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కర పద్యం
పట్ల श्री दिगम्बर जैन कन्थ विजय ग्रन्थमाला समिति
ग्यारहवाँ पुष्प
श्री भैरव पद्मावती कल्पः।
धी कवि शेखर मल्लिषेणाचार्य विरचितः
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। हिन्दी विजया टीकाकर्ता ) परमपूज्य श्री १०८ गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज
प्रकाशन संयोजक शान्ति सुमार गंगवाल
प्रकाप्रक श्री दिगम्बर जैन कुन्थ विजय ग्रन्थमाला समिति
कार्यालय 1936, कसेरों की गली, घी वालों का रास्ता, जौहरी बाजार,
जयपुर-302 003 (राजस्थान) RESUSecemSARETTESEASESSERSEASES
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सावधान ! खतरा !
सावधान ! सर्वप्रथम मेरे विचार पढ़िये फिर आगे बढ़िये
ग्रंथ के टीकाकर्ता परमपूज्य श्री १०८ गणधराचार्य वात्सल्य रत्नाकर,
श्रमरणरत्न, स्याद्वाद केशरी कुंथुसागरजी महाराज के विचार एवं
पाशीर्वादात्मक मंगल बचन ।
इस अनादिनिधन जिनधर्म में द्वादशांग रूप श्रुतागम श्री भगवान आदिनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त तीर्थङ्करों ने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा प्रतिपादित किया, और उस वाणी को गणवरों ने ग्रंथित कर जन-जन तक पहुंचाया। उसी जिनागम को ही धत केवली और प्राचार्यों ने भी लिखित रूप से प्रतिपादित किया। वह जिनागम ११ अंग
और १४ पूर्व में वरिणत है । वर्तमान में जितना भी प्रागम मिलता है वह सब दृष्टिवाद अंग का ही सार है। यह जिनागम अभी तक आचार्य परम्परा से सुरक्षित यहां तक आया है, इसकी सुरक्षा करने की जिम्मेदारी हम लोगों की है।
___ बर्तमान में जीवों का परिणाम बहुत निकृष्ट हो गया है। प्रागम की बातों को मान्य नहीं करना चाहते । मेरा है वही ठीक है । मेरा मंतव्य ही सच्चा है । अपनी मान्यता को ही पुष्ट करना चाहते हैं। चारित्र संयम से दूर होते जा रहे हैं। प्रागम के ऊपर विश्वास नहीं है । सब तरफ संशय ही का बोलबाला है। मंशय मिथ्यात्व का ही ज्यादा जोर हो गया है । वर्तमान में कोई किसी की सही बात मानने को तैयार नहीं । लोगों ने जिनागम को ही तोड़-मरोड़कर रख दिया। और फिर वैसा ही अर्थ लगाते हैं। द्वादशांग तो नष्ट हो चुका । जो भी है वह भी नष्ट होता जा रहा है उपेक्षा बुद्धि से। मैंने अनेक
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( २ >
दिया । मेरा यह
जगह विहार किया । अनेक शास्त्र भण्डार देखे, और उन शास्त्र भण्डारों में पाये जाने वाले अनेक प्रकार के आगम हैं, जिनकी अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण अवस्था हो रही है और कोड़ों का आहार बन रहे हैं। और जिसमें सबसे अधिक दयनीय दशा मंत्र शास्त्रों की हो रही है। मैंने देखा, मंत्र शास्त्रों की हालत खराब हो रही है इसलिये इनको एक जगह संकलित कर दिया जाये। इस भावना से यह कार्य प्रारम्भ किया, और थोड़े ही दिनों में पूर्ति करके लघुविद्यानुवाद ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करवा अभिप्राय कभी भी नहीं था कि दि. जैन समाज का इससे अहित हो। यह बात तो परम सत्य है कि द्वादशांग में १० नं. विद्यानुवाद पूर्व है जो जिनागम में चूलिका के ५ भेद है । उनमें जलगता, श्राकाशगता भूमिगता, मायागता तथा स्थलगता है। इन सब जिना - गमों में यंत्र, मंत्र, तंत्र हैं जिससे कि जीव भूमि में प्रवेश कर सके । नाना प्रकार के रूप धारण कर सके । आकाश में गमन कर सके । जल पर चल सके । यदि विद्यानुवाद पूर्व में ५०० महाविद्या और ७०० क्षुद्र विद्या का वर्णन है ही, इसको कोई भी विद्वान नकार नहीं सकता ।
मनुष्यों के दो भेदों में विजयाद्ध पर रहने वाले विद्याधर मनुष्य हैं और वे लोग जिनागम में बरित मंत्र की साधना करते हैं । इसलिए विद्याधर कहलाये । तो क्या यह सब झूठ है ? कुछ नास्तिकवादी विद्वानों का कहना है कि यह सब झूठ हैं । हमारे यहां कोई मंत्र शास्त्र नहीं है। मैं भी कहूंगा कि ये सब विद्वान भी झूठे हैं। हमसे संकलित लघुविद्यानुवाद पूर्व को लेकर बहुत ही अफवाहें मन्त्रायी जा रही है, जिसमें कि अफवाह का कोई कारण नहीं है। मैं तो मात्र संकलनकर्ता हूं न कि रचयिता ।
जहां मंत्र शास्त्र का विषय है, वहां शुद्धाशुद्ध पदार्थों का दर्शन श्राता ही है उसमें मेरा कोई अपराध नहीं, न ही मैंने दि० परम्परा को क्षति पहुंचाने सरीका कार्य ही किया है। किसी भी विद्वान को दृष्टि इधर नहीं थी, सो मैंने लिखा। अभी भी मेरा समाज के विद्वानों को कहना है कि लघुविद्यानुवाद आपको ठीक नहीं जंचता है तो शास्त्र भण्डारों में पड़ा रहने दो। यह तो मंत्र शास्त्र है इसमें तो सब प्रकार का वर्णन आएगा ही । इसमें कमी बेसी करना हमारे बस की बात नहीं थी। फिर भी मैंने तो मेरे आशीर्वादात्मक वचन में सब कुछ स्पष्ट कर दिया। मैने अकेले ने तो कोई नया कार्य नहीं किया पूर्वाचार्यों ने भी मंत्र शास्त्र लिखे हैं, उसमें हस्तलिखित विद्यानुवाद भैरव पद्मावति कल्प, ज्वालामालिनि कल्पः, सरस्वती कल्पः, काम चांडालिनि कल्पः, अंबिका कल्प, घंटाकर्ण, महावीर कल्पः आदि अनेक मंत्र शास्त्र, शास्त्र भण्डारों में विराजमान हैं। कुछ सूरत से, कुछ श्वेताम्बरों के यहां से प्रकाशित भी हो गये हैं। विद्वानों को मुझ से ही इतना द्वेष
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क्यों? मैंने तो साहित्योद्धार का ही कार्य किया है। विद्वानों की दृष्टि अवगुणों के प्रति ही क्यों ? गुण ग्राहक बनना चाहिए । पत्थर की मूत्ति भी बना सकते हो और किसी का सिर भी फोड़ सकते हो। कुपा खुदवाने बाला इसलिए नहीं खुदवाता कि कोई उसमें पड़कर मर जावे। कोई अविबेकी पानी पीने को छोड़कर, उसमें पड़कर मरे तो कंया खोदने वाले का क्या अपराध? इसी प्रकार मेरे द्वारा संकलित किया हुआ मंत्र शास्त्र लघुविद्यानुवाद है कोई अविवेकी इस मंत्र शास्त्र का दुरुपयोग करे तो मेरा क्या अपराध ? मैंने तो सब लिख दिया । विद्वानों को सोचना चाहिए । मंत्र शास्त्र का अवर्णवाद को ठीक करना चाहिए । क्या उसमें सब ही मंत्रादि लोगों का अहित करने वाले हैं? मेरी तो समझ से करीब १ प्रतिशत को छोड़कर ६६ प्रतिशत मंत्र अच्छा है और लोकोपकारी है। जहां अच्छाई है वहां बुराई भी होती है । बुराई की ओर दृष्टि तो दुर्जनों की ही होती है, सज्जन साधु संत तो अच्छाई को ही देखता है । ग्राम शुकर को मिठाई भी डालो, तो भी विष्टा की ओर ही दृष्टि रहती है। वैसे ही दुर्जनों की दृष्टि होती है । दुर्जनों को शूकर बुद्धि का त्याग करना चाहिए।
विभिन्न मंत्र शास्त्रों में से भैरव पद्यावती कल्पः भी एक मंत्र ग्रंथ है । यह पहले सुरत से छप चुका है तो भी मैंने नई टीका संस्कृत के ऊपर तैयार किया है। यह दिखाने के लिये कि प्राचार्य कृत मंत्र शास्त्र में भी अशुद्ध द्रव्यों का वर्णन है। मैंने अपने मन से कुछ नहीं लिखा। विद्वान देखकर समीक्षा करें। नहीं तो मंत्र शास्त्र जो कि जिनागम का अंग है वही नष्ट हो जाएगा। या तो आप विद्वान कुछ करके दिखायें अथवा मैंने जो संकलित किया है उसको स्वीकार करिये। मैं और भी मंत्र शास्त्रों पर लिखने वाला हूं। दुर्जन लोग कितनी भी हमारी बुराई करें, पेड़ को पत्थर मारने से वह पेड़ फल ही देता है । मुझे किसी का भय नहीं । अपनी अपनी रुचि । मैं कोई पाप कार्य नहीं कर रहा हूं। ऐसा वर्णन क्यों है ? यह तो पूर्वाचार्यों को पूछो, मंत्र वेधक शास्त्रों में वर्णन मिलता ही है। अब मंत्र शास्त्रज्ञों के लिये यह ग्न थ तैयार है। देखिये साधना कर जिनागम की तथा जिनधर्म की रक्षा कीजिये । केवल चिल्लाने, बुराई करने, किसी को बदनाम करने से काम नहीं चलेगा। पहले भी मंत्र शास्त्रों के बल से विद्या सिद्ध कर जिन धर्म की रक्षा महापुरुषों ने की है, तब ही आज हम लोग जीवित हैं । इतिहास उठाकर देखिये, मैंने इस नथ की टीका को सूरत से छपने वाला पद्मावती कल्पः, अहमदाबाद से छपने वाला पद्मावती उपासना हस्त लिखित दोनों प्रतियों से किया है। मैंने उनकी बहुत सहायता ली है इसलिये उन ग्रंथों का उपकार मानता हूं। मंत्र शास्त्रों की शुद्धि करना बड़ा कठिन कार्य है और जितने ग्रंथ उतने ही अलग-२ पाठ भेद होने के
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* )
बावजूद भी पूर्ण शुद्ध करने का प्रयत्न किया है। फिर भी अवश्य ही अशुद्धि छदमस्तता के कारण रह गई होगी, उसको मंत्र शास्त्रज्ञ शुद्ध कर अवश्य ही पढ़ेंगे। मुझे तो क्षमा करें। मैं तो अभी भी इस बात को कह रहा हूं कि जो मंत्र शास्त्रज्ञ नहीं हैं जिनको इस विषय में थोड़ा भी ज्ञान नहीं है वे मेरे मंत्र शास्त्रों को हाथ नहीं लगावें। क्योंकि श्रद्धा रहित व्यक्ति का बिगाड़ ही होगा, इस मंत्र शास्त्र में भी, मारण, उच्चाटन, स्तम्भन, वशीकरण आदि प्रकरण हैं। साधक सावधानी से रहे, योग्यता है तो करे नहीं तो दूसरे को हानि पहुंचाने का कार्य कभी नहीं करे। करेगा तो उसकी जिम्मेदारी उसी के ऊपर रहेगी, हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं ।
हम टीकाकर्ता दूसरे को हानि पहुंचाने हेतु कार्य की आज्ञा नहीं देते हैं। प्रकरण व लिखना पड़ा है। हमारा स्वतन्त्र कोई ऐसा विचार नहीं है। मंत्रशास्त्र विषय ही ऐसा है । आचार्य मल्लिगंर, आचार्य इन्द्रनन्दी, ऐलाचार्य श्रादि लोगों ने मंत्र शास्त्रों की रचना की है। उन्हीं के आधार पर हमने लिखा है। पढ़े और समझे, मेरा कार्य तो सिर्फ मंत्र शास्त्रों का उद्धार करना मात्र है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि, संशयी श्रादि व्यक्तियों को इस शास्त्र के मंत्र का दान नहीं करे, करेगा तो बाल हत्या, मुनि ह्त्या का पाप लगेगा। पूरा विषय मंत्रों के लक्षण में देख लेवे ।
इस शास्त्र के छपने में जिन २ दातारों ने सहायता की है उनको मेरा पूर्ण आशीर्वाद है । ग्रंथ की टीका लिखने आदि कार्य में मेरे शिष्य प्रवर्तक मुनि श्री १०८ पद्मनन्द जी ने बहुत परिश्रम किया है उनको भी मेरा आशीर्वाद है । हमारी ग्रंथमाला के कर्मठ कार्य कर्ता गुरुभक्त श्री शान्तिकुमार जी गंगवाल व उनके सुपुत्र प्रदीपकुमारजी तथा अन्य सहयोगी कार्यकर्त्ताओं को मेरा पूर्ण आशीर्वाद है कि वे इसी प्रकार कार्य करते रहें ।
I
अन्त में पुनः मेरा आदेश है कि इस मंत्र शास्त्र से पूर्ण सावधान रहे, नहीं तो बहुत ही ख़तरा पैदा हो जाएगा। नहीं पसन्द तो मध्यस्थ रहे। अयोग्य व्यक्ति
को मंत्राराधना नहीं करनी चाहिये । जो दूसरे को हानि पहुंचायेगा, उसको ही हानि हो
जाएगी।
सावधान !
सावधान !
सावधान !
गणधराचार्य कुम्धुसागर
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* प्रस्तावना *
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yy.
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अनंत आकाश में ध्वनित-गुजित-निनादित प्रवहमान ध्वनि (भः रव) भैरव ही है । दिव्य अलौकिक ॐकार स्वरूपा ध्वनि-रव को जैनागम में दिव्य ध्वनि कहा गया है । वैदिक विचार में ध्वनि आकाश का गुण है एवं जैन दृष्टि में वह पुद्गल पर्याय है । दिव्य ध्वनि का पर्याय ही भैरव है ।
पद्म नाम कमलबाची है और मानव शरीर में इनको स्थितिकोषों, पिंडों एवं चक्रों के स्वरूप में प्रदर्शित है-जिसकी पुष्टि-योग-ध्यान-तंत्रागम के शास्त्र एवं षड्चक्र-अष्टदल-विद्या, आत्मविद्यादि शास्त्रों में वरिणत है । कुंडलिनी योग और योग दर्शन में इनका विस्तृत-सूक्ष्म विवेचन मिलता ही है।
पद्मावती-कमलावती-कमलाकर-प्राकारों के ये कोष शरीर स्थित हैं । इन पर देव-देवांगनाओं के भवन-विमान-प्रायु-प्राकार-रंग-रूप एवं नामकरण का जैन शास्त्रों में विस्तृत विवेचन है। मोक्षशास्त्र तत्वार्थसूत्र में उमास्वामी ने "तन्त्रोवासि-श्री-ही आंत कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्मी-पल्योपमा स्थितियाँ-" सूत्र संकेत द्वारा इनकी पुष्टि की ही है सो प्रत्येक जैन को जो सामान्य ज्ञान ही रखता है, ज्ञातव्य है ।
आधुनिक विज्ञान की सामान्य दृष्टि में मानव-शरीर-मन-प्रात्मा अर्थात् Body+Mind+Soul की त्रिकुटि है। तंत्रागम-शैवशास्त्र, शाक्तमत पूरा
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विद्या में इन्हें तंत्र-मंत्र-यंत्रादि शब्दों से निरूपित किया है। सामान्य प्रशिक्षिस जनता दैनिक व्यवहार में इन्हें तन्तर, मन्तर. जन्तर कहती है बालबोध की दृष्टि से समझा जा सकता है कि तन्तर = (तंत्र) वह है। जो तनु-शरीर को-तरावट, पुष्टि-सुख-वृद्धि-प्रोज-शक्ति-वृद्धि दायक हो वह ही तंत्र है, इसी प्रकार मन्तर= (मंत्र) वह शक्ति-विद्या-ध्वनि, वाणी, बीज अक्षर-शब्दवर्गणा है जो मन को प्रसन्न मस्त, आल्हादित करें एवं मस्ती में-मौज में डुबो दे तदनुसार ही जन्तर -जंत्र-(यंत्र) वह है जो यन्त्र या वाहन, यथासमय, हमें अपने निर्दिष्ट गंतव्य स्थल लक्ष्य, उद्देश्य अथवा मंजिल-मुकाम पर पहुंचा देवे। इस प्रकार ये तीनों ही (तंत्र-मंत्र-यंत्र) शरीर और मन को यथास्थिति आत्ममय कोष में अर्थात्शुद्ध सच्चिदा नंद-आत्मस्वरूप में स्थित करते हैं, एवं मानव की मुक्ति के कारण हैं। जीवन-जगत की समस्याओं से जीवमात्र को वाण देना एवं मानव की लौकिक-दैविक, दैहिक आधिभौतिक समस्याओं को हल करके उसे आत्मस्वरूप में स्थित करना ही कल्प एवं तंत्र-मंत्र-यंत्रागम शास्त्रों का उद्देश्य है ।
एतद्विषयक जैन शास्त्रागारों में विपुल सामग्री अप्रकाशित बिखरी पड़ी है। विद्यानुवादपूर्व लघुविद्यानुवाद पूर्व, चक्रेश्वरी कल्प, ज्वालामालिनी कल्प, भक्तामर-मंत्र-तंत्र-यंत्र कल्याणमंदिर, विषापहारादि के अनेक कल्प श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों प्राम्नायों में तो हैं ही; यति, भट्टारक एवं तारण पंथी साहित्य में भी हैं। इसी कड़ी में सर्वाधिक प्रभावशाली-प्रसिद्ध-भैरव पद्मावती कल्प है जो प्रस्तुत कृति आपके सम्मुख है ।
जिस प्रकार परमाणु परागों के आकर्षण, विकर्षण, मिलन विघटन एवं सम्मेलन से जगत के नाना नवीन पदार्थों रूपों शरीरों की उत्पत्ति एवं सृष्टि होती है एवं उनकी शक्ति-प्रभाव और स्वरूप भी भिन्न भिन्न होता है, उसी प्रकार रसों, गंधों, वर्गों, जड़ी बूटियों, बनस्पतियों के 'पारस्परिक' मिलन से अनेक औषधियाँ-रस-मात्राएँ एवं प्रासब, अरिष्ट, अवलेह, बनाते हैं एवं समय विशेष तथा किरणों के प्रभाव सूर्य-चंद्र-राह-केतू ग्रहण-पर्व-योग के समय ये हो-प्रोधियाँ, रस एवं जड़ी बूटियाँ एवं इनके तिलक, लेप, प्रयोग अनेक प्रकार की अद्भुत शक्ति सम्पन्नता प्राप्त करके सम्मोहक, विद्वेषक, उच्चाटक, मारक, वशीकर्ता बन जाते हैं।
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पूणिमा-अमावस्या को चंद्र रश्मियों के प्रभाव से ज्वार-भाटा से उत्पन्न विक्षोभ-पागलपन, हिस्टीरिया, मर्ची, प्रेतबाधादि रोगों के साथ-साथ, कवित्व, कला, मंत्र-तंत्रादि शक्तियों का प्रादुर्भाव आधुनिक-भौतिक विज्ञानवेत्ताओं ने तो सिद्ध ही कर दिया है, किंतु प्रतिमाह कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष की तिथियों में विलोम प्रतिलोम वृद्धि-ह्रास रूप नख से शिखा तक तथा शिखा से नख तक के विविध अंगों पर प्रभावों का प्राचीन-योग सिद्ध विवेचन विचारने को भी बाध्य कर दिया है।
सठ शलाका पुरुष सोलह कलाधारी श्री कृष्ण की अद्भुत चमकारिक सिद्धियों, ऋद्धियों, वशीकरण रूप परिवर्तन एवं नृत्य-गायन-हरण प्रादि लीलाओं के कारगों पर भी विदेशी मूर्धन्य चितकों ने विचार कर तंत्र मंत्र शक्ति की अलौकिक क्षमता और शक्ति पर प्रकाश डाला है । ये शक्तियाँ मनोविज्ञान परामनोविज्ञान, अलौकिक विद्या विज्ञान, अदृश्य विज्ञान, अव्याख्येय विज्ञान (UNEXPLAINED) नामक ग्रंथों के अध्ययन से समझी जा सकती है।
अंग्रेजी, चीनी, तिब्बती, यूनानी, अरबी, फारसी के अनेक ग्रंथों के अध्ययन, मनन, चिंतन के आधार पर एवं विश्वविख्यात तिब्बती योगी-लेखक टी. लॉग साम राम्पा के Third eye you, FOR EVER, Touch Stone एवं मिश्र के पिरामिडो एवं रहस्य ग्रंथों CHARMS & TALISMAN अादि ग्रंथों के सूक्ष्म पालोड़न, विलोड़न के बाद यह मानने को बाध्य होना पड़ता है कि तिब्बती तंत्र ओझा विद्या कामाक्षा तंत्र सूर्य रश्मि विज्ञान, के पैमोथी तथा होम्योपैथी के (HAIR Trans) बालों पर औषधि प्रयोग एवं पुष्पों द्वारा चिकित्सा के सर्वसम्मत प्रयोग राशिया के चिकित्सा शास्त्री एवं विज्ञान साधकों ने अंतरिक्ष यात्रियों पर प्रयोग करके हमारी भारतीय-तंत्र-विद्या को ही जीवित और सिद्ध कर दिया है । एवं मल्लिषेण की प्रस्तुत कृति को पुष्टि और बल भी प्रदान किया है।
कुछ विद्वान आलोचक शुद्धि-अशुद्धि के नाम पर छिद्रान्वेषण आलोचना करके तंत्र साहित्य और लघुविद्यानुवाद के प्रयोगों पर आक्षेप करते हैं, किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि आत्मतत्व और अनात्मतत्व के द्विविध इस संसार में शुद्धि-स्वच्छता तथा सफाई-पवित्रता-मात्र देशकाल एवं भौगोलिक सीमा तथा
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जलवायु और शीत-उष्ण कटिबंध की अपेक्षा से ही है। प्राचीन एवं आधुनिक चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विज्ञान ने कैंसर, दमा, श्वांस, हृदय, प्रदर, उन्माद, हिस्टीरिया आदि रोगों के लिए गोमूत्र, स्वमूत्र, मानव मूत्र, गोबर, लेंडी के असंख्य सफल सिद्ध प्रयोग कर लिए हैं एवं मानव प्राणों की रक्षा की है । इस पर अद्भुत साहित्य इन दिनो प्रकाशित हो चुका है, जो तंत्र की सिद्धि का जीवित उदाहरण है ।
ज्योतिष में पुष्यादि नक्षत्रों के विभिन्न तिथियों, योगों, बारों के जो शुभ अशुभ मुहूर्त - अमृतसिद्धि, राजयोग, यमघंट विषयोग आदि बनते हैंउनके औषधि निर्माण एवं औषधि प्रयोग के जो भिन्न-भिन्न फल मिलते हैं, उन्हें भी अमेरिका, रूस, जर्मनी के किरणरश्मि विज्ञानवेत्ताओं ने सिद्ध कर दिया है एवं हमें स्मरण करा दिया है कि भारतीय ऋषि, चिकित्सक श्राचार्य चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट, धनवंतरि लुकमान, नागार्जुन द्वारा प्रयुक्त शरदऋतु की शरद पूर्णिमा के चद्रमा की अमृत किरणों में निर्मित घी, तेल, अवलेह, चूर्ण, रस, गुटिका - गोलियाँ अद्भुत रोगनाशक शक्तिदायक रसायन हैं । दूध, घी, जटामांसी, अर्जुन, पीपल, बड़, वेल, हरड़, आँवला, कालीमिर्च, खोपरा, गोखरू, मालकांगनी एवं प्रांधीभाड़ा आदि जड़ी बूटियोंवनस्पतियों के प्रभाव और फल विशेष बढ़ जाते हैं। यह अनुभव सिद्ध एवं वैज्ञानिकता पूर्ण सिद्ध हो चुका है। मानसिक रोगियों को केशर, जायपत्री, बच, मुलेठी, कस्तूरी, शंखपुष्पी के प्रयोग - लेप हमें प्रस्तुत ग्रंथ के वशीकरण, मोहन तिलक आदि की सिद्धि एवं वैज्ञानिकता पर सोचने को बाध्य करते हैं । अंगराग - चंदन - केशर - कपूर एवं सुगंधित लेप क्या आकर्षण - विकर्षण, सम्मोहन यथाशक्ति नहीं करते हैं ? इसी प्रकार - नाखून, दांत, बाल, विष आदि के प्रयोग भी यदि मात्रानुकूल हैं तो ये ही विष- अमृतमय होकर असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाते हैं | होम्योपैथी की सूक्ष्म चिकित्सा पद्धति क्या हमारी तांत्रिक एवं भैरव पद्मावती कल्पादि के अष्टांग विधानों के समान अत्यन्त सूक्ष्म, बुद्धिपूर्ण, वैज्ञानिक तथा उपयोगी नहीं है ?
इसी प्रकार रश्मियों द्वारा - X किरण सूर्य किरण एवं विद्युत किरणों से जो इलाज होता है, उसी प्रकार मनोविचारों से टेलीपैथी, दृष्टिपात, नेत्रक्षेपण, स्वदर्शन आदि के द्वारा भी चिकित्सा उपचार, लाभ सारा संसार ले रहा है ।
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RAMA
धतूरा, नागविष आदि जैसे नक्स, आर्सेनिक, लेकेसिस बनकर असाध्य रोगों को नाश कर रहे हैं, उसी प्रकार इस ग्रंथ के प्रयोग भी समर्थ हैं। एवं प्राचार्य मल्लिसेन की यह कृति जिसके भाष्यकार श्री १०८ गणधराचार्य कुंथुसागरजी महाराज एका प्रकाशन संयोजक संगीताचार्य शांति कुमारजी गंगवाल हैं-वे इस भारतीय तंत्र विद्या के इस अमूल्य भैरव पद्मावती कल्प-को भव्य आकर्षक सचित्र मोहक रूप में प्रस्तुत कर प्राच्य भारतीय जैन विद्याओं को विश्व के सम्मुख रख-अद्भुत साहस बुद्धि और सम्यकदर्शन के आठवें प्रभावना अंग का ही पालन कर रहे हैं। विघ्न संतोषी, ईष्याल बरिणकवृत्ति संपादकआलोचकों के छिन्द्रान्वेषण पूर्ण प्रहारों का निर्भीकतापूर्ण सामना करके जो अापने स्थितिकरण अंग का परिचय दिया है वह अभिनंदनीय है।
इस प्रकार के प्रयोगों की सिद्धि और सफलता के लिए अनुभवी, तपस्त्री, विज्ञ, निलोभी, गुरु और मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है, उसके बिना यह कार्य सहज नहीं है । मेरे जीवन में अनेक इस प्रकार के अनुभव हुए हैं । देश-विदेश के अनेक राजनीतिज्ञों, श्रेष्ठियों, रोगियों, पुरुष एवं स्त्रियों को मैंने मंत्र-तंत्र--ज्योतिष एवं प्रस्तुत ग्रंथ के प्रयोगों से रोग-शोक-व्याधि अंतराय मुक्त करके-सान्त्वना-शांति-सुख एवं संतोष दिया है। गुरुचरणों में आस्थापूर्वक-इसके सभी प्रयोग करें, सफलता आपको मिलेगी-इति शुभम् ।
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महाशिवरात्रि-१६१२८८ भारती ज्योतिष विद्या संस्थान ५१/२ रावजी बाजार, इंदौर
अक्षयकुमार जैन हिन्दी बिभाग-गुजराती कॉलेज
BY
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प्रकाशकीय
मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि हमारी ग्रंथमाला समिति ने दस महत्त्वपूर्ण पुष्पों लघुविद्यानुवाद, श्री चतुर्विशति तीर्थकर अनाहत यंत्र मंत्र विधि, तजो मान करो ध्यान, हुम्बुज श्रमण सिद्धान्त पाठावलि, पुमिलन, श्री शीतलनाथ पूजा विधान (संस्कृत) वर्षायोग स्मारिका, श्री सम्मेद शिखर माहात्म्यम्, रात्रि भोजन त्याग कथा, श्री शीतलनाथ पूजा विधान (हिन्दी) का प्रकाशन करवाने के बाद ग्यारहवाँ महत्त्वपूर्ण पुष्प श्री भैरव पद्मावती कल्पः ग्रंथ के प्रकाशन को करवाने में सफलता प्राप्त की है।
इस ग्रंथ के प्रकाशन का कार्य वास्तव में मुझ जैसे अल्पज्ञानी के लिये बहुत ही जटिल एवं मुश्किल था, फिर भी पूज्य प्राचार्यों के मगल मय शुभाशीर्वादों के साथ-साथ परमपूज्य श्री १०८ गणधराचार्य कुंथु सागरजी महाराज के शुभाशीर्वाद से कार्य प्रारम्भ होकर निविघ्न पूर्ण हुआ। यह मैं श्री जिनेन्द्र प्रभु की कृपा व परमपूज्य प्राचार्यो के शुभाशीर्वाद का ही फल मानता हूं।
प्रस्तुत ग्रंथ की हिन्दी विजया टीका परमपूज्य वात्सल्य रत्नाकर, श्रमरगरत्न, श्री १०८ गरगधराचार्य कुंथ सागरजी महाराज ने बहुत ही कठिन परिश्रम से की है। इस का अन्दाज पाठकगरण स्वयं इस ग्रंथ को पढ़कर लगा सकेंगे। इस ग्रंथ की टीका कर के प्रकाशन करवाने का गणधराचार्य महाराज का यही लक्ष्य रहा है कि मंत्र शास्त्र, जो कि जिनागम का एक अंग है वह भी सुरक्षित रहे। जिसके विषय में ग्रंथ के प्रारम्भ में महाराज ने अपने विचार आशीर्वादात्मक वचनों में स्पष्ट शब्दों में लिख ही दिये हैं 1 पाठकों से अनुरोध है कि ध्यान से पढ़कर गणधराचार्य महाराज की आज्ञानुसार ही अनुसरण करें।
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परमपूज्य श्री १०८ गणधराचार्य कुंथु सागरजी महाराज का एक विशाल संघ है । वर्ष १९८७ का वर्षायोग अकलज (महाराष्ट्र) में पुर्ण करके आपका संघ नगर-नगर ओर ग्राम-ग्राम में धर्म प्रभावना करता हुन्या दिनांक १५/२/८८ को तीर्थराज श्री सम्मेद शिखरजी में पहुंचा। इस क्षेत्र की बंदना कर अष्टान्हिका पर्व के बाद चम्पापुर, राजगृही, पावापुर आदि क्षत्रों की यात्रा करने हेतु दिनांक ५/३,८८ को संघ ने बिहार कर दिया है।
___ गराधराचार्य महाराज के संघ में इस समय कुल ३६ पिच्छी है जिसमें उन्हीं के दीक्षित २७ मुनिराज, ५ प्रायिका माताजी, ४ क्षुल्लक महाराज व ३ क्षुल्लिका माताजी हैं । अापका संप मात्र विशाल ही नहीं हैं बल्कि मनियों की संख्या भारतवर्ष में विद्यमान सभी संघों से सर्वाधिक है जो वास्तव में बहुत ही गौरव व प्रसन्नता की बात है।
संघ संचालन हेतु कोई ब्रह्मचारिणी भी नियुक्त नहीं है । सभी व्यवस्था श्रावकों पर निर्भर है। यह बात भी विशेष उल्लेखनीय एवं प्रशंसनीय है जो अन्यत्र देखने में बहुत कम मिलती है। संघ पूर्ण पागम के अनुकूल विचरण कर धर्म प्रभावना कर रहा है । संघ में अधिकांश युवा मुनि हैं । सभी सदैव अध्ययन चितन मनन में लगे रहते हैं । मुनिगण कई भाषाओं के ज्ञाता हैं और विभिन्न भाषाओं में प्रवचन भी करते हैं ।
इस प्रकार गणधराचार्य महाराज ने इतने विशाल संघ का संचालन करते हये, त्याग तपस्या में सदैव लीन रहते हुये समय निकाल कर बहुत ही कठिन परिश्रम करके इम प्रकार के महत्वपूर्ण ग्रंथ की टीका कर प्रकाशन करवाया है। वास्तव में यह एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। इसके लिये हम उनके चरणों में कोटि-कोटि चार नमोस्तु अपित करते है।
गणधराचार्य महाराज आर्ष परम्परा के हेढ़ स्तम्भ हैं। समता वात्सल्य, निर्ग्रन्थता आपके विशेष गुण हैं । जो भी आपके एक बार दर्शन प्राप्त कर लेता है वही अपने आपको धन्य मानता है।
गणधराचार्य महाराज के गुणों के बारे में जितना सिखा जावे थोड़ा है। अागे कुछ लिखना मेरे लिये उसी प्रकार अनुपयुक्त होगा जैसे सूर्य को दीपक दिखाना। वास्तव में गराधराचार्य महाराज त्याग तपस्या को साक्षात् मूति हैं ।
आदरणीय प्रोफेसर अक्षयकुमारजी जैन इन्दौर का भी आभार व्यक्त करते हुये बहुत-बहुत धन्यवाद देना हूं कि आपने बहुत ही सुन्दर एवं विद्वत्ता पूर्ण शब्दों में ग्रंथराज की प्रस्तावना लिखने की कृपा की है । आप बहुत ही उच्च कोट के विद्वान है जिसका अन्दाज आप स्वयं ही ग्रंथ में प्रकाशित प्रस्तावना को पढ़कर लगा सकते हैं। पाशा है भविष्य में भी आपका आशीर्वाद, सहयोग, मार्ग दर्शन हमें प्राप्त होता रहेगा। आप वारणी सिद्ध की उपाधि से विभूषित्त हैं ।
ग्रंथ में प्रकाशित सभी यंत्रों के डिजाइन एवं प्रावरण पृष्ठ का डिजाइन हमारे याटिस्ट मास्टर पुरुषोत्तम जी शर्मा ने बहुत ही कठिन परिश्रम से बनाकर हमें सहयोग
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प्रदान किया है । वास्तव में यह कार्य बहुत मुश्किल था जो आपके सहयोग से हो सका है । ग्रंथमाला की ओर से प्रापको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूं ।
मूनलाइट प्रेस के सभी कार्यकर्त्ताओं को भी धन्यवाद देता हूं कि समय पर कार्य पूरा कराने में हमें सहयोग प्रदान किया है ।
ग्रंथमाला के प्रकाशन कार्यों में प्रथमाला के सभी सहयोगी कार्यकर्त्ताओं का बहुत-बहुत आभारी हूं क्योंकि आप सभी के सहयोग करने पर यह कार्य हो सका है ।
ग्रंथ प्रकाशन खर्चों में जिन-जिन दातारों ने हमें प्रार्थिक सहयोग प्रदान किया है, मैं ग्रंथमाला की ओर से उन सभी का आभार प्रकट करते हुये बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूं और आशा करता हूं कि भविष्य में भी आपका सहयोग हमें इसी प्रकार प्राप्त होता रहेगा । अन्य दातारों से भी मेरा निवेदन है कि इस ग्रंथमाला को अधिक से अधिक सहयोग प्रदान करें। जिससे आगे भी उन ग्रंथों का प्रकाशन हो सके जिनका अभी तक प्रकाशन नहीं हुआ है ।
ग्रंथमाला समिति द्वारा प्रकाशन कार्यों को बहुत ही सावधानी पूर्वक देखा गया है फिर भी त्रुटियों का रहना स्वाभाविक है । मेरा स्वयं का अल्पज्ञान है । और ग्रंथ में प्रकाशित सामग्री मेरे सामान्य ज्ञान की परिधि के बाहर है। मैंने तो मात्र परमपूज्य श्री १०८ गणधराचार्य कुंथूसागरजी महाराज की श्राज्ञा को शिरोधार्य कर यह विकट कार्य करने का साहस किया है । अतः साधुजन विद्वज्जन व पाठकगण से निवेदन है कि त्रुटियों के लिए क्षमा करें ।
ज्ञानी पण्डित हूं नहीं प्रकाशन का नहीं ज्ञान । अशुद्धि त्रुटि होवे तो शोध पढ़ें श्रीमान ॥
जंन मित्र, जंन गजट, अहिंसा, करुणादीप, पार्श्वज्योति यादि पत्रों के सम्पादक महोदयों को भी उनके द्वारा ग्रंथमाला के लिये दिये दिये सहयोग के लिये बड़ा आभारी हूं और उनके सहयोग के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूं। आशा है आप सभी का सहयोग ग्रंथमाला के प्रकाशनों के प्रचार-प्रसार में हमेशा प्राप्त होता रहेगा ।
अंत में परमपूज्य श्री १०८ गणधराचार्य वात्सल्य रत्नाकर, श्रमण रत्न, स्याद्वाद केशरी कुंथूसागरजी महाराज की प्रज्ञा से यह ग्रंथ परमपूज्य श्री १०८ प्राचार्य विमलसागरजी महाराज के करकमलों में विमोचन करने हेतु सादर समर्पित करते हुए आज मैं अतीव प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं ।
दिनाङ्क: १३-३-८८
पुनः आशीर्वाद की भावना के साथ संगीताचार्य
परम गुरुभक्त प्रकाशन संयोजक शान्ति कुमार गंगवाल (बी० कॉम )
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विषयानुक्रमणिका
क्रम संख्या
विषय
पृष्ठ संख्या
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प्रथमः : मंत्रि लक्षणाधिकारः द्वितीयः : सकलीकरण परिच्छेवः
साध्य और साधक के अंश गणने की क्रिया तृतीयः : वेव्यर्चना क्रम परिच्छेवः
मुद्राकरण प्रासन विधान पलव विचार जाप्य के लिये अंगुलि विधान मंत्र जाप्य करने के लिये पल्लवादि विधान का कोप्टक पंचोपचारी पूजा होम विधि
धररणन्द्र यक्ष की साधन विधि चतुर्थः : द्वादश रञ्जिका मंत्रोद्धार परिच्छेदः पंचमः : क्रोधादिस्तम्भन यंत्र परिच्छेदः षष्ठः : अगनाकर्षण परिच्छेदः सप्तमः : वशीकरण यंत्र परिच्छेदः
रंडायक्षिणी सिद्धि
होम द्रव्य विधान अष्टमः : दर्पणादि निमित्त परिच्छेदः नवमः : स्यादि वश्यौषध परिच्छेदः दशमः : गारुड तंत्राधिकार परिच्छेदः
ग्रंथकार की गुरु परम्परा टीकाकर्ता को प्रशस्ति
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श्री कवि शेखर मल्लिषेरणाचार्य विरचितः भैरव पद्मावती कल्पः
हिन्दी टोकाकार का मंगलाचरण पार्श्वनाथ जिनदेव को, गरगधर सरस्वती माय । श्राचार्य महावीर कीर्ति को, वंदो बारं बार ॥ भैरव पद्मावती कप को, भाषा लिखु हर्षाय । मंत्र यंत्र और तन्त्र की सिद्धि मिले सुखकार ।।
संस्कृत टीकाकार का मंगलाचरण श्रीमच्चारिकायामर खेचर वधू नृत्य सङ्गीतकीति । व्याप्ताशामण्डलं मण्डित सुरपटहांष्ट सत्प्रातिहार्यम् || नवा श्रीपार्श्वनाथं जितकमठ कृतोदृण्ड घोरोपसमं । पद्मावत्या हि कल्पप्रवर विवरणं वक्ष्यते बन्धुषेः ॥ ग्रन्थकार का मंगलाचरण
कमठोपसर्गदलनं त्रिभुवन नाथं प्रणम्य पार्श्वजिनम् । वक्ष्येऽभीष्ट फलप्रद भैरव पद्मावती कल्पम् ॥१॥ [ संस्कृत टीका ] -कमठोपसर्गदलनं कमठेन कृतो य उपसर्गः,
तं दलय
तीति, कमठोपसर्गदलनं । पुनः कथम्भूतम् ? त्रिभुवननाथम् त्रिलोकाधीश्वरम् । कम् ? पार्श्वजिनम्, श्री पार्श्वजिनेश्वरम् ।
| हिन्दी टीका ] -कमठ के द्वारा किये हुए उपसर्ग को दलन ( नष्ट ) कर दिया है जिन्होंने ऐसे श्री त्रिलोकी नाथ श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र को नमस्कार करके, जिससे इच्छित सुख की प्राप्ति होती है ऐसे भैरव पद्मावती कप को मैं ( श्री मल्लिषेरणाचार्य) कहूंगा ।
यहाँ मंगलाचरण में पार्श्वनाथ जिनेश्वर को नमस्कार किया गया है । क्योंकि पार्श्वनाथ भगवान की यक्षिणी देवी पद्मावती है और उसी देवी के अतिशय कल्प की रचना श्राचार्य श्री को करना है, जो कि अनेक प्रकार के अभीष्ट सुख रूप
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फल को देनेवाली है और अनेक सिद्धियों को प्रदान करनेवाली है; इसिलिये कवि ने पाश्र्वनाथ जिनेश्वर को नमस्कार किया है ।
पार्श्वनाथ भगवान, जिन्होंने अनेक प्रकार से किये गये कमठ के घोर उपसर्ग को जीत लिया है, ऐसे जिनेश्वर को मेरा (श्री गगध राचार्य कुन्थु सागर का) नमस्कार है ।।१।।
पाशफलवरदराजवशकरणकरा पद्मविष्ट रा पद्मा । सा मां रक्षतु देवी त्रिलोचना रक्तपुष्पाभा १ ॥२॥
[संस्कृत टीका]-'पाशफलवर दगजवशकरण करा' पाशश्च फलं च बरदश्च गजवशकरणं च पाशफलवरदगजवशकरणानि तानि, वामोर्ध्वकरादि विद्यन्ते यस्याः सा पाशफलवरदगजवशकरणकरा । पुनः कथम्भूता? 'पद्मविष्टरा' पद्ममेव विष्टरं-पासनं यस्याः सा पद्मविष्टरा । पुनः कथम्भूता ? 'त्रिलोचना' त्रीणि लोचनानि विद्यन्ते यस्याः सा त्रिलोचना । पुनः कथम्भूता ? 'रक्तपुष्पाभा' रक्त पुष्पवद् प्राभा-दीप्तिर्यस्याः सा रक्त पुष्पाभा। का सा ? 'पद्मा' पद्मावती नाम । 'देवी' देवता । 'मां' ग्रन्थकर्तारं श्री मल्लिषेरणाचार्य 'रक्षतु' पातु ॥२॥
[हिन्दी टीका-हाथों में, पाश, फल, वरद, अंकूश को धारण करने वाली और कमल के प्रासन से सहित तीन लोचनवाली, लालपुष्प के समान शरीर वी कान्ति को धारण करनेवाली महादेवी पद्मावती मेरी रक्षा करें।
पद्मावती देवी को चौबीस भुजा सहित भी माना है और भुजाओं में चौबीस प्रकार के अलग-अलग आयुधों से सहित माना है। इसप्रकार की अनेक जगह प्राचीन क्षेत्रों पर प्राचीन मूर्तियां पाई जाती हैं । देवगढ़ सेरोनजी ग्रादि क्षेत्रों पर देखिये प्राचीन पुरातत्व विभाग में हैं। अलग से भी और पार्श्वनाथ की मूर्ति के सहित भी पद्मावती देवी की मूर्तियां पाई जाती हैं । दक्षिण भारत में भी अनेक जगह मूर्तियाँ हैं ।।२।।
तोतला त्वरिता नित्या त्रिपुरा कामसाधिनी ।
देव्या नामानि पद्मायास्तथा त्रिपुर भैरवी ॥३॥
[संस्कृत टीका]--तोतलादीनि त्रिपुर भैरवी पर्यन्तानि पदमावती देव्याः पर्यायनामानि भवन्ति--जायन्ते ॥३॥ १. रक्ताभा लोचन त्रितया' इति त पाठः ।
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हिन्दी टीका]-१ तोतला, २ त्वरिता, ३ नित्या, ४ त्रिपुरा, ५ कामसाधिनी और ६ त्रिपुर भैरवी, ये सब पद्मादेवी के ही नामान्तर हैं । पद्मावती देवी के रंग अलग-अलग, आयुध अलग-अलग और वाहन भी अलग-अलग हैं । (१) तोतला देवो : के हाथों में अनुक्रम से पाश, वज्र, फल और कमल हैं और वे
कमलासन पर विराजमान हैं। (२) त्वरिता देवी :-के हाथों में कम से शंख, कमल, अभय और वरदान हैं । शरीर
का रंग सूर्य के समान है। (३) नित्या देवी :-के हाथों में क्रम से पाश, अंकुश, कमल और अक्षमाला हैं। वाहन
हंस का रंग सूर्य के समान है । जटा बालचंद्र से शोभित हैं । (४) त्रिपुरा देवी :-के आट हाथों में क्रम से गूल, चक्र, कलश, कमल, धनुष, बारण,
फल, अंकुश हैं और शरीर का रंग कुकुम समान लाल है । (५) कामसाधिनी देवी :-के चारों हाथों में शंख, कमल, फल, कमल है । शरीर का
रंग बंधुक पुष्प के रंग का है । कुकुट सर्प का वाहन है । (६) त्रिपुर भैरवी देवी :-के पाठों हाथों में क्रम से पाश, चक्र, धनुष, वाग, ढाल,
तलवार, फल, कमल हैं, जिसके शरीर का रंग इन्द्रगोप के समान है और तीन नेत्रों से सहित हैं । जब देवी अलग-अलग विक्रिया करती हैं, तब अलगअलग वाहन और अलग-अलग प्रायुध धारगा करती हैं, इसीलिये स्वरूप अलगअलग हो जाते हैं । ।।३।।
प्रथमो मंत्रिलक्षणाधिकारः प्रादौ साधक लक्षरणं सुसकली देव्यर्चनायाः क्रम, पश्चाद् द्वादश यन्त्रभेद कथनं स्तम्भोऽङ्गनाकर्षणम् । यात्रं वश्यकरं निमित्तमपरं वश्यौषधं गारुडं, वक्ष्येऽहं क्रमशो यथा निगदिताः कल्पेऽधिकारास्तथा ॥४॥
[संस्कृत टोका] --प्रस्थस्यादौ 'साधक लक्षणं' मन्त्रसाधकानां लक्षणम् । 'सुसकलीम्' सम्यक् सकलीकरण क्रियाम् । 'देव्यर्चनायाः मम्' देन्याराधनविधानम् । 'पश्चात्' देव्याराधनविधानानन्तरम् । 'द्वादशयन्त्रभेव कथनम्' द्वादश प्रकार यन्त्राणां मेव्याख्यानम् । 'स्तम्भम्' क्रोधाविस्तम्भनयन्त्राधिकारम् । 'अङ्गनाकर्षणं' स्च्या
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( ४ ) कर्षणाधिकारम् । 'यन्नं वश्यकर' वशीकरणयन्त्र निरूपणाधिकारम् । 'निमित्तम्' दर्पणादिनिमित्ताधिकारम् । 'अपरं' अन्यत् । 'वश्यौषध' स्यादिवश्यौषधाधिकारम् । 'गारुडं' गारुडाधिकारम् । 'कल्पेऽधिकाराः' अस्मिन् कल्पे अधिकाराः। 'यथा' येन प्रकारेण । 'निगदिताः' प्रतिपादिताः । तथा' तेन प्रकारेण । 'अहं' श्री मल्लिषेणाचार्यः । 'क्रमशः' यथा परिपाट्या । 'वक्ष्ये' प्रतिपादयिष्ये ॥४॥
[हिन्दी टीका |-अब प्राचार्य मल्लिषेण इस भैरव पद्मावती कल्प में जिनजिन विषयों का वर्णन करेंगे, उन-उन विषयों का अनुक्रमणिका के रूप में वर्णन करते हैं।
