जे.सुराष्ट्र।श्रीमत्तीर्थंकराणां०।६। चंपायां. चंद्रमुखीमें, हस्तिनापुर, मथुरा, शहरमें,और उज्जयिनीमें । कोशांबीमें, अयोध्या, उत्तमकनकपुरमें,देवगिरि(नगरी)में,और,काशीमें। चंद्रमुख्यां,गजपुर, मथुरा,पत्तने,चोज्जयिन्यां ।कोशांब्यां,कोशलायां,कनकपुरवरे, देवगियाँ, च,काश्यां॥ # नाशिकमें, राजगृहपें, मंदसोर.नगरमें,भदिलपुरमें, तामलिप्तिमें। श्रीपत्तीर्थंकरोंके० ७ देवलोकमें मनुष्यलोकमें ज्योतिषियों में,
नाशिक्ये,राजगहे.दशपुर,नगरे,भदिले,ताम्रलिप्त्या॥श्रीमत्तीर्थंकराणां स्वर्ग, मत्य, इंतरिक्षे, ॐ काठीयावाड देशमें । * दूसरी लिखित पुस्तकोंमें ऐसाभी पाठांतरहै, आगेभी कॉउंस () मेका पाठांतर समझना । १रंगून-चीनादि । २ उडिशा देशमे । ३ अथवा पाटणमें। ४ उत्रेण ।।
卐5555555555555555555
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हादि।
भवनमें।
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पर्वतके शिखरपर द्रहमें देवनदो(गंगा),जलकेतीरपर। पर्वतके अग्रमें,नागलोक, समुद्रके, किनारेउपर, वृक्षोंकी, घटामें। गाममें. #गिरिशिखरहदे, स्वर्णदी,नीरतीरे। शैलाये, नागलोके,जलनिधि, पुलिने,भूरहाणां,निकुंजे॥ ग्राम, जकुमारादि के अरण्यमें वनमें,अथवा,थलसे, जलसे, विषम ,गढके अंदर,तीनों कालमें। श्रीपत्तीर्थकरोंके० । श्रीमान् मेकउपर,कुलगिरिम, रुचक#रण्ये,वने, वा.स्थल,जल,विषमे,दुर्गमध्ये,त्रिसंध्यं । श्रीमत्तीयकराणां ।'श्रीमन्मेरो,कुलादो, रुचकगिरिवर उपर, शाल्मली(वृक्ष)में, जंबूसक्षम । चौजन्यमें ,चैयनंदमें, रतिकर(पर्वतपर), रुचकद्वीपमें,कुंडलदीप में, मानुषोत्तरमें । इक्षकार (पर्वत)में, नगवरे, शाल्मली, जंबूतक्षे। चौजन्ये,चैत्यनंदे, रतिकर, रुचके, कौंडले,मानुषांके ॥ इक्षकारें. अंजनगिरिमें, और,दधिमुखगिरिम,व्यतरनगरोंमें,देवलोकमें। ज्योतिपलोकमें, होते हैं उनकुं,तोनभुवनके, चक्रमें, जो, जिनविवोंकेआलय
जनादो, च,दधिमुखगिरी,व्यंतरे,स्वर्गलोके। ज्योतिर्लो के, भवंति, त्रिभुवन.वलये,यानि, चैत्यालयानि (मंदिर)।। इसतरहके,श्रीजैनमंदिरोंके स्तवनकुं, हमेशा, जो, पढतेहै, चतुरजीव । अति ग्यत् कल्याणका हेतु, पाप मलको हरनेवाले,
९। 'इत्थं, श्रीजैनचैत्यस्तवन,मनुदिनं,'ये, पठंति, प्रवीणाः। प्रोद्यत्कल्याण हेतुं, कलिमलहरणं, ॐ भक्तिकुं भजनेवाले,तीनोंकालमें। उन, श्रीतीर्थ यात्राका, फल,नहींतुलनाबाला,संपूर्ण,होताहै(उससे),मनुष्योंकुं। कार्योकी,सिद्धि(होतीहै), भक्तिभाज. स्त्रिसंध्यं । तेषां. श्रीतीर्थयात्रा,फल, मतुल. मलं.जायते, मानवानां । कार्याणां,सिदि.
२॥ या समुद्र में बांधी हुइ पाजउपर । ४मुश्किलसे जाने योग्य । ५ उज्जयिनीके आसपासके देशमें । चैत्योंसे आनंद हो वैसे । ७ के पर्वतादि । ८ बांदताह । ९ अधिक उदयवाले।
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उंचे दर्जेसे,अतिहर्षित मनवालोंके, चित्तकुं आनंदकरनेवाली ॥१॥
(नवकारसी) रुन्चैः प्रमदित मनसां.चित्तमानंदकारी।१०। पच्चख्वाण नमक्कारसहि आदि करना।
___ इच्छतेहैं, गुरुआज्ञाकु.नमस्कारहो, क्षमाश्रमणोंकुं, नमस्कारहो,अरिहंत सिद्ध आचार्थ उपाध्याय सर्व साधुओंको। इच्छामो इच्छामो,अणुसहि, नमो, खमासमणाणं, नमो, ऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुन्यः । अणुसहि परमतरूप, अंधेरैकुं, मूर्थसमान । संसारसमुद्रके,जलकुं,तिरनेमें, उत्तम नाव जैसे । रागरूप,रजकुं ,पवन जैसे । बांदताहूं, भगवान् , परसमय 'परसमय, तिमिर, तरणिं । भवसागर,वारितरण, वर तरणिं। राग, पराग,समीरं । वंदे, देवं, तिमिर महावीरकुं ११ रोकेहै, संसारमें, भ्रमण, कारक । दुःखसे अंतवाले ८,भावशत्रुगणजिन्होंने ऐसे), अस्पत। हमेशा, केवलियों में,
महावीरं ॥१॥ निरुह,संसार,विहार,कारि। दुरंत, भावारिंगणा, निकामं ॥ 'निरंतरं, केवलि. Fउत्तम ,तुम्हारा । भववहनेवाले ,मोहके,समुदायकुं,हरणकरो ।२। संदेहकारक, मिथ्यामतके आगमसे,पेदाहुए, गुप्त। मोहरूप, कादेकुं, जासत्तमा,वो। भवावहं, मोह, भरं, "हरंतु ॥२॥'संदेहकारि, कुनयागम, रूढ, गूढ । संमोह, पंक, | हरणेमें, निर्मल,जलके, पूरजैसे । संसार, समुद्रकुं, पार उतरनेमें, मोटे,नावजैसे। वीरके आगमकुं, परमसिद्धि करनेवाले, नमताई ।। हरणा.ऽमल.वारि, पूरं॥संसार,सागर,समुत्तरणो,रु. नावं। वीरागमं, 'परमसिद्धिकरं.'नमामि ॥३ १ ख.मि हि ।। २. हटानेमें। ३ उडा देम । दुःखसे अंत नाश)हो सके जिनका ऐसे रागादि । ५ तीर्थ कर । ६ जन्म मरण करानेवाले । ४ नमुत्थुणं कके देववंदन करे।
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॥५३॥
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४७
यदंधि
स्तुति
फ्र!
सुगंध, समुदायके, लोभसे, आसक्त हुए, चपल, भमरों की, श्रेणीवाले। सुंदर, कमलउपर रहने वाली, `हार (तथा) बरफको, हसती हुइ । नहींविरल, परिमल, भर, लोभा, ऽऽलीढ, लोला, लि, माला । वर, कमल, निवासे, हार नीहार, हासे । 'अविरल, संसार, कैदखानेका, विच्छेद करनेवाला । करो, कमलयुक्त, हाथवाली, मेरेलिये, मंगल, हेदेवि ! सारभूत |४| भव, कारागार, विच्छित्तिकारं । 'कुरु, कमल, करे, मे, मंगलं, देवि!, सारं ॥४॥
जिसके चरणको नमनेसेही । देहधारी (जीव), है, भलिस्थितिवाले । उस नमस्कार हो, वीर (प्रभु) को । सर्वविघ्नका, विघातकरनेवाले * यदंघ्रि, नमनादेव । देहिनः संति, सुस्थिताः । तस्मै, 'नमोऽस्तु, वीराय । सर्व, विघ्न, विघातिने 191 इंद्रने, नमेहुए, चरण युगवाले, ऋषभ जिनआदि, जिनपतिओंकुं नमताहूं । जिनके वचन, पालनेमें, तत्पर जीव । जलकी अंजलि, ॥१॥ सुरपति, नत, चरणयुगा, न्नाभेय जिनादि, जिनपतीन् नौमि ॥ यद्वचन, पालन, परा । जलांजलि, दो, दुःखोंसे |२| कहते हैं, वंदनकरनेवाले, समुदाय के आगे, तीर्थकर । सत्यअर्थसे, जो रचते हैं, सूत्रसे । गणके स्वामो (गणधर), ददतु, 'दुःखेभ्यः ॥ २ ॥ वदंति, बंदारु, गणाग्रतो, जिनाः । 'सदर्थतो, 'य, 'द्रचयंति, सूत्रतः ॥ गणाधिपा, होवो, ज्ञान, निश्चय, मुक्तिकेलिये |३| सौधर्मेंद्र, वैमानिक, भवनपतिदेव, वरों करके, ऽस्तु, मतं, "तु, मुक्तये ॥३॥ शक्रः, "सुरा, ऽसुर,
तीर्थ की स्थापना के समय में । वह प्राणीयोंको, "स्तीर्थ, समर्थन, क्षणे । तदं
गिनाम,
१३
वरैः,
१ मोतिका २ इनसे ज्यादा गौर वर्णवाली । ३अधिक इमें नित्य, पख्खी चोमासी संच्छरीके पहलेदिन और बिहारके दिन देवसीमें यह स्तुति बोली जाती है । ४ चतुर्विध संघ
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४८
सीमंधर
चैत्य
वंदन
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+ सहित,देवीओं । (तथा) सर्वज्ञशासन के,मुखकेलिये, अच्छे उद्यम वाली। श्रीवर्द्धमानजिनने,दियेहुए, मतमें,प्रवर्तनेवाले । भव्य मोक्षकेयोग्य, संह, देवताभिः। सर्वज्ञ शासन,सुखाय,समुद्यताभिः। श्रीवर्धमानजिन,दत्त ,मत,प्रवृत्तान्। भव्यान्, जीवोंकी, रक्षाकरो, नित्य, अमंगलोंसे ।। जना, 'नऽवतु, नित्य, मऽ मंगलेश्यः ॥४॥
वंदू जिनवर विहरमाण, सीमंधरस्वामी। केवल कमला कांत दांत, करुणारस धामी।। कंचनगिरि सम देहकाति, वृष लंछित पाय। चोरासी लख पूर्व आय, सेवे सुर नर राय ।२। पूर्व विदेह ॐ विराजता ए, पुंडरीकिणी भाण। प्रभु ! यो दर्शन संपदा, कारण पद 'कल्याण' ।३। नमुत्थुणं०*
श्रीसीमंधर साहिबा, वीनतडी अवधार लाल रे! परम पुरुष परमेसरू, आतम परम आधार लाल रे. श्रीसीमंधर। केवलज्ञान दिवाकरू, भांगे सादि अनंत लाल रे,भासक लोकालोकनो,
ज्ञायक ज्ञेय अनंत लाल रे, श्रीसीमधर०।२१ इंद्र चंद्र चक्कीसरू, सुर नर रहे कर जोड लाल रे। - जनधर्म संघ)। दूसरे पक्षमे स्तुतिकताने 'जिनद तसर' ऐसा अपना नाम सूचित किया। * विद्यमान सीमंधर जिनको ही यह नमस्कार होनेसे 'जं किचि'न कहना, 'नमुत्थुणं के अंतर्मभी 'टाणं सपत्ताण'की जगह 'ठाणं सपाविउ कामस्स, नमो जिणाणं, नमोऽहंत 'कहके स्तवन कहना । 'जाति चेइयाई-जावंत केवि साहू' नहीं कहना।
४९
सीमंधर स्तवन
॥५॥
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के पद पकंज सेवे सदा, अणहुंतां इक कोड लाल रे, श्रीसीमंधर०।३। चरण कमल पिंजर वसे, मुज मन हंस नित्यमेव लाल रे। चरण शरण मोहे आसरो, भवोभव देवाधिदेव लाल रे, श्रीसीमंधर.
४। अधम नहारण छो तुमे, दूर हरो भव दुख्ख लालरे। कहे 'जिनहर्ष मयाकरी, दीजो अविचल
सख्ख लाल रे.श्रीसीमंधरा (थड) श्रीसीमंधर आदि जिननां.जाणो ए सर्व कल्याण जी। ॐ च्यवने' कल्याण अवतरणे कल्याण,गर्भधारणे कल्याण जी ॥ जन्मे कल्याण दीक्षाए कल्याण, केवलज्ञाने कल्याण जी। मोक्षे कल्याण जे कल्याण फल जीवने, न होवे ते अकल्याण जी ॥१॥
मन शुद्ध वंदो, भावे भवियण,श्रीसीमंधररायाजी। पांचसे धनुष, प्रमाण विराजित,कंचनवरणी कायाजी॥श्रेयांस नरपति, सायकी नंदन, वृषभ लंछन सुखदायाजी। विजय भली पुख्खलावइ च्यवन जन्मादि कल्याण पांच करनेसे अवतरणकल्याण गर्भधारणकल्याणकुं अकल्याण नहीं मानाहै, किंतु वे भी उन्होंमें कल्याणही कहे है। २ श्रीजिनभद्रीयवृत्संग्रहणी पत्र ८८में गाथा "अवयरण जम्म निरखमण, नाण निव्वाण पंच कल्लाणे। तित्थयराणं नियमा, करंति सेसेमु (अशेषेषु) खित्तेसु २२९(क्षेत्रेषु पंचदशस्वपि कमभूमिषु"-टोकामें)। ३ पंचाशक पत्र १५७ में गाथा "गभ्भे (गर्भाधाने-टीकामें) जम्मे य तहा, णिख्खमणे चेव णाण णिव्याणे। भुवणगुरूण जिणाणं, कल्लाणा होंति णायचा ।३१॥"इन दो गाथाओंमें अवतरणकल्याण गर्भधारणकल्याण ही लीखाहै । . .
स्त्रीमंधर
स्तुति
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विचरे, सेवे सुर नर पायाजी ॥१॥ काल अतीते जे,जिनवर हुआ, होस्ये वलिय अनंताजी। संप्रति
काले, पंच विदेहे, वरते वीस विख्याताजी॥ अतिशयवंत, अनंत गुणाकर, जगबंधव जगत्राताजी। अध्यायक ध्येय, स्वरूप जे ध्यावे, पावे शिवसुख साताजी।।अरथे श्री अरिहंत प्रकाशी. सूत्रे गणधर
आणीजी। मोह मिथ्यात्व तिमिर भर नाशन,अभिनव सूर समाणीजी॥ भवोदधि तरणि.मोक्ष निसकरणि, नय निक्षेप सोहाणीजी।ए जिनवाणी,अमिय समाणी आराधो भवि प्राणीजी।। शासन देवी.
सुरनर सेवी, श्री पंचांगुली माईजी।विघन विडारणी,संपत्ति कारणी,सेवकजन सुखदाईजी॥त्रिभुवन ५१. मोहनी, अंतरजामनी,जग जस ज्योतिसवाईजी।सांनिधकारी संघने होयज्यो श्री जिनहर्ष सहाईजी। सिद्धा
__जय जय नाभि नरिंद नंद!, सिद्धाचल मंडण। जय जय प्रथम जिणंदचंद, भव दुःख विहंडण वंदन ॥ जय जय साधु सुरिंद विंद, वंदिय परमेसर। जय जय जगदानंद कंद, श्रीऋषभ जिणेसर।। ५२ ॥ अमृतसम जिन धर्मनोए,दायक जगमें जाण।तुझ पद पंकज प्रीतिधर,निशिदिन नमत ‘कल्याण।३। ॥२७॥
प्रभु ! मयाकरी, दिलरंजन दीदारको दरिसण दीजिये, (ए आंकणी) श्रीसिद्धाचल गिरिवर राया,
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परमातम पद संपद पाया, श्रीऋषभ जिनेसर जिनराया, प्रभु! जे समता सुख सदा आपे, जडता युत कुमति लता कापे, वलि बोध बीजने थिर थापे, प्रभु! ।२। पर पुद्गल ममता दूरगमे,
चेतनता निजघर मांहि रमे, तिहां जन्म मरण दुःख सहु विरमे,प्रभु! ॥३॥ जेहथी भव परिणति चित्त हैन वसे, अध्यातम अनुभव गुण विकसे, तिहां सहज समाधि दशा हुलसे, प्रभु ०।४। ए अध्यातम
वीनती मधुरी, वाचक गणि 'क्षमाकल्याण' करी, प्रभु! सफल करो मुज हितधरी प्रभु! ॥ म (थुइ) श्रीसिद्धाचले आदि जिन आव्या, पूर्वनवाणु वार जी। अजित शांति चोमासुं कीg, ॐ गणधर मुनि परिवार जी॥ दर्शन पूजन, भविजन कीg, देशना अमृत पीधुं जी। चोमासे'तलाटी
देरे,जिन दर्शन पूजन, नर स्त्री किम निषेधुं जी ॥१॥ स्तवन राग प्रभाती-ऊठाने मोरा आतमराम ! प्रभु मुख जोवा जइये रे,ऊठोने सिद्धगिरि ध्यावो विमलगिरि ॥२८॥ की जावो, कंचनगिरि वेलां वधावो रे,सिद्धगिरिए आंकणी। इण गिरिवरियारी महीमा मोटी,कहेतां न
दशवै० BA चोमासेमें सिद्धाचल तलाटी पगले मंदिरे जयणाये जानेमें दोष नहीं,शास्त्रकी आज्ञाहै "जयं चरे जयं चिट्ठ,जयमासे जयंसए। जयं भुंजतो भासंतो,पावं कम्मं न बंधEM ATI
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लागे खोटी रे। रायण रूंख समोसर्या स्वामी,पूर्व नवाणुं मोटी रे, सिहा पाच कोडिशुं पुंडरिक सिद्धा,बेबे कोडिशुं नमि विनमि जाणो रे। दश कोडि परिवारे द्राविड,वारिखिल्ल वखाणोरे,सिद्धा०।२।
राम भरत पाडव नारद ऋषिराया गुणप्रभुका इहां गायारे। कर्मखपावी केवल पाया, हुआ शिवरमणि से राया रे,सिद्ध ०।३। थावच्चापुत्र ने शुक शैलकमुनि देवकीनंदन सिद्धा रे। शांब पद्युम्नकुमार इहां सिद्धा, में
कारज निजनिज कीडा रेसिद्ध ।। गिरिवरे जिनजीकी सेवाहेवा,नितनित मुजने होजोरे जिनज्ञाने में जिनध्याने रहिने, जिनचंद्र पद लेजो रे,सिद्ध०। (थुइ) आव्या पवनवाणुं आदिजिन चोमासी अजित शांति कीधीजी। तीरथ आशातना प्रभाव नष्टकारी ऋतुवंती' पूजा निषेधी जी। सिहगिरिजिनकी दर्शन पूजन,सहुने चोमासे कीम निषेधुं जी।अढी कोश ऊंचा गिरिजावानु,कल्पसूत्रे वीरे कीधुं जी में १ चोथे आरंमें भी ऋतुवंतीको जिनपूजाका निषेध था, अब इसकालमै जिनबिंब पूजती हुइ सी अकाले ऋतुवंती होती है इसलिये वैसीको चमत्कारी मूलजिनविकी अंगपू. # जाका निषेध अयुदत्त नहीं इ, पूर्वाचार्योंने चैत्यवंदन कुलकमें कहा कि "-तं पुण सपाडीहेरं, अपाडिहेरं च मूलजिणविवं । पूइज्जइ पुरिसेहिं, न इत्थि
यार अमुइभावा " २ चोमायेमें साधुसाच्चीकोभी चार दिशि नीचे उंचे छ दिशिमें अढिकोश जाने आने रहनेकी आज्ञाह-"वासावासं पज्जोसवियाणं +कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वओ समंता सक्कोसं जोयणं उग्गई ओगिण्डित्ताणं चिहिउं अहालंदमवि उग्गहे" कल्पसूत्र समाचारी पत्र ५९ ॥
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स्तवन
सिद्धाचल मंडण स्वामी रे-ए आंकणी। चोमासु सिद्धाचल करिये रे,मंदिर तलाटीये नित जइये रे। ५४ ई हारे जिन दर्शनना द्वेषी न थइये, जातीडा जिन दर्शन सुखकंदो रे। हारे ए तोटाले भवनो फंदो,
जातीडा जिनदर्शन मत निंदोरे ? अमे जयणाथी इहा जासुंरे,प्रभु आणाने दिलमांहे धरसुंरे । हारे है तेथी आराधक अमे तरसुंजातीडा चोमासु सिद्धाचल करियरे.मंजा जि.अमेजिन दर्शननारंगी रे, ढुंढकना नहीं अमे संगी रे। हारे किम थइये जिन दर्शनना भंगी,जातीडा चो०म०३वर्षाले गिरि मुनि
जावे रे,कोशअढी श्रीवीर फरमावे रे हारे कल्पसूत्र विरुद्ध किम कहावे,जातीडा चो-मं०४सिद्धगिरि १८ जिन दर्शन सारु रे,एतो लागे मुझ मन प्यारुंरे। हारे जिन दर्शने जिनचंद्र तारु,जातीडा घो०म०५ स्तवन सिद्धाचल दर्शन करवाने, मनडुं नमायुं माझं भविजन! भवजल तरवाने। ए आंकणी, अथवा
चोमासु सिद्धाचल करसुं जी,तलाटी मंदिर दर्शन करिने पावन थासुंजी,ए आंकणी। आदि जिणंद में
इहां आवियारे, पूर्व नवाणुंवार।अजितशांति चोमासुं कीg, गणधर मुनि परिवार,सिडा। चोमासुं०१ में दर्शन करवा जे जन जावे, तेने निंदे निषेधे। शंका थइ समाधान स्तवनथी, करसुंआतम बोधे.
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॥३०॥
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सिद्धा० चोमासुं० |२| आणा माने जिनतणी रे, ते संघ आणा प्रमाण । जिन दर्शन निषेधनुं रे, किम करूं झूठ डफाण, सिद्धा ०। चोमासुं ० | ३ | वर्षाले अढी कोश नंचा रे, गिरि चढे अणगार : कल्पसूत्रे आणावीरनीरे, किम नहीं मानुं विचार, सिद्धा० । चोमासुं 0141 के तिम तलाटीये रे, पगले मंदिरे न जवाय । शास्त्रे तेवो निषेध नहीं रे, आगे जाता ने जवाय, सिद्धा० । चोमासुंभा तलाटी मंदिर दर्शने रे, जे जावे भव्यजीव । तेने किम निषेधिये रे, ढुंढक परे करी खीव, सिडा० । चोमासुं ०|६| सिद्धगिरि मंदिर दर्शने रे, जो वरजुं नर नार ! | दुर्लभबोधि होय जीवडो रे, घणो भने संसार, सिद्धा० । चोमासुं० । ७ । पगितिया पनर डुंगर चढी रे, पगलां देखूं नहीं दोष । चढी आगे पगतियां जिन देखूं रे, किम मानुं कहो दोष, सिद्धा०| चोमासुं0 14 जो कहुं जीव विराधना रे, जयणाथी नहीं होय। तो तलाटी पगले मंदिरे रे, जयणाए चालो सहु कोय, सिद्धा० । चोमासुं० । ९ । अंधेरे ने धुँवरे रे, वर्षते फुसफुसे जाय । जयणा विना इम जावतां रे, विराधक ते थाय. सिद्धा० । चोमासुं. | १० | जयणाए इहां चालवं रे, जयणाए बेसंत । पापकर्म बांधे नहीं रे, इम भांखे भगवंत, सिंडा ।
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॥६२॥
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पुंडरिक
गणधर
चैत्य
वंदन
स्तवन ५७
卐卐卐
चोमासुं०|११| एकेकुं डगलुं भरे रे, गिरि सन्मुख उजमाल । कोडि रे भव सहसना कर्यों रे, पाप खपे ततकाल, सिद्धाः । चोमासुं ० | १२ | पगतियां पनर डुंगर चढी रे, आगे उपर चढे जेह । तेने विराधक बोलतां रे, सूत्र विरुद्ध होय तेह, सिद्धा० । चोमासुं० | १३ | तलाटी पगले दर्शने रे, नहीं विराधक जेह | तलाटी मंदिर दर्शने रे, नहीं विराधक एह, सिद्धा० । चोमासुं० | १४ | तलाटी पगले दर्शने रे, होय आराधक जेह । तलाटी मंदिर दर्शने रे, होय आराधक तेह, सिद्धा० । चोमासुं० | १५ | जिन दर्शन पूजन थकी रे, पामे परमानंद | भव भव दर्शन जिन तणुं रे, मुझने होजो जिनचंद!, सिद्धा० । चोमासुं० | १६ | पुंडरिक गणधर नमुं, भावधरी उचरंग । प्रथम जिणंद गणधर विषे, ए सहुमें अतिचंग |१| आदि जिणंद आदेशथी, आव्या विमल गिरिंद। आदरि अणसण अतिभलुं, पंचकोडि मुनिचंद |२| सिद्ध ध्यान ध्याता थकां ए. करी कर्मनो नाश । चैत्रिपूनम शिवसुख लह्यं, यो जिनचंद्र ! ते वास | ३ | नमो नमो पुंडरिक गणधरु लो, आदि जिणंद गणधार, मनमोह्युं रे । आदि जिणंद उपदेशयी रे लो. सिगिरि मुक्ति धार. मनमोह्यं रे, नमो ० | १ | सिद्धाचले अणसण करीरे लो, धरता सिद्धनुं ध्यान, मन
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सिद्धा
मोह्यु रे।पंचकोडि परिवारथी रे लो,पाम्या केवलज्ञान,मनमोह्यु रे,नमो०।२।चैत्रिपूनम मुगते गयारे लो, सादिअनंत कर्यो वास.मनमोपुरे।भव भवशरणुं ताहरूँ रे लो,एमागुंजिनचंद! आस.मनमोह्यु रे,नमो०३
_ विमलाचल मंडन. जिनवर आदिजिणंद, निरमम निरमोही. केवलज्ञान दिणंद। जे पूर्व नवाणू चल वार धरी आणंद. सेबूंजा गिरि शिखरे. समवसर्या सुखकंद ।२। इण चउवीसीमां. ऋषभादिक स्तुति
जिनराय, वलि काल अतीते. अनंत चोवीसी थाय। ते सवि इण गिरिवर. आवी फरसी जाय, इम के भावी काले. आवसे सवि मुनिराय।।श्री ऋषभना गणधर.पुंडरीक गुणवंत, द्वादश अंग रचना.
कीधी जेणे महंत। सवि आगममांहे.शजय महिमा महंत,भांखी जिन गणधर.सेवो करी थिर चित्त ५. ३। चक्केसरी गोमुह. कवड पमुह सुर सार,जसु सेवा कारण. थापे इंद्र नदार। देवचंद्र गणि भांखे. नवका- भविजनने आधार,सव तीरथमांहे.सिहाचल सिरदार।। *नग्गए सूरे नमुक्कारसहि पञ्चख्खा
(इ)मिचनविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नाथऽणाभोगेणं सहसागारेणं बोसि('रइ)रामि * जिसको नवकारसीमें 'मुहि सहि' न लेना हो उसको यह दो आगाग्वाला नवकारसी पञ्चरुखाण करना कगना । - परके लिये। खुदके वास्ते ।
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ऊगेवाद, मूरजके, नमस्कार सहित, मुष्टिसहित२, त्यागता( है) है(इसमें), चारोंही प्रकारके, आहारकुं, अशन, पान, खादिम नवका- नग्गए, सूरे.नमुक्कारसहिअं.मुठिसहिअं, पच्चख्खा (इ)मि, चनविहंपि,आहारं, असणं,पाणं.खाइम.
के स्वादिम, अन्यत्र, अनाभोगसे, उतावलके,आगारमे, मोटेकी आज्ञासे,सर्व, समाधि निमित्तके, आगारसे ,वोसिराता(है)हूं।
साइमं अन्नत्थ. ऽणाभोगेणं.सहसा,गारेणं महत्तरागारेणं,सव्व,समाहिवत्तिया,ऽऽगारेणं,वोसि('रइ)रामि । देशाव
देसावगासिअं (थोडी छूटवाली) (नव)भोगं (खाने-पीनेकी) परिभोगं (ओढने पहरनेकी चीजोंकुं)पच्चख्खा (मि)इ काशिक
अन्नत्थ ऽणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारणं सव्वसमाहि वत्तियागारेणं, वोसि(रामि)रइ ।। पोरिसी 5 * नग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं, पोरिसी (पहोरतक),साढपोरिसी (डेढ पहोरतक), मुठ्ठिसहियं पच्चख्खा(इ)मि।
साढपोरिसी
१ दो घडी दिन चढे बाद नवकार गिणु वहांतक । २ नवकार गिणके मुठि खोलुं वहांतक । ३ दाल-भात-रोटी आदि। ४ खजुर-द्राख आदिका पाणी । ५ फल-मेवा आदि । x दूसरेकु पचख्खाना हो तो 'पञ्चख्खाइ' बोलना। ६ शृंठ-कालामरी-इलायची-लविंग-सोपागीआदि। ५ किया पञ्चसखाण भूल जानेसे । ८ वर्षाद पड़ते हुए पाणीके छांटे मुखमें पडजावे अथवा अन्य कोई काम करते हुए खाने पीनेकी कोइभी चीज आपोजाप उछलके मुखमें पड जाय तो भी पचरुखाण भांगे नहीं।९पोरिसी आदि पचरूखाणोसे भी अधिक निर्जराका हेतु और दुसरेसे नहीं बनसके वैसे तीर्थ संघ सेवा आदि मोटे कामके लिये आचार्यादि। १० पञ्चख्खाण करे बाद अकस्मात् उत्पन्न हए रोगादिकी शांतिके वास्ते दवा आदि लेना,इन सब आगार(छट)से। दूसरोंको पाख्खातेहए 'बोसिरद' बोलना। चउदे नियम चितारने वालेने छटी रखी हुइ चीजोंके शिवाय दूसरी सब चीजें इन चार आगारोंसे वोसिराताहै 1 नवकारसी पोरिसी आदि साथही पञ्चख्खानाहो तो उग्गाए मरे से बोलना,अन्यथा पोरिसी आदि जो करानाहो वहाँ('पोरिमी आदि) में बोलना ।
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नग्गए सरे चनव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्न (प्रच्छन्न-छाने) कालेणं (कालसे) दिसामोहेणं (दिशाके मोहसे२) साहुवयणेणं (साधुके वचनसे) महतरागारेणं. सव्व समाहि वत्तियागारेणं वोसि(रइ)रामि ।।
सूरे नग्गए पुरिम(पहलेके)ऽड्ढं (आधे दो पहर तक) अवऽड्ढे" (पीछले आधे-३ पहर दिन बीतने-तक)मुठिसहिअंई अवट्टम मूठसी
पच्चख्खा(इ)मि चनव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइम,साइमं,अन्नत्थ ऽणाभोगेणं सहसागारेणं
पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तियागारेणं वोसि(रइ)रामि।। निवि नग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं पोरिसी साढपोरिसी मुठ्ठिसहि पञ्चख्खा(इ)मि,नग्गए सूरे चनव्विहंपि
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एका
21 वादलोंसे धूलसे या पर्वत आदिसे ढंकाहुआ सूरज न दीखनेपर अधूरी पोरिसीकुं पूरी मानके पालकर आहार करले तोभी पञ्चख्खाण भागे नहीं,आधा खाये वादभी खबर सणा पडे तो ठटरजावे,वाकीका आटा पोरिसी परीहए बाद खावे. इसीतरह दूसरे आगारोंमेंभी समझना । २ भूलके पूर्वक पधिम समझले। ३ उग्घाडा पोरिसी भणानेहए साधुओंके विया
मुखसे 'उग्घाडा पोरिसी' इस पदमै रहा 'पोरिसी' शब्द सुणके पोरिसी पूरी हुइ समझले और आहार करने लगजाय तो ठहरना आदि उपरकी तरह । दोनं एक साथ पच्चखाने सणादि
हो तो पुरिमड्ढ-अब दोन बोलना, अन्यथा जो पञ्चख्खाना हो वह पद बोलना, दूसरा छोडदेना । ४ नवकार सी आदि जिससे एकासणा आदि करनाहो वह पद बोलना बाकीके छोडदेना, यदि पुरिमड्ढ या अबड्डसे करना हो तो 'मरे उग्गए पुरिम९' आदि उपर लि वे मुजब 'सयसमाहि वत्तियागारेणं' तक पहले बोलके पीछे 'एगासण' आदि बोलना ।
॥६॥
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आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं,अन्नत्थ ऽणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहु । वयणणं महत्तरागारेणं सव्व समाहि वत्तियागारेणं विगइओ निव्विगइयं(निधि)पच्चख्खा(इ)मि,अन्नत्थ
ऽणाभोगेणं सहसागारेणं लेवाऽलेवेणं (लेप अलेपसे) गिहत्थ संसठेणं (गृहस्थ संसृष्टसे २) नख्खित्त (उपर पडी . या उपर रखीको)विवेगेणं (त्यागनेसे३) पडुच्च (प्रतीति करके) मख्खिएणं(चोपडेसे ४) पारिठ्ठावणिया (परठवने योग्यके)
ऽऽगारेणं (आगार-छूट-से ") महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तियागारेणं । *एगासणं (६ एकासणा) बियासणं है ( चियासणा) एगठ्ठाणं (८ एगठाणा) दत्तियं(परिमाण) पञ्चरुवा(इ)मि,तिविहंपि, आहारं, असणं खाइमं साइम
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+ बहुत विगइयां त्यागनेका यह पाठहै, परंतु एक विगइ त्यागर्नमें 'विगइयं बोलना । । त्यागी हुइ विगइके लेपवाली कुरछी-वाटकी आदिकु हायसे लूसके उससे दिया आहार
लेनेसे । २ गृहस्थने विगइसे थोडी (लेशमात्र) सरडी हुइ वाटकी या कुरछी आदिसे दिया आहार लेना (प्रव०पत्र ४५)।३ रोटी आदिके उपर रखे हुए मुक गुड सकर आदि 卐 उठानेपर उनका स्वाद जिसमें न रहा हो वैसी रोटी आदि लेनेसे। ४ बिल्कुल लूखेकी प्रतीति करके रोटी आदिक नरम रखनेके लिये पिघले घी या तेलकी अंगुलीसे के
बहुत कम चोपडी, अर्थात् चीकणाश बिल्कुल मालूम न पडे बैसी रोटी आदि लेनेसे। ५ वधारका आहार परठवना पडता हो तो उसमें अधिक दोष है और खालेनेमें ॥६६॥
आगमरीतिसे गुणका संभवहै, वास्ते वधा हुआ आहार गुरुआदिकी आज्ञासे खानेमें पचरूखाण भंग नहीं होता, ये पांच आगार साधुओके वास्ते ही है (प्रत्या० भा०पृ० ६२) THE *एकासणादि जो पचरूखाण करना हो वह पदवोलना दूसरे छोड देना । ६ स्थिरतासे एक आसनपर बैठके एकवेला जो खाना वह । ७ इसी तरह दो बेला खाना बह । ८ एकही जस्थानपर अंगोपांगका रखना है जिसमें अर्थात् मुख तथा हाथको छोडके सब अंगोपांग बैठते समय जैसे रखे पैसेही रखना जराभी नहीं हिलाना वह ४दुविहार ने चोविहार भी होसके
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णकेज
अन्नत्थ ऽणाभोगेणं सहसागारेणं सागारियागारेणं ( गृहस्थके आगारसे) आनंटण (पग आदि भेले करने) पसारेणं(पसारनेसे) गुरु(गुरुके) अभुठ्ठाणेणं (अभ्युत्थानसेः)पारिठ्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहि
वत्तियागारेणं वोसि(रइ)रामि ४।५।६।तिविहार एकासणादिमें "पाणस्स लेवाडेण" के ये छ आगार साधु पञ्चरूखे, श्रावक नहीं पाणस पाणस्स(पाणीके।) लेवाडेण(लेपवाले )वा(अथवा)अलेवाडेण वा(नहीं लेपवाले ग्या)अच्छेण वा(स्वच्छ-निर्मल या)बहलेण, भलेवाडे
१ आहार करते समय कोइ गृहस्थ आजाय तो वह गृहस्थ यदि थोडीही देर टहरनेवाला हो तवतो उतनी देर खाना बंद रखे, परंतु अधिक देर ठहरनेका हो तो वहांसे आगार
ऊठकर दूसरी जगह जाके आहार करनेसे पञ्चख्खाण भंग नहीं होता, इसीतरह सर्पका आना, आगका लगना, पाणीकी रेलका आना तथा अकस्मात घरका पडना आदि उपद्रवोंसेभी ऊठके अन्यत्र जा सकताहै । २ एकठाणेके पच्चस्खाणमें 'आउंटणपसारेणं' यह पद नहीं बोलना। ३ अपने गुरु आचार्यादि तथा पाहुणे(साधु) के सत्कारके लिये खाते हुए (चाहे एकासणा-आयंबिल आदि हो तो) भी आसन छोडके खडे होजाना, इसमें एकासणे आदिका भंग नहीं होता । ४ बृहत्कल्प भाध्यमें पाठ “एएछ आगारा-साहणं, न पुण सट्टाणं" इति, संवत् ११८३ में बने हुए 'प्रत्याख्यान भाप्य' की टीकामें पाठ "एते पानकाकारा यतीनामेव, नतु श्राद्धानां, न खलु श्राद्धाः सर्मविरतप" इति । १ ये छ आगार तिविहार एकासगे आदिमें लेने केह, बहभी केवल साधुके वास्ते है, श्रावकके वास्ते नहीं, क्योंकि श्रावक सर्व विरति नहीं है, जैसे रात्रि दिवसचरिम तिविहार करके पाणी पीनेवाले गृहस्थ "पाणस्स लेवाडेण" (खजुर-कांजी-आटे आदिके लेपवाले पाणी केक ॥६७॥ आगार नहीं लेते, बैसेही दिनमेंभी नवकारसी पोरिसी एकासणा आंबिल उपवास आदिका तिविहार पचख्खाण करनेवाले गृहस्थोंको “पाणस्स लेवाडेण" के आगार नहीं लेने । २ चिकणासके कारण जो वासण आदिम चोटजावे, वैसे खजुर द्वाख आदिके पाणीसे। ३ चिकणास रहित कांजी साबुदाणे आदिका धोवण तथा छासकी आस आदि । ४ तीन उकालेका निर्मल उन्हा पाणी, वा अन्य किसी चीजसे वर्ण बदला नितराहुआ फासु पाणी ।
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वा (बहुत लेपवाले या)ससित्थेण वा (आटे आदिके कणिये सहित या)असित्थेण वा(कणिये रहितः) वोसि(रइ)रामि। आंबिल उग्गए सूरे नमुक्कारसहि पोरिसिं साढपोरिसिं मुठिसहिअंपञ्चख्खा(इ)मि। उग्गए सूरे
चउव्विहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थ ऽणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसा
मोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं । आयंबिलं(एक अन्न दूसरा जलसे आयंबिल) # पञ्चरुखा(इ)मि, अन्नत्थ ऽणाभोगेणं सहसागारेणं लेवालेवेणं गिहत्थसंसठ्ठणं उख्खित्तविवेगेणं
पारिठ्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेणं एगासणं पञ्चख्खा(इ)मि, तिविहंपि आहारं, असणं खाइमं साइमं, अन्नत्थ ऽणाभोगेणंसहसागारेणं सागारियागारेणं आउंटण पसारेणं १ तिल चावल तथा जब आदिका बहुत लेप वाला डोला धोवण । २ आटेसे खरडे हाथ या वामणका धोवण, जिसमें आटेका किंचित रेसाहो । ३ आटेसे खरडे हाथ वासण आदि धोके कपडेसे छाणा हुआ धोवण, जिसमें आटेका रेसा न हो, इभ आगारोंसे। - आयंबिलमें नीरस आहार लियाजाताहै, चावल उडद तथा सन् इनमेंसे एक 5 अन्न दसग जल से इस प्रतको करनेका आवश्यक वृत्त्यादि शास्त्रोंमें लेखहै। 'प्रत्याख्यान' चूर्णमि गाथा-" जावइयं उवजज्जइ, तावडअं भायणे गहेऊणं ।
जलनिब्बुड्डं काउ, भुत्तव्वं एस इत्थ विही ।" ' महानिशीथ ' सूत्रमें और चूर्णमि-'दोहिं दब्बेहिं अविलं" इति, श्री जिनदत्तमरिजी महाराजकृत 'संदेहदोलावली' प्रकरणमें गाथा-" गिहिणो इह विहिआयंबिलस्स कप्पति दुन्नि दव्वाई। एगं समुचियमऽन्नं, बीयं पुण फामुयं नीर।१।"
555555फफफफफफफफफफफफफफा
॥६॥
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६७
# गुरुआभुट्ठाणेणं पारिठ्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहि वत्तियागारेणं, वोसि(रइ)रामि है चोविहार सूरे उग्गए आभत्तऽठं (१ उपवास)पञ्चख्खा (इ)मि, चउव्विहंपि आहारं, असणं पाणं खाइम,साइमं. उपवास अन्नत्थे, 'ऽणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तियागारेणं, वोसि(रइ)रामि। तिविहार सूरे उग्गए आभत्तऽठं पच्चख्खा (इ)मि, 'तिविहंपि आहारं, असणं खाइमं साइमं. ५अन्नत्थ उपवास ऽणाभोगेणं सहसागारेणं पारिठ्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहि वत्तियागारेणं, पाणहार
पोरिसिं साढपोरिसिं मुठिसहिअं 'पञ्चख्खा(इ)मि, अन्नत्थ 'ऽणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्न कालेणं
दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तियागारेणं, वोसि(रइ)रामि ।८। भवच- भवचरिमं पच्चख्खा(इ)मि तिविहं चउविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्यऽणाभोगणं रिम
६८
5 * सवेरे तिविहार उपवासका पचरूखाण लेके जिसने दिनभर पाणी नहीं पीयाहो वहभी संध्याको यह चोविहार उपवासका पञ्चख्खाण लेवे । x आवश्यक सूत्रमें इस उपवासके
पञ्चख्खाणमें “अभ्भत्त"ही पाठ हैं, वह ही तपचीतवनमें जो चिंतवा. नित्य उपवासके पश्चख्खाणमें बोलनेका है, “चउत्थम-छाभत्त-अमभत्त-चउत्तीसमभत्त" इत्यादि पूरे दिनोंसे होते हैं, दिन पूरे न हो तो भंग हो, वास्ते और कल्प सूत्रोक्त छठ आदिके योग्य पाणी भी दूसरे दिन छठ तीसरे दिन अठ्म इत्यादि यथार्थ होनेसे ही पीवाय, इस लिये वह छा आदि पहले दिन बोलना यथार्थ नहीं है। १ अभक्ताथ-आहारके प्रयोजनका निषेधहै जिसमें, वह उपवास एक एक करना ।
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ई सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहि वत्तियागारेणं वोसि(रइ)रामि। दो आगारकाभी होताहै। गंठसी । गंठिसहिअं' (गांठसहित) मुठ्ठिसहिअं अंगुठ्ठसहिअं (अंगुठि सहित) अभिग्गहं (धारणा मुजब) पच्चख्खा(इ)मि, आदि अभिग्रह अन्नत्थ ऽणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तिया ऽऽगारेणं वोसि(रइ)रामि।
दो ,निश्चय,नवकारसीमें । आगार(छूट), छ, तथा, होते हैं, पोरिसीमें। सातही',और, पुरिमट्टमें। एकासणे, आठही। पञ्च- दो, च्चेव.नमक्कारे। आगारा, छ,'च, हुंति, पोरिसिए॥ सत्तेव, य,पुरिमढे ।“एगासणयंमि, अठेव ।। आगार सात एकठाणेके, और। आठही,तथा, आंबिलमें, आगार हैं। पांचही, उपवासमें। छ',पाणी में,चरिममें, चार १२।२। संख्या सत्तेगठ्ठाणस्स. 'न। अठेव, य.अंबिलम्मि. आगारा॥ पंचव, आभत्तठे। छ. प्पाणे, चरिम,चत्तारिश
पांच ३, चार, अभिग्रहीं। निविमें, आठ, या नव१४, आगार। अप्रावरण में, पांच,और। होते हैं, बाकीरहे। में,चार । पंच,पनरो, अभिग्गहे। निविए.अठ्ठ, नव य आगारा॥ अप्पावरणे,पंच,न। हवंति. सेसेसु,चत्तारि
ख्खाण
655555555555555555
||७०॥
१ गंठसी. आदि जो अभिग्रह पचरुखाण करना करानाहो वह बोलना. बाकीके छोडदना। २ अन्न सह ।३ अम. सह. पच्छ दिसा. साह. सव्य० । ४ अन्न - सह पच्छ० दिसा० साहु मह. सब्द । ५ अन्न सह. सागा० आउं० गुरु. पारि०मह० सब्ब०। ६ अन्न सह. सागा० गुरु. पारि० मह० सब्ब० । ७ अन्न
सह. लेवा० गिह उख्खि० पारि० मह० सब। ८ अन्न सह पारि० मह० सब्ब० । ९ लेवाडे. अलेवा० अच्छे० वह० समि० असि० । १. 'पाणम्स
लेवाडेण" के पाठ । ११ दिवस या भव । १२ अन० सह मह० सब्ब०१३ अन० सह मह० चोलपट्टागारेण सब्ब०, या चोलपकार को छोडके बाकी रहे - चार ! १४ अन० सह० लेवा• गिह उख्खि पडु० पारि० मह० सव्व०, ये नव तेल आदि रस रुप विगय त्यागमें है, मुक्के गुड आदिविगय त्यागमें उख्खि० को छोडके वाकीके आठ है। १५ साधुओंको कपडे न ओढनेके अभिग्रह । १६ अभिग्रहों ।
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पञ्च- 'नग्गए सूरे नमुक्कारसहि पोरिसी साढपोरिस सूरे नग्गए पुरिमड्ढ अवड्ढ, मुठ्ठिसहि पञ्चख्खाण पालनका कीधो चोविहार, एकासणो ,बियासणो,आंबिल एकासणो,निविएकासणो,एकठाणो,कीधोतिविहार, भावना 'चोविहार पच्चख्वाणफासिय(फरसाहो)पालियं ( पालाहो)सोहियं (शोभायाहो)तीरियं ('तोरित कीयाहो) किट्टियं ।
७३ (१°कीर्तन कीयाहो )जंआराहियं(जो आराधाहो)जं (जो)च (और)न आराहियं(नहीं आराधाहो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। तिविहार सूरे नग्गए पच्चख्खाण कयुं तिविहार, पोरिसी साढपोरिसी पुरिमड्ढ अवड्ढ मुठिसहि पञ्चख्खाण उपदास पालनेकी कर्यु पाणाहर. पच्चरख्खाण फासियं पालियं० इत्यादि। *मुठ्ठिसहिअं पच्चख्खा(इ)मि० भावना
फफफफफफफफफफफफफमा
१ नवकारसीये लेके आंबिल एकठाणे तकके सब पचख्खाण पालनेकी यह भावनाहै । २ जो पचख्खाण किया हो उनका नाम लेके पञ्चरूखाण पालना । ३ यदि एकासणा 卐 बिवासणा आदि न होवे तो इसके आगे ‘पचरुखाण फासिवं पालिय' आदि वोलंदेना। ४ इन एकासणे आदिमसे जो कियाहो उसका नाम बोलना, बाकीके छोडदेना।
५ ये एकासणा आदि पञ्चख्खाण यदि तिविहार कीये होती चोविहारका नाम नहीं बोलना, यदि चौविहार किया होतो तिविदारका नाम नहीं बोलना । ६ "दिनका पूर्वभाग P आदि पारखाण लेनेके उचित कालमें गुर्वादिके साथ साथ खुदभी मनमें उच्चारण करना आदि विधिसे लेके । ७ ग्रहण कियाहुआ पचख्खाण हमेशां वारंवार उपयोग
रखके किसी प्रकार न भूले वैसे। ८ गुरुमहाराजको दिये बाद शेष यचंहुए आहारका सेवन करके। ९ नवकारसी पोरिसी आदि अपने किये पञ्चख्खाणकी मर्यादा पूर्णहोजाने ज परभी कल्याण की भावनासे थोड़ी देर टहरके तीर(कीनारे)पहूंचानेसे। 10 आदार करनेको बैठते समय मैंने नवकारसी आदि अमुक पचख्खाण कियाहै,वह पूरा हो चूका
वास्ने अब मैं आहार करंगा' ऐसा कहके"। x पंचवस्तुक टी० पत्र ९१: मूठसी पचरूखाण किया होतो पालनेमें "मुहि सहियं पचख्खाण फासियं पालिय०"इत्यादिवोलना।
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पाणहार
दिवस
चरिम
चोविहार
७५
दुविहार
७६
थंडिला पडिले
हण
पाणऽऽहार (पाणीका आहार) 'दिवसचरिमं (दिवसके पिछले भाग में) पच्चख्खा (इ) मि, “अन्नत्थ ऽणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहि वत्तियागारेणं, वोसि (रइ) रामि ।
'दिवसचरिमं पच्चख्खा (इ) मि, चनव्विपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं 'अन्नत्थ 'Sणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तियागारेणं, 'वोसि (रइ) रामि । ९ ।
दिवसचरिमं पच्चख्खा(इ) मि* दुविहंपि आहारं असणं खाइमं अन्नत्य ऽणाभोगेणं सहसागारेणं रात पोषाती तथा साधु थंडिला पडिलेहे । महत्तरागारेणं सव्व समाहि वत्तियागारेणं वोसि (रइ) रामि । आगाढे', आसन्ने', उच्चारे, पासवणे, अणऽहियासे |१| आगाढे आसन्ने पासवणे अणहियासे । २। आगाढे मज्झे, उच्चारे पासवणे अणहिया से । ३ । आगाढे मज्झे पासवणे अणहियासे |४| आगाढे दूरे"
७७
+ रात्रिमें सचित (कच्चा) पाणी पीनेवाले गृहस्थोंको दुविहारका ही पञ्चख्खाण लेना चाहिये, क्योंकि जसे एकासणा विद्यासणा आंबिल उपवासादिमें तिविहार पञ्चख्खाण १ रोगादि करनेवालोंको दिनमें सचित्त पाणी पीना नहीं कल्पताहै वैसेही दिवसचरिम तिविहारका पञ्चखाण करनेवालों को रात्रिभी सचित्त पाणी पीना नहीं कल्पता । जरूरी कारणे । २ नजीकमें. याने संधारेके दोनुं पसवाडे. पहेले के छ मांडले धारने ३ टोहे ४ मातरेकी भूमि ५ नहीं सहने में उठना हलना फिरना नहीं बन सके वैसी हालत में । ६ बीचमें ७ संथारेसे कुछ दूर ।
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उच्चारे पासवणे अणहियासे ५ आगाढे दूरे पासवणे अणहियासे ६ आगाढे आसन्ने नच्चारे पासवणे' अहियासे ७ आगाढ आसन्ने पासवणे अहियासे ८ आगाढे मज्झे उच्चारे पासवणे अहियासे ९ आगाढे मज्झे पासवणे अहियासे १० आगाढे दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे११ आगाढे दूरे पासवणे अहियासे १२ अणागाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे' अणहियासे १३ अणागाढे आसन्ने पासवणे । अणहियासे १४ अणागाढे मज्झे उच्चारे पासवणे अणहियासे१५ अणागाढे मज्झे पासवणे अणहि. यासे १६ अणागाढे दूरे उच्चारे पासवणे अणहियासे १७ अणागाढे दूरे पासवणे अणहियासे १८ अणागाढे 'आसन्ने उच्चारे पासवणे 'अहियासे १९ अणागाढे आसन्ने पासवणे अहियासे २० अणागाढे मज्झे उच्चारे पासवणे अहियासे २१ अणागाढे मज्झे पासवणे अहियासे २२अणागाढे १ थोडी शक्तिवालाहो ऊठने बैठने आदिके परिश्रमको सहन करसके तो ये से लगाके १२ तकके छ मांडले उपासरेके दरवाजेके अंदर डाबी तथा जीमणी तरफ
धारने चाहिये। २ रोगादि जरूरी कारण विना। ३ उपासरेसे बाहर नजीक । ४ थोडि अशक्तिवाले हो ज्यादा दूर जाने आनेके परिश्रमको नहीं सह सके तो ये १२ सेज लेके १८ तकके छ मांडले उपासरेसे बाहर धारने । ५ उपासरेसे बाहर सो हाथ तककी पडिलेही हुइ भूमिमें नजीक । ६ अधिक शक्ति हो. दूर जाने आनेके परिश्रमको सह सके तो ये १९ से लगाके २४ तकके छ मांडले धारने चाहिये ।
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नवकार
स्तुति
दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे २३ अणागाढे दूरे पासवणे अहियासे २४। गोचरी पडिक्कमु० १ नवकार काउस्सग्ग
कालग्रहण, गोचरचर्या गोचरि। थंडिल्ला, वस्त्र,पात्रोंकी पडिलेहणादि । संभालो, वह,साधु । जिसको, चाहे,जो, कुछ, अनुपयुक्त हो । लोगो कालो,गोअरचरिआ।थंडिल्ला,वस्थ,पत्त,पडिलेहा। संभरउ, सो,साहू।जस्सवे,'ज,किंचि,ऽणुवउत्त अरगाथा
देवसी पडिक्कमणेकी सरुआतमें जयतिहुअण. जय महायस० चैत्यबंदन नमुत्थुणं० अरिहंतचेइयाणं० अन्नत्थ० एक महावीर नवकार काउस्सग्ग, पालके नमोऽर्हत् पहली थुइ- मरति मन मोहन. कंचन कोमलकाय, सिद्धारथ नंदन.
