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म सामि! न कहाय मुख तेटली । मुणो सीमंधरा ! राज राजेसरा,लाड ने कोड प्रभु ! पूर सवि माहरा ॥१३॥ पुन्य भवि मोह वश नेह हुवे
जेहने,समरिये एणी संसार नित तेहने । मेहने मोर जिम कमल भमरो रमे,तेम अरिहंत ! तूं चित्त मोरे गमे ॥१४॥ खळं अरिहंतनुं ध्यान हियडे वस्युं, बापडं पाप हिव रहिय करशे किस्युं । ठाम जिम गरुड वर पंखि आवे वही,ततखिण सर्पनी जाति न शके रही ।।१६।। पाप में कज्ज सावज सहु परिहरी,सामि सीमंधरा! तुम्ह पय अणुसरी। शुद्ध चारित्र कहिये प्रभु पालद्यु, दुःख भंडार संसार भय टालशुं॥१६॥ तुम्ह हुं दास हुं तुम्ह सेवक सही, एह में वात अरिहंत आगल कही ॥ एवडी माहरी भगति जाणी करी,आपजो बापजी सार केवल सिरी ॥१७॥ कलश ॥ इम ऋद्धि वृद्धि समृद्धि कारण दुरित वारण मुख करो, उवझाय वर 'श्रीभक्तिलाभे थुण्यो श्रीसीमधरो। जय जयो जगगुरु जीव जीवन करी सामि ! मया घणी, कर जोडि वलि वलि बीनवु प्रभु पूर आशा मन तणी ॥१८॥
वंदं जगदाधार सार, शिवसंपत्ति कारण । जन्म जरा मरणादि रूप,भवताप निवारण।श्री सिद्धारथ तात मात, त्रिशला तनु जात । न्य वंदन 5 सोचम वरण शरीर वीर त्रिभुवन विख्यात ।। अमृतरूपे राजतो ए,चोवीसमो जिनराय । क्षमा प्रमुख कल्याण भणि, आपो करि मुपसाय ।। वीरजिना वीरनां ते पंच. कल्याण श्रेयमां. कह्यां कल्याण श्रेय एह जी, च्यवन कल्याण. अवतरण कल्याण. गर्भधारण कल्याण जी । कल्याण जन्म कल्याण. दीक्षा कल्याण, केवलज्ञान कल्याण जी, मोक्ष कल्याण जे. कल्याण फल जीवने. ते होवे नहीं अकल्याण जी।। स्तुति पंच अनंत महंत गुणाकर. पंचमी गति दातार, उत्तम पंचमी तप विधि दायक. ज्ञायक भाव अपार । श्री पंचानन लांछन लांछित.
वांछित दान मुदक्ष, श्री वर्द्धमान जिणंद मुवंदो. आणंदो भविपक्ष ।। पूरण पंच महाअवरोधक. बोधक भव्य उदार,पंच अणुव्रत पंचमी पंच महाव्रत. विधि विस्तारक सार। जे पंचेंद्रिय दमि शिव पुहता. ते सघला जिनराय, पंचमी तपधर भवियण उपर. सुधिर करो
मुपसाय पंचाचार धुरंधर युगवर. पंचम गणधर वाण,पंचज्ञान विचार विराजित. भाजित मद पंचवाण। पंचम काल तिमिर भर माहे. १२६
स्तुति
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