प्रथम साधक के लक्षण पश्चात् सकलीकरण क्रिया, महादेवी की पूजा का विधान, बारह प्रकार के यंत्रों के भेदों का उच्चाटन, स्तंभन क्रिया का वर्णन, स्त्री आकर्षरा क्रिया का वर्णन, वश्य क्रिया के यंत्रादि, दर्पणादि निमित का वर्णन, वशीकरा करने के लिये औषधिरूप तन्त्र और गारुडाधिकार कहेंगे, जो पूर्वाचार्य कह गये हैं।
यहाँ आचार्य स्वयं अपने मन से कुछ नहीं लिख रहे हैं, जो उनको प्राचार्य परंपरा से मिलता है, उसी को कह रहे हैं ।।४।।
इति वशविधाधिकार ललितार्या श्लोक गीति सवृत्तः । विरचयति मल्लिषेणः कल्पं पद्मावतीदेव्याः ॥५॥
[ संस्कृत टोका ]--'इति दविधाधिकारैः' इति प्राक् कथित वश प्रकाराधिकारैः । कथम्भूतैः ? 'ललितार्या श्लोक गीति सद्वतः' ललिता च या प्रार्या ललितार्या, श्लोकः-द्वात्रिंशदक्षरनिबद्धः, गीतीति उपगीतिः, सद्वतैः षड्विंशति जातिवृत्तः । "विरमयति' विशेषेरग रचयति । कः कर्ता ? मल्लिषेरणः । कम् ? कल्पम् । कस्याः ? 'पशावती देव्याः' भैरव पद्मावती देव्याः ॥५।।
[हिन्दी टीका |--मुन्दर आर्या, गीति और श्लोकरूप अच्छे-अच्छे छन्दों से सहित इस भैरव पद्मावती कल्प को दश अधिकारों में श्री मल्लिषेरणाचार्य वर्णन करेंगे ।।५।।
मंत्र साधक का लक्षण निजितमदनाटोपः प्रशमितकोपो विमुक्तविकथालापः । देव्यर्चनानुरक्तो जिनपदभक्तो भन्मन्त्री ॥६॥
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[संस्कृत टीका]-निजितमदनाटोपः' निःशेषेण जितो मदनस्य पाटोपोविज़म्भणं येन प्रसौ लिजितमदनाटोपः । 'प्रशमित कोपः' प्रकर्षण शमितः कोप येनासो प्रशमितकोपः । "विमुक्तविकथालापः' विशेषेण मुक्तः त्यक्तः विकथाया पालापो विकथासायः मिथ्यालापो येनासौ विमुक्त विकथालापः । 'देव्यर्चनानुरक्तः देवी-पद्मावती तस्या अर्धने-पूजने अनुरक्तः । 'जिनपदभक्तः' श्री जिनेश्वरपदकमलभक्तः प्रसौ 'मन्त्री मन्त्रवादी एवं गुणयुक्तो 'भवेत्' स्यात् ॥६॥
हिन्दी टीका--जिन्होंने कामदेव के उपद्रव को नष्ट कर दिया है और क्रोधादिक को जीत लिया हैं, कितना भी कारण मिलने पर, स्त्री आदिक का उपद्रव होने पर भी, विचलित नहीं होते और क्रोधाविष्ट नहीं होते हैं, संपूर्ण विकथाओं का त्याग कर दिया है और महादेवी के पूजन में अट्ट श्रद्धा रखनेवालों, भगवान श्री जिनेन्द्र देव के चरणों के परम भक्त, इतने लक्षणों से जो सहित होते हैं उन्हिको मंत्रसाधन करने का अधिकार है अर्थात् वे ही मंत्री हो सकते हैं ।
मन्त्राराधनशूरः पापचिदूरो गुणेन गम्भीरः ।
मौनी महाभिमानी मन्जी स्यादीहशः पुरुषः ॥७॥
[संस्कृत टीका]--मन्त्रस्याराधनं मन्त्राराधनं तस्मिन् शूरः-निर्भयः असौ मन्त्राराधनशूरः । पुनः कथम्भूतः ? 'पाप विदूरः' दुष्कर्मकरणविदूरः। 'गुणेन गम्भीरः सकलगुरगः कृत्वा गम्भीरः । मौनं विद्यते यस्यासो मौनी। 'महाभिमानी' महांश्चासो अभिमानश्च महाभिमानः स विद्यते यस्यासो महाभिमानी । ईशः पुरुषः' एवं गुण विशिष्टः पुमान् । 'मन्त्री मन्त्रवादी स्यात् ॥७॥
हिन्दी टीका-जो शुर वीरता के साथ मंत्रों को सिद्ध करनेवाला हो अर्थात् मंत्र सिद्ध करते समय पानेवाले उपसर्गादिक को वीरता के साथ जीतनेवाला हो और सम्पूर्ण पापों को करने से भयभीत हो, गुगों से गम्भीर हो, मौनी हो, शुद्ध मौन को धारण करनेवाला हो. अभिमानी हो, किसी भी हालत में अपने स्वाभिमान का रक्षा करनेवाला हो, स्वाभिमानी व्यक्ति किसी के सामने नहीं झुकता, ऐसा व्यक्ति ही मंत्राराधक होता है ।।७।।
गुरुजन हितोपदेशो गततन्द्रो निद्रया परित्यक्तः । परिमित भोजन शीलः स स्यादाराधको देध्याः ।।८।।
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( ६ }
[ संस्कृत टीका ] -- ' गुरुजन हितोपदेश:' गुरुजनेभ्यः सकाशाद् हितः श्रहितः उपदेशो येन सौ गुरुजन हितोपदेशः । 'गततन्द्रः ' निरालस्य: । 'निद्रया परित्यक्तः' अतिनिद्रया रहितः । 'परिमित भोजनशील:' परिमितं भोजनं शीलं यस्य प्रसौ परिमितभोजनशीलः । 'सः' एवंगुणविशिष्टः पुरुषः । 'देव्याः' पद्मावत्याः | 'आराधकः ' साधक: । 'स्यात्' भवेत् ||८||
| हिन्दी टीका | - गुरोपदेश से प्रभावित हो अर्थात् जिसने गुरु के चरणो में जाकर उपदेश को प्राप्त किया हो, तन्द्रा से रहित अर्थात् निद्रा विजयी हो, क्योंकि अतिनिद्रा मंत्र साधना में बाधक कारण है, निद्रालु व्यक्ति को कभी मंत्रसिद्ध नहीं हो सकता । अल्पाहारी हो, ज्यादा भोजन से आलस्य और आलस्य से कार्य असिद्ध होता है अतः परमित भोजन करनेवाला हो वही, देवी की आराधना कर सकता है ॥८॥ निर्जितविषयकषायो धर्मामृतजनित हर्षगतकायः ।
गुरुतर गुणसम्पूर्णः स भवेदाराधको देव्याः ॥ ॥
[ संस्कृत टीका ] -- 'निजितविषयकषायः' विषयाः परचेन्द्रियजादयः, कषाया क्रोधादयः, विषयाश्च कषायाश्च विषयकायाः निजिता विषयकषाया येन सौ निर्जितविषयकषायः । पुनः कथम्भूतः ? 'धर्मामृतजनित हर्षगत काय : ' धर्म एवामृतं धर्मामृतं तेन जनितो हर्षः धर्मामृतजनितहर्षः, धर्मामृतजनितहर्ष गतः प्राप्तः काय:-- शरीरं यस्यासौ धर्मामृतजनितहर्षगतकायः । 'गुरुतरगुण सम्पूर्ण' विशिष्टतर गुणैः सम्पूर्ण: । ' स भवेदाराधको देव्याः स एवं गुण विशिष्टः पुरुषः देव्याः पद्मावत्या श्राराधको भवेत स्यात् ||६||
[ हिन्दी टीका ] - जिसने सव विषय और कषायों को जीत लिया हो, क्योंकि विषय कषाय से किसी भी कार्य को सिद्धि नहीं हो सकती, फिर मंत्र सिद्धि का तो प्रश्न ही कहाँ ? जिसका शरीर धर्मामृत से हर्ष युक्त हो, धर्म ही जीव को संसार से पार करनेवाला है, क्योंकि धर्म के फलस्वरूप ही मंत्राराधक को मंत्रसिद्ध हो सकता है, इसीलिये आचार्य ने यहाँ पर मंत्राराधक धर्मात्मा, सुन्दर गुरणों से परिपूर्ण बताया है। वहीं पद्मावती देवी का आराधक हो सकता है || ६ ||
शुचिः प्रमत्रो गुरुदेवभक्तो दृढव्रतः सत्यदयासमेतः । दक्षः पटुर्बीज पदावधारी मन्त्री भवेदीरश एव लोके ॥ १०॥
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[संस्कृत टीका]--'शुचिः' बाह्मा म्यन्तर शुचिः । 'प्रसन्नः' सौम्यचित्तः । 'गुरुदेवभक्तः' गुरुदेवेषु भक्तः । 'दृढयतः' गृहीतग्रसेष्वतिहढः । 'सत्यदयासमेतः' अनन्तवाक्यवयासमेतः । 'दक्षः' अतिचतुरः। 'पटुः' मेधावी । 'बीजपदावधारी' बीजाक्षरपदावधारणं विद्यते यस्यासौ बीजपदावधारी। 'ईशः' एवंविध एव पुरुषः । 'लोके' लोकमध्ये । 'मन्त्री' मन्त्रवादी 'भवेत्' स्यात् ॥१०॥
[हिन्दी टीका]--जो विशिष्ट गणों से बाह्य और अंतरंग को पवित्र रखनेवाला हो, प्रसन्नचित का धारक हो, देव, गरु का परम भक्त हो, लिये हुये व्रतों को दृढ़ता से पालन करनेवाला हो, सत्य का हो आश्रय लेनेवाला हो अर्थात् सत्य बोलने वाला हो, जिसकी अन्तरात्मा दया से भिगी हो, जो अत्यन्त बुद्धिमान हो, चतुराई से चतुर हो, मंत्र के बीजाक्षरों को जाननेवाला हो, ऐसा भव्य धर्मात्मा ही लोक में मंत्र साधक (मंत्री) हो सकता है ।।१०।।
एते गुरणा यस्य न सन्ति पुसः क्वचित् कदाचिन्न भवेत् स मन्त्री । करोति चेहर्पवशात् स जाप्यं प्राप्नोत्यनर्थ फणिशेखरायाः ॥११॥
[ संस्कृत टीका ]--'एते गरगा यस्य न सन्ति पुसः' यस्य पुरुषस्य एते गुरणा न सन्ति न विद्यन्ते । 'क्वचित्' यत्र क्वापि प्रदेशे । 'कदाचित्' करिमश्चित काले । 'सः' एवं विशिष्टः पुमान् । 'मंत्री मन्त्रवादी । 'न भवेत्' न स्यात् । 'सः पुरुषः । 'दर्पनशात उद्धतवृत्या। 'जाप्य' मन्त्रजाप्यं । करोति चेत्' यदि करोति । 'प्राप्नोत्यनर्थ फरिणशेखरायाः' पद्मावती देव्याः सकाशाद अनर्थं प्राप्नोति प्रापद्यते ॥११॥
हिन्दी टीका-उपरोक्त गुणों से युक्त अगर कोई व्यक्ति नहीं है, तो वह कभी भी मंत्रसाधक नहीं हो सकता है । यदि अहंकार में चूर होकर मंत्रसाधन करने लगे तो देवो पद्मावती के द्वारा हानि को प्राप्त होता है।
जो ऊपर गुण कहे हैं, उन गुगों से सहित ही मंत्रसाधक हो सकता है, अगर उपरोक, गगा नहीं हैं, तो कभी भी कोई भी मंत्र की साधना नहीं करनी चाहिये। अगर गगा रहित ब्यक्ति अहंकार में आकर मंत्रसाधन करने लगे तो नियम से उसको मंत्र सिद्ध नहीं होगा और उल्ला नुकसान ही होगा, देवी उमका नुकसान करा देगी, मंत्र साधक सावधान रहें ।।११।।
इत्युभयभाषाविशेखर श्री मल्लिषेप सूरि विरचिते भैरव पद्मावतीकल्पे मन्त्रिलक्षणाधिकारः प्रथमः।
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'इति' एवं 'श्रीमल्लिषेण भूरि विरचिते' श्रिया उपलक्षितो मल्लिषेणः श्रीमल्लिषेरणः स चासो सूरिश्च श्रीमल्लिषरण सूरिः तेन विरचितः कथितः तस्मिन् श्रीमल्लिषेण रि विरचिते । क्व ? भैरव पद्मावती कल्पे भैरवपदमावतीदेव्याः मन्त्रिलक्षणाधिकारः प्रथमः॥१॥
इसप्रकार उभ्य भाषा कवि शेखर श्रीमल्लिषेणाचार्य विरचित भैरव पद्मावती कल्प के मन्त्रि लक्षणाधिकार में हिन्दी भाषा की विजया टीका का प्रथम अध्याय पूर्ण हुआ।
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द्वितीयः सकलीकरण परिच्छेदः
स्नात्वा पूर्व मन्त्री प्रक्षालित रक्तवस्त्र परिधानः । सम्माजित प्रदेशे स्थित्वा प्रकली क्रियां कुर्यात् ॥१॥
[संस्कृत टोका]--'स्नात्वा' स्नानं कृत्वा । 'पूर्व' प्राक् । 'मन्त्री मन्त्रवादी । 'प्रक्षालित रक्तवस्त्र परिधान:' धौत लोहित वस्त्र परिधानः । 'सम्माजित प्रदेशे' मोमलिप्त प्रदेशे। 'स्थित्वा' उषित्वा । 'सकली फ़ियां' श्रात्मरक्षा विधानं कुर्यात् ॥१॥
हिन्दी टीका]-मंत्र साधक को प्रथम स्नानकर स्वच्छ धुले हुये लाल वस्त्रों को पहनकर, गोबर से लिपी हुई भूमि पर बैठकर सकलीकरणरूप आत्मरक्षा करनी चाहिये क्योंकि बहिरंग द्धि भी मंत्र साधन में कारगा है, अगर बरिरंग शुद्धि नहीं है, तो साधक को कभी भी मिति नहीं मिल सकती है। इसीलिये प्राचार्य ने यहाँ पर, शरीर शुद्धि, वस्त्र शुद्धि और भूमि शुद्धि का प्रतिपादन किया है ।।१।।
हाँ वामकराङ्ग ष्ठे तर्जन्यां हो च मध्यमायां है। ह्रौं पुनरनामिकायां कनिष्ठिकायां च ह्रः सुस्यात् १ ॥२॥
[संस्कृत टीका]-हाँ वामकराज प्ठे' वामकराङ्ग ष्ठाग्रे हामिति बोज विन्यसेत् । 'तर्जन्यां ह्रीं" तर्जन्यङ्ग ल्यग्रे ह्रीमिति बीजम् । 'मध्यमायां ह' मध्यमाङ्ग ल्यग्रे हमिति बीजम् । "ह्रौ पुनरनामिकायाम्' पुनः पश्चात् अनामिकाङ्गल्यग्रे हौमिति बीजम् । 'कनिष्ठिक यांच ह्रः' कनिष्टिका ल्यग्र ह्रः इति बोजम्, चः समुच्चये। एवं यथानुक्रमेण पञ्चशून्य बीज स्थापना स्यात् भवेत् ह्रां ह्रो ह ह्रौं ह्रः अङ्गाल्यग्रेषु न्यासाक्षराणि ॥२॥
हिन्दी टीका | बांये हाथ के अंगूठे के अग्नभाग में 'हाँ', तर्जनी अर्थात् अंगूठे के पासवाली अंगुली के अग्रभाग में "ह्रीं' मध्यमा यानी तर्जनी के पास वाली अंगुली के अग्रभाग में 'ह', अनामिका अर्थात् उसके मध्यमा के पास वाली अंगुली के अग्रभाग में "ह्रौं' और कनिष्ठिका यानी सबसे अन्तिम छोटी वाली अंगुली के अन भाग में 'हः' इस प्रकार पांच शून्य अक्षर बीजों की स्थापना करें ॥२॥
१. 'कारः' इति ख पाठ ।
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( १० ) पञ्च नमस्कार पदैः प्रत्येकं प्रणयपूर्व होमान्त्यः । पूर्वोक्त पञ्च शून्यः परमेष्ठिपदाग्र विन्यस्तैः ॥३॥ शीर्ष वदनं हृदयं नाभि पादौ च रक्ष रक्षेति । कुर्यादेतैर्मन्त्री प्रतिदिवसं स्वाङ्ग विभ्यासम् ॥४॥ कुलकम् ॥
[ संस्कृत टोका 1-'पञ्चनमस्कार पदैः' अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्व साधूनां नमस्कारपूर्व पञ्चापदैः कथम्भूतैः ? 'प्रत्येकं प्रणवपूर्वहोमान्त्यः' पृथक-पृथक उँकार पूर्वस्वाहा शब्दान्तः । कथम्भूतः ? 'परमेष्ठिपदाविन्यस्तैः' पञ्चपरमेष्ठिनां पदाने यथाक्रमेण विशेषेण न्यस्तैः [कः 'पूर्वोक्त पञ्चशून्ये:' पूर्वोक्त: ह्रां ह्री ह. ह्रीं ह्रः इति रूपः पञ्चभिः शून्यः हकारः] ॥३॥
'शीर्ष' मस्तकम् । 'वदनं' प्रास्यम् । 'हृदय' हृत्स्थानम् । 'नाभि' नाभिस्थानम् । 'पादौ चरणद्वयम् । 'चः' समुच्चये । 'रक्ष रक्ष इति पदवयं । अनेन प्रकारेण 'एतः' कथित मन्त्रः । 'मन्त्री' मन्त्रवादी । 'प्रतिदिवस' दिन दिन प्रति । 'स्वाङ्ग विन्यास' स्वकीयाङ्गन्यासम् । 'कुर्यात्' करोतु ॥४॥
हिन्दी टीका]-पंच नमस्कार मंत्र पदों के आदि में ॐ और अंत में स्वाहा सहित पहले कहे हुये पंच शुन्याक्षर वीजों को प्रत्येक पद के साथ लगाकर क्रम से शिर, मुख, हृदय, नाभि और पैरों से बाचक पदों को लगाकर 'रक्ष-रक्ष' कहता हुआ अपने अंगों का नित्य न्यास करें।
ॐ णमो अरिहता ह्रां पद्मावती देवी मम शीर्ष रक्ष-२ स्वाहा । ॐ रामा सिद्धारा हा
॥ ॥ वदनं रक्ष-२ स्वाहा । ॐ णमो पाइरियागं ह
, हृदयं रक्ष-२ स्वाहा । ॐ रामो उवज्झायारां ह्रौं , , ,, नाभि रक्ष-२ स्वाहा । ॐ गगमो लोए सव्वसाहूरगं हः . . ., पादौ रक्ष-२ स्वाहा ।
इस प्रकार शून्य अक्षरों सहित नमस्कार मंत्रों से अपने अंगों का न्यास करने से मंत्री के अंगो की रक्षा होती है। मंत्री के अंगों को कोई भी उपद्रवकर्ता क्षति पहुँचा नहीं सकता है । इस प्रकार भी अंगन्यास कर सकते हैं ।
यहां पूर्ण अंगन्यास का क्रम देते हैं :
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ॐ णमो अरिहंताणं ह्रां मम हृदयं रक्ष-२ स्वाहा । ॐ रणमो सिद्धारण ह्रीं मम मुखं रक्ष-२ स्वाहा । ॐ रामो पाइरियारणं हमम दक्षिणांगं रक्ष-२ स्वाहा । ॐ णमो उवज्झायारणं ह्रौं मम पृष्ठाङ्ग रक्ष-२ स्वाहा । ॐ णमो लोए सन्चसाहूणं ह्रः मम वामांगं रक्ष-२ स्वाहा । ॐ रगमो अरिहंताणं ह्रां मम ललाट भागं , , । " , सिद्धारणं ह्रीं मम उद्धव भागं
। , , पायरियारणं ह. मम शिरोदक्षिण भागं , , है, उवझाया हो मम शिरोऽहर भाग ,
, लोए सब्बसाहूरणं ह्रः मम शिरोवाम भागं , ,, अरिहंताणं ह्रां मम दक्षिरण कुक्षं ,
, सिद्धारणं ह्रीं मम वामकुक्षं , ,,, प्रायरियाणं हमम नाभिप्रदेशं , ,,, उवज्झायाणं ह्रौं मम दक्षिण पावं , , । " , लोए सव्वसाहरणं मम वामपावं , , ।
ऊपर लिखे मंत्रों को क्रमशः हाथ जोडकर मंत्र बोलते जाय और जिसजिस अंग का नाम आया है, उस-उस अंग का स्पर्श करते जाय । (इति अंगन्यास)
--- ----- द्वि चतुः षष्ठ चतुर्दश कलाभिरन्त्यस्वरेण बिन्दुयुतैः१ । फूटैदिम्विन्यस्तैर्विशासु दिग्बन्धनं कुर्यात् ॥५॥
[संस्कृत टीका] --'द्वि चतुः षष्ठ चतुर्दश कलाभिः' द्विकल:-प्राकारः, वतुःकल:--ईकारः, षष्ठकल:-ऊकारः, चतुर्दशकल:-ौ कारः, एभिः द्विचतुःषष्ठ चतुर्दश कलादिभिः स्वरः। कथम्भूतैः ? 'अन्त्यस्वरेण बिन्दुयुतैः' अन्त्यस्वरः--अंकारः तेन अन्त्यस्वरेण बिन्दुः--अनुस्वारः तेन युत्तेः । कः ? फूट:--क्षकारैः । कथम्भूतैः ? 'दिग्यिन्यस्तैः' दिशि न्यस्तः। फासु ? दिशासु । "दिग्बन्धनं कुर्यात्' विशां बन्धनं कुर्यात् । उद्धार:-क्षां क्षों झू क्षौं क्षः ।।५।।
१. युतः' इति ख पाठः ।
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[हिन्दी टीका-अंगन्यास करने के बाद ॐ, आ, ई, ऊँ, नौं, अः इन स्वरों सहित 'क्षकार' से दिशाबन्धन करे क्षा क्षी झू क्षौं क्षः ।
यहाँ दिशा बन्धक क्रम अन्य ग्रंथातरसे ।
बायें हाथ की तर्जनी पर केशरादि से 'असिमाउसा' लिखकर तर्जनी को प्रसार कर नीचे लिखे मंत्रों को बोलते हुए, प्रत्येक दिशा में अंगुली को क्रमशः दिखावें । दिशाबन्धन मंत्र :-ॐ क्षां हां पूौं ।
ॐ क्षीं हीं अग्नौ । ॐ हूं हूं दक्षिण । ॐ झें हैं नैऋत्ये । ॐ क्षे हैं पश्चिमे । ॐ क्षों हो वायव्ये 1 ॐ क्षौं ही उत्तरे । ॐ हं हं ईशाने । ॐ क्षः हः भूतले ।
ॐ क्षी ही उद्ध्वें । ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते सभस्त दिग्बंधनं करोमि स्वाहा ।
इस प्रकार सब दिशाओं में अंगली धूमावे । फिर सफेद सरसों को लेकर नीचे लिखे मंत्रों को बोलता जाय और सरसों को सब दिशाओं में फेंक देवे । ताली बजावे, चुटकी बजावे ।
ॐ नमोऽर्हते सर्व रक्ष-२ हूं फट् स्वाहा । हेममय प्राकारं चतुरस्त्रं चिन्तयेत् समुत्तुङ्गम् । विशति हस्तं मन्त्री सर्व स्वर संयुतैः शून्यैः ॥६॥
[संस्कृत टोका]-'हेममयं' स्वर्णमयम्' । कम् ? 'प्राकार' दुर्गम् । कथम्भूतम् ? 'चतुरस्त्रम्' चतुः कोणम् । पुनः कथम्भूतम् ? 'समुत्तुङ्गम्' सम्यम् उन्नतम् । पुनः किविशिष्टम् ? 'विशतिहस्तं' विशति हस्त प्रमाणम्। 'सर्वस्वरसंयुतः शून्यः' हकारः । 'मन्त्री' मन्त्रवादी । "चिन्तयेत्' एवं गुण विशिष्ट प्राकारं ध्यायेत्ध्यानं कुर्यात् ॥६॥
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( १३ )
[ हिन्दी टीका ] उसके बाद सर्व स्वरों से सहित अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः । हृ कार को सहित करे, जैसे ह, हा, हि, हो, हु, हू, हह . . है हैं, हो, हो, हं, हः इन बीजों से सहित स्वर्णमय ऊँचा वीस हाथ प्रमाण चौकोर प्राकार का ध्यान करे ।
सवस्वर सम्पूर्णः कूटैरपि खातिका कृति ध्यायेत् । निर्मल जल परिपूर्णामिति भीषण जलचराकीर्णाम् ॥७॥
[ संस्कृत टीका ] - 'सर्वस्वर सम्पूर्णः' । के ? 'कूट' सकारैः । 'श्रपि ' निश्चये । 'खातिका कृति' परिखाकारम् । ध्यायेत्' ध्यानं कुर्यात् । कथम्भूताम् ? 'निर्मलजल परिपूर्णाम् पुनः कथम्भूताम् ? 'प्रतिभीषणजल चराकीर्णाम् प्रति भयानक मत्स्यमकरनक्रकच्छपादिजलचरपरिपूर्णाम् ॥७॥
[ हिन्दी टीका | उसके बाद मंत्रवादी प्राचार्य के कथनानुसार 'प्र' से लेकर संपूर्ण स्वरों से सहित कुठाक्षर 'क्ष' को ध् न क्ष, क्ष् या क्षा, क्ष् इ क्षि, न् ई क्षी, क्ष् उ क्षु, क्ष ऊ क्षू, क्ष् ऋ भू, क्ष्ऋ क्ष क्ष लृ श्ल, क्ष् लृ क्ष्लृ क्ष ए क्षे, क्ष ऐ क्ष क्ष प्रोक्षो, न्, भ्रं क्षं क्ष् प्रः क्षः यानी क्षक्षा क्षिक्षी क्षु क्ष क्ष क्ष क्ष्क्षेक्ष क्ष क्ष क्ष क्षः को मिलाकर निर्मलजल से परिपूर्ण प्रत्यन्त भयानक जलचर प्राणियों से सहित एक खाई का चिन्तवन करें ||७|| ज्वलदोङ्काररकार ज्वालादग्धं स्वमग्निपुर संस्थम् । ध्यात्वामृत मन्त्रेण स्नानं पश्चात् करोत्वमुना ||८||
[ संस्कृत टीका ] - 'ज्वलदोङ्काररकार' ज्याज्वल्यमान उकारः, रकाराक्षराणि तेषां ज्वालानिर्दग्धः तं ज्वलदोङ्काररकार ज्वालादग्धम् । कम् ? 'स्वम्' ग्रात्मानम् । कथम्भूतम् ? 'अग्निपुर संस्थम् ' प्रग्निमण्डल मध्यस्थम् । 'ध्यात्वा' ध्यानं कृत्वा । 'पश्चात्' ध्यानानन्तरम् । 'श्रमुना' प्रनेन । 'अमृत मन्त्रेण' वक्ष्यमाणमन्त्रेण । 'स्तानम्' मन्त्रस्नानम् । 'करोतु' कुर्यात् ॥८॥
नं० ( १ ) मन्त्र :- ॐ प्रमृते? ! अमृतोद्भवे ! श्रमृतवर्षिरिण ! श्रमृतं arar ara सं सं क्लीं स्नान मंत्र ह ह ह्राँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं द्रावय ह्रीं स्वाहा ।। मृत मन्त्रोऽयम् ॥
१. " ज्लू ब्लू" इति पाठः । २. ज्यो वोहं सः इति ख पाठः ।
ܪ
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( १४ }
[हिन्दी टीका ] - उसके बाद अपने को अग्निमंडल में बैठे हुए 'ॐ' कार और तीव्र ज्वालाओं से जलता हुआ र कार से अपने को जलता हुआ ध्यान करके, अमृत मंत्र से स्नान करे। प्रमृतस्नानमुद्रा को बना कर अपने मस्तक पर मंत्र से सिंचित करे, पंचगुरु मुद्रा से || ८ ||
नं० ( २ ) अमृत मंत्र :- ॐ प्रमृते प्रमृतो वे प्रमृत वर्षाणि श्रमृतं स्त्रावय २ सं १ क्लीं २ ब्लू २ २ द्रीं २ द्रावय २ हं भं श्वश्वों हंसः प्रसिश्रासा सर्वांगशुद्धि कुरु २ स्वाहा |
अग्निमंडल का आकार
5
फ्र
14.
५.
4.
५./ ॐ
No
/ रं
N.
No
च.नही
ॐ रं रं रं रं रं रं
रं
फ्र
नोट :- १ नंबर का स्नान मन्त्र श्वेताम्बर श्री मणिलाल सारा भाई नबाब के यहाँ से छपा हुआा पद्मावत उपासना ग्रन्थसे लिखा है ।
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निजोत्तमानामर भूधाराने संस्नापितः पाच जिनेन्द्र चन्द्रः। क्षोराधि दुग्धेन सुरेन्द्र वन्दैः स्वं चिन्तयेत् तज्जलशुद्ध गात्रम् ॥६॥
[संस्कृत टोका]-'निजोत्तमाङ्गामर भूधरा' स्वकीयोत्तमाङ्गमेव अमर भूधरः मेरुः तस्यान शिखरं तस्मिन् निजोत्तमाङ्गामर भूधराग्रे । 'संस्नापितः' सम्पक स्नापितः । कः ? 'जिनेन्द्र वन्द्रः पावः' । केन ? 'क्षोराब्धिदुग्वेन' क्षीरसमुद्रदुग्धेन । कः ? 'सुरेन्द्र वन्दः' देवेन्द्र वृन्दैः । 'स्वं चिन्तयेत्' प्रात्मानं ध्यायेत् । 'तज्जलशुद्धगात्रम्' तत्स्नानोदकेन शुद्ध शरीरं यथा भवति ॥६॥
हिन्दी टीका]-उसके बाद मंत्रवादी स्वयं के मस्तकरूपी मुमेरूपर्वत के अग्रभाग में इन्द्रों के समुदाय से सहित क्षीर समुद्र के दूध रूप जल से स्नान कराये गये ऐसे श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर के स्नान जल से अपने को शुद्ध शरीर वाला चिन्तबन करे ।
भावार्थ--पश्चात मंत्रवादी अपने मस्तक को सुमेरू पर्वत है और उस पर्वत पर पाण्डुकशिला है, चतुनिकाय देवों के अधिपति इन्द्रों से क्षीरसागर का जल लाकर अभिषेक किया गया है, उस अभिषेक जल (गन्धोदक) से अपने को शुद्ध शरीरवाला कल्पना करें ।।६।।
भूतग्रहरे शाकिन्यो ध्यानेनानेन नोपसर्पन्ति । अपहरति पूर्वसञ्चितमपि दुरितं त्वरितमेवेह ॥१०॥
[संस्कृत टीका]-'भूतग्रहशाकिन्यः' भूतानि च ग्रहाश्च शाकिन्यश्च भूतग्रहशाकिन्यः । 'ध्यानेनानेन' अनेन कथितध्यानेन । 'नोपसर्पन्ति' उपसर्पणं कर्तुं न शक्नुवन्ति । 'पुर्वसञ्चितमपि' प्रागजन्मोपाजितमपि । किं तत् ? 'दुरितम्' दुःकर्म । 'त्वरितमेव' शीघ्रमेव । 'अपहरति' नाशयति ।।१०।।
[हिन्दी टीका]-इस प्रकार उपरोक्त ध्यान करने से भूत, ग्रह, शाक्रिन्यादि कभी भी उपसर्ग नहीं कर सकते हैं और पहले किये हुये दुष्कर्मरूपी पाप शीघ्र ही नष्ट होते हैं । अर्थात् इस प्रकार के चिन्तवन से और ध्यान से ग्रह, भूत, प्रेत, शाकिनी डाकोनी आदि का उपसर्ग नहीं हो सकता और सर्व पाप 'तत्क्षरण' नष्ट हो जाते हैं ।।१०।।
१. 'धौतः' इति ख पाठः। २. "उरग" इति व पाठः ।
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पर्यशासनसंस्थः समोपतरवर्ति पूजन द्रव्यः । विग्वनितानां तिलकं स्वस्य च कुर्यात् सुचन्वनतः ॥११॥
[संस्कृत टीका]-'पर्यङ्कासनसंस्थः' पल्यासने संस्थः । 'समीपतरवतिपूजन द्रव्यः' स्वपार्श्वस्थापिताष्टविधपूजोपकरण द्रव्यः। 'विग्यनितानां तिलक' पूर्वाधष्टदिग्वधूनां तिलकं विशेषकम् । 'स्वस्य च' आत्मनश्वापि । 'सुचन्दनतः' शोभनेन चन्दनेन तिलकं 'कुर्यात्' करोतु ॥११॥
[हिन्दी टीका}-मंत्रवादी पर्यष्टासन पर बैटकर, पास में पूजन के लिये आठों ही द्रव्यों का सामान रखकर, दिशारूपी अष्ट वधुओं को और अपने को सुगन्धित चन्दन से तिलक लगाकर, सुसज्जित करें । अर्थात अपने को और निग्वश्नों को चन्दन द्रव्य से तिलक करें और पूजन के लिये अष्ट द्रव्य पास में रखें ।।११।।
पनगाधिपशेखरां विपुलारुणाम्बुज विष्टरां । कुकुटोरगवाहनामरुणप्रभा कमलाननाम् । श्यम्बका वरदाङ कुशायतपाशदिव्य फलाडितां। चिन्तयेत् कमलावती जपतां सतां फलदायिनीम् ।।१२॥
[संस्कृत टोका]-'पनगाधिपशेखरां' पन्नगानां अधिपः पन्नगाधिपः धरणेन्द्रः शेखरे मुकुटाग्रे विद्यते यस्याः सा पन्नगाधिपशेखरा, ताम् । कि विशिष्टाम् ? 'विपुलारुणाम्बुजविष्ट राम्' विपुलं-विस्तीर्ण प्रणाम्बुजमेध विष्टरं प्रासनं यस्याः सा विपुलारुणाम्बुजविष्टरा ताम् । पुनःकि बिशिष्टाम् ? 'कुकुंटोरगवाहनाम्' कुकुट सर्पवाहनाम् । पुनः कि विशिष्टाम् ? 'अरुण प्रभा' सिन्दूरवत् प्रभा-दोस्पिविद्यते यस्याः सा ताम् । पुनः कि विशिष्टाम् ? 'कमलाननाम्' कमलयद् प्रानने मुख यस्याः सा कमलाननां ताम् । 'यम्बकाम्' त्रीरिंग अम्बकानि लोचनानि विद्यन्ते यस्याः सा त्र्यम्बका ताम् । पुनः कि विशिष्टाम् ? 'वरवाङ कुशायतपाशदिव्यफलाङ्किताम्' वरदश्च अकुशश्च प्रायत पाशश्च दिव्य फलं च वरदाङ कुशायतपादिव्य फलानि तैः अङ्किताः चिह्निताः करा यस्याः सा वरदाङ कुशायतपादिव्यफलाङ्किता ताम् । 'चिन्तयेत्' ध्यानं कुर्यात् । काम् ? 'कमलावतोम' पद्मावतीम् । किविशिष्टाम् ? 'जपतां' जाप्यं कुर्वतां 'सता' सत्पुरुषारगां 'फलदायिनी' फलं दवातीति तां फलदायिनीम् ॥१२॥
[हिन्दी टीका]-जिसका मस्तक शेषनागरूप धरणेन्द्र से शोभित है, और जो लाल वर्ग के कमलासन से सहित है, कुकुट नाग जिसका वाहन है और उगते हुए
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बाल सूर्य के समान जिसका वर्ण है, सिन्दुर वर्ण के समान जिसकी प्रभा है, मुख जिसका कमल के समान है, तीन नेत्रों से सहित है हाथों में जिसके क्रमशः, वरदान, अंकुश, नागपाश और दिव्य फलवाली अंकित है तथा जपने वाले मंत्री को नित्य ही फल को देने वाली महादेवी पद्मावती का ध्यान करे ।।१२।।
परिज्ञायांशकं पूर्व साध्यसाधकयोरपि । मत्रं निवेदयेत् प्राज्ञो व्यर्थं तत्फलमन्यथा ॥१३॥
[संस्कृत टीका]-'परिज्ञाय' सम्यग् ज्ञात्वा । किम् ? 'अंशकं' मात्रांशकम् । 'पूर्व प्राक् । कयोः ? 'साध्यसाधकयोः' साध्य:-मन्त्रः, साधकः मन्त्री तयोः साध्यसाघकयोः। 'अपि' निश्चयेन । 'मन्त्रं निवेदयेत्' मन्त्रोपदेशं कुर्यात् । 'प्राज्ञो' श्रीमान् । 'अन्यथा' अंशकज्ञानामावे। 'तत्फलं' तस्य मन्त्रस्य फलम् । 'व्यर्थ' निरर्थक भवेत् ॥१३॥
[हिन्दी टीका]-मंत्रवादी सत्पुरुष को मंत्र और मंत्री के अंगों को जानकर अर्थात् साध्य और साधक के अंशों को जानकर मंत्र का दान करें, अथवा स्वयं प्रयोग में लावे । कारण कि अंश और अंशी के ज्ञान के शिवाय जपनेवाले मंत्र का फल निरर्थक होता है । यहाँ साध्य माने मंत्र और साधक माने जप करनेवाला (मंत्रसिद्ध करने वाला) है ।।१३।।
साध्य और साधक के प्रशगणने की क्रिया साध्यसाधकयो मानुस्वारव्यञ्जनस्वरम् । पृथक कृत्वा क्रमात् स्थाप्यमूधिः प्रविभागतः ॥१४॥
[संस्कृत टीका]-साध्यसाधकयोनाम' साध्यो मन्त्रः साधको मन्त्री तयोनमि । 'अनुस्वार' 'व्यंजन' ककारादि वरन् 'स्वर' प्रकारादि स्वरान् । ।पृथक् कृत्वा' पृथग विश्लेष्य। 'कमात् स्थाप्यम्' साध्यसाधक परिपाट्या संस्थाग्यम् । कथम् ? 'अधिः प्रविभागतः' साध्यनाम ऊर्ध्वतः साधकनाम अधः कृत्वा अनेन प्रविभागक्रमेय स्थापयेत् ॥१४॥
|हिन्दी टीका-मंत्रसाधन करने वाले के नामाक्षर और मंत्र के नामाक्षरों को पृथक्-पृथक स्थापन करें। यानी नाम और मंत्र अक्षरों के अनुस्वार, व्यंजन और स्वरों को अलग-अलग करके ऊपर मंत्र के और नीचे मंत्री के नामाक्षरों को कम से रखें ॥१४॥
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( १८ )
साध्यनामाक्षरं गयं साधकायघर्पतः । नपुंसकं परित्यज्य कुर्यात् तद् वेवभाजितम् ॥१५॥
[संस्कृत टीका]-'साध्यनामाक्षर' साध्यनाम वर्णान् । 'साधकाह्वयवर्णतः' साधक नामाक्षरेभ्यः । 'गण्यं' गणयेत् । कि कृत्वा ? 'नपुंसकं परित्यज्य' ऋ ऋ ल ल, इति नपुंसकानि परित्यज्य । 'तद् वेव भाजितं' तत्-साध्यसाधकयोरनुस्वार व्यञ्जनगण्यमानराशि 'वेच भाजितं' चतुर्भाजितं कृर्यात् ॥१५॥
[हिन्दी टीका]-मंत्रवादी के नामाक्षरों से मंत्र के नाम के अक्षरों को नपुंसक अक्षरों को ऋ ऋ ल ल छोड़कर गणना करें, जो संख्या आवे उसको जोड़कर चार का भाग दें। उदाहरणार्थ :
जैसे-"णमो सिद्धारण" यह मंत्र है, इसमें से अक्षर, स्वर, व्यंजन, अनुस्वार आदि को अलग-अलग करें।
मंत्राक्षरों को अलग-अलग रखने का क्रम :-- ए + +म् +यो+स् + इ.++ +मा+ए++ अनुस्वार इसमें -व्यंजन संख्या =६
स्वर संख्या =५ अनुस्वार संख्या =१
अक्षर संख्या =५
अव मंत्री के नामाक्षर में से स्वर, व्यंजन, अक्षर, अनुस्वार को अलगअलग करते हैं।
नाम-देवदत्त द्+ए+ + + + + + त् + =
व्यंजन संख्या ५ स्वर संख्या = ४
अक्षर संख्या - ४ मंत्राक्षर संख्या मंत्री के नामाक्षर संख्या ४ इन दोनों को जोड़ें
इसमें
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( १६ )
फिर & संख्या में चार का भाग दें - ४ ) ६ (२
८
१ शेष (आय / संख्या)
एक शेष रहने पर सिद्ध समझे, आदि प्रागे समझाते हैं । प्रायो भागोद्धरितं तं चाद्यं स्थापयेत् क्रमाद् श्रीमान् । एक द्वित्रिचतुर्वर्णान् सिद्ध साध्यं सुसिद्धमरिः ॥ १६ ॥
[ संस्कृत टीका ] - 'आयो भागोद्धरितं प्रकृतसाध्यसाधकराशी चतुर्भिर्भागे हृते यद् उद्धरितं स प्रायः 1 'तं च' उद्धरितं प्रायं च । 'प्रायं स्थापयेत्' विश्लेषित साष्यमात्रानुस्वार व्यञ्जनपङ क्तौ श्रादौ स्थापयेत् । कथम् ? 'क्रमात् पङ्क्तौ यथानुक्रमेण । कः ? धीमान् । 'एक द्वित्रिचतुर्वर्खान् सिद्ध साध्यं सुसिद्ध अरिः' एक उद्धरिते सिद्धम्, द्विरुद्धरिते साध्यम्, त्रिरुद्धरिते सुसिद्धम्, चतुरुद्ध रिते शत्रुः इत्येवं ज्ञातव्यम् ॥१६॥ [हिन्दी टीका ] -भाग करने के बाद जो शेष रहे उसको प्राय कहते हैं । उस को बुद्धिमान मंत्री एक, दो, तीन, चार को अनुक्रम से रखे, एक संख्या रहे तो वह सिद्ध २ रहे तो साध्य, तीन रहे तो सुसिद्ध और चार रहे तो शत्रु जानना चाहिये ||१६||
सिद्धसुसिद्धं ग्राह्यं साध्यं शत्रु च वर्जयेद् धीमान् १ । सिद्धसिद्धे फलदेर विफलं साध्ये रिपौर वाऽऽये ॥१७॥
[ संस्कृत टीका ] - ' सिद्धसुसिद्ध ग्राह्यं चतुरायमध्ये सिद्धसुसिद्ध इत्यश्यद्वयं प्राह्यम् । 'साध्यं शत्रु च वर्जयेत्' तदायमध्ये साध्यं शत्रु च इत्यायद्वयं वर्जयेत् । कः ? 'धीमान्' बुद्धिमान् । 'सिद्धसुसिद्ध' फलदे' सिद्धसुसिद्ध इत्यायद्वते सफले मन्त्रस्य फलं भवति । 'विफलं साध्ये रिपौ वाऽध्ये' साध्ये रिपौ वा श्रायद्वये मन्त्रं विफलं स्यात् ॥ १७३॥ [हिन्दी टीका ] - ] - इस प्रकार उपरोक्त आय में मंत्रवादी सिद्ध श्रोर सुसिद्ध मंत्र को ग्रहण करे, यानी जाप्य योग्यमंत्र है ऐसा समझे । इस प्रकार का जप फलदायक होता है | साध्य और शत्रु मंत्र का त्याग करें, क्योंकि इन मंत्रों के जपने से फल मिल
१. प्राज्ञः इति ख पाठः ।
२
सफले इति व पाठ: । ३. रिपोरपि इति ख पाठः ।
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( २० >
नहीं सकता है । निष्फल होते हैं और हानि पहुँचाने वाले होते हैं। इसलिये मंत्रवादी साध्य और शत्रु मंत्रों को कभी भी जापने के लिये प्रयत्न न करें ||१७||
फलदं कतिपय दिवसः सिद्ध ं चेत् साध्यमपि दिनेबहुभिः । टिति फलदं सुसिद्ध प्राणार्थ विनाशनः शत्रुः ।। १८ ।।
[ संस्कृत टीका ]- 'सिद्ध ं चेत्' सिद्ध' मन्त्रं चेत् । 'कतिपय दिवस' क्रियद्भिर्वासरै: । 'फलदं' फलदायकं भवति । 'साध्यमपि दिनेर्बहुभिः श्रपि पश्चात् साध्यं मन्त्रं बहुभिदिनः फलदं भवति । 'झटिति फलदं सुसिद्धं' सुसिद्ध मन्त्रं झटिति शीघ्र फलदायकं भवति । 'प्राणार्थविनाशनः शत्रुः ' शत्रुर्मन्त्रं प्रारणार्थविनाशकरो भवति ॥ १८ ॥ [ हिन्दी टीका ] - अब यहाँ पर मल्लिषेरणाचार्य कौनसा मंत्र कितने दिनों में और कब फल देता है सो कहते हैं । साध्य मंत्र कई दिनों के बाद फलदायक होते हैं । सुसिद्ध मंत्र शीघ्र ही फलदायक होते हैं । और शत्रुमंत्र के जप करने से प्रारणों का विनाश होता है और प्रयोजन का भी नाश होता है ।। १८ ।।
प्रादावन्से शत्रुर्यदि भवति तदा परित्यजेन्मन्त्रम् । स्थानत्रितये शत्रुर्मृत्युः स्यात् कार्यहानिर्वा ॥१६॥
[ संस्कृत टीका ] - 'श्रादावन्ते शत्रुर्यदि भवति' मन्त्रस्यादौ मन्त्रान्ते यदि शत्रुर्भवति तदा परित्यजेन्मन्त्रम्' मन्त्रं परिवर्जयेत् । ' स्थानत्रितये शत्रुमृत्युः स्यात्' श्रादिमध्यावसाने यदि शत्रुर्भवति मन्त्रस्य तदा मृत्युर्भवति 'कायहानिर्वा' कार्यनाशी वा भवति ॥ १६ ॥
[हिन्दी टीका ]- मंत्रवादी को मंत्र के आदि में और अंत में शत्रु हो तो मंत्र का त्याग करना चाहिये। तीनों स्थानों में आदि, मध्य और अंत में शत्रु हो तो, वह मंत्र मंत्रवादी के शरीर को नष्ट करता है ( प्राण हर लेता है ) अथवा उसके कार्य का नाश करता है ||१६||
शत्रुर्भवति यarsset मध्ये सिद्ध कष्टेन भवति महता स्वल्प फलं
तदन्तगं साध्यम् । चेति कथनीयम् ||२०||
[ संस्कृत टीका ] - 'शत्रु' इत्यादि । यदा प्रायगणने प्रथमतः शत्रुर्भवति, मन्त्रस्य मध्ये सिद्ध भवति । 'तवन्तगं साध्यं मन्त्रस्यान्तगं साध्यं चेत् । 'कष्टेन भवति महता' महता प्रत्यन्त क्लेशेन जायते स्वल्प फलम् । च समुच्चये । 'इति' अनेन प्रका रेण कथनीयम् ॥ २० ॥
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( २१ ) [हिन्दी टीका]-प्राय की गणना करते समय यदि मंत्र के ग्रादि में शत्रु हो मध्य में सिद्ध हो और अंत में साध्य हो, तो मंत्रवादी को बहुत कष्ट होता है, फल भी बहुत कम (अल्प) होता है। इस प्रकार वर्णन समझना चाहिये ॥२०॥
अन्ते यदि भवति रिपुः प्रथमे मध्ये च सिद्धयुगपतनम् । कार्य यदादि जातं तनश्यति सर्वमेवान्ते ॥२१॥
[संस्कृत टीका]-'अन्ते यदि भवति रिपुः' मन्त्रस्यान्ते यदि शत्रभवति । 'प्रथमे मध्ये च सिद्धयुगपतनम्' मन्त्रादौ मन्त्रमध्ये च सिद्धयुग्मपातो यदि भवति । 'कार्य यदादिजातं' एवंविध मन्त्रे यत् पूर्व जातं कार्य अमितफलं 'तनश्यति सर्वमेवान्ते' तत् कार्य जनित फलं सर्वमेवान्ते अवसाने नाशं प्राप्नोति ॥२१॥
[हिन्दी टीका]-मंत्र वादी के मंत्र के अंत में शत्रु हो और आदि व मध्य में सिद्ध हो तो जो कार्य प्रथम में सिद्ध होगा, वह अन्त में अवश्य नष्ट होगा, ऐसा ऐसा जानना चाहिये ।।२१।।
सिद्ध सुसिद्धमयघा रिपुणाऽन्तरितं निरीक्ष्यते यत्र । दुःखापायप्रबलं भवतीति विवर्जयेत् कार्यम् ॥२२॥
[ संस्कृत टोका]-'अथवा' अन्य प्रकारेण 'सिद्ध' सिद्धपदम् 'सुसिद्ध' सुसिद्धपदं 'रिपुरणाऽन्तरित' शत्रुपदान्तरितं यदि निरीक्ष्यते यत्र' यस्मिन् मन्त्रे निरीक्ष्यते रश्यते तदा 'दुःखापाय प्रबलं' क्लेशानर्थप्रचुरं भवति 'इति' एवं ज्ञात्वा 'विवर्जयेन्मन्त्रं' साधनकार्य परिवर्जयेत् ॥२२॥
[हिन्दी टीका] जो मंत्र में सिद्ध, सुसिद्ध के मध्य में शत्रु दिखता हो तो मंत्रवादी ऐसे विघ्नकर्ता मंत्र को शीघ्र ही छोडे । साधन कार्य को छोड़ देवे । जपने योग्य मंत्रों को देखकर ही जपे तब ही पूर्ण सफलता मिल सकती है ॥२२॥
इत्युभयभाषाकरिशेखर श्री मल्लिषेण सूरि विरचिते भैरव पद्मावती कल्पे सकली करणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ॥२॥
इस प्रकार भैरव पद्मावती कल्प की हिन्दी भाषा विजया टीका में सकली करण, नामक द्वितीय अधिकार समाप्त हुना।
इसके लिये अकड़म चक्क देखे।
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( २२ )
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( २३ ) तृतीयो देव्यर्चनाक्रम परिच्छेदः दोपनसुपल्लव-सम्पुट-रोध-प्रथना-विदर्भणः कुर्यात् । शान्ति-ष-वशीकृत-बन्ध-रव्याष्टि-संस्तम्भम् ॥१॥
[संस्कृत टीका]-'दीपन' दीपनेन शान्तिकं कुर्यात्, 'पल्लव' पल्लवेन विद्वेषणं कुर्यात्, 'सम्पुट' सम्पुटेन वश्यं कुर्यात्, 'रोधन' रोधनेन बन्धं कुर्यात्, 'प्रथना' प्रथनया रव्याकृष्टि कुर्यात्, षिवर्भरणः विदर्भणेन क्रोधादि स्तम्भं कुर्यात् ॥१॥
[हिन्दी टीका]-दीपन कर्म से शांति करे, पल्लव कर्म से विद्वेषण करे, सम्पुट कर्म से वशीकरण करे, रोधन कर्म से मारण करे, ग्रंथन कर्म से स्त्री पाकर्षण करे और विदर्भग्ण कर्म से क्रोधादि स्तम्भन करे ।।१।।
प्रथदीपनादीनां व्याख्याप्रादौ नामनिवेशो दीपनमन्ते च पल्लवो ज्ञेयः । तन्मध्यगतं सम्पुटमथादिमध्यान्तगो रोधः ॥२॥ प्रथनं वर्णान्तरितं यक्षरमध्यस्थितो विदर्भः स्यात् । षट्कर्म करणमेतज् ज्ञात्वाऽनुष्ठानमाचरेन्मन्त्री ॥३॥
[संस्कृत टोका]-'प्रादौ नामनिवेशौ दीपनम्' मन्त्रस्यादौ यन्नामनिवेशनं तद् दीपनं स्यात् । 'अन्ते च पल्लवो ज्ञेयः' मन्त्रस्यान्ते यन्नामनिवेशनं स पल्लयो 'ज्ञेयः' ज्ञातव्यः । 'तन्मध्यगतं सम्पुटं' तन्मन्त्रमध्ये निवेशितं नाम सम्पुटमिति स्यात् । 'प्रथाविमध्यान्तगो रोधः' अथ पश्चात् मन्त्रस्यादौ मध्ये अन्ते च पन्नामनिवेशनं स रोधः स्यात् । 'प्रथनं वर्णान्तरितम्' मन्त्रस्याक्षरमेकं नामाक्षरमेकं एवं वर्णग्रथम तद्ग्रथन मिति स्यात् । 'द्वयक्षरमध्ये स्थितो विदर्भः स्यात्' मन्जस्याक्षरतय प्रति पश्चाद् यन्नामनिवेशः स विदर्भः स्यात् । 'षट्कर्मकरसमेतत्' एतच् शान्त्यादि षट्कर्म क्रिया विधानं 'ज्ञात्वा' बुद्ध्वा अनुष्ठानं मन्त्रवादी पाचरेत् ॥२॥३॥
[हिन्दी टीका]-मंत्र के आदि में नाम लिखना 'दीपन' कहलाता है, अंत में नाम लिखने से 'पल्लव' कहलाता है, मध्य में नाम लिखने से 'संपुट' कहलाता है ।
आदि में, मध्य में और अन्त में साध्य का नाम लिखने से 'रोधन' कहलाता है, मंत्र के एक अक्षर के बाद नाम लिखने से 'ग्रंथन' होता है, मंत्र के दो-दो अक्षरों के बाद नाम लिखने से 'विदर्भ' कहलाता है। इसी को षट्कर्म करते हैं, मंत्रवादी इन षट्कर्मों को जानकर हो अनुष्ठान (मंत्राराधना आदि) प्रारंभ करे ॥२।।३।।
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( २४ ) दिक्कालमुद्रासन पल्लवानां भेदं परिज्ञाय जपेत् स मन्त्री । न चान्यथा सिध्यति तस्य मन्त्रं कुर्वन सदा तिष्ठतु जाप्यहोमम् ॥४॥