त्रिशलादेवी सुमाय।मृगनायक लंछन.सातहाथ तनुमान, दिनदिन सुखदायक.स्वामी श्रीवईमान ।
लोगस्स० सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं० अन्नत्थ० १ नवकार काउस्सग्ग, दूसरी थुइ- सुरनरवर किन्नर. वंदित पद अरविंद, कामित भर पूरण. अभिनव सुरतरु कंद। भवियणने तारे. प्रवहण सम निशदीस, चोविसे जिनवर.प्रणमुं विसवावीस।। पुख्खरवर दीवडे०वंदणवत्तियाए० अन्नत्थ०१ नवकार काउस्सग्ग, तीसरी थुइ
अरथेकरी आगम.भाख्या श्रीभगवंत,गणधर ते गूंथ्या. गुणनिधि ज्ञान अनंत।सुरगुरु पण महिमा. ॥४॥ में कही न के एकांत समलं सखसायर. मनशुद्ध सत्र सिद्धात ।३। सिद्धाणं बुद्धाणं० वेयावच्चगराणं०
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अन्नत्थ० १ नवकार काउस्सग्ग, नमोऽर्हत् चोथी थुइ- सिद्धायिका देवी. वारे विघन विशेष, सह संकट
चूरे, पूरे आश अशेष। अहो निश कर जोडी. सेवे सुरनर इंद, जंपे गुणगण इम.श्री जिनलाभ८० सूरिंद।४। नमुत्थुणं कहे अथवा उपर लिखी चार थुइकी जगह नीचे लिखी थुइयोंमेंसे कोइभी एक थुइ चार वेला बोलनीवीर कल्याण ते श्रेयरूपे मानियाए. माता बे कूखे महावीर तो। सर्व जिन जननी कूखे ए. आव्या कल्याण स्तुति ME कल्याण तिम धार तो॥भांखी जिन पडिमा पूजा ए.ऋतुवंती न पूजे देव तो। जिन पूजती ऋतुवंती
थाय ए, पूजे न ते प्रभाविक देव तो ॥२॥ १ देवानंदाने प्रभु कुखमें आए कल्याण श्रेय माना स्वप्नहरणसे उदासीनतादि मोहसे हो उससे कल्याण श्रेयरूप गर्भका हरण वह त्रिशला कूखे संक्रामण गर्भपणे से धारण - अकल्याणरूप नहीं माना, जैसाकि वीर निर्वाणरूप कल्याण होनेसे नंदिवर्द्धन गौतमजी आदिको मोहसे दुःख उदासीनतादि हुआ उससे वीर निर्वाण अकल्याण नहीं माना । २ "पंच महाकल्लाणा (परम श्रेयांसि टीकामें), सव्वेसि जिणाण हवंति णियमेण । भुवणऽच्छेरयभूया, कल्लाणफला य जीवाणं । ३०"
पंचाशक पत्र १५७, सब तीर्थंकरोंके पांच महाकल्याण श्रेय होते हैं अवश्य नियमसे जगतमें आश्चर्यरूप जीवोंको कल्याण फलवाले हो, इससे सब तीर्थंकरोंके च्यवन + अवतरण गर्भसंक्रमण गर्भधारण यह कुच्छ फरकसे झुदेजुदे नामसे एक महाकल्याण श्रेय शुभरूप ही नियमसे मानाहै,वैसा श्रीवीरका च्यवन अवतरण गर्भहरणही गर्भसंक्रामण के गर्भपणे धारण भी एक महाकल्याण श्रेयरूप ही मानाहै, अकल्याण अश्रेय अशुभ नहीं माना,और जन्म दीक्षा केवलज्ञान निर्वाण महाकल्याण माने गर्भनीच अपसद केना निंदाहै ।
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वीर च्यवन अवतरिया बे कूखे .गर्भधारणादि कल्याण जी.सवि जिन च्यवन. अवतरकुंकूखे. कल्याण गर्भधारणादि कल्याण जी। भारव्यु इंद्रे कूखथी.कूखे गर्भधारण.श्रेय त्रिशलाए कल्याण जी. उत्सवे
। देववंदन. धनादि वर्षाए. इंद्रादि न मान्यु. अकल्याण जी।१॥ वीर वीरं देवं नित्यं वंदे १ जैनाः पादाः युष्मान् पातु २ जेनं वाक्यं भूयाद्भूत्यै ३सिद्धा देवी दद्यात् सौख्यं४
x "क्षत्रिय कुंडमां अवतर्योः” प्रविजयजी कृत महावीर चत्यवंदनम, "अवयरण जम्म निख्खमण,नाण निव्वाण पंचकल्लाणे । तित्थजयराणं नियमो, करंति ऽसेसेसु खित्तेमु।" जिनभद्रीय बृहत्संग्रहणी पत्र ८८. "गभ्भे (गर्भाधाने टीका) जम्म य तहा, णिरूखमणे चेक
णाण णिव्वाणे। भुवणगुरूण जिणागं, कल्लाणा होंति णायव्वा ।३१॥" पचाशक पत्र १५७,जिन अवतरण गर्भधारण श्रेय कल्याण फल जीवोंको माना है, ॐ "तं सेयं खलु ममवि समणं भगवं महावीरं देवाणंदाए माहणोए० कु च्छीओ० तिसलाए खत्तियाणीए. कुच्छिसि गभ्भत्ताए साहरा
वित्तए० के मन्ने कल्लामे फल." कल्पसूत्र, त्रिशलाकूखे महावीर अवतरिया, गर्भपणे धारण करनेकी आसोज बदि १३के दिन इंद्रने नमुत्थुणंसे देववंदन धनादि वर्षारूप उत्सव किया। वीर च्यवनमें देवानंदा कूखे अषाढ सुदि ६ कल्याण गर्भधारणमें उत्सव नहीं हुआ तीर्थंकरोंके निर्वाणमें अंधेग होता है ऐसा ठाणांगसूत्रमें है अकल्याण नहीं. "अकल्याणकभूतस्य गर्भापहारस्य"(कि०) "नीचैर्गोत्रविपाकरूपस्य अतिनिद्यस्य"(मु०)"करोषि श्री महावीरे, कथं कल्याणकानि षट् । यत्तेष्वेकमऽकल्याणं, विप्रनीचकुलत्वतः।।"श्रीमहावीरैम ब्राह्मणनीच कुलपणेसे एक अकल्याण,गुरुतत्त्व प्रदीप । यह पंचाशक कल्पसूत्रसे विपरीत प्रभुके अमर्णवावहै ।
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पज्जु
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स्तुति
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वीरेसित्तर छोडि.अंदर पचासे कही.संवच्छरी उपर नहीं कल्पे जी, सर्व तीर्थंकर, दिन पक्ष मास वर्ष, अधिक गिनतीमां जल्पे जी। ज्योतिष करंड. सर चंद पन्नत्तीए. चूर्णिए भाँखे जिनभाणजी, १ श्री कल्पसूत्र समाचारिमें “तेणं कालेणं० समणे भगवं महावीरे रायगिहे नयरे० एवमाइख्खइ० उवदंसेइ x x सवीसइराए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसवेमो, अंतरावि य से कप्पइ, नोसे कप्पइ तं रयणि उवाइणावित्तए" (दे० ला० कल्प० पत्र ५९) "अभिवढियमि वीसा (२०), इयरेसु सवीसइ मासो (५०)" कल्पनियुक्ति । "अभिवढियवरिसे (२०) वीसतिराते गते गिहिणातं करेंति, तिमु चंद धरिसेमु (२०) सवोसतिराते मासे गते गिहिणात करेति" निशीथचूनि । “यत्पुनरभिवाद्धतवर्षे दिनविंशत्या पर्युषितव्यमित्युच्यते तन्सिद्धांत टिप्पनानुसारेण, तत्र हि युगमध्ये पौषो युगांते चाऽऽषाढ एव वर्दूते, नाऽन्ये मासास्तानि च टिप्पनानि अधुना न सम्यगज्ञाचंतेऽतो दिनपंचाशतैव पर्युषणा संगतेति वृद्धाः" कल्पसूत्रावचूरि "अभिवविय संवच्छरस्स छब्बीसाई पब्वाई(पख्खाई" रद्रप्रज्ञप्तिसूत्र, "गोयमा! एगमेगस्स परखस्स धन्नरस दिवसा पन्नता" जबूदीप-सूर्य-प्रज्ञप्तिसूत्र, “ अहिगा मासा अहिगा संबच्छरा य कालमि" दशवेकालिक नियुक्ति, "एत्य अधिमासगो चेव मासो गणिज्जति, सो विमाए समं वीसतिरातो भण्णति चेव" बृहत्कल्पचूर्णि, तीज तूटे तेरस बधे (अधिक हो तो प.ली और दूसरी उस तेरम अधिक तिथिको पाक्षिक प्रतिक्रमणमें एक पक्ष १५ रात्रिदिनकी गिनतीमें देवे, जैन पंचांगमें सर्व तीर्थकरोंने १५ दिनका पक्ष मानाहै, वास्ते. लोकिक वैष्णव पंचांगमे १३-१४-१६ दिनके पक्ष होतो आगे या पीछे 1४ दिनके पक्षमें वह १ अधिक तिथिका दिन परूखी पडिकमणेमें सब गिनतीही ले इसीतरह चेमासः संवच्छरी पडिवणे भी अधिक दिन पक्ष मास गिनतीमें लेतेहैं, ६० वर्षे अधिक संवच्छ भी सब गिनती में लेते है उपर पाठ प्रमाणे जाणना।
॥७७॥
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८४ सिद्ध
चक्र
श्रुतदेवी शुद्ध, बुद्धि देवे. श्रीजिनवचन प्रमाण जी ॥१॥
वं, सिद्धचक्रे. पंच परमष्ठिने.साधुपद कालु राख्युंजी,वंदु नवपद साधु. नहीं गांठ दसी 'ओघो. स्तुति
पातरं कालु राख्युं जी'। वंदं नवपद साधु. चउदे उपगरणे. झोली जीवजतनाए भाँखी जी.ओघ
नियुक्त्यादिमां. नहिं मिथ्या चक्केसरी ! यो मति कृपा राखी जी।। अष्टमी चउवीसे जिनवर, प्रणमुं हूं नितमेव ।आठम दिन करिये,चंद्रप्रभुजीनी सेव॥ मूरति मन मोहे, स्तुति
जाणे पूनम चदं। दीठां दुख जाये, पामे परमानंद॥१॥ मिल चोसठ इंद्र, पूजे प्रभुजीना पाय। १ "अग्गंथिला दशिका" नहीं गांठवाली ओघेकी दशियां, छपि ओधनियुक्ति पत्र २१४ । २ गड्डि आवइणा अणुनाए सति लेवो गहेयब्वो" ("गाडिपतिकी आज्ञा होनेपर लेप-पडेभेका काला कीट-ग्रहण करना" ओघनियुक्ति पत्र १४०) इससे पूर्वकालमें साधु गाडिके पैडेका काला कीट ग्रहण करते और उससे सपातरे रंगतेथे इसलिये पूर्वकालमें साधुओंके पातरे काले रंगके होतेथे । ३ "पत्ताबंधो, पात्रबंधो,येन पात्रं धार्यते बखखंडेन चतुरस्रेण" (पात्रबंध-झोलि
वहहै, जिस चौखुणे वखखंडसे पातरे धारण किये जाते है" छपा प्रव. पत्र 1१८, ओघनि० पत्र २०८) "प्रयोजनं तु पात्रबंधपात्रस्थापनयो रजःप्रभृति रक्षणं xx उक्तं च-'रयमाइ रख्खणहा पत्ताबंधो (सचित्त रज तथा जीव आदिको बचानेके लिये पात्रबंध-झोलि-है' प्रव० पत्र १२०) इससे काष्ठ. पात्रकी तरह तुबपात्र तथा महिपात्र (घडा कीभी झोलि सचित्तरज जीवादिकी रक्षाके प्रयोजनसे है।
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॥७॥
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इंद्राणी अपछरा, करजोडी गुणगाय ॥ नंदीश्वर द्वीपे, मिल सुरवरनी कोड। अठाही महोच्छव, करता होडाहोड ॥२॥ सेर्बुजा शिखरे, जाणी लाभ अपार।चोमासे रहिया, गणधर मुनि परिवार। भविपणने तारे, देइ धर्मउपदेश। दुध साकरथी पिण, वाणी मीठी विशेष ॥३॥ पोषो पडिक्कमणो, करिये व्रत पचख्खाण । आठम तप करतां, आठ करमनी हाण ॥ आठ मंगल थाये, दिनदिन कोडि कल्याण । जिन सुखसूरि कहे इम.शासनसुरी सुजाण ॥८॥ वैठके नमुत्थुणं कहे एक एक खमासमणेसे में वांदे आचार्यमिश्रं १ उपाध्यायमिनं २ वर्तमान गुरुन् ३ सर्वसाधुन् ३, मस्तक नमाके हाथ थापके “सव्वस्स वि देवसिय दुचिंतिय दुम्भासिय दुच्चिट्ठिय मिच्छामि दुक्कडं" करेमि भंते !० इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे देवसीओ० तस्स उत्तरि० अन्नत्थ० आजुना० वा ८ नवकारका काउस्सग्ग, पालके प्रगट लोगस्स, तीजे आवश्यककी मुहपत्ती पडिलेहण,२ वांदणा, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसियं आलोउं?, इच्छं आलोएमि जो मे देवसिओ' साधु 'ठाणे कमणे०' श्रावक 'आजुना० सात लाख० सव्वस्स वि०' नीचे बैठके नवकार ३ करेमि भंते !०३, साधुको चत्तारि मंगलं०, इच्छामि पडिक्कमिडं जो मे देवसिओ०, साधुको इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए० पगामसिज्जाए.' श्रावकको वंदित्तु, वांदणा २, अभ्भुटिया, २ वांदणा देवे। आयरिय उवज्झाए हाथ जोडके कहके चारित्र विशुद्धि निमित्त करेमि भंते !० इच्छामि ठामि का उस्सगं जो मे देवसिओ० तस्स उत्तरि० अन्नत्थ० २ लोगस्स वा ८ नवकारका काउस्सग्ग करे, पालके दर्शनविशुद्धि निमित्त लोगस्स० सयलोए अरिहंत चेइयाणं बंदण अन्नत्थ०, १ लोगस्स
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श्रुतदेवी
स्तुति
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क्षेत्रदेवो
वा ४ नवकार काउस्सग्ग, पालके ज्ञानविशुद्धि निमित्त पुख्खरवर दोबढे वंदण. अन्नत्थ० १ लोगस्स वा ४ नवकार काउस्सम्ग, पालके सिद्धागं बुद्धाणं० मुअदेवयाए करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०,१ नवकारका काउस्सग्ग, नमोऽर्हत थुइ सुवर्ण०,खित्तदेवयाए करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०,१नवकारका काउस्सग्ग, नमोऽहंत्यासां० थुइ उपर नवकार १,छठे आवश्यककी मुहपत्ती पडिलेहे, २ वांदणा, इच्छामो अणुसष्टिं नमो खमासमणाणं नमोऽर्हत्०, बैठके नमोऽस्तु वर्द्धमानाय० नमुत्थुणं से नमोर्हत० तक स्तवन वडा कहे ॥ ___ सुवर्णसे, शोभित, दो। बारे अंगवाली, जिनसे उत्पन्न हुइ। श्रुतदेवो, सदा, मेरेकोसंपूर्ण श्रुत(ज्ञान)की,संपदाकुं ॥१॥
सुवर्ण,शालिनी, देयात्। द्वादशांगी, जिनोद्भवा॥ श्रुतदेवी, सदा,मह्यमशेष,श्रुत, संपदा ॥२॥ जिन्होंके, क्षेत्रमें,गत(रहे), हैं । साधु(तथा), श्रावक आदि। जिनआज्ञाकुं, साधते हुए, वे। रक्षा करो, क्षेत्र देवतायें ॥१॥ यासां,क्षेत्र, गताः,संति। साधवः,श्रावकादयः॥ जिनाज्ञां,साधयंत, स्ता। रक्षतु, क्षेत्र देवता:।।
विहारादिमें एक मकानसे दूसरे मकानमें जाय उस दिन बोलनेकी यह थुइ है। चार प्रकारके, संघको। देवी, मकानमें, रहनेवाली २ करके, पापोंको, यह। करो. मुखकुं, अक्षय ॥१॥ 'चतुर्वर्णाय,संघाय। देवी, भवन,वासिनी॥ निहत्य, दुरिता,न्येषा। करोतु, सुख, "मक्षतं॥१॥
पख्खी चोमासी संवच्छरीमें श्रुतदेवो भवनदेवो क्षेत्रदेवीकी ये थुइयां बोली जाती है। १ सोने जसी शरीरकी कांतिसे या अच्छे अक्षरोंसे !
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॥८
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F कमल पत्र जैसे,विस्तीर्ण, नेत्रवालो। कमलजैसे,मुखवाली,कमलके,मध्यभाग,समान, गौरो । कमलपर, बैठीहुइ, पूजने योग्य। दो, कमल द- कमलदल,विपुल,नयना। कमल, मुखी,कमल, गर्भ, सम, गौरी। कमले,स्थिता.भगवती। ददातु, ल स्तुति श्रुनदेवी, सिद्धिकुं १॥
ज्ञानादि, गुणोंसे युक्त। स्वाध्याय, ध्यान, संजममें, रक्त। भवन- 'श्रुतदेवता,सिदि।१
ज्ञानादि,गुणयुतानां स्वाध्याय,ध्यान,संयम,रतानां वी स्तुति विशेष करो, मकानकी देवी। कल्याण, सदा, सब, साधुओंका ॥१॥ ९० विदधातु, 'भवनदेवी। "शिवं, सदा, सर्व,साधूनां ॥१॥
जिसके, क्षेत्रको,सम्यग् आश्रय करके । साधुओंसे,साधो जातीहैं,(स्व)क्रिया ।वा, क्षेत्रदेवता, हमेशां। होवो, हमको, मुखदेनेवाली ॥ क्षेत्रदेव- यस्याः, क्षेत्रं,समाश्रिय। साधुभिः, साध्यते, क्रिया॥सा,क्षेत्रदेवता. नित्यं । भूया, नः, सुखदायिनी ता स्तुति नमस्कार हो, वर्द्धमान स्वामीको। सामना करनेवाले, कौसे। उस(कर्म)के जयसे,प्राप्तहुए, मोक्षवाले । परोक्ष स्वरूपवाले,मिथ्यास्वीओंको ।
"नमोऽस्तु, 'वईमानाय। स्पर्द्धमानाय, 'कर्मणा॥ तज्जया,ऽवाप्त,मोक्षाय। परोक्षाय, "कुतीर्थिनां । बर्द्धमा- - जिनके, विकस्वर,कमलोंकी, श्रेणोने। प्रशंसनीय,चरण,कमलोंकी, श्रेणिकु,धारण करती हुइ । सरीखोंसे,ऐमा,मेलाप होना। प्रशंसायोग्य, नाय
'येषां, विकचा,ऽरविंद,राज्या। ज्यायः,क्रम,कमला,ऽऽवलिं, दधत्या॥ सदृशै,रिति. संगतं । प्रशस्यं.
१ गौर वर्णवाली । २ जिनका सामना कोइ न करसके वसे ।
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नमोस्तु
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# कहाहै, होवो, मोक्षके लिये, वे, जिनेंद्रदेव ।। कषायके, तापसे,पीडित,जीवोंको, शांति । करताहै, जो,जिनेश्वरोंके,मुखरूप, मेघसे. के कथितं, संतु, शिवाय, ते,जिनेंद्राः॥२॥ कषाय,तपा,ऽर्दित,जंतु,निर्वृतिः करोति, यो, जैन, मुखां,ऽबुदो, प्रगट हुआ। वह, जेठ, महिनेमें होनेवाली,वर्षाके, समान। धारण करो,संतोषकुं,मेरे उपर, विस्तार, वाणिका।३। श्वासोश्वासकी, दगतः।स,शुक्र,मासो,दभव, दृष्टि, सन्निभो॥दधातु, तुष्टिं, मयि, विस्तरो, गिरां॥३॥ ३श्वसित,
मुंदर, गंधसे, आसक्त हुइ,भमरीरूप,हरणवाले। मुखरूप, चंद्रमाको, हमेशा, धारण करती है,जो,धारण करती है। प्रफुल्लित,कमलको, सुरभि,गंधा, ऽऽलोढ, भुंगी, कुरंगं। मुख, शशिन, मजलं, बिश्नति, 'या. बिभर्ति। विकच,कमल, म ऊंचे प्रकारसे, वह, होवो, अचिंत्य प्रभाववाली। संपूर्ण, मुखको,करनेवाली, प्राणधारीओंको, २श्रुतदेवी ॥४॥
मुच्चै, "सा,ऽस्त्व, ऽचिंत्य प्रभावा। "सकल,सुख,विधातृ, प्राणभाजां, श्रुतांगी॥४॥
संसाररूप,दावानल स्के,तापको ,पाणोजैसे। मोहरूप,धूलको, हरनेमें, पवनतुल्य । कपटरूप,भूमिकुं,खेडनेमें, तीखे, हलजैसे । नमताहूं, संसार संसार".दावानल.दाह.नीरं। संमोह,धली, हरमो. समीरं। माया,रसादारण,सार,सीरं । 'नमामि,
वीर(प्रभु)कुं,मेरु पर्वत जैसे,धीरजवान् ।। भावसे नमे हुए, देव, दानव, मनुष्योंके,राजाके। मुकुटों मेंके,विशेष चपल, कमलकी, श्रेणीसे,
वीरं, गिरिसार,धीरं॥२॥'भावाऽवनाम,सुर, दानव,मानवे, न। चूला, विलोल, कमला, ऽऽवलि, फx छठे आवश्यकके बाद अंतिम मंगलके लिये तो तीनही गाथा कहनी परंतु देव बंदनमें थइयोंकी जगह चोथी गाथाभी बोलनेमें आसकतीहै। १ हरणका चिन्ह है जिसमें, 15
मे। चतरूप अंगवाली। वनमें लगी हुइ आग। ४शांत करनेकेलिये। *साध्वीयां तथा श्राविका 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय'की जगह 'संसार दावा'की तीन गाथा कहती है ।
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२॥
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शोभित। सम्यक् पूरे है, नमे हुए, लोगोंके,मनोवांछित जिन्होंने अत्यंत, नमताहूं, जिनराजके, चरणोंकुं, उन ।। ज्ञानसे, मालितानि।संपूरिता,ऽभिनत,लोक,समीहितानि। कामं,नमामि, जिनराज,पदानि, तानि ।। 'बोधा में गंभीर,सुंदरपद,रचनारूप,पाणीके,पूरसे, मनोहर । जीव रक्षारूप,नहीं विरली,लहरोंके, मिलनेसे,अगाध,प्रमाणवाले। चूलिकारूप,वेलावाले,
गाधं,सुपद,पदवी,नीर,पूरा,ऽभिरामं। जीवाऽहिंसा,ऽविरल,लहरी,संगमा,ऽगाह, देहं, । चूला, वेलं, मोटे अलावे रूप,रत्नोंसे,भराहुआ,कठिन अंतवाले। सारभूत श्रीवीरके,आगमरूप, समुद्रको, आदरसहित,अच्छीतरह,सेवताहूं। जडमूलसे,
गुरुगम, मणि,संकुलं, दूर पारं। सारं, वीरा, ऽऽगम,जलनिधिं, सादरं, साधु, सेवे॥३॥आमूला, म चपल, ३रजकी,बहुलतावाली, सुगंध,आसक्त हुए,चपल,भमरोंकी,श्रेणीके। झंकार, शब्दसे, उत्तम, निर्मल, पत्रवाले,कमल उपरके, लोल,'धूली, बहुल,परिमला,ऽऽलीढ,लोला, लि,माला। झंकारा,ऽऽराव,सारा,ऽमल, दल, कमला, घरकी, भूमीमें, रहनेवाली। कांतिके, समूहसे,शोभनेवाली, सुंदर, कमल(युक्त),हाथवाली,मुंदर,हारसे, मनोहर । वाणीके, समूहरूप, ऽऽगार,भूमि,निवासे ॥ छाया,संभार, सारे, वर, कमल, करे, तार,हारा,ऽभिरामे। वाणी, संदोह, शरीरवाली,संसारसे,वियोग(मोक्ष)के,वरकुं, दे, मुझे,हेश्रुतदेवी!, प्रधान ।।
देहे, भव. विरह, 'वरं, देहि, मे, 'देवि!, सारं ।४। भाषा स्तवन या नल्लासिक स्तवनादि बोले १ अंतर रहित । २ परस्पर । ४ आगम पाठ। ३ मकरंदवाली। ४ द्वादशांगीरूप ।
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॥८॥
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भविका श्री जिनबिंब जुहारो, आतम परम आधारो रे ॥ भ० श्री ० ॥ जिनप्रतिमा जिन सारखी जाणो, न करो शंका काड् ॥ आगम वाणीने अनुसारें, राखो प्रीति सवाई रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥ ॥१॥ जे जिनबिंब स्वरूप न जाणे, ते कहियें किम जाणे || भूला तेह अज्ञानें भरिया नहिं तिहा तत्व पिछाणे रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥२॥ अंबड श्रावक श्रेणिकराजा, रावण प्रमुख अनेक | विविधपरें जिन भगति करता. पाम्या धर्म विवेक रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥३॥ जिन प्रतिमा बहु भगतें जोता. होय निश्चय नृपगार ॥ परमारथ गुण प्रगटे पूरण, जो जो आर्द्रकुमार रे ॥ भ० ॥ श्री० ||४|| जिनप्रतिमा आकारें जलचर, छे बहु जलधि मझार ॥ ते देखी बहुला मत्स्यादिक, पाम्या विरति प्रकार रे ॥ ० ॥ श्री ० ||१२|| पाचमे अंगे जिन प्रतिमानो, प्रगटपणे अधिकार || सूरियाभ सुर जिनवर पूजा. रायपसेणी • मझार रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥६॥ दशमे अंगे अहिंसा दाखी, जिन पूजा जिन राज ॥ एहवा आगम अस्थ मरोडी, करिये केम अकाज रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥७॥ समकितधारी सतीय द्रौपदी, जिन पूज्या मन रंगे ॥ जो जो हो अरथ विचारी, छठे ज्ञाता अंगे रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥८॥ विजयसुरे जिम जिनवर पूजा,
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कीधी चित्त थिर राखी ॥ द्रव्यभाव बिहं भेदे कीनी, जीवाभिगम छे साखी रे॥मः ॥श्री० ॥९॥ में इत्यादिक बहु आगम साखे, कोइ शंका मत करजो॥ जिनप्रतिमा देखी नित नवलो, प्रेम घणो चित्त धरजो रे॥ भ०॥ श्री० ॥१०॥ चिंतामणिप्रभु पास पसाये, सरधा होजो सवाई॥ श्रीजिनलाभ सुगुरु नपदेशे, श्रीजिनचंद सवाई रे भ. श्री ॥११॥ वरकणय संख० इत्यादि आगे लिखा बोले ।
उल्लासमान, चरणोंके,नखोंसे, निकलीहुइ,प्रभारूप,दंडेके, बहानेसे,प्राणीओंको। वांदनेवाले, दिखातेकी, तरह, प्रगट, निर्वाणके, लघु अ- 'नल्लासि, कम,नख्ख,निग्गय, पहा,दंड, च्छलेणं, ऽगीणं। वंदारूण, दिसंत, इव्व, पयर्ड, निव्वाण । जित शा-मार्गकी, श्रेणीकुं। कुंदफूल,चंद्रजैसे,ऊजले,दांतोंकी,कांतिके, मिषसे, निकलेहुए,ज्ञान अंकुरोंके। उत्केरसमूहवाले,दोनोंही,दूसरे,(तथा)सोलमें
मग्गा,ऽऽवलिं॥ कुंदि,दु, जल, दंत, कंति,मिसओ,नीहंत,नाणंऽकुरू। केरे, 'दोवि.दुइज्ज,सोलस. जिनेश्वरोंको, स्तनूंगा, क्षेमके करनेवाले ॥१॥ अंतिम,समुद्रके,पाणीकुं,जो मनुष्य,मापलेवे, अंजलीयोंसे। कल्पांतकालके, पवनकुं, जो नर, जिणे,थोस्सामि, खेमंकरे॥१॥चरम,जलहि,नीरं. जो, मिणिज्जं,ऽजलीहिं । खय समय,समीरं, "जो, ॥५॥
जीतलेवे, चालसे। संपूर्ण, आकाशतलकुं,अथवा, उल्लंघ जाय,जो देव, पगोंसे । अजित(नाथ कुं,अथवा.शांति(नाथ)कुं.वह, समर्थ है, जिणिज्जा, गइए॥सयल,नहयलं, वा, लंघए, जो,पएहिं ।"अजिय,महव,संति, सो,"समत्थो,
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के स्तवनेमें ।। तोभी, निश्चय,बहुमानपूर्वक,उल्लसित, भक्तिके,समुदायसे। गुणके, कणकाभी, कीर्तन करूंगा, चिंतामणिकी तरह।
थुणेउं॥२॥'तहवि. हु,बहुमाणु, ल्लासि, भत्ति, भिरेण। गुण,कणमवि, कित्तेहामि, चिंतामणिव्व ॥ के संपूर्ण, अथवा, अचिंत्या, अनंत, सामर्थ्य से, इनकी। फलेंगे, जल्दी, सब, वांछित, निश्चय, मेरे । संपूण,
अल, महव, अचिंता,ऽणंत,सामथओ, सिं। फलिहइ, लहु, सव्वं,वंछियं,णिच्छियं, मे ॥३॥'सयल, जगत्के, हितकर्ता, नाम मात्रसे, जिनके। दूर होतेहैं, जल्दी,दुष्ट(और)अनिष्ट,हाथियोंके, थोक । नमनेवाले,देवोंके,मुकुटोंसे,घसाएहुए, #जय, हियाणं, नाममित्तेण, जाणं। विहडइ, लहु, दुछाऽनिठ्ठ,दोघट्ट,थडें ॥ नमिर, सुर,किरीडु, ग्घिट्ट, चरणकमलवाले। हमेशां, अजित(तथा)शांति,उन, जिनेंद्रोंको, दन करताहूं ।४। पसरतीहै, श्रेष्ठ,कीर्ती, बढतीहै,शरीरकी,दीप्ति(कांति । पायारविंदे।"सयय, मजिय संती, ते."जिणिंदे, भिवंदे॥४॥ पसरइ, वर कित्ती, वढए, देह, दित्ती।
विलसतेहै, भूमिमें, मित्रता, होतीहै, अच्छी प्रवृत्ति । स्फुरतीहै , उत्कष्ट, तृप्ति, होताहै, संसारका,छेद(नाश)। जिनयुग के, कविलसइ, भुवि,मित्ती, 'जायए, "सुप्पवित्ती। फुरइ, परम,तित्ती, होइ, संसार,छित्ती॥ 'जिणजुअ,
चरणोंकी भक्तिमें,निश्चय,अचिंत्य मोटी,शक्तिहै(जिससे)। मनोहर,पगोंके,प्रचारवाला,बहुत, मुंदर,शरीरके,मरोडवाला। प्रगट,अत्यंत रसके, ॐ पय, भत्ती, 'ही, अचिंतोरु, सत्ती ॥५॥'ललिय, पय, पयारं भूरि,दिव्वं,ऽग, हारं। फुड,घण, रस,
१ चितवनमें नहीं आसके वैसी । २ अजित-शांति प्रभुकी। ३ भोगवते हैं। ४ होतीहै। ५ दूसरे सोलमे दो तीर्थकरों । ६ स्थापन।
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भावसे उदार, शृंगारसे, श्रेष्ठ। देवताओंकी, स्त्री(देवी)ओंने,जिनके,दर्शनके,भंगसे,डरीहुइकी। तरह.प्रणामकेलिये, उतावलो कराहै(जिनका), के भावोदार,सिंगार,सारं॥ अणिमिस, रमणि, 'ज,दंसण,च्छेय,भीया। इव, पणमण, ऽमंदा, कासि,
नाटकरूप पूजन ।। स्तुति करो,अजित,शांतिनाथकी,उन, करीहै, संपूर्ण शांतिजिन्होंने। सोनेकी,रजजैसी,पीलेरंगकी,छाजती है, जिन्होंकी, 'नट्टोवयारं॥६॥ थुणह, अजिअ,संती, 'ते, 'कया,ऽसेस, संती। कणय, रय, पिसंगा, छज्जए, जाण, # मूर्ति। उतावलसे, आलिंगन,शुरु करनेवाली.निर्वाणरूप, लक्ष्मीके। पुष्ट,स्तनोंको, कोरे केसरके, कादेसे,पीले करतेहुएकी तरह ७
मुत्ती॥सरभस,परिरंभा, ऽऽरंभि, निव्वाण, लच्छी। घण, थण, घुसिणिक्कु,पंक, पिंगी कयव्व ॥७॥ बहुत प्रकारके,नयोंके,भेदवालाहै, वस्तु, नित्य, अनित्य । सत्य,असत्य,नहीं बोलने योग्य,बोलने योग्य, एक,अनेक है। इसवास्ते, खोटेनयोंसे.
