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हादि।
भवनमें।
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पर्वतके शिखरपर द्रहमें देवनदो(गंगा),जलकेतीरपर। पर्वतके अग्रमें,नागलोक, समुद्रके, किनारेउपर, वृक्षोंकी, घटामें। गाममें. #गिरिशिखरहदे, स्वर्णदी,नीरतीरे। शैलाये, नागलोके,जलनिधि, पुलिने,भूरहाणां,निकुंजे॥ ग्राम, जकुमारादि के अरण्यमें वनमें,अथवा,थलसे, जलसे, विषम ,गढके अंदर,तीनों कालमें। श्रीपत्तीर्थकरोंके० । श्रीमान् मेकउपर,कुलगिरिम, रुचक#रण्ये,वने, वा.स्थल,जल,विषमे,दुर्गमध्ये,त्रिसंध्यं । श्रीमत्तीयकराणां ।'श्रीमन्मेरो,कुलादो, रुचकगिरिवर उपर, शाल्मली(वृक्ष)में, जंबूसक्षम । चौजन्यमें ,चैयनंदमें, रतिकर(पर्वतपर), रुचकद्वीपमें,कुंडलदीप में, मानुषोत्तरमें । इक्षकार (पर्वत)में, नगवरे, शाल्मली, जंबूतक्षे। चौजन्ये,चैत्यनंदे, रतिकर, रुचके, कौंडले,मानुषांके ॥ इक्षकारें. अंजनगिरिमें, और,दधिमुखगिरिम,व्यतरनगरोंमें,देवलोकमें। ज्योतिपलोकमें, होते हैं उनकुं,तोनभुवनके, चक्रमें, जो, जिनविवोंकेआलय
जनादो, च,दधिमुखगिरी,व्यंतरे,स्वर्गलोके। ज्योतिर्लो के, भवंति, त्रिभुवन.वलये,यानि, चैत्यालयानि (मंदिर)।। इसतरहके,श्रीजैनमंदिरोंके स्तवनकुं, हमेशा, जो, पढतेहै, चतुरजीव । अति ग्यत् कल्याणका हेतु, पाप मलको हरनेवाले,
९। 'इत्थं, श्रीजैनचैत्यस्तवन,मनुदिनं,'ये, पठंति, प्रवीणाः। प्रोद्यत्कल्याण हेतुं, कलिमलहरणं, ॐ भक्तिकुं भजनेवाले,तीनोंकालमें। उन, श्रीतीर्थ यात्राका, फल,नहींतुलनाबाला,संपूर्ण,होताहै(उससे),मनुष्योंकुं। कार्योकी,सिद्धि(होतीहै), भक्तिभाज. स्त्रिसंध्यं । तेषां. श्रीतीर्थयात्रा,फल, मतुल. मलं.जायते, मानवानां । कार्याणां,सिदि.
२॥ या समुद्र में बांधी हुइ पाजउपर । ४मुश्किलसे जाने योग्य । ५ उज्जयिनीके आसपासके देशमें । चैत्योंसे आनंद हो वैसे । ७ के पर्वतादि । ८ बांदताह । ९ अधिक उदयवाले।
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