[संस्कृत टीका]-'दिक्काल मुद्रासनपल्लवानां' दिक् च कालच मुद्रा च आसनं च पल्लवश्च दिक्काल मुद्रासनपल्लवाः तेषां विवकालमुद्रासन पल्लवानां, भेदं विवरगं, 'परिज्ञाय' सम्यग् ज्ञात्वा, स 'मन्त्री' मन्त्रवादी जपेत् 'जापं' कुर्यात् । 'न चान्यथा सिध्यति तस्य मन्त्रम्' अन्यथा दिक्कालावि भेद परिज्ञानाभावे तस्य मन्त्रिणः 'मन्त्रं न सिध्यति' सिद्धि न प्राप्नोति । 'कुर्वन् सदा तिष्ठतु जाप्यहोम' जाप्यहोमं कुर्वन् सन् सवा तिष्ठतु परं न सिध्यति ॥४॥
[हिन्दी टीका-मंत्रवादी दिशा, काल, मुद्रा, आसन और पल्लवों के भेदों को जानकर ही जपादि प्रारंभ करे, अगर इनका ज्ञान प्राप्त नहीं किया तो कितनी भी मंत्राराधना करे और होमादिक क्रिया करे फिर भी मंत्रवादी को मंत्रों की सिद्धि नहीं हो सकती है, इसलिये प्रथम इनका ज्ञान करना परम आवश्यक है ।।४।।
वश्याकृष्टि स्तम्भननिषेध बिष चलनशान्तिकं पुष्टिम् । कुर्यात् सोमय मामरहराग्निमरवन्धिनिऋति विग्वदनः ॥५॥
[संस्कृत टीका]-'वश्यावृष्टिस्तम्भननिषेध विद्वेषचलन शान्तिकं पुष्टिम्' एतानि कर्माणि । 'सोमयमामरहराग्नि मरुवन्धिनिऋतिदिग्वदनः' । 'सोम' उत्तराभि मुखेन वश्यकर्म । 'यम' दक्षिणाभिमुखेन 'प्राष्टि' प्राकर्षण कर्म । 'अमर' पूर्वा भिमुखेन स्तम्भन कर्म । 'हर' ईशानाभिमुखेन निषेध कर्म । 'अग्नि' अग्निविङ्मुखेन विद्वेषकर्म । 'मरुत्' वायव्यदिङ्मुखेन 'चलन' उच्चाटन कर्म । 'अब्धि' पश्चिमाभिमुखेन 'शान्तिक' शान्ति कर्म। नैऋति दिग्वदनः' नैऋत्याभिमुखेन पौष्टिक कर्म । इति दिग्यदनो भूत्वा वश्यादि कर्माणि कुर्यात् ॥५॥
[हिन्दी टीका]-वशीकरण करने के लिये उत्तराभिमुख होकर मंत्र कर्म करे । दक्षिण दिशा में मुंह करके आकर्षण कर्म करें। स्तम्भन कर्म करने के लिये पूर्व दिशा में मुंह करके मंत्रजाप्य करे । ईशान दिशा में मुंह करके निषेधकर्म के लिये जाप्य करें। प्राग्नेय दिशा में विद्वेषण कर्म करना चाहिये । उच्चाटन कर्म करने के लिये बायध्य कोण में मुंह करना चाहिये । पश्चिम दिशा में मुंह करके शांतिकर्म करे । पौष्टिक कर्म करने के लिये नैऋत्य दिशा में मुंह करके मंत्रजाप्य करे ।।५।।
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(
२५ )
पूर्वाह्न वश्यकर्माणि मध्याह्न प्रीतिनाशनम् । उच्चाटनं पराह्न च सन्ध्यायां प्रतिषेधकृत' ॥६॥ शान्ति कर्माधरात्रे च प्रभाते पौष्टिक तथा । वश्यं मुक्त्वाऽन्यकारिण सव्यहस्तेन योजयेत् ॥७॥
[संस्कृत टीका]-'पूर्वाह्न' इत्यादि । पूर्वाह्नकाले वसन्ततों वश्याकष्टि स्तम्भन कर्माणि कुर्यात् । 'मध्याह्न प्रीति नाशनम्' मध्याह्नकाले ग्रीष्मतो विषणं कुर्यात् । 'उच्चाटनं पराह्न' अपराह्न वर्षतों उच्चाटनं कुर्यात् । च सम्मुच्चये । 'प्रभाते पौष्टिक तथा प्रभात समये शिशिरतो पौष्टिकं कर्म कुर्यात् । वश्यं मुक्त्वा' वश्य कर्म वर्जयित्वा । 'अन्य कर्माणि इतराकष्टि कर्माणि 'सव्यहस्सेन' दक्षिरण हस्तेन 'योजयेत्' कुर्यात्, वश्यकर्मव वामहस्तेन योजयेदित्यर्थः ॥६॥७॥
___ इति कर्मकालनिरूपणम् ॥ [हिन्दी टीका]-दिन के पूर्व भाग में, अर्थात् बारह बजे के पहले वशीकरण कर्म, आकर्षण कर्म और स्तंभन कर्म करना चाहिये । मध्याह्न काल में विद्वेषण कर्म करना चाहिये उच्चाटन कर्म दिन के पिछले भाग में करे अर्थात् अपराह्न काल में करे । सायंकाल में निषेध कर्म के लिये क्रिया करे । शांतिकर्म के लिये अर्द्धरात्रि में मंत्र जाप्य करे । प्रातःकाल में पौष्टिक क्रिया करे, वशीकरण क्रिया को छोड़कर अन्य कार्य को दाहिने हाथ से कये । यानी आकर्षणादि सब कर्मों को सीधे (दाहिने) हाथ से करे और वशीकर कर्म उल्टे (बांये) हाथ से करे ।।६।।७।।
मुद्राकरण अकुश-सरोज-बोध-प्रवाल-सच्छङ्ख-वनमुद्राः स्युः। प्राष्टि -वश्य-शान्तिक-विद्वषरण-रोध-वधसमये ।।८।।
[ संस्कृत टोका]--'अकुश' अकुश मुद्रा 'प्राकृष्टि' माकर्षण कर्मरिण । 'सरोज' सरोजमुद्रा 'वश्य' वश्य कमरिण । 'बोध' ज्ञान मुद्रा 'शान्तिक' शान्तिकपौष्टिकयोः । 'प्रवाल' पल्लवमुद्रा विद्वेषणे' फट् कर्मणि । 'सच्छङ्ख' सम्यक् शङ्खमुद्रा रोध' स्तम्भन कर्मणि । 'यज्र' वचमुद्रा वधसमये' प्रतिषेधसमये । इति षट्कर्मकरणे एता मुद्राः 'स्युः' भवेयुः ॥८॥
१. 'मारणं स्मृतम्' इति ख पाठः।
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[हिन्दी टीका]-आकर्षण कर्म करने के लिये अंकुश मुद्रा से जाप्य करे, सरोज (कमल) मुद्रा करके वशीकरण का जाप्य करे, शांतिक पौष्टिक कर्म के लिये ज्ञान मुद्रा से जाप्य करे, विद्वेषण क्रिया के लिये और उच्चाटन के लिये प्रवाल (पल्लव) मुद्रा से करे, स्तंभन कर्म करने के लिये शंख मुद्रा करे और मारण (निषेध) कर्म के लिये बज मुद्रा से जाप्य करे ।।८।।
प्रासनविधान दण्ड स्वस्तिक पङ्कजकुक्कुट कुलिशोच्च भद्रपीठानि । उदयार्क रक्त शशधर घूमहरिद्रासिता वरः ॥६॥
[संस्कृत टीका]-'दण्ड' दण्डासनं प्राकर्षण कर्मणि। 'स्वस्तिक स्वस्तिकासनं वश्यकमरिण । 'पङ्कज' पङ्कजासनं शान्तिकपौष्टिकयोः। 'कुक्कुट' कुक्कुटासनं विद्वेषणोच्चाटनायोः । 'कुलिश' वज्रासनं स्तम्भककर्मरिण । 'उच्चभद्रपोठानि' विस्तीर्ण भद्रपीठासनं निषेध कर्मणि। 'इत्येतान्यासनानि' षट्कर्मकरणे योजनीयानि ।
'उदयार्क' प्ररुणवरणं प्राकृष्टि कर्मरिण । 'रक्त जपाकुसुमवर्ण वश्यकर्मणि। 'शशधर' चन्द्रकान्तवर्ण शान्तिक पौष्टिकयोः । 'धूम' धूम्रवरणं विद्वषणोच्चाटनयोः । 'हरिद्रा' पीतवर्ण स्तम्भनकमरिण । 'असित' कृष्णावणं निषेध कर्मणि । इत्येवंविधा वर्णाः षटकर्मकरणे प्रयोक्तव्याः । इत्यासनवर्ण भेदाः कथिताः ॥६॥
[हिन्दी टीका]-दण्डासन से आकर्षण कर्म करे, स्वास्तिकासन स वशीकरण कर्म करे, शांतिक पौष्टिक कर्म करने के लिये कमलासन से बैठे, कुकुटासन स बैठ कर विद्वेषण, उच्चाटन क्रिया करे, वज्रासन से स्तंभन कर्म करे । भद्रासन से बैठ कर मंत्री (निषेध) मारण कर्म करे ।।
आकर्षरण कर्म के लिये बाल सूर्य के समान लाल रंग, वशीकरण कर्म के लिये एक दम लाल वर्ण, शांतिक और पौष्टिक कर्म के लिये चंद्रमा के समान वर्ण, विद्वेषरण और उच्चाटन कर्म के लिये धूम्रवर्ण, स्तम्भन के लिये हल्दी के समान रंग और मारण कर्म के लिये कालावर्ण का विचार करे ।।६।।
पलव विचार विद्वोषणाकर्षण चालनेषु हुं वौषडन्तं फडिति प्रयोज्यम् । वश्ये वषड् वैरिवधे च घे घे स्वाहा स्वधा शान्तिकपौष्टि के च ॥१०॥
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( २७ ) [संस्कृत टीका]-"विद्वेषणत्यादि' विद्वेषणे हूं इति पल्लवं प्रयोज्यम् । प्राकर्षण वौषड़न्तं प्रयोज्यम् । उच्चाटने फडिति पल्लवं प्रयोज्यम् । वश्ये कर्मरिण यषड् इति पल्लवं योज्यम् । वैरिवधे च घे घे इति पल्लवं योज्यम् स्तम्भने ठः ठः इति पल्लवं योज्यम् । 'स्वाहा' स्वाहेति पल्लवं शान्तिके योज्यम् । 'स्वधा' इति पल्लवं पौष्टिके योज्यम् । इतिषट्कर्मकरणे एते पल्लवा योजनीयाः ॥१०॥
[हिन्दी टीका]-पट् कर्म करने के लिये इस प्रकार पल्लवों की योजना करना चाहिये, विद्वेषण करना हो तो हुँ पल्लव लगाकर मंत्र जाप्य करे, आकर्षरण कर्म के लिये 'संवौषट्, पल्लव लगावे अथवा 'वौषट् लगावे, उच्चाटन कर्म में 'फट्' पल्लव का प्रयोग करें, वश्य कर्म के लिये 'वषट् पल्लव की योजना करे बैरी के वध में 'घे घे पल्लव लगाकर जा'य करे, स्तम्भन क्रिया में 'ठः ठः' का प्रयोग करे, शांतिक के लिये, स्वाहा का और पौष्टिक कर्म के लिये, स्वधा पल्लव का प्रयोग करके मंत्री को मंत्र का जाप्य करना चाहिये ।।१०।।
स्फटिक प्रवाल मुक्ताफल चामोकर पुत्रजीव कृतमणिभिः । अष्टोत्तर शतजाप्यं शान्त्याचथें करोतु बुधः ॥११॥
[संस्कृत टोका]-स्फटिककृतमरिणभिः शान्तिकमरिण। प्रवाल कृतमरिणभिः वश्याकर्षणयोः । मुक्ताफलकृतः पौष्टिक कर्मणि । 'चामीकर' सुवर्णकृतमरिणभिः स्तम्भन कर्मरिण । पुत्रजीवकृतमरिणभिः विद्वेषणोचाटन प्रतिषेधकर्मरिण । एतेषां कृतमरिणभिः । 'अष्टोत्तर शत जाप्य अष्टाधिक शतं जाप्यं 'शान्त्याद्यर्थ' शान्त्याद्यर्थे शान्तिकं आदि कृत्वा 'बुधः' प्राज्ञः 'करोतु कुर्यात् ॥११॥
हिन्दी टीका]-शांति कर्म के लिये, स्फटिक मरिण की माला, वशीकरण कर्म और पावर्षरण कर्म के लिये प्रवालमणि की (मुगा) माला को प्रयोग में लावे, पौष्टिक कर्म के लिये, सच्चे मोती की माला से जाग्य करे । स्तंभन कर्म के लिये सोने की माला से, विद्वेषण व उच्चाटन और मारण कर्म के लिये पुत्र जीवक मरिण की माला से बुद्धिमान मनुष्य १०८ बार जाप्य करे ॥११॥
जाप्य के लिये प्रगलिविधान मोक्षाभिचार शान्तिकवश्याकर्षेषु योजयेत् क्रमशः । अगष्ठाद्यङ्ग लिका मण्योऽङ्ग ष्ठेन चाल्यन्ते ॥१२॥
(संस्कृत टीका)-'अङ्ग ष्ठाद्यङ्गलिका' अङ्ग प्ठमादि कृत्वा अङ्ग लीः मोक्षादि कर्मसु योजयेत् । कथम्? 'क्रमशः कम परिपाट्या । 'मणयः' प्राक्कथितमणयः
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( २८ )
~
'ग्रङ्ग ष्ठेन चाल्यन्ते 'मोक्षार्थी प्रङ्ग ुष्ठेन पालयेत् । श्रभिचार कर्मरिण तर्जन्या, शान्तिक पौष्टिकयो: मध्यमाङ्ग, त्या, वश्य कर्मणि प्रनामिकाङ्ग ुल्या, आकर्षण कर्मरिण कनिष्ठाङ्ग ल्या चालयेत् ॥ १२ ॥
इति ग्रन्थानुसारेण दिक्कलादि मेदेन षट् कर्मणि व्याख्यातानि ॥
[ हिन्दी टीका ] - मोक्ष प्राप्ति के लिये अंगूठे से जाप्य करे, मरण कर्म के लिये तर्जनी से, शांतिक और पौष्टिक कर्म के लिये मध्यमागुलि से जाप्य करे, वश्य कर्म के लिये अनामिका को चलावे और आकर्षण क्रिया करने के उद्देश्य से कनिष्ठिका अंगुली से मंत्री जाप्य करे || १२ ||
पीतारुणासितैः पुष्पैः स्तम्भनाकृष्ट मारणे ।
शांतिक पौष्टिकयोः श्वेतैः जपेन्मंत्रं प्रयत्नतः ।। १३ ।।
प्रर्थः:-स्तम्भन कर्म में पीले पुष्पों से, श्राकर्षण के लिये लाल पुष्प, मारण कर्म में काले पुष्पों से, शांतिक श्रीर पौष्टिक कर्म के लिये सफेद पुष्पों से जाप्य करे ||१३||
महा देवि पद्मावती की सिद्धि करने का यंत्र इवानीं देव्याराधन गृह्य यन्त्रोद्धारो विधीयतेचतुरस्त्रं विस्तीर्णं रेखात्रयसंयुतं चतुर्द्वारम् । विलिखेत् सुरभिद्रव्यैर्यन्त्रमिदं हेमलेखन्या ॥१३॥
[ संस्कृत टीका ] - 'चतुरस्त्रं' समचतुरस्त्रम् | "विस्तीर्ण' विपुलं 'रेखाश्रय संयुतं' रेखात्रितय संयुक्तम् । 'चतुर्द्वारं' चतुर्द्वारान्वितम् । 'विलिखेत्' विशेषेण लिखेत् । 'सुरभिद्रव्यैः' कुमकुम कस्तूरिकादि सुगन्धि द्रव्यैः । 'यन्त्रमिदं' इदं देव्या गृह्यन्त्रम् । 'हेम लेखन्या' स्वर्णलेखन्या || १३ ||
[ हिन्दी टीका ] - देवी आराधना के यंत्र को सुगन्धित द्रव्यों से सोने की कलन लेकर लिखे । चौकोर विस्तार सहित तीन रेखाओं से संयुक्त चार द्वारों से सहित यंत्र बनावे ॥१३॥
यह तेरह नं० का श्लोक हस्तलिखित प्रति में नहीं है। इस श्लोक को सूरत से प्रकाशित भैरव पद्मावती करूप से उद्धरित किया है।
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( २९ ) मंत्र जाप्य करने के लिये पल्लवादि विधान का कोष्टक
१ | शान्ति कर्म पौष्टि कर्म वश्य कर्म आकर्षण कर्म २ | पश्चिम वरुण । नैऋत्य दिशा कुबेर दिशा उत्तर | दक्षिण यम् | दिशा
विशा ३ | अद्ध रात्रि प्रभात काल पूर्वान्ह काल पूर्वान्ह काल ४ | ज्ञान मुद्रा ज्ञान मुद्रा सरोज मुद्रा अंकुश मुद्रा ५ | पर्यङ्कासन पंकजासन स्वस्तिकासन दण्डासन
स्वाहा पल्लव स्वधा पल्लव वषट् पल्लय वौषट् पल्लव | श्वेत वस्त्र श्वेत वस्त्र अरुण पुष्प उदयार्क वस्त्र | श्वेत पुष्प श्वेत पुष्प रक्त वर्ण अरुण पुष्प | श्वेत वर्ण श्वेत वर्ण रक्त वस्त्र उदयार्क वर्ण परक योग पूरक योग
पूरक योग पूरक योग ११ / दीपन प्रादि नाम | वोपन आदि नाम | संपुट प्रादि मध्य | ग्रन्थन वरणांतरित
नाम
नाम स्फटिक मरिण । मुक्ता मरिण प्रवाल मणि प्रवाल मणि मध्यमांगुली मध्यमांगुली अनामिका
कनिष्ठका १४ । दक्षिरण हस्त दक्षिरण हस्त वाम हस्त . वाम हस्त १५ वाम वायु
वाम वायु वाम वायु
वाम वायु शरद ऋतु हेमन्त ऋतु वसन्त ऋतु
वसन्त ऋतु | जल मण्डल मध्य | जल मण्डल जल मण्डल अग्नि मण्डल १८ अद्ध रात्रि प्रभात काल पूर्वान्ह काल पूर्वान्ह काल
१०
नोट:-प्रत्येक दिन में २। घड़ी २॥ घड़ी क्रमशः पहों ऋतु समझना ।
सुगन्धित द्रव्य अर्थात् केशर, कस्तुरी, गोरोचल वा अष्टगंधादि से लिखे । धरणेन्द्राय नमोऽधच्छदनाय नमस्तथोदनाय । पद्मच्छदनाय नमो मन्त्रान् वेदादिमायाद्यान् ॥१४॥
[संस्कृत टीका]-धरणेन्द्राय नमः इति पूर्वद्वारपदम् । अधच्छदनाय नमः इति दक्षिण द्वार पदम् । 'तथा' तेन प्रकारेण । ऊर्ध्वछदनाय नमः इति पश्चिमद्वारपरम् । पप्रच्छदनाय नमः इति उत्तर द्वार पयम् । 'मन्त्रानेतान्' एतान् मन्त्रान् । कथम्भूतान्? 'वेदादिमायाद्यान्' उकारादि ह्रीं काराद्यान् ॥१४॥
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{ ३० । मंत्र जाप्य करने के लिये पल्लवादि विधान का कोष्टक
स्तम्भन कर्म मारग कर्म विद्वेषरण कर्म उच्चाटन कर्म पूर्वाभिमुख
उत्तर पूर्व के मध्य पूर्व दक्षिण मध्य पश्चिम उत्तर मध्य ईशान दिक आग्नेय दिक
वायव्य दिक पूर्वान्ह काल सन्ध्या काल मध्यान्ह काल अपरान्ह काल शंख मुद्रा वज्र मुद्रा
प्रवाल मुद्रा प्रवाल मुद्रा वज्रासन भद्रासन कुकुटासन
कुकुटासन ठः ठः पल्लव घे घे पल्लव हूँ पल्लव
फट् पल्लव पीत वस्त्र कृष्ण वस्त्र धूम्र वस्त्र
धूम्न वस्त्र पीत पुष्प कृष्ण पुष्प धूम्र पुष्प
धूम पुष्प पीत वर्ण कृष्ण वर्ण धूम्र वर्ण
धूम्न वर्ण कुम्भक योग रेचक योग रेचक योग
रेचक योग विदर्भाक्षर मध्य रोधन प्रादि मध्य पल्लवाँत नाम पल्लवान्त नाम नाम
नाम स्वण मरिग
पुत्र जीवा मरिग पुत्र जीवा मरिण पुत्र जीवा मरिण कनिष्ठका तर्जन्यंगुली तर्जन्यंगली
तर्जन्यंगुली दक्षिरण हस्त दक्षिरण हस्त दक्षिण हस्त दक्षिण हस्त दक्षिण वायु दक्षिण वायु दक्षिण वायु
दक्षिण वायु वसन्त ऋतु शिशिर ऋतु ग्रीष्म ऋतु
प्रावृट् ऋतु पृथ्वो मण्डल वायु मण्डल
वायु मण्डल
वायु मण्डल पूर्वान्ह काल संध्या काल मध्यान्ह काल अपरान्ह काल
[हिन्दी टीका]--ॐ ह्रीं सहित पूर्व द्वार पर धरणेन्द्राय नमः लिखे, इसो प्रकार दक्षिण द्वार पर प्रणव 'ॐ' और माया बीज 'ही' कार सहित अधोच्छदनाय नमः फिर पश्चिम दिशा के द्वार पर भी ॐ ह्रीं सहित उद्धं च्छोदनाय नम: लिखे, प्रणव और माया बीज सहित पद्मोच्छदनाय नम : उत्तर दिशा के द्वार पर लिखे । याने पूर्व में ॐ ह्रीं धरणेन्द्रायनमः दक्षिण में ॐ ह्रीं अधोच्छदनार नमः पश्चिम में ॐ ह्रीं पद्धच्छिदनाय नमः उत्तर में ॐ ह्रीं पद्मोच्छदनाय नमः इन मंत्रों को क्रमशः प्रत्येक दिशा के द्वार पर लिखे ।।१४।।
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प्रविलियंतान क्रमशः पूर्वादि द्वार पीठ रक्षार्थम् । दश दिक्पालान् विलिखेदिन्द्रादीन प्रथमरेखान्ते ॥१५॥
[सस्कृत टीका]-अस्मिन् श्लोके पूर्वार्धं पूर्वमेव सम्बन्धनीयम् । उत्तरार्ध उत्तरत्र सम्बन्धनीयम् । एतान्' प्राक्कथित-धरणेन्द्रादि द्वारपाल मन्त्रान् 'प्रविलिख्य' प्रकर्षण लिखित्वा 'क्रमशः' पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरकमेण । किमर्थम् ? 'पूर्वादिद्वारपीठ रक्षार्थम्' प्राच्यादि द्वार पीठ रक्षार्थम् ।
ॐ ह्रीं धरणेन्द्राय नमः इति प्राध्यां दिशि, उ ह्रीं अधच्छदनाय नमः इति दक्षिणस्यां दिशि, उ हो ऊर्ध्वच्छवनाय नमः इति पश्चिमायां दिशि, उह्रीं पद्मच्छदनाय नमः इति उत्तरस्यां दिशि, इति चतुरिपोठेषु लिखेत् । प्रथोत्तरार्ध व्याख्या-'दश दिक्पालान विलिखेत्' दश लोकपालान् सम्पग्लिखेत् । किमादीन् ? 'इन्द्रादीन्' इन्द्रप्रभृतीन् । 'प्रथम रेखान्ते प्राक् कथित रेखात्रयमध्ये प्रादि रेखान्ते ॥१५॥
[हिन्दी टीका]-पूर्वादि चारों दिशाओं के द्वारपीठ का रक्षरण के लिये मंत्रों को लिख कर, पहले कही हुई तीन रेखाओं से सहित जो यंत्राकृति है, उसकी प्रथम रेखाओं में क्रमशः दशदिक् पालों को लिखे ।।१५।।
लरशषवयसहवरान् सबिन्दुकानष्ट दिक्पत्तिसमेतान् । प्ररगयादि नमोऽन्तगतानो ह्रीं मधोवंच्छदनसंज्ञे च ॥१६
[संस्कृत टोका]-'लरशषवयसहवर्णान् लश्च रश्च शश्व पश्च वश्च यश्च सश्च हाच लरशषवयतहाः ते च ते वर्णाश्च लरशषवयसवर्णाः तान्, सबिन्युकान्' सह जिन्दुना वर्तन्ते इति सबिन्दुकाः तान् । पुनरपि कथम्भूतान्? 'अष्टदिक्षतिसमेतान्' अष्टलोकपालयुतान् । 'प्रणवादिनमोऽन्तगतान्' न केवलं लोकपालानेव, 'उह्रीं मधोवच्छदनसंज्ञे च' उही अधच्छदनाय नमः, ऊ होऊवच्छदनाय नमः इत सझे च ।
लोकपाल स्थापन क्रम :
उलं? इन्प्राय नमः इति प्राच्याम् । उ २२ अग्न्ये नमः इत्याग्नेय्याम । उँ शं३ यमाय नयः इति दक्षिणस्यां दिशि, उषं८ नंऋत्याय नमः इति मैऋत्यां
१ ल ल इति ख पाठः, २२ र इति ख पाठः, ३ शं शं इति त्र पाठ:, ४ घ र्ष इति ख पाठः ।
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( ३२ ) दिशि । ॐ वं वरुणाय नमः इति पश्चिमायां दिशि । ॐ यं वायवे नमः इति वायव्यां दिशि ॐ सं कुबेराय नमः इत्युत्तरस्यां दिशि । ॐ हं ईशानाय नमः इति ऐशान्यां दिशि । उ ह्रीं श्रधच्छदनाय नमः इत्यधः, ॐ ह्रीं ऊर्ध्वच्छ्दनाय नमः इत्यूवें लिखेत्, एवं दशदिक्पाल स्थापनक्रमः ॥१६॥
[हिन्दी टीका ] - जिसके प्रणव मंत्र (ॐ) आदि में और अन्त में 'नमः' इस प्रकार के अष्टदिक्पाल अनुस्वार सहित ल, र, श, ष, वय, स और ह को लिखे। फिर साथ में ॐ ह्रीं प्रधच्छदनाय नमः तथा ॐ ह्रीँ उर्ध्वच्छदनाय नमः भी लिखे ।
स्थापना क्रम इस प्रकार
ॐ ह्रीँ लं इन्द्राय नमः, पूर्व में, ॐ ह्रीं रं अग्नेय नमः, प्राग्नेय कोण में । ॐ ह्रीं शं यमाय नमः, दक्षिण में, ॐ ह्रीं षं नैऋत्याय नमः, नैकत्य दिशा में ! ॐ ह्रीं वं वरुणाय नमः, पश्चिम में, ॐ ह्रीँ यं वायव्ये नमः, वायवरयदिशा में । ॐ ह्रीं सं कुवेराय नमः, उत्तर में, ॐ ह्रीं हूं ईशानाय नमः, ईशान दिशा में ॐ ह्रीं प्रच्छदनाय नमः, नीचे की दिशा में । ॐ ह्रीं ऊर्ध्वच्छदनाय नमः, ऊपर की दिशा में लिखे ।
इस प्रकार दश लोकपालों के स्थापना का क्रम जानना चाहिये ||१६||
दिक्षु विविक्षु कभशो नयादि-जम्भादिदेवता विलिखेत् । नमोऽन्तगा मध्यरेखान्ते ॥ १७ ॥
प्रणवत्रिमूतिपूर्वा
[ संस्कृत टीका ]- 'विक्षु विविक्षु' दिशासु विदिशासु, 'क्रमश:' दिशाविविशाक्रमेण 'जयादिजम्भादि देवता:' चतुविशि जयादिदेवताः चतुविदिक्षु च जम्भादिदेवताः, कथम्भूता 'प्रणवत्रिमूर्तिपूर्वाः ॐ ह्रीं पूर्वाः पुनरपि किम्भूताः ? ' नमोऽन्तगाः' नमः शब्दावसानाः, वय ? 'मध्य रेखान्ते' प्राग्लिखित मध्य रेखान्ते विलिखेत् ॥ १७ ॥
[हिन्दी टीका ] उसके बाद माध्य की रेखाओं में और दिशा व विदिशाओं में क्रम से ॐ कार और ह्रीँ कार सहित नमः है जिसके अंत में ऐसी जयादि और जम्भादि देवियों के नाम लिखे ॥ १७ ॥
५ वं वं इति ख पाठः ६ यं यं इति पाठः ७ सं सं इति पाठ: हं इति पाठः ।
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प्राधा जया च विजया तथाऽजिता चापराजिता देव्यः । जम्मा मोहा स्तम्भा स्तम्भिन्यो वेवता एताः ॥१८॥
[संस्कृत टीका]-'प्राद्या' प्रथमा, 'जया च' जया नामा 'विजया' विजयानामा, 'तथा' तेन प्रकारेण, अजित नामा, 'च:' समुच्चये, 'अपराजिता वेव्यः' अपराजितेति दिग्देव्यः । 'जम्भा' जम्मानाम, 'मोहा' मोहानाम, 'स्तम्भा' स्तम्भानाम 'स्तम्भिनी' स्तम्भिनीति विदिग्देवताः एता प्रष्ट देव्यः ।
ॐ ह्रीं जये ! नमः इति प्राच्या विशि, ॐही विजये ! नमः इति
दक्षिणस्यां दिशि । उँह्रीं अजिते ! नमः इति पश्चिमायां दिशि । उँ हो अपराजिते ! नम : इत्युत्तरस्यां दिशि । उँ ह्रीं जम्भे ! नमः इत्याग्नेययां दिशि । उह्रो मोहे ! नमः इति नैऋत्यां दिशि । ऊँ ह्रीं स्तम्भे ! नमः इति वायन्यां विशि । जे हाँ स्तम्भिनि ! नमः इत्यैशान्यां दिशि लिखेत् । एवमष्ट देवीनां मध्यरेखा स्थापन क्रमः ॥१०॥
हिन्दी टीका]-उसमें प्रथम जया उसके बाद विजया, अजिता और अपराजिता ये चार देवियाँ चार दिशात्रों से लिखे और विदिशाओं में जंभा, मोहा, स्तंभा और स्तंभिनी देवियों के नामोल्लेख करे-इस प्रकार अष्ट देवियों के नाम लिखें।
लिखने का क्रम इस प्रकार से समझे :ॐ ह्रीं जयाय नमः पूर्व में । ॐ ह्रीं विजयायै नमः दक्षिणदिशा में । ॐ ह्रीं जम्भाय नमः आग्नेयमें । ॐ ह्रीं मोहायै नमः नैऋत्य में । ॐ ह्रीं अजितायै नमः पश्चिम में। ॐ ह्रीं स्तंभाय नमः वायव्य में । ॐ ह्रीं अपराजिताय नमः उत्तर में । ॐ ह्रीं स्तम्भिन्यै नमः ईशान में। यथावत् लिखे ॥१८॥ तन्मध्येऽष्टवलम्भोजमनङ्ग कमलाभिधाम् । विलिखेच्च पनगन्धां पद्यस्यां पद्ममालिकाम् ॥१६॥
[ संस्कृत टीका ]-'तन्मध्ये' प्रागलिखितरेखात्रयमण्डलमध्ये, 'प्रष्टइलाम्भोज' अष्टदल कमलं, 'प्रनङ्गकमलाभिधाम्' तत्पत्रावले अनङ्ग कमलानामा, 'विलिखेच्च' विशेषेण लिखेत्, 'पद्मगन्धा पगन्धानामाम्, 'पद्मास्याम्' पद्मास्यानामाम् 'पद्यमालिकाम्' पप्रमालानामधेयाम् ॥१९॥
हिन्दी टीका]-तीन रेखा रूप मंडल के मध्य में एक अष्ट दल कमल
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बनावे फिर उस कमल पत्र के दल में क्रमशः अनङ्ग कमला लिखे और विशेष रीति से पद्मगंधा, पद्मस्या और पद्ममालिका देवियों के नाम लिखे ।।१६।।
मदनोन्मादिना पश्चात् कामोद्दीपन संज्ञिकाम् । संलिखेत् पम्रवर्णाख्यां त्रैलोक्य क्षोभिणी ततः ॥२०॥
[संस्कृत टीका]-'मयनोन्मादिनां' मदनोन्मादिनीनामां, 'पश्चात्' तदनन्तरम् 'कामोद्दीपनसंज्ञिकाम्' कामोड्डीपन नाम्नीं 'संलिखेत्' सम्यग लिखेत्, 'पावरख्याम्' पशवर्णानामधेयां, "त्रैलोक्य क्षोभिणी ततः' अतन्तरं त्रैलोक्यक्षोभिणी लिखेत् ॥२०॥
| हिन्दी टीका]-उसके बाद मदनोन्मादिनी फिर कामोद्दीपन देवी का सम्यक् नाम लिखे तदनन्तर पद्मवर्णाख्या और त्रैलोक्यक्षोभिरगी का लेखन करे ।।२०।।
तेजो ह्रीं कार पूर्वोक्ता नमः शब्दावसानगाः । अकारादिहकारान्तान् केशरेषु नियोजयेत् ॥२१॥
[संस्कृत टीका--अस्य श्लोकस्य पूर्वाध पूर्व मेव सम्बन्धनीयम्, उत्तरार्धस्वत्र । 'तेजो ही कार' उँकार ह्री कार, 'पूर्वोक्ताः' पूर्वमुक्ता या दिशा प्रष्ट देध्यः ताः उँह्रीं कार पूर्वोक्ताः । किं विशिष्टाः ? 'नमः शब्दावसानगाः' नमः शब्दान्त्वगताः। प्रासामुद्धारः-उँ हो अनङ्ग कमलायै नमः, ऊँ ह्रीं पयगन्धायै नमः, ऊँ ह्रीं पास्याय नमः, उँ ह्री पद्ममालायै नमः, ऊँ ह्रीं मवनोन्मादिन्यै नमः, ऊँ ही कामोद्दीपनार्य नमः, ऊँ ह्रीं पद्मवर्णायै नमः, ऊँ हो त्रैलोक्य क्षोभिण्यै नमः, इति प्राच्याधष्टदलेषु स्थापनीयाः । इदानीमपराध कथ्यते--अकारादिहकारान्तान्' प्रकारमादि कृत्वा हकारपर्यन्तान, 'केशरेषु' कणिकाया मध्ये, 'नियोजयेत्' नियुक्त कुर्यात् ॥२१॥
[हिन्दी टीका]-इस श्लोक का पूर्व भाग पूर्व में समझना चाहिए । पहले ॐ ह्रीं आदि में लिने और अंत में नमः शब्द लगाकर क्रमश: अष्ट देवियों के अष्टदल कमल के प्रत्येकदल में नाम लिखे और फिर अंतदल में प्रकार मे लेकर हकार पर्यंत पराग के स्थान में केशरादि द्रव्यों से लिखे । उनके लिखने का क्रम :
१. ॐ ह्रीं अनङ्ग कमलाय नमः २. ॐ ह्रीं पद्मगन्धाय नमः ३. ॐ ह्रीं पद्मस्यायै नमः ४. ॐ ह्रीं पद्मभालायै नमः ५. ॐ ह्री मदनोन्मादिन्य नमः
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६. ॐ ह्रीं कामोद्दीपनाय नमः ७. ॐ ह्रीं पद्मवर्णाय नमः ८. ॐ ह्र बैलोक्य क्षोभिण्यै नमः
उसके बाद अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग ख ङ च छ ज झ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह तक अंतः करिणका में लिखे ।।२१।।
भक्तियुतो भुवनेशः चतुः कलायुक्त फूटमयदेव्याः । वर्ण चतुष्क नमो तास्थाप्याःप्राच्यांदि विक्षुपद्मवहिः।।२२।।
[संस्कृत टीका]-भक्तियुतः उँ कार युक्तः । कः भुवनेशः । ह्रीं कारः, चतुष्कला युक्तः । श्रां ई ऊ ऊ ऐ इति चतुष्कला युक्तः कः कूटः क्षकारः, अथक्षकारा नंतरं देव्या वर्णचतुष्कः । पद्मावतीति वर्ण चतुष्टयं, नमो तं नमः शब्दांत मंत्रः स्थाप्यः स्थापनीयाः। केषु प्राच्याविक्षु, पूर्वादि चतुदिक्षुः, क्व पद्मावहिः अष्टदलकमलवहिः प्रदेशे, ॐ ह्रीं क्षां प नमः, इति प्राच्यां, ॐ ह्रीं क्षी या नमः इति याम्यां, ॐ ह्रीं क्ष व नमः इति पश्चिमायां, ॐ ह्रीं क्षौं ती नमः, इत्युत्तरस्यां लिखेत् ॥२२॥
हिन्दी टीका-उस अष्टदल कमल के बाहर चारों दिशा में क्रमशः भक्ति माने ॐ से युक्त, भुवनेशः माने ही कार सहित तथा आ ई ऊ ऐ ये चार कला से सहित कुटाक्षर भाने क्षकार और अंत में नमः लगाकर पद्मावती चार वर्गों को स्थापन करे, इनका लेखन क्रमः
ॐ ह्रीं क्षां पद्मावती देव्यै नमः, पूर्व दिशा में । ॐ ह्रीं क्षी पद्मावती देव्य नमः, दक्षिण दिशा में । ॐ ह्रीं झू पद्मावती देव्यै नमः, पश्चिम दिशा में । ॐ ह्रीं . पद्यावती दव्यै नमः, उत्तर दिशा में ।।२२।। इसके लिए देखे यंत्र का चित्र नं. २ एतत्पद्मावती देव्या भवेद्वषत्र चतुष्टयम् । पञ्चोपचारतः पूजां नित्यमस्याः करोत्थिति ॥२३॥
[संस्कृत टीका]--एतत्पद्मावती देव्याः एतत्कथित पद्मावती देव्या इत्येवं करोतु ॥२३॥
[हिन्दी टीका-इस प्रकार ये पद्मावती देवी के चार मुख समान है, इस. लिये नित्य ही इनकी पञ्चोपचार पूजा करनी चाहिये ॥२३॥
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मंवाराधनाकेसमयपासरखनेकायंत्र
नं.३
कहाँधारणेद्राय नमः -----ॐले इन्द्राय नमः ॐ हो उबै छादनाय नमः
___ ॐ ही जये नमः ।...... भिनी नमः
___ ऊ हाँक्षीपनमः 1....
यनमः
ॐरं अM
ॐहीं
|Xनमः।
लयनमः
पना हाय
धनपफ
शारी
ऊही पावदनाय नमः
-ॐ संकुबेराय नमः - ॐ अपराजितनमः
ॐ ती नमः।
पहाअ
मामलाया
ॐ हक्षिी यानमः ___ अहाँ विजयेनमः ।
ॐशंयमायै नमः ॐही अधच्यवनाय नमः
-
6 नर
रबडच
FAQAltraa
-
शाकाहापा
नाय नमः
नमः
ॐ ह्री स्तर
ॐमंप
J ॐ हबिनमः --
ॐही अजिते नमः ॐवं वरुणायै नमः ॐ हाउद उन्दनाय नमः
Pae
है नमः। त्याय नमः
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पंचोपचारी पूजा आह्वानं स्नापनं देव्याः सन्निधीकरणं तथा । पूजा विसर्जनं प्राहर्बुधाः पञ्चोपचारकम् ॥२४॥
[संस्कृत टीका]-प्राह्वातं, देव्याह्वान, स्थापनं, सनिधीकरणं, देव्याः सन्निधीकरणं, तथा तेनैव प्रकारेण पूजा, देच्यार्चनं, विसर्जनं, देपाविसर्जनं । बुधाः पचोपचारकं, एतत्पंचोपकारक, प्राहुः कथयति ।।२४।।
[हिन्दी टीका-महादेवी का आवाहन, स्थापना, सन्निधीकरण करना, पूजन करना और विसर्जन करना-इनको विद्वानों ने पञ्चोपचार पूजा कहा है ।।२४।।
ॐ ह्रीं नमोस्तु भगवति एह्यहि संवौषट् । कुर्यादमुना मंत्रणाह्वानमनुस्मरन् देवीं ।।२५।।
[संस्कृत टीका]-ॐ ह्रीं नमोस्तु भगवतिपद्मावति ऐह्यहि संवौषद्धिति अनेन मंत्रेण अनुस्मरन्देवी, देवीं पद्मावती चित्तयन् देध्याह्वानं कुर्यात् ॥२५॥
हिन्दी टीका]-ॐ ह्रीं नमोस्तु भगवति एहि-२ संवौषट्-इस प्रकार मंत्र का चिन्तवन करता हुभा देवी का माह्वानन करे ।।२।।
तिष्टद्वितयं टांत द्वयं च संयोजयेत् स्थिती करणे । सन्निहिता भय शब्दं मम वषडिति सन्निधिकरणे ॥२६॥
[संस्कृत टीका]-तिष्टद्वितयं प्राक्कथित मंत्राने तिष्ट तिष्टेति पद द्वयं न केवलं तिष्ट तिष्टेसि पवयं. ठं, त द्वयं च ठकार द्वयं च, संयोजयेत्, सम्यक् योजयेत्, क्व स्थिति करणे, देव्यास्थाने, सन्निहिता भव शब्द, ममवषडिति प्राक्कथित मंत्रस्याने मम् सन्निहिते भव बडिति पदं योज्यं, सनिधी करणे देव्याभि मुखी करणे ॥२६।।
संस्कृत टीका]-पूर्वोक्त मंत्र के साथ तिष्ठ तिष्ठ पद को लिखे, उसके बाद ट. यः दोनों को भी लिखे, स्थिति करण के लिये, फिर देवी की स्थापना में मम् सन्निहितो भव २ वपट् इसको भी पूर्वोक्त मंत्र के आगे लिखे देवी को अभिमुख करने के लिये ॥२६॥
गंधादीन् गृह गृह ति नमः पूजा विधानके । स्वस्थानंगच्छगच्छेति जः त्रिस्वात्तद्विसर्जने ॥२७।।
[संस्कप्त टीका]-गंधादीन गह्नति नमः, प्राक्कथित मंत्रस्याग्रे गंधावीनं गृह गृह नमः। इति योज्यं, क्यपूजाभिधानके, देव्यार्चन, विधाने स्व स्थानं गच्छ
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गच्छति जः स्त्रि स्यात्, प्राक्कथित मंत्रस्याने स्व स्थानं गच्छ २ जः जः जः इति त्रिवारं योजयेत्, क्य विसर्जने, देव्याविसर्जने ।
___ मंत्रोद्धार-ॐ ह्रीं नमोस्तु भगवति पपावति एहो हि सँवो षडित्याह्वानं ॥१॥ ॐ ह्री नमोस्तु भगवति पद्मावति तिष्ठ २ ठः ठः इति स्थितिकरणं ॥२॥ ॐ ह्रीं नमोस्तु भगवति पद्मावति मम् सन्निहिता भव भवडिति सन्निधि करणं ॥३॥ ॐ ह्रीं नमोस्तु भगवति पद्मावति मंधादीन् गृल २ नमः । इति पूजाभिधानं । ॐ ह्री' नमोस्तु भगवति पद्मावति स्व स्थानं गच्छ २ जः जः जः, इति विसर्जनं ॥२७॥
[हिन्दी टीका] -ग्राह्वानन स्थापन और संनिधिकरण करने के बाद पूर्वो क्त मंत्र का उच्चारण करता हुआ जल, गंध, अक्षत, पुष्प, चरू दीप, धूप, फल, अध्य को समर्पण करता हुआ, गृह २ बोलता हुआ, पूर्वोक्त मंत्र के साथ स्वस्थानं गच्छ २ जः ३ इस प्रकार तीन बार कहे, देबी का विसर्जन करने के लिये ।।२७।।
पूजा मंत्र के लिये मंत्र रचना : मंत्रोद्धार :-ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति पद्मावति एहि एहि संवौषट्
ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति पद्मावति तिष्ठ २ ठः ठः, ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति पद्मावति मम्सन्निहिता भव २ वषट् ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति पद्मावति जलं, गृहारग २ गंध
ग्रहाण २ अक्षतं गृहारग २
आदि बोलकर पूजा करे, ॐ ह्रीं नमोऽस्तु भगवति पद्मावति स्वस्थानं गच्छ २ जः ३ इन उपरोक्त मंत्रों को बोलकर अाह्वानन, स्थापन, सनिधिकररग, पूजा फिर विसर्जन करे । इस प्रकार देवी की पूजा करे ॥२७॥
पूरक रेचक योगादाह्वान विसर्जनं करोतु बुधः । पूजाभिमुखी करणे स्थापन कर्माणि कुंभकतः ॥२८॥
[संस्कृत टोका]--पूरक रेचक योगाद् बुधः प्राज्ञः देध्याह्वानं करोतु, रेचक योगात् देव्याः विसर्जनं कुर्यात्, पूजाभिमुखी करणे, स्थापन कर्मारिण कुभकतः, देव्यार्चनं, देच्या सनिधीकरणे, देव्या स्थापन एतानि कर्माणि कुभ योगे कुर्यात् ॥२८॥
[हिन्दी टीका]-बुद्धिमान् मनुष्य पूरक योग से देवी का आह्वानन करे, रेचक योग से देवी का विसर्जन करे, कुभक योग से पूजाविधि और सन्निधीकरण स्थापना करे ।।२।।
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। ३६ । ब्रह्मादि लोक नाथं हूँ कारें व्योमषान्तमदनोपेतम् । पद्य च पद्म कटिनि नमोऽन्तगो मूलमन्त्रोऽयम् ॥२६॥
[संस्कृत टीका]-ब्रह्मादि ॐ कारादि लोक नाथं ह्रीं कारं ह्र कारं ह्र इति बीजं, व्योम हकारं कथं भूतं, षांत मदनोपेतं, षांतः स्यांतः सकारः मदनः ल्को कारः प्राभ्यायुतं, षांत मदनोपेतं, एवं हल्की मिति, पनापद्मतिपवं, च समुच्चये, पन कटिनो, पद्म कटिनीति पदं नमोंतगतः, अंते नमः इति पदं, मूल मंत्रोयं, अयं पद्मावती देव्यामलमंत्री ज्ञातव्यः ।
मंत्रोद्धार :-- ॐ ह्रीं ह्र हल्को पद्मोपद्म कटिनि नमः ॥२६।।
[हिन्दी टीका]-पहले ब्रह्म माने ॐ कार, लोक नाथ माने मायाबीज ह्रीं कार, है आकाशबीज माने ह्र. कार, प का अंत सकार कामबीज माने की कार मिलकर हल्की, पद्म पद्मकटिनि और नमः शब्द है अंत में जिसके ऐसा यह मूल मंत्र है।
मूलमंत्र :- ॐ ह्रीं ह्र हल्की पद्म पद्म कटिनि नमः ।।२।। सिध्यति पद्यादेवी त्रिलक्ष जाप्येन पद्मपुष्पाणाम् । अथवारुण करवीरक संवृत पुष्प प्र जाप्येन् ॥३०॥
[संस्कृत टीका]-सिध्यति सिध्दा भवति, का पनादेवी पद्मावती देवी, केन त्रिलक्ष त्रितय जाप्येन, एषां पद्मपुष्पाणां, शहस्त्र पत्राणां, अथवा रक्त करणवीर तान्वित प्रसून जाप्येन् सिद्धा भवति ॥३०॥
[हिन्दी टीका]-इस मंत्र का कमल के फूलों से तीन लाख जाप्य करने से मंत्र सिद्ध होता है, कमल फूलों के अभाव में लाल कनेर के डाली सहित फूलों से तीन लाख जाय करने से पद्मावतो देवी सिद्ध होती है ॥३०॥
ब्रह्म माया च हंकारं व्योम क्ली कार मूर्धगम् । श्री च पा! नमो मन्त्रं प्राविधा षडक्षरोम् ॥३१॥
[ संस्कृत टोका ]-'ब्रह्म' कारः, 'माया' ही कारः, चंः' समुच्चये 'ह' कारं' ह मिति बीजम 'व्योम' ह कारः, कथम्भूतं व्योम ? 'क्ली कार मूर्धगम् क्ली कारोपरिस्थितम् एवं हस्क्ली मिति, 'श्री च' श्रीमिति बीज च, 'पने पद्म! इति पदम्, 'नमः' नमः इतिपदम्, 'मन्त्र' इमं कथितं मन्त्रम् 'विद्या षडक्षरोम् षडक्षरीमिति विद्या 'प्राहुः' प्रकर्षेण पाहुः ।
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मन्त्रोद्धार :- ह्रीं ह ह्रस्फ्लो " श्री पद्म ! नमः । इतिषडक्षरमन्त्रः ॥३१॥
[हिन्दी टीका]-ब्रह्म ॐ कार माया ही कार, ह्रकार हल्की और श्रीं बीज पद्म, यह पद और नमः इस पद से बना हुआ इस मंत्र को मंत्रवादी षडक्षरी मंत्र कहते हैं।
मंत्रोद्धार :-"ॐ ह्रीं ह्रह क्ली श्री पद्मनमः ।" ।।३१।। वाग्भवं चित्त नाथं च हौ कारं षान्तमूर्धगम् । बिन्दुद्वययुतं प्राविबुधात्यक्षरीमिमाम् ॥३२॥
[संस्कृत टीका] 'वाग्भव' ऐकारम्, 'चित्तनाथ' ल्को कारम्, 'चः' समुच्चये, 'होकारं' हौमिति अक्षरम्, कथम्भूतम् ? 'षान्तमूर्धगम् षकारस्यान्तः सकारः तस्यमूर्धगं सकारोपरिस्थितम्, 'बिन्दुययुतं' विसर्ग संयुतम्, एवं हसौः इति बीजम्, 'त्र्यक्षरीमिमाम्' इमां यक्षरीविद्या, "विबुधाः प्राजाः, 'प्राहुः' प्रकर्षण पाहुः ॥३२॥
_[हिन्दी टीका]-वाग्भवं माने ऐ कारं चित्तनाथं माने ल्की कारम् ह्रौं कारं, उसके बाद आये हुए सकार और विसर्ग सहित ह्रसौ यह बीज इस मंत्र को विद्वानों ने तीन अक्षर का मंत्र है।
मंत्रोद्धार :- ॐ ऐं क्लीं ह्रसां नमः ।।३२।। वन्तिः पार्थजिनो यो रेफस्तलगतः स धरणेन्द्रः। तुर्यस्वरः सबिन्दुः स भवेत् पद्मावतीसंज्ञः ॥३३॥
[संस्कृत टोका]-'वर्णान्तः' हकार, सहकारः 'पार्श्वजिनः' पार्श्वजिन संज्ञो भवति । 'यो रेफः तलगतः' यस्तलगतो रेफः 'स धरणेन्द्रः' धरणेन्द्र संज्ञो भवति । 'तुर्यस्वरः' चतुर्थस्वरः-ईकारः, 'सबिन्दुः' अनुस्वारयुतः स भवेत् पद्मावती संज्ञः' स पद्मावती देवी संज्ञा भवति । एवं ह्रीं इत्येकासरी विद्या ॥३३॥
[हिन्दी टीका]-वर्षों के अंत में का हकार, वह हकार पार्श्वनाथजिन संज्ञा का वाचक है, उस हकार के नीचे, रेफ वह रेफ धरगोन्द्र संज्ञा वाला होता है, चौथा नंबर का स्वर, याने ई कार वह बिन्दु अनुस्वार युक्त बह पद्मावती संज्ञा वाला है, इस प्रकार से बनने वाले मंत्र को एकाक्षरी मंत्र कहा है।
मंत्रोद्वार :-'ॐ ह्रीं नमः ।' यह एकाक्षरी विद्या है ।।३३।।
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१ कामरजं च इति स पाठः ।
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( ४१ >
त्रिभुवनजनमोहकरी विद्ये यं प्रणवपूर्वनमनान्ता
एकाक्षरीति संज्ञा जपतः फलदायिनी नित्यम् ||३४||
[ संस्कृत टीका ] - 'त्रिभुवन जनमोहकरी' त्रैलोक्य जन मोहकरी भवति 'विद्ययम्' इयं कथिता विद्या । कथम्भूता ? 'प्रणव पूर्वनमनान्ता' उकार पूर्व नमः शब्दान्ता । किं नामा ? 'एकाक्षरीति संज्ञा' एकाक्षरी नामधेया । 'अपसः फलदायिनो नित्यम्' सर्वकालं जाप्यं कुर्वतः फलदायिनी भवति ||३४||
[ हिन्दी टीका ] - यह एकाक्षरी मंत्र तीनों लोकों को मोहित करने वाला है और जाप्य करने वाले मंत्री को हमेशा (नित्य) फल देने वाली विद्या है ||३४||
होमविधि
इदानीं होमक्रम कथ्यते :
तरवावृत नाम विलिख्य पत्रे तद्धोमकुण्डे निखनेत् त्रिकोणे । स्मरेषुभिः पञ्चभिराभिषेष्टय बाह्य पुनर्लोकपति प्रवेष्ट्यम् ॥ ३५ ॥
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[ संस्कृत टीका ] ' तत्वावृतम्' होकार देष्टितम् । किंतत् ? 'नाम' देवदत्तनाम | 'विलिख्य' लिखित्वा । क्व? 'पत्रे' ताम्रपत्रे कि कृत्वा ? ' स्मरेषुभिः' कामबारः । कतिङख्यं ? 'पञ्चभिः । एवं ह्रीं ह्रों' क्ली" ब्लू सः एतंः 'आऽभिवेष्ट्य' श्री समन्ताद् वेष्टयित्वा । 'पुनः' पुनरपि । 'बाह्य' नाम बाह्य' । लोकपतिप्रवेष्टयम् ह्रो कारवेष्टितं कृत्वा । 'तद्धोम कुजे' तत् ताम्प्र पत्र यन्त्र होम कुण्ड मध्ये । कथं भूते ? त्रिकोर' sunt | 'निखनेत्' पूरयेत् ||३५||
[ हिन्दी टीका | - ताम्रपत्र पर नाम लिख कर उस नाम को ह्रों से वेष्टित करे याने ह्रीं के मध्य में नाम लिखे, फिर चारों तरफ से कामबाण, द्राँ द्रीँ क्लीँ ब्लू सः ये पांच लिखे, उसके बाद ह्रीँ से वेष्टित करे, इस यंत्र को त्रिकोण होम कुण्ड में गाड़ देवे ||३५||
मधुरत्रिक सम्मिश्रित गुग्गुलकूतचणकमात्र वटिकानाम् । त्रिशत्सहस्त्र होमात् सिध्यति पद्मावती देवी ||३६||