नय, भंगं, वत्थु,णिचं,अणिचं सद,ऽसद,ऽणभिलप्पा, ऽऽलप्प, मेगं,अणेगं॥इय, कुनय, के विरुद्ध, अतिप्रसिद्ध है,और,जिन्होंका । वचन, अवचनीय. उन', जिनोंकुं, समरताहूं।। पसरताहै, तीन लोकमें,तबतक,मोहरूप के विरुद्धं, सुप्पसिद्ध, तु, 'जेसिं। वयण, मवयणिज्जं, ते,जिणे.संभरामि ॥८॥ पसरइ, तियलोए, ताव, मोहं ।
अंधकार। भमताहै, जगद, ज्ञानरहित,बवतक,मिथ्यात्वसे,ढका हुआ। स्फुरताहै ,प्रगट,फलता हुआ, अनंत ज्ञानरूप,किरणोंके, पूरवाला। ऽधयारं। भमइ, जय, मसण्णं, ताव, मिच्छत्त, छण्णं ॥ फुरइ, फुड,फलंता, ऽणतणाणं, ऽसु, पूरो।
१ शोभती। २ हरएक । रूपसे कहनेवाला । ४ वचनसे कथन नहीं करसके पैसा। ५ अजित -शांति नाथ दो । ६ ऊगताहै।
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प्रगट, अजित, शांतिका,ध्यानरूप,मूर्य, नहीं,जबतककि ।। शत्रु, हाथी, सिंह,तृष्णा(तृपा), उष्ण(ताप),पाणी, चौर, आधि, 'पयड, मजिय, संती,ज्झाण,सूरो, 'न, जाव॥९॥ अरि,करिहरि, तिण्हु, हं, बु.चोरा, ऽऽहि, व्याधिः । लडाइ,राजउपद्रव,मरकी, क्रूर, क्षुद्र, उपसर्ग। नाश हो, अजित, शांतिको कीर्तनेपर, जल्दी, जातेहैं। अत्यंत घांठे,
वाही।समर,डमर, मारी,रुद्द,खुद्दो.वसग्गा॥ पलय, मजिय.संती.कित्तणे, झत्ति, जंती। निबिडतर, 2 अंधेरेकेसमूह,भास्कर(मूर्य)से,फरसित हुएकी, तरह ।१०। भेली करी हुइ,पापरूप,लकडिओंसे,दीप्तहुइ,ध्यानरूप, अग्निकी.ज्वालासे। घेरायेहुएकी..
तमो हा, भख्खरा,ऽऽलुंखिय, "व्व ॥१०॥ निचिय,दुरिय, दारु, वित्त,झाण,ऽग्गि.जाला। परिगय, में तरह,उज्वल,चिंतबा हुआ,जिन्होंका, रूप। सोनेके, कपकीर,रेखागत,कांतिका,चोर(तथा), करताहै। बहुत ,स्थिर, यहाँ". लक्ष्मीकुं, मिव,गोरं, चिंतिअं, जाण, रूवं ॥ कणय,निहस,रेहा, कंति, चोरं, करिजा। चिर.थिर. मिह, लच्छि, अत्यंत, स्तंभित की हुइकी तरह।३१॥ अटवीमें, पडेहुओंको, राजासे, त्रासित हुओंको । समुद्रकी,लहरों में, डूबतेहुओंको कैदमें,रहेहुओंको ।
गाढ,संथंभिअव्व।११॥'अडवि,निवडिआणं,पस्थिवु,त्तासियाणं । जलहि,लहरि,हीरंताण,गुत्ति,ठियाणं। 5 जलतीहुइ, अग्निकी,ज्वालासे, आलिंगित हओंको,और, ध्यान। करताहै, जल्दी,शांतिकुं, शांतिनाथ, अजित(जिन)का ।१२। घोडे, Entent जलिअ,जलण,जाला.ऽऽलिंगिआणं, च,'झाणं।जणयइ, लहु,संतिं.संतिनाहा, जिआणं ॥१२॥हरि,
१ मनके दुःख । २ शरीरके दुःख । ३ कसोटी उपरकी। ४ कालतक। ५ जगत्मे । ६ बलने।
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हाथीयोंसे,परिकीर्ण(भरेहए),समर्थ,पाइदल सेनासे,पूर्ण । संपूर्ण, पृथ्वीके राज्यकुं, छोडके, आज्ञामें, तत्पर। तृणकीतरह,वस्त्रमें लगेहूर, करि, परिकिण्णं, पक्क, पाइक्क, पुण्णं। सयल,पुहवि.रजं, छंडिनं, आण,सजं ॥ तणमिव, पडलग्गं, जो', तीर्थंकर मुक्तिके, मार्ग! चारित्रकुं,अंगोकार कियेहए, होवो, वे,मेरेपर, प्रसन्न ।१३। पूनमके,चंद्रजैसे, मुखवाली, प्रफुल्लित,
जे,जिणा, मुत्ति,मग्गं । चरण, मऽणुप्पवन्ना, हुंतु, ते,मे, पसन्ना ॥१३॥छण, ससि,वयणाहिं, फुल्ल, नेत्ररूप, कपलवाली । स्तनोंके,भारसे, नमीहुइ, मुट्टिसे, ग्राद्य, पेटवाली। सुंदर,भुजारूप,लता(वेल)वाली,पुष्ट श्रोणिस्थल(कमर)वाली।। नित्तु,प्पलाहिं । यण, भर,नमिरीहि,मुहि,गिज्झो,दरीहिं॥ललिय,भुअ, लयाहिं, पीण,सोणित्थलाहिं। सदा, देवांगनाओंसे, बांदेगयेहै, जिनके, चरण ।१४। अर्श(मसा),किटिभरोग, कोढ,गंठिवाय,खांसी,अतिसार । क्षयरोग,ज्वर(ताव), की सय, सुररमणीहिं, वंदिया, जेसि,पाया ॥१४॥ अरिस,किडिभ,कुठ्ठ,गंठि,कासा,ऽइसार। खय, जर, दणः, लून, वास, कंठशोप.पेट के रोग)! नख, मुख, दांत, आंख, कुंख, कॉन आदि के रोगोंको । मेरे, जिनयुग के, चरण, वण,लुआ,सास,सोसो,दराणि ॥ नह,मुह,दसण,ऽच्छी,कुच्छि,कण्णाऽऽइ,रोगे। मह, जिणजुअ.पाया, अच्छे प्रसन्नहए, हरणकरो ।१०। इस, मोटे,दुःखोंके, त्रासमें, पख्खीमें, चोमासीमें। जिनवरदो के, स्तोत्रकुं, संवच्छरीमें, अथवा, 'सुप्पसाया, हरंतु॥१५॥इय, गुरु, दुह,तासे,पख्खिए, चाउमासे। जिणवरदुग, थुत्तं, वच्छरे, वा. ॥८॥
१ अजित-शांति । २ ग्रहण करने योग्य । ३ फोडे-फुनसी । ४ अजित-शांति । ५ दो तीर्थकर ।
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पवित्र। पढो, मुणो, स्वाध्यायमें, और, ध्याओ, चित्तमें। करो, जाणो, विघ्नकुं, जिससे, नाश करो, जल्दी ।१६। पवित्तं । पढह,सुणह, सिज्झाए, अ.झाएह,चित्ते। कुणह,मुणह, विग्धं, जेण, घाएह,"सिग्धं १६ इसतरह,विजया(राणी),जितशत्रु(राजा)के, पुत्र,हे श्री अजित, जिनेश्वर!। तथा,अचिराराणी,विश्वसेनराजाके,पुत्र,पांचमे, चक्रीश्वर । # 'इय, विजया, जियसत्तु,पुत्त,सिरिअजिअ,जिणेसर! तह,अइरा,विस्ससेण,तणय.पंचम.चक्कीसर । म तीर्थंकर,सोलमे,हेशांति(जिन) ! जिनवल्लभ(मूरिजी)ने,सम्यक्स्तवेहुए । करो,मंगल, मेरे,हरो दूरकरो, पापकुं, सपही, स्तवतेहुओंके ।१७
तित्थंकर,सोलसम, संति ! 'जिणवल्लह ,संथु। कुरु, मंगल, मम,हरसु.दुरिय,मखिलंपि,धुणंतहा? Fix देवाधिष्ठितजैनशासनउन्नतिकारक प्रभाविकमूलजिनपडिमाकी अंगपूजाकरती युवान ऋतुवंती स्त्रीको ही निषेधसे सर्वमान्य श्रीजिनदत्तमरिजी उनके गुरु कल्याणवादी त्रिशलाकूखे
वीरगर्भहरण संक्रामण गर्भधारण अकल्याणक नीच निंद्य विवादको हटानेवाले जिनवाहभसरिजी पहलेचैत्यवासी श्रीजिनेश्वरमरिजीके शिष्यथे, इनगुरुका चैत्यवासादिशिथिलाचार
जानके पचमहात्रतादि शुद्ध चारित्रकी उपसंपदा प्राप्ति के लिये उनगुरुकी आज्ञा लेके सुंदर चारित्र संपत्तिवाले सुज्ञानी विशेष प्रसिद्ध सद्गुरु नवांग टीकाकार खरतरगच्छ. के नायक श्रीमद् अभयदेवसरिजीके शिष्य श्री जिनवाहभसरिजी हुए, इसीलिये खरतरगच्छनायक श्री जिनवाहभमरिजीकृत प्रश्नोत्तरकशितक' में श्री जिनवाइभसूरिजीनेही)
अपने सद्गुरु कौन ? इस प्रश्नके उत्तरमें श्री जिनवल्लभसूरिजी ही लिखते है कि-"के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणाः श्रीमुश्रुता विश्रुताः, श्रीमदभयदेवाचार्याः"(स्तो० र० वि० भा० पत्र ३२) सूक्ष्मार्थ विचार सार्द्धशतक' टीकाकार चित्रवालगच्छके श्री धनेश्वरसरिजीभी लिखते है कि... जिणवल्लहगणिरइयं-श्री जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसंग्राहिस्थानांगाधंगोपांगपंचाशकादिशात्रवृत्तिविधानावातावदातकीर्तिसुधाधवलितधरामंडलानांश्रीमदऽभयदेवमरीणां शिष्येण, कर्मप्रकृत्यादिगंभीरशास्त्रेभ्यः समुदधृत्य रचितमिदं" यही सत्य अभिप्राय छुपाके मिथ्या निंदा झूट बोलना महापापहै ।
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जिन
नवकारका काउस्स
लोगस्स वा भाषादिकी सज्झाय भयदेवमूरि,
श्रेष्ठ, कनक, शंख, मूंगीये। मरकतपन्ना,मेघके,सरखे(वर्णवाले),विनष्टहुए,मोहवाले सित्तर (युक्त),शत(सौ१७०)कुं,जिनेश्वरोंके । सब, वरकणयावर,कणय,संख,विहुम। मरगय,घण, सन्निहं, विगय, मोहं।। “सतरि, सयं, जिणाणं। सव्वा. १७०
का देवोंसे पूजित, बांदताहूं ।। | एक एक खमासमणेसे आचार्य मिश्रं उपाध्यायमिश्रं सर्वसाधून खमासमणा देके इच्छाकारेण संदिसहना
मर,पूइय, वद ॥१॥ भगवन् देवसियपायच्छित्तचिसोहणत्थं काउस्सग्गकरूं इच्छं देवलिय० करेमि काउस्सग्ग अन्नस्थ०४ र 5 लोगस्स या १६ नवकारका काउस्सग्ग करके लोगस्स कहे खमासमणा देके इच्छा० सं० भ० खुद्दोबद्दव ओहडावणत्थं काउस्सग्ग करूं - इच्छं खुद्दोव० करेमि काउस्सगं अन्नत्थ० ४ लोगस्स वा १६ नवकारका का उसग्ग करे पालके प्रगट लोगस्स कहे खमासमणा० इच्छा
सं०भ०सज्झाय संदिसाउं खमा०च्छा०सज्झाय करूं नवकार भाषादिकी सज्झाय करे। नवकार खमा०इच्छा०सं० भगवन् चैत्यवंदन कर
(जो)श्रीसेढी,बदीके,किनारे,नगरमें श्रेष्ठ,श्रीस्तंभनपुर रूप,सुमेरु उपर । श्रीमानपूज्य, अभयदेवमूरि, पंडितराजने,अच्छीतरह रोपाहै । स्तंभन श्री सेढी,तटिनी, तटे,पुरवरे,श्रीस्तंभने, स्वर्गिरौ।श्रीपूज्या,ऽभषदेवसूरि ,विबुधाऽधीशैः,समारोपितः।
१ नीलरत्न-पन्ना ! २ खंभात । ३ देवोंके अधीश (इंद्र) तुल्य । ४ स्थापाहै । * यह श्री जिनवाल्लभ सृरिजीके गुरु तथा श्री जिनदत्त सूरिजीके दादागुरु श्रीअभयदेवसरिजी १५५ स्तंभन पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट करनेवाले और नवअंग सूत्रोंकी टीका करनेवाले किस गुरुके शिष्यथे तथा किस गच्छको शोभानेवाले हुए यह तपगच्छके उपाध्याय
श्रीशा सोमधर्मगणि मुसाधु सत्यवादी मारामृषाके त्यागी चे उपदेश सप्ततिका ग्रंथमें लिखते है कि-"पुरा श्रीपत्तने राज्यं, कुळगे भीमभूपती। अभूवन भूतलेख्याताः, श्री जिनेश्वरमृरयः शमूरयोऽभयदेवाख्या-स्तेषां पट्टे दिदीपिरे। येभ्यः प्रतिष्ठामापन्नो,गच्छः खरतराभिधः ।। श्रीदर्शवकालिक पर्युषण कल्पसूत्रादि सिद्धांत समाचारी, खरेतरे वर्तनसे खरतर विरुद श्री जिनेश्वरसूरिजीसे प्रसिद्ध हुआ इसके पहले श्री जिनेश्वरमरिजीके गुरु श्री वर्धमानसूरिजीके
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पार्श्व चै त्य वंदना
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सोंचागयाहै, स्तुतिरूप, जलोंसे,मोक्षरूप,फलोंसे,देदीप्यमानहै,फणारूप,पत्रवालाहै। पार्थ(प्रभु), कल्पवृक्ष, वह, मेरे, पूर्णकरो, हमेशां,
संसिक्तः, स्तुतिभि, लैः, शिव,फलैः स्फुर्जत् ,फणा,पल्लवः।पार्श्व:,कल्पतरुः, स, मे प्रथयता, नित्यं । ___ मनोवांछित ।। मनपोडा,शरीरपीडाको,हरनेवाले, देव । जीरावली(गाम)के मुकुटमणि। पार्धनाथ, जगत्केनाथ । नमनेवालोंके, मनोवांछितं ॥१॥ आधि, व्याधि, हरो, देवो। जीरावल्ली,शिरोमणिः ॥ पार्श्वनाथो, जगन्नाथो । नत,
मालिक,मनुष्योंको,कल्याणके लियेहो।२।। नाथो, नणां श्रिये ॥२॥ | नमुथ्थुणं० से लेके जयवीयरायः आभवमखंडा मुधी पूरी है सो कहे खमासमणा देके। पूर्वजोंका चंद्रकुल कोटीगण बृहद्गच्छ वज्रशाखा वनवासीगच्छ कहने में आताथा इसीलिये नवांगसूत्र टीकाकार श्री अभयदेवरिजी महाराजने श्रीभगवती सूत्रकी टीकाके अंतमें अपने शिष्य और गुरुभाइ काकागुरु गुरु दादागुरुके पूर्वजोंका चंद्रकुल उसमेभी जो पाटपरंपरा है वही दिखलाइ है कि-"चांद्रे कुले सदनकक्षकल्पे, महागुमो धर्मफलप्रदानात् । छायान्वितः शस्तविशालशाखः, श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत् ।। तत्पुष्पकल्पी विलसद्विहार सद्गंधसंपूर्णदिशौक समंतात्। बभूवतुः शिष्यवरावऽनीचत्तिश्रुतज्ञानपरागवंतौ ।२। एकस्तयोः मूरिवरो जिनेश्वरः, ख्यातस्तथाऽन्यो भुवि बुद्धिसागरः। तयोविनेयेन विबुद्धिनाप्यलं, वृत्तिःकृतैपाऽभयदेवमूरिणा ।३। तयोरेव विनेयानां, तत्पदं चानुकुर्वतां। श्रीमतां जिनचंद्राख्य सत्यभूणां नियोगतः। श्रीमजिनेश्वराचार्य, शिष्याणां गुणशालिनां । जिनभद्रमुनींद्राणा,मस्माकं चांघिसेविनः ।। यशश्चंद्रगणेाढ, साहाय्यात्सिद्धिमागता। परित्यक्ताऽन्यकृत्यस्य, युक्तायुक्तविवेकिनः ।। यह मूल पाट परंपरा सरतर पट्टावली ग्रंथोमेंही मिलती है अन्यमें नहीं ।
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॥२२॥
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श्री स्तंभनक(पुर)में,रहेहुए, पार्श्वनाथ। स्वामीका, संपूर्ण, तीर्थोके, स्वामी। (स्वस्व तीर्थोकी,अच्छीउन्नतिके,कारणभूत । सुर, सिरि सिरिथंभणय, ठिय, पास। सामिणो,'ऽसेस,तित्थ,सामीणं ॥ तित्थ, समुन्नइ, कारणं । सुरा,
भण असुरोंके,और, सब के ॥ इन, म, स्मरणकेलिये। कायोत्सर्ग, करताहूं, शक्तिमुजब। भक्तिसे,गुणमें,सुस्थितरहे। गाथा २
सुराणं, च, सव्वसि ॥१॥ एसि, महें, सरणऽत्थ।"काउस्सग्गं,कमि, सत्तीए॥भतीए, गुण,सुठ्ठिय। संघकी, अच्छीउन्नतिके. निमित्त ।। ।
बंदणवत्तियाए. अन्नत्थ० ४ लोगस्स वा १६ नवकारका ९९ संघस्त, समुन्नइ.निमित्तं ॥२॥ |
काउस्सग्ग करे पालके प्रगट लोगस्स कहे । श्री जिनक श्रीखरतर गच्छ शृंगारहार, जंगम जुगप्रधान, भट्टारक, दादाजी, श्रीजिनदत्तसूरिजी चारित्र शल मूरि
क चुडामणि आराधवा निमित्तं करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थ० ५ नवकार काउस्सग्ग प्रगट लोगस्स। जी काउ- श्रीखरतर गच्छशंगारहार.जंगम जगप्रधान.भट्टारक.दादाजी श्रीजिनकशलसरिजी चारित्र चडामणि स्सग्ग
आराधवानिमित्तं करेमि काउस्सग्गं। अन्नत्थ०४नवकार काउस्सग्ग प्रगट लोगस्स खमासमणा देके इच्छा०सं०भ० चैत्यवंदन करूं। १००॥
चार कषायरूप,पतिमल्ल(शत्रु)को,छेदनेवाले। दुर्जया,कामदेवके,वाणोंको,तोडनेवाले । रसयुक्त ,प्रियंगु जैसे,वर्णवाले,गजजैसी, चालवाले। चउक्कसाय चै- 'चउक्कसाय, पडिमल्लु, ल्लूरणु। दुजय,मयण, बाण,मुसुमूरणु ॥सरस, पियंगु, वण्णु, गय, गामिन। त्य वंदन मुश्किलसे जीताय वैसे । २ नवीन । ३ नामक वृक्षके तुल्य नीले रंगवाले ।
दत्त कु
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अर्हतो भगवंत०
१०२ संथारा पोरिसी
जयवंतेरहो, हे पार्श्व !, भुवनत्रयके, स्वामी |१| जिसके शरीर की, कांतिका, समुदाय, चोकणा । शोभताहै, नागफणोंके, मणियोंके, जयन, पासु !, भुवगत्तय, सामिन ॥ १॥ जसु, तणु, कंति, कडप्प, सिण्डिन । सोहइ, फणि, मणि, किरणोंसे मिला हुआ। जैसे, नवीन, मेघहो (वैसे), बिजलीकी चमकसे लांछित । वह जिन, पार्श्व, विशेषपणे दो, वांछित |२| किरण, SSहि ॥नं, नव, जलहर, तडिल्लय, लंछिउ ! 'सो, "जिणु, पासु, पयच्छड, वंछिउ । २ ।
उपाध्याय ।
अरिहंत, भगवान, इंद्रोंसे, पूजित, सिद्ध, और, सिद्धिमें, रहेहुए । आचार्य, जिनशासनकी, उन्नतिकर्ता, (तथा) पूज्य, अतो, भगवन्त, इंद्र, महिताः, 'सिद्धा, श्व, सिद्धि, स्थिता । 'आचार्या, जिनशासनो, नतिकराः, 'पूज्या, श्री आगमके, अच्छे पढानेवाले, मुनिवर, रत्नत्रय के, आराधक । पांचों, ये, परमेष्ठियां, हमेश नृपाध्यायकाः॥ श्री सिद्धांत, सुपाठका, "मुनिवरा, रत्नत्रयाऽऽराधकाः । पंचै, "ते, परमेष्ठिनः, प्रतिदिनं करो. तुमारा मंगल 121 | नमुत्थुणं ० से लेके जयवीयरायः आभवमखंडा सुधी, पख्खी चोमासी संगच्छरीमें बडी शांति रोज "कुर्वंतु, "वो, मंगलं ॥१॥ छोटी शांति कहे, दोष लगा हो तो इरिया वही करे सामायिक पाले, पोषाती संथारा पोरसी भणावे । ३वार पापका अन्यकामको निषेधके, नमस्कारहो, क्षमायुक्त तपस्वी, गौतम आदि महामुनिओंको । नमस्कारहो, अरिहंतोंकुं । करताहूं, 'निसीहि निसीहि निसीहि, नमो, खमासमणाणं, गोयमाईणं, महामुणीणं । नमो, अरिहंताणं ० ३ | करेमि,
१ शोभित । २ ज्ञान दर्शन- चारित्ररूष ३ तीन नवकार गिणके तीन 'करेमि भंते!' कहना
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॥२४॥
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हेभगवन् !, सामायिक। आज्ञा दो. हेज्येष्ठद्धआर्योसाधुओ। आज्ञादीजिये,हेपरमगुरो। मोटे,गुणरूप,रत्नोंसे, शोभित,शरीरवाले। भंते!,सामाइयं०३। अणुजाणह, जिठिज्जा,!। अणुजाणह, परमगुरु!।गुरु,गुण,रयणेहिं मंडिय,सरीरा। बहुत प्रतिपूर्ण हुइहै, पोरिसी। रात्रिके, संथारेमें,ठहरताहूं।१। आज्ञा दीजिये, संथारेकी । गुरुकहेबाहुको, उसिगेकरके,डावे,पासेसे(सोवे)।
बहु पडिपुन्ना, पोरिसी। राइय,संथारए,ठामि।। अणुजाणह, संथारं। बाहु, वहाणेण,वाम,पासेणं ॥ के कुकुडिकीतरह',पगोंका,पसारना। २असमर्थहोतो,प्रमा(पूंजे),भूमिकुं३ ।। संकोचे(भेलेकिये),गोडोंवाले । पासाफेरतेहुए, और, शरीरकुं,
कुकुडि, पाय,पसारण। अतरंत, पमजए, भूमि ॥२॥ 'संकोइय, संडासा। नव्वट्टते, अ, 'काय, म पडिलेहे । “द्रव्यादिका, उपयोग करे' । ६श्वासोश्वासकुं,सर्वथारोके,(द्वारादिको)देखे ।३। यदि(जो),मेरे,होजाय(तो),प्रमाद(मृत्यु)। इस
पडिलेहा ॥ दव्वाइ,नवओगं। ऊसास, निरंभणा, ऽऽलोए॥३॥ 'जइ, मे, हुज्ज, “पमाओ। इमस्स, क शरीरका, इस, रात्रिमें। आहारकुं,उपधि(बथा),देहकुं। सब, त्रिविधकरके, वोसिरायाहै ।। आश्रव, कषाय, १०बंधन । देहस्सि, माइ,रयणीए॥ आहार, मुवहि, देहं । सव्वं तिविहेण,वोसिरिअं॥४॥आसव,कसाय,बंधण।
१ उंचे अधर । २ इसतरह पगपसारनेमें या एक पासे सुणेमें । ३ बादमे पगपसारे या पासाफेरवे । ४ जागनेपर । ५ मैं कौन और केसाई ?, यानि साधुहूं या गृहस्थ ?, ऐसे 卐 विचारना 'द्रव्यउपयोग' मैं किस क्षेत्रमे हूँ?, ऊंचे मजले पर हूं? या नीचे भूमि पर ? ऐसा विचारना क्षेत्र उपयोग' में प्रमत्तभावरूप रात्रिम सृताहूं , या अप्रमत्तभावरूप का दिनमें वर्तताहं,ऐसा विचारना ‘काल उपयोग' इस समय मुझे मातरे आदिकी शंकारूप द्रव्यबाधा और राग द्वेषरूप भावबाधा है ? या नहीं ?,यदि है,तो कौनसी और कितनी है.' के ऐसे बिगारना भात्र उपयोग' है। ऐसा करने परभी निद्रा न हटे तो पोरिसौ भणानेवाला प्रतिज्ञा करता है । हिंसा-छुट चोरि कुशील परिग्रह ।९ कोध-मान माया लोभ ।१०राग-द्वेष ।
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कलह(लडाइ),अभ्याख्यान, परकी,परिवाद(निंदा)। अरति(बेचैनी),रति(खुशी),पैशुन्य(चुगली)। कपटसे,झूट बोलना,और.मिथ्यात्व ।
कलहा, भिख्खाणं,पर, परिवाओ॥ अरइ, रइ, पेसुन्न। माया, मोसं, च,मिच्छत्तं ॥५॥ वोसिरा(त्याग)दे, ये। मोक्ष मार्गके, संबंध, विनभूत (अंतरायरूप)। दुर्गतिके,निबंधन(कारण)। अट्ठारे, पापस्थानोंको ।।।
'वोसिरसु, इमाइं। मुख्खमग्ग,संसग्ग, विग्धभूआई ॥ दुग्गइ, निबंधणाइं। अठारस,पावठाणाई ॥३॥ के एकिलाहूं, मैं, नहीं है, मेरा, कोइ । नहींहूं,मैं,अन्य(दूसरे),किसीका। इसतरह,अदीन(प्रसन्न),मनवाला(होके)। (निज)आत्माको,सीखदेताहै
एगो,'ऽहं, नत्थि, मे,कोइ।'ना, ऽह,मन्नस्स कस्सइ॥ एवं, अदीण, माणसो। अप्पाण,मणुसासह ७ एकहै, मेरा, शाश्वताहै, आत्मा। ज्ञान, दर्शन, संयुक्त । बाकीके, मेरे, बाहरके, पदार्थ । सब, संयोग लक्षणवालेहै , ॥७॥ एगो, मे, सासओ, अप्पा।'नाण,दंसण,संजुओ॥सेसा, मे,बाहिरा,भावा। सव्वे, संजोगलख्खणा
संयोगके कारण,(मेरे)जीवने । पामीहै,दःखोंकी, परंपरा । उस(कारण से,संयोगके,संबंधक(मैने)। सब,त्रिविधकरके, F॥ संजोग मूला, 'जीवेण। पत्ता, दुख,परंपरा॥"तम्हा, संजोग, संबंधी सव्वं, तिविहेण,वोसिरिआ।
अरिहंत, मेरे, देवहै। जीबूं वहांतक, उत्तम साधु, गुरुहै। जिनेश्वरका,परूपाहुआ,तत्त्वहै । ऐसा,सम्यक्त्व,मैंने,ग्रहण कियाहै ।१० अरिहंतो, मह, देवो। जावज्जीवं, सुसाहणो गुरुणो॥जिण,पन्नतं. तत्तं। इय,सम्मत्तं मए गहिअं१० 1 झूटा कलंक देना। २ संयोगमात्रके है। : सत्य सिद्धांत है।
॥९॥
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चार, मंगल है, अरिहंत, मंगल है, सिद्ध, मंगलहै, साधु, मंगल है, केवलीका, परूपा, धर्म, मंगल है ११, चार, लोकमें उत्तमहै, चत्तारि, मंगलं, अरिहंता, मंगलं, सिद्धा, मंगलं, साहू, मंगलं, केवली, पन्नत्तो, धम्मो, मंगलं, चत्तारि, लोगुत्तमा, अरिहंत, लोक में उत्तम है, सिद्ध, लोकमै उत्तम है, साधु लोकमें उत्तम है, केवलीका, परूपा, धर्म, लोकमें उत्तम है । चार, शरणोंकुं, अरिहंता, लोगुत्तमा, सिद्धा, लोगुत्तमा, साहू, लोगुत्तमा, केवली, पन्नत्तो, धम्मो, लोगुत्तमो १२॥ चत्तारि, सरणं, स्वीकारताहूं,अरिहंतोंके,शरणकुं, स्वीकारताहूं, सिद्धों के, शरणकुं, स्वीकारताहूं, साधुओं के, शरणकुं, स्वीकारताहूं, केवलीने, परूपे, धर्मके, पवज्जामि, अरिहंते, सरणं, पवज्जामि, सिद्धे, सरणं पवज्जामि, साहू, सरणं पवज्जामि, केवली, पन्नत्तं, धम्मं, शरणकुं, स्वीकारता हूं। अरिहंत, मंगल है, अरिहंत, मेरे, देवता है । अरिहंतो ! किर्तिवंत (ऐसे), वो सिराता हूं, सरणं, पवज्जामि१३। अरिहंता, मंगलं, मंज्झ । 'अरिहंता, मज्झ, देवया । 'अरिहंता ! कित्तिअंताणं, 'वोसिरामि "त्ति पावगं (पापको) १४ सिद्धा य मंगलं मज्झ । सिद्धा य मज्झ देवया ॥ सिद्धा ! य कित्तिअंताणं । वोसिरामि त्ति पावगं १५ आयरिया मंगलं मज्झ । आयरिया मज्झ देवया । आयरिया ! कित्तिअंताणं । बोसिरामि ति पावगं ॥ १६ ॥ उवज्झाया मंगलं मज्झ । उवज्झाया मज्झ देवया ॥ उवज्झाया ! कित्तिअंताणं । वोसिरामि त्ति पावगं १७साहुणो मंगलं मज्झ । साहुणो मज्झ देवया ॥ साहुणो कित्तिअंताणं। वोसिरामित्ति पावगं १८
मेरे ।
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॥१९७॥
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पृथ्वी, जल, अग्नि,मारुत(वायु) । एकएककी,सात, योनि, लाखहै। वनस्पतिके, प्रत्येक(तथा),अनंत(काय)में । दश,(तथा)चउदे, में 'पुढवि,दग,अगणि,मारुअ।इकिक, सत्त, जोणि, लख्खाओ॥वण, पत्तेय, अणंते। दस, चउदस, के योनिहै, लाख, १९। विकलेंद्रिओंमें, दो दो(लाख)। चार चार(लाख),और, नारकी,(तथा)देवोंमें। (और)तिर्यंचोंमें होतीहै, .
जोणि, लख्खाओ॥१९॥ विगलिंदिएसु, दो दो। चउरोचउरो, य, नारय, सुरेसु ॥ तिरिएसु, हुंति, चार(लाख)। चउदे, लाख(योनि),और, मनुष्योंमें ॥२०॥ खमाताहूं.(मैं)सब जीवोंको। सब, जीव, खमावो, मुझे । मित्रताहै,
चउरो। चउदस,लख्खा , य,मणुएसु॥२०॥खामेमि, सव्वजीवे । सव्वे,जीवा, खमंतु, मे ॥ मित्ती, मेरी, सब, जीवोंमें। वैरभाव, मेरे, नहीं है, किसीसे ॥२१॥ इसतरह, मैं, आलोचके। निंदके,गुरुसावेनिंदके, दुगुंछितकुं३, है म मे,सव्व,भूएसु। वरं, मज्झ,"न, केणइ॥२२॥ एव.म ऽहं, आलोइअ ! निंदिअगरहिअ, दुगुंछिअं अच्छीतरह । त्रिविधकरके, पीलाहटाहुआ। वांदताहूं, जिनेश्वरोंको, चोवीसों ।२२। खमके", (और)खमवाके,मेरेको, खमाओ।
सम्मं ॥ तिविहेण, पडिकंतो। वंदामि, जिणे, चउव्वीसं ॥२२॥खमिअ,खमाविअ, मइ, खमह। 5 सब, जीवोंके निकाय । सिद्धोंकी, साखसे, आलोचताहूं। मेरे(किसीसे), वैर, नहीं है, भाव ।२३। सब, जीव, कर्मके,
॥९॥ सव्वह,जीवनिकाय ।। सिद्धह, साख,आलोयणह। मज्झह,वइर, न, भाव ॥२३॥'सव्वे,जीवा,कम्म, नी. .. amariनि पायो । ५ टमयोंके अपराधोंको खद क्षमा करके । ६खदके अपराधोंको दूसरोसे क्षमा कराके । ७ समुदाय ।
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वशसे। चउदे, राज(लोक)में,भमतेहैं। उनकुं.मैंने. सबकुं, खमायेहैं। मेरेकुंभी, वे(सव), खमाओ ॥२४॥ १०वस। चउदह, राज, भमंत॥ ते, मे. सव्व, खमाविआ। मज्झवि, तेह, खमंत॥२४॥ पाक्षिका पख्खी चोमासी संवच्छरी पडिक्कमणेमें पहले देवसिक प्रतिक्रमण "जयतिहुअण" तीसोंमाथा चैत्यवंदनसे “वंदित्तु" समादि पति
सतक करके खमासमणा देके 'इच्छा० संदि० भ०! देवसिअं आलोइयं पडिक्कंतं पख्खी (या चोमासी वा संवच्छरी) मुहपत्ती क्रमण विधि
पडिलेहूं?' गुरु कहे 'पडिलेहेह, पुण्यवंतो! देवसीके स्थानमें पख्खी वा चोमासी या संवच्छरी भणजो, छींक जयणा करजो, मधुरस्वरे पडिक्कमजो, खाँसेसो विवरा शुद्ध खाँसजो, मंडलमें सावचेत रहेजो' इच्छं इच्छामि खमासमणो० देके मुहपत्ती पडिलेही २ वादणे, 'पख्खो वइक्कंतो' या 'चोमासी वइक्कंता' वा 'संवच्छरो वइक्कतो' इत्यादि जो हो सो बोलके 'इच्छा० सं० भ०! संबुद्धा खामणेणं अभ्भुटिओमि अभ्भितर पख्खियं (वा चोमासियं या संवच्छरीयं) खामेउ' गुरु कहे 'खामेह' मस्तके अंजलि करतो थको 'इच्छं खामेमि पख्खियं (चोमासियं-संवच्छरियं) एगस्स पख्खस्स पन्नरसण्हं दिवसाणं पन्नरसण्हं राइणं जं किंचि अप्पत्तियं.' (एकही पक्षमें तिथि क्षयहो और अधिकभी हो वो उसी पक्षके १५ दिनकी गिनतीमें लेनेहें, उस पक्षमें क्षय न हो तो आगे पीछे १४ दिनकेपक्षमें १५ दिन कहनेसे अधिक गिनतीमें लेतेहैं वास्ते १६ दिन नहीं बोलतेहैं, अधिक मास नहीं हो तो चोमासीमें 'चउण्हं मासाणं अट्टहं पख्खाणं वीसोत्तर सयराइंदिआणं जं किंचि०' अधिक मास हो तो 'पंचण्हं मासाणं दसण्हं पख्खाणं पण्णासोत्तर सयराइंदिआणं जं किंचि०' संवच्छरीमें अधिक मास नहीं हुआ हो तो 'बारसण्डं मासाणं चवीसहं पख्खाणं तिनिसयसहि राईदियाणं जं किंचि०' अधिक मास हुआ हो तो 'तेरसण्हं मासागं छब्बीसह पख्खाणं तिनिसय नेउ राईदियाणं
55555555555555555555
॥॥
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फफफफफफफफफफा
जं किंचि०' कहे, दो साधु बाकी रहते हो तो पख्खीमें तीन चोमासीमें पांच संवच्छरीमें सात साधुको खमावे, “इच्छा० सं० भ० पख्खियं (चोमासीयं वा संवच्छरियं) आलो?' गुरु कहे 'आलोएह' शिष्य कहे 'इच्छं आलोएमि जो मे पख्खीओ० (चोमासिओ० संवच्छरिओ०) बाद कहे 'इच्छा० संदि० भ०! पख्खी (चोमासी संवच्छरी) अतिचार आलोउं?' गुरु कहे, 'आलोएह,'
बाद 'इच्छं नाणंमि' इत्यादि अतिचार बोलके "सव्वस्स वि पख्खिय (चोमासिय संवच्छरिय) दुचिंतिय दुम्भासिय दुञ्चिठिय 5 इच्छाकारेण संदिसह (गुरु कहे पख्खीये 'चउत्थेण पडिक्कमह' चोमासीये 'छट्टेण पडिक्कमह' संवच्छरीये 'अट्टमेण पडिक्कमह')
इच्छं तस्स मिच्छामि दुक्कडं" बोली २ वाँदणे देके 'इच्छा० सं० भ०! देवसियं आलोइयं पडिकंतं पत्तेयखामणेणं अभ्भुटिओमि | अभ्भितर०' इत्यादि पहले कहा वैसा कहके सबकुं खमावे, २ वाँदणे देके 'इच्छा० सं० भ० देवसियं आलोइयं पडिकंतं पख्खियं | + (चोमासियं संवच्छरियं) पडिक्कमावेह' गुरु कहे 'सम्म पडिक्कमह' बाद पख्खी मूत्र बोलनेवाला साधु 'इच्छं करेमि भंते ! + इच्छामि पडिक्कमिडं (इच्छामि ठामि काउस्सग्गं) जो मे पख्खिओ (चोमासिओ वा संवच्छरिओ) अइयारो कओ०' कहके
खमासमणा देके 'इच्छा० संदि० भ०! पख्खी मूत्र (चोमासी सूत्र संवच्छरी मूत्र ) संदिसाउं?' गुरु कहे 'संदिसावेह' फेर 'इच्छं इच्छामि खमासमणो० इच्छा० सं० भ० ! पख्खीसूत्र (चोमासी सूत्र वा संवच्छरीमूत्र ) कई ?' गुरु कहे 'कवेह बाद तीन नवकार गिणके पख्खीमूत्र बोले, साधु नहीं हो तो एक श्रावक खमासमणा देके 'भगवन् ! मूत्र भणुं ?, इच्छं' कहके तीन नवकार गिणके पख्खीमूत्रके स्थानमें 'वंदित्तु मूत्र' कहे, मुणनेवाले 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं'के बाद 'तस्स उत्तरि० अन्नत्थ०' कहके काउस्सग्गमें खडे या बैठे हुए सुणे, अंतमें सबजने खडेहोके काउस्सग्ग पारके तीन नवकार गिणे, बैठके ३ नवकार ३ करेमिभंते !०, साध 'चत्तारिमंगलं० इच्छामि पडिक्कमिडं जो मे० इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियोए० इच्छामि पडिक्कमिउं पगामसिज्जाए' कहे,
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श्रावक 'इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे० वंदित्तु०' कहे, खमासमणा देके 'इच्छा० सं० भ० ! मूलगुण उत्तरगुण विशुद्धिनिमित्त काउस्सग्ग कर? गुरु कहे 'करेह' बाद 'इच्छं करेमिभंते ! इच्छामि ठामि काउस्सग्गं० तस्स उत्तरि० अन्नत्थ०' कहके पख्खीमें बारे लोगस्सका चोमासीमें वीस लोगस्सका संवच्छरीमें चालीस लोगस्स उपर एक नवकार काउस्सग करे, पारके प्रगट लोगस्स कहे, बैठके मुहपत्ती पडिलेटे. २ बांदणे, 'इच्छा० सं० भ०! समाप्तखामणणं अभ्भुट्टिओमि अभ्भितर०' इत्यादि पहले कहा वैसे खमावे, खमासमणा देके 'इच्छा० सं० भ०! परखी(चोमासी संवच्छरी) समाप्ति खामणा खामुं ।' गुरु कहे 'खामेह' श्रावक साथ हो तो गुरु कहे 'पुण्यवंतो! चार वार खमासमणा देइ तीन तीन नवकार कही पख्खी (चोमासी संवच्छरी) समाप्ति खामणा खामेह' साधु एक एक खमासमणा देतेहए जीमणा हाथ गुरुके सामे थापके "इच्छामि खमासमणो पियं च मे जं भे०" इत्यादि चार खामणे खामे, श्रावक तो खमासमणा देतेहुए मस्तक नमाके चार वेला तीन तीन नवकार गिणे, चोथे खामणेके अंतमें गुरु कहे 'नित्थारगपारगा होह' सब जणे कहे 'इच्छामो अणुसहि' एक साधु कहे 'इच्छकारि' भगवन् ! पसाओ करी परुखी(चोमासी संवच्छरी) तप प्रसाद कराओजी' गुरु कहे 'पुण्यवंतो! पख्खीके लेखे एक उपवास २ आंबिल ३ निवी ४ एकासणा ८ वियासणा दो हजार सज्झाय करी १ उपासनी पेठ पुरजो, (चोमासीमें ये उपवासादि सब दुगुणा और संवच्छरीम तिगुणाकहे) पख्खियं (चोमासिय संवच्छरियं) समत्तं देवसिथ भणिज्जाह' (पख्खी चोमासी संवच्छरी समाप्त देवसी भणजो) सबजणे कहे 'तहत्ति'। साधु आषाढ चोमासीम खमा० देके कहे 'इच्छा० सं० भ०! पीठकलग संदिसाउँ, गुरु कहे 'संदिसावेह' शिष्य 'इच्छं इच्छामि खमा० इच्छा० सं० भ० पीठ फउग पडिग्ग? गुरु कहे 'पडिग्गहेह'। कातिक चोमासीमें खमा० देके कहे 'इच्छा० सं० भ०? पीठफलग विसर्जु ?' गुरु कहे 'विसर्जेह'। दो बांदणे देके हपेशकी तरह देवसी पडिक्कमणा करे, परंतु मुयदेवीका काउस्सग्ग करके "कपलदल विपुलनयना"
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१०४
छीका दि
दोष निवारण विधि
१०५
आजत
शांति
स्वनन
தாகம்
श्रुतदेवी थुइक, बाद 'भवणदेवया करेमि कासगं अन्नत्थ० ' कहके १ नवकारका काउस्सग्ग, पारके " नमोऽर्हतः ज्ञानादिगुणयुartio" कहे, बाद क्षेत्रदेवीका काउस्सग्ग “यस्याः क्षेत्र समाश्रित्य ० " थुइ कहे, " नमोऽस्तु वर्द्धमानाय " की तीनों गाथा गुरु कहदे बाद सब कहे, स्तवनकीजगह अजिसंताकहे, देवसियपायच्छित खुद्दोत्रद्दव काउसग्गकरके प्रगटलोगस्स कहे बाद साधु खमा० देके 'इच्छा० सं० भ० ! असज्झाइय अणाउत ओहडावणत्थं काउस्सग्ग करूँ ?' गुरु कहे 'करेह' बाद 'इच्छं असज्झाइय० करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ० ' चार लोगस्स काउस्सग्ग, प्रगटलोगस्स कहे, सझाय चैत्यवंदन लघुस्तवनके स्थान में उवसग्गहरं स्तोत्रकहे, पडिक्कमणा पूराहुए वाद चक्क सायकाचैत्यवंदनादिकरे गुरुकी आज्ञासे एकश्रावक " नमोऽर्हत०" कहके वडिशांतिकहे, दूसरे सुणे सब दादाजीका स्तवन कहे ।
पख्खी चोमासी संवच्छरी पडिक्कम में पाक्षिकादि मुहपत्ती पडिलेहणसे पाक्षिकादि समाप्तितक छींक हो तो 'खुद्दोवद्दव ० ' के पहले या पडिक्कमणेके अंतमें खमा० 'इच्छा० सं० भ० ! अपशकुन दुर्निमित्तादि ओहडावणत्थं काउस्सग्ग करूं ?, इच्छं अपशकुन अन्नत्थ०' १-२-३ नवकारके तीन काउसरग, उपर क्रमसे १-२-३ नवकार प्रगट कहना, बने सो विशेष तप पूजादि करना । देवी आदि पांचों visकमणोंमें विल्लि (मिनी) मंडल में आडि फिरे तो पक्किम के अंत में उपर लिखे मुजब तीन काउस्सग्ग करे, ater arrest बाद प्रगट तीन नवकार गिनके आगे लिखी गाथा तीन वेला कहे डावे पगसे तीनवार भूमिकुं दवावेजासा काली कब्बडी, अख्खहि कक्कडियारी । मंडलमांहे संचरी, हय पहिय मज्जारी |१| अजितनाथकुं,जीते हैं सत्रभयजिन्होंने ऐसे । शांतिनाथकुं, और, प्रशांत हुएहै, सब,गद (रोग), पाप जिनके ऐसे । जगत् के गुरु, शांतिरूप, गुणके, अजियं, 'जिअ सव्व भयं । 'संतिं, च, पसंत, सव्व, गय, पावं ॥ "जयगुरु, संति, गुण,
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करनेवाले। (इन दोनोंही,जिनवरोंको,प्रणिपात(नमन)करताहूं ।११ गाथा छंदहै । नष्टहुए, खराब, भाववाले। उनकुं, मैं, विपुल(मोटे),तपसे, करे। दोवि, जिणवरे, पणिवयामि ॥१॥ गाहा । ववगय,मंगुल, भावे। ते.ऽहं, विनल, तव,
निर्मल,स्वभाववाले। निरुपमर,महा(मोटे)प्रभाववाले । स्तनूंगा,अच्छीतरहदेखे,सदभाववाले३।२। गाथा। सर्व, दुःख प्रशांत होगये हैं। कनिम्मल,सहावे॥निरुवम, महप्पभावे। थोसामि, सुदिठ्ठ,साभावे ॥२॥गाहा।'सव्व.दुख्खप्पसंतीणं ।। ॐ सर्व,पाप प्रशांतहोगयेहैं जिनके । सदा,नहीं जोतानेवाले,शांतहए(ऐसे)। नमस्कारहो,अजित,शांतिनाथकुं।। श्लोक छंद। हे अजितजिन !,
सव्व, पावप्पसंतिणं॥ *सया, अजिय,संतीणं । नमो, अजिय,संतिण।।सिलोगो। अजियजिण!.. जमुखकुं,पवर्तानेवालाहै । तुमारे,पुरुषोमें उत्तम,नामका,कीर्तन(स्तवन)। वैसेही,धीरजता,मतिकुं,प्रवर्तानेवालाहै । तुमारा, तथा, हेजिनोत्तम,
‘सुह, प्पवत्तणं। तव, पुरिसुत्तम, नाम, कित्तणं॥ तहय, धिइ, मइ, प्पवत्तणं । तब, य, जिणुत्तम, में शांतिनाथ !,कीर्तन(स्मरण)।४। मागधिका छंद। "क्रियाओंके,विधि(करने)से,संचेहुए, कर्मके, क्लेशोंसे,विशेष छुडानेवाले । ५नहींजीतानेवाला,
संति!, कित्तणं ॥४॥मागहिया। 'किरिया, विहि,संचिय,कम्म,किलेस,विमुख्खयरं। "अजियं. भराहुआ,और, (ज्ञानादि)गुणोंसे,मोटे मुनियोंकी, सिद्धिकुं गया(पामा)हुआ । अजितनाथको, और, शांतिनाथ महामुनिको, इसीतरह, निचिअं. `च, गुणेहिं, "महामुणि, सिडि गयं ॥ “अजिअस्स. य. "संतिमहामुणिणो, 'ऽविय, १०३॥ अजित शांतिदोतीर्थकरोकुं । २अन्यकिसीकी ओपमा न लग सके वैसे । विद्यमान जीवाजीवादि पदार्थोको देखनेवाले । ४कायिकीआदि पांच,या पच्चिस 1 ५अन्यदेवोंसे । ६अणिमादिआठ
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असंतोष अज्ञान
रूपा
शांति करनेवाला(ऐसे)। हमेशां मेरेको,निवृत्ति(मोक्ष)का, कारणहो,और,(किया नमस्कार ।। आलिंगनक छंद । हेपुरुषो!, यदि(जो),
संतिकरं। सययं,मम, निव्वुइ, कारणयं, च,"नमंसणयं ॥५॥ आलिंगणयं ।'पुरिसा!, जइ, दुःखके निवारणकुं। यदि, और, विशेष मांग(शोध)ते हो?(तो), सुखके कारणकुं । अजित(नाथ)के,शांति(नाथ)के,और, भावसे । अभयके दुख्खवारणं। जइ,'अ, विमग्गह ?, "सुख्खकारणं॥ अजिअं, 'संति, “च,"भावओ। अभ
अम- करनेवाले, शरणकुं, अंगीकार करो ।६। मागधिका छंद । अरति से,रतिसे,२अंधेरेसे.विशेषरहित,उपरत(रुके हुए,जरा(बुढापा),मस्णवाले। में यकरे, सरणं, पवज्जहा ॥६॥ मागहिया। अरइ, रइ,तिमिर,विरहिय, मुवरय, जर, मरणं।
देव,अमुरकुमार, सुवर्णकुमार,नागकुमार के,पतियोंने,आदरसे,नमस्कार कियेहुए। अजितनाथकुं, मैं भी, और,अच्छे न्याय नीतिमें, सुर, असुर, गरुल, भुयग, वइ, पयय, पणिवइयं ॥ "अजिअ, महमवि, य, 'सुनय नय, निपुण(हुशियार),अभय करनेवाले । शरण, जाकर, भूमि स्वर्गमें जन्मेहुओंसे ,पूजित, निरंतर, नजीक नमताहूं ७ संगतक छंद।
निनण, मभय करं। सरण,मुवसरिय, 'भुवि दिविज, महिअं, सयय, मुवणमे ॥७॥ संगययं। के उस,और, जिनोत्तमकुं, उत्तम, अंधेरेरहित,सत्व या सत्र,धरनेवाले । आर्जव(सरलता),मार्दव(नम्रता),शांति,विमुक्ति (निलेभिता),समाधिके,
तं, च, जिणुत्तम, मुत्तम,नित्तम, सत्त, धरं। अज्जव, महव, खंति, विमुत्ति, समाहि. ३ वैमानिक । ४ मुकुटमें गरुडके चिन्हवाले । ५ ज्योतिषि ब्यंतरदेव विद्याधर । इंद्रादिने । मनुष्य-देवोंसे । ८अत्यंत,अज्ञानके : ९शुभ ध्यानरूप अग्निमें कर्मोक् होमनेरूप भावयज्ञ ।
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निधि(खजाने)। शांति करनेवाले,प्रणाम करताहूं,दमनेमें उत्तम,तीर्थ करनेवाले। शांतिनाथमुनि,मेरेको,शांति, समाधिका वर,देनेवालेहो ।
निहिं॥ संतिकरं, "पणमामि, "दमुत्तम, तित्थयरं। 'संतिमुणि,मम,संति,समाहिवरं, दिसन 1E सोपानक छंद । श्रावस्तीके, पूर्वराजा, और,उत्तम,हाथीके,मस्तकजैसे,प्रशस्त(अच्छे), विस्तीर्ण,संस्थानवाले । स्थिर(मजबूत),सदृश सोवाणयं। सावत्थि,पुव्वपत्थिवं, च, 'वर,हत्थि,मत्थय, पसत्थ,विच्छिन्न,संथियं। थिर, सरिच्छ, वक्षम(छाती)वाले,मदोन्मत्त, लीला करतेहुए, उत्तम,गंधहस्तिके,प्रस्थान(चाल)से,चलनेवाले,संस्तव(स्तुति)के,योग्य । हाथीकी,मूढजैसे,बाहुवाले,
वच्छं, मयगल,लीलायमाण,वर,गंधहत्थि, पत्थाण, पत्थियं, संथवा, ऽरिहं। हत्थि,हत्थ, बाहुँ, तपायेहुए,कनकके,आभूषणतुल्य,निरुपहतस्वच्छ,पीले रंगवाले,अतिउत्तम,लक्षणोंसे,उपचितयुक्त,सौम्य,सुंदर,रूपवाले । श्रुति(कान)को,सुखदायी, धंत,कणग, रुअग, निरुवहय, पिंजरं, पवर, लख्खणो, वचिय,सोम,चारु,रूवं। "सुइ, सुह, मनको,भानंदकारी अत्यंत, रमणीय, उत्तम, देवदुंदुभीके,अवाजजैसी,मधुरतर(अतिमीठी),शुभवाणीवाले ।९। वेष्टक छंद । अजितनाथकुं,जीताहै, मणा,ऽभिराम,परम,रमणिज्ज,वर,देवदुंदुहि,निनाय, महुरयर, सुहगिरं॥९॥वेड्ढओ। अजिअं, जिया, (कर्म)शत्रुका,समूह जिन्होंने । जीताहै,सर्वभय जिन्होंने,संसार प्रवाहके.दुश्मन(ऐसे)। प्रणाम करताहूं, मैं, आदरसे । पापकुं, अतिशांत करो,
रि, गणं। जिअ, सव्वभयं, भवोह, रिनं ॥ ‘पणमामि, अहं,पयओ।"पावं, पसमेन, ॥१०॥ १ पांचों इंद्रियोंको जीतनेवाले । ४ चतुर्विध संघकी स्थापना। २ अयोध्याकाही दूसरा नाम है । ३ गृहस्थावस्थाके ।
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मेरे, हेभगवन् ! ।१०। रासालुब्धक छंद। कुरु,जनपद(देश)में,हस्तिनापुरके,नरेश्वर(राजा)थे,पहले, बादमें, मोटे चक्रवर्तीके,भोगोंकुं, 'मे, भयवं! ॥१०॥रासालुडओ। कुरु,जणवय,हत्थिणानर,नरीसरो, पढम, तओ,महाचक्कवट्टि,भोए.. (ऐसे)महाप्रभाववाले । जो, बहोत्तर, घरवाले,उत्तम, हजार, श्रेष्ठ,नगरोंसेर,निगमोंसे युक्त,जनपद(देश)के,पतिथे, बत्तीस, राजाओंसे, के "महप्पभावो।'जो, बावत्तरि 'पुर, वर, सहस्स.वर, नगर, निगम, जणवय, वई.बत्तीसा, राय, उत्तम, हजार, अनुसराणे, मार्गवाले। चउदे, उत्तम,रत्नोंके, नव, मोटी,निधिओंके,चोसठ, हजार, अतिश्रेष्ठ,युवति(स्त्री)योंके,,
वर, सहस्सा, २ऽणुयाय,मग्गो॥ चनदस,वर,रयण,नव,महा, निहि,चनसठ्ठी,सहस्स, पवर, जुवईण, मुंदर पति(और)। चौरासी, घोडे, हाथी,रथोंके, सौहजार(लाख), स्वामी, छन्नु, गामोंके, करोड, स्वामी, हुएथे, जो,
सुंदरवई । चुलसी, हय,गय, रह,सयसहस्स,"सामी,छन्नवइ, गाम, कोडि,“सामी, आसी, जो, ॐ भरतक्षेत्रमें, भगवान् ।११॥ वेष्टक छंद । उन,समतावाले,शांति करनेवाले । अच्छे तिरेहुए, सब भयोंसे। शांतिनाथ, स्तवताहूं,
"भारहम्मि,भयवं ॥११॥वेड्ढओ। तं, संति, 'संतिकरं। संतिण्णं, सव्वभया ॥ संतिं, थुणामि, + जिनकुं। शांतिकुं,करनेकेलिये, “मेरे ।१२। रासानंदितक छंद । इक्ष्वाकुवंशके,विदेह(देश)के,नरेश्वर,मनुष्यों में वृषभ५,मुनियों में वृषभ ।
जिणं। 'संति, विहेन, मे॥१२॥रासानंदिअयं। इख्खाग, विदेह,नरीसर,नर वसहा, मुणिवसहा। फि भोगवे,जिसमे । ४ नवमी दशमी गाथाम अन्वयोंके अंक एक साथ है। जिसमें कर(झुपी आदि)न लगते हो वैसे शहर । ३ व्यापारकी पीठवाले गाम । ४ वे शांतिजिन । ५ उत्तम ।
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०६।।
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नवीन,शरदऋतुके,चंद्रतुल्य,संपूर्ण, मुखवाले, बीताहै, अंधेराजिनका,दुरकियाहै,कर्मरजजिन्होंने । हे अजितजिन !, श्रेष्ठ, तेजरूप गुणोंसे, # नव,सारय, ससि,सकला,ऽऽणण,विगय, तमा, विहुअ, रया ॥ “अजि!, नत्तम. तेअगुणेहिं, के मोटे मुनियोंसे, अमेय,बलवाले,विपुल(मोटे),कुलवाले । प्रणाम करताहूं,तुमकुं,संसार भयको,तोडनेवाले,जगत्के,शरणभूत,(आप)मेरे,शरण हैं
महामुणि,अमिय, बला, विनल, कुला। पणमामि, ते, भवभय, मूरण, जग, सरणा, मम,सरणं १३। चित्र लेखा छंद । देव, दानवोंकेइंद्र, चंद्र,मूर्यके,वंदनीय,हृष्ट(हर्षित),तुष्ट(संतोषित),प्रशनीय,अत्यंत । मुंदर,रूपवाले,तपाये, रूपेके, ॥१३॥ चित्तलेहा। देव.दाणविंद,चंद,सूर, वंद, हठ्ठ, तु, जिठ्ठ,परम। लठ्ठ, रूव, धंत, रुप्प, पाटतुल्य,सफेद,निर्मल,चिकणे, धोले । दांतोंकी, पंक्तिवाले,हेशांतिनाथ ,शक्ति, कीर्ती मुक्ति(निर्लोभता),युक्ति,३गुप्तिसे,अतिउत्तम । दीप्तिमंत, पट्ट, सेय, सुद्ध निद,धवल॥ दंत, पंति, 'संति!, सत्ति,कित्ति, मुत्ति, जुत्ति, गुत्ति, पवर । दित्त तेजके,दवाले,ध्यानेयोग्य,सब, लोकमें, फेलेहुए, प्रभाववाले,नाननेयोग्य,अत्यंतदो,मेरेको, समाधि ।१४॥ नाराचक छंद। निर्मल, तेअ, वंद, अ, सव्व,लोअ,भाविअ,प्पभाव, णेअ, "पइस, मे,समाहिं ॥१४॥नारायओ। विमल, चंद्रमाकी,कलासे,अधिक,सौम्य(शीतल)। अंधेरेरहित,मर्यकी,किरणसे, अधिक,तेजवंत। त्रिदश(देव)पति(इंद्रों)के,समुदायसे, अधिक,रूपवंत।
ला,ऽइरेअ. सोमं । वितिमिर.सर, करा, ऽइरेअते॥ तिअसवइ, गणा, इरेअरूवं। १ अज्ञानरूप । २ महाजाना मुनिनी जिनका मापा न कर सके धैने। ३ वैमानिकादि ४ भवनपत्यादि ।
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पर्वतोंमे, अतिउत्तम (मेरु) से, अधिक, दृढतावाले |१२| कुसुमलता छंद । सत्व में, फेर, सदा, अजितः । शरीरसंबंधी, और, बलमें, अजित । धरणिधर, पवरा, इरेअ, सारं ॥ १५॥ कुसुमलया। सत्ते, अ, सया, अजिअं । सारीरे, अ, 'बले, अजिअं ॥ तप, संयममें, और, अजित (ऐसे)। यह ( मैं ), स्तत्रताहूं, जिनकुं, अजितनाथ | १६ | भुजगपरिरिंगित छंद । सौम्य के गुणोंसे, पाता है, 'तव, संजमे, अ, अजिअं । "एस, थुणामि, "जिणं, "अजिअं ॥१६॥ भुअगपरिरिंगिअं । सोम,गुणेहिं, पावई, नहीं,उनकुंड,नवीन,शरदऋतुका, चंद्रमा । तेजके, गुणोंसे, पाता है, नहीं, उनकुं, नवीन, शरदऋतुका, सूर्य । रूपके, गुणोंसे, पाताहै, नहीं, न, तं, 'नव, सरय, ससी । तेअ, गुणेहिं, "पावइ, न, 'तं, नव, सरय, रवी ॥ रुव, गुणेहिं, "पावइ, न, उनकुं, त्रिदश (देव) गणका पति ( इंद्र ) । दृढताके, गुणोंसे, पाताहै, नहीं, उनकुं, पर्वतोंका, पति (मुमेरु) | १७| खिद्यतक छंद । धर्मतीर्थ, तं, "तिअस गण, वई । "सार, गुणेहिं, पावइ, "न, "तं, धरणिधर, वई ॥ १७॥ खिज्जिअयं । तित्थ,
9.
उत्तम, प्रवर्त्तानेवाले, अज्ञान, रजसे, रहित । पंडितजनोंसे, स्तुत५, पूजित, नष्टहुए है, कलह, मैलजिन्होंके। शांति, सुखको, प्रवर्तानेवाले, तीनकरण से, 'वर, पवत्तयं, तम, रय, रहियं । धीरजण, थुअ, ऽच्चिअं, चुअ, कलि, कलु ॥ संति, सुह, पवत्तयं, तिगरण, सावधानहोकर, शांतिनाथके, मैं, महामुनि (ऐसे), शरणकुं, प्राप्तकरता हूं १८ ललितक छंद । विनयसे, नमेहुए, शिरपर, रचीहुइ, अंजलिवाले, ॥१०८॥ सिर, रइअंजलि, पयओ, "संति, 'मऽहं महामुणिं, सरण, मुवणमे ॥ १८ ॥ ललिअयं । 'विणओ, णय,
१ आत्मबल | २ अन्यदेवादिकोंसे नहीं जीतानेवाले । ३ शीतलता । ४ अजित जिनकुं । ५ स्तुति कियेहुए ।
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ऋषियोंके,गगसे,संस्तुत, निश्चल। देवोंके,अधिप(इंद्र),धनपति(कुवेर),नरपतिसे,स्तुत’,महित*, पूजित, अनेकवार। तुरतके ऊगेहुए,
रिसि, गण,संथुअंथिमि।विबुहा,ऽहिव, धणवइ,नरवइ,थुअ,महिअ,ऽच्चिअं, बहुसो॥"अइरुग्गय, शरदऋतुके,दिवाकर(मूर्य)से, अधिक,अच्छीप्रभावाले, तपस्यासे । आकाशरूपआंगणे में,विचरते, भेलेहुए,चारण(मुनि)से,वंदितहै, शिरनमाके
दिवायर. समहिअ.सप्पभ. "तवसा। गयणगण,वियरण.समुइअ. चारण, वंदिअं. सिरसा ११। किसलयमाला छंद । अमुरकुमार,सुवर्णकुमारसे,अच्छीतरह वंदितहै। किन्नर,महोरगरसे,नम(स्कृत)स्थित देवोंसे,करोड,सैकडों, ॥१९॥ किसलयमाला। 'असुर, गरुल, परिवंदि। किन्नरो, रग, णमंसि ॥'देव, कोडि, सय, संस्तुतः। श्रमणसंघसे,सबतरहवंदित(ऐसे)।२०। मुमुख छंद । भयरहित,पापरहित । अनासक्त, रोगरहित । नहीं जीतानेवाले,अजितनाथकुं।
संथु। समणसंघ,परिवंदिअं॥२०॥सुमुहं।'अभयं,अणहं। अरयं, अरुयं ॥ अजिअं, अजिअंE , आदरसे,प्रणमताहूं।२१॥ विशुद्विलसित छंद । आयेहुए,उत्तम, विमान, दिव्य,सुवर्णमय । रथ,घोडोंके, समुदाय, सैकडोंसे, जल्दी।
पयओ,पणमे॥२१॥विज्जुविलसियं ।आगया,वर,विमाण,दिव्व,कणग। रह,तुरय,पहकर,सएहिं,हुलि॥ संभ्रम(उतावल)सहित,उतरनेसे, क्षुभित, चलायमान, चपल,कुंडलोंसे,बाजूबंधोंसे, मुकुटोंसे, शोभतेहुए, मस्तकरूप,श्रेणिवाले(तथा) ॥२२॥
ससंभमो, अरण,खुभिय.लुलिय,चल, कुंडलं, ऽगय, तिरीड, सोहंत, मनलि, माला ॥२२॥ Ex स्तुति किये हुए । * नमत्कार किये हुए। १ व्यतर जाति के देव गवैये गायन करनेवाले । २ व्यंतरोकी एक जाति, य नागकुमार जातिके भवनपतिदेव । ३ निर्मोही।
व
कोडि, सय
अनासक्त, रोगरहित ।
न
२०॥सुमुहं।'अभय अ
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१.०९॥
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वेष्टक छंद । जिस,देवसमुदाय, सहित, अमुरकुमारोंके गण, वैर रहित, भक्तिमें अच्छेजुडेहुए । आदरसे,भूपितहुए, संभ्रमसे, भेलेहुए, वेड्ढओ।ज, सुरसंघा, सा, ३ऽसुरसंघा, 'वेरविनत्ता, भत्तिसुजुत्ता। 'आयर,भूसिय,संभम, पिंडिअ, अित्यंत, आश्चर्ययुक्त, सब, बल समूहवाले । उत्तम,कंचन(सोने),रत्नोंसे,प्रकाशवान् ,देदीप्यमान,आभूषणोंसे,शोभायमान,अंगवाले। शरीरसे,
सुछु,सुविम्हिअ,सव्व, बलोघा ॥ उत्तम, कंचण, रयण,परूविय, भासुर, भूसण,भासुरि,अंगा। गाय,
नमेहुए, भक्तिके,वशसे, आयेहुए, हाथ जोडके,कियेहुए,मस्तकसे,प्रणामवाले ॥२३॥ रत्नमाला छंद। वंदन करके, स्तवनकरके, बादमें, समोणय,भत्ति,वसा,ऽऽगय, पंजलि,पेसिय, सीस,पणामा॥२३॥रयणमाला। वंदिऊण, थोऊण. तो, जिनेश्वरकुं। तीनवेर, निश्चय, तथा, फेर, प्रदक्षिणा देके,। प्रणाम करके, और,जिनेश्वरकुं, सुर३, असुर । प्रमुदित(हर्षित)हुए, E"जिणं। तिगुण, "मेव, य, पुणो,' पयाहिणं॥"पणमिऊण, "य, “जिणं, "सुरा,ऽसुरा। “पमुइआ, के अपने स्थानोंमे,पीछे,चलेगये ।२४। क्षिप्तक छंद । उस, महामुनिकुं, मैं भि,हाथजोडाहुआ । राग, द्वेष, भय, मोहसे, वर्जित । देव,
सभवणाई, ता,गया॥२४॥ खित्तयं तं,महामुणि, महंपि,पंजली। राग,दोस,भय,मोह,वजियं ॥देव, 5 दानव, नरेंद्रोंसे,वंदित । शांतिनाथ, उतम,मोटेतपाले,नमताहूं।२५॥क्षितक छंद । आकाशके बीचमें,विचरने(फिरने वालो । ललित(मनोहर), दाणव,नरिंद,वंदि। संति, मुत्तमं,महातवं नमे॥२॥ खित्तयं। अंबरंऽतर,विआरणिआहिं। ललिअ, १ शोभाषमात आभूषण पहरे हुए। x तेपोसमी चोवीसमी गाथा अन्वयके अफ भेले । सन्म फोज आदि स्वारिवारके। ३ चनानिक देव । ४ भवनपतिदेव ।
११०॥
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सोनोके तुल्य, चलनेवाली । पुष्ट, श्रोणि', स्तनोंसे, शोभनेवाली। अखंड, कमलके,पत्रजैसे,लोचनवाली (तथा) ॥२६॥ से हंसवहु,गामिणिआहिं॥पीण,सोणि. थण,सालिणिआहिं॥सकल,कमल, दल, लोअणिआहिं॥२६॥ में दीपक छंद । पुष्ट(और),अंतररहित,स्तनोंके,भारसे, विशेष नमेहुए,शरीररूप,लता वाली । मणिरत्न,सोनेकी,अतिशिथिल(हीली), मेखलाकंदोरेसे,
दीवयं। 'पीण, निरंतर, थण, भर,विणमिअ, गाय, लयाहिं। मणि,कंचण, पसिढिल, मेहल, में शोभित, श्रोणितट वाली। उत्तम, धुबरीवाले, झांझर, मुंदरतिलक, कडोंके,विभूषण(दगिने)वाली। प्रीतिकारक,चतुरोंके,मनकोहरे(वैसे), F सोहिअसोणितडाहिं॥वर,खिंखिणि, नेनर,सतिलय,वलय, विभूसणिआहि। रइकर, चनर, मणोहर,
सुंदर,देखने योग्य(रूपाली)।२७) चित्राक्षरा छंद । देवांगना(देवी)ओंने, किरणोंके,समुदायवाली, वांदे, फेर, जिनके,वे(प्रसिद्ध), में सुंदर,दंसणिआहिं॥२णाचित्तऽरुखरा। देवसुंदरीहिं, 'पाय, वंदिआहिं, वंदिआ,य, जस्स, ते, सुंदरगतिवाले,चरण। अपने, ललाट(निलाड)से,आभूषणोंकी, रचनाके,प्रकारों(भेदों)मे, कैसे कैसे भी। अपांग", तिलक,पत्रलेखा, सुविक्कमा,कमा। अप्पणो,निडालएहि, मंडणो,ड्डण,प्पगारएहिं, केहि केहि वि॥'अवंग,तिलय,पत्तलेह,
नामके, देदीप्यमान, संगत(युक्त),अंग(देह)वाली । भक्तिसे,सन्निविष्ट(युक्त)होके,चांदनेको,आइहुई(ऐसी), होतेहैं, वे, वंदित, नामएहिं, चिल्लएहिं, संगयं, ऽगयाहिं। भत्ति, सन्निविठ्ठ, वंदणा, ऽऽगयाहिं, हुंति, 'ते, वंदिआ, कपीछेसे कमरके नीचेका भाग । २वेलड़ी। क्या पराक्रम । ४पहरनेमें या बनावटमें अनेक प्रकारकी। ५ नेत्रांत, अर्थात् नेत्रमें आंजा हुआ काजल । ६भगवन्के दोनुं चरण ।
步步五五五五五五五五五五五五方对 5555555
१॥
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जफफफफफफफफफफफफफफफफफफ
वारंवार २८ नाराचक छंद । उन, मैं, जिनचंद्रकुं। अजितनाथ, जीतेहुएमोहवाले । नष्टहुएहै, सब क्लेशजिनके। आदरसे, पुणोपुणो॥२८॥ नारायओ।तम, ऽहं, जिणचंदं। अजिअं, 'जिअमोहं॥ धुय, सव्वकिलेसं। पयओ, प्रणाम करताहूं।२१॥ नंदितक छंद । स्तवेगये,(और)वांदेगये,ऋषि(मुनि)गण,(तथा)देवसमूहसे । बादमें,देवांगनाओंसे,आदरपूर्वक,प्रणामकियेगये पणमामि॥२९॥ नंदिअयं। १ थुअवंदिअस्सा, रिसिगण,देवगणेहि। तो,देववहुहि,पयओ,पणमिअस्सा जास्यके ,जगत्में उत्तम, शासनवाले। भक्तिके, वशसे, आइहुई, एकत्रमिलीहुई । देवोंकी, उत्तम,अप्सरा(देवी)ओंने, बहुत। देवोंके,
जस्स, जगुत्तम,सासणअस्ता।'भत्ति,वसा,ऽऽगय,पिंडिअयाहिं। देव,वर, ऽच्छरसा, बहुआहिं। सुर, उत्तम,रति(क्रीडा),गुणमें,पंडिता(चतुरा) ऐसी ।३०। भामुरक छंद ।वांसलीके,शब्द,वीणा(तथा),तालोंसे,मिलेहुए । त्रिपुष्कर के, मनोहर, के वर, रइ, गुण, पंडिअयाहिं॥३०॥ भासुरयं। "वंस, सद्द, तंति, ताल,मेलिए।तिनख्खरा,ऽभिराम, शब्दोंसे, मिश्रित,कियाहुआ,तथा। श्रुति(कान)को,सुखदायक,और,शुद्धषड्ज(स्वर)के,गीत(तथा),पगोंमें,जालीवाली, धुंबरोओंसे । कडे (तथा), सह. मीसए, कए, अ॥ "सुइ, समाणणे,अ, सुसज्ज. गीय, पाय, जाल, घंटिआहिं। वलय, मेखलाओंके ३,समुदाय(और),ज्ञांझरके,मनोहर,शब्दोंसे, मिश्रित,किया,और। देवनटवीओंने, हाव, भाव, विभ्रमके, प्रकारोंवाले, मेहला, कलाव,नेनरा,ऽभिराम,सह,मीसए,कए, । देवनट्टिआहिं.हाव,भाव.विश्भम,प्पगारएहि, 12.१२|| x ३०मी तथा ३१मी इन दोनुं गाथाके अन्वयांक शामिल है। १ मोक्षके योग्य । २ नामके वाजिंत्र । ३ कमरके कदोगेंके । ४ ऐसा नाटक शुरु करनेपर ।
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नाचकरके, शरीरके, लटकोंसे, वांदे है, और जिनके, वे (प्रसिद्ध), सुंदरगतिवाले, चरणों कुं, उन, तोनलोक्के, सब, जीवोंको, नच्चिऊण, "अंग, हारएहिं, वंदिआ, "य, "जस्स, ते, "सुविक्कमा, "कमा, तयं, तिलोय, सव्व, सत्त, शांतिकारक । अतिशांत हुए है, सब, पाप, दोषजिनके (ऐसे), यह, मैं, नमताहूं, शांतिनाथ, उत्तम, जिनवरकुं । ३१ । नाराचक छंदू | संतिकारयं । पसंत, सव्व, पाव, दोस, मेस, ऽहं नमामि, संति.मुत्तमं जिणं ॥ ३२ ॥ नारायओ,
छत्र, चापर, पताका, यज्ञस्तंभ, यवसे, मंडि ( शोभित । ध्वजवर, मगरमच्छ, तुरग (घोडे), श्रीवत्सके, उत्तमलांछन वाले | द्वीप, समुद्र, मेरुपर्वत, 'छत्त, चामर, पडाग, जूअ, जव, मंडिआ । झयवर, मगर, तुरय, सिरिवच्छ, सुलंछणा ॥ दीव, समुद्द, मंदर, दिग्गजोंसे, शोभित । स्वस्तिक (साथिया), वृषभ (बैल), सिंह, रथ, चक्रके, उत्तम चिन्हवाले |३२| ललितक छंद । स्वभावसे, सुंदर, दिसागय, सोहिआ। सत्थिअ, वसह, सीह, रह, चक्क, वरं किया ॥३२॥ ललिअयं । 'सहाव, लठ्ठा, असमान प्रतिष्ठा वाले । दोषोंसे दुष्ट नहीं, गुणों से ज्येष्ट (बडे ) । प्रसाद (प्रसन्नता) से श्रेष्ठ, तपस्यासे, पुष्ट । लक्ष्मीसे, इष्ट (पूजित), ऋषियोंसे, सम, प्पठ्ठा । अदोसदुष्ठा, गुणेहिंजिठ्ठा ॥ पसाय, सिठ्ठा, तवेण, पुठ्ठा । सिरिहिं, इठ्ठा, रिसिहिं, ज्युष्ट (सेवित ) |३३| वानवासिका उद। वे तपस्यासे, धोयेहुए, सब, पापवाले । सब, लोगोंको, हितका, मूल (रस्ता), प्राप्त करानेवाले । जुठ्ठा ॥ ३३ ॥ वाण मिया। ते, 'तवेण, धुअ, सव्व, पावया । सव्व, लोय, हिअ, मूल, पावया ॥ १ छोटी ध्वजा । २ मो इंद्रध्वज। ३ जिनकी बराबरी दूसरा कोइ न कर सके, वैसी । ४ या 'अ' जुदा न निकालें तो "समपइठा" नाम 'समता भाव में स्थिरतावाले' ऐसा अर्थ होवे ।
5 ।।११३॥
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अच्छो स्तुतिकियेहुए, अजितनाय शांतिनाथ, पूज्य। हो, मेरेको, शिवमुखोंके, देनेवाले ॥३४॥ अपरांतिका छंद । इसतरह, तपके,
संथुआ, 'अजिअ, संति, पायया।हुंतु, मे,सिवसुहाण,दायया ॥३४॥अपरांतिका। एवं, 'तव, जबलसे,विपुल(मोटे)। स्तवाहै, मैंने, अजित, शांति, जिनके,युगल(जोडले)कुं। दूरहुआहै,कर्मरूपरजका,मैलजिनके। (मोक्ष)गतिकुं,गयेहुए, बल, विनलं। थुअं, 'मए, अजिअ,संति,जिण, जुअलं॥ ववगय, कम्मरय, मलं। 'गई, गयं,
शाश्वती, विपुल(मोटी)।३५१ गाथा छंद । वह बहुत,गुणोंके,प्रसादवाला। मोक्ष, मुखसे,उत्कृष्ट(ऐसे),विषाद(खेद)रहित। नाश करो, की सासयं,विनलं ॥३५॥गाहा। "तं, 'बहु.गुण, प्पसायं। मुख्ख,सुहेण, परमेण, 'अविसायं ॥ नासेन..