[ संस्कृत टीका ] - 'मधुरत्रिक सम्मिश्रित वृत्त दुग्धशर्करा संयुक्त, 'गुग्गुलकृत' खक्षधूपकृत, 'चरणकमात्रवटिकानाम्' 'त्रिशत्सहस्र होमात्' त्रिशत्सहस्त्रसङख्य घटिकानां हवनात् । 'सिध्यति' सिद्धा भवति । का? 'पद्मावती देवी' फरिशेखरा देवी ||३६||
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४
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होमकुण्डमें गाड़नेकायंत्रनं.४३
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( ४३ )
[हिन्दी टीका ] फिर घी, दुध, शकर से संयुक्त गुग्गुल को चने के बराबर ३०,००० तीस हजार गोली बनावे, इन गोलियों से होम करे, पद्मावती देवी सिद्ध होती है || ३६ || यंत्र चित्र नं ४ देखे ।
मन्त्रस्यान्ते नमः शब्दं देवताराधना विधो ।
तदन्ते होमकाले तु स्वाहा शब्दं नियोजयेत् ||३७||
[ संस्कृत टोका ]- मंत्रस्यान्ते' मन्त्रपरिसमाप्तौ । 'नामः शब्द' नमः इति वाक्यम् । श्व? 'देवताराधनाविधौ देव्या मन्त्राराधनविधाने संयोजयेत् । 'तु' पुनः । ' तदन्ते' मन्त्राराधनान्ते । होमकाले' हवन समये । 'स्वाहा शब्द' स्वाहेतिशब्दम् । 'नियोजयेत्' संयोजयेत् ॥ ३७॥
[ हिन्दी टीका ] - मंत्र के अन्त में नमः । शब्द लगाकर जाप्य व रे, फिर होम करने के समय मंत्र के अन्त में स्वाहा शब्द लगाकर होम करे, तब सिद्धि हो जाती है ||३७||
धरणेन्द्र यक्ष को साधनविधि
शलक्षजाय होमात् प्रत्यक्षो भवति पार्श्वयोऽसौ ।
न्यग्रोध मूलवासी श्यामाङ्गस्त्रिनयनो नूनम् ॥ ३८ ॥
[ संस्कृत ठीक। ] - ' दशलक्ष जाप्यहोमात्' दशलक्ष जाय हवनात् । 'प्रत्यक्षो भवति' साक्षात् प्रत्यक्षो भवति । कः ? 'पार्श्वयक्षोऽसौ' असौ पाश्वतामधेयो यक्षः । कथंभूतः ? 'न्यग्रोधमूलवासो' वटवृक्षमूलवासी । किंविशिष्टः ? 'श्यामाङ्गः ' पुनः कथंभूतः ? 'त्रिनयतः ' त्रिनेत्र: । 'नूनम्' निश्चितम् ||३८|| मन्त्र :- ॐ ह्रो पार्श्वयक्ष ! दिव्य रुपे महर्षस्य एहि एहि उ कों ह्रीं नमः ॥ यक्षाराधनविधान मन्त्रोऽयम् ||३८||
| हिन्दी टीका ] - धरोन्द्र यक्ष के मंत्रो का दश लाख जाप्य करने से ववृक्ष के ऊपर रहने वाले पार्श्वयक्ष जो की काला रंग वाला, और त्रिनेत्र वाला है, उसयक्ष की सिद्धि होती है, होम १,००,००० एक लाख मंत्रों से करे । याने १०,००० दशलक्ष जाय से और एकलक्ष मंत्र होम से वरन्द्रयक्ष की सिद्धि होती है ||३८||
१. रुप इति पाठः । २ दर्पण इति पाठः ।
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{ ४४ । मंत्रोद्धार :-ॐ ह्री पार्श्वयक्ष दिव्य रूप महर्षण एहि-2 ॐ को ह्रीं नमः। यह यक्षाराधना मंत्र है।
निजसन्यायामय समुच्छितरिलोकमप्रस्थम् ।। विमुखीकरोति पक्षः सड-ग्रामें निमिषमात्रेण ॥३६॥
[संस्कृत टीका]-'निजसैन्यः' स्थकीयसैन्यैः । कथम्भूतैः ! 'मायामयसमुच्छितः' ह्रौं कारकृतप्राकार सम्यगुच्छितः । 'वरिलोकम् शत्रुसेनासमूहम् । कथंम्भूत? 'प्रप्रस्थम्' स्वकीयसैन्यपुरः स्थितम । 'विमुखीकरोति' पराड मुखी फरोति । कोऽसौ ? 'यक्षः' पार्श्वयमः । क्व? 'सङग्राम' रागभूमी। कथन् ? 'निमिषमाग' क्षणमात्रेण ।।३६॥
[हिन्दो टोका]-पह यक्ष अपनो मायामय सेना बनाकर, बड़ी भारी शत्रु सेना को भी क्षण मात्र में जीत लेता है। युद्ध भूमि में आये हुए बड़ी सेना भी क्षण भर में ही भाग जाती है। माया हो कोट के प्रभाव से ।।३।।
सान्त बिन्दूर्ध्वरेफ बहिरपि विलिखेवायताष्टाजपत्रं । विश्वं श्रओं हो स्मरेशो गजवशकरणं ह्रौ तथा ब्लै पुन । बाह्म ह्रोमो' नामोऽहं दिशि लिखित चतुर्बोजकं होमयुक्त
मुक्ति श्री बल्लभोऽसौ भुवनमपि वशं जायते पूजयेद् यः ॥४०॥
[संस्कृत टीका]-'सान्तम्' सकारस्यान्तं हकारम् । कयंभूतम्? बिन्दूर्ध्वरेफम्' अनुस्वार-ऊर्ध्वरेफान्वितम् । एवं ह" इति बीजं विलिखेत् । 'अहिरपि' हमक्षरबहिः प्रदेशे । 'विलिखेत' विशेषेण लिखेत । किम्? 'पायताष्टाब्ज पत्रम् विस्तीरष्टिाम्भोज पत्रम् । 'विक्षु तत्पप्राच्यादि चतुर्दिशासु । 'ऐं श्री ही स्मरेशः' पूर्वदले ऐं इति, दक्षिणदले श्री इति, पश्चिमवले ह्रो इति, उत्तरदले कली इति एवं लिखेत् । 'गजवाकरणं हो' तथा ब्ले पुन!' इति विदिक चतुर्दलेषु द्विपवशकरणं प्राग्नेयदले को इति, नैऋत्यदले हौ इति । तथा' तेन प्रकारेण वायव्यदले ब्लें इति । 'पुनयू पश्चादीशानवले यू" इति लिखेत् । 'बाह्म हां" तद्यन्त्रबहिः ह्रीं करण वेष्टयेत् । उनमोह विशि लिखित चतुर्भोजकम्' उनमोऽहमिति पदे प्राच्याविचतुर्दिशासु लिखितं ऐं श्री ह्रीं क्ली' इति चस्वारि बोजानि । 'होमयुक्त' स्वाहाशब्दयुतम् । एवं उनमोऽहं ऐं श्री क्ली स्वाहेति मन्त्रः । 'मुक्त श्री बल्लभोऽसौ भुवनमपि वशं जायते पूजयेद् यः'
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( ४५ )
एतचिन्तामणिनाम यन्त्रं यः पूजयेद्, सौ पुमान् मुक्त्यङ्गनाप्रियो भवति । 'भुवनपि' लोकोऽपि । 'वशं जायते' वशीभवति ॥
इत्युभयभाषाकदिशेखर श्री मल्लिषेण सूरिविरचिते
भैरव पद्मावती कल्पे देव्याराधनविधिर्नाम
तृतीय. परिच्छेदः ||
[ हिन्दी टीका | -विन्दु और रेफसे सहित हकार यानी हैं बीज को लिखकर उसके बाहर आठ पांखुड़ी का कमल बनावे उस कमल के चारों तरफ से चारों दिशाओं के दलों में ऐं श्रीं ह्रीं और क्ली को लिखे, फिर विदिशात्रों के दलों में क्रीं ह्रौं ब्लें को लिखकर उस यंत्र के बाहर के भाग को हीँ कार से वेप्टिल करे, फिर पूर्वादि चारों दिशाओं में ॐ नमोऽहं ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं स्वाहा, मंत्र से वेष्टित करे । इस प्रकार चिन्तामरिण यंत्र की जो कोई पूजन करता है उस मनुष्य के वश में संपू लोक रहता है और मोक्षलक्ष्मी भी वश में रहती है | यंत्रचित्र नं. ५
ओर
इस प्रकार दोनों भाषा के कवि शेखर श्री मल्लिषेण सूरिविरचित भैरव पद्मावती कल्प में देवी आराधनाविधि की हिन्दी विजया टीका समाप्त ।
मुक्तिमिद्धसि चेतात विषयान्विषत्त्यज । क्षमार्जवदया - शौचं सत्यं पीयूषवति ||
अर्थ :- हे भाई! यदि मुक्ति चाहते हो तो विषयों को विष के समान छोड़ दो। और क्षमा, सरलता, दया, पवित्रता और सत्य को अमृत के समान पान करो ।
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6. 00
ॐनमोऽहएँ औं हाँ क्लॉस्वाहा।।
Amain
ॐनमोऽर्हरौं श्रीं ह्रीं क्लाँस्वाहा।
नमोऽहं एँ औँ हाँ क्लस्वाहा।
wormanand
ॐनमोऽहं रौं श्री ह्रीं क्लीं स्वाहा।
श्रीचिंतामणियंत्रन-५,
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। ४७ ) चतों द्वादश रञ्जिका मन्त्रोद्धारपरिच्छेदः हादश पत्राम्बुरुहं मलवर ५ कार संयुतं कूटम् । तन्मध्ये नामयुतं विलिखेत् क्ली कार संरुद्धम् ॥१॥
[संस्कृत टीका]-'द्वादशपत्राम्बुरुहं' द्वादश पत्रान्वितं पद्मम् । कथम्भूतम् ? 'मलवरयू कार संयुतम्' मश्च लश्च यश्च यूकारश्च मलवरयू काराः सेः संयुतम् । किम् ? 'कुटम्' क्षकारम् । एवं क्षम्ल्यू इति । 'तन्मध्ये नाम युतम्' म्ल्यू मध्ये देवदत्तनाम युतम् । 'विलिखेत्' विशेषेरग लिखेत् । कथम्भूतम् ? 'पली कार संरुद्धम्' तस्पिण्डोभयपाल कली कार निरुद्धं लिखेत् ॥१॥
हिन्दी टीका]-एक बारह दल का कमल बनावे, बीच की करिणका में नाम सहित मला क्ली कार से रुके हुये लिखे । यानी क्षम्ल्यू के दोनों तरफ क्ली कार लिखे ॥१॥
बिलिखेज्जयादि देवी स्याहान्तौ कार पूविका दिक्षु । झभ महपिण्डोपेता विदिक्षु जम्भादि कास्तद्वत् ॥२॥
[संस्कृत टीका]-'विलिखेज्जयादि देवीः' जयादि चतुर्वेवता विलिखेत । क्व ? 'दिक्षु' चतुर्दिशासु । 'स्वाहान्तौ कारपूचिकाः' उँ जये ! स्वाहा इति पूर्व वले, उँ विजये ! स्वाहा इति दक्षिण दले, उँ अजिते ! स्वाहा इति पश्चिम दले, उ अपरा. जिते ! स्वाहा इत्युत्तरपले विलिखेत् । 'झभ महपिण्डोपेताः' । झश्च भश्च मश्च हश्च भभमहा: तेच ते पिण्डास्तरुपेताः झममहपिण्डोपेताः । क्व ? 'विदिक्ष' विदिशासू । काः ? 'जम्भादिकाः' जम्भादी चतुर्देवीः । तद्वद्' यथापूर्व स्वाहातो कारपूर्षिकाः । ॐ भव्यू जम्भे ! स्वाहा इत्याग्नेच्यां दिशि, उँ भम्ल्यू मोहे ! स्वाहा इति नैऋत्यदले, उ मम्ल्यू स्तम्भे ! स्वाहा इति बायव्यदले, वे हम्लयूं स्तम्भिनि! स्वाहा इति ईशानदले लिखेत् ॥२॥
[हिन्दी टीका]-आदि में ॐ और अंत में नमः शब्द लगाकर पूर्व आदि दिशाओं के दलों में जम्भादि देवियों का नाम लिखे और विदिशानों में भ भ म ह के पिण्डों सहित लिखे । यानी पीडाक्षरों को जम्भादि देवियों को लिखे ।।२।।।
मंत्रोद्धार :-कमल के वारह दलो में मंत्र सहित देवियों के नाम व पिण्डाक्षरों के नाम लिखने का क्रम ।
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( ४८ )
CV
पूर्व दिशा की पांखुड़ी में, ॐ जयायै स्वाहा । अग्निदिशा की पांखुड़ी में ॐ इम्ल्यू जम्भायै स्वाहा । दक्षिणदिशा के ( दल में ) पांखुड़ी में ॐ विजयायै स्वाहा । नैऋत्य के ( दल में ) पांखुड़ी में ॐ भल्दा मोहाय स्वाहा । पश्चिम दिशा के ( दल में ) पांखुड़ी में, ॐ प्रजितायै स्वाहा । वायव्य दिशा के ( दल में ) पांखुड़ी में ॐ " स्तम्भायै स्वाहा | उत्तर दिशा के ( दल में ) पांखुड़ी में ॐ अपराजितायै स्वाहा । ईशान दिशा के ( दल में ) पांखुड़ी में, ॐ हल्का " स्तम्भिन्यै स्वाहा | इस प्रकार से लिखे ।
उद्धरितदलेषु ततो मकरध्वजबोजमालिखेच्चतुषु । गजवशकरण निरुद्ध कुर्यात् त्रिर्मायया वेष्टयम् ||३||
[ संस्कृत टोका ] -- 'उद्धरित वलेष ततः' तस्मादष्टपत्र लेखनान्तरं उद्धरित - दलेषु । कति संख्योपेतेषु ? 'चतुषु'' चतुः संख्येषु । 'मकरध्वज बोजमालिखेत्' क्लो कार बीजमालिखेत् । 'गजवशकररनिरुद्ध को फारनिरुद्धम् । त्रिर्मायया वेष्टयम्' पत्र बाह्य ह्रकारे त्रिधा वेष्टितम् । 'कुर्यात् करोतु ॥३॥
[ हिन्दी टीका ] - दिशा विदिशाओं के दलों का मंत्रोद्धार कर लेने पर मकरध्वज बीज को लिखे, मकरध्वज बीज माने क्लीं कार बीज को लिखे फिर अंकुश बीज, यानी क्रौं कार बीज से निरूद्ध करे, फिर ही कार रूप मायाबीज से तीनबार वेष्टित करे ॥३॥
सूर्ये सुरभिद्रव्यैविलिख्य परिवेष्टय रक्तसूत्रेण । निक्षिप्य सुल्वभाण्डे ? मधुपुरों मोहयश्यबलाम् ||४||
[ संस्कृत टीका ] - 'भूर्ये' सूर्यपत्रे । 'सुरभिद्रव्यैः' कुङ माविसुगन्धद्रव्यैः । 'विलिख्य' एतद् मन्त्रं लिखित्वा । परिवेष्टय रक्तसूत्रेण' रक्तसूत्रेण वेष्टयित्वा । 'निक्षिप्य' संस्थाप्य । क्व ? 'सुत्वभाण्डे' प्रपववभाण्डे । कथम्भूते ? मधुपूर्ण' माक्षिक पूर्णे । 'मोहयत्यबलाम्' अबला वनिता तां मोहयति ॥४॥
श्रस्य मूल मन्त्रोद्वारः :
१ कनक इति पाठः ।
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( ४६ ) उँ पल्ब्यू क्लीजये ! विजये ! अजिसे ! अपराजिते ! म्यू जम्मे ! भव्यू मोहे ! म्म्ल्यू स्तम्भे ! हम्ल्यू स्तम्भिनि ! क्ली ह्री को वषट् ।। मोहन क्ली रञ्जिकायन्त्रम् ॥
[हिन्दी टीका]-इस यंत्र को भोजपत्र पर सुगन्धित द्रव्यों से लिखकर लाल धागों से यंत्र को लपेटकर मधु से भरे हुये कुम्हार के कच्चे घड़े में रखने से स्त्री को मोहित करता है ।।४।। (१) मंत्र का उद्धार :-ॐ क्षम्ल्व्य क्लीजये विजये, अजिते, अपराजिते इम्ल्य
जम्भे भव्य मोहे म्म्य स्तम्भेसब्यस्तम्भिनि बली'ह्रीं क्रो वषट् ।
इस प्रकार मंत्र का श्वेताम्बर प्रति में भी मंत्र पाठ है। (२) दूसरे नं० का मंत्रपाठ इस प्रकार है, स्तम्भिनी के बाद अमुक मोहय २ मम्
वश्यं कुरु २ स्वाहा । यह पाठ दिगम्बर हस्तलिखित प्रति में है । (३) तीसरे नं० मंत्रपाठ इस प्रकार है, स्तम्भिनि के बाद अमुकं मोहय २ मम वश्यं
कुरु २ प्रां ह्रीं क्रों वषट् । यह पाठ कापड़िया जी के यहाँ से प्रकाशित भैरवपद्मावतीकल्प में है।
इन तीनों में मेरे निर्णयानुसार यह मंत्र इस प्रकार बनेगा।
ॐक्षाल्ल्य* क्ली जये विजये अजिते अपराजिते इमलव्य" जम्भे भव्य मोहे म्म्ल्यास्तम्भे झल्व्य स्तम्भिनि अमुकं मोहय २ मम वश्यं कुरु २ (आँ) क्लीं ह्री को वषट् ।
इति मोहन क्ली रजिका यंत्र । स्त्रीकपाले लिखेद् यन्त्रं क्ली स्थाने भुवनाधिपम् । त्रिसन्ध्यं तापयेद् रामाकृष्टिः स्यात् खादिराग्निना ॥५॥
[संस्कृत टीका]-'स्त्रीकपाले' वनिताकपाले । 'लिखेद् यन्त्रं प्राक्कथितयन्त्रं लिखेत् । क्लो स्थाने' क्लो कार स्थाने । कम् ? 'भुवनाधिपम्' ही कार लिखेत् । "त्रिसन्ध्यं त्रिकालम् । 'सापयेत्' तापनं कुर्यात् । 'रामाकृष्टिः स्यात्' वनिता कर्षणं भवेत् । केन ? 'खादिराग्निना' खदिरकाष्टाग्निना । ठ्याकर्षणे ही रञ्जिकायन्त्रम् ॥५॥
[हिन्दी टीका]-स्त्री के कपाल (खोपड़ी) पर, इस यंत्र को सुगन्धित द्रव्यों से लिखे, पहले लिखे यंत्रानुसार, मात्र क्ली के स्थान पर भुवनाधिप बीज लिखे, यानी ही कार बीज लिखे, फिर खदिर (खोर) की अग्नि से त्रिकाल उस यंत्र को तपाये तो स्त्री का आकर्षरण होता है ।।।। स्त्री आकर्षण का यह ह्रीं रंजिकायंत्र है चित्र नं० ७ देखे ।
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( ५० }
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स्वाहा जम स्वाहा इम्यूँ
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ॐ मम्ल्यू स्वाहा
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मोहनक्की रञ्जिका यंत्र चित्रनं • ६
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हाँरनिका यंत्र चित्रनं.७४
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प्रतिषेधकर्ममेंहुँनिकायंत्रनं.८
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( ५३ )
मायास्वानेच हुंकारं विलिखेन्नर चर्मरिण ।
तापयेत् क्ष्वेडरक्ताभ्यां पक्षाहात् प्रतिषेधकृत ॥ ६ ॥
1
[ संस्कृत टीका ] - 'माया स्थाने' ह्रो कार स्थाने । 'च' समुच्चये । कम् ? 'हुंकारम्' हुं इति बीजम् । 'विलिखेत्' लिखेत् । क्व ? 'नरचर्मरिण' मनुष्य चर्मणि लिखेत् । काभ्याम् ? ' क्ष्वेडरक्ताभ्यां विषगबंभरुधिराभ्याम् । 'तापयेत्' पूर्ववत् तापयेत् । 'पक्षाहातू' पक्षमध्ये 'प्रतिषेधकृत् प्रतिषेधकारि भवति ॥
प्रतिषेधकर्मणि हरञ्जिकायन्त्रम् ॥१६॥
| हिन्दी टीका | - इस यंत्र को मनुष्य चर्म पर विष और गधे के रक्त से लिखकर पंद्रह दिन तक तपावे तो प्रतिषेध होता है । मात्र पूर्वोक्त यंत्र में जो विधि लिखी है उसी समान लिखे किन्तु ह्रीं के स्थान पर हुं लिखे । यंत्र चित्र नं ८ प्रतिषेधकर्मका रञ्जिकायंत्रम् ||६||
हुस्थाने मान्तमालिस्य सरेकं नामसंयुतम् । विभीतफलके यन्त्रं द्वयोरपि च मर्त्ययोः ॥७॥
[ संस्कृत टीका ] - 'हुस्थाने' प्राङ निषिद्ध कर्मणि लिखित हुकार स्थाने । 'मान्तं' यकारम् । 'प्रालिस्य' लेखयित्वा । कथम्भूतम् । 'सरेफम्' ऊर्ध्वरेफान्वितम् । 'नामसंयुतम्' नामयुक्तम् । कयो: ? 'द्वयोरपि च मर्त्ययोः' श्रपि निश्चयेन । वथ ? 'विभीत फलके' कलितरु फलके । 'यन्त्र' एतत् यन्त्रं लेखनीयम् ॥७॥
[ हिन्दी टीका ] - इस यंत्र को बहेड़े के दो पाटीयों पर हुं के स्थान पर यकार को रेफ सहित दोनों मनुष्यों का नाम लिखकर तैयार करे। यानी ये लिखे और बाकी सब पूर्वोक्तयंत्र के समान ही प्राकृतिवाला यंत्र बनावे ||७||
बाजिमाहिषशैश्च
विपरीतमुखस्थयोः । श्रावेष्टय स्थापयेद् भूम्यां विद्वेषं कुरुते तयोः ॥६॥
[ संस्कृत टीका ] - 'बाजिमाहिषकेशश्च' श्रश्वमहिषकेशैः । चः समुच्चये । 'आवेष्टय' केशैः श्रा समन्ताद् वेष्टयित्वा । 'विपरीत मुखस्थयो:' श्रधो मुखस्थयोः । 'स्थापयेत्' निक्षिपेत् । क्य ? 'भूम्याम् ' प्रेतवन भूम्याम् । विद्वेषं कुरुते तयोः' द्वयोर्मर्त्ययोः विद्वेषणं करोति ।। विद्वेषरग कर्मणि परकायन्त्रम् ||६||
[ संस्कृत टीका ] - फिर उस यंत्र को घोड़े का और भैंसे का बाल लेकर लपेटे तदनन्तर स्मशान भूमि में दोनों यंत्रों का उल्टा मुँह कर के गाड़ दे यंत्रों में लिखे दोनों
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( ५४ )
देवदतक्रों
यज्ञदत्त
irail
यज्ञदत कदिवदत्तको अब
'देवदत्त यज्ञदत्त
।
देवदत्तको मामयज्ञदत
वाहाराम
शोजित हल्क
19€
यज्ञदत्त 30प्रकाँदेवदत्तको
-
विद्वेषणकर्मकायहय रञ्जिकायंत्र
चित्रनं.
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( ५५ } पुरुषों में परस्पर द्वेष उत्पन्न हो जाता है याने द्वेष उत्पन्न कर देता है ।।८।।
विद्वेषणकर्म कार्य रञ्जिकायंत्र चित्र नं. ६ देखे । पूर्वोक्ताक्षर संस्थाने लेखिन्या काकपक्षया । मान्तं विसर्ग संयुक्त प्रसाङ्गारविषारुणः ॥६॥ धकारिविष्ठासंयुक्त': ध्वजयन्त्रं सनामकम् । लिखित्वोपरि वृक्षारणां बद्धमुच्चाटनं रिपोः ॥१०॥ द्वादशरञिकामन्त्रोद्धाराधिकारः ।।४॥
[संस्कृप्त टीका]-'पूर्वोक्ताक्षर संस्थाने' विष कर्म लिखित-र्य-इत्यक्षरस्थाने । 'मान्त्रं' यकारम् । कथम्भूतम् ? 'विसर्ग संयुक्तम्' बिन्दुययुतं लिखेत् । कया ? 'काक पक्षया लेखिन्या' का पक्ष जनित लेखिन्या । कः ? 'प्रताङ्गार विषारुणः' स्मशानाङ्गारविष काक रक्तः। कथम्भूतैः धकारिविष्ठा संयुक्त' धूकारिः काकः, तस्य विष्ठा धूकारिविष्ठा तथा संयुक्तः। ध्वजयन्ग' सूती कपट ध्वजयन्तां एतदुच्चाटनयन्त्रम् । कथम्भूतम् ? 'सनामकम्' देवदत्तानामान्वितम् । 'लिखित्वा' विलिख्य । 'उपरि' अग्रे । केषाम् ? 'वृक्षाणां कलितरूणाम् । 'बद्ध" निबद्धम् । रिपोः शत्रोः । 'उच्चाटनं' उच्चाटनं स्यात् ।। उच्चाटन कर्म करणे यः-रंजिकायन्त्रम् ॥१०॥
हिन्दी टीका]-पहले कहे अनुसार 'य' इस अक्षर के स्थान में 'य' कार लिखे य, कार को विसर्ग सहित करे, यानी यः अक्षर को कौए के पंख की कलम से स्मशान का कोयला, कौए का रक्त, कौए की विष्टा, इन पदार्थों की स्याही बनाकर, प्रसूतास्त्री के कपड़े पर नाम सहित यंत्र लिखकर बिहेड़े के पेड़ पर यंत्रलिखित वस्त्र को ध्वजा की तरह बांधने से शत्रु का उच्चाटन होता ।।१०।।
उच्चाटन कर्म के लिये यः यह रंजिका यंत्र है चित्र नं ६ देखें । शृङ्गोगरलरक्ताभ्यां नृकपालपुटे लिखेस । प्रतास्थिजातलेखिग्या यः स्थाने तु नमोऽक्षरम् ॥११॥
[संस्कृत टीका]-शृङ्गीगरलरक्ताभ्यां' शृङ्गीविषरासभरक्ताभ्याम् । 'नकपाल पुटे लिखेत्' मनुष्य कपाल सम्पुटे लिखेत् । कया ? 'प्रतास्थिजातलेखिन्या' शवास्थिजनित लेखिन्या । 'य: स्थाने पूर्व लिखितफड्यकारस्थाने । 'तु' पुनः किम् ? 'नभोऽक्षरम् हकारं लिखेत् ॥११॥
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यरनिकायंत्रनं उच्चाटनकेलिये
Aॉजये/
KAPाक्रॉक्रों
स्वाहालिहा/
खाहाखि
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( ५७ )
[हिन्दी टीका]-इस यंत्र को मनुष्य की खोपड़ी के ऊपर शङ्गीविष और गधे के रक्त में मृतक मनुष्य की हड्डी की कलम बनाकर लिखे मात्र पहले कहे हुय यंत्रा कार में य: के स्थान पर हुं बीज को लिखे ।।११।।
श्मशाने १निखने रोषात् कृत्वा तद् भस्मपूरितम् । करोति तत्फुलोक्चादं वरिणां सप्तरातः ॥१२॥
[संस्कृत टोका]--'श्मशाने' प्रतवने । 'निक्षिपेत्' स्थापयेत् । कथम् ? 'रोषात्' कृत्वा तद् भस्मपूरितम् तत् कपाल सम्पुटं श्मशानभस्म पूरितं कृत्वा । 'तद' 'वैरिणा' शत्रूणाम् । :कुलोच्चाट करोति' कुलोच्चाटनं करोति । कथम् ? 'सप्तरात्रतः॥ उच्चाटन कर्मणि हरञ्जिका यन्त्रम् ।।१२।।
[हिन्दी टीका]-फिर उस यत्र को क्रोध में आकर श्मशान की राख से भरकर श्मशान में फेंक दे तो इस यत्र के प्रभाव से सात दिन में शत्रु के सम्पूर्ण परिवार का उच्चाटन कर देता है। उच्चाटन कर्म के लिये यह ह रंजिका यंत्र है, देख्ने चित्र यंत्र नं० १०
नोट :-सावधान साधक इन उच्चाटनादि क्रिया को नहीं करे, बहुत पापबंध होता है । वीतरागता से रहे, ममता से रहे।
इन यंत्रों की विधि में गधे के रक्त आदि का प्रयोग पाया है। सो ऐसे पदार्थ कार्य में नहीं लेवे, ऐसा हमारा आदेश है ॥१२॥
फडक्षरं नमः स्थाने श्मशान स्थित कर्पटे । निम्बार्कजरसेनेतद् बिलिखेत् कद्धचेतसा ॥१३॥
[संस्कृत टीका]- फडक्षरं' फडित्यक्षरम् । 'नभ.स्थाने' 'प्रालिखित फहकार स्थाने । 'मशान स्थित कर्पटे' श्मशान गृहीत बसने । 'निम्बार्कजरसेन' किम्बरबिरसेन । 'एतत्' फडक्षरान्वितं यन्त्रं 'विलिखेत्' लिखेत् । कथम् ? 'कुद्धचेतसा' कुद्धभावेन ॥१३॥
[हिन्दी टीका]-पहले कहे अनुसार यंत्र के समान है कार के स्थान पर फट् अक्षर श्मशान के कपड़े पर नीम का रस और अकौए का रस से क्रोध में पाकर भरकर यंत्र को लिखे ।।१३।।
१. निक्षिपेद्रोषात्' इति ख पाठः ।
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यंत्र नं -१० उच्चाटन कर्म के लिये ह रंजिका यंत्र
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( ५६ )
श्मशाने निक्षिपेद् यन्त्रं यावत् तद् भुवि तिष्ठति । परिभ्राम्यसौ तावद् वरी काक ईव क्षितौ ॥ १४ ॥ ॥
[ संस्कृत टीका ] - ' श्मशाने' श्मशानभूमौ । निक्षिपेत् । किम् ? 'यन्त्रम्' 'यावत् तद् भुवि तिष्ठति' यावत्कालं तद् यन्त्रं भूम्यां तिष्ठति । 'परिभ्राम्यत्यसौ तावद् वैरी काक इव' असौ वैरी तावत्कालं काक इंव भ्रमणं करोति । क्व ? 'क्षिती' पृथिव्याम् || उच्चाटन कर्म कररग फञ्जिकायन्त्रम् १४ ।।
[ हिन्दी टीका ] - इस यंत्र को स्मशान भूमि में गाड देवे, जब तक यह यंत्र भूमि में गड़ा रहेगा, तब तक शत्रु कौए की तरह पृथ्वी में भ्रमण करता रहेगा ।। १४ ।।
उच्चाटन कर्म के लिये यह फट् रंजिका यंत्र नं. ११ है । फटस्थाने लिखेद् भान्तं भूर्ये तन्नामसंयुतम् । विषोपयुक्त रक्तन नीलसूत्रेण वेष्टितम् ।।१५।।
[ संस्कृत टीका ] - 'फटस्थाने' प्राग्लिखित फडक्षर स्थाने । 'लिखेत्' विलिखेत् । 'भान्त' मकारम् । 'भूर्ये' भूर्यपत्रे । कथम् ? 'तनामसंयुतम्' देववत्तनामान्वितम् । केन ? 'विषोपयुक्तरक्त'न' शृङ्गोविषान्वितखररक्तने । पुनः कथम्भूतम् ? नील सूत्रेण वेष्टितम् ॥१५॥
[ हिन्दी टीका | - पूवोक्त यंत्र के सामन फट् के स्थान में म कार को लिखे और यंत्र को भोजपत्र पर नाम सहित ( देवदत्त ) लिखे, किससे लिखे ? शृङ्गोविष और गधे के रक्त से लिखे फिर नीले रंग के सूत्र से यंत्र को वेष्टित करे ( लपेटे ), ||१५||
मृत्युत्रिकोदरे स्थाप्यं तच् श्मशाने निवेशयेत् 1 सप्ताहाज्जायते शत्रोश्छेद भेदादिनिग्रहः ॥ १६॥
[ संस्कृत टीका ] - ' मृत्पुत्रिकोदरे स्थाप्यं' एतद् यंत्र श्मशानदग्धमृत्तिकाकृत पुतलिकोदर मध्ये स्थाप्यम् । स्थापयित्वा 'तच्श्मशाने निवेशयेत्' तद् मृत्पुत्रिकोदरे स्थापित यन्त्रं प्रतवने स्थापयेत् । 'सप्ताहात्' सप्तदिन मध्ये 'जायते' भवेत् । कि भवेत् ? 'छेत्र भेदादिनिग्रहः' छेदन भेदनानि ग्रहणं भवेत् । कस्य ? 'शत्रोः ' रिपोः । रिपृच्छेदन भेदन निग्रह करण मरञ्जिकाययन्त्रम् ।।१६।।
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'म' रंजिका यंत्र चित्रनं-१२
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[हिन्दी टीका-फिर इस यंत्र को स्मशान की जली मिट्टी की पुतली के पेट में स्थापन कर उस पुतली को स्मशान में गाड़ देबे, सात दिन के अन्दर शत्रु का छेदन भेदन निग्रह आदि होता है ।।१६।।
शत्रुच्छेदन भेदन, निग्रह करण म रंजिका यंत्र नं. १२ । तुर्यस्वरं लिखेद् विद्वान् मस्थाने नामसंयुतम् । कुल मागरुक' रैमूर्य रोचनयाऽन्वितैः ॥१७॥
[संस्कृत टीका]-'तुर्यस्वर' चतुर्थस्वरं ईकारम् । "लिखेत्' विलिखेत् । क्व ? 'मस्थाने' फण्मकारस्थाने । कोऽसौ ? 'विद्वान्' । कथम् । नामसंयुतम् देववत्तनामान्वितम् कः १ त्वा ? 'कुङ्क.मागरुकपूरैः' काश्मीरागरुचन्दनः । कथम्मूतः ? 'रोचनयान्वितः' गोरोचनायुक्तः, क्य? 'भूर्ये' भूर्य पत्रे ।।१७॥
[हिन्दी टीका]-चतुर्थ स्वर याने ई कार को म के स्थान पर लिखे, भोजपत्र पर केशर, अगुरू, कपूं, गोरोचनादि सुगन्धित द्रव्यों से यंत्र को लिखे ।।१७।।
सुवर्णगठितं कृत्वा बाहो वा धारयेद् गले । करोतीदं सदा यन्त्रं तरुणीजन मोहनम् ।।१८।।
[संस्कृत टीका]-'सुवर्णगठितं कृत्वा' सुवर्णेन वेष्टितं कृत्वा । 'चाही वा' दक्षिण भुजे वा । 'धारयेद् गले' कण्ठे वा धारयेत् । 'करोतीदं' एतत् करोति । 'सदा' सर्वकालम् । 'यन्त्रं' एतत्कथितयन्त्रम् । 'तरुणीजन मोहनम्' अवलाजन मोहकारी भवति । वशकर्मकरणे ईरञ्जिकायन्त्रम् ॥१८॥
[हिन्दी टीका]-यह यंत्र सोने के ताबीज में डाल कर हाथ में अथवा गले में बांघे तो सदा ही यंत्र तरूणी जन को मोहित करता है, वश करता है ।।१८।।
वशकर्म का ई रञिका यंत्र चित्र नं. १३ देखो। वषड्वर्णयुतं कूटं लिखेदोकारधामनि । भूयं पत्रे सितेऽत्यन्ते रोचनाकुङ्क मादिभिः ॥१९॥
[संस्कृत टिका]-'वषड्वर्णयुतं' वडित्यक्षरान्वितम् । कम् ? 'कूटम्' क्षकारं लिखेत् । कस्मिन् स्थाने ? 'ईकारधामनि' फडोकारस्थाने । क्य? 'भूर्य पत्रे'। कथम्भूते ? सितेऽत्यन्ते' अत्यन्त शुभ्र । कैः ? 'रोचनाकु मादिभिः' गोरोचना काश्मीरादिभिः ॥१६॥
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ॐ हे भक् खाहा
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( ६३ )
क्रीं क्रों
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ॐ अजिते स्वाहा
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'ई' रजिका यंत्र चित्र नं -१३
स्वामनी
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। ६४ ) [हिन्दी टीका]-पूर्वोक्त यंत्रानुसार इ कार के स्थान पर क्ष व ष ट को लिखे । किस पर लिखे ? अत्यन्त शुभ्रवर्ण वाले भोजपत्र पर लिखो, किस से लिखो ? केसर वगैरह सुगन्धित द्रव्यों से लिख ॥१६॥
बिलोहवेष्टितं कृत्या बाहो कण्ठे च धारयेत् । स्रोसौभाग्यकरं यन्त्रं स्त्रीणां चेतोऽभिरकम् ॥२०॥
[संस्कृत टीका]-"त्रिलोहवेष्टितं कृत्वा बाहो कण्ठे च घारयेत्' ताम्रतारसुवर्ण त्रिलोहम्, तत्र ता द्वादशभाग, तारं षोठशभागं सुधरणं त्रिभागं, एवं त्रिलोह भाग प्रमाणेन तद्यन्त्रवेष्टनं 'कृत्वा' कारयित्वा 'बाही कण्ठे च' दक्षिण भुजे ग्रीवायां च 'धारयेत्' ध्रियते । 'स्त्रीसौभाग्यकरं यन्त्रं' एतद् यन्त्रं दुर्भगस्त्रीणां सौभाग्यकरं भवति । 'स्रोणां चेतोऽभिरञ्जकम्' स्त्रीणां मनोऽभिरञ्जनं भवति ॥ 'स्त्रीणां सौभाग्य करणे क्षवषड्रज्जिकायन्त्रम् ॥२०॥
हिन्दी टीका]-यंत्र को लिखकर त्रिलोह के ताबीज में डाले फिर सीधे हाथ में अथवा गले में बांधे तो दुर्भगा स्त्री को सौभाग्य की प्राप्ति होती है । स्त्रियों को प्रसन्न करने वाला यंत्र है।
लोह माने ? १२ भाग तांबा, १ भाग लोहा, ३ भाम सोना मिलाकर त्रिलोह बनाया जाता है ।।।२०।।
स्री सौभाग्य करण क्ष व ष ट रंजिका यंत्र चित्र नं. १४ देखो। क्षाद्यक्षरपवे योज्यं लं शिलातलसम्पुटे । विलिख्योपुरं बाह्म स्तम्भने तालकादिभिः ॥२१॥
[ संस्कृत टीका ]-'क्षाद्यक्षरपर्दे क्षकारादिवषडक्षरफट्स्थाने । 'योज्यम्' योजनीयम् । किम् ? 'ल' लकारम् । क्य? शिलातसम्पुटे । 'विलिख्य' लिखित्वा । किम् ? 'उर्वीपुर' पृथ्वीपुरम् । क्य? 'बाह्म' त्रितिवेष्टनबहिः प्रदेशे । कस्मिन् विषये ? 'स्तम्भने' क्रोधादिस्तम्भकरणे । कः ? तालकादिभिः'हरिताला दिपतिद्रव्यैः। क्रोधादिस्तम्भनकरणे लरञ्जिका यन्त्रम् ।। इति द्वादशरजि कोद्धार क्रमः ॥२१॥
[हिन्दी टीका-पूवोक्त यंत्रनुसार (क्षवषट) के स्थान पर ले कार को लिने, कहां लिखे ? पृथ्वी में रहने वाले शिलातल संपुट पर लिख । किस से लिखो?
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क्षिवषद देवदत्तः .
पावषद
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'क्षवषोजेकायंत्रन-१४
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देवदत्त:
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हाल्थे तेस्तानी को
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यह ग्रहादि रोगशांतिप्रारंजिका यंत्र चित्रनं.१६,
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( ६८ )
हरतालादि पीले द्रव्यों से लिखे और इन द्रव्यों से पृथ्वी मंडल बनाकर रख े, तो स्तंभन होता है ॥२१॥
यह क्रोधादि स्तंभन लं रंजिका यंत्र चित्र नं. १५ देख स्तम्भने तु मैन्द्र ं निज बीजमेन्द्र ( द ) श्री कुङ्क ुमाद्योलिखितं सु भूज्जे । त्रिलोवेष्टयं विधृतं स्वबाहों, करोति रक्षां ग्रह भारी रुग्भ्यः ||२२|| | हिन्दी टीका ] - पूर्वोक्त यंत्र के अनुसार लं कार की जगह पर श्री कारको लिख कर स्थापन करे । इस यंत्र को भोजपत्र पर सुगन्धित द्रव्यों से लिखकर त्रिलोह के मादलीया में डालकर अपनी दाहिनी भुजा में धारण करे तो यह यत्रं ग्रह मारी आदि रोगों से रक्षा करता हैं ।
महादि शांति कर्म का श्री रंजिका यंत्र चित्र नं. १६
इत्युभय भाषाकविशेखर श्री मल्लिषेण सूरि विरचिते भैरव पद्मावती कल्पे द्वादशरञ्जिकायन्त्रोद्धाराधिकारश्चतुर्थः परिच्छेदः ॥ ४ ॥
इस प्रकार उभय भाषा कवि श्री मल्लिषेरगाछार्यविरचित भैरव पद्मावती कल्प का बारह रंजिका यंत्रोद्धार की हिन्दी विजया टीका
समाप्ता ।
( चौथा अध्याय समाप्त )
* इस चिन्ह से युक्त श्रीं कार रंजिका मंत्र व श्लोक, विधि हस्तलिखित संस्कृत टीका वाले ग्रंथ में नहीं है, हमने सूरत से कापड़िया जी द्वारा प्रकाशित प्रति से लिखा है ।
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पञ्चमः क्रोधादिस्तम्भन यन्त्र परिच्छेदः क्षमठ सहपलयवर्णान् मलवर यूं कार संयुतान् विलिखेत् । अष्टदलेषु क्रमशो नाम ग्लौकरिणकामध्ये ॥१॥
(संस्कृत टोका]-'क्षमठ सह पलववर्णान् मलवर यूंकार संयुतान् रिलिखेत् अष्टदलेषु' क्षश्च मश्च ठश्च सश्च लश्च क्षमठसहपलवाः ते च ते वर्णाश्च तान् क्षमठसहपलयवान् । कथम्भूतान् ? 'मलवरयू कार संयुतान्' मश्च लश्च वश्च रश्च यूंकारश्च मलवरयू काराः ते संयुतान् मलवरयूकार संयुतान् इति मल्ल्या" म्म्ल्या"ठम्या स्म्ल्या सल्ल्य" इत्यष्टदलेषु । कथम् ? 'क्रमशः' प्राच्यादिदिशां क्रम परिपादया। 'नाम ग्लौं करिएकामध्ये तवष्टदलान्तः स्थितकणिकामध्ये देवदत्तनामाविन्तं ग्लौंकारं लिखेत् ॥१॥
[हिन्दी टीका] -इस यंत्र को क्रम परिपाटि से नाम सहित ग्लौं को प्रथम कणिका के मध्य में लिखे, उसके बाद क्रमशः यंत्र के पाठों दलो में मल्टन म्म्ल्यू ठम्ल्टन " स्म्य" ह्रम्य म्ल्याल्म्ल्य " म्हत्या" ये पिंडाक्षर लिखे ॥१॥
मन्त्राभ्यामावेष्टय बाह्य भूमण्डलेन संवेष्टय । कुङ्क महरितालाचं विलिखेदात्मेप्सित स्तम्भः ॥२॥
[ संस्कृत टीका ]-'मन्त्राभ्याम्' द्वाभ्यां मन्त्राभ्याम् । 'आवेष्ट्य' बेष्टयित्वा । 'बाह्य मन्त्रः बहिः प्रदेशे । 'भूमण्डलेन संवेष्टय' पृथ्वीमण्डलेन सम्यगावेष्टय लिखेत् । कैः? 'कुङ महरितालाद्यः काश्मीर हरितालादिपोतद्रव्यैः । विलिखेत्' विशेषेण लिखेत् । मन्त्रद्वयम्
अग्निस्तम्भिनि ! पञ्चदिव्योत्तरागि ! श्रेयस्करि ! ज्वल प्रज्वल प्रज्वल सर्वकामार्थसाधिनि ! स्वाहा ॥
उ अनलपिङ्गलोर्ध्वकेशिनि ! महादिव्याधिपतये स्वाहा ॥ अग्निस्तम्भनयन्त्रम् ॥
[हिन्दी टीका]-दोनों मंत्रों से यंत्र को वेष्टित करके भू मण्डल से वेष्टित करके लिख ? किससे लिख? केशर, हरताल आदि सुगन्धित द्रव्यों से लिखने से स्वयं को जो इष्ट है उसका स्तंभन हो जाता है। देखे यंत्र चित्र नं. १७
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( ७०
कामाथसाधनी
प्रज्वलरसवको
यशस्करीवाला
पारश्रेयस्करी
धनीखाहा/
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अनलपिंगलोई
निपंचदिव्यो
केशिनी महानि
नाभेरवीमाग्नि
हावाहाॐन
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दष्टस्तभनयंत्रनं १७,
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दोनों मंत्र :--ॐ नमो भैरवी अग्नि स्तंभिनि, पंचदिव्यो तारिरिण श्रेयस्करी यशस्करी ज्वल-ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल सर्व कर्म साधिनी स्वाहा ।।१।।
ॐ अनलपिङ्गलोर्द्धकेशिनि महादिव्याधिपतये (ठः3ठाठः) स्वाहा ।।२॥ त्रोकारं चिन्तयेद् वक्त्रे विवादे प्रतिवादिनाम् । त्रां वा रेफ ज्वलन्तं वा स्वेष्ट सिद्धि प्रदायकम् ॥३॥
[संस्कृत टीका]-'श्रीकारं चिन्तयेत्' त्रीमित्यक्षरं चिन्तयेत् । क्य? 'वक्त्रे' कस्मिन् विषये? विवादे' व्यवहारादि विषरे । केषाम् ? 'प्रतिवादिनाम् स्वप्रतिपक्षवादिनाम् । न केवलं त्रोंकारम्, 'त्रां वा' प्रामित्यक्षरं वा चिन्तयेत् । 'रेफ ज्वलन्तं वा' र कारं जाज्वल्यमानं वा चिन्तयेत् 'स्वेष्टसिद्धि प्रदायकम् स्वकीयेप्सितसिद्धिप्रदायकं भवति ॥३॥
हिन्दी टीका)-दूसरे के साथ शास्त्रार्थ करते समय अपनी विजय हो, इसलिये मुंह में त्रींकार त्रो अथवा जाज्वल्यमान रकार माने (रै अग्नि बीज) का चितवन करने से इष्ट सिद्धि होती है ।।३॥
नाम ग्लौं खान्तपिण्डं वसुदल सहिताम्भोजपत्रे लिखित्वा तत्पिण्डान्तेषु योज्यं बहिरपि वलयं दिव्यमन्त्रेण कुर्यात् । टान्तं भूमण्डलान्तं विपुलतर शिलासम्पुटे कुङ्क माधर्धार्य श्री वीरनाथक्रम युग पुरतो घह्निदिव्योपशान्त्यः ॥४॥
[संस्कृत टीका]-'नाम' देवदत्तनाम । 'ग्लो" देवदत्तनामोपरि ग्लो कारम्। 'खान्तपिण्ड' खकारस्यान्तो गकारः स चासो पिण्डश्च खान्तपिण्डः रम्य इति पिण्डः तम् । 'वसुदलसहिताम्भोजपत्रे लिखित्वा' अष्टादलान्वितपणपत्रे विशेषेण लिखित्वा । 'तस्पिण्ड' तत्करिणकालिखित गम्यत" इति पिण्डम् । 'तेषु' प्रष्टपत्रेषु । 'योज्यम्' योजनीयम् । 'बहिरपि' तवष्टदल कमल बहिः प्रदेशे । 'वलयम्'। केन ? 'दिव्यमन्त्रण विशिष्ट मन्त्रेण । 'कुर्यात्' करोतु । 'टान्त' ठकारम् । कथम्भूतम् ? 'भूमण्डलान्त' पृथ्वीमण्डलान्तः स्थितम् । दिव्य मन्त्र वलय बहिः प्रदेशे ठकोरेणावेष्टय तद्वहिः पृथ्वोमण्डलं लिखेत् इत्यभिप्रायः । क्व ? 'विपुलतरशिलासम्पुटे' विस्तीर्णपाषाण सम्पटे । कः ? 'कुङ्कमाछ:' काश्मीरादिपोत द्रव्यः । 'धाय' धारणीयम् । क्व ? 'श्री वीरनाथ क्रम युग पुरतः' श्री वर्धमान स्वामि चरण युगलागतः । किमर्थम् ? 'वह्नि दिन्यो। पशान्त्ये' अनलदिश्योपशान्त्यर्थम् ॥४॥
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( ७२ )
वलय मन्त्रोद्धार :
उथम्भेइ जलजलणं चितियमित्तेण पञ्चरणमकारो परिमारि चोरराउघोरुवसग्गं विरगासेइ १ || स्वाहा २ ॥
प्राकृत मन्त्रोऽयम् । इवमग्निस्तम्भनयन्त्रम् ||
[ हिन्दी टीका ] - देवदत्त के नाम के ऊपर ग्लौं लिखकर फिर अष्टदल कमल बनाकर उस प्रत्येक कमल दल में म्ल्क्य पिंडाक्षर लिखे, फिर बाहर दिव्य मंडल लिखे, ऊपर के वलय में ठकार लिखे, उसके बाद पृथ्वी मंडल बनाकर विपुल - शिलातल सम्पुट करे । यह यंत्र शिलासंपुट पर केशरादि सुगन्धि द्रव्यों से लिखकर दिव्य अग्नि की शांति के लिये श्री महावीर स्वामी के चरण युगल के पास रख देवे ||४||
मंत्रोद्वार : -- ॐ थंभेइ अमुके अमुकस्स जल ज्जलगं चिन्तिय मिन्तेरा पंचम या परि मारि चोर राउल घोख्वसग्गविरगाइ स्वाहा || दिव्य अग्नि स्तंभन यंत्र चित्र नं. १८ देखे ।
दिव्येषु जलतुलाफरिणखगेषु पवहक्षपिण्डमा विलिखेत् । पूर्वोक्ताष्ट दलेष्वपि पूर्ववदन्यत् पुनः सर्वम् ||५||
[ संस्कृत टीका ] - 'दव्येषु' चतुर्षु दिव्येषु । कथम्भूतेषु ? 'जलतुलाफरिणखगेषु' जल दिव्ये तुलादिव्ये षटसर्पदिध्ये पक्षिविथ्ये, एतेषु चतुर्षु दिव्येषु । 'पवहक्षपिण्डे' जल दिव्ये स्व्य" इति पिण्डम् तुलादिव्ये म्यू" इति पिण्डम्, फलिदिथ्ये हस्थ्य इतिपिण्डम् पक्षिदिव्ये क्षम्य इति पिण्डम् । 'प्राविलिखेत्' समन्ताद्विलिखेत् । केषु ? ' पूर्वोक्ताष्टदलेषु' प्राग्विलिखिताष्टदलेषु । कथित चतुदिव्येषु पत्रहक्षपिण्डाः क्रमेण लेखनीयाः । श्रपिशब्दाद् मध्येऽपि च । 'पूर्ववदन्यत् पुनः सर्वं अन्यत् पुनः यन्त्रोद्धारं प्राग्लिखितं यथा तथैव सर्वम् ||५।।
[ हिन्दी टीका ] - चारों दिव्य स्तंभन के लिये जल, तुला, सर्प, पक्षी के स्तंभन के लिये, पूर्वोक्त आठों दलों में क्रमशः प, व, ह और क्ष से युक्त पिण्डाक्षरों को लिखे, जल दिव्य स्तम्भन के लिये फ्ल्यू" लिखे, तुला दिव्य स्तंभन के लिये भ्यू पिडाक्षर लिखे, सर्प दिव्य स्तंभन के लिये म्यू" पिडाक्षर लिखो ये सब
१. ह्रां ह्रौं ह्रः पणासेउ इति ख पाठः ।
२. ठः ठः ठः ।
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पिंडाक्षरों को यंत्र के दलों में और कणिका के मध्य में लिख, बाकी यंत्रोद्धार पहले कहे अनुसार करना ॥५।।।
भावार्थ-जल स्ततंभन के लिये म्ल्य्य को कणिका और यंत्र के आठ दलों में लिख, उसी प्रकार तुला स्तंभन के लिये ब्ल्म्न" सर्प स्तंभन के लिये ह.म्ल्या" लिख और पक्षी स्तंभन के लिये व्य" पिंडाक्षर लिख फिर बाह्य वलय बनाकर प्रत्येक यंत्र में पूर्वोक्त मंत्र लिख और अंतिम वलय में ठ कार लिख। पहले लिख अनुसार ही इन यंत्रों की विधि है, यंत्र चित्र नं. ज. तु. स. प.
१६-२०--२१--२२ ब्रह्मग्लौंकार पुटं टान्तावृतमष्टयन संस्द्धम् । वामं वज्राग्रगतं तदन्तरे रान्तुबीजं च ॥६॥
[संस्कृत टीका]-'ब्रह्म' उकार सम्पुटम् इति बीजद्वयम् । कथम्भूतम् ? टान्तावृतम् । ठकारावृतम् । पुनः कथम्भूतम् ? 'अष्टवरुद्धम्' वाष्टकैः सम्यगद्धम्। 'वामां वज्राग्रगत' उकारो बज्राणां अन स्थितः। 'तवन्तरे' तहज़ानान्तराले 'रान्तबीजं च' रकारस्यान्तो लकारः स एव बीजं रान्तबीजं लं इति । 'चः' समुच्चये ।।
[हिन्दी टीका-ग्लों कार के संपुट में ॐ कार लिख फिर ठ कार से वेष्टित करके, उसको आठ बज्र से वेष्टित करे, वेष्टित किये हुए वच्च के मुख पर ॐ लिख, उसके अन्तराल में लं वीज को लिखे ।।६।।
बार्ताली मन्त्रवता बाह्यऽष्टसु दिक्षु विन्यसेत् कमशः । मलवर यूंकार युतान् क्षमठसहपरान्तलान्ताश्च ॥७॥
[संस्कृत टोका]--वार्तालीमन्त्रवत' वज्राणां बहिः प्रदेशे वार्तालीमन्त्रेण वेष्टितम् । 'बाह' मन्त्रावेष्टन बहिः प्रदेशे । 'अष्टसु दिक्षु' अष्टासु दिशासु । 'विन्यसेत्' विशेषेरग स्थापयेत् । कथम्? 'क्रमशः' फ्रम परिपाटया। 'मलवर कारयुतान्' मश्च लश्च वश्च रश्च यूकारश्च मल वरयू काराः तैयुताः मलवरयू कारयुताःतान् मलवरयू कारयुतान् । 'क्षमठसहपरान्तलान्तान्' क्षश्च भश्च ठश्च सश्च हश्च पश्च लश्च वश्च, 'रान्तो' रकारस्यान्तो लकारः लश्च, 'लान्तो' लकारस्थान्तो धकार: यश्च, क्षमठसह. परान्तलान्ताः तान् । एवं पल्टन" म्रूच्या "ठम्य" स्म्या" हम्ल्या" म्ल्या ल्मल्ल्या क्या" एतानष्ट पिण्डान् । वार्तालीमन्त्रोद्धार :--
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फर्ग्यू लणं चित्तिय मित्र्त्तण
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हवसग्गं विणा सह स्वाहाॐयम अमुक अमुक
जलस्तंभन यंत्र चित्र नं. १४
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( ७६ )
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200१४
तुलास्तंभनयंत्रचित्रन-२०,
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( ७६ )
वार्ता ! वराहि ! वराहमुखि । जम्भे ! जम्भिनि ! स्तम्भे ! स्तम्भनि ! अन्धे ! ग्रन्धिनि ! रून्धे ! रून्धिनि ! सर्वदुष्टप्रदुष्टानां क्रोधं लिलि गति लिलि ? जिह्वां लिलि ॐ ठः ठः ठः । अयं वार्तालीमन्त्रः ॥
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[ हिन्दी टीका ] - उसके बाद वज्रों के बाह्य भाग में वार्ताली मंत्र को लिख कर उसके बाहर आठों दिशाओं में क्रमशः हम्ब्यल्ब्ध ठु हम्ब्यल्ल्ब्यू" और क्ल्यू" पिण्डाक्षरों को लिखे ।
वार्ताली मन्त्रोद्धार :- ॐ वार्तालि, वाराहि, वाराहमुखि जम्भे, जम्भिनि स्तंभे, स्तंभिनि, अन्धे, अन्धिनि, रून्धे, रून्धिनि सर्वदुष्ट प्रदुष्टानां क्रोधं लिलि गति लिलि, मति लिलि, जिव्हां लिलि ठः ठः ठः । ( 3 )
बाह्यमरपुरपरिवृतमङ्क शरुद्ध करोतु तद् द्वारम् । उक्षेशमन्त्रवेष्टयं पृथ्वीपुर सम्पुटं बाह्य ॥८॥
[ संस्कृत टीका ] - 'बाह्य' तत्पिण्डाष्टक बहिः प्रदेशे । 'अमरपुर परिवृतम्' इन्द्र पुरेष समन्तादावृतम् । 'श्रङ्क शरुद्ध ं करोतु तद्द्वारम्' तद् इन्द्रपुरं चतुर्द्वारोभयपार्श्वे अङ्क ुशः क्रोकारः तेन रुद्ध ं कुर्यात् । 'उक्षेशमन्त्र वेष्टयं' तत्पुरबहिः प्रदेशे उक्षा ऋषभस्तस्य ईशः स्वामी श्री ऋषभनाथः तस्य मन्त्रः तेन उक्षेश मन्त्रेणावेष्टयम् । 'पृथ्वीपुरसम्पुटं बाह्य' उक्षेशमन्त्रवलय बाह्य पृथ्वी मण्डल संपुटं कुर्यात् ।
उक्षेश मन्त्रोद्वार:-- उँ नमो भगवदो रिसहस्स तस्स पडिनिमित्त ४ चरणपरगति इंवेण मरणामइ यमेण उग्घाडिया जीहा कंठोट्ठमुहतालुया खोलिया जो मं६ भसद जो मं हसदु दुट्ठदिट्ठीए बज्ज संखिलाए देवदत्तस्स मरणं हिययं कोहं जोहा खोलिया से लखिलाए ल ल ल ल ठ ठ ठ ठ ॥ उक्षेशमन्त्रोऽयं, प्राकृतमन्त्रः ॥ ८ ॥ [हिन्दी टीका ] - इन आठ पिंडाक्षरो के बाह्य इन्द्रपुर बनावे, उसके बाहर चारों द्वार पर के दोनों पखवाड़े पर अंकुश बीज क्रों कार से रूधन करे, उस इन्द्रपुर बाहर बाह्य भाग में श्री ऋषभदेव का मंत्र लिखे ।
१. गति लिलि इति व पाठः ।
२. ठः ठः ठः ठः ठः कों ह्रीं नमः स्वाहा इति ख पाठः । ३. भगवतो इति ख पाठः । ४.
पत्रति इति ख पाठ: ।
५.
७.
हसइ जो बाचाहे इति ख पाठः ।
उप्पाडिया इति पाठ: 1 ६ बंध बंध ठः ठः ठः क्रों ह्रीं नमः इति ख पाठः ।
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ऋषभनाथ का मंत्रोद्धार :-ॐ णामो भगवदो रिसहस्स पडिनिमित्तण चारग पण्णति इंदण भणामइ ययेण उपाडिया अजीहा, कण्ठोठ मुह तालु वर वीलियायेमइ भंसदू योमइ दुट्ठदिट्ठिए वज्जसंखलाए देवदत्तस्स मरणं हिययं कोह जीव्हा खीलिया भेलखियाये, ल ल ल ल ठ ठ ठ ठ (लिखे)
कोणेष्वष्टसु विलिखे वार्तालीमन्त्रमणित जम्भादीन् । ठद्वितयं धरपीपुर मीदशमिदमालिखेत् प्राज्ञः ॥६॥
[संस्कृत टीका]-'कोणोष्वष्टसु' उक्षेशमन्त्रवलयबहिरष्टसु विशासु । 'विलिखेत्' विशेषेण लिखेत् । कान् ? 'वार्तालीमन्वभरिणतजम्भादीन' वार्तालीमन्त्रभ्यन्तरे कथित जम्भाअष्टदेवताः ! उ जम्भे ! स्वाहा, ॐ जम्भिनि ! स्वाहा, उँ स्तम्भे ! स्वाहा, उँ स्तम्भिनि ! स्वाहा, उ प्राधे ! स्वाहा, उँ अधिनि ! स्वाहा, उँ हन्धे ! स्वाहा, उ रुधिनि! स्वाहा, इत्यष्ट देवताः प्राच्या अष्टदिशासु क्रमेण स्थायाः । 'उद्वितयं जम्भादि देवी बहिः प्रदेशे ठकार द्वितयम् । "धरणीपुरम्' ठकार बहिः प्रदेशे पृथ्वीमण्डलम् । 'ईशं' अनेन कथित प्रकारेण । 'इदं' एतद्वार्ताल्यभिधानं यन्त्रम् । 'पालिखेत्' समन्ताद् लिखेत् । कः ? 'प्राज्ञः' विद्वान् ॥६॥
[हिन्दी टीका]-उस ऋषभदेव के मंत्र से बाहर अठों दिशाओं में वार्तालिमंत्र में कहीं हुई जंभादि आठ देवियों का पूर्वादि दिशा में कम से स्थापना करे । इस क्रम से लिखो, ॐ जम्भे स्वाहा । ॐ जम्भिनि स्वाहा । ॐ स्तंभे स्वाहा । ॐ स्तंभिनि स्वाहा । ॐ अन्धे स्वाहा । ॐ अन्धिनि स्वाहा । ॐ रून्धे स्वाहा । ॐ रून्धिनि स्वाहा । लिखकर बाहर दो दो ठ कार की स्थापना करे, फिर ठ कार के बाहरी भाग में पृथ्वीमंडल को लिखे। इस प्रकार यह वार्तालियंत्र के लिखने क्रम है इसे विद्वानों को जानना चाहिये ।।६।।
फलके शिलातले वा हरितालमनः शिलादिभिलिखितम् । कोप गति सैन्य जिह्वास्तम्भं विदधाति विधियुक्तम् ॥१०॥
[संस्कृत टीका]-'फलके' काष्ठकृतफलके । 'शिलातले वा' अथवा पाषाणपट्टे वा । 'हरितालमनः शिलादिभिः' हरितालमनः शिलादिपीत द्रव्यः । 'लिखितं' लिखितं सत् । किं करोति ? 'कोपगतिसैन्य जिह्वास्तम्भ' कोपस्तम्भं गतिस्तम्भं सैन्यस्तम्भं जिह्वास्तम्भम् । 'विदयाति' विशेषेण करोति । कथम् ? 'विधि युक्तम्' यथाविभागयुक्त सति ॥१०॥
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[हिन्दी टीका-यह यंत्र हरताल, मनशिलादि पीले द्रव्यों से काष्ट के पटीये पर अथवा शिलातल पर लिखे तो शत्रु का क्रोध स्तंभन हो, गति स्तंभन, संन्य स्तम्भन और जिह्वा स्तंभन होता है ।।१०।। यंत्र चित्र नं० २३ देखो।
॥ वार्तालीमन्त्रोद्धारः समाप्तः ॥ नाम ग्लौमुर्वीपुरं वं पं ग्लौंकारवेष्टितं कृत्वा । ह्री कार चतुर्वलयं स्वनामयुक्त ततो लेख्यम् ॥११॥
[संस्कृत टीका]-'नाम' देवदत्तनाम । 'ग्लो" तन्नामोपरि ग्लो कारम् । 'उर्वोपुर' तदुपरि पृथ्वीमण्डलम् । 'वं पं ग्लौकार वेष्टितं कृत्वा' उर्वीपुर बहिः प्रदेशे 'व' वंकार, तस्योपरि '' पंकारं, पंकारोपरि ग्लौकारं, एतरक्षरत्रयर्वेष्टनं कारयित्वा । ह्री कार चतुर्बलयम् । कथम्भूतम् ? 'स्वनामयुक्तम् तद् होकार स्वकीय नामान्वितम् । 'ततः तस्मात् ह्रींकारात् । 'लेख्यं लेखनीयम् ।।११।।
[हिन्दी टीका]-नाम के ऊपर ग्लौंकार उसके ऊपर पृथ्वीमंडल, मंडल के बाहर बंकार, उसके ऊपर पंकार, उसके ऊपर ग्लौं इस प्रकार तीन अक्षरों से देवदत्त को वेष्टित करके ऊपर ही कार को चार वलयों में अपने नाम सहित लिखे ॥११॥
उँ उच्छिष्टपदस्याने स्वच्छन्द पदमालिखेत् । ततश्चापडालिनि ! स्वाहा टान्तयुम्मकवेष्टितम् ॥१२॥
[संस्कत टोका]-'उ' इत्यक्षरम् । 'उच्छिष्टपदस्य उच्छिष्टेतिपदं तस्य। 'अग्रे' उच्छिष्टपदस्याने 'स्वच्छन्दपदं स्वच्छन्वेतिपबम् । 'प्रालिखेत्' समन्तात् लिखेत् । 'ततः चाण्डालिनि ! स्वाहा' ततः स्वच्छन्दपदाच चाण्डालिनि ! स्वाहा इति ।
. एवं मन्त्रोद्धार :-उँ उच्छिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनि ! स्वाहा ॥ इति मन्त्र विन्यासः ।। टान्तयुग्मम् कवेष्टितम् ठकारद्वयेन वेष्टितम् ॥१२॥
[हिन्दी टीका]-उसके बाद उच्छिष्ट पद और उसके बाद अागे स्वच्छन्द फिर चाण्डालिनि स्वाहा लिखे, यानी :
मंत्रोद्धारः --ॐ उच्छिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनि स्वाहा, इस मंत्र को लिखकर बलय को दो ठकार से वेष्टित करे ।।१२।।
पृथ्वी वलयं दत्त्वा पुरोक्त मन्त्रेण वेष्टयेद् बाह्य। रजनी हरितालाच भूये विधिनान्वितो विलिखेत् ॥१३॥ [संस्कृत टीका]-'पृथ्वी वलयं दत्त्वा' टान्तयुग्मं बाह्ये पृथ्वीमण्डलं वत्त्वा।
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( ८२ )
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ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ ठ . लनिस्वाहा ॐअन्धेस्वाहा
ॐअन्छिा लि या ये मइ भंसड़ यो मह वुह शिट्टरावज्ज संख
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निस्वाहा
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निअन्धेअधिः
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ॐस्ता ॐस्तंभे स्वाहा तेणचारण पण्यतिइदेणभणामइयपेणउपाडियाजीहाकण्ठोठमुहतालुवरवी
क्रोक्रौं
오 오오 오 오오오오오 오오 오오 오 오오오오오 오 오오 오오 모 오오오 오 오오
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ॐ ॐबाती
मिल्य
लिजिव्हालिन
करें क्रौं
ॐगमोभगवदोरिसहस्सपडिनिमिता
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-ॐजंभेस्वाहा
शिनिस्वाहा
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____ वार्तालिययंत्रचित्रन-२३
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( ८३ )
'पुरोक्त मन्त्रेण' पूर्वोक्त 'उ उच्छिष्ट' इत्यादि मन्त्रेण । 'वेष्टयेत्' वेष्टनं कुर्यात् । 'बाह्य' पृथ्वी मण्डल - बहिः प्रदेशे । 'रजनीहरितालाचं : हरिताल हरिद्रागोदन्तादिपीत द्रव्यैः । क्च ? 'सूर्ये' सूर्यपत्रे । विधिता' यथाविधानेन । 'श्रन्वित: ' युक्तः । विलिखेत्' विशेषेरप लिखेत् ॥ १३ ॥
[ हिन्दी टीका | - पृथ्वी मंडल बनाकर ऊपर पूर्वक्त मंत्र से यंत्र को वेष्टित कर देवे, इस यंत्र को भोजपत्र पर केशर हरितालादि द्रव्यों से विधिपूर्वक लिखे ।। १३ ।। तत्कुलालकर मृत्तिकावृतं तोयपूरितघटे विनिक्षिपेत् । पार्श्वनाथमुपरिस्थमचयेद् दिव्यरोधन विधानमुत्तमम् ॥१४॥
[ संस्कृत टीका ] - 'तत्' तद् यन्त्रम् । 'कुलालकर मृत्तिका वृतम् कुम्भकारकराप्रमृदा वेष्टितम् । 'तोय पूरितघटे' जलपरिपूर्णनव घटे । 'विनिक्षिपेत्' निदध्यात् । 'श्री पार्श्वनाथ श्री पार्श्वभट्टारकम् । कथम्भूतम् ? 'उपरिस्थं' तत्कुम्भस्योपरि स्थितम् । 'अर्चयेत्' पूजयेत् । 'दिव्यशोधन विधानम् दिव्य स्तम्भकररगम् । 'उत्तम' श्रेष्ठम् । दिव्यस्तम्भनयन्त्रमिदम् ॥ १४ ॥ ॥
| हिन्दी टीका ] - | - इस यंत्र को कुम्भार के हाथों पर लगी हुई मिट्टी से यंत्र को बन्द कर, पानी से भरे हुये नवीन घडे में डालकर, उस घड़े पर पार्श्वनाथ जिनेश्वर की पूजा करे, तो उत्तमदिव्य स्तम्भन होता है || १४ || यह दिव्य स्तंभनयंत्र विधि है, यंत्र चित्र नं० २३ देखे | रिपुनामान्वितमान्तं मलवरयू कारसंयुतं टान्तम् । तबाह्य भूमिपुरं त्रिशूलभूतोग्रमृगवेष्ट्यम् ।।१५।।
| संस्कृत टीका ] - " रिपुनामान्वितमान्तम्' शत्रोर्नामयुक्त' 'मान्तम्' यकारम् । 'मलवरयू कारसंयुतं' मश्च लश्च वश्च यू कारश्च मलवरयू काराः तैः संयुतम् । कम् ? 'टान्तम्' टकारम् । एवं ठुम्ल्य्य" इति बीजं, यकार बहिः प्रदेशे । 'तबाह' भूमिपुरं' 'तत्पिड बाह्य भूमिपुरं तत्पिण्ड बाह्य पृथ्वीमण्डलम् । त्रिशूल भूतोग्रमृगवेष्ट्यम्' तत्पृथ्वीमण्डलबाह्य त्रिशूलनकभूतकरमृगजातैः 'वेष्टयं' परिवृतम् ||१५|| [हिन्दी टीका ] - देवदत्त के नाम सहित यकार को लिखकर ठुम्ल्य यह बीज लिखकर उसके ऊपर पृथ्वीमंडल बनावे, फिर उसको त्रिशूल, भूत, आदि हिंसक पशुओं से चारों तरफ घेर दे ||१५||
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● ॐ उच्चिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनी स्वाहा,
ॐ उच्छिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनी स्वाहा, ॐउच्छिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनी स्वाहा -
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ॐ उच्छिष्ट स्वच्छन्द ॐ उच्छिष्ट स्वच्छन्द
देवदत चवदा देवदत्त स्वदत्त
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दिव्य स्तंभन यंत्रचित्र नं. २३.
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ॐ उच्छिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनी स्वाहा, ॐ उच्छिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनी स्वाहा,
ॐ उच्चिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनी स्वाहा, ॐ उच्छिष्ट स्वच्छन्दचाण्डालिनी स्वाहा,
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( ८५ )
प्रतिरूप हस्त खङ्ग निहन्य मानारिरूप परिवेष्टयम् । शत्रोर्नामान्तरितं समन्ततो वेष्टयेत् पिदैः ॥१६॥
[ संस्कृत टीका ] - प्रति रूप हस्तखङ्ग' प्रति शत्रु हस्तकृपाः । 'निहन्यमानारिरूपपरिवेष्टयं निहन्यमानः निः शेषेण हन्यमानैः प्ररिरूपैः प्रतिशत्रुरूपः परिवेष्टयम् । 'शत्रोर्नामान्तरितं ' वैरिनामान्तरितम् । 'समन्ततः' शत्रुप्रतिशत्रुनाम्नोर्बाह्य परितः । 'वेष्टयेत्' वेष्टनं कुर्यात् । कः ? 'पिण्डे:' नामान्तरित ठकार पिण्डेः || १६ || [हिन्दी टीका ] - फिर प्रतिशत्रु के द्वारा शत्रु मारा जा रहा है, इस प्रकार शत्रु की मूर्ति चित्रित करे, उसके बाद शत्रु के नाम को ट्यू" पिण्ड से घेर दे ।। १६ ।। प्रतिरिपुधाजिमहागज नामान्तरितं समन्ततो मन्त्रम् ।
विलिखेदो ह्र हो पलं ग्लो स्वाहा टान्तयुग्मान्तम् ॥१७॥
[ संस्कृत टोका] - 'प्रतिरिपुः' प्रति शत्रः तस्य ' वाजिमहागजनामान्तरितं ' पट्टाश्वगजनामान्तरितम् । 'समन्ततः' नामान्तरितठ पिण्ड बाह्य परि समन्तात् । 'मंत्र' मन्त्रवलयम् । 'विलिखेत्' विशेषरण लिखेत् ।
मन्त्रोद्धार :- ॐ ह्र" ह्रीँ क्ले ग्लो स्वाहा ठ ठ देवदत्तस्य पट्टाश्वे,
ॐ ह्रीं क्लें ग्लो स्वाहा ठ ठ देवदत्तस्य पट्टगजे उ ह्र हों इत्यादिमन्त्रेण समन्ततो चेष्टयेत् ।
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वेष्टन मन्त्रोद्धारः कथ्यते- ॐ ह्रीं भैरव रूप धारिणि । चण्डशूलिनि ! प्रतिपक्षसैन्यं नृर्णय चूर्णय घूम्र्म्मय घूम्र्म्मय भेदय मेवय ग्रस प्रस पच पच खावय खाइय मारम मारय हुँ फट् स्वाहा ।। १७ ।।
| हिन्दी टीका ] - उसके बाद टकार पिण्ड के अंदर प्रतिशत्रु के मुख्य घोड़ा और मुख्य हाथी का नाम लिखकर ठ पिण्ड के बाहर विशेष रीति से यह मंत्र लिखे । मंत्रोद्वार:- ॐ ह्रीँ ह्रीँ क्लें ग्लौं स्वाहा ठः ठः देवदत्तस्य पट्टाएन, स्वाहा ठः ठः देवदत्तस्य पट्टागजे, ॐ ह्रीँ ह्रीं ऐं ग्लौं स्वाहा ठः ठः । इन मंत्रों से वेष्टित करे ।
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और नीचे लिखे मंत्र से वेष्टित करे ।
ॐ ह्रीं भैरवरूपधारिणि चण्डलिनी, प्रतिपक्ष सैन्यं चूर्णय २ धूम्र्म्मय २
भेदय २ ग्रस २ पच २ खादय २ मारय २ हूँ फट् स्वाहा ॥१७॥
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मन्द्रोण वेष्टयित्वाऽनेन ततोऽरातिविग्रहो लेख्यः । अष्टासु दिक्षु बहिरपि माहेन्द्र मण्डलं दद्यात् ॥१८॥
[संस्कृत टीका]-'मन्त्रेण बेष्टयित्वाऽनेन' अनेन कथित मन्त्रोण वेष्टितं कृत्वा । 'ततः तन्मन्त्रवेष्टनाद् बहिः प्रदेशे । 'अराति विग्रहो लेख्यः' शत्रुरूपं लेख्यम् । क्व ? 'अष्टासु दिक्षु' प्राच्याद्यष्टदिशासु । 'बहिरपि' विग्रह बहिः प्रदेशेऽपि । 'माहेन्द्र मण्डलं' इन्द्रमण्डलम् । 'दद्यात्' देयम् ॥१८॥
[हिन्दी टीका-पहले कहे हुए मंत्र से वेष्टित करके बाहर के प्रदेश में शत्रु का रूप लिखकर बाहर महेन्द्र मण्डल बनावे ।।१८।।
प्रेतवनात् सञ्चालितमृतक मुखोज्झितपटेऽथवा विलिखेत् । कृष्णाष्टम्यां युध्दा त्यक्तप्राणस्य सङ ग्रामे ॥१६॥
[संस्कृत टोका]-'प्रतवनात्' श्मशान भूमेः सकाशात् । 'संचालितमृतक मुखोज्झितपटेऽथवा विलिखेत्' सम्यगुच्चलित मृतक मुखोज्झितपटेऽथथा प्रेतस्य प्रच्छादित वस्त्रो विलिखेत् । अथवा 'कृष्णाष्टभ्यां युद्ध्वा त्यक्तप्राणस्य संग्रामे' कृष्णाष्टम्यां कृष्ण चतुर्दश्यां 'सङ्ग्रामे' रणङ्गणे युद्ध्वा कृतप्राण परित्याग पुरुषस्य वस्त्रो वा विलिखेत् ॥१६॥
[हिन्दी टीका |--इस यंत्र को स्मशान भूमि से लाए हुए मृत के मुखपर के वस्त्र अथवा कृष्णा अष्टमी को युद्ध में मरे हुए योद्धा के वस्त्र पर लिखे ।।१६।।
कन्याकतित सूशं दिवसेनकेन तत्पुन:तम् । तस्मिन् हरितालाध : कोरण्टक लेखिनीलिखितम् ॥२०॥
[संस्कृत टीका]-'कन्याकतित सूत्र' कुमार्या कतितं सूत्रम् । 'तत्' कुमार्या कर्तितसूत्रम् । विवसेनकेन पुनरूतम' पुनरपि एकेन विवसेन वरिणतम् । 'तस्मिन हरितालाच' तस्मिन् वस्त्र हरितालादिपीत द्रव्यैः । 'कोरण्टक लेखिनी लिखितम्' कोरण्टकलेखिन्या लिखितम् ॥२०॥
[हिन्दी टीका] -अथवा कन्या के काते हुए सूत से बनाये हए वस्त्र से अर्थात् एक ही दिन में सूत कातकर उसी दिन वस्त्र बनाये हुए पर करंटक की कलम और हरिताल आदि द्रव्यों से लिखे ।।२०।।
पावत्याः पुरतः पीतैः पुष्पैः पुरा सम्भ्यर्च्य । यन्त्रपटं बध्नीयात् प्रख्याते चान्तरे स्तम्भे ॥२१॥
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[संस्कृत टीका]-'पावत्याः पुरतः' पद्मावती देव्यग्रतः । 'पोतः पुष्पैः पुरा समभ्यर्य' पीतवर्गप्रसूनः पूर्व सम्यक पूजयित्वा । 'यन्त्रपट' एतल्लिखित यन्त्र पटम् । 'बध्नीयात्' निबध्नीयात् । 'प्रख्याते विख्याते । 'वः' समुच्चये। 'पान्तरे स्तम्भे' अभ्यन्तर स्तम्भे ॥२१॥
[हिन्दी टीका-फिर इस यंत्र को पद्मावती देवी के सामने पीले पुष्पों से पूजन करके इसको एक अत्यन्त ऊँचे प्रसिद्ध स्तंभ में बांध दे ।।२१।।
तं हष्ट्वा दूर तरानश्यन्ति भयेन विलो भूताः। विरचित सेना व्यूहात् सङ्ग्रामेऽशेषरिपुवर्गाः ॥२२॥
[संस्कृत टोका]-'तं दृष्ट्वा' स्तम्भे निबद्ध यन्त्रपटं दृष्ट्वा । 'दूरसरानश्यन्ति' प्रतिदूरादेव 'नश्यन्ति' पलायन्ते । भयेन विह्वलीभूताः' भीत्या विकलीभूताः। कस्मात् ? 'विरचितसेनाव्यूहात विशेषेण रचितो विरचितः, विरचितश्चासौ सेनाव्यूहरच विरचित सेनाव्यूहः तस्मात् । क्य ? 'सङ्नामे' रणभूमौ । के ? 'अशेषरिपुवर्गाः' इतरशत्र समूहाः । नश्यन्तीति संबन्धः ॥२२॥
[हिन्दी टीका]-इस यंत्र को दूर से देखकर युद्ध में सेना का व्यूह बनाये हुए सब शत्रु लोग भय से डरकर भाग जाते हैं ।।२२।।
दिव्य सेना स्तंभन यंत्र चिा नं० २४ देखे ।
इत्युभयभाषाफविशेखर श्री मल्लिषेपसूरिविरचिते भैरवपनावतीकल्पे स्तम्भनयन्त्राधिकारः पञ्चमः परिच्छेदः ॥५।।
श्री उभय भाषा कवि श्री मल्लिषेरणाचार्य विरचित भैरव पद्मावती कल्प का स्तम्भनयंत्राधिकार को हिन्दी भाषा की विजया नाम की टीका समाप्त हुई।
(पांचवा अधिकार समाप्त)
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( 25 )
धूम्मर्य २ भेदय २ ग्रस २ पच २ खादयर स्वाहा ठः ठः अमुकस्य पट्टगजं, ॐ हूं ह्रीं ऐं ग्लौं स्वा
कहीँट
प्रतिपक्ष सैन्यं चूर्णय २
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देवदत्त
सेनास्तंभन यंत्र चित्रनं - २४,
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( 58 )
षष्ठोऽङगनाकर्षण परिच्छेदः
द्विरेषयुक्त लिख मान्तयुग्म षष्ठस्थरोकारयुक्त सबिन्दु | स्वरावृत पञ्च पुराणि वह्न रेफात् क्रमात् क्रोमथ ह्नीं च कोणे ।। १ ।।
[ संस्कृत टीका ] - 'द्वरेफयुक्त' रेफद्वय संयुक्तम् 'लिख' लेखय कितत् ? 'मान्तयुग्मम्' मकारस्यान्तो मान्तो यकारः, तस्य युग्ममिति यकारयुगलम् । किविशिष्टम् ? ' षष्ठस्वरौकार युतम्' षष्ठस्वरश्च श्रौकारश्च पष्ठस्वरौकारों ताभ्यां युत षष्ठस्वरौकारयुतम्, ककारः -- श्रकारसंयुतम् । पुन्नः कथम्भूतम् ? 'सबिन्दु' प्रनुस्वारे संयुक्तम् । एवं यूँ यौं । पुनरपि कथम्भूतम् ? स्वरावृतम्' तब्दीजबहिः प्रदेशे षोडशकलभिरावेष्टयम् | पञ्चपुराणि बह्न : आवृतकलावेष्टनवहिः प्रदेशे पञ्चवह्निपुराणि । 'रेफात् क्रमात् क्रोमथ ह्रीं" च कोरपे' रेफाक्षर सकाशाद् यथानुक्रमेण कोमत्यक्षरम् । 'अथ' को कारादनन्तरम् । 'ह्रीं' होमिति बीजम् । 'च' समुच्चये कोणे ॥१॥
क्य ?
[हिन्दी टीका ] - दो रेफ से युक्त छट्ठा स्वर उकार और श्रीकार युक्त अनुस्वार सहित दो यकार लिखना, यानी यूँ और माँ को लिखना, फिर इस बीज के बाहरी भाग में सोलह स्वरों को लिखे तदनंतर उसके बाहरी भाग में पांच अग्निपुर का लेखन करे, पांच अग्निपुर के प्रथम मंडल के तीनों कोनों में क्रौं और ह्रीं बीज को अनुक्रम से लिखे ||१||
क्लौं काररुद्ध च तथा ह्रसक्ली ब्लू काररुद्ध च ह सौस्तथैव । क्रमेण दिक्षु त्रिषु चाम्बिकाया यन्त्रं बहिर्वह्निमरुत्पुरं च ॥२॥
[ संस्कृत टीका ] - 'क्लो काररुद्ध' च' क्लोंकारद्वितयरुद्धम् । 'तथा ह् स्वली" तथा पूर्वोक्ताक्षर विधानेन ह, स्वलों इति बीजाक्षरम् । ब्लू कार रुद्ध ं च ब्लूकारयुगलरुद्ध च । 'हसो तथैव' हसौं इति बीजाक्षरम् 'क्रमेण' प्रथम मण्डलकोणत्रये ह्रीं" इति बीजम, द्वितीय मण्डल कोरणत्रये कों इति बीजम, तृतीय मण्डल को रणत्रये ह्रीँ इति बीजम, चतुर्थ मण्डल कोणत्रये क्लै काररुद्ध ह्स्क्लो इति बीजम, पञ्चम मण्डल कोणत्रये ब्लू काररुद्ध ह सौ इति बीजम, एवमनेन क्रमेणवह्निपञ्च
१. ब्लेकार इति ख पाठः ।
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पुरागिलेखनीयानि । 'दिक्षु त्रिषु' तन्मण्डलत्रिदिशासु 'मन्त्रं वक्ष्यमारणमन्त्रम् । कस्याः ? 'अम्बिकायाः' अम्बिकायक्षिदेच्याः । 'बहिः' तन्मात्रेबाह्म 'वह्निमरूत्पुर' अग्निमण्डल वायुमण्डलां च ।।२।।
अम्बिका मन्त्रोद्धार :
ॐ नमो भगवति! अम्बिके! अम्बालिके! यक्षिदेवि यो ब्लं ह स्क्ली ब्लं हसौः१ र र र रां रां नित्यक्लिन्ने । मदनद्रवे । मवनातुरे! ह्रीका अमुक मम वश्यावृष्टि कुरु कुरु सवौषट् ॥
[हिन्दी टीका] :-उसके बाद प्रथम मण्डल के कोरणो पर रं लिखे, द्वितीय मण्डल के तीनों कोरणों पर को लिखे, तृतीय मंडल के तीनो कोगों पर ह्रीं लिखे, उसी प्रकार प्रागे ब्लू लिखे और आगे इस्ल्को लिखे, उसके बाद ह सौं लिखे, तदनन्तर तीनो ही दिशानों में अम्बिका देविका मंत्र लिखे, उसके बाद अग्निमंडल और वायु मण्डल लिखे ।
___ मन्त्रोद्धार :-ॐ नमो भगवति (अम्बे, अम्बाले, अम्बिके) अंबिके अंबालिके यक्ष देवि यू यॉ ब्ल हल्की ब्लूह सी र: र: र: रः रां रां नित्ये, क्लिन्ने मदद्रवे मदनातुरे ह्रीं क्रों अमुकी मम वश्यावृष्टि कुरु कुरु संवौषट् ।।२।।
इष्टाङ्गनाकर्षणमाहुराद्या धत्त रतान्बूल विषादि लेख्यम् । यन्त्रं पटे खापरताम्रपत्रे दिनत्रये दीपशिखाग्नितप्तम् ॥३॥
[संस्कृत टोका]-'इष्टाङ्गनाकर्षणम्' इष्टप्रमदाजनाकृष्टिम् । 'पाहः' अवन्ति । के ? 'प्राद्याः' पूर्वाचार्याः । कम् ? 'यन्त्रम्' किविशिष्टम् ? 'धत्तुरताम्बूलविषादिलेल्यम्' उन्मत्तरसः तन्मुखताम्बूलरसः विष' शृङ्गोविर्ष आदिशवाद उद्गर्तनादिभिः 'लेल्यम्' इत्यादि द्रव्य लेखनीयम् । 'यन्त्रम् कथितयन्त्रम् । क्व ? 'पटे' वस्त्रे । 'खपरे' नूतन खपरे । 'ताम्रपत्रे शुल्वपत्रे । 'दिन त्रये' त्रिदिने । 'दीपशिखाग्नि तप्तम्' प्रदीप शिखा ज्वालातप्तम् ॥३॥
१. रः रः रः रःरोरा इति व पाठः । २. मदद्रव इलिख पाठः । ३. प्राकृष्टिमिष्टप्रमदाजनानां करोति यन्त्र खबिराग्नितप्तम् |
इति श्लोकार्डमषिक दीपशिखाग्नितप्तमित्यस्यानम्तरं पश्यते ग पुस्तके । तट्टीकाऽपि दृश्यते । सा यथा :प्राकृष्टि' । कासाम् ? 'इष्टप्रमदाजनाना' स्वकीयेप्सितानामङ्गनानाम् । 'करोति' करते । फितत् ? 'यन्त्रं' एतत् कथितयन्त्रम् । किविशिस्टम् ? खदिरकाठङ्गारतप्तम् ॥
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[हिन्दी टोका]--इस प्रकार अंगानाकर्षण यंत्र विधि को पूर्वाचार्यों ने कहा, इस यंत्र को जिसको वश करना है उसके कपड़े पर अथवा खोपड़ी पर वा तांबे के पतरा पर, धतूरा के रस से, उसके पान की पीक से अथवा बच्छ नाग आदि द्रव्यों से लिखकर दीपक की शिखा पर तपाने से इष्ट स्त्री का आकर्षण होता है ।।३।।
स्री आकर्षण यंत्र चित्र नं. २५
नोट :-इस यंत्र की विधि में तीनों प्रति में अलग-अलग वर्णन है, मंत्र में एक प्रति में (अम्बे, अम्बाले, अम्बिके) है, संस्कृत प्रति में (अम्बिके अम्बालिके) है, इसी प्रकार मणिलालसाराभाई के यहां से प्रकाशित प्रति में है। उसी प्रकार यंत्र में भी, प्रथम मंडल के कोरणे में रं लिखा है, कहीं यं लिखा हुआ है, सं. प्रति में यं और सूरत से प्रकाशित में यं, इत्यादि अंतर है । मंत्र शास्त्रज्ञाता सुधार कर लिखे, हमने तो संस्कृत प्रति के मूल पाठ का अनुसरण किया है।
उ ह्रीं ह्रत्कमले गजेन्द्रवशकं सर्वाङ्ग सन्धिष्यपि मायामाथिलिखेत् कुचद्वितय योग्यू योनिदेशे तथा । को कारैः परिवेष्टय मन्त्रवलयं दद्यात् पुरं चानलं तद्वाोऽनिलभूपुरं त्रिदिवसे दीपाग्निनाऽऽकर्षणम् ॥४॥
[सस्कृत टीका]-'उह्रीं ह्रकमले हृदय कमल मध्ये ॐ ह्रीं इति बीजाक्षरं विलिखेत् । 'सर्वाङ्गसन्धिषु सर्वशरीर सन्धिषु । 'अपि' तथा । 'गजेन्द्रवशक' अङ्क शम्। 'कुचद्वितययोः' स्तनद्वितययोः । 'मायामाविलिखेत्' । ह्रो कारमाविलिखेत् । 'तथा' तेन प्रकोरेण । 'योनिदेशे' योनि प्रदेशे। 'म्यू' य्यू इति बीजम् । 'कोंकारैः परिवेष्टय' तद्र पबहिः प्रदेशे को कारैः समन्तात् वेष्टयित्वा । 'पुरं चानलम्' तन्मन्प्रयलयबहिः अग्निमण्डलं धयात् 'तबाह्य ऽनिलभूपुरम्' तदग्निमण्डलबहिः प्रदेशे वायुमण्डलं तदुपरिभूमण्डलं दद्यात् । 'त्रिदिवसे दोपाग्निनाकर्षणम्' दिनत्रयमध्ये प्रदीप शिखाग्निना प्राकर्षणं स्थात् ॥४॥
बलयमंत्रोद्धार :-उँ नमो भगवति ! कृष्णामाताङ्गिनि ! शिलावल्कल कुसुम १ रुप धारिणि ? किरात शवरि ! सर्वजनमोहिनि२ ! ह्रां ह्रो ह ह्रीं ह्रः अमुकां मम वश्यावृष्टि कुरु कुरु संवौषट् ।
१. वेषधारि इति ख पाठः । २. सर्वजनमनो मोहिनी इति ख पाठः ।
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निम्वद्रवमवना ॐ नमो मग
अम्बिके अम्बालि
प्रॉब्लेम रस्सर
पालिके यादेवियोग
सवाषट।
निदत्रिय्याब्लेकी
--
मानिके अम्बालिक
ममनमोभगवास
रेकॉ अमुक मम
रूसरोष
कारकुरकुरूसरापट रसस्रो रानिया
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Att९ERसार 22ररररररररररररररररर रेसर रेरेरेरेरेरेरेररररररररर
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वृक्ष
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मदना सुरेही कामामुममा
रररररररररर HAMIR Tरेर स्रररररर MTR ttttti
रस रररररररररररररररररर ररिस्स्स्स रररररररररररररररर
प्रवद्रो मदना नुरे ही अमुकम
।
Simiraram.au
हाम्लामा
" वश्या कृार कुरुक
कुरुकृरूसवाषद।
ॐनमो भगवतिअम्दिन
अम्बिके अम्बालिकेएम
-स्त्रीआकर्षण यंत्रचित्रनं-२५......
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[हिन्दी टीका]-अपनी इच्छित स्त्री के रुप को एक ताम्रपत्र पर ऊपर पैर और नीचे की अोर शिर करके बनावे फिर उस स्त्री के हृदय पर ॐ ह्रीं लिखे, शरीर के सब जोड़ों पर क्रों को लिखे, दोनों स्तनो पर ही लिखे, उसी प्रकार योनि प्रदेश पर यूं लिखे फिर को कार से परिवेष्टित करके बाद में नीचे लिख मंत्र से वेष्टित कर दे, उसके बाद अग्नि मण्डल, वायु मण्डल और पृथ्वी मण्डल से पैर देवे, तीन दिन दीपाग्नि पर यंत्र को तरावे तो आकर्षण होता है ।।४।।
___वलय में लिखने के लिये मंत्र:-ॐ नमो भगवति कृष्णमातङ्गिनिशिलाब कल कुसुम रुप धारिणि किरात शवरि सर्वजन मोहिनि सर्वजन वशकरि ह्रां ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रः अमुक (को) आकर्षय-२ मम वश्या कृष्टि कुरु कुरु संवौषट् ।
पत्रे स्त्रीरुपमालिख्यमूर्ध्वपादमधः शिरः । ब्रह्मादिराजिका धूम भानु दुग्धेन लेखयेत ॥५॥
[संस्कृत टीका]-'पत्रे २ ताम्रपत्रे । 'स्रोरुपम्' इष्टाङ्गनारुपम् । 'प्रालिलयं लिखित्वा । कथम् ? 'ऊर्ध्वपादमधः शिरः' पादावूयं शिरोऽषः कृत्वा लिखेत् । 'ब्रह्मावि ब्रह्मादिपलाशश्नग्धत्त रमिजि अन्ये बदन्ति ब्रह्माविष्ण रुद्रेति त्रिपुरुषम् । 'राजिका' गौरसर्षयाः । 'धूम' गृहधूमम् । 'भानुदुग्धेन' अर्कक्षीरेण लेखयेत्। एतैः द्रव्यः कथित सी रूपं यन्त्रं लेखयित्वा दीपशिखग्नौ तापयेत् इत्यर्थः ।।
[हिन्दी टीका]-इस यंत्र को ताम्रपत्र पर (अवथा तांबुलपत्र पर) स्री रूप को जिसके पांव पर और शिर नीचे करके लिखे, लिखने के द्रव्य इस प्रकार लेवे, धनूरा का रस, पलास का रस, थुअर का रस, सफेद सरसों, घर के धुआ का मेश, प्राकडे का दुध आदि द्रव्यों से (धतूरा, सफेद सरसों, गेहूं और प्राकडे के दूध से) लिने, फिर तीन दिन तक दीपक की शिखा पर यंत्र तपावे तो इन्छित स्री का प्राकर्षरण होता है ॥५॥
अंगनाकर्षण यंत्र चित्र नं. २६ देखें।
नोट :-इस यंत्र की दूसरी प्रतियों में मूर्ति के बाहर अग्नि मंडल, बाहर क्रोंकार से वेष्टित, फिर मंत्र वलय और पृथ्वी मंडल लिख कर यंत्र की समाप्ति करना, मुल विधि यही है, संस्कृत में इसी प्रकार का पाठ है । १. लेपयुत् इति ख पाठः । २. हस्त लिखित प्रति में तांबूल पत्र पर लिखने को कहा है।
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(६४)
हिनिसर्वजन वश दीकॉकाँक्रीका
शकरिहोहोहली
सर्वजनमोहिनि क्रौनीको
काक्रोक्रॉकी
किरातशवरीसर्व
हक्रिीकाको
चहाहःअमुका(किार
ररररररररररररररररररं
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कालावत्कलकुसुमरूप
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कुरूकुरूसवान
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अंगनाकर्षणयंत्रचित्रनं.२६,
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अग्निपुटकोष्ठमध्ये कलावृतं नाथमङ्ग,शनिरुद्धम् । कोष्ठे। प्रणवङ्क शमायारतिनाथरंरश्च ॥६॥
[संस्कृत टीका]-'अग्निपुट कोष्ठमध्ये' शिखिमण्डल द्वय सम्पुट कोष्ठमध्ये । 'कलावृत्तं' षोडशकलाभिरावृतम् । कम् ? 'नाथम्' भुवननाथं ह्री कारम् । कथम्भूतम् ? 'प्रङ्क शनिरुद्धम् तद् ह्री कारोभयपाश्र्चे कोंकार द्वयरुद्धम् । 'कोष्ठेषु' तदग्निपुटषट् कोणेषु। 'प्रणवाङ्क शमाया रतिनाथरंरश्च' प्रथम कोष्ठे , द्वितीय कोष्ठे को', तृतीय कोष्ठे ह्री', चतुर्थ कोष्ठे क्लो पञ्चम कोष्ठे रं, षष्ठकोष्ठे रः ॥६॥
[हिन्दी टीका]-साधक पहले ही लिखे, उसके दोनों बाजु कों लिखे, फिर एक वलय बनाकर, षोड़श स्वर को लिखे उसके बाद अग्नि मण्डल संपुट बनावे, पट कोण का। उस षट कोण के प्रत्येक कोने में क्रमशः ॐ, क्रों, ह्रीं', क्लीं रं और रः बीजों को लिखे ॥६॥
कृष्णाशुनकस्य जङ्खाशल्ये प्रविलिख्य मनुजरक्तन । खदिराङ्गारस्तप्ते सप्ताहादानयत्यबलाम् ॥७॥
[ संस्कृत टीका ]-'कृष्णाशुनकस्य' असितभषणस्य । 'जङ्काशल्ये । सच्छुनकदक्षिणजङ्गास्थि । 'प्रविलिख्य' प्रकर्षेण लिखित्वा । केन ? 'मनुजरक्तन' नररुधिरेण । 'खदिराङ्गारः' खदिरकाष्ठाङ्गारः 'तप्ते' तापिते सति । 'सप्ताहात्' सप्तदिन मध्ये । 'प्रानयति' समानयति । काम्? 'अबलाम्'वनिताम् ॥७॥
[हिन्दी टीका] -काले कुत्ते के जङ्घा की हड्डी पर मनुष्य के हाथ के रक्त से यंत्र लिख कर खदिराग्नि में यंत्र को तपाने से सात दिन में ही, इच्छित स्री का आकर्षण होता है ॥७॥
अंनना अाकर्षरण यंत्र चित्र नं २७ देखे । अथवा रजस्वलाया वस्त्रे संलिख्य जलजनागिन्याः । पुच्छं विधाय यति तद्दीपादानयेन्नारीम् ॥८॥
[ संस्कृत टीका -'अथवा' अन्येन प्रकारेण वा। 'रजस्वलायाः' पुष्पवत्याः। 'वस्त्रं तदस्त्रे । 'संलिख्य' प्राकशुनकास्थिलिखिताग्निपुटकोष्ठेत्यादि
१. ग पुस्तके 'भूजरक्तन' इति पाठोदश्यते, टिप्पण्या स खररक्तं न इति तस्यार्थी निर्षिश्यते ।
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यन्त्रं सम्यग् लिखित्वा । 'जलजनागिन्याः' अलोद्भवसपिण्याः। 'पुच्छं विधायति' नागिन्याः पुच्छं गृहीत्वा तद्वस्त्रमध्ये निक्षिप्य तिं कृत्वा । तद्दीपात्' सतिप्रबोधितवीपात् । 'पानयेत्' समानयेत् । काम् ? 'नारीम्' वनिताम् ॥८॥
[हिन्दी टीका |-अथवा अन्य प्रकार से रजस्वला स्री के वस्त्र पर पहले कहे हुए यंत्र को लिखकर उस सहित पानी में रहने वाले सर्प की पुंछ को ग्रहण कर उसे कपड़े में मिलाकर उसकी बाती बनावे, उस बाती को बना कर जलाने से स्त्री का आकर्षण होता है ।।
यंत्र चित्र नं. २७ ही देखें । ह्री कारमध्ये प्रविलिख्य नाम षट् कोण चक्र बहिराविलेख्यम् । कोणेषु तत्वं त्रिषु चोवंकोरणद्वये पुनरयू मधरों लिखेच्च १६॥
[ संस्कृत टोका ]-'ह्रीं कार मध्ये' भुवननाथाधिपमध्ये । 'प्रविलिख्य' प्रकरण लिखित्वा । किम् ? 'नाम' देवदत्तनाम । 'षट्कोणम् । 'बहिः' तवही काराद् बहिः । 'पालेख्य समन्तादालेख्यम् । 'कोरणेषु षट्कोणेषु । 'तत्त्वं' ह्रो कारम् । 'त्रिषु च' अधोगतपायकोरणद्वयम । ऊर्ध्वगत कोणमेकम , एवं कोणत्रये ही कार लिखेत् । 'ऊर्ध्वकोरणद्वये' पार्श्वकोण द्वये । 'पुनः' पश्चात् । '
यूएy” इति लिखेत् । 'अधरों लिखेच्च अधोगत मध्य कोणे उँ लिखेत् । 'च' समुच्चये ॥६॥
हिन्दी टीका]-ह्री कार के मध्य में देवदत्त लिखकर ऊपर से षट कोण बनावे फिर उस प्रट्कोण में ऊपर कोणे में ह्री, उसके बाद य्यू फिर ह्रीं फिर ॐ फिर ह्रीं, उसके बाद य्यूं क्रमशः लिखे ।।६।।
पाशाङ्क शो कोएशिखान्तरस्थौ मन्त्रावृतं वायुपुरं च बाह्म । प्राकृष्टिमिष्टप्रमदाजनानां करोति यन्त्र खदिराग्नितप्तम् ॥१०॥
[संस्कृत टोका]--'पाशाङ्क शौ कोरपशिखान्तरस्थी' षट्कोणचक कोणेषु पाशाङ्क शो प्रो को। 'मन्त्रावृतं' षट्कोण चक्रबहिः वक्ष्यमाणमंत्रेणावेष्ठितम् । वायुपुरं च बाह्य' तन्मत्रवलयबहिः प्रदेशे वायुमण्डलम् । 'चः' समुच्चये। 'प्राकृष्टि' आकर्षणम । कासाम ? 'इष्ट प्रमदाजनानां' स्वेप्सितस्रीणाम । करोति कुरुते । कितत् ? यन्त्रम' कथितषट् कोरण यन्त्रम किविशिष्टम ? खदिराग्नितप्तम' खदिरकाष्ठाग्निनातापितम् ॥१०॥
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वलयमंत्रोद्धार:-उँ हूं. ह स्क्लो ह सौ अाँ को यू" नित्यक्लिन्ने ! मदनवे ! मदनातुरे ! अमुकी मम बश्याष्टि कुरु कुरु संवौषट् ॥१०॥
[संस्कृत टीका]-पट कोण चक्र के प्रत्येक बाहर के कोरगो पर, आँ को क्रमशः लिने, ऊपर से मंत्र बलय बनाकर उस बलय में मंत्र का लेखन करे, और वायु मण्डल बनादे, वायु मण्डल में यं स्वाहा लिखे, इस यंत्र को इष्ट स्री का प्राकर्षण करने के लिये खदिराग्नि में तपाना तो आकर्षण होता है ।।१०।।
___मंत्रोद्धार वलय में लिखने के लिये :-ॐ ह्रीं हल्की हसौं ओं को यूं नित्य क्लिन्ने मदद्रव मदनातुरे अमुकीं मम वश्या कृष्टि कुरु कुरु संवौषट् ।।
लिखित्वा ताम्रपत्रे वा श्मशानोद्भवखपरे । तदङ्गमल धत्त रविषाङ्गार प्रलेपिते ॥११॥
[संस्कृत टीका]-'लिखित्वा' प्रालिल्य । पव ? 'ताम्रपत्रे' ताम्मयिनिमितपत्रे । 'या' अथवा । 'श्मशानोवखपरे' श्मशान जनित खपरे। 'तदङ्गमल' इष्टाङ्गनापञ्चमलः 'धत्त र' उन्मत्तकरसः 'विष' शृङ्गीविषम् 'प्रङ्गार' श्मशानाङ्गारः 'प्रलेषिते' एतैः अङ्गमलादिद्रव्यैः ताम्रपत्रे प्रलेपिते सति ॥११।।
[हिन्दी टीका |--इस यंत्र को ताम्रपत्र पर अथवा श्मशान से उत्पन्न खपरा पर इष्ट स्त्री के अंग के स्यनो पर का मल, (अथवा पंचमल से) धतूरा शङ्गीविष और कोयले से लिखना चाहिये ।।११।।
यंत्र चित्र नं २८ देखें, यह भी अंगनाकर्षण यंत्र है।
नोट :-चमल, अांख का मल, कान का मल, दांत का मल, जीभ का मल और शुक्रमल । मूल संस्कृत की प्रति में भी पंचमल को प्रयोग में लेने को लिखा हैं । जहां ताम्रपर यंत्र लेखन विधि लिखी है वहां इन द्रव्यों का लेप करे, पहले बहुत पतले ताम्रपा पर यंत्रा लेखनी से यंत्र खोद कर, उपरोक्त द्रव्यों का लेप करना चाहिये ।
ही वदने योनौ क्लों हस्क्ली कण्ठे स्मराक्षरं नाभौ । हृदये हिरेफयुक्त हकारं नाम संयुक्तम् ॥१२॥
१. क्ले' इति न पाठः।
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(
6
)
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स्वा हा या क्राफर
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स्त्रीआकर्षणयंत्र चित्र नं-२८
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( १०० )
[ संस्कृत टीका ] - 'ह्रीं वदने' ग्रास्ये होंकारम् । 'योनो क्ले" योनिमध्ये क्ले । 'हस्क्लो कण्ठे कण्ठप्रदेशे हस्थली इति । 'स्मराक्षरं नाभौ' नाभि प्रवेशे क्लकारम् । 'हृदये द्विरेफयुक्त ह. कारं हृत्प्रदेशे प्रधउर्ध्व रेफद्धययुक्तं हृ कारं हमिति । किविशिष्टं ह्र कारम् ? नाम संयुक्तम्' देवत्तनामान्वितम् ॥१२॥
[हिन्दी टीका | मुख में ह्रीँ, योनि में क्लें, काण्ठ में हस्वली, नाभि प्रदेश में कार, हृदय प्रदेश में हूँ कार, देवदत्त नाम सहित लिखे || १२ ||
भावार्थ :- एक त्री का चित्र बनाकर, उपरोक्त अंगोपाङ्ग में बीजाक्षर
लिखे ।
नाभितले क्लू कार ? बेबादि २ मस्तके च संविलिखेत् । स्कन्धमणिबन्धकूर्पर पदेषु तत्वम् प्रयोक्तव्यम् ॥१३॥ [ संस्कृत टीका ] - 'नाभितले क्लू कारं नाभेरधः प्रदेशे फ्लूकारम् । 'वेदादि' वेदस्य श्रादिर्वेदादिः उकारः तं 'मस्तके च' शीर्षे च संविलिखेत् । 'स्कन्धमणिबन्धकूपर पदेषु तत्त्वं प्रयोक्तव्यम्' स्कन्ध प्रदेशे मणिबन्ध प्रदेशे कूर्पर प्रदेशे पदद्वयप्रदेशे, एतेषु प्रदेशेषु ह्रो कारः प्रकर्षेण योजनीयः ||१३||
[हिन्दी टीका | नाभि के नीचे क्लू मस्तक पर ॐ तथा कंधा, मरिण बंध, कनपटी और पैरो में ही को लिखे ||१३||
हस्ततते यू कारं सन्धिषु शाखासु शेषतो रेफान् । त्रिपुटित यह्निपुरत्रयमथ तबाह्यप्रदेशेषु ॥ १४ ॥ कोष्ठेषु भुवननाचं कोष्ठाग्रान्तर निविष्टमङ्क शं बीजम् । वलयं पद्मावस्या मन्त्रेण करोतु तद्बाह्य ||१५||
[ संस्कृत टीका ] - हस्ततले यू "कारम्' करतले यू कारं लिखेत् । 'सन्धिषु शाखासु हस्तपादादिशाखासु 'शेषतः ' श्रङ्ग ुत्यादि शाखासु 'रेफान्' रकारान् लिखेत् । 'त्रिपुटित वह्निपुरत्रयम्' एतत् क्रमेणोद्वरिपुतलिका बहिः प्रदेशे श्रग्निमण्डल त्रय सम्पुटं कुर्यात् । 'श्रथ' त्रिपुटिताग्नि पुरानन्तरं 'तद्वाह्यप्रदेशेषु' तदग्निमण्डल बहिः प्रदेशेषु 'कोष्ठेषु' नवकोष्ठेषु 'भुवननाथम्' ही कार लिखेत् । 'कोष्ठाग्रान्त र निविष्ट
१. ब्ल इति पाठ: । २. 'वेदाद्य' इति व पाठः ।
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( १०१ ) मङ्क शं बीजम्' कोष्ठानेषु तवन्तरेषु च निवेशित को कारम् । 'बलय वेष्टनम् 'पद्मावत्याः' , पद्मावती देव्याः 'मन्लोरण' वक्ष्यमारणमन्त्रोण 'करोतु' कुर्यात् 'तद्वाह्य' तन्मण्डलबाह्म।