मेरे, विषादकुं। करो, और,पर्पदा(सभा)उपरभी,फेर, प्रसादकुं ॥३६॥ गाथा छंद । वह ' ,हर्पितकरो,और,समृद्धिकुं । प्राप्तकराओ, में मे,विसायं। कुणन, अ, "परिसा वि, अप्पसायं ॥३६॥ गाहा। तं, मोएन,अ, नंदि। पावेन,
और,नंदिषण को,विशेष समृद्धि । पर्षदाकोभी, तथा,मुख,समृद्रि । मेरेको,और, देवें, संयममें,आनंद ।३७ गाथा छंद । पाक्षिक(पख्खी), अ.नंदिसेण,मभिनंदि॥ परिसावि अ, सुह.नंदि। मम, य, दिसन, संजमे,नंदि॥३७॥ गाहा। पख्खिय, चातुर्मासिक(चोपासी)। सांवत्सरिकमें,अवश्य(जरूर),भणना(बोलना)। मणनाचाहिये, सभीने । उपमर्ग(कष्ट),निवारनेवाला,यह(स्तोत्र)३८ चानम्मासिसंवच्छरिए. अवस्स.भणिअव्वो। सोअव्वो, सव्वहिं।'नवसग्ग.निवारणो.एसो। अजित-शांति जिनका जोडला x ये चार गाथा अति मगलाचरमकी है। २ नामके मुनि, इस स्तोत्रको रचनेदारे। ३ प्रतिक्रमण में ।
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Fजो , पढता है, जो, और, पूरासुनताहै। उभय(दोन),काल(वख्त),ही, अजित शांति स्तवकुं। नहीं, निश्चय, होते हैं, उसको रोग । में जो,पढइ, जो, अ, निसुणइ। नभओ, 'कालं, पि, अजिअसंतिथयं ॥'न, हु. हुंति, तस्स,रोगा।
पहेलेउपनेभो, नष्ट होतेहैं ।३१। यदि(जो), इच्छतेहो ?,परमपद(मोक्ष)कुं। अथवा, कीर्तिकु. अतिविस्तारवाली, लोकमें। तो, पुषुप्पन्नावि.नासंति॥३९॥ 'जइ, 'इच्छह ?. 'परमपयं। अहवा, किर्ति, सुविथडं. भुवणे ॥'ता, तीनलोकको,उद्धरनेवाले । जिनवरके,वचनमें, आदर. करो ।४०३ | जैनमें श्रा० वद १से३१मा मास अधिक हो, ६१ मि ६२ मिक
तेल्लुक्कु. दरणे। जिण,वयणे,आयरं,कुणह।४०॥ तिथि भेली हो,वषे नहि,परंतु पैप्णव पंचांगसे तिथि मंतव्य यह है। पाक्षि- क्षये पूर्वा तिथिः कार्या, तृदो पूर्वा तथोत्त।। श्री महावीर निर्वाणे, भव्यैः लोकानुगैरिह ॥२॥ काद अर्थ-श्री महावीर निर्वाणकी कार्तिक अमावस तिथि क्षय हो तो पूर्वा तिथि चौदस,द्धि होय तो पहिली अमावस तथा दूसरी अमावस करे । तय भवइ जहिं तिहि हाणी,पुवतिही विडिया य सा कीरइ। पक्खी न तेरसिए,कुजा सा पुण्णमासीए।
+ अर्थ-तिथिकी हानि हो तो पूर्व तिथिको धर्म नियमादि करे,पाक्षिकप्रतिक्रमण तेरसको न करे, किंतु पुनम अमावसको करे ॥२॥
तिहि पडण पुवतिही.कायव्वा जुत्ताधम्मकज्जेस।चाउहसी विलोवे.पुण्णिमियं पक्खी पडिक्कमण ।३। + अर्थ-तिथि क्षय हो तो तिथिमें धर्मकृत्य करे, चौदस क्षय हो तो पूनम अमावसमें पाक्षिक प्रतिक्रमग करना युक्त हैx ॥३॥
x अमावस पूननका क्षय वृद्धि हो तो उदय चउदसको वा उसउदय उदस पर्व तीयीको दूसरी तेरस कहके पाक्षिक प्रतिक्रमण पौषधादि धर्मकृत्य निषेधने युक्त नहीं है।
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छठि सहिया न अठमी,तेरसि सहियं न पक्खियं होइ। पडिवय सहियं न कयावि,इमं भणियं वीयरागेहि४ ॥ अर्थ-अष्टमीके कृत्य छठमें न हो,एवं पूनम अमावसके पाक्षिक कृत्य तेरस एकममें न हो,किंतु पूनम अमावस या चौदसमें करे,ऐसा वीतरागोंने कहा है ठाणात्ति हेमाचार्यजीके गुरुने लिखाहै चोथ संबच्छरि होणेसे-"पख्खियाईणिवि चउद्दसीए आयरियाणि,अण्णहा आगमुत्ताणि पुण्णिमाए"
उदयम्मि या तिहि सा, पमाणा इयरा उकिरमाणाणं । आणाभंगऽणवत्था,मिच्छत्त विराहणा पाव।५। अर्थ—सूर्योदयमें जो तिथि वो प्रमाण है, उसको अन्य तिथि करनेवालोंको आज्ञा भंग, अनवस्था, मिथ्यात्व,विराधना दोष लगे ॥२॥ कतिही वुढिए पुव्वा, गहिया पडिपुन्नभोगसंजुत्ता। इयरा वि माणणिज्जा,परं थोवत्ति न तत्तुल्ला ॥६॥ अर्थ-तिथिकी वृद्धि हो तो संपूर्ण भोगवाली पहलि तिथि आराध्य है,दुसरी भी मान्य है परंतु थोडि है वास्ते पहलिके तुल्य नहिं है ॥३॥
देववंदन देवेंद्रे कयु, श्रीवीर विप्र कुले जाण। गर्भ पुरुषोत्तम शक्रस्तवे, न गर्भ नीच अकल्याण ।। आषाढि मुदि छठे गर्भाधाने, मूरि हरिभद्रे कल्याण । अभयदेवमूरि श्रेयः कडं, न विष कुले अकल्याण ।२। न आवे आव्या गोत्र कर्मथी, श्री वीर ब्राह्मणी कूख । अवतरिया क्षत्रि कुंडे प्रभु, त्रिशला राणीनी कूख ।। ते आसोज वदि तेरसे, मान्यु त्रिशलार कल्याण । फल वीरे विप्र नीच कुलथी, ते किम कहूं अकल्याण । ४। इंद्रे भद्रबाहुए कह्यु ए, श्रेय कल्याण फल जे । निंद्य अकल्याणक भूत किम?,अहो जिनचंद्र वीर ते ।।
जग जीवन जग वाल हो, ए देशी- वीर जिणंद गुण गावसुं, जिम थाय आतम उद्धार लालरे । पुण्ययोगे प्रभु मुझ मल्यो, पंचम काल मझार लालरे, वीर० ॥१॥ जगदीसर परमातमा, जगबंधु जगनाथ लालरे । जग उपगारि जगगुरु तुमे,जग रक्षक शिव साथ लालरे, वीर० ।। जिन गुण कण पण कीर्तना, चिंतामणि सम जाण लालरे । अवगुण बोले गोशालोवळी जमाली दुःखनी
श्रीवीर स्तवन
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११६॥
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खाण लालरे, वीर० ॥३॥ अनंत पुण्य कर्म योगथी, तीर्थंकर पद धार लालरे । गोत्र करम उदये प्रभु, ब्राह्मणी कूखे अवतार लालरे, वीर० ।। शक्र स्तवे पुरुषोत्तम, तेथी ते प्रभु गर्भ उच्च लालरे। गर्भ नीच अपसद अधम कहे, प्रभु निंदाए होवे नीच लालरे, वीर० ।। गर्भाधान कल्याण श्रेय छे, पंचाशक मझार लालरे । न गर्भ नीच अकल्याण कडं, तो किम विरुद्ध उच्चार लालरे, वीर० ।। देवानंदा कूखथी त्रिशला कूखे, गर्भधारण श्रेयरूप लालरे । इंद्रे ते निश्चय मानीयुं, न मार्नु अकल्याणरूप लालरे, वीर शुं मार्नु कल्याण फल माता कद्यु, होशे तीर्थंकर तुम पूत लालरे। विष कुल नीच निंद्य दाखवी, न ते अकल्याणक भूत लालरे, वीर० । कन्याग ते श्रेय भांखियुं, श्रेय ने कल्याग फल जाण लालरे। नीच अवरणवादे वीरन, मानें तो मारूं अकल्याण लालरे, वीर० ।। जे दिन विष कुले आविया,माने अच्छे5 शुभ कल्याण लालरे। ते क्षत्रिकुले वीर किम होवे,नीच अशुभ अकल्याण लालरे, वीर०।१०। 'कल्य' ते शुभ समृद्धि कही, 'अण'ते आप 'कल्याण' लालरे। ते विष सिद्धारथ कुले थयुं वलि विप्र मोक्ष कल्याण लालरे, वीर०।११। च्यवन इंद्रे न जाण्युं वीरनु, तो ओच्छव किहां मंडाग लालरे। मोक्षे अंधारूं ठाणांगमां, पण मानीजे कल्याण लालरे, वीर०।१२। जिनचंद्र वीर वियोगथो. मोहथी थाय दुःख शोक लालरे।देवानंदा गौतमने जिम,लेजो कल्याण मोक्ष एक लालरे, वीर०॥३॥
सोलम जिनवर शांतिजिन,सेवो सिरनामी । कंचनवरण शरीर कांति,अतिशय अभिरामी। अचिरा अंगज विश्वसेन,नरपति कुलचंद । मृगलंछन धर पदकमल, सेवे सुरनर छंद।। जगमा अमृत जेहवी ए,जास अखंडित आण। एक मने आराधता,लहिये कोडि'कल्याण'
सीमंधरं जिनाधीश, नम्राखंडलमंडलं । शुभ्रज्ञानरमाकेलि, मंदिरं नौमि सादरं ॥१॥ ये त्वां पश्यति ते धन्या, स्ते श्वाध्याः पूजयंति ये। ते दक्षा ये निपेवंते, नराः सीमंधरं प्रभो ! ।२। लोककोकावली हेलि, राधिव्याधितमोहर !। विश्वकल्पितकल्पद्रो.. F११७॥ चिरं जीयाज्जिनोत्तम ! ।। संसारभीमकांतारे, ऽनंगरागादितस्करैः। भ्रमंतं पीड्यमानं मां, रक्ष रक्ष दयोदधे!।४। किं वित्तैः किं
१०९ शांतिजि न चैत्य
सीमंधर
जिन चैत्य वंदन ११०
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पंचज्ञान
"चैत्य • अष्टमिका चैत्य०
नवपद
शांतिनाथ चै०
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पार्श्वनाथ चैत्य० पार्श्वनाथ
रतन ११६
विभो ! भोगे, रलं मंत्रैरलं गजैः । कृतं कल्पणा नाथ !, शासनं तेऽस्तु मेऽनिशं 11
पंचम जिनवरने नपुं. पंच महाव्रत धार। पंच ज्ञान सहु जिन कह्यां, पंचमी गति दातार |१| मतिश्रुतावधि मनपर्यत्र, पंचम केवलज्ञान । मति अठ्ठावीस श्रुत चउदे, बीस असंख्यावधि ज्ञान |२| मनपर्यत्र दोय भेदथी ए. केवल एक प्रकार पंचमी तिथि आरावतां पां जिन सुख सार |३| चवीस जिनवर नमुं अष्टमी गति दातार । अष्टमी तिथि आराधिये, लहिये भवनो पार |१| ऋषभादिक केइ जिननां ए, कल्याणक गुणखाण । अष्टमी तिथि तप आदरो, अष्ट कर्म करे हाण |२| पत्रयण माता आउने ए, पालीजे पवित्त । आठ पहोर पौषव करी, धरिये जिन मुख चित्त ॥३॥ अतः सिद्धाचार्यो, पाध्यायाः सर्वसाधवः । दर्शन ज्ञानचारित्र, तपांसीति पदावली |१| एतैर्नवपदैः सिद्धं सिद्धचक्रं प्रकीर्त्तितं । तदष्टदल पद्मस्थं, ध्येयं ध्यान परायणैः |२| इयं नवपयसिद्धं लद्धिविज्जासमिद्धं, पर्याडिअसर वग्गं हितिरेहासमरगं । दिसिवइसुरसारं खोणिपीढावयारं, तिजयविजय यक्कं सिद्धचक्कं नमामि ॥३१ विपुलनिर्मलकीर्त्तिमरान्वितो, जयति निर्जरनाथनमस्कृतः । लघुविनिर्जितमोहराधिरो, जगति यः प्रभुशांतिजिनाधिपः | ११ विहितशांतसुबारस मज्जनं, निखिल दुर्जय दोष विर्जितं । परमपुण्यवतां भजनीयतां, गतमनंतगुणैः सहितं सताम् । २। तपचिरात्मजमीशमधीश्वरं भविक पद्मविवोध दिनेश्वरं । महिमान भजामि जगत्रये, वरमनुत्तरसिद्धिसमृद्धये । ३ । सकलकुशलवल्ली पुष्करावर्त्तमेघो, दुरिततिमिरभानुः कल्पवृक्षोपमानः । भवजलनिधिपोतः सर्वसंपत्तिहेतुः, स भवतु सततं वः श्रेयसे पार्श्वनाथः ॥ जय तिहुअण आदि गाया २ अंतकी गाथा ? अथवा कल्याण कमला गेहं नीलदेहं महाश्रियं । नवखंडाभिधं पार्श्व, सहाध्यायामि मानसे । १ । प्रभु पार्श्व देख हुलसाया, मैं नगर नाकोडे आया। तुमे नाम अनेक प्रभु ! धारे, मक्सी गोडि पास प्रभु प्यारे रे, मैं नगर०, प्रभु पार्श्व ० |१| हस्ति देवगति पद पाया, कलिकुंड तीर्थ थपवाया । जगन्नाथ जीरावली राया. शंखेश्वर नाम धराया रे, मैं नगर, प्रभु पार्श्व० |२| जरासंधकी जरा निवारी, हुए कृष्ण जय जयकारी थंभणपुर स्वामी नामी, भविजन मनके विसरामि रे, मैं नगर०, प्रभु
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इग्यारस
पार्थ योगि नामानिने ध्याया, वो कंचन सिद्धि पाया। श्रीमद अभयदेव मृरिराया, प्रभु स्तवने कुष्ट मिटाया रे, मैं नगर०,प्रभु ११७ पार्च ४१ अब इतनी अरजी मेरी,प्रभु ! लिजिये आप सवेरी। जिन ! केशर'शरणे तोरे,मिटादो भक्के फेरे रे,मैंनगर०,प्रभु पार्थ
श्रीमल्ली त्रिभुवन धणी, जन्म दिक्षा ने ज्ञान । कल्याणक एकादशी, मागसर सुदि मन आण ।। अर पारस दीक्षा ग्रही. जएकादशो दिन जाण। ऋषभ अजित मुमति नमि, पाम्यो केवलज्ञान ।। पद्मप्रभु शिवपुर लह्यो, एकादशी अति रूडि । इग्यारे वंदन अंग आराधवा, ए तिथि नहीं कूडी । इग्यारे गणधर थया, द्वादश अंग रचनार । 'कृपाचंद्र मूरि!' सेवतां पामे भवनो पार ।४।
अरनाथ जिनेसर दीक्षा नमिजिन ज्ञान, श्रीमल्लि जनम व्रत केवलज्ञान प्रधान। इग्यारस मिगसर मुदि उत्तम अवधार,
ए पंच कल्याणक समरीजे जयकार 21 इग्यारे अनुपम एक अधिक गुणधार, इग्यारे बारे प्रतिमा देशक धार । इग्यारे दुगुणा ११८
दोय अधिक जिनराय, मनमधे सेच्यां सब संकट मिट जाय । जिहां बरस इग्यारे कीजे व्रत उपवास, वलि गुणनो गुणिये विधिसेति मुविलास । जिन आगम वाणी जाणी जगत प्रधान, एक चित्त आराधो साधो सिद्ध विधान ।। मुर अमुर भवण वण सम्यग् दरिसणवंत, 'जिनचंद्र' मुसेवक वेयावच करंत । श्रीसंघ सकलमें आराधक बहु जाण, जिनशासन देवी देव करो कल्याण ।।
महीमंडणं पुण्णसोवष्णदेई, जणाणंदणं केवलनाणगेहैं। महाणंदलच्छी बहबुद्धिरायं, मुसेवामि सीमंधरं तित्थरायं ।। पुरा तारगा जेह जीवाण जाया, भविस्संति जे सच भव्वाण ताया। तहा संपयं जे जिणा वट्टमाणा, मुह दिंतु ते मे तिलोय
पहाणा । दुरुत्तारसंसारकवारपोयं, कलंकाऽऽवलि पंकपरखालतोय । मणोवंछियत्थे सुमंदारकप्पं, जिणिदाऽऽगम बंदिमो मुमहप्पं ।। १२.जा विकोसे जिणिदाऽऽणणंभोगलीणा। कलारूवलावष्णसोहागपीणा। वहंतस्स चित्तमि णिचंपि झाणं । मुरि भारहि ! देहि मे मुद्धनाणं ।४।
पंचानंतामुमपंच परमानंदप्रदानक्षम, पंचानुत्तरसीमदिव्यपदवी वश्याय मंत्रोपमं । येन प्रोवलपंचमी बरतपो व्याहारि तत्कारिणां,
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सीमंधर
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पंचतीथुइ
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श्रीपंचाननलांछनः स तनुतां श्रीवर्द्धमानः श्रियं ।। ये पंचावरोधसाधनपराः पंचपमादा हराः, पंचाणुव्रतपंचमुव्रतविधिप्रज्ञापना सादराः। कृत्वा पंचहपीकनिर्जयमथो प्राप्ता गतिं पंचमि, तेऽमी संतु मुपंचमी व्रतभृतां तीर्थंकराः शंकराः ।। पंचाचारधुरीणपंचमगणाधीशेन संमत्रित, पंचज्ञानविचारसारकलितं पंचेषु पंचत्वदं । दीपाभं गुरुपंचमारतिमिरेष्वेकादशी रोहिणी। पंचम्यादिफलप्रकाशनरटुं ध्यायामि जैनागमं ।। पंचानां परमेष्ठिनां स्थिरतया श्रीपंचमेरुश्रियं, भक्तानां भविनां गृहेषु बहुशो या पंचदिव्यं व्यधात् । प्रहे पंचजने मनोमतिकृतौ स्वारत्नपंचालिका, पंचम्यादितपोवतां भवतु सा सिद्धायिका त्रायिका ।। ___ मुरेंद्रदमानसोल्लसत्सुभक्तिपूजितं, जिनेश्वरं दिनेश्वरं प्रतापराजिराजितं । शशांकलक्ष्मशोभितं मुधाप्रभं महेश्वरं, भजेहि लक्ष्मणात्मजं प्रगेऽष्टमिदिने मुदा ।। विभावभुक्ति नातसत्स्वकीयभावधारकाः, कुकर्मपाशमोचकाः जनप्रबोधकारकाः। भवाब्धिमनतारकाः मुमार्गबोधिदर्शकाः, जयंतु ते जिनोत्तमात्रिकालवतिनो भृशं ।२। जिनेशवाक्यसंभवं गणेशबुद्धिगुंफितं, मुहेतुयुक्तिसंयुतं महारत्नपूरितं । अनंतभावबोधकं कुवादिवादनाशकं, नमामि जैनमागमं सदात्मबोधकाम्यया ।। अशेषविघ्ननाशिनी स्फुरत्प्रतापधारिणी, प्रकृष्टरूपसंपदाचिता स्वभक्तकामदा । जिनेशपादसेवना परा हि शासनाऽमरी, जिनेंद्रशासने रतान् जनानवत्वपायतः।४। ___ अरस्य प्रव्रज्या नमिजिनपतेर्ज्ञानमतुलं, तथा मलेर्जन्मव्रतमपमलं केवलमलं । वलकादश्यां सहसि लसदुद्दाममहसि, क्षितौ कल्याणानां क्षपतु विपदः पंचकमदः ।। मुपद्रश्रेण्यागमनगमनेर्भूमिवलयं, सदा स्वर्गत्येवाहमहमिकया यत्र सलयं। जिनानामऽप्यापुः क्षणमतिमुखं नारकसदः, क्षितौ कल्याणानां क्षपतु विपदः पंचकमदः ।२। जिना एवं यानि पणिजगदुरात्मीयसमये, फलं यत्कर्तृणामिति च विदितं
जा१२०॥ शुद्धसमये । अनिष्टारिष्टानां क्षतिरनुभवेयुर्वहुमुदः, क्षितौ कल्याणानांक्षपतु विपदःपंचकमदः।। मुराः सेंद्राः सर्व सकले जिनचंद्रप्रमुदिताः, तथा च ज्योतिष्काखिलभवननाथाः समुदिताः। तपो यत् कर्तृणां विदधति मुखं विस्मितहृदः, क्षितौ कल्याणानां क्षपतु विपदः पंचकमदः १४॥
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सफल संसार अवतार ए हूं गिj, सामि सीमंधरा ! तुम्ह भगते भणु। भेटवा पाय कमल भाव हियडे घणो, करिय भन्साय ॥ वीजको
जे पीनवु ते मुणो ॥१॥ तुम्हशुं कूड अरिहंत शुं राखिये, जिस्यो अछे निस्यो कर जोडि करि भावये । अति सबल मुझ कहनेका
हिये मोह माया घणी, एक मन भगति किम करूं त्रिभुवन धणी ॥२॥ जीव आरति करे नव नवी एरिगडे, रीश बटको नढे सीमंधर लोभ वयरी नडे । नयण रस बयण रस काम रस रसियो, तेम अरिहन तुं टीयडे नवि बसियो || दिवसने मत हिडे स्तवन
अनेरो धरूं, मृह मन रीझवा वलिय माया करूं। तुहि अरिहंत जाणे जिस्यो आचरूं, तेम कर जेम संसार सागर जरूं ! कम्मवसि मुख्खने दुःख जे हूं सहूँ, मन तणी वात अरिहंत किणने कहूँ। करिया करि मया देव करुणा परा, राख हरि मुख्ख कर सामि सीमंधरा | जाण संयोग आगम बयण पण सुणं, धर्म न कराय प्रभु पाप पोते पणं । एक अरिहंत तक देव वीजो नहीं, एह आधार जग जाणजो अम् मही ।६।। धण कणय माय पिष पुत्त परिजन सह, इस्यो बोल्यो रम्यो
रंग रातो वह । जयो जयो जग गुरु जी जीवन धरा. तुम्ह समो, बड नहीं अवर बालहेसग ।।७i अमिव सम वाणि जाणुं IF सदा सांभलं, चार वर परपदा मांहि आधी मि। चिन जाणं सदा सामि पाय ओलगुं.किम कर ठाम पुररीकिणि वेगल ॥८॥॥
भोलिडा भगति तूं चित्त ! हारे किस्थे, पुश्य संयोग प्रभु दृष्टिगोचर हुस्ये । जेहने नामे मन वयण तन उल्लसे दूरथी इकडा जेमी
हियडे वसे ॥२।। भल भलो एणि संसार सह ए अछे,सामि सीमंधरा! ते सह तुम फछे। ध्यान करतां मुएनमांहि आवी मिले, कदेखिये नयण तो चित्त आरति टले ||१०|| साम सोहामणा नाम मन गहगहे, तेहथु नेह जे वात तुम्हची कहे। तुम्ह पायक
भेटवा अति घणो टलबलुं, पंख जो होय तो सहिय आधी मिलुं ॥११|| मेरुगिरि लेखणी आभ कागल करूं, क्षीरसागर तां दुध खडिया भरूं । तुम्ह मिलवा तगा सामि संदेशडा, इन्द्र पण लखिय न शके अछे एनय॥१०॥ आपणे रंग प्ररि बात मुख जेटली. ऊपजे
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म सामि! न कहाय मुख तेटली । मुणो सीमंधरा ! राज राजेसरा,लाड ने कोड प्रभु ! पूर सवि माहरा ॥१३॥ पुन्य भवि मोह वश नेह हुवे
जेहने,समरिये एणी संसार नित तेहने । मेहने मोर जिम कमल भमरो रमे,तेम अरिहंत ! तूं चित्त मोरे गमे ॥१४॥ खळं अरिहंतनुं ध्यान हियडे वस्युं, बापडं पाप हिव रहिय करशे किस्युं । ठाम जिम गरुड वर पंखि आवे वही,ततखिण सर्पनी जाति न शके रही ।।१६।। पाप में कज्ज सावज सहु परिहरी,सामि सीमंधरा! तुम्ह पय अणुसरी। शुद्ध चारित्र कहिये प्रभु पालद्यु, दुःख भंडार संसार भय टालशुं॥१६॥ तुम्ह हुं दास हुं तुम्ह सेवक सही, एह में वात अरिहंत आगल कही ॥ एवडी माहरी भगति जाणी करी,आपजो बापजी सार केवल सिरी ॥१७॥ कलश ॥ इम ऋद्धि वृद्धि समृद्धि कारण दुरित वारण मुख करो, उवझाय वर 'श्रीभक्तिलाभे थुण्यो श्रीसीमधरो। जय जयो जगगुरु जीव जीवन करी सामि ! मया घणी, कर जोडि वलि वलि बीनवु प्रभु पूर आशा मन तणी ॥१८॥
वंदं जगदाधार सार, शिवसंपत्ति कारण । जन्म जरा मरणादि रूप,भवताप निवारण।श्री सिद्धारथ तात मात, त्रिशला तनु जात । न्य वंदन 5 सोचम वरण शरीर वीर त्रिभुवन विख्यात ।। अमृतरूपे राजतो ए,चोवीसमो जिनराय । क्षमा प्रमुख कल्याण भणि, आपो करि मुपसाय ।। वीरजिना वीरनां ते पंच. कल्याण श्रेयमां. कह्यां कल्याण श्रेय एह जी, च्यवन कल्याण. अवतरण कल्याण. गर्भधारण कल्याण जी । कल्याण जन्म कल्याण. दीक्षा कल्याण, केवलज्ञान कल्याण जी, मोक्ष कल्याण जे. कल्याण फल जीवने. ते होवे नहीं अकल्याण जी।। स्तुति पंच अनंत महंत गुणाकर. पंचमी गति दातार, उत्तम पंचमी तप विधि दायक. ज्ञायक भाव अपार । श्री पंचानन लांछन लांछित.
वांछित दान मुदक्ष, श्री वर्द्धमान जिणंद मुवंदो. आणंदो भविपक्ष ।। पूरण पंच महाअवरोधक. बोधक भव्य उदार,पंच अणुव्रत पंचमी पंच महाव्रत. विधि विस्तारक सार। जे पंचेंद्रिय दमि शिव पुहता. ते सघला जिनराय, पंचमी तपधर भवियण उपर. सुधिर करो
मुपसाय पंचाचार धुरंधर युगवर. पंचम गणधर वाण,पंचज्ञान विचार विराजित. भाजित मद पंचवाण। पंचम काल तिमिर भर माहे. १२६
स्तुति
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दीपक सम शोभंत,पंचमी तप फल मूल प्रकाशक. ध्यावो जिन सिद्धांत।३। पंच परम पुरुषोत्तम सेवा. कारक जे नरनार,वलि निरमल १२७॥ पंचमीतप धारक. तेह भणी मुविचार। श्रीसिद्धायिका देवी अहनिश.आपो मुख अमंद,श्रीजिनलाभ मरिंद पसाये.कहे 'जिनचंद्र' मुणिंद ।।।
पुरिसादाणी पासनाह, नमिये मनरंग। नील वरण अश्वसेन नंद, निरमल निस्संग कामितपूरण कल्पसाख,वामामुत सार। त्य बंदना श्री गोडिपुर स्वामि नाम. जपिये निरधार । त्रिभुवनपति त्रेवीसमोए, अमृतसम जमु वाण। ध्यान धरंतां पहनु,प्रगटे परम 'कल्याण' ।। चिंताम
पार्थ चिंतामणि भविजन ध्येयं, मन ईप्सित दातारं रे। परमातम परम पदधार, सर्व मंगल सुखकारं रे, पार्थ पत्तनणि पार्श्व
लोद्रवकृत शुभस्थिति, भूमंडल जीव त्राणं रे। रत्न चिंतामणि सुरतरु तुल्यं, चिंता कदली कृपाणं रे. पार्श्व० ।।कृत पूर्व पुण्यैर्मया नाथ
लब्धं, वामामुतमुदारं रे। भक्या वंदेऽहं जिनपार्श्व, शिवरमणी दातारं रे, पार्थ ।३। चंचच्छयाम वर्ण प्रभुमूर्ति, पार्थ सेवित रतवन
शुभ पाच रे। मित्र शत्रु शम भाव रस लीनं,न राग द्वेष मोह गर्दै रे, पार्श्व०४॥ भव्य जन भवजलनिधितरणे,चारसंस्थित पोतं रे। राका पूर्णेदुमुख कमलं. शांत्यादिक गुणोपेतं रे । पार्थ ।। सकल गुणगरिष्ठस्तीर्थकृत् ह्याश्चसेनिः, अमर नरनिकायः प्राणद्यस्य पादं । भुवि भविकज बोधे यः सदा मूर्यतुल्यः, स भवतु निनचंद्रो मुक्ति सौभाग्य दाचा ।।
अश्वसेन नरेसर. वामा देवी नंद,नव कर तनु निरुपम. नील वरण सुख कंद । अहिलंछन सेवित. पउमावइ धरणिंद, प्रह ऊठी स्तुत प्रणमं. नितपति पास जिणंद ।। कलगिरि वेयइ. कणयाचल अभिराम, मानुषोत्तर नंदी. रुचक कुंडल मुख ठाम । भवणेसर १२९
व्यंतर. जोइस वेमाणिय धाम, वर्ने ते जिनवर. पूरो मुझ मन काम । जिहां अंग इग्यारे. वार उपांग छ छेद, दस पयन्ना दाख्या. मूल मूत्र चउ भेद । जिन आगम षट् द्रव्य. सप्त पदारथ जुत्त,सांभलि सद्दहता. तूटे कर्म तुरत्त ।३। पउमावई देवी. पार्थयक्ष परतक्ष, सहु संघना संकट. दूर करेवा दक्ष । समरो जिनभक्ति. मूरि कहे इकचित्त, मुख मुजस समापे. पुत्र कलत्र बहु वित्त ।।
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पार्वजिना
२
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पाक्षिका _ 'नाणामि देसणंमि य, चरणमि तवंमि तहय विरियमि। आयरणं आयारो, इअ एसो पंचढ़ा दि अति
भणिओ ।। ज्ञानाचार १, दर्शनाचार २. चारित्राचार ३. तपाचार ४, वीर्याचार ५,एवं पंचविध चार १३० आचारमांहि अनेरो जे कोइ अतिचार पक्ष (चोमासी-संवच्छरी) दिवसमाहि सूक्ष्म बादर जाणता
अजाणतां हुओ होय ते सवि हु मन वचन कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं ।।
तत्र ज्ञानाचारना आठ अतिचार- काले विणए बहुमाणे,नवहाणे तह अनिन्हवणे । वंजणअन्य तदुभए,अविहो नाणमायारो।।ज्ञान कालवेलामांहि पढ्यो गुग्यो परावयों नहीं,अकाले
पध्यो, विनय हीन बहुमान हीन योग-नपधान हीन अनेरा कने पढ्यो अनेरो गुरु कह्यो,देव गुरु के वांदणे पडिकाणे सज्झाय करतां पढता गुणता कूडोअक्षर काने मात्राए अधिको ओछो आगल
पाछल भण्यो, सूत्र अर्थ तदुभय कूडा भण्या, भणीने विसार्या,तपोधन तणे धर्म-काजो अणन151 श्रावकके सम्यक्त्व सहित वारे अतों के १२४ अतिचारोंका जो संक्षेप वर्णन वदित्तने है वोही वर्णन यहां विस्तारसे हैं। २ इनमसे जो हो सो बोलना, दूसरे छोड
दना । ३ इस गाथामें ज्ञानके आठ आचारों के नाम हैं, उनमें जो प्रमाद हो. वह अतिचार है, दर्शनाचार चारित्राचारमें भी इसी तरह है, आगेभी अतिचारों के नामवाटी 卐 आधी गाथा या एक पद रखके अतिचागेका विशेष वर्णन कियाहै। ४ पड़नेके टाइम में । ५ मत्र अर्थ दोनु । तपस्या रूप धनवाले मुनिमज ।
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१२४॥
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वडा
पंचमीका प्रणमुं श्रीगुरु पाय, निरमल ज्ञान उपाय । पंचमी तप भणुं प, जनम सफल गिणुं ए ॥१|| चउनीसमो जिनचंद,केवल ज्ञान दिणंद।
त्रिगडे गह गह्यो ए, भवियणने कह्यो ए ॥२॥ ज्ञान बहू संसार, ज्ञान मुगति दातार । ज्ञान दीयो कह्यो ए, साचो सर्दद्यो ए ॥३॥ ज्ञान स्तवन लोचन सुविलास, लोकालोक प्रकाश । ज्ञान विना पशु ए, नर जाणे किश्यु ए ॥४|| अधिक आराधक नाण, भगवती मूत्र प्रमाण । ज्ञानी
ॐ सर्वतु ए, किरिया देशत् ए ॥॥ ज्ञानी श्वासोश्वास, करम करे जे नाप । नारकीने सही ए, कोड चरस कही ए॥६॥ ज्ञान तणो
अधिकार, बोल्या मूत्र मझार । किरिश छे सही ए, पण पाछे कही ए ॥७॥ किरिया सहित जो ज्ञान, हुवे तो अति परधान । सोनो ने मरो ए, शंख दृधे भस्यो ए ॥८॥ महानिशीथ मझार, पंचमी अक्षर सार । भगवंत भाखियो ए. गणधर साखियो ए ॥२॥
पंचपी तप विधि सांभलो, जिम पापणे भव पारो रे। श्रीअरिहंत इम उपदिशे, भवियणने हितकारो रे ॥ ५० ॥१॥ मिगसर माह फागुण भला, जेठ आपाढ वैशाखो रे । इण पटमासे लीजिये, शुभ दिन सदगुरु साखो रे ॥ ५० ॥ देव जुहारी देहरे, फ गीतारथ गुरु वंदी रे । पोथी पूजो ज्ञाननी, सगति हुवे तो नंदी रे॥५०॥३॥ वे कर जोडी भावशू, गुरु मुख को उपवासो रे । पंचमी
पडिक्कमणो करो, पढो पंडित गुरु पासो रे॥ पं०॥४|| जिण दिन पंचमी तप करो, तिण दिन आरंभ टालो रे। पंनमी स्वन थुई कहो, ब्रह्मचारिज पिण पालो रे ॥
पं पांच मास लघु पंचमी, जावज्जीव उत्कृष्टीरे। पांच वरस पांच मासनी, पंचमी करो शुभ दृष्टि रे॥५०॥६॥ हिव भवियण रे पंचमी उजमणो मुणो, घर सारू रे वारू धन खरचो घणो । ए अवसर रे आवंतां लि दोहिलो, पुण्य जोगेरे है धन पामंतां सोहिलो ॥ उल्लालो । सोहिलो बलिय धन पामंतां पण धर्मकाज किहां वली, पंचमी दिन गुरु पास आधी कीजिये काउमस्सग रली । त्रण ज्ञान दरिसण चरण टीकी देइ पुस्तक पृजिये, थापना पहिली पूज केसर मुगुरु सेवा कीजिये ॥२॥ ढाल | सिद्धांतनी
रे पांच परत वीटांगणां, पांच पूठां रे मुखपल मूत्र प्रमुख तणां। पांच डोगरे लेखण पांच मजीसणां, वासकूपा रे कांची वारू बतरणां
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॥ उकालो॥ वतरणां वारू वली य कमली पांच झिलमिल अति भली, स्थापनाचारिज पांच ठवणी मुहपत्ती पडपाटली। पत्र पाटी पंच कोथली पंच नवकारवालियां, इणिपरे श्रावक करे पचमी उजमणो उजवालियां ॥२॥ ढाल । वलि देहरे रे मात्र महोत्सव कीजिये,
घर सारू रे दान बली तिहां दीजिये। प्रतिमाजीने रे आगल ढोवणुं ढोइये, पूजानां रे जे जे उपगरण जोइये। उल्लालो।।जोइये उपगरण 5 देवपूजा काज कलश भृगार ए, आरति मङ्गल थाल दीवो धूपधाणुं सार ए। घनसार केशर अगर मूखड अंगलूहणा दीश ए, पंच - पंच सघली वस्तु ढोबो सगतिशुं पचवीश ए॥३॥ ढाल ॥ पंचमीनारे साहम्मी सर्व जिमाडिये, रात्रिजोगेरे गीत रसाल गवाडिये ।
इण करणीरे करतां ज्ञान आराधिये, ज्ञानदरिसणे रे उत्तम मारग साधिये। उल्लालो॥ साधिये मारग एह करणी ज्ञान लहिये निरमलो, 'मुग्लोक ने नरलोक माहे ज्ञानवंत ते आगलो। अनुक्रमे केवलज्ञान पामी सासता मुख ते लहे, जे करे पंचमी तप अखंडित
वीर जिणवर इम कहे ॥ ४॥ कलश ॥ एम पंचमी तप फल प्ररूपक वर्द्धमान जिणेसरो, में शुण्यो श्रीअरिहंत भगवंत अतुल
बल अलवेसरो। जयवंत श्रीजिनचंद मूरिज सकलचंद नमंसियो। वाचनाचारिज 'समयसुंदर' भगति भावे प्रशंसियो॥६॥ श्री गोडिज अमल कमल जिम धवल विराजे, गाजे गोडी पास । सेवा सारे जेहनी, सुर नर मन धरिय उल्लास ॥१॥ सोभागी साहिब मेरा बे,
अरिहां मुग्यानी पासजिणंदा बे।। ए आंकणी ।। मुंदर मूरति मूरति सोहे, मो मन अधिक मुहाय । पलक पलकों पेखतां मार्नु, नव स्तवन नवि छविय देखाय, ।। सोमा० । अ० ॥२॥ भव दुःख भंजन जन मन रंजन, खंजन नयन मुरंग । श्रवणे मुणी गुण ताहरा, 15 माहरा विकस्या अंगो अंग ॥ सो० अ०॥३॥दस्थकी हूँ आया वहिने, दवा लह्या दादार। पाथिया पहिडे नाह, साहिबा! एह उत्तम मा
आचार ॥ सो० अ० ॥ ४॥ प्रभु मुखचंद विलोकित हरखित, नाचत नयन चकोर । कमल हसे रवि देखीने, जिम जलधर आगम मोर ॥ सो० अ० ॥५॥ किसके हरिहर किसके ब्रह्मा, किसके दिलमें राम । मेरे मनमें तूं वसे, साहिव ! शिव सुखनो
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আনাথ
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स्तवन
ही ठाम, सो० अ०॥६॥ माता वामा धाय पिता जमु, श्रीअश्वसेन नरेश। जनमपुरी वणारसी, धन धन काशीनो देश, सो० अ० ॥७॥ संवत सतरेशे बावीसें, बदि वैशाख वखाण । आटम दिन भले भावशू, मारी जात्रा चढी परिमाण, सो.
अ०॥८॥ सानिध्यकारी विघ्न निवारी, पर उपगारी पास ॥ 'श्रीजिनचंद्र' हारतां, मोरी सफल फली सह आश, सो० अ०॥९॥ मौन
समवसरण बेठा भगवंत, धरम प्रकाशे श्री अरिहंत। बार परपदा बेठी जुडी, मिगशिर शुदि इग्यारस वडी| मट्रिनाथना |
समवसर एकाद
तीन कल्याण, जनम दीक्षा ने केवल ज्ञान। अर दीक्षा लीधी रूवडी॥ मि० ॥२॥ नमिने उपर्नु केवल ज्ञान, पांच कल्याणक शीका
अति परधान । ए तिथिनी महिमा एवंडी ॥ मिः ।।३॥ पाच भरत ऐरवत इमहीज, पांच कल्याणक हवे तिमहीज । पंचासनी
संख्या परगडी ॥ मिः॥४॥ अतीत अनागत गिणतां एम, दोहशें कल्याणकथाये सेम ।।कुण तिथि छे ए तिथि जेवडी ।। मि० ॥५॥ 5 अनंत चोवीशी एण परे गिणो, लाभ अनंत उपवासांतणो। ए तिथि सह तिथि शिर राखडी || मि० ॥६॥ मौनपणे रह्या श्री
मल्लिनाथ, एक दिवस संयम व्रत साथ । मौन तणी प्रवृत्ति इम पडी ॥ मि० ॥७॥ अठ पुहरी पोसो लीजिये, चोविहार विधिमुं कीजिये। पण परमाद न कीजे घडी ।। मि० ॥ ८॥ वरस इग्यारे कीजे उपवास, जावजीव पण अधिक उल्लास । ए तिथि मोक्ष. तणी पावडी।। मि० ॥२।। उजमणुं कीजे श्रीकार, ज्ञाननां उपगरण इग्यारे इग्यार करो काउरसंग्ग गुरु पाये पड़ी। मि० ॥१०॥देहरे स्नात्र करीजे वली, पोथी पूजीजे मन रली। मुगतिपुरी कीजे देव डी मि॥११॥ मौन इग्यारस महोटुं पर्च,आराध्यां मुख लहिये
सर्व व्रत पञ्चवखाण करो आखडी। मि०॥१२॥ जेसल शोल इचयाशी समे,कीधुं स्तवन सह मन गमे । 'समयमुंदर' कहे करोध्यावडी। मि०॥१३॥ वीरमुणो वीर ! सुणो मोरी वीनती कर जोडी हो कहुं मननी वात। बालकनी परे वीनवु,मोरा सामी हो तुमे त्रिभुवन तात ।वी। तुम दरिसण मोरीवी विण हुँ भन्यो,भव माहे हो सामी ! समुद्र मझार । दुक्ख अनंता में सह्या,ते कहितां हो किम आवे पाररावीपर उपकारी तूं प्रभु ! दुःख स्तवन
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|१२३॥
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जमकमममममममममममा
भांज हो जग दीन दयाल । तिण तोरे चरणे हूं आधीयो.स्वामी ! मुझने हो निज नयणे निहाल ३वी अपराधी पिण उद्धर्या.तें कीधी हो करुणा मोरा साप !। परम भगत हुं ताहरा,तेने तारो हो नहीं ढीलनो काम ४ावीशूलपाणी प्रतिबृझव्यो,जिण कीधा हो तुझने उपसर्ग । डंक दीयो चंडकोसीये.तें दीयो हो तमु आठमोसर्ग ।०वी०। गोशालो गुण हीनडो,जिण बोल्या हो तोरा अवरणवाद । ते बलतो तें राखीयो,शीत लेश्या हो मूकी मुप्रसाद ।वी। एकुण छे इंद्र जालोयो,इम कहितो हो आयो तुम तीर । ते गौतमने तें कीयो, पोतानी हो प्रभुतानो वजीर
वो। वचन उत्थाच्या ताहरा,जे झगड्यो हो तुझ साथे जमाल । तेहने पिण पनरे भवे,शिवगामी हो कोधो तें कृपाल !दावी। | ऐमन्तो रिसी जे रम्यो, जल माहे हो वांधी माटीनी पाल । तिरति मूकी वाचली तें तार्यो हो तेहने ततकाल ।। वी० मेघकुमर रिसि दूहव्यो.चित्त चूको हो चारित्रथी अपार । एकावतारी तेहने,तें कीधो हो करुणाभंडार।१०वी०बार वरस वेश्या घरे,रह्यो मूकी हो संयमनो भार। नंदिपेण पिण उद्धर्यो,सुर पदवी हो दीधी अतिसार।११० वी०। पंच महाव्रत परिहरि,गृह वासे हो वसियो वरस चोवीस । ते 'पिण का पंचमी
आई कुपारने,ते तास्यो हो तोरी एह जगीस ।१०वी० राय श्रेणिक गणी चेलणा,रूप देखी हो चित्त चूका जेह । समवसरण साधु साधवी, आदिके | तें कीया हो आराधक तेह ।१३।वोका विरति नहीं नहीं आखडो, नहीं पोसो हो नहीं आदर दीख। ते पिण श्रेणिक रायने,ने कीयो हो सामो
स्तवन आप सरीख ।१४।वी। इम अनेक ते उद्धस्या,कहूं तोरा हो केता अवदात । सार करो हवे माहरी,मनमाहे हो आणो मोरडी वात ।१५।वी। 5 पत्र मृधो संजम नवि पले,नहीं तेहयो हो मुझ दरिसण नाण । पिण आधार छे एटलो.एक तोरो हो धरूं निश्चल ध्यान ।१६। बी० मेह महीतल वरसतो,नवि जोवे हो सम विपमी ठाम । गिरुआ सहिजे गुण करे,स्वामो सारो हो मोरा वांच्छित काम।१७वीतुम नामे मुख संपदा,तुम नामे
१२४॥ 5 हो दुःख जावे दूर । तुम नामे वांच्छित फले.तुम नामे हो मुझ आनंद पूर १८वी० (कलश)इम नगर जेशलमेर मंडण तीर्थकर चोवोसमो,शासना
धिन्चर सिंह लंछन सेवतां मुरतरू समो। जिनचंद त्रिशला पात नंदन सकलचंद कला निलो,वाचनाचारिज समयसुंदर संथुण्यो त्रिभुवन तिलो.