वलयमन्त्रोद्धार :-उँ ह्रीं ह्रहस्थली पन ! पद्मकटिनि ! अमुकां मम वश्याकृष्टि कुरु कुरु संबोषट् ॥१४॥१५॥
[हिन्दी टीका]-हाथ के तलवों में म्यू" कार को, बाको हाथ-पांव की अंगुलियों में, सन्धि शाखाओं में रकार को लिखे, उसके ऊपर तीन अग्निमंडल बनावे, यह अग्निमंडल उपरोक्त पुलिका पर बना देवे उस अग्निमडल के पुट के नौ कोठों में ह्रीं तथा कोठों के ऊपर को बीज लिखे, उसके ऊपर पद्मावती मंत्र को लिखे और यंत्र को ह्रीं कार से तीन घेरा डालकर वेष्टित कर दे ।
वलय मंत्र :-ॐ ह्री ह ह्रक्ली पद्मपद्य कटिनि अमुकां मम वश्यावृष्टि कुरु २ संवौषट् ।।१४।।१५।।
प्रङ्क शरोधं कुर्यात् तद्बाह्य मायया त्रिधा वेष्टयम् । यावकमलयजचन्दन काश्मीराय रिवं लिखेद् यन्त्रम् ॥१६॥
[संस्कृत टीका]-'अङ्क शरोधं कुर्यात्' क्रोकाररुद्ध कुर्यात् । क्य? 'तब्बाह्य' तन्मन्त्रवलय वहिः प्रदेशे 'मायया' ह्रींकारेण 'त्रिधा वेश्यम्' त्रिप्रकारेण वेष्टय । 'पावक' अलक्तकम्, 'मलयज' श्रीगन्धम् 'चन्दनम् रक्तचन्दनम् 'काश्मीरम्' कुङ्क मम्, इत्यादि सुगन्ध द्रव्यैः 'इदं लिखेद् यन्त्रम्' एतत् कथितयंत्रां लिखेत् ॥१६॥
[हिन्दी टीका]-क्रो कार से रोध करके, उसके बाहर माया बीज ह्रीं कार से तीन बार बेष्टित कर दे । इस यंत्र को अलक्तक, सफेद चंदन, लाल चंदन, केसर आदि द्रव्यों से लिखे ।।१६।।।
वस्त्रो रजस्वलायाः खदिराङ्गारेण तापयेद् धोमान् । कुरुतेऽभिलषित१ वनिता कृष्टि सप्ताह मध्येन ॥१॥
[संस्कृत टीका]-'वस्तो रजस्वलायाः' 'धीमान' बुद्धिमान् । अभिलषित यनिताकृष्टिम्' अभिप्रेताङ्गनाकष्टिम्' 'कुरुते' कुर्यात् । कथम् ? 'सप्ताहमध्येन' सप्तदिनाम्यन्तरतः ॥१७॥
[हिन्दी टीका]-मंत्रवादि इस यंत्र को रजस्वला के कपड़े पर लिखे तो सात दिन में अथवा उसके अंदर ही स्त्री आकर्षित हो जाती है ।।१७।। . कुरुतेऽभिलिखित इति व पाठः ।
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( १०२)
ॐहाहहलों पर
संवौषट् । ॐ
निअमुकाममा
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अंगनाकर्षणयंत्र चित्रन
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( १०३ । रविदुग्धादिविलिप्ते युबतिकपालेऽथवा लिखेद् यन्त्रम् । पुरुषाकृष्टौ च पुनर्नु कपाले यन्त्रमेवेदम् ॥१८॥
[ संस्कृत टोका ]-'रविदुग्धादि' अर्फक्षीर-स्नुहोक्षीर-गृहधूमराजिकालवणेत्यादिभिः 'विलिप्ते' विशेषेण लिप्ते । कस्मिन् ? युवति कपाले 'प्रथया' प्राक्कथित रजस्वलावस्त्राभावे अनेन प्रकारेण वा 'लिखेद् यन्त्रम्' प्राक्कथित यन्नं विलिखेत् । 'पुरुषाकृष्टौ च पुरुषाकर्षण विषये 'पुनः' पश्चात् 'नकपाले पुरुषकपाले 'यन्त्रमेवेदम' एतदेव पलां लिखेत् ॥१८॥
[हिन्दी टीका]-अथवा इस यंत्र को आकड़े के दूध अथवा धूअर के दूध, गह की धुना, सफेद सों और नमक आदि द्रव्यों से किसी स्त्री के कपाल पर लिखे, पहले कहे हुए यंत्र को अथवा पुरुषाकर्षण में पुरुष के कपाल पर लिखे, यंत्र को खेर की अग्नि पर तपावे तो सात दिन में स्त्री आकर्षित होती है ।।१८।।
यंत्र चित्र नं० २६ देखे । नाम तत्वविभित बहिरालिखेच्छिखि मण्डलं , रेफमन्त्रघृतं श्मशानजकर्परे विलिखेदिदम् । तापयेत् खदिराग्निना हिमकुङ्क मादिभिरादरादानयत्यबला बलादिनसप्तकर्मदविह्वलाम् ॥१६॥
[संस्कृत टीका] 'नाम' देववत्तनाम, कथम्भूतम् ? 'तत्वविगर्भितम्' ही कारमध्यस्थितम्, 'बहिः' होकाराद् बहिः प्रदेशे। 'पालिखेत्' समन्ताल्लिखेत् । किम् ? 'शिखि मण्डलम् अग्निमण्डलम् 'रेफमन्त्रवृतम्' रकारमन्त्रवलयेण तदग्निमण्डलं बाह्य वेष्टयम् । 'इदम् एतद् यन्त्रम् 'विलिखेत्' लिखेत् । क्व?'श्मशानज खपरे'प्रेतवनकर्परे। के लिखेत् ? 'हिमकुङ्क मादिभिः कर्पूर काश्मीरादि सुगन्ध द्रव्यैः 'प्रादरात्' आदरेष । कि कुर्यात् ? 'तापयेत्' तापरणं कुर्यात् । केन ? 'खदिराग्निना' खदिरकाष्ठ जनिताग्निना। 'मानयति' समानयति । काम ? 'अबलाम्' वनिताम् । कथम् ? 'बलात्' बलात्कारेण । कियत्कालेन ? 'दिनसप्तकः' सप्तदिवसः । 'मदविह्वलाम्' मदनाकुलिताम् ॥१६॥
बलयमन्त्रोद्वार :-उँ नमो भगवति ! चण्डि ! कात्यायनि ! सुभग दुर्भग युवतिअनानाकर्षय प्राफर्षय हो र र म्यू" संवौषट् देवदत्ताया हृदयं घे घे ।
१. विवभितं इति ख पाठः। २. प्राक्लो होंठः ठः ठः ठः ठः हूँ फट् देववत्ताय हृदयं घे घे संवौषट् इति ख पाठः ।
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( १०४ )
[ हिन्दी टीका ] - ह्रीं के मध्य में देवदत्त का नाम लिखकर, ऊपर से अग्निमंडल बनावे, रेफ सहित बनावे और एक वलय देकर उस वलय में नीचे लिखा हुआ मंत्र लिख दे । इस यंत्र को श्मशान के खपरा पर कपूर, केसर, चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों से श्रादर पूर्वक लिखकर खदिराग्नि में तपावे तो इच्छित स्त्री सात दिन में मदरहित होकर ग्रा जाती है ।। १६ ।।
देखे यंत्र चित्र नं० ३० ।
मंत्रोद्वार : - ॐ नमो भगवति चन्ड (चण्डि) कात्यायनि सुभग दुर्भग युवति जनानामाकर्षय २ ह्री र र यू" संवौषट् देवदत्तायां हृदयं घे घे ।
इत्युभयमाषाय शेखर श्री मल्लिषेष सूरि विरचिते भैरव पद्मावती कल्पेऽङ्गनाकर्षखाधिकारः षष्ठः परिच्छेदः ||६||
इस प्रकार उभय भाषा कवि श्री मल्लिषेणाचार्य विरचित भैरव पद्मावती कल्प का अंगनाकर्षण नाम के अधिकार की हिन्दी भाषा नामक विजया टीका
समाप्ता ।
( षष्ठम् अध्याय समाप्त )
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{ १०५ )
आकर्षय जा
तिजनानामाकर्ष
से वी पर
रररररररररररररर
रररररररररररररररररं
देिवदत्त
ररररररररररररररररररर
तिचाण्डकात्यायनिक
हद यं
LATERISTIR अंगनाकर्षणयंत्र चित्रन. ३०,
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{ १०६ ) सप्तमो वशिकरणयन्त्र परिच्छेदः हंसावृताभिधानं लयरयषष्ठस्वरान्वितं कूटम् । बिन्दुयुतं स्वरपरिवृतमष्ट दलाम्भोज मध्यगतम् ।।१॥
[संस्कृत टीका]-'हंसावृतम्' हंस इति पदेनावृतं-वेष्टितम् । किं तत् ? 'अभिधानम् देवदत्तनाम । 'लवरयषष्ठस्वरान्वितम्' लश्च वश्च रश्च यश्च षष्ठस्वरश्च ककारः एतैरन्वितं युक्तम् । कि तत् ? 'कुटम् क्षकारम् । पुनः कथम्भूतम् ? 'बिन्दुयुतम् अनुस्वार संयुक्तम्, एवं क्षम्य इति पिण्डं हंसपदाद बहिर्देयम् । पुनरपि कथम्भूतम ? 'स्वर परिवृतम्' पिण्डाद् बहिः स्वररावेष्टितम् । पुनः कथम्भूतम् ? 'अष्टदलाम्भोजमध्यगतम्' अष्ठदलकमलमध्ये स्थितम ॥१॥
[हिन्दी टीका]-हंसः शब्द के मध्य में देवदत्त लिखकर उसके ऊपर क्षम्ल्यू लिसो, उसके ऊपर एक वलय में स्वर लिलो, फिर अष्टदल कमल बनावे ।।१।।
तेजो है सोम सुधा हंसः स्वाहेति दिग्दलेषु लिखेत् । प्राग्नेय्यादिदलेव्यपि पिण्डं यत् करिणकालिखितम ॥२॥
[संस्कृत टीका]-'तेजो है सोम सुघा हंसः स्वाहा' तेज:-उँकारः, 'है हमिति अक्षरं, सोमः क्वों कारः, सुधा क्ष्वीकारः, "हंसः' हंस इति पदम् 'स्वाहा' स्वाहा इति पदम् । एवं उँ है क्वी क्ष्वो हंसः स्वाहा इत्येवं विशिष्टमन्तां 'दिग्दलेषु' प्राच्यादिषु चतुः पत्रेषु लिखेत । 'प्राग्नेय्यादिवलेष्वपि' पश्चात प्राग्नेय्यादि विदिग्गतचतुर्दलेष 'पिण्डं यत, करिणकालिखितम् ' यत कणिकाभ्ययन्तरे लिखितं मल्टन, इति पिण्डं विदिक्पशेषु लिखेत ॥२॥
__ [हिन्दी टीका -उस अष्टदल कमल के पूर्वादि चारों दिशाओं में ॐ हूँ क्यों (वी) क्ष्वी हंसः स्वाहा लिखे और चारों विदिशाओं में भव्य पिण्डाक्षर के को लिला देवे ।।२।।
नोट :-मूल संस्कृत पाठ में और अहमदाबाद से प्रकाशित पद्ममावती उपासना में क्वी है और हस्तलिखित संस्कृत पाठ में ॐ ग्रह हो ६वीं हं सः स्वाहा, लिखा हुआ है । इसी प्रति के यंत्र में ॐ ह्रीं इवीं श्वी हसः स्वाहा लिखा है, सूरत की कापड़िया की प्रति में ॐ अहं इवीं क्ष्वों हंस स्वाहा है।
लेकिन मेरा मत ऐसा है कि क्ली की जगह इवी ही होना चाहिये ।।२।।
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भूर्ये सुरभिद्रव्यविलिख्य तत् सिक्थकेन परिवेष्टय । नूतनघटेऽम्बुपूर्णे सद्यन्त्र स्थापयेद् घीमान् ॥३॥
[संस्कृत टीका]-'भूर्ये' भूर्यपत्रे 'सुरभिद्रव्यः' कुङ्कमक' रादिसुगन्धिद्रव्यः 'विलित्य' विशेषेण लिखित्वा 'तत्' तल्लिखित यन्त्रम् 'सिक्थकेन' मधूच्छिष्टेन 'परिवेष्टय' समन्ताद् आवेष्टय । 'नूतनघटे' नवकुम्भ। कथम्भूते ? 'अम्बुपूर्णे' शीतलजलपरिपूर्णे । 'तयन्त्रं तत् सिक्थकेन वेष्टितं यन्त्रम् 'स्थापयेत्' निक्षिपेत् । का? 'धीमान्' बुद्धिमान् ।।३।।
हिन्दी टीका]-मंत्रसाधक इस यंत्र को भोज पत्र पर केसर, कपुर आदि सुन्धित द्रव्यों से लिख कर, यंत्र को मोम में लपेट कर, ठडे पानी से भरे हुए नवीन घड़े में रखे ।।३।।
तन्दुलपूर्ण मृण्मयभाजनमप्युपरि तस्य संस्थाप्य । श्री पार्श्वनाथ सहितं करोति वाहज्वरोपशमम् ।।४॥
[संस्कृत टोका]-'तन्दुलपुर्णम्' शाल्यक्षतभरितम् 'मृण्मयभाजनम्' मृदानिमितपात्रम् 'अपि' पश्चात् 'उपरि तस्य' पूर्णकुम्भस्योपरि 'संस्थाप्य' सम्यक् स्थापयित्वा । कथम् ? 'श्रीपार्श्वनाथ सहितम्' तन्दुलोपरि श्री पार्श्वनाथ जिनप्रतिमायुक्तम् एवं विधाने कृते सति 'करोति' कुरुते । कम ? 'दाहज्वरोपशमम' दाहज्वरस्य शान्तिम ॥४॥
[हिन्दी टीका]-फिर चांवलों से भरे हुए मिट्टी के घड़े के ऊपर स्थापना कर उसके ऊपर श्री पार्श्वनाथ भगवान को स्थापना करने से दाह ज्वर शांत होता है ।१४।।
श्री खण्डन तवालिख्य पाययेत् कास्यभाजने । महादाहज्वरग्रस्तं तत्क्षणेनोपशाम्यति ॥५॥
[संस्कृत टीका]--'श्री खण्डेन' मुखाश्रयेण 'तत्' प्राक् कथित यन्त्रम 'प्रालिख्य' लिखित्वा 'पाययेत्' प्रातुरं पाययेत् । तत् क्ब लिखित्वा ? 'कांस्यभाजने' कांस्यनिमित पात्रे । कम ? 'महावाहज्वरप्रस्तम' तीव्रोष्णज्वरग्रहीतम । 'तद' दाहज्वरम 'क्षणेन' निमिषमात्रय उपशाम्यति' उपशर्म प्राप्नोति ॥५॥
१. विलिखेत् इति ख पाठः ।।
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( १०८ )
[ हिन्दी टीका ] - पहले कहे हुए मंत्र को कांच के बर्तन पर सुगन्धित द्रव्यों से लिखकर रोगी को पिलाने से तुरंत हो दाह ज्वर शांत होता है ||५|| मंत्रोद्वार : - ॐक्ष्म्य" हॅ क्वी देवी हं सः असि आउमा स्वाहा यही मंत्र सूरत की प्रति में इस प्रकार है, ॐ नमो भगवते पार्श्व चंद्राय व्यहँ
67
वीँ हंसः प्रति आउसा स्वाहा । बाकी प्रतियों में नमो भगवते पार्श्व चंद्राय, रवी की जगह क्वो लिखा है । हमने संस्कृत प्रति का अनुकरण किया है ||५|| मन्त्रोद्धार :- ॐ क्षम्यहं क्त्री क्ष्वा हंसः श्रसि उसा स्वाहा || दाह ज्वर शांति यंत्र चित्र नं. ३१ देखे |
( ब्लें) क्लैतत्व कूटेन्दवृतं स्वनाम तद्ब्राह्यं भागेऽष्ट दलाउजपत्रम् । पोषु पद्मावरमूल मन्त्रं वेष्टयं तवाकर्षण पल्लवेन ॥६॥
[ संस्कृत टीका ] - 'क्लेतत्व कुठेन्दुवृतम्' 'क्लें' 'क्ले कारं, 'तत्वं' होंकारम् 'कूट' क्षकारम्, 'इन्दुः' ठकारः तैः वृतम् एभिश्चतुर्खोजेरावेष्टितम् । किंसत् ? 'स्वनाम' स्वकीयनाम । 'तद्वाह्यभागे' तद्वीजाक्षरबहिः प्रदेशे । 'अष्टदलाब्ज पत्रम् ' श्रष्ट दल कमल पत्रम् | 'पत्रेषु' तद्दलपत्रेषु 'पद्मावरमल मन्त्रम' पद्मावती देव्या विशिष्टमूल मन्त्रम 'वेष्टयं तद्' तद् यन्त्रं वेष्टनीयम | केन ? ' आकर्षण पल्लवेन' संवौषट् इति पल्लवेन || ६ ||
मन्त्रोद्वार : - उ ह्रीं ह्र हरवली पद्म ! पद्मनि ! नमः ॥
[हिन्दी टीका | - 'ब्ले (क्लें) ह्रीँ क्ष और ठ से अपने नाम को परिवृत
करके उस के बाहर के भाग में प्रष्ट दल कमल बनावे, उस अष्टदल कमल के प्रत्येक दल में पद्मवती देवी का मूल मंत्र लिखें, फिर उसको आकर्षण पल्लव संवौषट से वेष्टित करे || ६ ||
V
मंत्रोद्वार : ॐ ह्रीं ह्र हस्ल्को पद्म पद्मकटिनि नमः ।
यन्त्र ततश्चार्द्ध शशि प्रवेष्टयं विलिएय यन्त्रं फलके बटस्य ।
गोरोचनासंयुतकुङ्क, मार्च: साध्यस्य नामारु चन्दनेन ||७||
[ संस्कृत टीका ] - ' यन्त्रम् एतत् कथितयन्त्रम् 'ततः' तस्मालेखनानन्तरम् 'च' समुच्चये 'शशिप्रवेष्टयम् अर्द्धचन्द्र रेखया वेष्टयम् 'विलिख्य' विशेषेण
१. ले इति पाठ: ।
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[१०६ ।
हवादको
स्वाहा
आ
ॐ
खाहा
Robote - (ज्वर) दाहशांत यंत्र चित्रना३१
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लिखित्वा 'यन्त्र' एतद् यन्त्रम् । क्व ? फलके' पट्टिकायाम् । कस्य ? 'वटस्य' न्यग्रोधवृक्षस्य । केः कृत्वा ? गोरोचनसंयुतकुन माछ:' गोरोचनान्वितकुडू मादिद्रव्यः । 'साध्यस्य नामारुणचन्दनेन' साध्यमनुज नामान्वितं यन्त्रं रक्तचन्दनेन लेख्यम् ॥७॥
हिन्दी टीका] -उसके बाद इस यंत्र को अर्द्ध चंद्रमाकार से घेर दे, इस यंत्र को अच्छी तरह से लिखे, किस के ऊपर लिखे ? वट वृक्ष के पाटीया के ऊपर, गोरोचन, केशर से लिखे, साध्य के नाम वाले यंत्र को लाल चंदन से लिखे ।।७।।
कृत्वा ततश्चोभय सम्पुटं च श्रीपार्श्वनाथस्य पुरो निवेश्य ।। सन्ध्यासु नित्यं करवीर पुष्तर्भधेदवश्यं जपतः सुसाध्यम् ॥८॥
[संस्कृत टीका]-'ततः तस्मादनन्तरम् । 'चः' समुच्चये । 'उभयसम्पुटे चं' साध्यसाधकयोलिखित यन्त्र सम्पुटम् 'कृत्वा' विरचय्य । 'श्री पार्श्वनाथस्य श्री पार्श्वनाथतीर्थङ्करस्य 'पुरः' अग्रे "निवेश्य' संस्थाप्य । कासु ? सन्ध्यासु' त्रिषुसन्ध्यासु। 'नित्यं सर्वकालम् 'जपतः' जाप्यं कुर्वतः । कः ? 'करवीरपुष्पैः' रक्तकरवीर पुष्पैः । जपतः पुरुषस्य 'अवश्य' निश्चयेन 'सुसाध्यं' सम्यक् साध्यं भवेत्' स्यात् ।।
[हिन्दी टीका]-उसके बाद साधक यंत्र और साध्य यंत्र को संपुट करके माने दोनो को एक साथ यंत्र का एक ही तरफ मुँह करके, मुंह मिलाकर यंत्र को संपुट कर दो, फिर उस यंत्र को पार्श्वनाथ तीर्थकार की मूर्ति के सामने स्थापन करके, त्रिकाल कनेर के फूलों पर जाप्य करने से साधक को यंत्र की मिद्धि होती है ।।८।।
इष्ट पाकार्षण यंत्र चित्र नं. ३१ देखे। अन्त्यवर्ग तृतीय तुर्य वकारतत्त्ववृताह्वयं हंसवर्णवृतं ततो द्विगुणीकृताष्टदलांबुजम् । तेषु षोडश सत्कलाः शिरसोनशून्यवृतं बहियिया परिवेष्टितं प्रणवादिकादिभिरावृतम् ॥६॥
[संस्कृत टीका]-'अन्त्यवर्गः' शवर्गः । 'तृतीयः' तस्य शवर्गस्य तृतीयाक्षरः सकारः । 'तुर्यः' चतुर्थ हकारः । 'वकारः' धकराक्षरम् । 'तत्त्वं' ही कारः । 'वताह्वयं' एतैश्चतुभिरक्षररावेष्टित देवदत्तनाम । 'हंसवर्णवृतम्' तदक्षरचतुष्टयाद् बहिः 'हंसः' इतिवर्णरावृतम् । 'ततः' हंसबलयात् "द्विगुणीकृताष्टदलाम्बुजम्' षोडशदलपमम् । 'तेषु' षोडशदलेषु 'षोडश सत्कलाः' प्रकारादिषोडशस्त्रराः। 'शिरसोनशून्यवृतंबहिः'
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वीष
संवा षट.
हाँ हूँ हलो
वयंपाकसि
हाँ हूँ हल्ला प्दापडाकरिनि
कपदाकटिनि
लिपीपाकटिनि
सौषद
पाकटेनिस
नमः
पद्मकटिनि
सवी पर
ॐ
दोपद्मकरिनि
नमः
सवा षट्
पाप कटिनि
संवीषर
इष्टआकर्षणयंत्रचित्रनं.३१
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( ११२ )
ततस्वराद् बहिः शिरोरहित कारे वेष्टितम् । 'मायया' ही कारेण 'परिवेष्टितम्' समन्ताद् वेष्टितम् । 'प्रवादिकादिभिः' तद् ही काराद् बहिः प्रदेशे प्रणव प्रादिर्येषां ते ककारावयः तः काविभिरावृतम् ।
उक, ख, ग, घ, ङ, उँच इत्यनेन प्रकारेण हकार पर्यन्तम् ते ककारादयः वेष्टनीयम् ॥६॥
[हिन्दी टीका]-स, ह, ब और ह्रीं ये चारों अक्षरों के अन्दर देवदत्त का नाम लिख कर उन चारों अक्षर के बाहर प्रष्ट दल में हंसवर्ण फिरता हुआ लिख कर उसके बाहर सोलह पंखुडी का कमल बनावे, उसमें क्रमशः षोडश स्वरों को लिखे फिर शिर रहित हकार से वेष्टित करे और ह्रीं कार माया बीज से तीन घेरा डाल दे, उसके बाद बाहर क ॐख से लेकर ॐह पर्यंत लिखे ।।६।।
यन्त्रमाविलिखेदिदं हिमकुङ मागुरुचन्दनंमूर्यके फलकेऽथवा भुधिगोमयेन विमाजिते । प्रत्यहं विधिना समं जपतोऽरुणप्रसवेश तस्य पादसरोजषट् पदसग्निभं भुवनत्रयम् ॥१०॥
[संस्कृत टीका]-'यन्त्रम्' एतत्कथितयन्त्रम् 'प्राविलिखेत्' समन्तात् लिखेत् । कै? 'हिमकुद्ध मागुरुचन्दनः' कपूर काश्मीरागुरु श्रीगन्धादि सुरभिद्रव्यः । क्व ? 'भूर्यके' भूर्य पत्रे। 'फलके' घटफलके । 'अथवा' अनेन प्रकारेण वा भुवि पृथिव्याम् । 'गोमयेन' भूम्यपतितगोशकता 'विमाजिते' विलिप्ते 'प्रत्यह' दिनं दिन प्रति 'विधिना' यथाविधानेन 'सम' सह 'जपतः' जपं कुर्वतः । कैः ? 'प्रहरणप्रसवैः' रक्तकरवीर पुष्पः । भृशं प्रत्यर्थम् । 'तस्य' अनेन प्रकारेण जपतस्य पुरुषस्य । 'पावसरोजषट्पदसन्निभं' पावकमलभ्रमरसदृशं । किम् ? 'भुवनप्रयम्'जगत्त्रयम् तस्य षुरुषस्य वशति स्यात् इत्यभिप्रायः ॥१०॥
मन्त्र :-उँ हो हस्वली ब्लूह असिना उसा अनाहतविद्यायै नमः ॥
[हिन्दी टीका]-इस यंत्र को भोज पत्र पर कपूर, केशर, अगरु ब चन्दन से लिख कर अथवा वट वृक्ष के पट्टिये पर वा गोबर से लिपी हुई शुद्ध भूमि पर लिखे, फिर प्रतिदिन निम्नलिखित मंत्र का लाल कनेर के पुष्पों से विधिपूर्वक जाप्य करने से साधक के चरणों में सभी प्राणी नतमस्तक होते हैं ।।१०।।
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मंत्रोद्धार :-ॐ ह्रीं ह स्वली ब्लू (ब्लें) है असिग्राउसा अनाहतविद्यायै नमः । वशीकरण यंत्र चित्र नं. ३२॥
ब्रह्मान्तरगतं नाम मायया परिवेष्टितम् । वेष्टितं कामराजेन बाह्य न षोडशपत्रकम् ॥११॥
[संस्कृत टीका]-'बह्मान्तरगतं' कारमध्यस्थितम् 'नाम' देवदत्तनाम । कथम्भूतम् ? 'मायया परिवेष्टितम्' ही कारेण परिवेष्टितम् । पुनरपि ह्री काराद् बहिः 'कामराजेन' क्ली कारेण 'वेष्टितं' परिवेष्टितम् । 'बाह्य क्लीकारबाह्य 'षोडश पत्रक' षोडशदलपद्मम् ॥११॥
_[हिन्दी टीका]-ॐकार के मध्य में देवदन का नाम लिखकर ऊपर से माया बीज ह्रीं से वेष्टित करे, फिर उसके बाहर कामराज बीज क्लों से वेष्टित करे, तदनन्तर उसके ऊपर सोलह पत्र वाला कमल बनावे ।।११।।
पज बाारणान न्यसेत् तेषु स्वाहान्तौ कार पूर्वकान् । तद्बाह्य १ मायया वेष्टयं को कारेण निरोधयेत् ॥१२॥
[संस्कृत टोका]-'पञ्चबाणान्' उ द्रां द्रीं क्ली ब्लूस इति पञ्ज बाणान् 'न्यसेत्' स्थापयेत् । फेषु ? 'तेषु' प्रत्येकं पत्रेषु 'न्यसेत्' विन्यसेत् । क यम्भूताम् ? 'स्वाहान्तौकारपूर्वकान्' स्वाहाशब्दान्तान् एवं उद्रो द्रो क्ली ब्लू सः स्वाहा' इत्यादिरूपान् । 'तद्वाह्म' तत्पत्रबाह्य 'मायया वेष्टयम्' ही कारेण विधा वेष्टयम् । कौ कारेणा निरोधयेत्' को कारेण निरोधनं कुर्यात् ॥१२॥
[हिन्दी टीका]-उसके बाद पञ्चबाणों को ॐ द्रौ द्री वली ब्लू स सोलह दलों में स्वाहा शब्द सहित लिखे, उसके ऊपर माया बीज ह्रीं कार से तीन बार वेष्टित करदे और क्रो' कार से निरोध करे ।।१२।।
भर्यपत्रे पटे वाऽपि विलिखेच्च हिमादिभिः। ॐ द्रा द्रो क्ली ब्लू सकारान्त्यमन्त्रं क्षोभकरं जपेत् ॥१३॥
[संस्कृत टोका]-'भूर्यपत्रे भूर्जदले 'पटे वा' वस्त्रे वा 'अपि' निषयेन 'विलिखेत्' विशेषेण लिखेत् । केः? 'हिमादिभिः' क'रादि सुगन्धद्रव्यैः । ॐ 'दो दी
१. मायया तत त्रिधा थेट यं इति ख पाठः ।
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ਬੱਡੀ ਦੀ ह
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ॐ
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( ११४ )
[हे] सः [ह] सः हसः
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सः हे सः हंसः
हंसः
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वर्गीकरणयंत्र चित्र नं.३२
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{ ११५ ) क्ली ब्लू सकारान्स्यमन्त्रं द्रो दी क्ली ब्लू सः इति मन्त्रम् 'क्षोभकर' जनक्षोभफरम् 'जपेत्' जपं कुर्यात् ।।१३।।
[हिन्दी टीका]-इस यंत्र को भोजपत्र वा वस्त्र पर कपूर, केशरादि सुगंधित द्रव्यों से लिखे, और ॐ द्राँ द्री वली ब्लू सः । इस मंत्र का जन क्षोभ करने के लिये जप करना चाहिये ।।१३।।
जन क्षोभकर यंत्र चित्र नं. ३३
नोट :-इस मंत्र की यंत्रविधि में संस्कृत प्रति में ॐ ह्रां ह्रीं ब्लू सः स्वाहा लिखा है, और सूरत की कापडीवाजी की प्रति में श्लोक ओर टीका दोनो में ही, ॐ द्री बलों सः स्वाहा लिखा हुआ है किन्तु हमारे पास मथुरा से लिखी हुई मूल टीका सहित प्रति में ॐ द्रो दी क्ली ब्लू सः स्वाहा लिखा है, हमे तो यही मंत्र ठीक जचता है क्योंकि पंचबाग सहित मत्र में हाँ ह्रीं किसी भी हालत में नहीं बनता, पंचबारग में द्राँ द्रीं क्लीं ब्लॉ सः ही बनता है, नवाब के यहां से प्रकाशित प्रति में भी हाँ हो ही लिखा है, किंतु ठीक नहीं है, अशुद्धपाठ है, इसलिये मेरे निर्णयानुसार ॐ द्रों द्री ली ब्लौं सः स्वाहा, यही मंत्र ठीक है। यंत्र में तीनों प्रतियों उपरोक्त मंत्र ही लिखा है यंत्र में किसी प्रकार का भेद नहीं है ।।
अष्टदल कमल मध्ये स्वनाम तत्त्वं दलेषु चित्तभवम् । पुनरप्यष्टदलाम्बुजमिभदशकरणं ततो लेख्यम् ॥१४॥
[संस्कृत टीका]-'अष्टदलकमल मध्ये' अष्टदलाम्बुजमध्ये कणिकायाम् 'स्वनाम तत्वम्' स्वकोयनामान्वित हो कारम् । 'वलेषु चित्त भवम्' तदष्टदलेष क्लो कारम् । 'पुनरप्यण्टदलाम्बुजम्' पुनरपि अष्टदलपनम् । 'ततः तदष्टदलेषु 'इभवशकरणं को कारः 'लेख्यं लेखनीयः ।।१४।।
[हिन्दी टीका]-अष्टदल कमल के अन्दर कणिका में अपने नाम सहित ह्री को लिखे, और अष्ट दल कमल में क्ली कार को लिखे, फिर ऊपर एक अष्टदल का कमल बनाबे, उस अष्टदल कमल में क्रो कार को लिखना चाहिये ।।१।।
षोडशवलगतपय क्लौंकार तद्दलेष सुरभिद्रव्यः । क्लां क्लो फ्लू क्लौं कारस्तद् यन्त्रं वेष्टयेत् परितः ॥१५॥
[संस्कृत टीका]-'षोडशदलगतपद्मम्' पूर्वोक्ताष्टपत्रबहिः प्रदेशे षोडशबलान्वितं पा लिखेत् । 'कलौंकारं तहलेषु' तत् षोडशवलेषु क्लोंकारं लिखेत् । कैः ?
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हाँ
ब्लू सः
ह्रीव्र जी की द्रो द्रों की डॉ ह्रीं ह्रीं जो द्रोही
ॐ
द्री की व ब्लू सः स्वाहा
£150
स्वाहा।
ब्लू सः ब्लॅ स्वोहा
सः
द्रों की द्रा जी की
( ११६ )
सः
स्वाहा।
ब्लू सः स्वाहा | स्वाहा
ब्लू सः स्वाहा
स्वाहा स्वाहा स्वाहा स्वाहा।
ब्लू सः ब्लू
सः ब्लू सः द्रां क्रीड
BEERS ल
3.
ब्लू स स्वाहा स्वाही
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जनक्षोभकर यंत्र चित्रनं - ३३
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'सुरभिद्रव्यः' सुगन्धिद्रध्यैः । 'क्ला क्लीं क्लौंकारः' क्ला क्ली क्लौ इत्यक्षरचतुष्टयेन 'तद् यन्त्रम्' प्रालिखित यन्त्रम् 'वेष्टयेत्' वेष्टनं कुर्यात् । कथम् ? 'परितः' समन्तात् ॥१५॥
[हिन्दी टीका]-फिर उसके ऊपर षोडशदल का कमल बनागे, उस कमल दलों में क्लौं के लिखे फिर ऊपर से क्लाँ क्लीं क्लं क्ली क्लौं इन चार बीजों से यंत्र को चारों तरफ से वेष्टित कर दे । इस यंत्र को सुगन्धित द्रव्यों से लिखें ॥१५।।
तद् बाह्य ऽर्कशशिभ्यां जपतः शून्यश्च पञ्चभिनित्यम् । नागनरामरलोकः क्षुभ्यति वश्यत्वमायाति ॥१६॥
[संस्कृत टोका]--'तहास' तद्वेष्टनबहिः प्रदेशे 'अर्क शशिभ्याम्' प्रादित्य चन्द्राभ्यां वेष्टनायम् । 'जपतः शून्यश्च पञ्चभिनित्यम्' सर्वकालं ह्रीं ह्री ह.ह्रो हः इति पञ्चशून्यः जपं कुर्वतः पुरुषस्य 'नागनरामरलोकः क्षुभ्यति नागलोकः मनुष्यलोकः देवलोकः इति लोकत्रयं तस्य क्षोभं याति, 'वश्यत्वमायाति' वशतित्वमेति ॥१६॥
[हिन्दी टीका-इस यंत्र के बाहर भाग में चंद्र और सूर्य को बनावो, फिर पांच शून्याक्षरों का सर्व काल जाप करने वाले साधक के नाग लोक, मनुष्य लोक, देव लोक ये तोनों लोक के जीव वश्य हो जाते हैं क्षोभ को प्राप्त हो जाते हैं वशीभूत होते हैं ।।१६।।
त्रिभुवन वशीकरण यंत्र चित्र नं. ३४ । अष्टौ लघुपाषाणान् दिशासु परिजप्य निक्षिपेद् धीमान् । चौरारिरौद्र जीवादभयं सम्पद्यतेऽटम्याम् ॥१७॥
[संस्कृत टीका]-'अष्टौ लघुपाषाणान्' प्रष्ट क्षुद्रपाषाणान् "दिशासु' पूर्वादिदिशासु 'परिजप्य' प्रकर्षेण जपिस्वा 'निक्षिपेत्' स्थापयेत् । कः ? 'धीमान बुद्धिमान् । 'चौरारिरौद्रजीवात्' तस्करशचरौद्रजीवेभ्यः सकाशात 'प्रभयं सम्पद्यते' निर्भयं भवति । क्य ? 'प्रटव्याम्' अरण्ये ॥१७॥
मन्त्र --- नमो भयवदो परिदृणेमिस्स अरिहण बंधेण बंधामि रक्ख. सारणं भूयाणं खेयराणं चोराणं दारिणं साइणोरणं महोरगाणं अण्णे जे के वि दुट्ठा संभवंति तेसि सन्वेसि मरणं मुहं विढि बंधामि घणु धण महाधण महाधण जः ठः ठः ठः हूं फट । इत्यरिष्टनेमिमन्त्रं प्राकृतम् ॥
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( ११८ )
( देवदत्त
कॉ कॉकों
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त्रिभुवनवशीकरणयंत्रचित्रनं३४
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[हिन्दी टीका]-याट छोटी कंकरियों लेकर निम्न लिखित मंत्र से मंत्रित कर पाठों दिशाओं में फेकने वाले बुद्धिमान व्यक्ति को अरण्य में अथवा अन्य जगह भयंकर पशु जीवों से होने वाला भय नष्ट हो जाता है ।।१७।।
अरिष्ट नेमि मंत्र :-ॐणामो भयवदो प्ररिट्ठणेमिस्स बंधेण बंधामि रक्खसाणं भुयारणं खेयराणं दाढी महोरगाणं, अपणे जे के वि दुट्ठा संभवंति तेसिं सव्वेसि मर्ग मुहं गहं दिठ्ठि बंधामि धणु धणु महाधणु-२ जः जः जः ठः ठः हुं फट् ।।
नोट :-इस मंत्र में भी नाना प्रकार का पाठान्तर मिलता है लेकिन हमने पूर्ण शुद्ध करके लिखा है।
स्मरबीजयुतं शून्यं तत्त्वे कारवेष्टितम् ।। भाह्यऽष्टदलमम्भोज नित्यक्लिन्न! मदद्रवे ॥१८॥ मदनातुरे! घडिति विलिखेत् स्वाहान्तविनयपूर्वेण । त्रिभुवनयश्यमवश्यं प्रतिदिवसं भवति संजपतः ॥१६॥
[संस्कृत टीका]-'स्मरबोजयुतम् क्ली कारयुतम् । कि तत् ? 'शून्य' हकारम् । एवं हक्लो इति बीजम् । पुनः कथम्भूतम्? 'तत्त्वेनै कारवेष्टितम्' ही कारेणेकारेण वेष्टितम् । 'बाह्य' तदेकारबाह्य 'अष्टदलमम्भोजम्' अष्टदलकमलं लिखेत् । 'नित्यक्लिन्ने! मददये ! मदनातुरे ! 'वषड्' इति मन्त्रं तहलेषु लिखेत् । 'स्वाहान्त विनयपूर्वेण' स्वाहाशब्दमन्त्य उकारं पूर्व कृत्वा लिखेत् । त्रिभुवन वश्यम्' भुवनत्रयवश्यम्' 'अवश्यं निश्वितम् 'प्रतिदिवसम्' दिन दिन प्रति 'भवति' स्यात् । 'संजपतः' सम्यग् जपं कुर्वतः पुरुषस्य ।।१८।।१६।।
____ मन्त्रोद्धार :-उहक्लो ह्रीं ऐं नित्यक्लिन्ने ! मददवे । मदमातुरे ! ममामुकीं वश्यावृष्टि कुरु कुरु वषट् स्वाहा ॥
[हिन्दी टीका]-हाक्ली बीज को ह्री और ऐं से वेष्टित करके बाहर अष्ट दल कमल बनाने उस अष्टदल कमल में नीचे लिखा मंत्र लिखे, फिर उसी मंत्र का प्रतिदिन जप करने से तीनों लोक्रां के जीव वश होते हैं ।।१८।।१६।।
मंत्रोद्धार :-ॐ हक्ली ह्री ऐ नित्ये क्लिन्ने मदद्रो मदनातुरे ममामुकी वश्यावृष्टि कुरु कुरु वषट् स्वाहा ।।।
त्रिभुवन वणिकरण यंत्र चित्र नं. ३५ ।
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MS
नित्यल्लिन्न
नममवंशी
वितवषद्मा
KOMवश्वषद
भवितुरवषदON
RKEत्रिभुवनमः
मदद्रवेमदनावरे नित्यक्ति
भवतुवषद
व
(देवदत्त
वषद्भ
नित्याल्लन्ना
देवमदनातुरे
बदाभवतुरवा
भवनमभवशी/
Robeforek
AISत्रिभुवनममा
पदभवतः
Pa त्रिभुवन ममा मद्रवमदना
विभुवनवशिकरणयंत्रचित्रन-३५,
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( १२१ ) वर्णान्तं मवनयुतं वाग्भय परिसंस्थितं वसुदलाम्जम् । दिक्षु विदिक्षु च मायावाग्भव बीजं ततो लेख्यम् ॥२०॥ [संस्कृत टिका]-'
वन्तं' वर्णस्यान्तो वरन्तिः तं हकारम्। कथम्भूतम् ? 'मदनयुतम्' क्ली कारयुतम् । हकली इति । 'चाग्भवपरिसंस्थितम्' ऐकार समन्तात् स्थितम् । 'वसुबलाब्जम्' सकाराद् बहिरष्टदलपद्मम् । 'दिक्षु विदिक्षु च मायावाग्भवबीजम्' प्राच्यादि चतुर्दिशासु ह्रीं कार बीजम् प्राग्नेय्यादिचतुविदिशासु च ऐं कार बीजम् 'ततो लेख्यम्' तस्माल्लेखनीयम् ।।२०॥
[हिन्दी टीका -नाम सहित हल्की को ऐं कार से नेष्टित करके, ऊपर अष्टदल कमल बनाने, उन अष्टदल कम के दिशाओं मे ह्रीं और विदिशा रूप कमल दलो में ऐं कार लिखे ।।२०।।
त्रैलोक्यक्षोभणं यन्त्रं सर्वदा पूजयेदिदम् । हस्ते बध्दं करोत्येव त्रैलोक्यजनमोहनम् ।।२१।।
[संस्कृत टीका]-'त्रैलोक्यक्षोभरणं' त्रलोक्यवर्तिजनक्षोभकारि 'यन्त्रं' एतत् कथितयन्त्रम् । 'सर्वदा सर्वकालं पूजयेत् 'इवम्' एतद् यन्त्रम् । 'हस्ते बद्धं' बाही बद्धम् 'करोत्येव' अवश्यं करोति 'लोक्यजन मोहनम्' त्रैलोक्यान्तवर्तिजनानां मोहनम्।।२१।
मन्त्रोद्धार :-उँ ऐं ह्रो देवदत्तस्य सर्वजनवश्यं कुरु कुरु वषट् ॥
[हिन्दी टीका-इस यंत्र को सर्व काल पूजने से और हाथ में बांधने से त्रैलोक्य में रहने वाले सर्व लोग मोहित होते हैं ।।२१।।
त्रैलोक्यजन क्षोभन (वशीकरण) यंत्र चित्र नं. ३६ । मंत्रोद्धार :-ॐ ह ल्की ऐं ह्री देवदत्तस्य सर्वजन वश्यं कुरु कुरु वषट् ।
नोट :-इस मंत्र में भी पाठान्तर है पद्मा, उपासना व संस्कृत प्रति में ॐ ऐ ही आदि मंत्र है, किन्तु सूरत वाली प्रति में ह क्ली ॐ के बाद है और आगे ऐ ह्रीं आदि हैं। हमारे पास मुल संस्कृत की प्रति में यह मंत्र ही नहीं दिया है, हमने सूरत वाली प्रति का मंत्र पाठ लिया है, यही ठीक जंचता है।
भ्रमयुगलं केशि भ्रम माते भ्रम विभ्रमं मुह्मपदम् । मोहय पूर्णः स्वाहा मन्त्रोऽयं प्रणवपूर्वगतः ॥२२॥
[संस्कृत टीका]-'भ्रमयुगलम्' भ्रम भ्रम इति पदद्वयम् । 'केशिभ्रम' केशि भ्रम केशि भ्रमेति पचद्वयम् । 'माते भ्रम' माते भ्रम माते भ्रमेति पदद्वयम् । 'विभ्रम'
2।।
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देवदत्त
त्रैलोक्योभनयंत्रचित्रनं.३६,
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। १२३ ) विभ्रम विभ्रमेति पदद्वयम् । 'च' समुच्चये । 'मुह्मपदम्' मुच्च मुचेति पदद्वयम् । 'मोहय' मोहय मोहय इति पदद्वयम् । 'पूरणे :' सम्पूर्ण: । 'स्वाहा' स्वाहेतिपदम् । 'मन्त्रोऽयम्' अर्थ मन्त्रः 'प्रणव पूर्वगतः उकार पूर्वकः ।।२२।।
मन्त्रोद्धार :-उँ भ्रम भ्रम केशि भ्रम केशि भ्रम माते भ्रम माते भ्रम विभ्रम विभ्रम मुह्म मुह्य मोहय मोहय स्वाहा ।
हिन्दी टीका]-भ्रम दो बार लिने, फिर केशि भ्रम केशि भ्रम लिखे फिर माते भ्रम माते भ्रम लिखे, उसके बाद विभ्रम विभ्रम लिखे, तदनन्तर मुह्य मुह्य लिखे, मोहय मोह्य को भी लिखे, प्रथम प्रणव ॐ को लिखकर अंत में स्वाहा से मंत्र पूर्ण करे ।।२२।।
मंत्रोद्धार :- भ्रम २ केशिभ्रम २ मातेभ्रम २ विभ्रम २ मुह्य २ मोहय २ स्वाहा ।
एतेन लक्षमेधं भ्रमिमसम्प्राप्त सर्षपर्जप्त्वा । क्षिप्ते गृहदेहल्यामकालनिद्रां जनः कुरुते ॥२३।।
[संस्कृत टोका]-'एतेन' कथित मन्त्रेण । 'लक्षमेकम्' एके लक्षम् । 'भूमिमसम्प्राप्तसर्षपः' भूम्यपतितसिद्धार्थ:। 'जप्त्वा' जपं कृत्वा । 'क्षिप्ते' निक्षिप्ते सति । क्य ? 'गृहदेहल्याम्' गृहोदुम्बरके । किं करोति ? 'अकाल निद्रा प्राकस्मिकनिद्राम् । 'जनः' लोकः । 'कुरुते' कुर्यात् ॥२३॥
[हिन्दी टीका]-इस प्रकार कहे हुये मंत्र को भूमि पर नहीं गिरे हुए सफेद सरसों से एक लक्ष जाप्य करे और उन सरसों को घर की देहली (चौखट) फेंक दे तो घर के सब लोग अकालनिद्रा को प्राप्त हो जाते हैं । यानी सब सो जाते हैं ।।२३।।
रण्डायक्षिणी सिद्धि मृतविघवाब्राह्मण्याः पादतलालक्तकेन परिलिखितम्। सद्वक्त्रपिहित वस्त्रे विधवारूपं निराभरणम् ॥२४॥
[ संस्कृत टीका ]-'मृत विधवा' पञ्चत्वप्राप्त रण्डायाः, कस्याः ? 'ब्राह्मण्याः द्विजकुल प्रसूतायाः । पादतलालक्तकेन' तस्याः पावतलालक्तकेन । 'परिलिखितम् समन्तात् लिखितम् । क्व ? 'तद्वक्त्रपिहितवस्त्रे' तन्मृतरण्डामुखप्रच्छादितयसने । कम् ? 'विधवारूपम्' रण्डारूपम् । 'निराभरणम्' प्राभरणरहितम् ॥२४॥
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। १२४ )
| हिन्दी टीका ]-मरी हुई विधवा ब्राह्मणी के पांव का पालतक (महावर) से उसके शव को ढके हुये वस्त्र में से जो मुंह पर ढका हना है ऐसे कपड़े पर लिखे एक विधवा पाभरण रहित स्त्री का चित्र बनावे ।।२४।।
प्रगवं विच्चे मोहे स्वाहान्तं सप्तलक्षजाप्येन | एकाकिनी निशायां सिद्धयति सा यक्षिणीरण्डा ॥२५॥
[संस्कृत टीका]-'प्रणवं' उकारम् । कथम्भूतम् ? 'विच्चे मोहे स्वाहान्तम् विच्चे मोहे स्वाहाशब्दान्तम् । 'सप्तलक्ष जाप्येन' सप्तलक्षप्रमाण मेतन्मन्त्रजापेन । 'एकाकिनी' एकाकिनी भूत्वा। 'निशायां' रात्रौ । 'सिद्धयति' सिद्धिं प्राप्नोति । कासौ ? 'यक्षिणी रण्डा' सा रण्डा यक्षिणी ॥२५॥
मन्त्र :-उँ विच्चे मोहे स्वाहा ।
[ हिन्दी टीका -प्रणव ॐ पूर्वक बिच्चे मोहे, अंत में स्वाहा को लिखे यानी ॐ विच्चे मोहे स्वाहा, मंत्र का एकाकी होकर सात लक्ष जाप्य करने से रण्डा यक्षिणी सिद्ध होती है ।।२५।।
यत् साधकाभिलषितं तत् तस्मै वस्तु सा ददात्येव । क्षोभं प्रयान्ति रण्डाः सर्वा अपि भुवनतिन्यः ॥२६॥
[संस्कृत टीका]-'यत् साधकाभिलषितम्' यत् किञ्चित् साधक पुरुषस्य मनोवाञ्छितम् । 'तत्' तद्वस्तु तस्मै तस्मै साधकाय । 'सा ददात्येव' सा यक्षिणी न केवलं वस्त्वेव ददाति, अपितु 'क्षोभं प्रयान्ति' क्षोभं गच्छन्ति । काः? 'रण्डाः' विधवाः । सर्वा अपि भवनवतिन्यः' समस्ता अपि भुवनाभ्यन्तर तिन्यः ॥२६॥
[हिन्दी टीका |-इस मंत्र के प्रभाव से साधक को रण्डा यक्षिरिण मनोभिलसित पदार्थों को देती है सिर्फ पदार्थों को ही नहीं देती किन्तु त्रिभुवन में रहने वाली सभी विधवाओं को क्षुभित कर देती है अर्थात् क्षोभ को प्राप्त होती हैं ।।२६।।
तत्त्वं मन्मथनीजस्य तलोपरि विचिन्तयेत् । पार्श्वयोरेव लंपिण्ड भ्रमन्तमहणप्रभम् ॥२७॥
[संस्कृत टीका]-'तत्त्वं' ह्रो कारम् । 'मन्मथबीजस्य' कामदेव बीजस्य क्ली कारस्य । 'तलोपरि' ततः फ्लो कार|परिप्रदेशे ह्रीं ह्रीमिति । 'पार्श्वयोः' तत्वली कारोभयपार्श्वयोः । एव । 'लं पिण्डं' क्ले कारम् 'विचिन्तयेत्' ध्यानं कुर्यात् । १ निश्चतं इति ख पाठः ।
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( १२५) कथम्भूतम् ? 'भ्रमन्त' चक्रवद् भ्राम्यन्तम् । पुनः कथम्भूतम् ? 'अरुणप्रभम्' जपाकुसुम वर्णम् ॥२७॥
[हिन्दी टीका-क्लीं कार तत्व को ऊपर, नीचे ह्रीं और वह क्ली के दोनों बाजु ब्ले (बल) कार को चक्र की तरह घूमाता हुआ और जसौंधि पुष्प के वर्ण का ध्यान करे ।।२७।।
योनो क्षोभं मूर्धनि विमोहनं पातनं ललाटस्थम् ।। लोचन युग्मे द्रावं ध्यानेन करोतु वनितानाम् ॥२८॥
[संस्कृत टीका]-'योनौ क्षोभम्' तदक्षरयात्मके चकाकरे वनितायोनी ध्याने कृते वनिता क्षोभं प्रयाति । 'मूर्धनि विमोहनम् तदेव ध्यानं नितामस्तके कुते स्त्री मोहनम् । 'पातनं ललाटस्थम् तदेव ध्यानं वनिताललाटे कृते सति सा विह्वलीभवति । लोचन युग्मे द्रावम्' तदेव ध्यानं वनितादृष्टियुग्मे कृते सति द्रावो भवति । 'ध्यानेन' अनेन कथित घ्यानेन । 'करोतु' क्षोभमित्यादि कर्म कुर्यात् । कासाम् ? 'वनितासाम्' स्त्रीणाम् ॥२८॥
[हिन्दी टीका]-ये तीनों अक्षर का ध्यान स्त्री की योनी में करने से स्त्री क्षोभ को प्राप्त होती है, उसी प्रकार स्त्री के मस्तक पर ध्यान करने से वह मोहित होती है, कपाल पर ध्यान करने से स्त्री विह्वल हो जाती है नेत्र युगल पर ध्यान करने से वह द्रवित हो जाती है । इस प्रकार आचार्य के कहे अनुसार स्त्री को क्षोभादिक करे ।।२।।
शीर्षास्यहृदयनाभौ पादे चानङ्गवाणमथ योज्यम् । सम्मोहनमनुलोम्ये विपरीते द्रावणं कुर्यात् ॥२६।।
[संस्कृत टीका]-'शीर्षे' मस्तके 'प्रास्ये' वदने 'हृदये' हरप्रदेशे 'नाभौ' नाभि प्रदेशे । 'पार्दै' पादयोः 'च:' समुच्चये । 'अनङ्ग वाणम्' द्रां द्रों क्लो ब्लू सः इति पञ्चवारणान् । 'अथ योज्यम्' शीर्षाविषु पञ्चस्थानेषु क्रमेण योजनीयम् । 'सम्मोहन मतुलोम्ये मूर्धादिपादान्त ध्यानेन सम्मोहनम् । 'विपरीते द्रावणं कुर्यात्' तानेष पञ्चबाणान् पादादारभ्य क्रमेण मस्तकपर्यन्तं ध्यात्वा द्रावणं कुर्यात् ।
द्रो द्रो क्लो ब्लू सः इत्यङ्गानुलोमस्थापने पञ्च बाणाः ॥२६॥
[हिन्दी टीका]-शिर, मस्तक, मुख, हृदय, नाभि और पैरों में अनङ्ग बारण द्राँ दी क्लीं ब्लू सः इन पांच बारगों को मस्तक से प्रारंभ कर पांव की तरफ क्रमशः
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( १२६ ) व्यान करने से स्त्री मोहित होती है, उससे विपरीत उन्हीं पांच बाणों को पांव की तरफ से प्रारंभ कर मस्तक तक ध्यान करने से स्त्री को द्रवित करता है। इस प्रकार विधि कही ।।२६।।
दद्यात् ताम्बूलगन्धादीन् स्मरबाणाभिमन्त्रितान् । क्षालयेदात्म बक्त्रं च स स्त्रीणां मन्मथो भवेत् ।।३०॥
[संस्कृत टोका]-'दद्यात्' ददातु । कान् ? 'ताम्बूल गन्धावीन्' तांबूल श्रीखण्ड गन्ध पुष्पफलादीन् । कथम्भूताम् ? 'स्मरबारणाभि मन्त्रितान्' कामबाण मन्त्रोणाभिमन्त्रितान् । न केवलं ताम्बूलादीन्येण दीयन्ते 'क्षालयेदात्म वकां च तन्मन्त्रोणोदकमभिमन्य स्ववदनं प्रक्षालयेच्च । 'सः' एवं विधः पुरुषः । 'स्त्रीणाम्' वनितानाम् । 'मन्मयः' कामदेवो भवेत् ।
तत्पुष्पाभिमन्त्रण मन्त्रोद्धार:-उँ द्रां प्री क्ली ब्लू सः ह्रस्क्ली ऐ नित्यक्लिन्ने' मदद्रवे ! मदनातुरे ! सर्वजनं मम वश्यं कुरु कुरु वषट् ॥३०॥
[हिन्दी टीका]-इन पांच बारग मंत्र से पान, गंध, पुष्प, फलादिक मंत्रित कर इष्ट स्त्री को देवे, सिर्फ देवे ही नहीं किन्तु मंत्र से मंत्रित किये हुए पानी से साधक स्नान करे तो, वह पुरुष स्त्रियों के लिये कामदेव के समान हो जाता है ।।३०।।
फलपुष्पादिक को मंत्रित करने का मंत्र :-ॐ द्राँ द्रीं क्लीं ब्लू सः ह्रक्ली ऐ नित्य क्लिन्ने मदद्रवे मदनातुरे सर्वजनं मम वश्यं कुरु २ वषट् ।।
विचिन्तयेदेव लपिण्डमेकं सिन्दूरवणं वनितावराङ्ग । तद् द्रावणं दृष्टि निपात मात्रात् स्कर्यगर सप्तदिनानि मध्ये ॥३१॥
(संस्कृत टोका]-'विश्चिन्तयेत्' विशेषेण चिन्तयेत् । कम् ? 'एव लपिण्डमेकम्' क्लेकारमेकम् । कथम्भूतम् ? 'सिन्दूरवर्ण सिन्दूरसदृशवर्णम् । क्व ? 'वनितावराङ्ग' स्त्रीणां योनौ । 'तद् द्रावरगं' तच्चिन्तनं द्रावणं करोति । कस्मात् ? 'दृष्टिनिपातमात्रात्' ध्यानक दृष्टितिनपातमात्रात् । न केवलं द्वावं मोहं च करोति, स्त्र्याकर्यरगं३ सप्तदिनानि मध्ये सप्तदिनानां मध्ये स्त्र्याकर्षणं करोति ॥३१॥
१. हो" इति ख पाठः। २. सप्ताहतोऽप्यानयनं करोति । क पाठः । ३. 'सप्ताहतोऽप्यानयनं करोति' सप्तदिवसानां मध्ये व्याकर्षणं करोति । क पाठः ।
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[हिन्दी टीका]-क्ले कार अथवा ब्ले कार को स्त्री की योनी में सिन्दूर के रंग जैसे वर्ग का चितवन करने से स्त्री द्रवित हो जाती है, मात्र द्रवित ही नहीं होती किन्तु मात दिन के अन्दर स्त्री आकर्षित कर देता है ।।३१।।
(सूरत कापडिया जी की प्रति में यह श्लोक ज्यादा है।) सिन्दूराहरण वास सन्निभ प्रभं ब्ले कार सत्पिडकम् कान्तागुहागतं प्रसंचलितमितं ध्यात्वा मनोरञ्जितम् । लाक्षारागमबिन्दु वर्ष वर्ष प्रस्यन्दि कामावरात सप्ताहेत वशं करोतु वनीतां तत्तचित्रं कुतः ॥३१॥
[हिन्दी टीका] -सिंदुरी लाल वस्त्र के समान प्रभावाले उत्तम पिण्ड ब्ले कोस्त्री के योनिस्थान में तेजी से घूमते हुए मन को प्रसन्न करने वाला, लाख की लालिमा की बून्दों के समूह को बरसाकर बहाता हुआ, ध्यान करने से स्त्री काम के वेग से यदि एक सप्ताह के अन्दर ही वश में आ जावे तो आश्चर्य ही क्या है ?