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दुसरे
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पाक्षिका दि अतिचार
(साधुके)
१.३०
'नाणंमि दंसणंमि य, चरणंमि तवंमि तहय विरियंमि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ |१| ज्ञानाचार १, दर्शनाचार २, चारित्राचार ३, तपाचार ४, वीर्याचार ५, ए पंचविध आचारमांहि अनेरो जे कोइ अतिचार पक्ष ( चोमासी - संवच्छरी) दिवसमांहि सूक्ष्म बादर जाणतां अजाणता हुआ होय ते सवि हु मन वचन कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं |१|
तत्र ज्ञानाचारे आठ अतिचार - काले विणए बहुमाणे, नवहाणे तह अनिन्हवणे । वंजणअत्थ तदुभए, अठ्ठविहो नाणमायारो | १| ज्ञान कालवेलामांहि पढ्यो गुण्यो परावर्त्यो नहीं, अकाले पढ्यो, विनय हीन बहुमान हीन योगोपधान हीन अनेरा कन्हे पढ्यो अनेरो गुरु कह्यो, देव वंदण वांदणे पडिक्कमणे सज्झाय करतां पढतां गुणतां कूडो अक्षर कह्यो, काने मात्राए आगलो ओछो भयो
१ इस गाथा में साधुके ज्ञानाचारादि पांचों आचारोंके नाम बतायेंहै । इसके आगे दूसरे तीसरे अतिचार में ज्ञानाचार दर्शनाचारके ८-८ आचारोंके नामवाली १-१ गाथा रखके उसका अर्थ भाषा में वर्णवा है, चोथेने १ गावासे चारित्राचारका सामान्य वर्णन है, बाद पांचवें छठे तथा सातवेंमें चारित्राचारकाही विशेष वर्णन है, आठवेंमें तपाचार और वीर्याचारका भेलाही वर्णन करके नवमेमें चरण सित्तरि करण सितरिके १४० अतिचारोंका मिच्छामि दुकडं दिया गया है। कठिन शब्दोंके अर्थ नीचे फुटनोट में लिख दिये हैं। २ जिस जिस सूत्र के पढनेका जो जो काल बताया है उसमें । ३ ज्ञानवान्की आज्ञा न मानना तथा पुस्तकादिकी आशातना करना आदि । ४ ज्ञानवान्के उपर अप्रसन्न मन रखना ।
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गुण्यो, सूत्रार्थ - तदुभय कूडां कह्यां, काजो अणनद्धर्यो', दांडो अणपडिलेह्यां वसति अणसोध्यां . अणपवेयां. असज्झाय'. अणोज्झाय. कालवेलामांहि' श्रीदशवैकालिक प्रमुख सिद्धांत पढ्यो, गुण्यो. परावयों, अविधे योगोपधान कीधां. कराव्यां, ज्ञानोपगरण-पाटी. पोथी. ठवणी. कवली. नोकारवाली 'सांपडा'. सांपडी. दस्तरी. वही. कागलिया. ओलिया प्रते पग लाग्यो. थुंक लाग्यो. थुंके करी अक्षर भज्यो, कन्हे छते आहार नीहार कीधो, ज्ञानवंत प्रते प्रद्वेष मच्छर वह्यो, अंतराय अवज्ञा आशातना कधी, कुणहि प्रते तोतलो. बोबडो देखी हस्यो वितर्यो, मतिज्ञान. श्रुतज्ञान. अवधिज्ञान. मनः पर्यवज्ञान. केवलज्ञान. ए पांच ज्ञान तणी आशातना' कीधी, ज्ञानाचार विषइओ अनेरो ० |२|
दर्शनाचारे आठ अतिचार- निस्संकिय निक्कंखिअ, निव्वितिगिच्छा अमूढ दिट्ठी अ । नववूह
१. निकाला नहीं. योग्य भूमी में परठा नहीं । २ पडिलेहणके बाद उपासरेके चारों तरफ सौ सौ हाथ तककी भूमी देखे और देखने में आये हुए हड्डि कलेवरादि उतनी प भृभिर्मेसे हटवादे, इसतरह वसति शोधेविना । ३ पडिलेहण के पीछेकी इरियाबही करे बाद समा० देके 'इच्छा० संदि० भग०! वसति पदेउ' इच्छं इच्छामि खमा० ॥ १२६॥ 'भगवन्! सुद्धा वसहि' ये दो आदेश मांगे विना । ४ धूल. लोहि धूअर आदिकी वर्षा तथा ग्रहण होना, तारा तूटना, अकाले बिजली गजरव होना आदि । ५ पढने आदिके लिये निषेवी हुइ चार कालवेला सांझ सवेर मध्यरात्रि तथा मध्यदिन । ६ पुस्तक रखनेकी वडी ठवणी । ७ मस्करीसे हसा हो । ८ असद्दणा (सत्य नहीं मानने) रूप
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थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अठ्ठ । १ । देव. गुरु. धर्म. तणे विषे निःशंकपणो न कीधो, तथा एकांत निश्चय धर्यो नहीं, धर्म संबंधिया फल तणे विषे नि:संदेह बुद्धि धरी नहीं, साधु साध्वी तणी निंदा. जुगुप्सा' कीधी, मिथ्यात्वी तणी पूजा प्रभावना देखी, संघमांहे गुणवंत तणी अनुपहणा कीधी, अस्थिरीकरण. अवात्सल्य. अप्रीति, अभक्ति, निपजावी, तथा देवद्रव्य गुरुद्रव्य 'साधारणद्रव्य भक्षित उपेक्षित कीधो, प्रज्ञाऽपराधे विणाइयो विणसंतो नवेख्यो, छती शक्तिए सार संभाल न कधी,ठवणार हाथ थकी पाडिओ. पडिलेहवो विसार्यो, जिनभवन तणी चोराशी आशातना. गुरु प्रते तेत्री आशातना कीधी, दर्शनाचार विषइओ ० | ३ |
चारित्राचारे आठ अतिचार- पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समिईहिं तिहिं गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो, अविहो होइ नायव्वो । १ । इरिया समिति १, भासा समिति २, एसणा समिति ३, आदान भंडमत्त निख्खेवणा समिति४.नुच्चार पासवण खेल जल्ल सिंघाण पारिठ्ठावणिया समिति५,मनोगुप्ति१,वचन
१बदनामि । २अप्रशंसा । ३ सात क्षेत्रमेंसे साधुके उपकरणादि वास्ते निकाला । ४नामके विना धर्मादे निकाला। ५चलते हुए रस्तेमें । ६ उपयोग ! ७शुद्धमान गोवरि आदिकी तलाश ।
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गुप्ति २, काय गुप्ति ३, ए पांच समिति त्रण गुप्ति. अष्ट प्रवचन माता रूडिपरे पाली नहीं, साधुतणे धर्मे सदैव, श्रावक तणे धर्मे सामायिक पोसह लीधे जे कोइ खंडन विराधना कीधी होय, चारित्राचार विषइओ ० ४ | विशेषत चारित्राचारे तपोधन' तणे धर्मे - वयछक्कं कायछक्क, अकप्पो गिहि भायणं । पलिअंकनिसिजाए, सिणाणं सोभ वजणं |१| व्रतषट्के-पहिले महाव्रते प्राणातिपात सूक्ष्म. बादर. स. थावर जीवतणी विराधना हुइ । बीजे महाव्रते क्रोध. लोभ. भय. हास्य लगे झुठो बोल्यो । तीजे अदत्तादान विरमण महाव्रते - सामि.जीवादत्तं, तित्थयर अदत्तं तव य गुरुहिं । एवमदत्तं चहा, पन्नत्तं वीएहिं |१| स्वामी अदत्त. जीव अदत्त. तीर्थंकर अदत्त. "गुरुअदत्त. ए चतुर्विध अदत्तादानमांहिं जे कोइ अदत्त परिभोगव्यो होय । चौथे महाव्रते - वसही कह निसि जिंदिय', कुड्डिंतर पुव्व
१ तपस्यारूप धनवाले साधु । २ तृण आदि चीज उसके स्वामीने नहीं दी हुइ लेना । ३ वस्तुके स्वामीने देने परभी वस्तुमे रहे जीवकी रजा विना लेना जैसे सचित्त वस्तुको बहर लेना । ४ तीर्थंकरोंने निषेधा हुआ आधाकर्मी आदि लेना । ५ स्वामीने दी हुइ दोष रहित चीजको गुरुकी रजा विना वापरना । ६ वसति (उपासरेके आसपास देखने में आवे वैसी जगहमें खी-पशु नपुंसकोंका रहवास न होना चहिये) । ७ कथा (एकली स्त्रियोंके आगे व्याख्यानादि करना या स्त्रीयोंके रूपशृंगारादिकी कथा करना आदि न करे) । ८ निषद्या (खीके साथ एक आसन पर बैठना न करे, वीके ऊठजाने परभी दो घडीतक उस जगह पर न बैठे ) । ९ इंद्रिय (स्त्रीयोंके अंगोपांगोंकी तरफ एका दृष्टिसे न देखना) । १० कुड्यांतर (जहां बीच में भींतही हो, भीतके पीछे सूते हुए बी पुरुषके मैथुन आदिके शब्द सुनने में आये, वहां न रहना) 1
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कीलिए' पणीए । अईमायाहार विभूसणाई', नवबंभचेर गुत्तिओ।। ए नव वाड सधी पाली # नहीं, सुहणे स्वप्नांतरे दृष्टि विपर्यास' हुओ। पंचमे महाव्रते-धर्मोपगरणने विषे इच्छा मा.गृद्धि. 5 आसक्तिधरी,अधिको नपगरण वावर्यो,पर्व तिथिए पडिलेहवो विसार्यो। छठे रात्रि भोजन विरमण
व्रते-असूरो भातपाणी कीधो,छारोद्गार आव्यो,पात्रे.पात्राबंधे'तकादिकनो छांटो लाग्यो,खरड्यो ई रह्यो.लेय.तेल.ओपधादिक तणो संनिधि रह्यो,अतिमात्राये आहार लीधो,ए छए व्रत विषइओ०५
कायषटके-गाम तणे पइसारे निसारे पग पडिलेहवा विसार्या,माटी मीठं खडी धावडी अरणेटो१३ पाषाण तणी चातली"नपर पग आव्यो।अप्पकाय-वाघारी"फूसणा हुआ,वहोरवा गया.नलखो हाल्यो,लोटो ढोल्यो, काचा पाणी तणा छांटा लाग्या। तेनकाय-वीज दीवा तणी नही हुइ। वानकाय-नघाडे मुखे बोल्या,महावाय वाजतां कपडा काबली तणा छेडा साचव्या नहीं.फंक दीधी।
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१२९॥
1 पूर्वक्रीडित (गृहस्थपणे में भोगवे हुए भोगोंको याद न करना) ।२ प्रणीत(विशेष पुटिकारक आहार न करना)। ३अतिमात्रः आहार ( खसे अधिक नहीं खाना) विभषण INE (शरीरकी तथा वन-पात्रादिकी शोभा नहीं करना)ये ब्रह्मचर्यकी नव बाड गुप्तियां हैं। ५ खराब नजर । ६ मोडा देरसे । ७ आहार पाणी । ८ गुचलका-उकार । ९झोली।
छास आदिका । 11 सग्रह । १२ खसे अधिक । १३ मरडेका ढेफा (४छोटी चिताल (फापरली)। १५चूँअर आदिका ।१६फरस । १७बिजली 1१८ उजाला । १९जोरका वायरा।
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वनस्पतिकाय-नीलफल' सेवाल थड मूल फल फूल वृक्ष शाखा प्रशाखा तणा संघट्टा परंपर निरंतर हुआ। त्रसकाय-बेइंद्री तेइंदी चनरिंद्री पंचेंद्री काग बग चग नडाव्या, ढोर त्रासव्या, डांडो देखाडी वालका बीहाव्या, षटकाय विषइओ अनेरो जे कोइ०।६। __ अकल्पनीय सिज्जा वस्त्र पात्र पिंड परिभोगव्यो, सिज्जातर तणो पिंड परिभोगव्यो, नपयोग कीधा पाखे''वहोर्यो, धात्रीदोष"त्रस बीज संसक्त' पूर्वकर्मपश्चात्कर्म"नद्गम"नत्पादना दोष चिंतव्या नहीं। गृहस्थ तणो भाजन भांज्यो फोड्यो.वली पाछो आप्यो नहीं। सूतां संथारिया नत्तर पट्टा ढलता रह्या। अधिको नपगरण वावर्यो । देशतः स्नान मुखे भीनो हाथ लगाड्यो, सर्वतः स्नान तणी वांछ कीधी, शरीर तणो मल फेड्यो केश रोम नख समार्या, अनेरी कांइ राढी
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वर्षासे भीजती हुइ भीत उपर या अगासी आदि हरााक चीज उपर जमी हुइनील,जो पांचोंही रंगकी होती है। २ तलाव अथवा नदीके पड़े हुए पाणी उपर जमी हुइ नील, जो जाडी दलदार होनेसे सूखनेपर कपडे जैसी हो जाता है। ३ मोटी डाल। ४ छोटी डालियां। जिस चीज, बनस्पति पड़ी हो उस चीजका या वृक्षआदिक वनस्पतिको अडेहुए मनुष्य आदिका। खास बनस्पतिका । ७ उपासग ८ आहार-पाणी। ९ उपयोग काउस्सग्ग,या बहोरते समय शुद्धाशुद्धकी तरफ खयाल । १०विना। 11 बनोको रमाना खेलाना आदि। १२ सहित या अडाहुआ। १३ वहरानेके लिये करे पाणीसे हाथ आदि धोना। 1४ बहराये बाद कचे पाणीसे हाथआदि धोना । 1- आधाकर्मी-उद्देशिकादि १६ दोष। १६ धात्री-दूतीआदि १६ दोष । १७ आगे-पाछे रहा, संधारियेके उपर वरावर उतरपा नहीं आया । १८ मेल उतारा ।
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विभूषा कीधी, अकल्पनीय पिंडादि विषइओ अनेरो जे कोइ० ।। को आवस्सय सज्झाए,पडिलेहण झाण भिख्ख अभत्तठे।आगमणे नीगमणे,ठाणे निसीअणेतुअर्टेश में आवश्यक नभयकाल व्याक्षिप्त चित्तपणे पडिक्कमणो कीधो,पडिक्कमणामांहिं ऊंघ आवी,बेठां पडि
कमणो कीयो।दिवस प्रते चारवार सज्झाय सातवार चैत्यवंदन न कीधा । पडिलेहण आघी पाछी है भगावी, अस्तोव्यस्त कीधी। आर्त रौद्र ध्यान ध्यायां,धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान ध्यायां नहीं। गोचरी'
गया बेतालीस दोष नपजता चिंतव्या नहीं। जाणी छती शक्तिए पर्व तिथिए उपवासादिक तप
कीधो नहीं। देहरा नपासरामांहिं पेसतांनिसिही.नीसरतां आवस्सइ कहेवी विसारी।इच्छा मिच्छा#दिक दशविध चक्रवाल समाचारीसाचवी नहीं,गुरु तणो वचन तहत्ति करी पडिवज्यो नहीं,अपराध
आव्यां मिच्छामि दुक्कडं दीधा नहीं। स्थानके रहेतां हरियकाय बीयकाय कीडीतणा नगरां सोध्यां
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१३॥
(सांझ-सवेर) दोनो वख्त । २ डामाडोल। ३ सवेरे पडिलेणके बाद १, संध्याको पडिलेहणके बीच, २, देवसिय पडिामणेके अंतमें अथवा पचख्खाग पारनेकी ३.गइय पडिकमणेके शुरुकी ४ । ४ गइव पडिकमणेकी शुरुका १, परसनयतिभिरतरणिका २ मंदिर दर्शनका ३.पचख्खाण पारनेका ४,आहार पाणीके वादका ५. देवसिय पडिक्कमणेकी शुरुका अथवा 'नमोऽस्तुबमानायका ६.संथारा पोरिसीका ७।५करी न करी ऐसे बिना ढंगसे। ६ आगेकी चिंता। ७ दूसरेके उपर मारने पीटने आदिके परिणाम । ८ स्वीकारा ।
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नहीं। ओघो मुहपत्ती चोलपट्टो संघट्टियो।स्त्री तिर्यंच तणा संघट्टा अनंतर परंपर हुआ। वडा प्रते की पसाओकरीलघु प्रतेइच्छकार इत्यादिक विनय साचव्यो नहीं,साधुसमाचारी विषइओअनेरोजे कोइ०८
वय' समणधम्म संजम, वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ।नाणाइतिय तव कोह', निग्गहा इइ ई चरणमेयं ।। पिंडविसोही समिई ,भावण' पडिमाय इंदिय निरोहो। पडिलेहण' 'गुत्तीओपी , अभिग्गहा चेव करणं तु ।श एवंकारे साघुतणे धर्मे एकविध असंयम तेत्रीश आशातना प्रमाद के पद पर्यंत मूलगुण उत्तरगुणके " एकसो चालीस अतिचार ('श्रावक तणे धर्मे समकित मूल
वारे व्रतके एकसो चोवीस अतिचार)मांहिं जे कोइ अतिचार पक्ष दिवसमांहिं०।९।
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1 महाबत पांच । २ श्रमण धर्म-क्षमादि दश प्रकारका। ३ संयम सतरे प्रकारका। ४ वेयावा (सेवा भक्ति) आचार्यादि दशकी। ५ ब्रह्मचर्यकी नवबाड । ६ जानादिक प त्रिक-ज्ञान दर्शन चारित्र । ७ बारे प्रकारका तप । ८ क्रोध-मान माया-लोभका निग्रह करना (हटाना) यह चरण सित्तरी है । ९ पिंड विशोधि (आदरादिकी शुद्धि)। 卐१० समिति पांच । ११ भावना अनित्यादि बारे । १२ बारे प्रतिमा। १३ पांचों इंद्रियोंका निरोध-अपने अपने विषयोंसे रोकना। १४ पडिलेहणा पशिस-शोर तथा
वस्खादिकी । १५ गुप्तियां तीन । १६ अभिग्रह-द्रव्य क्षेत्र काल भावसे । यहही करण सित्तरी है। १७ 'चरण सित्तरी-करण सित्तरीके' ऐसा भी कितनेक बोलते हैं। 14 श्रावक साथमें होवे तो यह बाकीट ()मेंका पाठ बोलना, अन्यथा नहीं।
॥१३२॥
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परखरखा
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तीर्थकरोंको,और,संघको । अतीर्थसिद्धोंको,तथा, तीर्थसिद्धोंको,फेर । सिद्धोंको,और,केवलीयोंको ,तथा,साधुओंको।मोटे "साधुआं 'तित्थंकरे,अ,तित्थे। अतित्थसिद्धे,अ,तित्थसिद्धे,अ॥ सिडे, अ. जिणे, अ, रिसी। महरिसी, ज्ञानकुं, फेर, वांदताहूं ।। जो,इसकुं,गुणरूप,रत्नोंके, समुद्र। नहीं विराधके, तिरगयेहैंसंसारको । उनको ,मंगल', करके। नाणं, 'च, वंदामि॥२॥'जे, इम, गुण,रयण,सायर। मविराहिऊण,तिण्ण संसारा॥ ते.मंगलं,करित्ता।
मैंभी, आराधनाके, सन्मुखहूं ।२। मेरेको,मंगलहो, अरिहंत । सिद्ध, साधु, श्रुत(ज्ञान),और,(चारित्र)धर्म,फेर। शांति(क्षण), अहमवि आराहणा,ऽभिमुहो॥२॥मम,मंगल, मरिहंता । सिद्धा,साह, सुअं, च, धम्मो, अ॥ खंती, गुप्ति३,मुक्ति आर्जव(सरल)ता,मार्दव,निश्चय।३। लोकमें, संयमवाले,जिसकुं, करतेहैं। मोटे ऋषिने, कहीहुइ,उदार(अच्छी)। गुत्ती.मुत्ती । अजवया, महवं, चेव ॥३॥ लोगम्मि,संजया, जं, करिंति। परमरिसि,देसिय, मुआरं॥ मैंभी, उपस्थित(तयार)हूं,उस । महाबत उच्चारणाकुं,करनेकेलिये।४। अब२,कितने तरहकी,वह, महाव्रतउच्चारणाहै , अहमवि, उवठिओ, "तं । महव्वय उच्चारणं, काउं॥४॥ से, किं, तं,महव्वयउच्चारणं? १ तीर्थकरोंने तीर्थ (चतुर्विध संघ)की स्थापना करे पहले सिद्ध होनेवाले। २ उसी तीर्थकी स्थापना हुए बाद सिद्ध होनेवाले । ३ तीर्थ-अतीर्थ सिद्धोंको छोडके शेष 'गुडीलिंग सिद्ध' आदितेरे मेदसे सिद्ध होनेवाले। ४ केवलज्ञान पाये बाद इस मनुष्यभवमें विचरनेवाले 'भवस्थ केवलीयों को। ५ लब्धिवंत । ६ चारित्रकू । ७ मुनियोंको ८ वदनादिरूप। ९ चारित्रकी । १. निर्लोभता । 11 अभिमान रहित नरमाइ । १२ शिष्य पृछता है।
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॥१३३३॥
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1969
महाव्रत उच्चारणा, पांच प्रकारकी, बतलाइ है, रात्रिभोजनका, विरमण (त्याग), छठा है जिसमें, वह इसतरह है - सवत रहके, प्राणातिपात (हिंसा) से, महव्वय उच्चारणा, पंचविहा, पन्नत्ता, राइभोअण, वेरमण, छठ्ठा, तंजहा-सव्वाओ, पाणाइवायाओ, निवर्तना । सतरहके, मृपाबाद (झंटबोलने) से, निवर्तना २ । सब तरहके, अदत्तादान (न दिया लेने) से, निवर्तना ३। सबतरहके, वेरमणं सव्वाओ, मुसावायाओ, वेरमणं २। सव्वाओ, अदिन्नादाणाओ, वेरमणं ३ | सव्वाओ, मैथुन ( कुशील) से, निवर्तना ४ । सच तरहके, परिग्रह ( धनादि) से निवर्तना ५ । सवतरहके, रात्रिभोजनसे निवर्त्तना ६ । | मेहुणाओ, वेरमणं ४ । सव्वाओ, परिग्गहाओ, वेरमणं ५ । सव्वाओ, राइभोअणाओ, वेरमणं ६ ।
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हां, निश्चय, पहले, हे भगवन् !, महाव्रतमें, प्राणातिपात (हिंसा) से, निवर्तनाहै ३ । सवतर हके, हे भगवन् ! प्राणातिपातकुं पञ्चख्खता (त्यागता) हूं, 'तत्थ, खलु, पढमे, भंते!, महव्वए, पाणाइवायाओ, वेरमणं । सव्वं, "भंते !, पाणाइवायं पञ्चख्खामि, वे (जीव),मुक्ष्म, या, बादर, अथवा, त्रस, या, स्थावर ७, नहींज, ( मैं ) स्वयं, प्राणोंका, अतिपात (नाश) करूं, नहींज, दूसरोंसे, माणों का, अतिपात (नाश) से, सुहुमं, वा, बायरं, वा, तसं, वा, थावरं वा, नेव, सयं, पाणे, अइवाएज्जा, नेव, ऽन्नेहिं, पाणे, अइवायाकराऊं, प्राणों का, अतिपात करते हुए भी, दूसरों को, नहीं, अनुमोदूं (भलासमझं), जव तकजीवृंतवतक, विविध 'कुं, त्रिविध कर के, मनसे, वचनसे, कायासे, विज्जा, पाणे, अइवायतेवि, अन्ने, न, समणुजाणामि, जावज्जीवाए, तिविहं, तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं,
१गुरु उत्तर देते हैं। २ महानत उच्चारणाएँ । ३ऐसा भगवतने कहा हैं वास्ते । ४जो आंखसे देखनेमें न आवे । ५ जो देखने में आये । ६ वेइंद्रियादि। ७ स्थिर रहनेवाले। ८ प्राणातिपात ।
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नहीं, करूं, नहीं, कराऊं, करतेहुएभी,अन्यकुं,नहीं,अनुमोदूं(भला समझू),उसकुं,हेभगवन् !, पडिक्कमताहूं, निंदताहूं, गर्हताहूं, कन,करेमि, न.कारवेमि,करंतंपि,अन्नं, न,समणुजाणामि, तस्स, भंते !, पडिक्कमामि,निंदामि,गरिहामि, ३आत्माकुं, बोसिराताहूं। वह, प्राणातिपात, चारतरहका, कहाहै,वे भेद ये है-द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे, भावसे । अप्पाणं वोसिरामि। से,पाणाइवाए,चउव्विहे,पन्नत्ते,तंजहा-दव्वओ,खित्तओ,कालओ.भावओ।
द्रव्यसे, प्राणातिपात ,छतरहके,जीवोंके,समुदायमें। क्षेत्रसे, प्राणातिपात, सब लोकमें। कालसे, प्राणातिपात, दव्वओणं,पाणाइवाए-छसु,जीव,निकाएसु।खित्तओणं,पाणाइवाए,सव्वलोए । कालओणं,पाणाइवाएदिनमें,चाहे, रात्रिमें। भावसे, प्राणातिपात, रागसे,अथवा, द्वेषसे, जो, भी,फेर. मैंने, इस, धर्मको(पाये), केवलीके, दिया, वा,राओवा। भावओणं,पाणाइवाए,रागेण,वा,दोसेणवा,जं,पि,य.मए, इमस्स,धम्मस्स, केवलि,
कहे हुए। जोवरक्षा, लक्षणवाले । सत्यसे अधिष्ठित(आश्रित)। विनय, मूलवाले । क्षांति(क्षमा),प्रधानवाले। नहीं हिरण्य(रूपा), पन्नत्तस्स। अहिंसा.लख्खणस्स। सच्चाऽहिठ्ठियस्स ।विणय.मलस्स। खंति.प्पहाणस्स। अहिरण, | सोनेके दागिनेवाले। उपशमसे,पैदा होनेवाले । नव(वाड)ब्रह्मचर्यसे,रक्षित। अपचमान। भिक्षाकी, वृत्ति(जीविका)वाले। सोवण्णिअस्स ।उवसम.प्पभवस्स। नवबंभचेर,गुत्तस्स। अपयमाणस्स। भिख्खा, वित्तिअस्स। 1 हिंसारूप पापकु। २ उससे पौछा हटताई। ३ पापकारी मेरी। ४ वह है. जो। ५ होता है। ६ पचन पाचनादि आरंभ रहित ।
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कुक्षि (पेट)मेंही,भातेवाले। नहीं अग्निके शरणवाले। सम्यगधोडालनेवाले । त्यागकियेद्वेष वाले। गुणग्रहणस्वभाववाले। निर्विकारचित्तवाले। कुख्खी.संबलस्स। निरग्गि सरणस्स। संपख्खालियस्स। चत्तदोसस्स। गणग्गाहियस्स।निव्वियारस्स।
निवृत्ति लक्षणवाले। पांच महाव्रतोंसे युक्त(सहित)। नहीं संनिधि के संचय वाले। नहीं विसंवादवाले। संसारसे पार निवित्ती लख्खणस्स। पंच महव्वय जुत्तस्स । असंनिहि संचयस्स। अविसंवाइयस्स। संसार पार में पहुंचानेवाले। निर्वाणगमनरूप,पर्यवसान(अंतिम), फलवाले। पहले, अज्ञानतासे, अश्रवणता(न मुनने)से,अवोधितासे,नहीं स्वीगामियस्स । निव्वाणगमण,पज्जवसाण,फलस्स । पुट्विं,अण्णाणयाए,असवणयाए,अबोहियाए,अणs
कारनेसे, १०स्वीकारनेसे,अथवा, ११प्रमादसे, रागद्वेषकी, प्रतिबद्ध(व्याकुल)तासे,बालभावसे, मोहपणेसे,मंदता(आलस्य)से, क्रीडाभावसे, भिगमेणं,अभिगमेण,वा,पमाएणं, रागदोस, पडिबद्धयाए, बालयाए.मोहयाए, मंदयाए, किड्डयाए. ॐ तीन गारवोंकी,गुरुता(भार)से,चार कषायोंके प्राप्त होनेसे,पांचों इंद्रियोंके,वश,आत(दुःख)से.(कर्मके)प्रतिपूर्ण(पूरे),भारिपणेसे,साता सौख्यको तिगारव, गरुयाए, चनक्कसाओवगएणं,पंचिंदियो,वस, ऽट्टेणं, पडिपुन्न*, भारियाए,साया सोख्ख ।
१ पेटमें खा सके, उससे अधिक लाके रात्रिमें रखनेका जिसमें निषेध है। २ टंडसे पीडाते हुए भी अग्नि तापनेकी मना है। x कर्मरूप मलको । ३ अथवा फ॥१३६॥ मिथ्यात्वादि दोष । ४ कामके उन्मादसे रहित । ५ सर्वसावध योगका त्याग ६ आहारादि । ७ संग्रह । ८ जिसमें पूर्वापर विरोध रहित कथन है। १ नहीं जाननेसे । १० या अनादरपूर्वक । 11 विषय-कषायादि । * अन्य पुस्तकोंमे 'पटुप्पनभारियाए' ऐसा पाठांतर है, इसका अर्थ यह है-(उपर कहे कारणोंये)उत्पन्न हुए(कर्मके)भारीपणेसे ।
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+ अनुपाल(अनुभव)ते हुए, इस, चाहे, भवमें, अन्य, अथवा, भवोंके ग्रहण,प्राणातिपात(नीववध),कराहो, चाहे, करायाहो,
मणुपालयंतेणं, 'इहं, वा, "भवे, अन्नेसु, वा, भवग्गहणेसु.पाणाइवाओ.कओ,वा, काराविओ, है अथवा, कियाजाता, या, दूसरों से अनुमोदा(भलाजाणा)हो, उसकुं, निंदताहूं, गर्हताहूं. त्रिविधकुं,त्रिविधकरके, मनसे, वचनसे,
वा, कीरंतो,"वा, परेहिं, "समऽणुन्नाओ, तं, निंदामि.गरिहामि.तिविहं,तिविहेणं.मणेणं.वायाए, कायासे,अतीत(वीने)हुए.निंदताहूं, वर्तमान मेंहुएकुं,संवर(रोक ताहूं.अनागत कुं, त्याग करताहूं, सर्व, प्राणातिपातकुं, जबतक जी नही कापणं, अईयं, निंदामि, पटुप्पन्नं, संवरेमि, अगागयं,पञ्चलावामि. “सव्वं,पाणाइवायं. "जावज्जी- कालक तबतक, अनिश्रित, मैं,नहीं न,स्वयं(पोते),प्राणों कुं,अतिपातूं (विनाशू),नहींन,दूसरों से प्राणों कुं,अतिपाताऊं(विनाशाऊं), प्राणोंकुं,अतिपात- प्राणातिवाए,अणिस्सिओ,ऽहं,नेव,सयं, पाणे, अइवाएज्जा, नेव,ऽन्नेहि, पाणे अइवायावेजा, पाणे, अइवा(विनाश)तेभी दूसरोंकुं,नहीं,अनुमोदूं(भला समझू ),वह इस तरहहै, अन्हिंतकी, साक्षिसे १. सिद्धोंकी साक्षिमे २, साधुकी साक्षिसे ३, ॐ यंते वि. अन्ने, न,समऽणुजाणिजातं जहा, अरिहंत,सख्खिअं१.सिहसख्विअं२.साहुसख्खिअं३. 5 देवकी साक्षिसे ४, आत्माकी साक्षिसे ५.इसतरह, होताहै,भिक्षु(साधु)हो.चाहे,भिक्षुकी(साध्वी)हो,चाहे, संयत', विरत प्रतिहत(नाश).
देवसखिखअं४,अप्पसख्विअं५. एवं."भवइ.भिख्खु, वा,भिख्खुणी, "वा, संजय,विरय,पडिहय, ॥१३॥ २ इसलोक या पालोकके मुखादि की इच्छा रहिन । ३ प्राणानिपात का त्याग पांच भाक्षिसे । ४ सम्पति शासनाधिशयकादि । ५ सतरह भेदे संयमी । ६ वारे भेदे तपमें विशेष रक्त ।
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त्याग किये, पापकर्मवाला, दिनमें, चाहे, रात्रि में, अथवा, एकव्यहो, चाहे, पर्पदा में रहा हो, चाहे, मृताहो, चाहे, जागता हुआ हो (तोभी), यह, पच्चख्खाय, पावक्कम्मे, दिआ बा, राओ, वा, एगओ, वा, परिसा, गओ, वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, एस. निश्चय, प्राणातिपातका, रोकना, हित है, मुख है, क्षम(योग्य) है निःश्रेयसकर, आनुगामिक है, पारगामिक है, सब, "प्राणीओंको, खलु, “पाणाइवायस्स, वेरमणे,हिए, सुहे, खमे, निस्सेसिए, आणुगामिए, पारगामिए, सव्वेसिं, पाणाणं. सर्व. (एकेंद्रिय) भूतों को, सब जीवोंको, सब को नहीं दुःख देकरके, नहीं शोक पैदा करके, नही जीर्ण करके, सव्वेसिं. भूयाणं, सव्वेसिं, जीवाणं, सव्वेसिं, सत्ताणं, अदुख्खणयाए, असोयणयाए, अजूरणयाए, नहीं आं निकला, नहीं पीडा करके नहीं चौतरफ से ताप करके नहीं उपद्रव ( तकलीफ) करके, मोटे अर्थवाला, मोटे गुणवाला, मोटे प्रभाववाला
अतिष्पणयाए, अपीडणयाए, अपरियावणयाए, अणुद्दवणयाए, महत्थे, महागुणे, महाणुभावे,
पुरुषों से मोटे ऋषि का कहा हुआ, प्रशस्त (शुभ) है, वह दुःखक्षय के लिये, कर्मक्षय के लिये मोक्षप्राप्तिकेलिये, बोधिमहापुरिसाऽणुचिन्ने, पर मरिसि देसिए, पसत्थे, तं, दुख्खखखयाए कम्मख्खयाए, मोख्खयाए, बोहि
१ साधु समुदाय । २ मोक्षका हेतु है ३ भवांतर सुखदा ४ उत्तम नर और असं वर्ष के आयुवाले मनुष्य तथा विच प्रहारसे या भूख अशक मारपीट आदिसे तीर्थंकरादि
nternational
भवने पार लेजानेवाला ५ पंचद्रिय अथवा बेदी ने चरिद्री ६ चार गतिके, देवता- नारकी७ लोक उपकारके हेतुभूत सत्य (शक्ति) वंत अथवा सोपक्रमी आयुषवाले मनुध्यादि । ८ लकडी आदिके १० आवरित ११ प्राणातिपात विरमण त
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।। १३८ ||
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फलाभके लिये,संसारसे उतारनेकेलिये(होगा),ऐसा करके१, (इसवतक) अंगीकार करके,विचर(वर्त)ताहूं। पहेले, हे भगवन् !, महाव्रतमें,
लाभाए, संसारु तारणाए, त्ति कटु, नवसंपज्जित्ताणं, विहरामि । पढमे, भंते !.३ 'महव्वए, उपस्थित(पाप्त)ह, सवतरहके, पाणातिपात(हिंसा)से.विरमण(निवृत्ति) है ।। नवठिओमि,सव्वाओ, पाणाइवायाओ, वेरमणं ॥२॥
अब, अन्य, दूसरे, हेभगवन् !, महाव्रतमें, मृपावाद (झंट)से.विरमणा है । सवतरहके,हे भगवन् !, मृपावादकुं,त्यागताहूं, वह(झंट),
अहा, ऽवरे,दोच्चे, भंते !, महव्वए.मुसावायाओ,वेरमणं । 'सव्वं, भंते !. मुसावायं,पञ्चख्खामि,से. क्रोधमे, या, लोभसे, वा,डरसे,या,हँसी(मस्करी)से,नहींज, स्वयं,मृपा, बोलं, नहींज,दूसरोंसे.मृपा, बोलाऊ. मृपा,बोलतेहुएभी,अन्योकु.। कोहा,वा,लोहा,वा,भया,वा. हासा वा,नेव,सयं,मुसं.वएज्जा,नेव,ऽन्नहिं,मुसं.वायावेजा,मुसं.वयंतेवि,अन्ने.
न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि * करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते ! ' पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
से मुसावाए चनविहे पन्नत्ते.तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ.दव्वओणं मुसावाए ॥१३॥ १ इसवास्ते। २ अबसे में। x मृषावाद (झूट बोलना) ।
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है सव्व दवेसु', खित्तओणं मुसावाए लोए (लो में) वा अलोए (अलोकमें) वा, कालओणं मुसावाए दिआ वा राओ वा, भावओणं मुसावाए रागेण वा दोसेण वा जंपि य मए इमस्स धम्मरस केवलि पन्नत्तस्स अहिंसा लख्खणस्त सच्चाहिछियस्स विणयमलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरण्णसोवण्णिअस्स नवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स भिख्खावित्तिअस्स कुख्खीसंबलस्स निरग्गिसरणस्स संपख्वालिअस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्सनिबियारस्स निबित्तिलख्खणस्त पंचमहव्ययजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइयस्स संसारपारगामियस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुट् िअण्णाणयाए अलवणयाए अबोहियाए अणऽभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं राग दोस पडिबढयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चनकसाओवगएणं पंचिंदिओवसऽट्टेणं पडिपुन्नभारियाए सायासोख्वमणुपालयंतेणं इहं वा भवे अन्नेसु sheroin
जनजफफफफफफजपा
१ द्रव्योंने, धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय आदि छ द्रव्योकी विरुद्ध प्ररूपणा करनी। रागग-माया और लोभ नागके भेद होनेसे गोचरि आदि काम-काजमें आलसके कारण न म कहेकि 'मेरा पग दुखता है या बिमार न हो तोभी मैं बिमार हैं' इत्यादि बोलना मायासे झंट है। अच्छे आरके वास्ते लखे सूखे शुद्ध आहारको अशुद्ध बताना लोभसे झूट ILE है । ३ द्वेषसे-क्रोध और मान द्वेषके भेद वास्ते पीस करके किसीको हलके वचन कहना क्रोधमे झूट हैं। खुद विद्वान महोतभी में विद्वान ह' इत्यादि कहना मानस झुट है।
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वा भवग्गहणेसु मुसावाओ (मृयाबाद) भासिओ (वोलाहो) वा भासाविओ (वोलाया हो) वा भासिजंतो (बोला जाता) वा परेहि समणुन्नाओ, तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं. अईयं निंदामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पञ्चख्खामि.सव्वं मुसावायं,जावज्जीवाए अणिस्सिओऽहं, नेव सयं मुसं वएज्जा, नेवऽन्नेहिं मुसं वायाविज्जा, मुसं वयंते वि अन्ने न समणुजाणिजा, तंजहा- | अरिहंत सख्खिअंसिद्धसख्विअंसाहुसख्खिअंदेवसख्खिअं अप्पसख्खिएवं भवइ,भिख्खुवा भिख्खुणी वा,संजय विरय पडिहय पञ्चरुखाय पावकम्मे,दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा। एस खलु मुसावायरस (मृपावादका) वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए । आणुगामिए पारगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूआणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदु. ख्खणयाए असोयणयाए अनरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए अणुहवणयाए महत्थे महागणे महाऽणभावे महापुरिसाणचिन्ने परमरिसिदेसिए पसत्थे तं दुख्खख्खयाए कम्मख्खयाए मोख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए नि कटु नवसंपजित्ताणं विहरामि। दोच्चे भंते! .
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१४२॥
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महत्वए नवठ्ठओमि, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं |२|
अहाऽवरे तच्चे (तीसरे) भंते! महव्वए अदिनादाणाओ ( अदत्तादान - चोरीसे) वेरमण । सव्वं भंते! अदिन्नादाणं (अदत्तादानकु) पञ्चख्खामि, से गामे ( गाम में) वा नगरे ( नगर में ) वा रण्णे (अरण्य में) वा अप्पं (अल्प थोडा वा बहुं (बहुत) वा अणुं वा (छोटो या थूलं (मोटी वस्तु वा चित्तमंतं ( जीव सहित ) वा अचित्तमंत (जीव रहित) वा नेव सयं अदिन्नं (अदत्त) गिहिज्जा (ग्रहण करूं) नेवऽन्नेहिं अदिनं गिण्हाविज्जा (ग्रहण कराऊं ) अदिनं गते वि (ग्रहण करतेभी) अन्ने न समऽणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समऽणुजाणामि तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । से अदिन्नादाणे (अदत्तादान) चनव्विहे पन्नत्ते, तंजहा- दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओणं अदिन्नादाणे गहण धारणिज्जेसु (ग्रहण - धारण के योग्य) दव्वेसु (द्रव्योंमें) खित्त ओणं अदिन्नादाणे गामे वा नगरे वा रणे वा, कालओणं अदिन्नादाणे दिआ वा राओ वा, भावओणं
१ अटवी (सीम ) | २ वजनके प्रमाणसे ३ लंबाई चोडाइ आदि मापमं । ४ नहीं दिये हुए को लेना चोरी।
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८॥१४२॥
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है अदिन्नादाणे रागेण वा दोसेण वा. जंपिय मए इमस्तधम्मस्स कवाल पन्नत्तस्स आहसा ल०के णस्स सच्चाऽहिछियस्स विगय मूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरण्णसोवण्णिअस्स नवसमप्पभवस्स
नव बंभचेर गुत्तस्स अपयमाणस्स भिख्खा वित्तिअस्स कुख्खी संबलस्स निरग्गिसरणस्स संप| ख्वालियस्त चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्स निव्वियारस्स निवित्ति लख्खणस्सपंचमहब्वयजुत्तस्स असंनिहि संचयस्स अविसंवाइयस्स संसारपार गामियस्स निव्वाणगमण पज्जवसाण फलस्स पुट्विं
अण्णाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणऽभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं रागदोस पडिबद्धयाए | बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारव गरुयाए चनक्कसाओवगएणं पंचिंदिओवसऽटेणं म पडिपुन्न भारिपाए सायासोख्वमणु पालयंतेणं इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु अदिन्नादाणं
गहियं (ग्रहण किया हो) वा गाहावियं (यहण कराया हो) वा धिप्पंतं (ग्रहण किये जातेकुं) वा परोहिं समऽणुन्नायं, (अनुमोदाहो) तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अईयं निंदामि पडुप्पन्नं # संवरेमि अणागयं पञ्चख्वामि सव्वं अदिनादाणं जावज्जीवाए अणिस्तिओऽहं नेव सयं अदिन्नं
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॥१४॥
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गिण्हिज्जा, नेवऽन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविज्जा, अदिन्नं गिण्हत वि अन्ने न समऽणुजाणिजा, तंजहा
अरिहंतसख्खिअंसिद्धसख्खि साहुसख्खिअं देवसख्खिअं अप्पसख्खि। एवं भवइ भिख्खु | वा भिख्खुणी वा संजय विरय पडिहय पञ्चवाय पावकम्मे, दिआ वा राओ वा एगओ वा F परिसा गओ वा सुते वा जागरमाणे वा, एस खलु अदिन्नादाणस्स (अदत्तादानका) वेरमणे हिए सुहे
खमे निस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सम्वेसिं पाणाणं सव्वेसिंभआणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदुख्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए अणुद्दवणयाए महऽत्थे महागुणे महाऽणुभावे महापुरिसाणुचिन्ने परमरिसदेसिए पसत्थे तं दुरुखख्खयाए कम्मख्खयाए मोख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्ति कह उवसंपजित्ताणं विहरामि, तच्चे भंते! महव्यए उवठिओमि, सव्वाओ अदिन्नादाणाओ बेरमणं ।३।।
अहाऽवरे चउत्थे (चोथे) भंते ! महव्वए मेहुणाओ (मैथुन-कुशीलसे) वेरमणं सव्वं भंते ! मेहुणं । # (मैथुनकुं)पच्चख्वामि,से दिव्यं (देव संबंधी) वा माणुसं (मनुष्य संबंधी) वा तिरिरुख जोणियं (तिर्यचयोनि संबंधी)
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वा नेव सयं मेहुणं सेविजा (सेतूं) नेवऽन्नेहिं मेहुणं सेवाविज्जा (सेवा) मेहुणं सेवंतेवि (सेवते भी) अन्ने न समऽणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समऽणुजाणामि तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
से मेहुणे(मैथुन) चउविहे पन्नत्ते,तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ,दव्वओणं मेहुणे ॥ रूवेसु' वारूवसहगएसुवा,खित्तओणं मेहुणे उड्ढलोए(ऊर्ध्व-ऊंचे-लोकमें)वा अहोलोए वा तिरियलोए वा,कालओणं मेहुणे दिआ वा राओ वा,भावओणं मेहुणे रागेण वा दोसेण वा,जंपिय मए इमरस धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अहिंसालख्खणस्स सञ्चाऽहिछियस्स विणय मूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरण्णसोवण्णिअस्स उवसमप्पभवस्स नव बंभचेर गुत्तस्स अपयमाणस्स भिखावित्तिअस्स कुख्खी संबलस्स निरग्गिसरणस्स संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्स निव्वियारस्स निव्वित्ति
॥१४॥ लख्खणस्स पंच महव्वय जुत्तस्स असंनिहि संचयस्स अविसंवाइयस्स संसार पार गामियस्स १ रूपमें(प्रतिमा चित्रादि या आभूषणरहित स्त्रो आदिमें)।२रूप सहगत(आभूषणसहित स्त्रो आदि)में । ३ अधो(नीचे)लोकमें। ४ तिर्यग् लोकमें।
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निव्वाण गमण पज्जवसाण फलस्स पुट्विं, अण्णाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणऽभिगमणं अभिगमेण वा पमाएणं राग दोस पडिबद्वयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारव गरुयाए चनक्कसाओवगएणं पंचिंदियो वसऽट्टेणं पडिपुन्न भारियाए साया सोक्ख मणुपालयंतणं इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु मेहुणं सेवियं(मेवा हो)वा सेवावियं(सेवाया हो)वा सेविजतं(सेवे जातेकुं)
वा परेहि समणुऽन्नायं तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अईयं निंदामि के पडुप्यन्नं संवरेमि अणागयं पञ्चख्खामि सव्वं मेहुणं जावज्जीवाए अणिस्सिओऽहं नेव सयं मेहुणं - सेविजा नेवऽन्नेहिं मेहुणं सेवाविज्जा मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा, तंजहा-अरिहंत
सख्विअं सिहसखियअं साहुसख्खिअं देवसख्खिअं अप्पसख्खि एवं भवइ भिख्खु वा # भिक्खुणी वा संजय विरय पडिहय पञ्चरुवाय पावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसा
गओ वा सुने वा जागरमाणे वा, एस खलु मेहुणस्स (मैथुनका ) वेरमणे हिए सुहे खमे निरसेसिए - आणगामिए पारगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूआणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदुख्ख
॥१.४६।।
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या असोयणया अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए अणुद्दवणयाए हत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिन्ने परमरिसि देसिए पसत्थे, तं दुरुखरुखयाए कम्मख्खयाए मोख्खयाए बोहिलाभाए संसारुतारणाए त्ति कट्टु नवसंपजित्ताणं विहरामि, चनत्थे भंते! महत्व नवओिमि, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं |४|
अहावरे पंचमे (पांच) भंते ! महव्वए परिग्गहाओ (परिग्रहसे) वेरमणं, सव्वं भंते! परिग्गहं (परिग्रहकुं) पञ्चख्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, नेव, सयं परिग्गहं परिगिहिज्जा', नेवऽन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हाविज्जा, परिग्गहं परिगिण्हंते वि' अन्ने न समऽणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करोमि, न कार वेमि, करंतंपि अन्नं न समऽणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि ।
से परिग्गहे (परिग्रह) चनव्विहे पन्नत्ते, तंजहा - दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, दव्वओणं
१ धन-धान्यादि नव प्रकारके । २ चोतरफसे ग्रहण करूं । ३ चोतरफसे ग्रहण कराऊं ४ चोतरफसे ग्रहण करते भी।
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॥ १४७॥
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परिग्गहे सचित्ताऽचित्तमीसेसु' दव्वेसु, खित्तओणं परिग्गहे लोए वा अलोए वा,कालओणं परिग्गहे दिआ वा राओ वा, भावओणं परिग्गहे अप्पऽग्घे वा महऽग्घे वा, रागेण वा दोसेण वा जंपिय मए इमस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स अहिंसा लख्खणस्स सच्चाऽहिछियस्स विणयमलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरण्ण सोवण्णिअस्स नवसमप्पभवस्स नव बंभचेर गुत्तस्स अपयमाणस भिख्खा. वित्तिअस्स कुखवीसंबलस्स निरग्गिसरणस्त संपख्खालियरस चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्त निवि. यारम्स निवित्तिलख्खणस्स पंच महव्ययजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइयस्स संसार पार गामियस्स निव्वाणगमण पजवसाणफलस्स पुट्विं अण्णाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणऽभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं राग दोस पडिबडयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारव गरुयाए चनक्कसाओवगएणं पंचिंदिओवसऽट्टेणं पडिपुन्न भारियाए सायासोख्खमणु पाल. यंतणं इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु परिग्गहो(परिग्रह)गहिओ(ग्रहण कराहो)वा गाहाविओ (ग्रहण 7 मचित्त अचित्त और मिश्र रूपी अरूपी धर्मास्तिकायादि सब द्रव्योंमें । २ थोडे मोल कीमत वाली वस्तुम । ३ महामन्य धणी कीमत)वाली वस्तुम ।
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# करायाहो)वा घिप्पंतो(ग्रहण किया जाता)वा परेहि समणुनाओ(अनु योदा हो)तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं, E मणेणं वायाए काएणं,अईयं निंदामि, पडुप्पन्नं संवरेमि,अणागयं पञ्चवामि सव्वं परिग्गहं (परिग्रहकुं)
जावज्जीवाए अणिस्सिओऽहं, नेवसयं परिग्गहं परिग्गण्हिज्जा, नेवऽन्नेहिं परिग्गहं परिगण्हाविज्जा परिग्गहं परिगिण्हते वि अन्ने न समऽणुजाणिज्जा तंजहा-अरिहंतसखिख सिद्धसख्खिअंसाहुसख्खिअंदेवसख्खिअं अप्पसख्खि अं एवं भवइ भिख्खु वा भिख्खुणी वा संजय विरय पडिहय पच्चख्वाय पावकम्मे,दिआ वाराओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्तेवा जागरमाणे वा,एस खलु परिग्गहस्स(परिग्रहका वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूआणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदुख्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए अणुबवणयाए महऽत्थे महागुणे महाऽणुभावे महापुरिसाणुचिन्ने परमरिसिदेसिए पसल्थे,तं दुख्खरुखयाए कम्मख्खयाए मोख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्ति कट्ठ नवसंपजित्ताणं विहरामि,पंचमे भंते! महव्वए नवठिओमि,सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं।५।
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____ अहाऽवरे छठे भंते ! वए(व्रतमें) राईभोअणाओ (रात्री भोजनसे) वेरमणं, सव्वं भंते! राईभोअणं
पच्चख्वामि, से असणं (अशन कुं) वा पाणं (पान कुं)वा खाइमं (खादिम कुं) वा साइमं(स्वादिम कुं) वा,नेव, सयं राई(रात्रिमें) जेज्जा(भोजन करूं)नेवऽन्नेहिं राइं भुंजावेजा(भोजन कराऊं) राइं भुंजते वि (भोजन करतेभी) अन्ने न समऽणुजाणामि,जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं.मणेणं वायाए काएणं, न करेमि,न कारवेमि,
करतं पि अन्नं न समऽणुजाणामि तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। | से राईभोअणे (रात्रिभोजन) चनविहे पन्नत्ते, तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ,दव्वओणं के राईभोअणे-असणे(अशनमें)वा पाणे (पानी आदिमें) वा खाइमे(खादिममें)वा साइमे (स्वादिममें) वा,खित्तआणं
राईभोअणे-समयखित्ते (“समय क्षेत्रमें), कालओणं राईभोअणे-दिआ वा राओ वा, भावओणं राईभोअणे-तित्ते (तीग्वे रसमें) वा कडुए (कडवे रसमें) वा कसाए (कपायले(तुरे)रसमें) वा अंबिले (खट्टेरसमें) वा महुरे(मधुर मीठे रसमें)वा लवणे(लूणके खारे रसमें)वारागेण वा दोसेण वा,पि य मए इमस्स धम्मस्स रो. भात दाल शाक आदि । २ पीने लायक पाणी आदि । ३ खाने योग्य खजूर आदि मेवा । ४ स्वाद लेने योग्य सोपारी-इलायची आदि । ५ अढाइ द्वीप और दो समुद्र प्रमाण ।
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केवलि पन्नतस्स अहिंसा लख्खणस्स सच्चाऽहिट्ठियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरण्णसोवण्णिअस्स नवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स भिख्खावित्तिअस्स कुख्खीसंबलस्स निरग्गिसरणस्स संपख्खालिअस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्सनिम्वियारस्स निवित्तिलख्खणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइयस्स संसारपारगामियस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुट्विं अण्णाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणऽभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं राग दोस पडिबडयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चनक्कसाओवगएणं पंचिंदिओवसऽट्टेणं पडिपुन्नभारियाए सायासोरुखमणुपालयंतेणं इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु राईभोअणं भुत्तं(खायाहो) वा भुंजावियं (खबरायाहो) वा भुजंतं (खाये जातेकुं) वा परेहि समऽणुन्नायं, तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायार काएणं.अईयं निंदामि पडुप्पन्नं संवरोमि अणागयं पच्चख्खामि, सव्वं राईभोअणं,जावज्जीवाए अणिस्सिओऽहं.नेव सयं राईभोअणं भुंजेजा, नेवऽन्नेहिं राईभोअणं भुंजावेज्जा, राईभोअणं भुंजते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा, तंजहा
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में अरिहंत सख्खि सिद्धसख्खिअंसाहुसख्खिअं देवसख्खिअंअप्पसख्खि एवं भवइ, भिख्खु वा भिख्खुणी वा, संजय विरय पडिहय पच्चख्खाय पावकम्मे, दिआ वा राओ वा एगओ वा
वा सत्ते वा जागरमाणे वा। एस खलु राईभोअणस्स (रात्रि भोजनका) वेरमणे:हिए सहे । खमे निस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूआणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदुख्खणयाए असोयणयाए अजरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियाव
णयाए अणुहवणयाए महत्थे महागुणे महाऽणुभावे महापुरिसाणुचिन्ने परमरिसिदेसिए पसत्थे । के तं दुख्खख्खयाए कम्मख्खयाए मोख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्ति कटु नवसंपज्जित्ताणं
विहरामि, छठे भंते! वए नवठिओमि, सव्वाओ राईभोअणाओ वेरमणं ।। इसतरह ये, पांच महावतोंको। रात्रिभोजन,विरमण(निवृत्ति),छठेवाले। आत्महितके वास्ते। अंगीकार करके, विहरताहूं ।
इच्चेयाइं, पंचमहव्वयाइं। राईभोअण,वेरमण, छठाइं॥ अत्तहियऽठयाए। नवसंपज्जित्ताणं,विहरामि।।१२।। - अप्रशस्त(खराब),फेर, जो, योगहै। मनःपरिणामहै, और, भयंकर । प्राणातिपात(हिंसा)के,विरमण(त्याग)में । यह,कहाहै,अतिक्रम(दोष)। 'अप्पसत्था, 'य,जे,जोगा। परिणामा, य.दारुणा पाणाइवायस्स, वेरमणे। एस, वुत्ते, अइक्कमे।
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तीब(घणे),रागवाली, और, जो, भाषाहै। तीत्र, द्वेषवाली, वैसे ही,तथा । मृपावाद(झूट) के, विरमगमे। यह, कहाहै, अतिक्रम ।।
तिव्व, रागा, य, जा,भासा। तिव्व,दोसा, तहेव, य॥ मुसावायस्स,वेरमणे। एस, वुत्ते, अइक्कमे।३।। + अवग्रह कुं,फेर,नहीं याच(पांग)के। नहीं दियेहुर, और,अवग्रहमें रहना)। अद तादान(चोरि के,विरमणमे। यह, कहाहै, अतिक्रम । नग्गह, च, अजाइत्ता। अविदिने, 'य, 'नग्गहे॥ अदिन्नादाणस्सवेरमणे। एस, वुत्ते,'अइक्कमे।४।
शब्द, ३रूप, ४रस। "गंध, स्पर्शोकी,प्रविचारणा करनी। मैथुनके, विरमणमें । यह, कहाहै, अतिक्रम । इच्छा, मूर्छा, सहा,रूवा,रसा। गंधा,फासाणं पवियारणे॥मेहुणस्स,वेरमणे। एस, वुत्ते, अइक्कमे।५।'इच्छा, मुच्छा, और,गृद्धि १०,तथा। कांक्षा रूप,लोभ,और, भयानक। परिग्रके, विरमणमें। यह, कहाहै, अतिक्रम ।६। अतिमात्रासे १२ य, गेही, या कंखा, लोभे. य, दारुणे॥ परिग्गहस्स,वेरमणे।"एस. वुत्ते, अइक्कमे॥६॥'अइमत्ते, और,आहार(करना)। मूर्य क्षेत्रके १३, शंकितहोतेहुए। रात्रिभोजनके, विरमणमें। यह, कहाहै, अतिक्रम ७ दर्शन, ज्ञान, य, आहारे।सूर खित्तम्मि, संकिए। राईभोअणस्स,वेरमणे। एस, वुत्ते, अइक्कमे॥७॥दसण, नाण,
१ उपाश्रय । २ बीणा आदि वाजित्र वगेरहके। ३ खी अदिके। ४ तीखे-कडुए आदि। ५ फूल आदिको । ६ उष्ण-शीतादि ७. रागपूर्वक सेवना। ८ नहीं मिली 卐 किसी वस्तुकी अभिलाषा । ९ नहुइ या गमी(खोइ)हुइ वस्तुका शोच । १० मिलीहुइ मौजूद वस्तुमें ममत्वभाव । ११ नही मिले विविध पदार्थोकी वांछा । १२ खुदकी ज भूख के प्रमाणसे अधिक। १३ सूर्य के उदय-अस प्रमाग आकाश क्षेत्रने सूर्यका उदय वा अल हुआ या नहीं, इसतरहकी शंका रहतेहुए।
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चारित्रकुं। नहीं विराधके, रहाहुआ, श्रमण धर्ममें। पहले, (महा)व्रतकुं,बराबर रखता हूं । विरत होताहूं२, प्राणातिपात(हिंसा)से । ॐ चरित्ते। अविराहित्ता.'ठिओ, समणधम्मे॥ पढम, वय, मऽणुरक्खे। विरयामो, पाणाइवायाओ ॥८॥ की सण नाण चरित्ते, अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे। बीयं (दूसरे) वयमऽणुरख्खे, विरयामो मुसा
वायाओ (मृपावादसे ) ॥९॥दसण नाण चरित्ते,अविरहित्ता ठिओ समणधम्मे। तइयं (सीसरे)वयमऽणुरख्खे,विरयामो अदिन्नादाणाओ(अदत्तादानसे)।१०।दसण नाण चरित्ते,अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे। चनत्थं (चोथे) वयमणुरक्खे.विरयामो मेहुणाओ( मैथुनसे ॥११॥दसण नाण चरित्ते,अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे। पंचमं (पांच) वयमणुरख्खे, विरयामो परिग्गहाओ (परिग्रहसे) ।१२॥दसण नाण चरित्ते, अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे। छठं (छठे)वयमणुरक्खे, विरयामो राईभोअणाओ (रात्रिभोजनसे )।१३। आलय (मकान )विहार समिओ(समिति सहित), जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे । पढमं वयमणुरक्खे,
5॥१५॥ 'विरयामो 'पाणाइवायाओ।१४। आलय विहार समिओ,जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे। बीयं निवर्तताहूं। ३ आधाकर्मादि दोष तथास्त्री आदिके संसर्ग रहित उपाश्रय सेवताहुआ ! - मासकल्पादि क्रमसे बिहार करताहुआ। * (मुनिके गुण युक्त । : (तीनों गुप्तियोम )गुप्त-रक्षित।
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वयमणुरख्खे. विरयामो मुसावायाओ।१५। आलय विहार समिओ, जुत्तो गुत्तो ठिओ समण
धम्मे । तइयं वयमणुरख्खे, विरयामो अदिन्नादाणाओ।१६। आलय विहार समिओ, जुत्तो गुत्तो # ठिओ समणधम्मे। चनत्थं वयमणुरख्खे, विरयामो मेहुणाओ।१७आलय विहार समिओ. जुत्तो
गुत्तो ठिओ समणधम्मे। पंचमंवयमणुरख्खे,विरयामो परिग्गहाओ।१८। आलय विहार समिओ, # जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे। छठं वयमणुरख्खे, विरयामो राईभोअणाओ।१९। आलय विहार # समिओ, जुत्तो गुत्तो 'ठिओ समणधम्मे। 'तिविहेण (त्रिविध करके) अप्पमत्तो (अप्रमत्त हुआ), रख्खामि
(रख(पाल)ताहूं) महव्वए (महाव्रतोंकु) पंच (पांचों) ।२०। सावज्जजोग (सावद्य योगकुं) । मे 'गं (एक), मिच्छत्तं # (मिथ्यात्वकुं) एग (एक) मे व (ऐसेही-एक) अन्नाणं (अज्ञानकुं)। परिवजंतो(सवतरह वरजता हुआ) गुत्तो (गुप्त हुआ)
"रख्खामि महव्वए पंच।२१। अणवज्जजोग (अनवद्य-पापरहित-योगकुं) मे गं, सम्मत्तं (सम्यक्त्वकुं) एगमेव "नाणं (ज्ञानकुं) तु (निश्चय) । 'नवसंपन्नो(पामा हुआ)जुत्तो(युक्त हुआ)."रख्खामि "महव्वए पंच।२२। दो चेव
1 पापसहित मन-वचन-कायाके व्यापार। २ शुद्धदेव-गुरु-धर्मके उपर मनके विपरीत परिणाम ।
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(दोही) राग दोसे (राग-द्रेपकुं), 'दुन्नि (दोनों) अ(और) झाणाइं (ध्यानोंकुं) अट्ट-रुद्दाइं (आर्त-रौद्र)। परिवजंतो गुत्तो, रख्खामि ‘महव्वए पंच।२३। 'दुविहं(दो प्रकारके) चरित्त धम्म(चारित्र धर्मकुं), दुन्नि अ "झाणाई धम्म-सुक्काइं (धर्म-शुक)। नवसंपन्नो जुत्तो, रख्खामि महव्वए पंच।२४। किण्हा (कृष्ण) नीला (नील) कान (कापोत ये),तिन्नि (तीनों) अ (फेर) लेसाओ (लेश्यायें) अप्पसत्थाओ [अप्रशस्त खराब] | परिवजंतोगुत्तो, रख्खामि महब्बए पंच ।२५। तेन तेजो] पम्हा[पद्मा] सुक्का [शुक्ला ये], तिन्नि अलेसाओ सुप्पसत्थाओ [सुप्रशस्त-अच्छो]। नवसंपन्नो जुत्तो, रख्खामि महव्वए पंच ।२६। मणसा [पनसे] मण [मनके] सच्च सत्य-संयमका विऊ (जाननेवाला मैं) वाया (वचन) सच्चेण (संयमसे) करण (कायाके) सच्चेण । तिविहेणवि
(तीनोंही प्रकारसे) सच्चविऊ, रख्खामि महव्वए पंच ।२७॥ चत्तारि (चार) य (फेर)दुह सिज्जा (दुःखशय्या), है चनरो (चार) सन्ना (संज्ञा) तहा (तथा) कसाया (कषाय क्रोधादि)य। परिवजंतो गुत्तो,रख्खामि महव्वर
पंच ।२८। चत्तारि य सुहसिज्जा (सुखशय्या),चनविहं (चार प्रकारके) संवरं (संवरकुं) समाहिं [समाधिकुं]
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he ॥५६॥
卐 देशविरति सर्वविरतिभा । जिनमें अश्रवा कामभोगकी बांछा परकेलाभकी इच्छा स्नानकी अभिलाषा । आहार भय मैथुन परिग्रह । ४ जिनधर्ममें श्रद्धा विषय निवृत्ति पोतेके 卐 लाभमें संतोष स्नानकी अनिच्छा। ५ मन वचन काया तथा उपकरजका संघर नाम कर्मबंधनके मागको रोकना ! ६ ज्ञान दर्शन चारित्र तप, या विनय श्रुत तपः आचार।
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च। नवसंपन्नो जुत्तो,रख्वामि महव्वए पंच ।२९। पंचेव (पांचोही) य कामगुणे [शब्दादि कामगुणोंकु],पंचेव | है य अण्हवे [हिंसादि - आश्रयाकुं] महादोसे (महादोषवाले) । परिवजंतो गुत्तो, रख्वामि महव्वए पंच।३०।
पंचिंदिय[पांचों इंद्रियोंको] संवरणं (वश रखनेकुं),तहेव(वैसेडी)पंचविहमेव [पांचोंही प्रकारके] सज्झायं [१स्वाध्यायकुं]। नवसंपन्नो जुत्तो, रख्खामि महव्वए पंच।३१। छज्जीवनिकाय(पृथिव्यादि छजीव समुदायके)वहाबध नाशकुं], छप्पि (छहोंही) य भासाओ (भाषाओंकुं) अपसत्थाओ [अपशस्त खराव । परिवज्जतो गत्तो. रख्खामि महव्यए पंच।३२ विह (छ प्रकारके) मभितरयं (अभ्यंतर), बझंपि (वाद्यभी) य छविहं तवोकम्म | (तपःकर्म(तपस्या)कुं)। नवसंपन्नो जुत्तो, रख्खामि महव्वए पंच ।३३। सत्त (इड लोकादि-सात) भयठाणाई (भयके स्थानोंकुं), सत्तविहं चेव (सात प्रकारकेही) नाणविभंगं (विभंग ज्ञानकुं)। परिवजतो गुत्तो, रख्खामि
महब्धए पंच ।३४ापिंडेसण(आहारकी एपणा)पाणेसण(पाणीकी एपणा), नग्ग(अवग्रह)सत्तिक्कया(सप्लैकफर) । महऽज्झयणा(मोटे अध्ययन)। नवसंपन्नो जुत्तो, रख्खामि महव्वए पंच ।३५। अठ्ठ(आठ)मयठाणाई
हा |
वाचना-पृरछनादि । -हीलित-खिसितादि। ३ मिथ्यात्य सहित अवधिज्ञान । ४ असंमठ-संसादि सातभेदस आहार तथा पाणी लेनेमें शबताकी तलाश करना। उपाश्रय याचनमें 'यथाचितिता दि सात अभिग्रह। ६ आचारांग दूसरे श्रुतस्कंधके 'सत्ससत्तिका' नामके सात अध्ययन । ७ सूयगडांग दूसरे श्रुतस्कंधके सात ।
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( 'मटके स्थानोकुं । अठु य कम्माई(कर्मोकुतेसिं(उनके बंधविधकुं च। परिवतो गुत्तो, रग्ब्खामि महत्वाए पंच ।३६। अठ्ठ य पवयण माया (प्रवचन माताकुं),दिठ्ठा (देखीहुइ) अविह (आठ प्रकारके) निठिय (नष्टहुए) “उठेहिं अर्थ कर्मरूप वस्तुवाले तीर्थंकरोंन)। नवसंपन्नो जुत्तो.रख्खामि महव्वए पंच।३७। नव(नव)पाव [पापवे] नियाणाई नियाणोंकु ,संसारत्था संसारमें रहे]य नवविहा नव प्रकारके"] जीया (जीवोंकुं)। परिवज्जतो गुत्तो, रख्वामि महब्बएपंच।३८। नवा नववाड युक्त बंभचेर[वह वर्गमे]गुत्तो(रक्षित हुअा).दुनवविहं दो नव ५.८पकारके)
बंभचेर (ब्रह्मचर्य कुं परिसुहं (सबतरह शुद्ध)। नवसंपन्नो जुत्तो, रख्खामि महव्वए पंच १३९। नवधायं PF (उपयातकुं च दसविहं (दश प्रकारके), असंवरं (आश्रवकुं) तहय(वैसेही)संकिलेसं संक्लेश असमाधिकुं च । परि
वजंतो गत्तो. रख्खामि महव्यए पंच।४०। सच्च सत्य समाहिठाणे (समाधि स्थानों° 1),दस (दश चव
להלהללהלהלהלהבובלהרוכותבתצורתלתלתלהבה
14 जाति-लाभादि : २ ज्ञानावणीवादि। पांच समिति तीन गुप्ति। । इस भवमे आगधे चारित्रादिसे भवांतर में गजा-दो दिपदको प्राप्त होनेका निथय ५ पृधिव्यादि
पांच स्थावर तथा वेददिवादि चार प्रस। औदारिक तथा वैकिय मथुनको मन-वचन-कायासे करना-कराना अनुमोदना नहीं। ७ उद्गम-उत्पादना और एषणाके दोष
लगाना, एवं वखादि उपकरणों की सफाइ रखना, इत्यादि दश आचरण संयमकं घान करनेवाले । ८ पांचों इंद्रियोंको तथा मन वचन-कायाको निजनिज विषयोंसे न गेकना, 1 प्रमाणस अधिक या अकल्य वस्त्रादि लेना, मुंह आदि शरू रखना। ५ वादि उपकरण उपाश्रय-भाडागदिके निमित्तम असमाधि करना। १० दश सत्यादि ।
11 स्त्री-पशु-मयकादिके संसर्ग हित उपाश्रय लेना आदि।
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१दश अध्ययनवाले।
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(निश्चय) दसाओ ['दशा-श्रुत स्कंधकुं] समणधम्म (क्षमादि श्रमण-मुनि-धर्मकुं) च । नवसंपन्नो जुत्तो, रख्खामि महव्यए पंच ।४। आसायणं (आशातनाओंकुं) च सव्वं,तिगुणं तीनगुणि इक्कारसं (इग्यारे-३३) विवज्जतो । (विशेष वरजता हुआ)। नवसंपन्नो जुत्तो,रख्खामि महब्बए पंच।४। एवं(इसतरह तिदंड(तीन दंडसे) विरओ (विरत(रुका हुआ),तिगरण (तीन करणसे) सुरो (शुद्ध हुआ तिसल्ल (तीन शल्य पीडामे निसल्लो निःशल्य-पीडारहित हुआ । तिविहण (त्रिविध करके) पडिकंतो (पडिक्कमा-पीछाहटा हुआ, रख्खामि महव्वए पंच १४३॥ इस प्रकार यह,महावतों का उच्चारण,स्थिरताका हेतुहै, शल्य निकालनेवालाहै, धीरजताका बलदायकहै, व्यवसाय है, शिव साधनका हेतु है, ___ 'इच्चेइयं,महव्वयनच्चारणं, थिरतं, सल्लुद्धरणं, धिइबलयं, ववसाओ, साहणऽठो, पाप निवारनेवालाहै, व्रत स्वीकारका दृढ हेतुहै, भावकुं शोधनेवाला है, पताका(ध्वजा)कुं, लेनेवालाहै. निकालनेवालाहै, आराधना है, गुणोंकी.
पावनिवारणं, निकायणा, भावविसोही. पडागा, हरणं,निज्जुहणा,ऽऽराहणा. गुणाणं. * संवरका,योग (संबंध) है,पशस्त(शुभ),ध्यानकी उपयुक्तता है, युक्तताहै. और, ज्ञानसे,सत्य पदार्थ है, उत्तम पदार्थ है, यह, निश्चय, १८९॥ # संवर, जोगो, पसत्थ, ज्झाणोवनत्तया. 'जुत्तया, 'य, नाणे. “परमऽठो. उत्तमऽठो, एस. खलु, x अनाशातनाकु । २ दुष्कर कामके परिणामवाला। ३ चारित्र आराधनारूप । ४ कर्मशत्रुको । ५ चारित्रके । ६ आतेहुए नवीन कर्मोकी रुकावट । ७ सहितपणा । ८ बनावटी नहीं।
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*
नीर्थंकरोंने, रति (काम), राग, द्वेषकुं. मथनेवाले, कहा है, प्रवचन (सिद्धांत) का सार छ जीव निकाय के संयमकुं उपदेश (क) के, "तित्थंकरेहिं, "रइ, राग, दोस, महणेहिं, "देसिओ, "पवयणस्स, सारो, छज्जीवनिकायसंजमं, नवएसिय, तीन लोकसे, सत्कारे हुए, (मोक्ष) स्थानकुं, अच्छी तरह प्राप्त हुए हैं। नमस्कार हो, आपको, हे सिद्ध २, हे बुद्ध !, हे मुक्त ४, हे नीरज ! तेल्लोक, सक्कयं, ठाणं, भुवया । "मोत्थु ते, "सिद्ध !, बुद्ध!, मुत्त !, नीरय !, हे निस्संग ६, हे मानको दलनेवाले. हे गुणरूप रत्नके सागर !, हे अनंत ( ज्ञानी) !, हे अप्रमेय ! नमस्कार हो, आप, महानू', महा (मोटे) वीर, निस्संग !, माणमूरण !, गुणरयणसायर! मणंत !, मप्पमेय ! नमोऽत्यु, "ते, महइ, महावीर, वर्द्धमान. स्वामिको । वज्रमाण, सामिस्स । नमोऽत्यु. ते अरहओ । नमोऽत्यु, खते,
नमस्कार हो. आपको, अर्हन ( पूज्य ) होनेसे । नमस्कार हो, आपको, भगवान हो, इसवास्ते ।
महाव्रतोंकी, उच्चारणा, करली, (अब) इच्छते हैं, सूत्रकी, कीर्तना करना । महव्वय. उच्चारणा, कया. इच्छामो, सुत्त, कित्तणं,
कानं ।
१] और वे तीर्थंकर । २ कर्मोकुं भस्म करके सिद्धहुए। ३ केवलज्ञानसे सब पदार्थ जाननेवाले ४ कमपिंजरसे छूटे हुए ५ कर्मबंधनरूप रजरहित । ६ स्त्री-पुत्रधनादिके संगरहित ७ छद्यस्थोंके ज्ञानसे जाननेने नहीं आनेवाले मोटे (मोक्ष) में करी है मति जिन्होंने ऐसे
यह, निश्चय,
भगवओ, तिकडु । एसा. खलु,
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।।१३०॥
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பூதததததததததத
नमस्कार हो, उन, क्षमाश्रमणों (मुनिओं) कुं, जिन्होंने, इस-यह, वांचा है', छ प्रकार के आवश्यककुं, अतिशयवाले। वह इसतरह है - सामायिकः १, नमो, "तेसिं, खमासमणाणं, जेहिं, इमं, वाइयं, 'छव्विहमावस्सयं, 'भगवंतं । तेजहा - सामाइयं१. चतुर्विंशतिस्तव २, वंदनक (बांदा) ३, प्रमिक्रमण ५ ४, कायोत्सर्ग ५, प्रत्याख्यान ६ । सब ही, इस. छ प्रकारके, चनवीसत्थओर, वंदणयं ३. पडिक्कमणं ४, कानस्सग्गो५, पञ्चख्खाणं६ । सव्वेहिं पि, एयम्मि, छव्विहे, आवश्यक में ऐश्वर्यादियुक्त, (मूल) सूत्र सहित, अर्थ सहित, ग्रंथ सहित, निर्युक्तिसहित संग्रहणीसहित, जो, गुण, या, भाव', अरिहंत, आवस्सए, 'भगवंते, ससुत्ते, सअत्थे, सग्गंथे, सनिज्जुत्तिए, ससंगहणिए, "जे, गुणा, वा, भावा वा, अरिहंतेहिं, भगवंतोंने बताये हैं, अथवा, प्ररूपे हैं, चाहे, उन, भावोंकुं, सदहते हैं, प्रीतिसे स्वीकारते हैं, रोचते हैं, फरसते हैं, पालते हैं, भगवंतेहिं, पन्नत्ता, वा, परुविया, "वा, "ते, भावे, सद्दहामो, पत्तियामो, रोएमो, फासेमो, पालेमो, वारंवार पालते हैं, उन, भावोंकुं, सद्दहने हुए, प्रीती से स्वीकारते हुए, रोचते हुए, फरसते हुए, पालते हुए, वारंवार पालतेहुए, अंदर, अणुपालेमो, ते भावे, सहहतेहिं, पत्तियंतेहिं, रोयंतेहिं, फासंतेहिं, पालंतेहिं, अणुपालंतेहिं, "अंतो.
१ मुझे पढाया है, या रचा ( बनाया ) है । २ छप्रकारका आवश्यक ३ पाप योगकात्याग ४ चोवीसों तीर्थंकरोंकी स्तुतिरूप लोगस्स । ५ लगे दोषोंकी निंदाहै जिसमें, पगामसिजाए ६ मूल सूत्र तथा अर्थ दोनुंरूप। ७ क्षायिकादि छ भाव. या जीवाजीवादि पदार्थ ८ सामान्यपणे ९ विशेषणेसे कहे ।
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पक्षके, जो,वांचाहो ,पढाहो(स्वयं),पगवर्ताहो२, पृछाहो, अर्थसंभालाहो, "शुद्ध पालाहो, वह, दुःख क्षयकेलिये, कर्म क्षयके"पख्खस्स', 'जं,वाइयं,पढियं,परियट्टियं,पुच्छियं,अणुप्पेहियं,अणुपालियं.तं.दुरुखख्खयाए,कम्मख्खलिये, मोक्षकेलिये, बोधिलाभकेलिये,संसारसे उतारनेकेलिये(होगा),इसवास्ते,अंगीकार करके, विहर(वर्त)ताहूं। अंदर, पक्षके, याए,मोख्खयाए,बोहिलाभाए,संसारुत्तारणाए, तिकट्ट,नवसंपजित्ताणं,विहरामि। अंतो,"पख्खस्स.
जो,नहीं वांचाहो, नहों पढा हो, नहीं परावर्ता हो, नहीं पूछा हो, नहीं अर्थ विचाराहो, नहीं शुद्ध पाला हो,होते हुए, बल के होते हुए, २"जं,न वाइयं, न पढियं, न परियट्टियं न पुच्छियं,नाऽणुप्पेहियं,नाऽणुपालियं, "संते, "बले, संते, वीर्य के, होते हुए, पुरुषाकार, पराक्रमके, उसको, आलोचते हैं, पडिक्कमते हैं. निंदते हैं, गर्हतेहैं, व्यतिवर्त्तनेह ,विशेष--
वीरिए,"संते, पुरिसकार, परक्कमे, तस्स,आलोएमो,पडिक्कमामो,निंदामो,गरिहामो,विनडेमो,विसोशोधते हैं,नहीं करनेपणेसे ,अभ्युस्थित(तयार)होते हैं,यथायोग्य११, तपःकर्मरूप,प्रायश्चित्तकुं, स्वीकारते हैं, उसका, मिथ्याहो मेरे दुष्कृत। हेमो, अकरणयाए, आभुट्टेमो, अहारिहं. तवोकम्मं,पायच्छित्तं,पडिवज्जामो,तस्स,मिच्छामि दुकडं।
१ दूसरोको पढायाहो । २ मूल मूत्रका पाठ कियाहो। ३ किसी बातका संदेह मिटानेकेलिये दूसरेको । ४ इस प्रकारसे । x चोमासोमें 'अंतो चोमासिअस्स' और संवच्छरीमें 'अंतो संवच्छरस्स' बोलना । ५ वांचने-पढनेआदि आचारको। ६ शरीरको ताकात । ७ आत्मबल । ८ पुरुषपणेके अभिमानरूप । ९ नहीं वांचने आदिके कारण (आलस्यादि)को तोडतेह । १० इन(नहीं वाचनाआदि) दोषों• अबसे नहीं करनेकी प्रतिज्ञासे । 1 छोटे या मोटे अपराधके लायक ।
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आचारां. नादि बार।
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__नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं अंगबाहिरं [अंगोंसे बाहरके] नक्कालियं [ उन्कालिक श्रुतकुं]
भगवंतं,तंजहा-दसवेआलिय[दशवकालिककप्पिआकप्पियं [कल्पिकाकल्पिक चुल्लकप्पसुक्षुलु-छोटा-कल्पश्रुत] महाकप्पसुअं [महा-मोटा-कल्पश्रत नववाइयं [औपपातिक] रायप्पसेणियं (राजप्रश्नीय-रायपसेणी) जीवाभिगमो पन्नवणा (प्रज्ञापना) महापन्नवणा (महाप्रज्ञापना) नंदि [नंदिसूत्र अणुओगदाराई (अनुयोगद्वार) देविंदाथओ (देवेंद्रस्तव) तंदुलवेयालियं तदुलवैचारिक) चंदाविज्झयं (चंद्रावेध्यक) पमायऽप्पमायं (प्रमादाप्रमाद, परिसिमंडलं (पौरुषीमंडल) मंडलप्पवेसो (मंडलप्रवेश) गणिविज्जा (गणिविद्या विजाचरणविणिछओ (विद्याचरणविनिश्चय) झाणविभत्ती (ध्यान विभक्ति मरणविभत्ती(मरणविभक्ति) आयविसोही आत्मविशोधि) संलहणासुअं (संलेखनाश्रुत वीअरायसुअं वीतरागश्रुत विहारकप्पो (विहारकल्पचरणविसोही (चरणविशोधि) आनरपञ्चदखाणं आतुरप्रत्याख्यान) महापञ्चख्खाणं. महामन्याख्यान सव्वेहि पि एयम्मि अंगबाहिरे नक्कालिए ( उकालिक भगवंते.