नोट :-यह श्लोक संस्कृत की प्रतियों में वा अहमदाबाद की प्रति में हमारे पास वाली प्रति में नहीं है, किन्तु सुरत की कापडिया जी से प्रकाशित प्रति में है, हमने वहां से उद्धरित किया है।
सूरत वाली प्रति में ब्ले' कार और हस्तलिखित प्रति में भी ब्ले कार का ही ध्यान करे लिखा किन्तु पद्मावती उपासना में वहां से पूर्व प्रकाशित संस्कृत टीका में क्ले कार का ध्यान करे लिखा है ।
ब्राह्मण मस्तक के शैः कृत्वा रञ्जु तया नरकपालम् । प्रावेष्टय साध्यदेहोद्वर्त्तनमल केशनखरपावरजः ॥३२॥ मनुजास्थि चूर्णमित्रं कृत्वा तनिक्षिपेत् पुरोक्तपुटे । ज्वरयति मन्त्रस्मरणात् सप्ताहादस्थिमथनेन ॥३३॥
[ संस्कृत टीका ]-'ब्राह्मणमस्सककेशैः' द्विजशिरोरुहैः । 'कस्वा रज्जुम्' तच्छिरोरुहै।' रज्जु कृत्वा । 'तया' रज्ज्वा । 'नरकपालं' नृकपालपुटम् । 'मावेष्टय' समन्ताद वेष्टयित्वा। 'साध्यदेहोद्धत नमलकेशनखरपादरजः' साध्य पुरुषस्य शरीरोद्वर्तन्मल शिरोरुहनखपादरेणून गृहीत्वा 'मनुजास्थि चूरणमिक्षम्' नरास्थि चूर्णमिश्रम्। 'कृत्वा' विधाय। 'तत्' मलादि चूर्णम् । 'निक्षिपेत्' स्थापयेत् । क्व ? 'पुरोक्तपुटे' प्रागुक्तनुकपालपुटे ।
१. कपालपुटे इति न पाठः ।
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( १२८ ) 'ज्वरयति' साध्यपुरुषं ज्वरेण गृह्णाति । कस्मात् ? 'मन्त्रस्मरणात्' उँ चण्डेश्वर ! इत्यादिमन्त्रचिन्तनात् । कथम् ? 'सप्ताहात्' सप्तदिनमध्यतः। केन ? 'अस्थिमथनेन' पुरुषास्थिकीलकमथनेन ।।३२॥३३॥
मन्त्रोद्धारः-उँ चण्डेश्वर ! चण्ड कुठारेण अमुकं ज्वरेण हो गुल्ल गृह्ण मारय मारय हूं फट घे घे ।
[हिन्दी टीका]-ब्राह्मण के शिर के केश की रस्सी बनाकर, उस रस्सी को मनुष्य की खोपडी पर लपेटकर साध्य पुरुष के शरीर से निकला हुए मल, शिर के बाल, शरीर का मल, विष्टा, नाखून, पांव के नीचे की धूल को लेकर, मनुष्य के हड्डी का चूर्ण करके उस मनुष्य की खोपडी में डाले और मंत्र का जाप्य करे और मनुष्य की हड्डी से उपरोक्त पदार्थों को जो खोपड़ी में हैं उनको चूर्ण करे यानी रगडे, तो जैसे-जैसे उपरोक्त पदार्थों का विशेष चूर्ण होता है वैसे-वैसे शत्रु को एक सप्ताह के भीतर ही ज्वर हो जाता है ।।३२।।३३।।
मन्त्रोद्धार :-ॐ (नमो) चण्डेश्वर चण्ड कुठारेगा अमुक ज्वरेण (उँ') ह्री गृल २ मारय २ हूँ फट् घे घे ।
चण्डेश्वराय होमान्तं सञ्जपेद् विनयाविना । सहस्त्रदशकं मन्त्री पूर्वमारुगपुष्पकः ॥३४॥
[संस्कृत टोका]-'चण्डेश्वराय चण्डेश्वरायेति पदम् । 'हामान्तम्' स्थाहाशब्दान्तम् । 'सञ्जपेत्' सम्यग्जपेत् । कथम् ? "विनयादिना' उँकारपूर्वेण । 'सहस्त्र दशक' दशसहस्त्रम् । कोऽसौ ? 'मन्त्री' मन्त्रवादी । कथम् ? 'पूर्वम्' पूर्वसेवायाम् । कैः "अरुणपुष्पकः' रक्तकरवीरपुष्पः ॥३४॥
मन्त्रोद्धार :-उँ चण्डेश्वराय स्वाहा ।। जाप्य सहस्त्रवश (१०,०००)
[हिन्दी टीका]-उपरोक्त विधि के पहले साधक को लाल कनेर के फूलों से १०,००० (दश हजार) जाप्य कर लेना चाहिये ।।३४।।
मंत्रोद्धार :-ॐ चण्डेश्वराय स्वाहाः । टान्त वकार प्रणवनजान्ताद्धं शशिप्रयेष्टितं नाम । शीतोष्ण ज्वरहरणं स्यादुष्णहिमाम्बुनिक्षिप्तम् ॥३५॥
[संस्कृत टीका]-'टान्तवकार' टान्तः ठकारः । वकारः-व इत्यक्षरम् । 'प्रणयनम्' उकारम् । 'जान्तो' भकारः । 'प्रद्धं शशिप्रवेष्टितम्' अर्द्धचन्द्राकाररेखावेष्टितं
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( १२६ )
(देवदत्त
ज्वरहरणयंत्रचित्रनं.३०
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( १३० )
देवदत्त)
ज्वरहरण यंत्र चित्रनं.३८
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( १३१ )
एतैः उकारादिपञ्चभिः 'प्रवेष्ठियतम्' प्रकर्षेण वेष्टितम् । किं तत् ? 'नाम' ज्वरगृहीत पुरुषनाम | 'शीतोष्ण ज्वर हरणं' स्यादुष्णाहिमाम्बुनिक्षिप्तं एतद् यन्त्रं उष्णोदकमध्ये निक्षिप्तं शीत ज्वर हरणं स्यात्, तदेव यन्त्रं शीतोदकमध्ये निक्षिप्तं उष्णज्वर हरणं
स्यात् ।।३५।।
|
[हिन्दी टीका ] - - उस पुरुष के नाम को क्रमशः ठ, व, ॐ, झ को और श्रद्धचन्द्र से वेष्टित करके उसको उष्ण जल में डालने से शीतज्वर और शीतल जल में डालने से उष्णज्वर नष्ट होता है ।। ३५ ।।
होमद्रव्यविधान
शाल्यक्षतदूर्वाङ्क ुरमलयजहोमेन शान्तिकं पुष्टिम् ।
करवीर पुष्प हवनात् स्त्रीणां कुर्याद् वशीकरणम् ॥३६॥
[ संस्कृत टीका ]- 'शाल्यक्षतवूर्याङ् रमलयजेहोमेन' कलमाक्षतश्वेतदूर्वाङ्क
श्रीगन्धद्रव्य हवनेन । 'शान्तिकं पुष्टिम्' शान्तिकर्म पुष्टिकर्म च कुर्यात् । 'करवीर पुष्प हवनात्' | 'स्त्रीणां' वनितानाम् । 'वशीकरर' वश्यकर्म कुर्यात् ॥३६॥
[ हिन्दी टीका ] - शादी के चांवल, दुर्वा के अंकुर और लाल चंदन के होम से शांतिक और पुष्टि कर्म, लाल कनेर के पुष्पों के हवन से भी स्त्रियों का वशीकरण होता है ||३६||
महिषाक्षपग्रहोमात् प्रति दिवसं भवति पुरजनक्षोभः । क्रमुकफलपत्र हवनात् राजानो वश्यमायान्ति ॥३७॥
[ संस्कृत टीका ] - 'महिषाक्षपद्महोमात्' गुग्गुलपद्मवनात् । 'प्रति दिवस भवति पुरजन क्षोभ:' दिनं दिनं प्रति पुरजनक्षोभो भवति । क्रमुक फलपत्र हवनात् ' पूगफल नाग वल्लीपत्र हवनात् । 'राजानो वश्यमायान्ति' सर्वे पार्थिवा वश्यं गच्छन्ति ॥ ३७॥
[ हिन्दी टीका ] - महिपाक्ष, गूगल और कमलपुष्प अथवा लाल कनेर के पुष्पों से होम करने से नगरवासी लोग प्रतिदिन क्षोभ को प्राप्त होते रहते हैं । सुपारी और नागरवेल पान के हवन से राजा लोग वश में होते हैं ।। ३७॥
तिलधान्यानां होमैंराज्ययुतैर्भवति धान्य धनवृद्धिः । मल्लि प्रसूत होमात् सघृताद् वश्या योगिजनाः || ३६ ||
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[संस्कृत टीका]-'तिलधान्यानो होमैंः' तिलादिधान्यहवनैः । कथम्भूतः ? 'प्राज्ययुतैः' घृतान्वितैः । 'भवति धान्य धनवृद्धिः स्यात् । 'मल्लिप्रसून होमात्' मल्लिकापुष्पहोमात् । कथम्भूतात् ? 'सघृतात्' गयाज्ययुक्तात् । 'वश्या नियोगिजनाः' नियोगिजना वश्या भवन्ति ।।३।।
[हिन्दी टीका]-तिल, धान्य और धूत से होम करने से धन धान्य की वृद्धि होती है, गाय के घी के साथ मल्लिका पुष्प, (मोगरा के फूल) को मिलाकर होम करने से योगीजन भी वश हो जाते हैं ।।३८।।
___ श्लोक में योगिजन वश होते हैं, लिखा है उसकी टीका संस्कृत में नियोगिजन वश होते हैं ऐसा लिखा है ।
घृतयुक्तचत फलनिकर होमतो भवति खेचरी वश्या । बटयक्षिणी च होमाद् भवति वशा ब्रह्मपुष्पारणाम् ।।३।।
[संस्कृत टीका]-'घृतयुक्तचूतफलनिकर होमतः' प्राज्ययुताम्रफलसमूहहवनात् । 'भवति' स्यात् । 'खेचरी' खेचरी नाम देवो । 'वश्या' वश्या भवतीत्यर्थः । 'बटयक्षिणी ध' बटयक्षिणी नाम देवी च। 'ब्रह्मपुष्पारणाम' पलाशपुष्पारणाम् । 'हवनात्' होमात् । 'भवति वशा' शी भवति ॥३६॥
[हिन्दी टीका] -आम के गुच्छों के साथ घी का होम करने से विद्याधरी देवी वश में होती है और पलाश (ढाक) के पुप्पों के साथ घृत का होम करने से बढ़ यक्षणी नाम की देवी सिद्ध होती हैं, वश होती है ।।३६।६।।
गह धूम निम्बराजीलवणान्वित काक पक्षकतहोमैः ।। एकोदर जातानामपि भवति परस्परं वरम् ॥४०।।
[संस्कृत टीका]-'गृह धूम' श्रागार धूम । निम्बः' पिचुमन्दः । 'राजी' कृष्णसर्षपः । 'लवणम्' सामुद्रम् । 'अन्वितः' एतयुक्त : 'काकपक्षकतहोमः' वायस पक्ष कत होमः। 'एकोदर जातानाम्' एकोदर समुत्पन्न पुरुषाणाम् । 'अपि' निश्चयेन । 'परस्परं वरम्' । 'भवति' जायते ॥४०॥
[हिन्दी टीका]-घर के धुए का काजल, नीम, काली सरसों, समुद्र का नमक, कौए के पंख सहित होम करने से एक माता से उत्पन्न होने वाली अत्यंत स्नेही मंतान में भी द्वेषभाव उत्पन्न होता है ।।४।
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( १३३ )
प्रतवन शल्य मिश्रित विभीतकाङ्गारसद्मधूमानाम् ।
होमेन भवति मरणं पक्षाहाद् वैरिलोकस्य ॥४१॥
[ संस्कृत टीका ] - ' प्रतवन शल्य मिश्रित विभीतकाङ्गारसद्मधूमानाम्' श्मशानास्थियुक्त भूत वृक्षाद्भारगृहधूमानाम् । 'होमेन' हथनेन । 'भवति' जायते । कि तत् ? 'मरखम्' पञ्चत्वम् । कथम् ? पक्षाहात्' पक्षदिनमध्यतः । कस्य? 'वैरिलोकस्य'
शत्रुजनस्य ॥
और घर के
है ॥४१॥
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हिन्दी टीका ] - श्मशान की अस्थि (हड्डी) से सहित बहेड़ा का अंगारा घूए के काजल से होम करने से एक पक्ष में ही शत्रु का मरण हो जाता
साधक सावधान :- इस मारण क्रिया में हाथ न डाले, नहीं तो नरकों में दुःख भोगना पड़ेगा, हिंसक क्रियांत्रों को कभी नहीं करे । करेगा तो जबाबदारी साधक की ही रहेगी ।
इत्युभयभाषाकवि शेखर श्री मल्लिषेण सूरि विरचिते भैरव पद्मावती कल्पे वश्य मन्त्राधिकार सप्तम परिच्छेदः ||७||
इति श्री उभय भाषा कवि विरचित भैरव पद्मावती कल्प वश्या यंत्रा - विकार की हिन्दी भाषा नामक विजया टीका समाप्त |
| सातवां अध्याय समाप्त ।
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( १३४ )
श्रष्टमो दर्पणादि निमित्त परिच्छेदः
सिध्यति सहल जाये दशगुरिणतैः प्रणवपूर्व होमान्तः । दर्पण निमित्त मन्त्रश्चले चुले चूले प्रभतिनोच्चार्यः ॥ १ ॥
[ संस्कृत टीका ] - सिद्धयति' सिद्धि प्राप्नोति । कैः ? 'सहस्र जाप्ये:' । कथम्भूतैः ? 'दशगुणितैः' दशसहस्त्रेरित्यभिप्रायः । पुनः कथम्भूतैः ? प्रणव पूर्व मान्तः' उकार पूर्व स्वाहा शब्दान्त्यैः । 'दर्पणनिमित्तमन्त्रः ' प्रादर्श निमित्त मन्त्रः उच्चार्थः || १ ||
मन्त्रोद्वार : - ॐ चले चूले चूडे (ले) कुमारिकयोरङ्ग प्रविश्य यथा भूतं यथाभाव्यं यथासत्यं मा विलम्बय ममाशां पूरय पूरय स्वाहा ॥
[ हिन्दी टीका ] - दर्प निमित के मंत्र का दश हजार जाप्य करने से मंत्र सिद्ध होता है, दशांश होम आहुति मंत्र की अवश्य देनी चाहिये || १॥
मंत्र :- ॐ चल चूले चूडे (ले) कुमारिकयोरङ्गप्रविश्य यथाभूतं यथा भाव्यं यथा सत्यं मां विलम्बव ममाशां पूरय-पूरय स्वाहा ।
नोट :-यही दोनों मूल संस्कृत की प्रति में मंत्र है, किन्तु साराभाई नबाब के यहां से प्रकाशित प्रति में कहीं-कहीं अंतर है ( दर्शय दर्शय भगवति ) इतने शब्दों का अंतर है। सूरत वाली प्रति भवति दर्शय दर्शय भगवति, आदि लिखा है । सप्तवाराभिमन्त्रित गोदुग्धं पाययेत् कुमारिकयोः । सप्तवत्सारयोः ॥२॥
ब्राह्मण कुलप्रसुत्योस्तयोर्द्वयोः
[ संस्कृत टीका ] - 'सप्तवाराभिमन्त्रितम्' कथितमन्त्रेण सप्तवाराभिमन्त्रितम् । किम् ? 'गोदुग्धम्' गोक्षीरम् | 'पाययेत्' पानं कारयेत् । कुमारिकयोः ' कन्ययोः । किविशिष्टयोः ? 'ब्राह्मरण कुलप्रसृत्योः' विप्रवंश सज्जातयोः । पुनः कथम्भूतयोः ? 'सत्तवत्सरयोः' सप्तवार्षिकयोः । 'तयोद्वयोः' उभयोः ||२||
[ हिन्दी टीका ] - दो ब्राह्मणकुल में उत्पन्न होने वाली सात वर्ष की कन्याओं को उपरोक्तक मंत्र से गाय के दूध को सात बार मंत्रित करके पिलावे || २ ||
१. दर्शय दर्शय भगवती इति ख पाठः ।
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संस्नाप्य ततः प्रातर्दत्वा ताभ्यामथ प्रसूनादीन् । भूम्यामपतितगोमय सम्मानितभूतले स्थित्वा ।।३।।
[संस्कृत टोका]-'संस्नाप्य' सम्यक्स्नपयित्वा । 'ततः' स्नानानन्तरम् । 'प्रातः' प्रभात समये । दत्वा ताभ्याम्' कुमारोभ्याम् । 'प्रथ' पश्चात् । 'प्रसूनावीन्' पुष्पाक्षतानुलेपनादीन् । 'भूम्याम्' पृथिव्याम् । 'अपतितम्' न पतितम् । 'गोमयं' शकृत्। 'सम्माजित भूतले' तेन गोशकृता सम्यग्माजित भूतले । “स्थित्वा उषित्वा ॥३॥
[हिन्दी टीका]-उसके बाद उन दोनों कन्याओं को स्नान करावे, पृथ्वी पर न पड़े हुए गोबर से स्थान का लेप करके उस स्थान पर खड़ा होकर उन कन्याओं को पुष्पादिक देवे ।।३।।
चतुरस्त्रमण्डलस्थं कलशं गन्धोदकेन परिपूर्णम् ।। तस्योपर्यादर्श निवेशयेत् पश्चिमाभिमुखम् ॥४॥
[संस्कृत टीका]-'चतुरस्त्रमण्डलस्थम्' समचतुरस्त्रमण्डलमध्यस्थितम् । कं तम् ? कलशम्' घटम् । कथम्भूतम्? 'गन्धोदकेन परिपूर्णम्' सुगन्धद्रव्यान्वितोदकेन परिपूर्णम् । 'तस्योपरि' तत्पूर्णकुम्भस्योपरि । प्रादर्श दर्पणम् । निवेशयेत् स्थापयेत् । कथम् ? पश्चिमाभिमुखम्' प्रतीच्यभिमुखम् ॥४॥
[हिन्दी टीका-फिर चौकोर एक मंडल बनावे, उस मंडल पर कलश स्थापन करे तदनन्तर मुगन्धि जल से कलश को भर दे, उस कलश पर एक दर्पण स्थापन करे, उसका पश्चिम दिशा की तरफ मुंह करे ।।४।।
तदभिमुखे प्राक्कल्पितकुमारिकायुगलमथ निवेश्य ततः । तद् हृदये जल्लू कारं विचिन्तयेत् प्रणयसम्पुटितम् ॥५॥
[संस्कत टोका]-'अथ' पश्चात् । 'तवभिमुखे तदर्परभिमुखे । 'प्राककल्पित कुमारिकायुगलम्' पूर्व स्नानादिसङ्कल्पित कन्याया युग्मम् । 'निवेश्य' तन्मण्डले संस्थाप्य । 'ततः पश्चात् । तदहृदये' तत्कुमारिका युगल हृदये। 'ब्लू कारं' ब्लूमिति बोजाक्षरम् । विचिन्तयेत्' विशेषेण ध्यायेत् । कथम् ? 'प्रणवसम्पुटितम्' उंकारसम्पुटगतं । उन्लू उइत्योंकार सम्पुटितम् ॥५॥
[हिन्दी टीका-उसके बाद दर्पणभिमुख होकर उन दोनों कन्याओं को मंडल में बिठावे, और उन दोनों कन्यानों के हृदय पर ब्लू कार बीजाक्षर का ध्यान करे, कैसे करे? ॐ प्रणव सहित करे, याने ॐ ब्लू का ध्यान करे ।।५।।
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{ १३६ ) शशिमण्डलवत् सौम्यं तन्मन्त्रमनुस्मरन् स्थपं तिष्ठेत् । प्रादर्श वीक्ष्यमाणं कुमारिकायुगलकं पृच्छेत् ॥६॥
[संस्कृत टीका]-'शशिमण्डलवत् सोम्यम्' चन्द्रमण्डलवत्सौम्यरूपम् । 'तन्मन्त्रम्' वक्ष्यमाणमन्त्रम्। 'अनुस्मरन् स्वयं तिष्ठेत्' मन्त्रवाद्यात्मना तिष्ठेत् । प्रादर्शयोक्ष्यमाणं कुमारिका युगल कम्' कन्यकायुगलम् । 'पृच्छेत्' प्रष्टव्यम् ॥६॥
[हिन्दी टीका]-मंत्रवादी आगे कहे अनुसार चन्द्र मंडल जैसे निर्मल मंत्र को जपता हुअा, स्वयं बैठकर दर्पण में देखती हुई उन दोनों कन्याओ को पूंछे ।।६।।
यद् दृष्टं येच्छ तं ताभ्यां तत्र रूपं वचो यथा । खङ्गाङ्ग ष्ठे जलादर्श तत् सत्यं नान्यथा भवेत् ।।७॥
[संस्कृत टोका]-'यद् दृष्टम् यत् तत्र दृष्टम् । 'यच्छ तम् यत् तत्र श्रुतम्। 'ताभ्याम्' कुमारिकाभ्याम् । 'तत्र' मुकुरादि निमित्त । 'रूपं वचो यथा' येन प्रकारेण दृष्टं रूपम्, प्राकरिणतं वचनम् । क्व? 'खङ्गाङ्ग ष्टजलादर्श' खनाङ्ग ष्टनिमित्ते, जलपूर्ण कलशे, दर्पण निमित्त । 'तत् सत्यम्' यद् दृष्ट म्, यत् तं तत् सर्व तथ्यम् । 'नान्यथा भवेत्' अन्य प्रकारेणासत्यं किमपि न भवति ॥७॥
[हिन्दी टीका]-जंसा-जैसा देखा, जैसा-जैसा सुना, वैसा ही उन दोनों कन्याएँ कहेगी, वह पूर्ण सत्य ही होगा, खङ्ग, अंगुष्ठ, जल, दर्पण, आदि में देखा हुना सत्य होगा, अन्यथा नहीं हो सकता है ।।७।।
सर्परगाङ्ग ठ दीपादि निमित्तमवलोकयेत् । सिध्यत्यष्ट सहस्त्रेण मन्त्रो जाप्येन मन्त्रिणाम् ॥८॥
| संस्कृत टीका] -'दर्पणाङ्ग ष्ठदीपादि निमित्त अवलोकयेत्' निरीक्षेत् । 'सिध्यति' सिद्धि प्राप्नोति । 'अष्टसहस्त्रेरण' सहस्त्राष्ट केन । कोऽसौ ? 'मन्त्रः' वक्ष्यमारणमन्त्रः । 'जाप्येन' जपनेन । केषाम् ? 'मन्त्रिणाम्' मन्त्रवादिनाम् ॥८॥
मन्त्रोद्धार :-उँ नमो मेरु महामेरु, उ नमो गौरी महागौरी, उनमः काली महाकाली, उइन्द्रे महाइन्द्र, उजये महाजये, उ नमो विजये महाविजये, ॐ नमः पण्णसमरिण, प्रयतर अवतर देवी अवतर अवतर स्वाहा ।
१. यत् थ तं इति ख पाठः । २. ह्रीं स्वाहा इति व पाठः ।
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( १३७ ) [हिन्दी टीका]-दर्पण अंगुष्ठ दीपकादि निमित में देखे, मंत्रवादी को नीचे लिखे मंत्र को आठ हजार जाप्य करने से सिद्धि मिलती है।
उसके अाराधना का मंत्र :-ॐ नमो मेरू महामेरू ॐ (नमो धररिण महाधरणि) ॐ नमो गौरी महागौरी, ॐ नमो काली महाकाली ॐ नमो इन्द्रे महाइन्द्रे ॐ नमो जये महाजये ॐ नमो विजये महाविजये ॐ नमो पण्णसमरिंग, महापण्णसमणि अवतर--अवतर देवि अवतर--देवि अवतर ( मम चिन्तितं कार्य बहि-२) स्वाहा ।।८।।
नोट :-- इस मंत्र में मूल संस्कृत पाठ में और अन्य प्रतियों में मंत्र का भेद दिखता है, संस्कृत प्रति में नमोधरगि महाधररिंग, पाठ नहीं है और मम चिन्तित कार्यं सत्यं न हि-२ पाठ भी नहीं है, किन्तु सुरत की कापडियाजी की प्रति में है ।
दत्वा दर्भास्तरणं दुग्धाहारं पुरा कुमारिकयोः । संस्नाप्य ततः प्रातर्धवलाम्बर भूषणादीनि ।।६।।
[ संस्कृत टीका] -'बत्वा' । किम् ? 'दर्भास्तररणम्' वर्भशय्याम् । 'दुग्धाहारम्' क्षीराहारम् । कथम ? 'पुरा' निशि प्रथमयामे । कयोः ? 'कुमारिकयोः' । 'ततः' तदनन्तरम् । 'प्रातः प्रभातसमये । 'संस्नाप्य सम्यक्स्नपयित्वा । 'धवलाम्बर भूषणादोनि' श्वेतवस्त्रालङ्कररणादीनि ।।६।।
[संस्कृत टीका]-दोनों कुमारिकाओं को दाभ की शैय्या और दूध का आहार रात्री के प्रथम प्रहर में देकर, प्रातः काल अच्छी तरह से कराकर सफेद वस्त्र और आभूषणादि देवे ।।६।।
कलशादर्शकुमारोस्थानेष्वथ विन्यसेदिम मन्त्रम । विनयं गजयशकरणं क्षांक्षींझू कारहोमान्तम् ॥१०॥
[संस्कृत टोका]-'कलशादर्शकुमारी स्थानेषु' कलशस्थापने, दर्पण स्थापने, कुमारी स्थापने, एतेषु स्थानेषु । 'प्रथ' पश्चात् 'विन्यसेत्' कम्? 'इमं मन्त्रम् वक्ष्यमाएमन्त्रम् । “विनयं गजवशकरणं क्षा भी क्ष कारहोमान्तम' उकारं विनय इति सज्ञम, गजवशकरणं नोंकारम, क्षांकारम क्षी कारम भकारम् 'होमान्तम' स्वाहाशब्दान्तम् ॥१०॥
स्थानत्रय संस्थापन मन्त्रोद्धार :-उको क्षा क्षीतं स्वाहा। एतन्मन्त्रं स्थानत्रये विन्यसेत् ॥
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( १३८ ) [हिन्दी टीका]-कलश स्थापन की जगह, दर्यरण स्थापन की जगह और कुमारीका स्थापन की जगह इस मंत्र ॐ क्रौ क्षा क्षी शें स्वाहा का न्यास तीनों स्थानों पर करें ॥१०॥
प्रणवादि पञ्च शून्यैरभिमन्य कुमारिकाकुचस्थाने । प्रशित तयोश्च दद्याद् घृतेन सम्मिश्रतान् पूपान् ॥११॥
[संस्कृत टीका]--'प्रणवादि पञ्च शून्यः' उकारादि हां ही हू.. ह्रौं ह्रः इति पञ्चशून्यैः । 'अभिमन्त्र्य' मन्त्रयित्वा । क्य ? 'कुमारिका कुचस्थाने' पन्यास्तनयुगल स्थाने । 'तयो' द्वयोः कुमारिकयोः । 'क्व' पुनः । 'प्रशितुम्' भक्षयितुम्। 'दद्याद्' दातव्यम् । कान् ? 'पूपान्' पोलिकाः । कथम्भूतान् । 'घृतेन सम्मिश्रतान्' प्राज्ययुक्तान् ॥११॥
[हिन्दी टीका] -प्रणवादि पांच शून्याक्षर याने ॐ हाँ ह्रीं ह्रह्रीं ह्रः इन अक्षरों से मंत्रित करके, किसको मंत्रित करके ? कन्या के दोनो स्तनों को । फिर घृतमिश्रित पूआ कन्याओं को खाने को देना चाहिये ।।११।।
पालक्ताभिरज्जित हस्ताङ्ग ष्ठे निरीक्षयेद् रूपम् । करनिर्वतिततलेनाङ्ग ष्ठस्नान करणेन ॥१२॥
[संस्कृत टीका ]-'पालक्ताकाभिरन्जितहस्ताङ्ग प्ठे' मन्त्रिदक्षिणकरानष्ठे । 'निरीक्षयेत्' अवलोकयेत् । किम् ? 'रूपम्' प्रतिबिम्बम् । केन ? 'करनिर्वतिततैलेन' हस्ताभ्यां मदिततलेन । कथम्भूतेन ? अङ्ग पठस्नानकररणेन' मध्यङ्ग ष्ठेन तैलाभ्यक्तेन अङ्ग ष्ठनिमित्तमिदम् ।।१२।।
[हिन्दी टीका]-मंत्रवादी के दोनों हाथों से मदित किए हाए तिल के तेल से अंगुष्ठ निमित्त के द्वारा अलक्तक (महाबर) से रंगे हुए अपने अंगूठे में मंत्ररूप को देखे ।।१२।।
प्रणवः पिंगुलयुगलं पण्णात्तिद्वितयं महाविध यम् । टान्सद्वयं च होमो दर्पणमन्त्रो जिनोद्दिष्टः ॥१३।।
[संस्कृत टोका]-'प्रणवः' उकारः । पिंगुलयुगल' पिंगल पिगलेतिपदद्वयम् । 'पण्णति द्वयं च' परगति पण्णत्तीतिपद द्वयं च । 'महाविद्ययम्' इयं महाविद्या । 'टान्तद्वयं टकारद्वयम् । 'च' । 'होमः स्वाहा इति । 'दर्पणमन्त्रः' प्रादर्शमन्त्रः । 'जिनोद्दिष्टः' जिनेश्वर प्रणोतः ॥१३॥
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( १३६ ) मन्त्र :- पिंगल पिंगल पण्णत्ति पणत्तिः ठः ठः स्वाहा ॥
| हिन्दी टीका]-ॐकार पिंगल-पिंगल ये दो पद, और पत्ति -२ ये दो पद और ठः ठः ये दो और स्वाहा, ये दर्पण मंत्र है इस मंत्र को जिनेन्द्र देव ने दर्पण मंत्र कहा है ।।१३।।
ॐ पिंगल पिंगल परगति पणराति ठः ठः स्वाहा ॥१३॥ जाप्यं भानुसहस्त्रैः सितपुष्पश्चन्द्र किरणसङ्काशैः। सिद्धयति दशांश होमादादर्श निमित्त मन्त्रोऽयम् ॥१४॥
[ संस्कृत टीका ]-'जायं' जपम् । 'भानुसहस्त्रः' द्वादशसहस्त्रः । के ? 'सित पुष्पः' श्वेतप्रसूनः । कथम्भूतः ? 'चन्द्रकिरणसङ्काशः' चन्द्ररश्मिसन्निभैः । सिद्धयति' सिद्धि याति । केन ? 'दशांशहामेन' द्वादश सहस्त्राणां दशांश होमेन । 'प्रादर्शनिमित्त मन्त्रोऽयम्' अयं मन्त्रः वर्पण निमित्तसाधनम् ।।१४।।
[हिन्दी टीका]-दर्पण निमित मंत्र की सिद्धि बारह हजार चंद्रमा के समान उज्वल सफेद पुष्पों के जाप्य करने से और दशांश होम करने से होती है ।।१४।।
चितभस्मनक विशति वारान् सम्मध १ दर्पणं पूर्वम् । शाल्यक्षतोपरि स्थित नवाम्बुपरिपूर्णनय कुम्भे ॥१५॥
[संस्कृत टीका]-'चितभस्मनैक विशति वारान् । 'सम्म' मर्दयित्वा । कम् ? 'दर्पणम्' 'शाल्यक्षतोपरिस्थित' कलमाक्षत पूजोपरिस्थित । 'नवाम्बुपरिपूर्णनवकुम्भे' प्रमोदकपरिपूर्णनषकुम्भे ॥१५॥
[हिन्दी टीका-फिर श्मशान के भस्म से उस दर्पण को इक्कीस बार स्वच्छ कर याने दर्पण को मलकर उसको शालि के चांबलों पर नवीन जल से भरे हुए कुम्भ के ऊपर दर्पण को रखे ।।१५।।
तं प्रतिनिधाय तस्मिन्न क कुलोद्भूत कन्यकायुगलम् । त्रिषु वर्णेष्वन्यप्तम स्नातं धवलाम्बरोपेतम् ॥१६॥
संस्कृत टीका]-'तं प्रति निधाय' तं प्रादर्श कुम्भस्योपरि संस्थाप्य । 'तस्मिन्' तत्कुम्भसमीपे । 'एककुलोद्भूतकन्यका युगलम्' एक कुल जनित कन्यका १. महाविध ठः ठः इति ख पाठः । २. विमशेच्च इति ख पाठः ।
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(१४ ) युग्मम् । कि विशिष्टम् ? 'त्रिषु वर्णवन्यतम' ब्राह्मषक्षत्रियवैश्यानां मध्येसत्कन्यकापुगलम् प्राप्य, तवेकम् । पुनः कथम्भूतम् ? 'स्नातम्' कृतस्नानम् 'धवलाम्बरोपेतम्' श्वेतवस्त्रपरिधानान्धितम् ॥१६॥
[हिन्दी टीका] -उस कुम्भ पर दर्पण को स्थापन कर, उस कुम्भ के समीप में एक ही वर्ग से उत्पन्न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनो वर्गों में से कोई भी एक वर्ग में उत्पन्न हुई दो कन्याओं को स्नान करा कर श्वेत वस्त्र पहिनावे १६॥
अभ्यर्च्य गन्धतन्दुलनिवेद्यकुसुमादिभिस्ततः कलशम् । दत्वा ताम्बूलादीन् आदर्श दर्शयेत् ताभ्याम् ॥१७॥
[संस्कृत टोका]-'अभ्यच्य' सम्यग् अर्चयित्वा। कः? 'गन्धतन्दुल निवेद्यकुसुमादिभिः' गन्धाक्षतवर पुष्प घोपधूपाद्यष्टविधार्चन द्रव्यैः । 'ततः' तस्मात् । 'कलशं' पूर्णकुम्भम् । 'दत्वा ताम्बूलादोन ताम्बूलगन्धाक्षतकुसुमादीन् दत्वा । 'प्रादर्श दर्शयेत्' । 'ताभ्याम' कुमारिकाभ्याम ॥१७॥
[हिन्दी टीका]-किर भली प्रकार गन्धाक्षत पुष्पादिक से उस कलश को पूजा कर उन कन्याओं को पान आदि पदार्थों को देकर दर्पग्ग दिखावे ।।१७।।
मन्त्रं प्रपठंस्तिष्ठेत् कुमारिकायुगलक तथा पृच्छेत् । एष्टं श्रुतं च कथयति रूपं वचनं च मुकुरान्ते ॥१८।।
[संस्कृत टोका]-'मन्त्रं प्रपठन्' मन्त्रं उच्चारयन् । 'तिष्ठेत् निवसेत् । 'कुमारिका युगलकम' कन्यकायुगलम् । तथा' तेन प्रकारेण । 'पृच्छेत्' प्रश्नं कुर्वीत । 'दृष्टं श्रुतं च कथयति' यद् रष्टं यच्च तं तत्सर्व कथयति । 'रूपं वचनं च मुकरान्ते' आदर्श यद् दृष्टं रूपं यच्छ तं वचतं तत्कथयति । इति दपरणावतारः ॥१८॥
[हिन्दी टीका]-उसके बाद मंत्रवादी मंत्र को जपता हुआ उन दोनों कन्याओं से पूछे । वे दोनों कन्याए दर्पण में रूप और सुने हुए वचन को ठीक-ठीक कहेगी ।।१८।।
दीपक निमित्त सुन्दरी यंत्र इदानी दीपनिषद्या कथ्यतेअष्ट सहस्त्रैर्जाती पुष्पैः श्री वीरनाथ जिनपुरतः । जस्ते सुन्दरदेयो सिद्धयति मन्त्रेण सद्भक्त्या ॥१६॥
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[संस्कृत टीका] 'अष्टसहस्त्रः' सहस्त्राष्टकैः । 'जातीपुष्प' मालती प्रसूनः। 'श्री वीरनाथ जिनपुरतः' श्रीवर्द्धमान स्यामि जिनस्याग्रे । 'जप्ते' जाप्ये कृते सति । 'सुन्दरदेवी' सुन्दरो नाम देवी । सिद्धयति' सिद्धि प्राप्नोति। केन? 'मन्त्रेण' वक्ष्यमाण मन्त्रण। कथम् ? 'सद्भक्त्या' सद्भक्ति विशेषेण ॥१६॥
मन्त्रोद्धार :- सुन्दरि ! परमसुन्दरि? ! स्वाहा ।
हिन्दी टीका-श्री महावीर स्वामी के सामने जाती पुष्पों से आठ हजार जाप करने से सुन्दरी देवी सिद्ध होती है । विशेष भक्ति से आराधना करे ।।१६।।
जाप करने का मंत्र :----ॐ सुन्दरि परमसुन्दरि स्वाहा । ब्रह्मादि सुन्दरी शरदं होमान्तं करिषकान्तरे । अष्टपत्रेषु सर्वेषु लिखेत् परमसुन्दरी ॥२०॥
[संस्कृत टोका]-'ब्रह्मादि सुन्दरी शब्' उकारादि सुन्दरीपदम् । 'होमान्स' स्वाहान्तम् । 'कणिकान्तरे' उँ सुन्दरि ! स्वाहा इति कणिकाभ्यन्तरे' लिखेत् । 'प्राट पत्रेषु सर्वेषु' तत्करिणका बहिः प्रदेशे अष्टदलेषु । 'लिखेत् परम सुन्दरो' उपरम सुन्दरी स्वाहा इति पदं प्रत्येक सर्ववलेषु लिखेत् ॥२०॥
[हिन्दी टीका]-पाठ पांखुडी का एक कमल बनावे, कणिका में ॐ सुन्दरी स्वाहा, लिखे और पाठों पांखडीयों में ॐ परमसुन्दरी स्वाहा लिखे ।।२०।।
कृष्णतिलतैलपूर्ण कुलालफरमृत्तिकाकृते पात्रे। पालतककृतवा दीपे न्यग्रोधवह्निभवे ॥२१॥
[संस्कृत टीका]-'कृष्ण तिलतल पूर्णे' कृष्णतिलोद्भूतल सम्पूर्णे । पुनः कथम्भूते ? 'कुलालकर मृत्तिकाकृते' कुम्भकारकराग्रगृहीतमृत्तिकया कृते । कस्मिन् ? 'पा' वीपमात्रे । 'मालतककृतवा' पालतकपटलावेष्टिया । 'दीपे' प्रदोपे । कथम्भूते ? 'न्यग्नोधवह्निभवे' वटवृक्षकाष्ठजनितग्निप्रज्वलिते। कुमारिकाद्यष्टविधार्चन प्राक्कथित विधान वज्ज्ञात्वा कर्त्तव्यम् । गोपनिमित्तमिदम् ॥२१॥
हिन्दी टीका]-शुम्हार के हाथ में लगी हुई मिट्टी से बनाये हुए दीपक में काले तिल का तल भरकर (लाक्षा) (लाख) पालक्तक की बत्ती बनाकर उस दीपक में डाले और उसके वाद, उस दीपक को वट वृक्ष की लकड़ी से जलावे ।।२१।।
१. महासुन्दरि ! इति स पाठः ।
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( १४२ )
बाकी विधान पूर्व की तरह से जानना चाहिये । दीपनिमित्त विधान है । सुन्दरी यंत्र चित्र नं. ३६ देखें।
इदानों कर्णपिशाची विधानमभिधीयते--- श्रवणपिशाचिनि मुण्डे ! स्वाहान्तः प्रणवपूर्वकोच्चार्यः । सिद्धपति च लक्षजाप्यात् करणं पिशाचीत्ययं मन्त्रः ॥२२॥
[ संस्कृत टीका ]-'श्रवण पिशाचिनि मुण्डे' श्रवण पिशाचिनि मुण्डे इति पदम् । 'स्थाहान्तः' स्वाहाशब्दान्त्यः । पुनः कयम्भूतम् ? 'प्रणवपूर्वकोच्चार्यः' उकारमादि कृत्वोच्चारितः । 'सिद्धयति च लक्ष जाप्यात्' लक्ष प्रमारग जाप्यात् सिद्धि प्राप्नोति । 'कर्णपिशाचीत्ययं मन्त्रः' अयं मन्त्रः कर्णपिशाची नाम स्यात् ॥२२॥
मन्त्रोद्धार :-१ श्रवणपिशाचिनि मण्डे ! स्वाहा ।।
[हिन्दी टीका-प्रणव पूर्वक ॐ और अंत में स्वाहा लिखे, श्रवणपिशाचिनिमुण्डे को लिखे । मंत्र का एक लक्ष जाप करने से कर्णपिशाची मंत्र सिद्ध होता है ।।२२।।
मंत्रोद्धार :-ॐ श्रवणपिशाचिनि मुण्डे स्वाहा । मन्त्र परिजप्त कुष्टं हृन्मुख कर्णाडिघ्रयुगलमालिप्य । सुप्तस्य कर्णमूले कथयति यचिन्तितं कार्यम् ॥२३॥
[संस्कृत टीका]-'मन्त्र परिजप्त कष्टं' कर्णपिशाचिनी मन्त्रेणक विशतिवाराभिमन्त्रितं कुष्टं उदकपेषितम् ।' हन्मुखकर्णाघ्रियुगलमालिप्य' एतेनोवकेन पिष्ट कुष्टेन हृदयवदन श्रवणयुगलपादयुगलानि लेपयित्वा । 'सुप्तस्य' निद्रितस्य । 'कर्णमूले' श्रवणमूले । 'कथयति' वदति । 'यचिन्तितं कार्य यत् प्रतीतानागतवर्तमानेप्सितं प्रयोजनम् ॥२३॥
[हिन्दी टीका]-मंत्रबादी इस मंत्र से कठ को २१ बार मंत्रित करके उसको पीसकर कर हृदय, मुख दोनों कानों पर दोनों पैरों पर लगाकर सोबे तो कर्णपिशाचिनी देवी सोते समय चिन्तित कार्य को कान में कहती है ।।२३।।
मलयूंकार चतुर्दश फलान्वितं कूटयोजक विलिखेत् ।। शिखिवायुमण्डलस्थं सनामखरताडपत्रगतम् ॥२४॥
१. उही श्रवण पिशाचिनी इतिख पाठः । २. मलक्यू कार इति स पाठः ।
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( १४३ )
ॐ
स्वाहा
परमसन्न
साहा
-
स्वाहा |
परमसन्न
वावा
र सुन्दरी वाहा
स्वाहा मसुन्दरा
७०
खाहा ।
R
STD
सुन्दरीयंत्रचित्र नं. ३५,
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( १४४ ) [संस्कृत टीका]-'मलयू कार चतुर्दशकलान्वितं' मश्च लश्च यूंकारश्च चतुर्दशफला च प्रौकारः तः 'मन्वितम्' प्रावृतं मलयू कार चतुर्दशकलान्वितम् । कम् ? कूटबीजक' क्षकारबीजकम् । एवं क्षम्ल्यौं ईदृशं बीजम् । 'विलिखेत्' एतद् बीजाक्षरं लिखेत् । कथम् ? 'शिखिवायुमण्डलस्थ' अग्निपुरवायुपुरमध्यस्थितम् । पुनरपि कथम्भूतम् ? 'सनामखरताडपत्रगतम्' देवदत्तनामान्वितखरताडपत्रे स्थितम् ॥२४॥
हिन्दी टीका]-नाम सहित क्षम्ल्ब्य पिंडाक्षरो को लिखकर ऊपर से चौदह स्वर अक्षरों को लिखे, और अग्नि मंडल से और वायु मंडल से बेष्टित कर दे । इसको ताड़पत्र पर लिखे ।।२४।।
मार्तण्ड स्नुहि दुग्धं त्रिकटुकहयगन्धसमभवधूमः । श्रालिप्य ललाटस्थं गृहिणां कुरुते गृहावेशम् ॥२५॥
[संस्कृत टोका]-'मार्तण्डस्नुहिदुग्ध' अर्कक्षोंर, स्नुहोक्षीरम् । 'त्रिकटुकं' प्रसिद्धम् 'हयगन्धा' अश्वगन्धा, 'समभयधूमः' गृहभव धूमः । इत्यादिद्रव्यः 'मालिप्य' तत्पत्रमालिप्य । 'ललाटस्थं' भालस्थम् । केषाम ? 'गहिरणां' गृहीत पुरुषाणाम् । 'कुरुते' करोति । कम ? 'गृहावेशम' गृहावतारम् ॥२५॥
| हिन्दी टीका]-इस यंत्र को अकोचे का दुध, चार धारी वाले थूअर का दूध, त्रिकुट (सोंठ, काली मिरच और पीपल) असगंध, घर के धुग्रां से बनाकर रह से पकडे हुए के मस्तक पर रखने से ग्रह दूर हो जाता है ।।२५।।
ग्रह शोधन यंत्र चित्र नं. ४० देखें । इसी को पद्मावती उपासना में गुप्त लक्ष्मी शोधन यंत्र कहा है ।
धनदर्शक दीपक कुनटीगन्धकतालकचूर्णं कृत्वा सिताकेतूलेन ।
संदेष्टय पद्मनालकसूत्रेण च तिरिह कार्या ॥२६॥
। [संस्कृत टीका]-'कुनटी' मनः शिला, 'गन्धकः' प्रसिद्धः, 'तालकम् ' गोदन्तचूर्णम , 'कृत्वा' एतेषां द्रव्यागां चूर्ण कृत्वा । 'सितार्कतूलेन' श्वेतविफलोद्भवतूलेन । 'संवेष्टय तच्चूणं तत्तूलमध्ये सम्यग्वेष्टयित्वा, केवलं तेन 'पद्धतालकसूत्रेण च' पद्मनालोभवसूत्रेण परिवेष्टय च । 'तिरिह कार्या' अनेन प्रकारेण वतिरिह कर्तव्या ॥२६॥
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☆
( १४५ )
स्वाहा
देवदत्तू
यूँ
h
* गुप्त लक्ष्मी शोधन यंत्र (क) ग्रह शोधन यंत्रनं-४०
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( १४६ )
[ हिन्दी टीका ] - मनशिल, गंधक [ गोरोचन ] और हरिताल का चूर्ण बनावे, फिर सफेद ग्रार्क की रूई और कमल नाल के तागे को मिलाकर बनी बनावे ||२६||
साकङ्ग, तैल भाव्या तया प्रदीपं विबोधयेन्मन्त्री |
यत्रा मुख मगम दोपस्तत्रास्ति वसुराशिः ||२७||
[ संस्कृत टीका ] - साकङ्ग, तेल भाव्या, सा कृता वर्तिः कङ्ग.. तैलेन भावनीया तथा एवं विध वर्त्या, प्रदीपं प्रकाशितदिपम् विबोधयेत्, प्रज्वालयेत् । कः मन्त्री मन्त्रवादी, यत्राधो मुख मगम द्वीपः तत्र यस्मिन् स्थले तद्दीपः अधोमुखं गच्छति, तत्रास्ति वसुराशिः तस्मिन् स्थले सुवर्णराशिरस्तीति ज्ञातव्यम् ।।२७।।
[ हिन्दी टीका | -उस बत्ती को कागनी के तेल में भिगोकर दीपक को जलावे, वह दीपक जहाँ नीचे को मुखवाला हो जावे वहीं धन की राशि जाननी चाहिये ||२७||
विनयादि प्रज्वलित ज्योतिद्दिशायां मरुप्रभोऽन्तपदम् । प्रपठन् मनसा मन्त्रं प्रदोपमालोकयेन्मन्त्री ॥ २८ ॥
।
[ संस्कृत टीका ] - 'विनयादि' उकारपूर्वम् 'प्रज्वलित ज्योतिद्दिशायाम्' इति पदम् । पुनः कथम्भूतम् ? 'मरुाभोऽन्तपदम्' स्वाहा शब्दान्वितम् । 'प्रपठन् मनसा मन्त्र' एवं विशिष्ट मन्त्रं मानसेनोच्चारयत्। 'प्रदीप' प्रकृष्टं दीपम् 'श्रालोकयेत्' विलोकयेत् । कः ? 'मन्त्री' मन्त्रवादी ||२८||
मन्त्रोद्वार : ॐ ज्वलितज्योतिदिशायां' स्वाहा । इयं दीपर्वातः प्रश्वखुरे रिकाय वा प्रतिबोध्य संस्थाप्यावलोकनीया ||
[हिन्दी टीका ] - दीपक की बत्ती जलाते समय उक्त मंत्र का शुद्ध उच्चारण करे । दीपक को बनी सहित घोड़े की नाल अथवा घोड़े के खुर ( सूम) पर रखे अथवा लोहे की छुरी पर रखे और ध्यान लगाकर, एकाग्रचित्त से देखें ||२८॥
गणितनिमित्त
प्रायोर्वेशन दीनवग्रहनग व्याधि प्रसूनाक्षरा ortकृत्य नखान्वितं त्रिगुणितं तिथ्या पुनर्भाजितम् ।
१. ॐ ह्रीं प्रज्वलित इति पाठ: ।
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( १४७ ) यादुद्धरिताच्छुभाशुभफलं वैषम्य साम्येसुधी रेतत् तथ्यमिहोदितं मुनिवरर्भच्याजधर्माशुभिः ॥२६॥