ससुत्ते.सअत्थे. सग्गंथे. सनिज्जुनिए.ससंगहणिप में गुणा वा भावा वा अरिहंतेहिं भगवंतहिं पन्नत्ता २ जिनके जोगम कालग्रहण नहीं लि जाने .या विमात्रिकी कार कारटयरत के हिसाब सनी इममें पटा र के उन : ७ य औषपातिकादि चारमन्त्र ॐ के आसार है।
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६ वा परूविया वा ते भावे सहहामो. पत्तियामो. रोएमो. फासेमो. पालेमो, अणुपालेमो, ते भावे ।
सदहतेहिं. पत्तियंतेहिं. रोअंतेहिं. फासंतेहिं. पालंतेहिं.अणुपालंतेहिं अंतो परुखस्स जंवाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छियं अणुप्पेहियं अणुपालियं.तं दुरूवख्खयाए कम्मख्खयाए मोख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्ति कटु 'नवसंपज्जित्ताणं विहरामि । अंतो पक्खस्स, जं न वाइयं न पढियं
न परियट्टियं न पुछियं नाऽणुप्पेहियं नाऽणुपालियं, संते बले संते वीरिए संते पुरिसकार परक्कमे, के तस्स आलोएमो पडिक्कमामो निंदामो गरिहामो विनट्टेमो विसोहेमो, अकरणयाए आभुठूमो, । अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजामो, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥
नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं अंगबाहिरं कालियं (कालिक सिद्धांतकुं)। भगवंतं,तंजहा
उत्तरज्झयणाई (उत्तराध्ययन) दसाओ (दशाश्रतस्कंध) कप्पो (बकल्प ववहारो (व्यवहार) इसिभासिय है (ऋषिभापित निसीहं (निशीथ) महानिसीहं (महानिशीथ) जंबुद्दीवपन्नत्ती (जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति) सूरपन्नत्ती (मूर्यप्रज्ञप्ति) १ उत्कालिक सिद्धांतोंमें कहे आचार-विचारको अंगीकार करके । २ जिनके योगोद्वहन में कालग्रहण लिये जाते हैं,तथा जिनको पढने लिये दिनरात्रिका पहला चोथा पहोर नियतहै उनकुं ।
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चंदपन्नत्ती (चंद्रज्ञप्ति) दीवसागरपन्नत्ती (द्वीपसागरमज्ञप्ति) खुडिड्या विमाणपविभक्त्ती [बुद्धिका विमान प्रविभक्ति] मल्लिया विमाण पविभत्ती (महति महल्लिका- विमान प्रविभक्ति) अंगचूलियाए (अंगचूलिका) वग्गचूलियाए (वर्गचूलिका) विवाहचूलियाए (विवाह- व्याख्या - चूलिका) अरुणोववाए (अरुणोपपात) वरुणोववाए (वरुण) गरुलोववाए (गरुडोपपात) धरणोववाए (धरणोपपात) वेसमणोववाए (वैश्रमणोपपात) वेलंधरोववाए (वेलंधरोपपात) देविंदोववाए (देवेंद्र पपात) नट्टाणसुए (उत्थानश्रुत) समुठ्ठाण सुए (समुत्थानश्रुत) नागपरिआवलिआणं (नागपरिज्ञायलिका) निरयावलियाणं (निरयाबलिका) कप्पियाण' (कल्पिका) कप्पवडिंसयाणं (कल्पावतंसक) पुष्फिआणं (पुष्पिका) पुप्फ चूलियाणं (पुष्पचूलिका) [ वहिआणं (वृष्णिका ) ] वहिदसाणं (वृष्णिदशा) आसीविसभावणाणं (आशीविषभावना दिठ्ठीविसभावणाणं (दृष्टिविषभावना) चारण समण भावणाणं (चारण श्रमण भावना) महासुमिण भावणाणं (महास्वप्न भावना) तेअग्गि निसग्गाणं (तेजोऽग्नि निसर्ग सव्वेहिं पि एयम्मि अंगबाहिरे कालिए (कालिक में) भगवंते ससुत्ते अत्थे सग्गंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए जे गुणा वा भावा वा अरिहंतेहिं
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कल्पिकादि वृष्णिदशातक पांचोंहीसूत्र 'निरयावलिका के वर्ग है । २ टीका अवचूरिमें एवं भाषांतर में यह पद नहीं है, परंतु मूलकी पुस्तकों में होनेसे इनको बाकीट ( ) में रख है ।
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भगवतेहिं पन्नत्ता वा परूविया वा ते भावे सहहामो पत्तियामो रोएमो फासेमो पालेमो अणुपालेमो ते भावे सदहंतेहिं पत्तियंतेहिं रोअंतेहिं फासंतेहिं पालंतेहिं अणुपालंतेहिं अंतो पख्खस्स जं वाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छियं अणुप्पेहियं अणुपालियं,तं दुख्खख्खयाए कम्मख्खयाए मोख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्ति कटु नवसंपज्जित्ताणं विहरामि । अंतो पख्खस्स जं न वाइयं न पढियं न परियट्टियं न पुच्छियं नाऽणुप्पेहियं नाऽणुपालियं, संते बले संते वीरिए संते | पुरिसकार परक्कमे. तस्स आलोएमोपडिकमामोनिंदामोगरिहामोविनट्रेमो विसोहेमो अकरणयाए
आभुठेमो,अहारिहं तवो कम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जामो,तस्स मिच्छामि दुक्कडं । १ आचार्य के गुणरूप रत्नों की पेटीसमान ___ नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं दुवालसंग(दादशांग-बारहभंग-श्रुत)गणिपिडगं (गणिपिटकरूप) भगवंतं, तंजहा-आयारो (आचारांग) सूयगडो (सूप्रकृतांग) ठाण(स्थानांग)समवाओ(समवायांग)विवाहपन्नत्ती
ख्याप्रज्ञप्ति-भगवती) नाया-धम्मकहाओ (जाता-धर्मकथांग) नवासगदसाओ (उपासफदशांग) अंतगडदसाओ (अंतकृदशांग) अणुत्तरोववाइय दसाओ(अनुत्तरोपपातिक दशांग)पण्हावागरणं(प्रश्नध्याकरणांग)विवागसुयं(विषाष श्रुप्त)
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दिठिवाओ (दिवाद) सव्वेहिं पि एयम्मि दुवालसंगे (द्वादशांगरूप) गणिपिडगे (गणिपिटकमें) भगवंते ससुत्ते सअत्थे सग्गंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए जे गुणा वा भावावा अरिहंतेहिं भगवंतेहिं पन्नत्ता वा परूविया वा ते भावे सहहामो पत्तियामो रोएमो फासेमो पालेमो अणुपालेमो, ते भावे सहतेहिं पत्तियंतेहिं रोअंतेहिं फासंतेहिं पालंतेहिं अणुपालंतेहिं अंतो पख्खस्स जं वाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छियं अणुप्पहियं अणुपालियं,तं दुख्खख्खयाए कम्मख्खयाए मोख्खयाए बोझिलाभाए संसारुत्तारणाए त्ति कटु नवसंपज्जित्ताणं विहरामि। अंतो परुखस्स जं न वाइयं न पढियं न परियट्टियं न पुच्छियं नाऽणुप्पेहियं नाऽणुपालियं, संते बले संते वीरिए संते पुरिसकार परक्कमे, तस्स आलोएमो पडिकमामो निंदामो गरिहामो विनडेमो विसोहेमो, अकरणयाए आभुल्ठेमो, अहारिहं तवो कम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जामो. तस्स मिच्छामि दुक्कडं। : जो क्षमाश्रमण इस द्वादशांगमें कहे आचारको। ....॥१६७॥ नमस्कार हो,उन, क्षमाश्रमणोंको, जिन्होंने, यह,वांचाई तथा] द्वादशांगश्रुत, गणिपिटकरूप,ऐश्वर्यादियुक्त, अच्छीतरह,कायासे,फरसते हैं, 'नमो, तेसिं,खमासमणाणं, जेहिं,इम, वाइयं, "दुवालसंगं, गणिपिडगं, भगवंतं, सम्म,काएणं,फासंति,
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पाक्षि
कादि खामणे
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पालते हैं', पूरते हैं, तीरते हैं, कीर्ततेहैं', अच्छीतरह, आज्ञासे, आराधते हैं, मैं, और नहीं, आराधताहूं, उसका मिथ्याहो मेरे, दुष्कृत | पालंति, पूरंति, तीरंति, किट्टंति, सम्मं, आणाए, आराहंति, "अहं च, "न, आराहेमि, तस्स मिच्छामि, दुक्कडं ॥
श्रुतदेवता, भगवती (पूज्या ) । ज्ञानावरणीय, कर्मके, समुदायकुं । उनके खपाओ, निरंतर । जिन्होंकी, श्रुत सागर में, भक्ति है ॥१॥ "सुअदेवया, 'भगवई । नाणावरणीय, कम्म, संघायं ॥ तेसिं, खवेन, सययं । 'जेसि, सुअसायरे, भत्ती ॥१
इच्छताहूं, क्षमाश्रमण (गुरो) !, प्रियहै, और, मेरेकुं, जो, आक्का, हर्षित हुए, संतुष्टहुए, अल्प (नहीं) रोगवाले, नहीं भग्न हुए, (संयम) योगवाले, इच्छामि, खमासमणो !, 'पियं, च, मे, जं, भे, हठ्ठाणं, तुहाणं, अप्पायंकाणं, अभग्ग, जोगाणं, अच्छे शीलवाले, अच्छे व्रतवाले, आचार्य उपाध्याय सहित, ज्ञानसे, दर्शनसे, चारित्रसे, तपस्यासे, आत्माकुं, भागते हुए, सुसीलाणं, सुव्वाणं, सायरियनबज्झायाणं, नाणेणं, दंसणेणं, चरित्तेणं, तवसा, अम्पाणं, भावेमाणाणं बहुत शुभ (मुख) से, हे भगवन् !, दिवस (दिन), पौषध (पर्व) रूप, पक्ष, [ चोमासा, संवत्सर (वर्ष) ], बीता है, अन्य ( पक्षादि), और आपके, "बहुसुभेण, भे! "दिवसो, पोस हो, पख्खो, (चनम्मासो, संवच्छरो), वडक्कंतो, "अन्नो, य, भे, कल्याणसे, पर्युपस्थित (प्राप्त हुआ है, ( वास्ते) शिरसे, मनसे, मस्तक (नमा) करके, वांदता हूँ |१| गुरु कहे- तुमारे, साथ । "कल्लाणेणं, पज्जुवडिओ, सिरसा, मणसा, मत्थएण, वंदामि |१| तुम्भेहिं, समं ।
1
१ पढे बाद वारंवार पाठ करने आदिसे रक्षण करते हैं । २ पढतेहुए अधूरा नहीं छोडते हैं । ३ नहीं भूलके जन्मभर पार लगाते हैं । ४ वाचनादि पांचों प्रकारके स्वायाय से कीर्तन करते हैं :
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इच्छताहं, हेक्षपाश्रमण(गुरो) :.(विहारसे)पहले, चैत्यों[जिनविंयो]को,वंदनकरके,नमस्कार करके,आपके चरणोंकेरल में, विचरते हुए मैने इच्छामि. खमासमणो!, 'पुट्विं, चेइयाई, वंदित्ता,नमंसित्ता,तुभिण्ड,पायमूले,विहरमाणेणं,जे. कोड. बहतदिनोंके दीक्षावाले, साधु, देखे(उनमेंसे), स्थिर रहे हुए,अथवा,मासकल्पादि वसे हुए,या,एक गामसे दूसरे गाम, विहार करते हुए, के. बहदेवसिया, साहुणो, दिठ्ठा, समाणा, वा, वसमाणा. वा, गामाणुगाम, दुइज्जमाणा वा. दीक्षा मोटे(आचार्य, आपका)कुशल पूछते हैं,दीक्षामें छोटे(आचार्य, आपको) गंदते, साधु, वांदते हैं, साथीयें, वांदती, श्रावक
रायणिया, संपुच्छंति, ओमरायणिया, वंदति, अज्जया.वंदति,अजियाओ,वंदंति. सावया, वांदतेहैं, श्राधिकायें, वांदतीहैं. मैं भी, शल्यरहितहूं, कपायरहितहूं, इसवास्ते, शिसे, मन(भाव)पे,मस्तक (नया)करके,बांदताहूं । वंति,सावियाओ,वंदंति, अहंपि,निस्सल्लो.निक्कसाओ. तिकटु,सिरसा, मणसा, मत्थएण, वंदामि। भी(आपको), बंदाताहूं, चैत्य(जिनविय) । गुरुकहे मस्तककरके,वांदताहूं, में भी उन(चे यादि)कुं। मेरे काम में आती अहमवि, वंदावमि,चेइयाई मत्थएण,वंदामि,अहंपि, तेसिं। आपकी ही है वास्ते । ५ कल्पे वैसा। | छताहूं, हे क्षमाश्रमण(गुर) :, उपस्थित (तयार)हुआहूं कि- आपके.संबंधी, यथाइल्प्य',चाहे, वस्त्र, अथवा,पतद्ग्रह (पात्रा),अथवा, के,
॥१६९।। 'इच्छामि, खमासमणो!, उाठिओह-तुभिण्हं, संतियं,अहाकप्पं,वा,वार्थ, वा, पडिग्गहं, वा, अशक्तिआदिके कारण एक गाममें । मैंने जिन चैत्यों को आपकी तरफसे वादे है.उनकुं आपभी वांदो। x किसी पुस्तकने इसको गुरुका वचन लिखाहै ।इमैं आपके आगे निवेदन करनेको ।
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कंवल,अथवा,पादोंछन(ओघारिया),अथवा,रजोहरण(ओघा),या, अक्षर, अथवा,पद,अथवा,गाथा,या, श्लोक, अथवा,श्लोकका आधा(भाग), कंबलं,वा, पायपुंछणं वा, रयहरणं, वा,अख्खरं,वा,पयं,वा,गाहं,वा,सिलोग,वा, सिलोगऽद्धं, या, अर्थ,अथवा, हेतु, या, प्रश्न, अथवा, उत्तर(ये सव), आपने, प्रीतिसे,(मुझे दिये, मैंने, अविनयसे, ग्रहण कियेहो, उसका, वा,अठं, वा,हेनं,वा,पसिणं,वा,वागरणं वा,तु भेहि,चियत्तेण, दिन्नं,मए, अविणएण,पडिच्छियं, तस्स, मिथ्याहो मेरे, दुष्कृत। गुरु कहे-आचार्य संबधीहै ,ऐसा ।।, ये सब चीजें गुरु महागजकीहै,मेरा कुछ नहीं है, ऐसा कहना अहंकारका त्याग और गुरुभक्तिसेहै ।
छछामि.दक्क।। आयरियसंतियं.ति || २ आवते कालमें वेयावच्च आदि करना। ३ ज्ञानाचारादि पांच । ४ आपने स्वयं मुझे ।। इच्छताहूं, हे क्षमाश्रमण (गुरो)!. मैं, अपूर्व,(पहले)कियेहुर, और,मैने,कृतिकर्म(वे यावच्चआदि)में, ३ आचारकीहीनता होनेपर,विनयहिनता
इच्छामि, 'खमासमणो!,अह,मपुव्वाइं, कयाइं.च, मे, "किइकम्माइं. आयारमंतरे, विणयहोनेपर, शिक्षादीहै, शिक्षादिलाई, (शिष्यपणे)संग्रहाहै.उपगृहीतकिया,हितमें प्रवर्ताया,अहितसे निवारा,(संयममें)प्रेरा,वारंवार प्रेरा,प्रियहै(वास्ते), 5 मंतरे.सहिओ,सेहाविओ, संगहिओ,नवग्गहिओ,सारिओ, वारिओ, चोइओ,पडिचोइओ, चियत्ता, मुझे,वारंवारकी प्रेरणा, उपस्थितहुभा, मैं, आपके, तपस्तेजकी, लक्ष्मीसे, इस, चार अंतवाले, संसाररूपी, वनसे, संहरके, मे, 'पडिचोयणा, नवठिओ,ऽहं.तुमभण्हं.तवतेय,सिरीए,"इमाओ,चानरंत, संसार,कंताराओ, साहटु ५ वच-पात्र तथा ज्ञानादि देके आश्रय दिया । ६ जिसमें आपने प्रेरणा करी उस आचारादिकुं प्राप्त करनेके लिये। ७ नरकादि गतियोंके भेदसे। ८ कषापादिकु दूर करके
२७०॥
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लिक
निस्तरूं(पार होऊंगा,ऐसाकरके, शिरसे, मनसे, मस्तकनमाके, वांदताहूं। गुरु कहे-निस्तारनेवाले,(भवसे)पारगामी,(तुम)हो। नित्थरिस्सामि.त्तिक,सिरसा,मणसा,मत्थएण,वंदामि।४। नित्थारग, पारगा, होह।
धर्म, मंगल है,उत्कृष्ट उत्तम । जीवदया, संजम, तप(ये)। देवता, पण,उसकुं,नमस्कार करे है । जिसया, धर्यमें है, सदा, मंगल धम्मो, मंगल, मुक्तिछं। अहिंसा,संजमो,तवो॥ देवा.वि, 'तं,'नमंसंति। जस्स, धम्भे, सया, दशका
न । जैसे, झाडके, फूलोंमें। भमरा,थोडा थोडा पीताहै, रसकुं। नहीं,फेर, फूलकुं,किलायणा(पीडा)करे। वह, और, IMEमणो॥२॥'जहा, दुमस्स,पुप्फेसु। भमरो, "आविअइ. रसं ॥'न, य, पुप्फं, 'फिलामेइ । सो, य. तीन तृप्त करेहै, आत्माकुं ।। इसपकार,ये, तपस्वी, निर्लोभी । जो, लोक, हैं (३), साधु साध्वी। भमरेकीतरह, फूलों में। दीयेहुए,
पीणेइ. अप्पयं॥२॥'एमे,ए, 'समणा,'मुत्ता।जे, लोए, “संति, साहुणो ॥ विहंगमाव, पुप्फेसु। दाण, आहारकी,तलाशीमें,रक्त(राजी)रहेहै।शरहम,फेर,आहारआदि, लेवेंगे। नहीं,और,कोइ जीव,हणाय(पैसे)। जैसाकिया उसमें,विचरे (वते)हैं। भत्ते, सणे, रया ॥३॥वयं,'च, वित्तिं,लाभामो। 'न, य, कोइ. नवहम्मइ॥ अहागडेसु, रीयंते। फलोंमें, भमरे, जैसे ।। भमरेके, सपान, "मुनि। जो,होते हैं (वे), निश्रा रहित। जुदे जुदे, आहारमें, रक्त, दांत ।
पुप्फेसु.भमरा, जहा ॥४॥महुगार,समा.बुद्धा। जे. भवंति,अणिस्सिया ॥ नाणा, पिंड, रया,दंता । ज जीवोंको भवसेतारनेवाले, या अपनी प्रतिज्ञा निभानेवाले २ शिष्य प्रतिज्ञा करते हैं । ३गृहस्थने अपने वास्ते । ४ तत्वके जाण । ५ कुलादिके प्रतिबंध । ६ घरोके निर्दोषी !x लोलुपतारहित।
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उसकारणसे, केवाते हैं,साधु(साध्वी)।। ऐसा,बोलताहूं। किसतरह,शंकाहोतीदेफिकरे (पाले गा,साधुपणा। जो,कामभोगों,नहीं,
तेण, वुचंति, साहुणो ॥५॥ त्ति, बेमि। कहं, नु, "कुज्जा, सामण्णं। जो, कामे, न, निबारे(रोके) है (वो)। पगले,पगले, विखवाद पामता। संकल्परके, बशहुआ ।। वस्त्र, सुगंध, अलंकार । स्त्रीयां, संथारिया(आदि),
निवारए॥ पए, पए,विसीयंतो।संकप्पस्स,वसंगओ॥२॥वत्थ,गंध,मलंकारं । इथिओ, सयणाणि,
और । स्वाधीन नहीं(ऐसे),जो, नहीं, भोगवतेहैं। नहीं, वह, त्यागीहै,ऐसा, कहाताहै ।२। जो, फेर, मनोहर, पिय, भोगोकुं । मिलनेपर, जय॥ 'अच्छंदा, "जे, न, भुंजति।"न, से, चाइ, ति, वुच्चइ॥२॥'जे, य, कंते, पिए, भोए। लखे, अनेक तरह पूंठ,कर(त्याग)ताहै । स्वाधीन रहे,त्यागताहै,भोगोंकुं। वह,निश्चय त्यागीहै,ऐसा,कहाताहै।३।३समान, दृष्टिसे,संजममें चलते(साधुका)।
विपिठि, कुवइ ॥ साहीणे, चयइ, भोए। से, हु. चाइ.त्ति,वुच्चा३'समाइ,पेहाइ, परिव्ययंतो। | कदाच, मन, निकले (तो), संजमसेवाहर । नहीं है,वा(स्रो), मेरी, नहींहूं, मैं, भो,उस(सी)का इसतरह,उन(स्त्रीयों)से, निकालदेवे,
सिया, मणो, निस्सरइ. बहिरा ॥ "न, 'सा, महं, नोवि,अहं.पि. तीसे । इच्चेव, ताओ, "विणइज, (मनके)रागकुं।४। आतापना ले. त्याग, मुकुशलपणा। कानभोगोंकुं,उलंघ(तो), उहंघात निश्चय, दुःखकुं। छेद(नाश कर), द्वेष,
'रागं ।४। आयावयाहि, चय.सोगमल्लं । “कामे, कमाहि, कमियं. "खु. दुख्खं । छिंदाहि. "दोसं, 1 में सुधर्मास्वामी । २ खराब विचार । ३ स्व परके उपर ।
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कर, रागकुं। ऐसाकरनेसे, मुखी, होवेगा, संसारमें ।। पडते हैं (पण), वलतीहुइ आगमें । आमाली,दुःखे सहनहो वैसी विणएज्ज, रागं। "एवं, सुही,होहिसि, संपराए।५। परूखंदे, जलियं,जोई। धूमकेनं, दुरासयं॥
इच्छते हैं,वमा(विष),भोगव(चूस)ना। कुलमें,जन्मे(सर्प), अगंधन(नामके)।६। धिक्कार, हो, तेरेकुं,हे अपजसके, अभिलाषी, जो, तूं . नेति . 'वंतयं, भोत्तुं। कुले. जाया, 'अगंधणे।६। धिर,ऽत्थु, ते, 'ऽजसो, कामी ! 'जो,तं, असंजम जीवणेके लिये। वमे(भोगों)कुं,इच्छताहै(इससे तो जो),पीलेना।श्रेष्ठहै,तेरा,मरणा,होवे(तो) ७ मैं, फेर,उग्रसेन राजाकी पुत्रीहूं। जीवियकारणा॥ वंतं, 'इच्छसि, "आवेनं। सेयं, ते,मरणं,भवे ॥७॥ अहं,'च, भोगरायस्म। तूं ,और, है, समुद्र विजयराजाका पुत्र। नहीं, कुलोंमें,गंधनकुलके,हो। (वास्ते)। संजममें, स्थिर मनसे, चाल । जो, तूं , कोणा(तो), तं, च, सि, अंधगविहिणो॥मा, कुले, गंधणा. होमो। संजमं,निहुओ,चर ॥८॥'जइ,तं, काहिसि (खोटे)भावकुं। जिण जिण,देखेगा(और उनमें),स्त्रीयोंकुं। वायरेसे,हलाये,जैसा,हडनामके झाड । अस्थिर आत्मा, होवेगा । तिसके,
"भावं। जा जा, दिच्छसि, नारिओ॥वाया,विद्ध व्व, “हडो। अटिअप्पा,भावस्ससि ॥९॥तीसे. वो', वचनकुं, सुणके। संजमवाली, अच्छे कहे। अंकुशसे, जैसे, हाथी । धर्ममें सारी रीते स्थापित हुा ।१०। इसतरह, 'सो, वयणं,सोचा। संजयाइ, 'सुभासियं ॥ अंकुसेण, जहा, नागो।धम्मे,संपडिवाइओ॥१०॥ एवं, 5 १ हेरहनेमि! । २ अपने दोनों । ३ सर्प जैसे अपने दोनों। ४ चलचित्त . ५ संसारमें भमेगा । ६ राजिमतीके । ७ रहतेमि । ८.ठिकाणे आने वैसे । ५ सजमम मनको मिर।
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फरते हैं (और), सुबुद्धिवाले। पंडित, अत्यंत चतुर (पावसे डरने वाले)। निवर्त (हट)ते हैं, कामभोगों से । जैसे, वह, पुरुषों में उत्तम ॥ ११ ॥ ऐसा, बोलता हूं । करंति, संबुद्धा। पंडिया, पवियख्खणा ॥ विणियति, "भोगेसु । `जहा, से, पुरिमुत्तमो ॥११॥ त्ति, बेमि ॥ (१७ मेदे) संजममें, अच्छे थिर आत्मावाले। विशेषमुक्त, स्व-परके रक्षक । उनकुं, ये, आचरणे योग्य नहीं है। निग्रंथ, महर्षि (साधु-साध्वी) योंकुं। १ । 'संजमे, सुहिअप्पाणं । विप्पमुक्काण, ताइणं ॥ तेसि, मेय, मऽणाइण्णं । निग्गंथाणं, महेसिणं ॥१॥ उद्देशिक,वेचाती लाया । नीमंत्रा (नोतरा ) हुआ, सामे लाया, फेर। रात्रिभोजन, स्नान करना, फेर। सुगंधी फूलमाला, और, वजनाचलाना | २ | 'नद्देसियं, कीयगडं । नियाग, मऽभिहडाणि, य ॥ `राइभत्ते, "सिणा, 'य। गंध, मल्ले, "य, "वीयणे ॥ २॥ "भोजनसंग्रह, गृहस्थी का वासण, और । राजपिंड आहारादि, दानशाला सेलेना । तेलआदि लगाना, अंगुली से दांतधोवणे, और । गृहस्थ कुंकुशलपूछना, संनिहि, गिहिमत्ते, य। 'रायपिंडे, "किमिच्छए । 'संवाहणं, 'दंत पहोयणा, य। 'संपुच्छणं, शरीरमुख काचमें देखना, फेर | ३| जुगार रमणा, फेर, पाने आदिरमणा । छत्रकुं, फेर, धारणकरना, अनर्थके लिये है । वैदगीकरना, पगरखे (मोजे), "देह पलोयणा, "य॥३॥ अठ्ठावए, य, नालीए । छत्तस्स, य, 'धार, 'ऽणठ्ठाए ॥ तेगिच्छं, पाहणा, पगों में पेरने । आरंभ करना, फेर अग्निका |४| _aaratar, आहारादि लेना, फेर । सादडी - पर बैठना, पलंग आदिमें सुणा । पाए। "समारंभं, "च जोइणो ॥४॥ 'सिज्जायर, पिंड, च। आसंदी "पलियंकए ।
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1 रहनेमि भोगोंसे निवर्ता वैसे । २परिग्रह रहित । ३ आगे लिखी बावन बातें | ४ रागादि ग्रंथ (धन) रहित । ५साधुके वास्ते बनाया आहारादि । ६ चंदनादि लगाना । ७रातको ८ वा निमित्त कहना ।
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॥१७४॥
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दो घरोंके बोच,देठे सुवे,फेर । शरीरका मेल पीठो आदिमे उतारणा,फेर ।। गृहस्थकी वेयावच्च करना । जो,फेर,जाति आदिसे निर्वाहचलाना। गिहतर, निसिज्जा, य। "गायस्सुव्बट्टणाणि, 'य।५।'गिहिणोवेयावडियं। जा,य, आजीववत्तिया ॥ तपाया,नहीं अचिनहुआ पाणी,पीणापोडानेपर,पूर्वसुखस्मरण करना,फेर।३। सचित-मूला,आद्, और । शेटडोके टुकडे,नहीं अचित्तहुए। तत्ता, निव्वुड, भोइत्तं। 'आनर, स्सरणाणि, य॥६॥मूलए, सिंगबेरे, य। नच्छु खंडे, अनिव्वुडे ॥ कंद वत्रादि, मूर,फेर, सचित्त । फल,तिलादि वीज,और,सचित्त(कञ्चे) ७) संचललूण, सिंघालूण,कच्चासांपरलूण। रोमालूण(खाणका),
कंदे, मूले, 'य, सञ्चित्ते।"फले, बीए, "य, आमए॥णासोवच्चले, सिंधवे, "लोणे। रोमालोणे, फेर, सचित्त । समुद्र कालूण,उपर भूमिकालूग, और । कालालूण लेना, और, सचित्त । “धूपकरणाः,इसीतरह, वमन करना,फेर । य, आमए । सामुद्दे, पंसुखारे, 'य। कालालोणे, य, आमए॥८॥ 'धूवणे, 'त्ति, वमणे, 'य। वस्तिकर्म करना, जुलावलेना । काजलादिआंजना,काष्ठ दातण करना,फेर। शरीरमें तेल मसलके,शोभा करनी ।। सबसवावन बातें], ये,
वत्थिकम्मे, विरेयणे॥ "अंजणे, दंतवण्णे, 'य। गायाऽभिंग, विभूसणे॥९॥ सब, मेअ, नहीं आचरणे योग्यहै। निग्रंथ महर्षि-साधुओंकुं। संजममें, फेर,युक(उद्यमवाले) । वायुकी तरह, अप्रतिबद्ध विचरणेवाले ॥१०॥
मणाइण्णं । 'निग्गंथाण, महेसिणं ॥संजमम्मि, य, 'जुत्ताणं । 'लहुभूय, विहारिणं ॥१०॥ 22 भूखले या रोगादिश । २ या दोषित(आचारी) को आश्रा देना। ३ सारे आदिके। ४ सुगंधकेलिये वबादिको ।५ या रोगशांतिकेलिये धुंआ पीना । ६ पेटका मल निकालना ।
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पांच आश्रवोंकुं,सवतरह जाणनेवाले। तीन गुप्तिवाले,छ जीव निकायमें,अच्छि दयावाले । पांच इंद्रियों कुं,जीतने वाले,धीरजवाले। निग्रंथ[साधु], |
पंचासव परिणाया। ति गुत्ता, 'छसु, संजया॥ पंच, निग्गहणा, धीरा। 'निग्गंथा, सरल,देखनेवाले होतेहैं ] ॥११॥ आतापना लेतेहैं, उनालेमें। सियाले में,खोले शरीरे रहे । वरसालेमें,शरीर संकोचे हुए । संयमी[साधु]. 15
नज्जु, दंसिणो॥११॥'आयावयंति, गिम्हेसु । हेमंतेसु,अवानडा। वासासु, पडिसंलीणा। संजया, ज्ञानादिमें भले उद्यमवाले रहे ।१२। बावीस परीपह रूप,रिपु[शत्रु के दमनेवाले। त्यागाहै मोह जिणोंने,जीति इंद्रियांवाले ऐसे । सर्व दुःखोंकुं,
सुसमाहिया ॥१२॥ परीसह, रिन दंता। धूअमोहा, "जिइंदिया॥ सव्वदुरुख, नाश करनेके वास्ते । उद्यम करते हैं,मोटे ऋषि साधु-साध्वी]।१३।दुष्कर आचारका,पालन करके । दुःखे सहसकेवैसे, सहन करके, फेर । है 'पहीणऽछा । पक्कमंति, महेसिणो ॥१३॥ 'दुक्कराइं, 'करित्ताणं । 'दुस्सहाई, "सहेत्तु, य॥ कितनेक,यहाँ[संसारमें],देवलोकोंमें [जातेहैं]। कितनेक, सिद्धहोते हैं, कर्मरजरहित हुए ।१४। खपाके, [बाकी रहे]पूर्व कर्मोकुं । संजम करके,
"के, इत्थ, देवलोएसु। केइ, 'सिझंति, नीरया ॥१४॥खवित्ता, 'पुव्वकम्माइं। 'संजमेण, में तप करके, और । सिद्धि[मोक्षमार्गकुं, प्राप्तहए । [स्व-परके रक्षक,सर्वप्रकारे, निर्वाण[मोक्ष]जाते हैं ।१५। ऐसा,बोलताहूं। तवेण, य॥ सिद्धिमग्ग, मणुप्पत्ता। 'ताइणो, 'परि, निव्वुडे ॥१५॥ त्ति, बेमि । १ हिंसा झूट चोरी आदि । २ उपर कहे बावन अनाचारोंका त्यागरूप । ३ आतापना लेना आदि ।
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ढंढण
रिषि
सज्झाया
ढंढण रिपिजीने बंदणा हुंवारी, उत्कृष्टो अणगार रे हुंवारी लाल ॥ अभिग्रह लीयो एहवो हुँ०, लेश्यु मुद्ध आहार रे ई०,ढं० ।। नितपति जावे गोचरी १०,न मिले शुद्ध आहार रे १० ॥ मूल न ले अणमूझतो हूं०,पंजर कीधो गात रे हुं० , ० । हरि पूछे श्रीनेमिने १०, मुनिवर सहस अढार रे १० ॥ उत्कृष्टो कुण एहमें १०, मुझने कहो विचार रे १०, ९० ३। दंढण अधिको दाखियो हं०,श्रीमुख नेमि 5 जिणंद रे हं० ॥ कृष्ण उमाह्यो वांदवा १०, धन जादव कुलचंद रे ९०, ढं० १४। गलियारे मुनिवर मिल्या हूं०, वांद्या कृष्ण नरेस रे १०॥
किणही मिथ्यात्वी देखिने ९०,आग्यो भाव विसेस रे हे०,k०।६। मुझ घर आवो साधूजी हूं०,ल्यो मोदक छे शुद्ध रे हृ०।। मुनिवरविहरीने
पांगुर्या १०, आया प्रभुजीने पास रे १०,ढ०।३। मुझ लब्धे मोदक मिल्या हूं०,कहोने तुम किरपाल रे १०॥ लब्धि नहीं वच्छ ताहरी १०, 5 श्रीपति लवधि निहाल रे १०, ढं०७ ए लेवा जुगतो नहीं हूं०,चाल्या पगठवा काज रेहूं। ईंटनिवाहे जाइने १०,चूरे करम समाज रे १०, हं०॥८॥ आणी मृधि भावना १०,पाम्यो केवल नाण रे हूं०॥ ढंढण रिपिमुगते गया हूं०,कहे 'जिनहर्ष' मुजाण रे ९०, ढं० ॥२॥
स्वारथकी सब हेरे सगाई, कुण माता कुण बेनडभाई। स्वारथे भोजन भक्त सगाई । स्वारथ विन कोई पाणी न पाई। स्वा०॥२॥ स्वारथे सज्झायका मा बाप शेठ बडाई, स्वारथ बिन नितहोत लडाई स्वागा॥ स्वारथे नारी दासी कहावे, स्वारथ विना लाठी ले धाई स्वा०॥३॥ स्वारथे चेला
गुरु गुरुभाई । स्वास्थ विना नहीं होत सहाई ॥ स्वा०॥४॥ समयमुंदर' कहे मुणो लोक लुगाई,स्वारथ है भाइ परम सगाई स्वास्थ० ॥५॥ सज्झायो साल भरमें दो वेला. चैत्र सुदि तथा आसोज सुदि पांचमके दिन दुपहर बाद इरियावहि पडिक्कमके खमा० देके 'इच्छा०
संदि० भग०! सज्झाय निख्खिवणऽत्थं मुहपत्ति पडिलेहूं ?, इच्छं' कहके मुहपत्ति पडिलेहे और वांदणे देवे, खमा० देके कहे 'इच्छा. संदि० भग०! सज्झाय निख्खिg?' गुरु कहे 'निख्खिवह' बाद 'इच्छ' कहकर खपा० देके कहे 'इच्छा० संदि० भग०! सज्झाय निख्खिवणऽत्थं काउस्सग्ग करूं?' गुरु कहे 'करेह' बाद 'इच्छं सज्झाय निखिखवणऽत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ०'
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नामा
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फफफफफफफफफ
१३७ कहके । नवकारका काउस्सम्ग करे, पारके प्रगट नवकार १ कहे। खमा० देके अविधि आशातना खमावे । चैत्री का चैत्र मुदि १० के वाद ११से १३ तक या १२से १४ तक अथवा १३ से १५ तक लगोलग तीन दिन देवसी पडिक्कमणके बाद उस्मग्ग
+खमा० देके 'इच्छा० संदि० भग! सचित्त अचित्तरज ओहडावणत्थं काउस्सग्ग करूं?, इच्छं सचित्त अचित्तरज ओहडावणत्यं करेमि
काउस्सगं अन्नत्थ०' कहके ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारके प्रगट लोगस्स कहे। सज्झाय कार्तिक वदि तथा वैशाख वदि एकमके बाद जिसदिन अश्विनी. भरणी. रोहिणी. आा. पुष्य. अश्लेषा. मघा. पूर्वाफाल्गुनी. उत्क्षेप हस्त. स्वाति. अनुराधा. मूल, पूर्वाषाढा. श्रवण, शतभिषक. उत्तराभाद्रपद. तथा रेवतो. इनमें से कोइभी नक्षत्र होवे. और गुरुवार विधि या सोमवार होवे उस दिन, अथवा मंगलवार और शनिवारकुं छोडके चाहे जिसवारके दिन कपडे धोकर उपासरेमेंसे काजा
म निकालके परठे, और वसति संशोधन करे, जो कोइ हाडका या कलेवर होवे उसको दूर हटवाके उपासरेमें आकर सब जणे
इरियावहि पडिक्कमे, बादमें वसति संशोधन करनेवाला खमा० देके कहे 'इच्छा० संदि० भग०! वसति पवे?' गुरु कहे 'पवेयह । - इच्छं इच्छामि खमा० देके कहे 'भगवन् ! सुद्धावसहि' गुरु कहे 'तहत्ति'। सब जणे खमा० देके 'इच्छा. संदि० भग० ! ॐ मुहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं' कहके मुहपत्ति पडिलेहके वांदणे देवे, खमा० देके 'इच्छा संदि० भग०! छम्मासियकप्पसंदिसाउं!' इच्छं + इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग०! छम्मासियकप्पपडिग्गहूं ?' इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग! सज्झाय उख्खि
वणऽत्थं मुहपत्तिपडिलेहूं ? इच्छं' कहकर मुहपत्ति पडिलेहके चांदणे देवे, खमा० देके कहे 'इच्छा० संदि० भग०! सज्झाय
सख्खिवू?' गुरू कहे 'उख्खिवह' इच्छं कहके फिर खमा० देके कहे 'इच्छा. संदि० भग०! सज्झाय उख्खिवणऽत्थं काउस्सग्ग + करूं?' गुरु कहे 'करेह' बाद 'इच्छं सज्झाय उवरिखवणत्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०' कहके १ नवकार अथवा ' लोगस्सका
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लोच कर ने कराने।
का विधि
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काउस्सग करे, पारके प्रगट १ नवकार या १ लोगस्स कहे । खमा देके 'इच्छा० संदि० भग० असज्झाय अणाउत्तओहstarsत्थं कार करूं ? इच्छं असज्झाय अणाउत्तओहडावणऽत्थं करेमि काउस्सगं अन्नत्थ० ' कहके ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारके प्रगट लोगस्स कहे। फिर खमा देके इसीतरह 'खुदोवदवओ हडावणऽत्थं' काउस्सग्ग ४ लोगस्सका करे, पारके प्रगट लोगस्स कहे । फिर खमा० देके 'इच्छा० संदि० भग० ! सक्काइवेयावच्चगर आराहणऽत्थं काउस्सग्ग करूं ?, इच्छं सक्काइ वेयावच्चगरआराहणऽत्थं करेमि arreari अन्नत्थ० ' कहके ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारके प्रगट लोगस्स कहे । खमा० देके 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय संदिसाउं ?' इच्छं इच्छामि खमा 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय करूं ? इच्छं ' कहके गोडोंसे बैठकर १ नवकार तथा दशकालिक के 'धम्मो मंगल' आदि तीन अध्ययन कहके उपर १ नवकार गिणे. खमा० देके अविधि आशा तना खमावे | गुरुके आगे इरियावहि पडिक्कमके खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग०! लोन मुहपत्ति पडिलेहूं ?, इच्छं ' कहके मुहपत्ति पडिलेहे, चांदणे देवे, खमा० देके कहे 'इच्छा० संदि० भग० ! लोच संदिसाउं ?" गुरु कहे 'मंदिसावेह' इच्छं इच्छामि खमा० देके कहे 'इच्छा० संदि०भग० ! लोच कराउं ?, ( खुद के हातसे करे तो कहे 'लोच करूं ? ) गुरु कहे- 'करावेह (करेह) अणुन्नायं मए' बाद' इच्छं ' कहके खमा ० देवे ।
लोच करनेवाला करानेवालेसे यदि छोटा हो ? तो लोच करनेवाला करानेवालेके आगे खमा० देके कहे 'इच्छा० संदि० भग० ! उच्चारण संदिसाउं ?, इच्छं इच्छापि खमा०, 'इच्छा० संदि० भगः ! उच्चासन ठाउँ ?, इच्छं ' कहके खमा० देवे। लोच करानेवाला करनेबालेसे यदि छोटा हो तो लोच करानेवाला करनेवालेके आगे खमा० देके कहे 'इच्छकारी भगवन् ! लोयं करेह, इच्छं' कहके, खमा० देवे । जिस दिन बुद्ध. गुरु. शुक्र या सोमवार होवे तथा पुनर्वसु पुष्य. रेवतो. चित्रा. श्रवण, धनिष्ठा. मृगशिरा. अश्विनी. हस्त इनमेंसे को भी नक्षत्र हो अथवा कृत्तिका. विशाखा. मघा और भरणी. इन चार नक्षत्रोंको छोडके चाहे जो नक्षत्र होवे उस दिन
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________________ 1955555555555555555 लोच कराना, योगिनी (जोगणी)को पूंटमें अथवा डावी वाजु रखके लोच कराने को बैठना। 1-1 को पूर्वमें, 3-11 को अग्नि खुणेमें,5 5-13 को दक्षिणमें, ४-१०को नैर्ऋत्य खुणेमें, 6-14 को पश्चिममें, 7-18 को वायव्य खुणेमे, 2-10 को उत्तर में, 8-30 ईशान म खुणेमें, योगिनी रहतीहै। लोच करा चुके बाद लोच करनेवालेके हात दवावे, और स्थापनाचार्यके आगे इरियावहि पडिक्कमे, खमा० देके 'इच्छा० संदि० भग०! चैत्यवंदन करूं ?, इच्छं' कहकर "जयउ सामिय" चैत्यवंदन तथा जं किंचि नमुत्थुणं-जाति चेइयाई जावंत केवि साहू-नमोऽर्हत्-उवसग्गहरं तथा जय वीयराय ! कहके गुरुके पास आकर मुहपत्ति पडिलेहके वांदणे देवे और 5 आगे लिखे मुजब 7 खमा० देवे-१ खमा० देके कहे 'इच्छा० संदि० भग०! लोच पवे?' गुरु कहे 'पवेयह ' / 2 इच्छं इच्छामि खमा० देके कहे 'संदिसह किं भणामो?' गुरु कहे ' वंदित्ता पवेयह' / 3 इच्छं इच्छामि खमा० देके कहे 'केसा मे पज्जुवासिया' गुरु कहे 'दुक्करं कयं इंगिणी साहिया' बाद 'इच्छामो अणुसहिं' कहे / 4 खमा० देके कहे ' तुम्हाणं पवेइयं संदिसह साहूणं पवेएमि' गुरु कहे 'पवेयह'। 5 इच्छं इच्छामि खमासमणो देके तीन नवकार गिणे / 6 खमा० देके कहे 'तुम्हाणं पवेडयं साहणं पवेइयं संदिसह काउस्सग्गं करेमि' गुरु कहे 'करेह / 7 इच्छं इच्छामि खमा० देके केसेस पज्जुवासिज्जमाणेमु सम्मं जं न अहियासिक कुइअं. कक्कराइअं. छिअं. जंभाइअं. तस्स ओहडावणियं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्य०' कहके “सागरवरगंभीरा" तक लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारके प्रगट लोगस्स कहे, बाद गुरुको तथा सभी बडे साधुओंको वंदना करे / ____ अपने हातसेही यदि लोच करे ? तो लोच कर चुके बाद इरियावहि पडिक्कमके 'जयउ सामिय !' चैत्यवंदन-जं किंचि नमुत्थुणं ॐ आदि जय वीयराय! तक कहके गुरु आदि सभी बडे साधुओंको वंदना करे,बाकी मुहपत्ति पडिलेहण सात खमासमणे देने आदि न करे। कल्याण श्रेय वीरनुं कछु, इंद्रे माता भद्रबाहु मूरींद। श्रेय कल्गाण सुपरुपक, नमुं जिनदत्त मूरींद // 1 // फफफफफफफफफफफफफफफफफा For Personal Use Only