[संस्कृत टीका-'प्राय' बालवयुद्धति त्रिविधप्राय मध्ये नामैकम, 'उ:श' सा भौमानां राज्ञां मध्ये नामकं, 'नवी' गङ्गादिमहानदीनां मध्ये नामक, 'नवग्रह' प्रादित्यादिनवग्रहाणां मध्ये नामकम् 'नग' मन्दरादिपर्चतानां मध्ये नामक, 'व्याधि' बातपित्तश्लेष्मोद्भवानां प्रश्नपथिताक्षर संख्याम् । 'एकीकृत्य' तानि सर्वाण्यप्येकनाडू, कृत्वा । 'नखान्वितं तदराशिमध्ये विशत्य योजयित्वा । 'त्रिगुरिगत तत् सप्तराशि त्रिभिगुणितं कृत्वा, "तिथ्या पुनर्भाजितम्' पुनः पश्चात् त्रिगुरिणत राशि पञ्चदशभिः संस्य विभज्य । “ब यात्' कथयेत् । कस्मात् । 'उद्धरितात्' भागावशेषात् । कि ? 'शुभाशुभफल' शुभफलमशुभफलं च । कस्मिन् ? 'चषम्य साम्ये' विषमा शुभ फलं वयात, समाङ्क विरुद्ध फलं ब्रूयात् । कः ? 'सुधीः' धीमान् । 'एतत् तथ्यं' एतत् प्रश्न निमित्त निश्चितं सत्यम् । 'इह' अस्मिन् कल्पे । 'उदित' प्रतिपादितम् । कैः ? मुनिवरैः मुनि दृषभैः । कथम्भूतैः ? भव्याजधर्माशुभिः भच्या एव अब्जानि तेषां धर्माशुरादित्यस्तद्वतै मुनिभिः इति प्रश्नः ॥२६॥
[हिन्दी टीका -बालक, युवा और वृद्ध इन तीन में से एक का नाम, चक्रवत्तियों में से किसी एक का नाम, गंगादि महानदियों में से किसी एक का नाम, नवग्रहों में से किसी एक का नाम, मेरू आदि पर्वतों में किसी एक का नाम, वात, पित्त, कफ ब्याधाओं में से किसी एक का नाम, नाना प्रकार के फूलों में से किसी एक का नाम, बालक से लेकर फूल तक के नाम की और प्रश्नाक्षर की संख्या इन दोनों को एकत्र करके, उन एकत्र संख्या में २० संख्या को और जोड़कर फिर उसको त्रिगुरिगत करे, त्रिगुणित करने के बाद पन्द्रह अंक से भाग करे, जो शेष बचे उससे शुभाशुभ फल को जाने, यदि शेष सम अक्षर आवे तो विरुद्धफल होगा, यदि विषम संख्या आवे तो शुभ फल होगा, यह निमित ज्ञान रूपी प्रयोग भव्यरूपी कमलों को सूर्य के समान खिलाने वाले उत्तम २ मुनियों ने कहा है । यह प्रश्न निमित निश्चित ही सत्य होता है ।।२।।
युद्ध में अद्धन्दुत्रिशुलयंत्र ज्ञान अद्धन्दु रेखाग्रगतं त्रिशूलं मध्ये च सम्यक्प्रधिलिख्य धीमान् । ऋशेऽमावस्याप्रतिपद्दिने तु यस्मिन् मृगाङ्को व्यवतिष्ठतेऽसौ ॥३०॥
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( १४८ }
[ संस्कृत टीका ] - 'श्रद्धन्दु रेखाग्रगतम्' श्रद्ध चन्द्राकार रेखाग्रस्थितम् । कि तत् ? 'त्रिशूलम्' त्रिशूलाकारम्, न केवल चन्द्राकाराग्रगतं त्रिशूलम् । 'मध्ये 'व' तदर्धचन्द्राकार रेखामध्येऽपि च त्रिशूलम् । 'सम्यक्प्रविलिख्य' शोभनं प्रकर्षण लिखित्वा । कः ? 'धीमान्' बुद्धिमान् । 'ऋक्षे' नक्षत्रे । 'अमावस्या प्रतिपदिने तु' श्रमावस्थानिवर्तमान प्रतिपदि तु । 'यस्मिन् मृगाङ्कः' असौ चन्द्रमा प्रतिपदिने यस्मिन् ऋक्षे व्यवतिष्ठते' सन्तिष्ठते ॥३०॥
[हिन्दी टीका ] - पहले अर्ध चंद्राकार रेखा बनावे, फिर उसके अग्रभाग के मध्य में सम्यक प्रकार त्रिशूलाकृति बनाकर, अमावस्या की एकम के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहे, उस नक्षत्र को त्रिशूलाकृति के अग्रभाग में लिखकर उस नक्षत्र को श्रागे करके ॥३०॥
कृत्वा तदादि विगणय्य युद्ध े विन्द्यात् त्रिशूलाग्र गतेषु मृत्युम् । मार्तण्ड संख्येषु जयं च तेषु पराजयं षट्सु बहिः स्थितेषु ||३१||
1
[ संस्कृत टीका ] - ' कृत्वा तदादि' तत्प्रतिपद्दिने यस्मिन् नक्षत्रे मृगाङ्क स्तिष्ठति तं नक्षत्रं त्रिशूल रेखाग्रे संस्थाप्य तन्नक्षत्रमादि कृत्वा । 'विगणय्य' वव ? 'युद्ध', यस्मिन् दिने युद्धे यस्य युध्यमानस्य पुरुषस्य जन्मनक्षत्रं यत्र लभ्यते तत्पर्यन्तं गरणयेत् । 'त्रिशूलाग्र गतेषु मृत्युम् ' जन्मनक्षत्रं त्रिशूलाग्रगतं यदा भवति तदा मृत्युम् । विन्द्यात्' जानीयात् । 'मार्तण्ड संख्येषु जयं च तेषु' प्रर्द्धचन्द्राकाररेखाभ्यन्तरगत द्वादशक्षेषु तेषु जयं स्यात् । 'पराजयं षट्सु बहिः स्थितेषु' अर्धचन्द्राकार रेखाबहिः स्थितेषु षडक्षेषु पराजयः स्यात् ॥३१॥
।। इति युद्ध प्रकरोऽद्ध न्दुरेखा चक्रम् ॥
[ हिन्दी टीका ] -उन नक्षत्रों को त्रिशूल के अग्र भाग पर स्थापन कर उन नक्षत्रों को आदि करके गणना करे । युद्ध को जाते समय मनुष्य का जन्म नक्षत्र इनमें से जिस स्थान पर हो, उससे फल जानना चाहिये । यदि जन्म नक्षत्र त्रिशुलों के अन्दर पड़े तो मृत्यु हो, यदि वह नक्षत्र मध्य के बाहर नक्षत्रों में से कोई हो, तो विजय हो अथवा वह बाहर अर्थात् अर्ध चन्द्राकार रेखा के बाहर छः नक्षत्रों में से किसी स्थान पर पड़े तो पराजय हो ||३१|| युद्ध में श्रद्धेन्दु त्रिशूल चक्र यंत्र चित्र नं० ४१ देखे । गर्भ में पुत्र हैं या पुत्री
दिशि दिशि तदुभयान्तरवतिभ्यां दिशतु पृच्छ के मन्त्री क्रमशो
बालं बालां नपुंसक प्रगभिण्याः ||३२||
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( १४६) अ भ करो मू ओ मू
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ElEHAG
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रोआज
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ह.वि.स्वा,
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>युद्ध में अर्देन्दुत्रिशुलचक्र यंत्रचित्रनं-४१०
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{ १५० ।
[संस्कृत टीका]-'दिशि विदिशि' दिशासु विदिशासु । 'तदुभयान्तर वतिभ्यां तदुभयपार्श्ववतिभ्यां तद्दिग्विदिग्भ्या उभयपास्थितानाम् । 'दिशतु' कथयतु । 'पृच्छके' प्रश्नकारि पुरुषे । कः ? 'मन्त्री मन्त्रवादी । कथम् ? 'क्रमशः' यथाक्रमम् । 'बालं बालां नपुंसकम्' दिशि पृच्छके बालं, विदिशि पृच्छके कुमारी विशतु, तद्दिग्धिदिग्भ्यां मध्येवतिनि प्रच्छके नपुसकं दिशतु । कस्याः ? 'पूर्णगभिण्याः सम्पूर्णभिण्याः ॥३२॥
हिन्दी टीका ]-प्रश्नकार मनुष्य जिस दिशा या विदशा में रहकर महिने समाप्त हो चुके हैं ऐसी गर्भािग स्त्री के लिये प्रश्न करे तो मंत्रवादी अनुक्रम से इस प्रकार उत्तर दे, प्रश्नकर्त्ता दिशाओं की ओर रहकर प्रश्न करें तो पुत्र होगा, विदिशाओं में रहकर प्रश्न करे तो पुत्री होगी और दिशा विदिशा के मध्यम में रह कर प्रश्न करे तो नपुसक उत्पन्न होगा ।।३२।।
स्त्री अथवा पुरुष को पहले किसको मृत्यु होगी? वर्णमात्राश्च दम्पत्योरेकीकृत्य त्रिभाजिताः। शून्ये नेकेन मृत्पुसो नार्या हयङ्कन निविशेत् ॥३३॥
[संस्कृत टोका]-'वर्णमात्राश्च वर्णाः ककारादिहकारपर्यन्ताः, मात्राश्च प्रकरादि षोडशस्थराः । कयोः ? 'दम्पत्योः' स्त्रीसोः। 'एकीकृत्य' तयानमिवर्णमात्राश्च पृथक्पृथक विश्लेष्य ताः सर्या एक स्थाने कृत्वा । 'त्रिभाजिताः' तो राशि व्यङ्कन विभाजिताः। 'शून्येनकेन, तद्भागोरितशून्येन एकेन च । 'मृत्पुसः' पुरुषस्य मृत्युः । 'नार्या वयङ्कन' तदुद्धरित द्वयङ्कन नार्या मृत्युम् । 'निदिशेत्' कथयेत् ॥३३॥
[हिन्दी टीका ]-स्त्री और पुरुष के नामों के व्यंजन और स्वरों को अलग-अलग लिखकर उनकी गिनती करे, फिर तीन का भाग दे। यदि शून्य शेष रहे, तो अथवा एक रहे तो पुरुष की पहले मृत्यु होगी, यदि दो शेष रहे, तो स्त्री की मृत्यु होगी ।।३३।।
__ इत्युभयभाषा कवि शेखर श्री मल्लिषेण सूरि विरचिते भैरव पसायती कल्पे निमित्ताधिकारः अष्टमः परिच्छेदः ॥८॥
श्री उभय भाषा कवि विरचित भैरव पद्मावती कल्प का निमिताधिकार की हिन्दी भाषा नामक विजया टीका का समाप्त ।
(अष्टम अध्याय समाप्तः)
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( १५१ ) नवमः स्यादिवश्यौषधपरिच्छेदः
मोहनतिलक लवंग फुङ मोसीरं नागकेसरराजिकाः ।। एलामनः शिलाकुष्टं सगरोत्पलरोचनाः ॥१॥
[संस्कृत टीका]- लखन' देवकुसुमम् । 'कुङ्क मम्' वाल्हीकम् । 'उसीर' श्वेतवालकम् । 'नागकेसरं' चापेयम् । 'राजिकाः' श्वेत सर्षपाः । “एला' पृथ्वीका । 'मनः शिला' कुनटो । 'कुष्टम्' वाप्यम् । 'सगर' पिण्डीतगरम् । 'उत्पलं' श्वेतकमलम् । 'रोचना' पिन ला ॥१॥
हिन्दी टीका-लवंग, केशर, चन्दन, नागकेशर, सफेद सरसों, इलायची, मनशिल, कूठ, तगर सफेद कमल और गोरोचन ।।१।।
श्री खण्ड तुलसी पिक्वीरे पाक कुटजान्चितम् । सर्व समानमादाय मक्ष पुष्यनामनि ॥२॥
[संस्कृत टीका]-'श्री खण्ड' माखाश्रयम् । 'तुलसी'३ सरसा। "पिक्यो' गन्ध द्रव्यम् । 'पयक' प्रसिद्धम् । 'कुटजान्वितम्' इन्द्रयवान्वितम् । 'सर्व समानमावाय' एतत् सर्व समानभागं गृहीत्वा । 'नक्षत्रे पुष्यनामनि' पुष्यनाम्नि नक्षत्र ॥२॥
[हिन्दी टीका]-लाल चंदन, तुलसी, पिक्का (गन्ध द्रव्य) पद्माखा कुटज, (चंदन, तुलसी, कपूर, केशर, कुटज) (चंदन, केशर, कपूर, कस्तूरी, कुटज) सबको बराबर पुष्य नक्षत्र में खरीदकर लावे ।।२११
कन्यया पेषयेत् सर्व हिम भूतेन वारिणा । कुरु चन्द्रोदये आते तिलकं जनमोहनम् ।।३॥
[संस्कृत टीका]-कन्यया' कुमार्या । 'पेषयेत्' सञ्चूर्णयेत् । 'सबै तत् सर्वमौषधम् । केम ? 'हिमभूतेन वारिणा' हिमाजनितोदकेन । 'कुरु' । कस्मिन् ? 'चन्द्रोदये जाते', अमृतोदये जाते । कि ? 'तिलकम्' विशेषकम् । कथम्भूतम ? 'जनमोहनम्' जनवश्य करम् ॥३॥
१. सपा इति ग पाठः। २. फिक्का इतिग पाठः । ३. सुरभा इति ग पाठः ।
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{ १५२ ) [हिन्दी टीका] -कुमारी कन्या से धतूरे के रस में सबको पिसवाकर, ओले के पानी से, चंद्रोदय होने पर तिलक करने से संसार मोहित होता है ॥३॥
स्त्रीवश्यपान बहिशिखासित गुजागोरम्भानुकोटस्य मलम् । निज पञ्चमलोपेतं चूर्ण वनितां वशीकुरुते ॥४॥
[ संस्कृत टीका ]-बहिशिखा' मयूरशिखा, 'सितगुजा' श्वेतगुञ्जा 'गोरम्भा' प्रसिद्धा । 'भानुकोटकस्य मलं', प्रपत्र कीटकविट् । "निजपञ्चमलोपेतं' स्वकीयपञ्चमलोपेतम् । 'चूर्ण' एतद् द्रव्यान्वितं ताम्बूलचूर्णम् । 'वनिता स्त्रियम् । 'घशी कुरुते' वशी करोति ॥४॥
[हिन्दी टीका]-मयूरशिखा, सफेद गुंजा, गोरखमुंडी (गोभी), आक का पत्ता, कीट का मल और अपने पाचों मलों का चूर्ण, पान के अन्दर खिलाने से स्त्री वशीकरण (मोहित) होती है ।।४।।
___ स्त्रीवश्यगुटिका करवीर भुजङ्गाक्षीनारीदण्डीन्द्रवारुणी । गोबन्धिनो सलज्जानां विधाय वटिका बहूः ।।५।।
[संस्कृत टीका]-'करवीर' रक्ताश्वमार जटा, 'भुजङ्गाक्षी' साक्षीजटा, 'जारी' पुगं जारी, दण्डी' ब्रह्मवण्डोजटा, इन्प्र धारुरणी विशाल नटा, 'गोधन्धिनो' प्रध: पुष्पी, प्रियङ्ग रित्येके, 'सलज्जानां समन्ताज्जटान्वितानां एतेषां द्रष्याणां चूरी संपेष्य। 'विधाय मटिका बहूः' बहरपि वटिकाः कृत्वा ॥५॥
[ हिन्दी टीका ] लाल कनेर, भुजङ्गाक्षी, जटा, ब्रह्मदण्डी, इन्द्रायन, गोबन्धनी (गोखुरी) (अधोपुष्पी या प्रियंगु ) लज्जावती के चूर्ण को गोलियां बनावे ।।५।।
घटिकाभिः समं क्षिप्त्वा लवणं शुभ भाजने । पक्त्वा स्वभूत्रतो पद्यात् खाऱ्या स्त्रीजन मोहनम् ॥६॥
[संस्कृत टीका]-'वाटिकाभिः समं क्षिप्त्वा' 'लधणम्' समुद्र लवरणम् । व ? 'शुभ भाजने' मनोश भाण्डे । 'पस्वा' पाकं कृत्वा । कथम् ? 'स्वमूत्रतः' निज मूत्रतः । 'बद्यात् खाद्य' अन्नाविषु दद्यात् । 'स्त्रीजनमोहन स्यासे ॥६॥
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( १५३ ) [हिन्दी टीका]-उन गोलियों को नमक सहित एक बर्तन में डालकर अपने मूत्र में पकावे । इन गोलियों को भोजन आदि के साथ खिलाने से स्त्री वश में होती है ।।६।।
दश्यचूर्ण मृत भुजग बदन मध्ये लज्जरिका सनिघाय सितगुजाम् । रुद्र जटा सम्मिश्रामाकृष्य दिनत्रयं यावत् ॥७॥
[संस्कृत टोका]-'मृतभुजग बदन मध्ये' पञ्चत्यप्राप्त कृष्ण सर्पास्यमध्ये। 'लज्जरिका' समङ्गामूलम् । 'सन्निधाय' सम्पग्निधाय । "सितगुञ्जा' श्वेतरक्तिकाम् । कि विशिष्टाम् ? 'रुद्रजटासम्मिश्राम्' रुन्द्रजटासंयुक्ताम् । 'प्राकृष्य विनत्रयं यावत् एतन्मूलत्रयं तत्मपस्येि दिनभयं यावत् संस्थाप्य, पश्चात् 'भाष्य' निष्कास्य ॥७॥
[हिन्दी टीका]-मरे हुये काले सांप के मुह में लाजवंती, सफेद गुजा और रूद्रजटा को रखकर इनको तीन दिन बाद निकाले ।।७।।
लालिकायाः कन्दे गोमय लिप्ते परिक्षिपेच्चूर्णम् । परिभाष्य शुनीपयसा स्वमलैः पञ्चाङ्ग सम्भूतः ।।८।।
[संस्कृत टीका]-'लाङ्गलिकायाः कन्दे' कलिहार्याः कन्दं उत्कीयं तदद्वय सम्पुटमध्ये । कथम्भूते ? 'गोमयलिप्ते' गोशकृता परिलिप्य । 'परिक्षिपेच्चरर्णम्' प्राक्कथितौषधत्रयकृतचूर्ण तत्कन्दमध्ये निक्षिपेत् । कि कृत्वा ? 'परिभाव्य' तच्चूर्ण सम्यग्भावयित्वा । केन ? 'शुनीपयसा' कृष्णशुनीवुग्धेन, न केवलं शुनिबुग्धेन भाग्यम् । 'स्थमलैः पञ्चाङ्ग सम्भूतः' स्वकीयपञ्चाङ्ग जनित मलैरपि भावयित्वा ॥८॥
[ हिन्दी टीका ]-उस चूर्ण को काली कुतिया के दूध और अपने पांचों मलों में भावित करके गोबर से लिपे हुये कलिहारी के सम्पुट कन्द में डाले ।।८।।
पंचाङ्गमल नेत्रश्रोत्रमलं शुक्र दन्तजिह्वामलं तथा। वश्यकर्मरिण मन्त्रः पञ्चाङ्गमलमुच्यते ।।६।।
[संस्कृत टोका]-'नेत्रं' लोचनम्, 'श्रोत्र' श्रवणम्, तयोर्मलम् । 'शुक्त' बीजम् । 'वन्तः' रखनः, 'जिह्वा रसना 'मलं' अनयोर्मलम् । 'तथा' तेन प्रकारेण । १. क्षेपक : श्लोक :।
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( १५४ ) 'वश्यकर्मणि' स्त्रीवश्यकर्मकरणे । 'मन्त्रज्ञः' मन्त्रविद्भिः। 'पञ्चाङ्गमल मुध्यते' एवं पञ्चाङ्गमलमिति कथ्यते ॥६॥
हिन्दी टीका]-अांख का मल, कान का मल, वीर्य, दन्तमल, जिह्वामल इन पांच प्रकार के मल का प्रयोग वश्यकर्म के लिये मंत्रवादियों ने कहा है ।।६।।
पक्त्वा चूर्णमिदं पश्चाज्जगवश्यकरं परम् । दद्यात् खाद्यानपानेषु स्त्रोपु सोश्च परस्परम् ।।१०।
[संस्कृत टीका]-'पक्त्वा' पाक कृत्वा । 'चूर्णमिदम्' एतस्कथितचूर्णम् । 'पश्चात् तदनन्तरम् । 'जगद्वश्यकर' सकलजनवश्यकरम् । 'पर' अतिशयेन । 'दद्यात्' दवातु । केषु ? 'खाद्यान्नपानेषु' खादन्नपानेषु । कयोः ? 'स्त्री'सोश्च' स्त्रीपुरुषयोः । कथम् ? 'परस्परं' एककं तदद्यात् वशीभवति ॥१०॥
[हिन्दी टीका]-पहले कहे हुये चूर्ण को पकाकर स्त्री पुरुष को परस्पर खाने के पदार्थों में मिलाकर देने से वशीकरण होता है, सकलजन वशीकरण भी होता है ।।१०॥
वश्यदीपक पञ्चपयस्तरुपयसा पोतवयण्टकरसेन परिभाव्य । तिलतलदीपतिस्त्रिभुवनजन मोहद्भयसि ॥११॥
[संस्कृत टीका]-'पञ्चपयस्तरुपयसा' न्यग्रोध-उदुम्बर-प्रश्वत्थ-लक्ष-वटी, वटस्थाने वंदुलमिति वदन्ति केचित् इति पञ्चक्षीरवृक्षक्षोरः । न केवलं पञ्चक्षीरबुक्षक्षीररेव 'पोतबयण्डकरसेन' ॥११॥
हिन्दी टीका]-दूध के पाँच प्रकार के पेड़ों का दूध (बड, गूलर, पीपल, पिलरवन और अंजीर इन पाँचों पेड़ों को दूध) और अंडे के रस में बन कपास, पाक, कमलमूत्र, सेंभल की गई और पटवन (सन) की बनी हुई (पंचसूत्री बत्तिका) बत्ती को भावना देकर काले तिलों का दीपक जलाने से तीनों लोक वश में हो जाते हैं ।।११।।
वशीकरण प्रयोग विषमुष्टिकनकहलिनीपिशाचिका पूर्णमम्बु देहभवम् । उन्मत्तक भण्डगतं मुकफलं तद्वशं कुरुते ॥१२॥
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(१५५ ) [संस्कृत टीका] -'विषमुष्टिः' विषयोडिका । 'कनकम्' कृष्णघत रः 'हलिनी' कलिहलिनी 'पशाचिका' कपिच्छुका, 'चूर्ण' एतेषां चतुर्द्व व्यापां चूर्णम् । 'अम्बु देह भयम्' स्वमूत्रम् । 'उन्मत्तकमाण्डगतं' एतद् द्रव्याणां चूर्ण स्वमूत्ररहितं, कृष्णधतुरकफलभाण्डमध्ये दिनत्रयरिथतं, कमुकफलं, पूगीफलम्, तद्वश कुरुते, तत्क्रमकफलं, खादने (सति) स्त्री वशं करोति ।।१२।।
[हिन्दी टीका]-पोप्ट का डोड़ा (विषमुष्टि) कनक (काला धतूरा) कालि हरी हलिनि, पिशाचिका (छोटी जटामांसी) को अपने मूत्र में मिलाकर उन्मत्तक (सफेद धतूरा) को बर्तन में सुपारी सहित रखने से वशीकरण होता है ।।१२।।
मुकफलं मुखनिहितं तस्माद्दिवसत्रयेण संगृह्य। कनकविषमुष्टिहलिनी चूर्णः प्रत्येकं संक्षिप्य ॥१३॥
[संस्कृत टोका]-'नमुकफलं' पूगीफलम् । 'मुखनिहितं' सपरिये स्थापितम्। 'तस्मात्' सर्पमुखात् । 'दिवसत्रयेण संगृहा' तत्क्रमुकफलं दिनत्रयानन्तरं गृहीत्वा । 'कनकविषमुष्टिहलिनीचूर्णैः' धत्त र कमल चूर्णम्, विषडोडिकाचूर्ण, हॉलनी चूर्णम्' प्रत्येक' पृथक्पृथक् 'संक्षिप्त्वा (प्य) निक्षिप्य ।।१३॥
[हिन्दी टीका]-मरे हुऐ सर्प के मुंह में सुपारि को तीन दिन रख कर, काले धतूरे की जड़ का चूर्ण विषमुष्टि (विषटोड्डिका ) के चूर्ण और हलिनी (विशल्याकन्द) के चूर्ण के साथ पृथक-पृथक पीस कर डाले ।।१३।।
खरतुरगशुनीक्षीरः क्रमशः परिभाष्य योजयेत् खाद्य । अवलाजन वशकरणं मदनकमुकं समुहिष्टम् ।।१४।।
[संस्कृत टोका]-'वरतुरगशुनी क्षीरैः' रासभाश्वशुनीक्षीरः । 'कमशः' परिपाटया । 'परिभान्य' भाव्यं कनकचूर्ण खरदुग्धेन भाव्यं, विषमुष्टि चूर्ण तुरगदुग्धेन भाव्यं, हलिनी चूर्ण शुनीदुग्धेन भव्यमिति क्रमेण तत्पूगीफलं दिनत्रयेण भावनीयम, 'योजयेत् खाद्य' एतत्प्रकारसिद्ध क्रमुकं सकलं ताम्बूले योजनीयम् । 'अशलाजन वश करणं अनङ्गबारगनामधेयं मुकम् । 'संमुरिष्टं' सम्यकथितम् ॥१४॥
[हिन्दी टीका-उस पास हुए द्रव्य को अर्थात उस सुपारी को और धतूरे के चूर्ण को गधी के दूध में भावित करे, (विषमुष्टि) जहर कुचला के चूर्ण को घोडी के दूध में भाबित करे, हलिनी चूर्ग को कुतिया के दूध के साथ भाबित करे, उस सुपारी को तीन दिन भावना देनी चाहिये । इस प्रकार सिद्ध हुई सुपारी को खाद्य पदार्थ में खिलाकर अथवा पान के साथ खिलावे तो स्रीजन का वशीकरण होता है ।।१४।।
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( १५६ )
वश्य काजल पुत्तंजारीकुङ्क, मशरपुङ्खीमोहनीशमीकुष्टम् । गोरोचनाहि केसरतगररुवन्ती च कर्पूरम् ।।१५॥
[संस्कृत टीका]-'पुत्तंजारी' प्रसिद्धा, 'कुछ म' काश्मीरम् 'शरपुडी श्वेतबाणपुङ्खो, 'मोहनी' बरपत्रिका 'शमी' केशहन्त्री, 'कुष्टं' कोष्टम् । 'गोरोचना' पिङ्गला, 'पहिकेसरं' नागकेसरम्, 'तगरं' पिण्डीतगरम्, 'रूदन्ती' प्रताता । 'कपूर' चन्द्रान्वितम् । १५॥
[हिन्दी टीका]-पुत्रजारी, केशर, सरफोंका, मोहिनी, शमी, कूट, गोरोचन, नागकेशर, तगर रूद्रवन्ति और कपर ।।१५।।
कृत्येतेषां चूर्ण यावकमध्ये ततः परिक्षिप्य । पङ्कजभवतन्तुवृता वतिः कार्या पुनस्तेन ॥१६॥
[संस्कृत टोका]--'एतेषां प्रागुक्तद्रव्याणां' । 'चूर्ण करवा' चूर्ण विधाय । 'यावक मध्ये ततः परिक्षिष्य' तबनन्तरं तच्चूणं अलक्तकपटलमध्ये निक्षिष्य । 'पंकजभवतन्तुव्रता' पद्मनालिका जनितसूत्रेणवता । 'यतिः कार्या' अनेन प्रकारेण वतिः कर्तव्या । 'पुनस्तेन' पश्चात् तेन वक्ष्यमारणेन ॥१६॥
[हिन्दी टीका-इन सबका चूर्ण करके इनको अरुक्तक के पटल में रखकर और कमल सूत्र से लपेट कर इनकी बत्ती बनावे ।।१६।।
काफिकुछ भवपयसा त्रिवर्णघोषाल स्तनक्षीरः। परिभाव्य ततः कपिलाघृतेन परिबोषयेद्दोपम् ॥१७॥
संस्कृत टीका]-काकिकुचभवपयसा' पञ्चकारूकीस्तनोद्भवदुग्धेन । 'त्रिवर्णयोषास तस्तनक्षीरः' ततः कास्कीकुचभवपयसोऽनन्तरं ब्राह्मणक्षत्रियवंश्यत्रीणां स्तनदुग्धेन । 'परिभाष्य' प्रायकृततिः तर्दुग्धर्भावितम्या । 'ततः' भावनानन्तरं 'कपिलाघृतेन' कपिलाज्येन । 'परिबोधयेत्' प्रज्वालयेत् । कम् ? दीपम् ।।१७॥
[हिन्दी टीका]-फिर ब्राह्मण स्री का दूध, क्षत्रिय स्त्री का दूध, वैश्य स्त्री का दूध इन में उसको भावित करके कपिला गाय के घी में दीपक जलावे ।।१७।।
१. दीपः इति पाठः।
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( १५.७
उभय ग्रहणे दीपोत्सवे व नवकरऽज्जनं घार्यम् । गोमयविलिप्त सूम्यां स्थित्वा मन्त्राभिषिक्तायाम् ॥ १८ ॥
[ संस्कृत टीका ] - ' उभयग्रहणे' सोमसूर्यग्रहणे । 'दीपोत्सवे च' अथवा दोपालोपरि । 'नबकरेऽज्जनं कार्यम्' नवीनमृद्भाण्डरुपाले 'अञ्जनं धार्यम्' कज्जलं ग्राह्यम् । 'गोमयविलिप्त भूम्या' भूम्यपतितगोमयेन सम्माजितपृथिव्याम् । स्थित्वा' उषित्वा । कथम्भूतायाम् ! 'मंत्राभिषिक्तायां' वक्ष्यमाणमन्त्रेणाऽभिषिक्त मूम्याम् ।। १८ ।। मन्त्रोद्धार :- ॐ भूर्भुमि देवते ! तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ॥ भूमिसंमार्जन
मन्त्रः ॥ १
ॐ नमो भगवते चन्द्रप्रभाय चन्देन्द्र महिताय नयनमनोहराय हरिसि हरिणि सर्व वश्यं कुरु कुरु स्वाहा || कज्जलोद्वारणमन्त्रः ।।
ॐ नमो नारे समाहिताय कामाय रामाय उँ चुलुलुगुलुगुलु नीलभ्रमरि नीलभ्रमरि मनोहरि नमः ॥ नयानाञ्जनमन्त्रः ||
[ हिन्दी टीका ] - सूर्य ग्रहण अथवा चंद्र ग्रहण वा दीपमालिका को नवीन माटी के बर्तन में काजल को ग्रहण करना, गोबर से लिपी हुई और नीचे लिखे हुए मंत्र से अभिषिक्त की हुई पृथ्वी पर बैठ कर काजल को ग्रहण करना ॥ १८ ॥
मंत्रोद्धार :- ॐ भूर्भुमि देवते तिष्ठ- २ ठः ठः ।। इस मंत्र से भूमि का सम्मार्जन करे ।
ॐ नमो भगवते चन्द्रप्रभाय चंद्रेन्द्र महिताय नयन मनोहराय हरिरिण-२ सर्वजन वश्यं कुरु - २ स्वाहा । इस मंत्र से कज्जल का उद्धार करे ।
ॐ नमो भूताय ( भूत भावनाय ) समाहिताय कामाय रामाय ॐ चुलु-२ गुलु-२ नीलं भ्रमरि, मनोहरि (नयन मोहिनी ) नमः -- इस मंत्र से आंख में अंजन ( काजल ) लगाये ॥
कज्जल रञ्जितनयने दृष्ट्वा तां वाञ्छतोहरे मदनोऽपि । नरमध्य जित' नयनं सूपाश्चास्तस्य यान्तिवशम् ||१६|
[ संस्कृत टीका ] - 'कज्जलर जितनयने' कज्जलेनाजिते नेत्रे । 'रष्मा'
१. उऐद्रदेव ! 'कज्जलं गृह गृह स्वाहा' कराभिमन्त्रण । इति पाठ: । २. भूतेशाय इति ख पाठः ।
३. वशयतीति ममनेपि इति पाठ: ।
४. नरमप्यजित नेत्रं भूपाद्यायान्ति तस्य वशम् ग पाठ |
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( १४८ )
विलोक्य । 'तां' कामिनों 'वाञ्छतीह मदनोऽपि कामदेवोऽपि वशं याति । 'नरमप्यञ्जित नयनं' पुरुषमप्यञ्जितनयनं दृष्ट्वा । 'भूषाद्याः तस्य यान्ति वशं तस्य कज्जलाञ्जित पुरुषस्य क्षत्रियाद्यास्तदञ्जनाद्वश्या भवन्ति ॥१६॥
!
[ हिन्दी टीका ] - इस काजल से युक्त आंखों को जो कोई देखता है वह वश में हो जाता है, स्त्री ने अपने प्रांखों में डाला तो पुरुष वश में होते हैं, अगर पुरुष में डालकर राजा के सामने जावे तो राजा भी वश में होता है || १६ || पिशाचीपान
विषमुष्टिकनकमूलं रालाक्षतवारिणा ततः पिष्टम् ।
सभावितपत्रं पिशाचयत्युदर मध्यगतम् ॥२०॥
[ संस्कृत टीका ] - " विषमुष्टि: ' विषडोडिका । 'कनकमूलं' धत्तुरमूलम् । 'रालाक्षतवारिणा' रालाक्षत धौतोदकेन । ' ततः पिष्टम् ' तस्मात् पिष्टम् । तद्रसभाविप' तत्पिष्टौषधरसेन भावितं ताम्बूल पत्रम् । पिशाच सति' पिशाच इवाचरति । 'उदरमध्यगतं' जठरमध्यं गते सति पुरुषं पिशाचयति ॥ २० ॥
[ हिन्दी टीका ] - जहरी कुचला, काले धतूरे की जड़ को कांगनी चांवल के धोवन के पानी में पीसकर उस रस में पान को भिगोकर, जिसको खिलावे, वह पिशाच के समान आचरण करे, अर्थात् उदर में प्रवेश करते ही पिशाच तुल्य आचरण करने लगता है ॥२०॥
fare नृकपाले
शत्रुभयकररण काजल
केप्सितरूपापिशाचिका सार्द्र चितमषीमथिते ।
मातगृहे कानन कापसिकृतव ॥२१॥
( संस्कृत टीका ) - 'चिक्करिणका' इलोठा, करर्णाट भाषायां उहाठा । ईप्सित रूपा' बहुरूपा, सरटविट् । 'पिशाचिका' कपिकच्छुका । 'साद्र' चितमषीमयते' सार्व चितोद्भवगर्ष्या निर्मथिते । कस्मिन् ? 'तृकपाले' नरकपाले । मातृगृहे' सप्तमातृकारणां गृहे । 'काननकापसिकृतवर्त्य' अरण्योद्भव कापसिलेन निर्मितव ॥ २१ ॥
[हिन्दी टीका ] - चिक्करिण सुपारी, मोम, कोंचको को पीसकर, उनको जंगली कपास में मिलाकर बत्ती बनावे, उस बत्ती से सप्तमातृका के गृहों में गिली चिता की स्याही से (काजल) मथे हुए मनुष्य के कपाल पर || २१॥
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धार्य कृष्णाष्टम्पामजनमेतन्महाघृतोद्भूतम् । तेन त्रिशू नमजनमपि कुर्यावङ्कभीत्यर्थम् ॥२२॥
[संस्कृत टोका]- 'धार्यम्' धर्तव्यम् । 'कृष्णाष्टम्यां' कृष्णाष्टम्या कृष्णचतुर्दश्यां वा । किम् ? 'अञ्जन' कज्जलम् । 'एतत्' एतत्कज्जलम् । 'महाघृतोद्भूतम् महाधतोद्भवम् । 'तेन त्रिशूलं कुर्यात्' अनेन प्रकारेण कृतकज्जलेन न केवलं त्रिशुलं कुर्यात् । 'अञ्जनमपि कुर्यात्' नयनाजनमपि करोतु । किमर्थम् ? 'अङ्गभीत्यर्थम्' एतदञ्जनं प्रति पक्षकस्य भयोत्पादनार्थम् ॥२२॥
सस्कजलोद्धार मन्त्र :-उँ नमो भगवति ! हिडिम्बवासिनि ! अल्लल्ल. मांसप्पिये नहयलमंडल पाहिए तुह रणभत्ते पहरणबु प्रायासमंडि ! पायालमंडि सिद्धमंडि जोइरिणमंडि सम्वमुहमंडि कज्जलं पड' स्थाहा ॥ प्राकृत मन्त्रः ॥ कज्जलपातनं देशान्यमुखेन कर्तव्यम् ॥
[हिन्दी टीका]-इस महाघृत से कृष्णपक्ष की अष्टमी अथवा चतुर्दशी को मञ्जन बनावे, इस काजल को आंखो में भी डाले और मस्तक पर त्रिशूल बनावे । इसे जो कोई देखेगा, वह महा भयभीत होगा ।।२२।।
कज्जलोद्धार मंत्र :-ॐ नमो भगवति हिडिम्बवासिनि अल्लल्लमांस प्रिये नह्यल मंडलपइट्टिाए तुह रामने पहरणादृट्टे आयासमंडि, पायालमंडि सिद्धमंडि, जीयरिण मंडि सव्वमुहमंडि कज्जलं पडउ स्वाहा ।।
अदृश्यगुटिका चित वह्निदग्ध भूतद्र मय शाखामषों समाहृत्य । अंकोल्लतलसूतककृष्णबिडाली जरायुश्च ॥२३।।
[ संस्कृत टीका ]-'चितवह्निदग्धभूत मयशाखामी' चिप्ताग्निज्वलितकलिद्र मदक्षिण दिग्भवशाखा जनितमषीम् । 'समाहृत्य' सम्यगाहृत्य । 'प्रोल्लतलं' अकोल्लबीजोद्मवतैलं । 'सूतकम्' पारदरसम् । 'कृष्णबिडालोजरायुश्च' कृष्णमार्जारी जरायुमपि ॥२३॥
[हिन्दी टीका]-चिता की अग्नि से जले हुए बहेड़े के बभ को दक्षिण दिशा
१. हुं फट घे घे स्वाहा इति ख पाठः ।
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( १६० )
की स्याही को लेकर, उसको अरंडी के तेल, पारा और काली बिल्ली की जरायु सहित ||२३||
धूकनयनः म्बुम दितगुलिकां कृत्वा त्रिलोह सम्मठिताम् ।
धूत्वा तामात्मसुखे
[ संस्कृत टीका ]- 'धूकनयनाम्बुदित गुलिकां कृत्या' उलूकनेत्राभ्युदितभूतद्र मोद्भवमष्यादि चतुद्र व्यारणां गुटिकां कृत्वा । 'त्रिलोह सम्मठितां' तानतारसुव गयैिः षोडश वह्निभिरिति भागकृत त्रिलोहेने सम्यग्मठितां कृत्वा । धृत्वा तामाममुखे' तां त्रिलोमठितां गुलिका स्वमुखे धारयित्वा । 'पुरुषः ' पुमान् । 'अदृश्यत्वम्' श्रदृश्यभावम् । 'प्रायाति' श्रागच्छति ॥२४॥
पुरुषोऽदृश्यत्वमायाति ॥२४॥
[ हिन्दी टीका ] - उल्लू के आंखों के पानी में गोली बनाकर, फिर उसको त्रिलोह के साथ सोलह अग्नि देकर अपने मुख में रक्खे तो अदृश्य हो जावे ||२४|| सितशरपुं खामूलं धृत्वा सितकोकिलाक्ष बीजं च । वनवसलारसपिष्टं वीर्यस्तम्भं मुखे संस्थम् ||२५||
[ संस्कृत टीका ] - सितशरपुं खामूलं'
श्वेतवारणपुङ्गामूलम् । धृत्वा ' गृहीत्वा । 'सतकोकिलाक्षबीजं च' श्वेतकोकिलाक्षबीजानि च । 'बनवसलारस पिष्टम्' अरण्योद्भव ( उ ) पोक्कोरसेन पेषितं बनवला इति, कर्णाटभाषायां कासलि । 'श्रीयंस्तम्भं' शुक्रस्तम्भम् । 'मुखे संस्थम्' पुरुष मुखे संस्थम् ॥२५॥
[हिन्दी टीका ] -- सफेद सरफोंके की जड़ और सफेद कोकिलाक्ष के बीजों को जंगली पोदीने के रस में पीस कर गोली बनावे, उस गोली को मुख में रखे तो वीर्य स्तम्भन होता है || २शा
वीर्यस्तंभक प्रस्थि
कृष्ण वृषदंश दक्षिणजङ्घायाः शल्य खण्डमादाय ।
बद्धं कटिप्रदेशे वीर्यस्तम्भंनृणां कुरुते ॥ २६ ॥
[ संस्कृत टीका ] 'कृष्ण वृष दंशदक्षिण जंघायाः कृष्णविडालदक्षिण जङ्गायाः । 'शल्य खण्डं' तदस्थिखण्डम् | 'श्रावाय' गृहीत्वा । 'बध्द' कटि प्रदेश' पुंसः कटि प्रदेशे बध्वम् । 'नृणां' मनुष्याणाम् । वीर्यस्तम्भं कुरुते' करोति ॥ २६ ॥
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[हिन्दी टीका]-काले बिलाव के सीधे पांव की हड्डी को कमर में बांध ने से वीर्य स्तंभन होता है ॥२६।।
वीर्यस्तंभक वीपक फपिलाघृतेन बोधितदीपः सुरगोपचूर्णसम्मिलितः । स्तम्भयति पुरुषवीर्य रत्यारम्भे निशासमये ॥२७॥
[संस्कृत टोका]--'कपिलाघृतेन' कपिलाज्येन । 'बोधितदीपः प्रज्वालित दीपः । कथम्भूतः? 'सुरगोपचूर्ण सम्मिलितः' इन्द्रगोपचूर्णगर्भकृतवान्वितः । स वीपः कि करोतीत्याह 'स्तम्भयति' स्तम्भं करोति । किम् ? पुरुषवीर्यम्' नवीर्यम् । कस्मिन् ? 'रत्यारम्भे' सुरतप्रारम्भे । क्व? 'निशासमये' रात्रिसमये ॥२७॥
_ [हिन्दी टीका]-कपिला गाय के घी से दिपक जलाकर और इन्द्रगोप (मखमली कीड़े) का चूर्ण पास में रखे तो पुरुष के वीर्य का स्तंभन होता है ।।२०।।
द्रावरणलेप रणपिपलिका मसूरणकर्पूरमातुलिङ्गरसः । कृत्वात्माङ्ग,लिलेपं कुरुते स्त्रीणां भगवायम् ॥२८॥
[संस्कृत टीका]-'टङ्कणं' मालतीलट सम्भवम् । "पिपलिकामा' महाराष्ट्री । 'सूरण' प्ररण्यश्वेत सूरणकन्दः । 'कर्पूरः चन्द्रः । 'मातुलिङ्ग' बीजपूरम् । तेषां रसैः । 'कृत्वा । कम्? 'प्रात्माङ्ग लिलेप' स्थान लिलेपम्। 'स्त्रीणां' बनितानाम्। 'भगद्रावं' भगनिङ्कारणं कुरुते ।।२८॥
[हिन्दी टीका]-सुहागा, पोपल, जमीकन्द, कपूर और बोजौरा के रस से स्वयं अंगुलि से, लिंग पर लेप करने से स्त्री द्रवित होती है ।।२८।।
द्यत तथा वादविजयमूल मूलं श्वेतापमार्गस्य कुबेरदिशि संस्थितम् । उत्तरात्रितयं ग्राह्य शीर्षस्थं छूतवादजित् ॥२६॥
[ संस्कृत टीका ]-'मूलं श्वेतापमार्गस्य' श्वेतखरमञ्जयाँ मूलम् । कथम्भूतम् ? 'कुबेर दिशी संस्थितम् । 'उत्तरात्रितये' उक्तराफाल्गुनी-उत्तराषाढा-- उत्तराभाद्रपदेतिऋक्षत्रये । 'ग्राह्य” गृहीतव्यम् । 'शीर्षस्थं' मस्तके स्थितम् । 'धूत वाव जित्' ते विवादे विजयं करोति ॥२६॥
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( १६२ )
[ हिन्दी टीका ] - उत्तर दिशा में रहने वाला सफेद आंधीझाड़ा की जड़ को उत्तरा फल्गुनी उत्तराषाढा, उत्तरा भाद्रपद इन तीनों नक्षत्र के भीतर लेकर शिर पर रखने से सदा, जु, बादविवाद में जय होती है ||२६|| रतिदायक लेप
तन्मम् ॥३०॥
श्रन्यावतितनागे हरवीर्यं निक्षिपेत् ततो द्विगुणम् । मुनिकन कनाग सर्पज्योतिष्मत्यत सिभिश्च [ संस्कृत टीका ] - ' अग्न्यायतत नागे' श्रग्निना वर्तिते नागे । 'हरवीयें' पारदरसम् । 'निक्षिपेत् ततो द्विगुणे' ततः नागक भागाद्रसं द्विभागं निक्षिपेत् । 'मुनिः ' रक्तास्तिः । 'कनक' कृष्णा धतूंरं । 'नागसर्प' नागदमनकं । 'ज्योतिष्मत्यसिभिश्च' कंगुण्यतोभ्यां च 'तन्मर्थ म्' तत्पूर्वोक्तनागमेतेषां रसंमंदनीयम् ||३०||
[हिन्दी टीका - अग्नि में तपाये हुए शीशा के एक भाग में, दो भाग पारा, डालकर उसको अगस्त्य, कालाधतूरा, नागदमन और मालकांगनी का मर्दन करना चाहिये ||३०||
डीकेन मयित्वा गरिण्यार्या मदनदलयकं कृत्वा । रतिसमये वनितानां रतिदर्प विनाशनं कुर्यात् ॥ ३१ ॥
[ संस्कृत टीका ]- 'डिकेन' निर्यासेन । 'मर्दयित्वा' पुनरपि मर्दनं कृत्वा कस्याः डीकेन ? 'गणियार्याः कारणकारवृक्षस्य । 'मवनवलयकं कृत्वा ' स्मरवलयं लिङ्ग कृत्वा । 'रति समये' सुरतकाले । 'वनितानां' स्त्रीणाम् । 'रतिदर्प विनाशनं' सुरतगर्व विनाशनम् । 'कुर्यात् करोति ||३१||
[ हिन्दी टीका ] --उसको कनेर के रस में मर्दन करके फिर गोंद में मर्दन कर अपने लिंग पर लेप करने से रति काल में स्त्री का मद नष्ट हो जाता है । द्रावरणले पद्वितीय
क्या श्रीवृहतीफलरससूरणकण्डूतिच्चरक पत्राम्बु । कपिकच्छुवज्रवल्ली पिप्पलिकामालिका चूर्णम् ॥
[ संस्त टोक ] - 'व्याघ्रोवृहतीफलरसं' बृहतोद्वयफलरसं । 'सूरणं' श्वेतसूरणं । 'कण्डूति' श्रग्निकः । 'चणकपत्राम्बु' आई' चरकपत्राम्बु । 'कपिकच्छ ः ' पिशाचिका । 'वज्रवल्ली' काण्डवल्ली । 'पिप्पलिकामा ' महाराष्ट्री । 'अम्लिका' चाङ्गरी । 'चूर्ण' केषांचिद्रसः ||३२|
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( १६३ )
[ हिन्दी टीका ] -- व्याघ्री ( भोयरोगण ) और उसके फल का रस, सफेद सूरण, लाल चितरों, हरेचनों के पत्तों का रस, ( अथवा खार) कौंच वज्रबेल, पीपल, और मल्लिका के चूर्ण को लेकर ||३२||
अग्न्यायतित नागं नववारं भावयेदिमेद्र ययेः ।
स्मरवलयं कृत्यं वनितानां द्रावरणं कुरुते ||३३||
[ संस्कृत टीका ] - 'अग्न्यावर्तित नागं' | 'नववारं ' नवसंख्यावारैः | 'भावयेद्' भावनां कुर्यात् । कः ? 'इमेंद्र व्ये:' एतस्कथित द्रथ्यैः । 'स्मरवलयं कृत्वैवं प्रनेन प्रकारेण मदनवलयं कृत्वा । 'वनितानां' स्त्रीणाम् । 'द्रायणं' भगनिर्भरणं । 'कुरुते' करोति ॥ ३३॥ [ हिन्दी टीका ] -इन द्रव्यों में अग्नि से जलाये हुये शीशा को नौ बार भावना देकर स्वलिंग पर लेप करने से स्त्रियां द्रवित होती है ॥३३॥
द्रावरण जल का
भानुस्वर जिन संख्याप्रमाणसूतक गृहीत दीनारान् । प्रङ्कोल्लराजवृक्ष कुमारी रसशोधनं कुर्यात् ॥ ३४ ॥
[ संस्कृत टीका ] - 'भानुस्वर जिनसङ्खाया' द्वादश सङ्ख्या, षोडशा, चतुविशतिसङ्ख्या | 'प्रमारणसूतक गृहीतदीनारान्' एवं त्रिसङ्ख्या कथित प्रमाणपारवरस गृहीतधाणकान् । 'अङ्कोहलराज वृक्षकुमारीरसशोधनं कुर्यात् ? 'प्रङ्कोल्लरसः' सम्पाक रसः । ' राजवृक्षरसः' । 'कुमारीरसः' गृहकन्यारसः । एतैः रसौः पारदसंशोधनं कुर्यात् ।। ३४ ।।
[ हिन्दी टीका ] - बारह, सोलह और चौबीस दीनार अर्थात् ( श्राधा तोला ) ६ तोला, तोला भौर १२ तोला प्रमाण पारे के रस को पृथक पृथक लेकर उसे प्रांकड़े के रस, राजवृक्ष (अमलतास ) के रस तथा घी, कुवार के रस में शोधन करें ||३४|| शशिरेखाखरकरणकोकिलनयनापमार्गकन कानाम् ।
चूर्णैः सहैकविंशतिदिनानि परिमर्दयेत् सूतम् ।।३५।।
[ संस्कृत टीका ] - 'शशिरेखा' वाकुचीबीजं । 'खर कर्णी' गर्दभकर्णी, कर्णाटभाषा फल्में गिरी । 'कोकिलानयनं' कोकिलाक्षि बीजं च । 'अपमार्गः ' प्रत्येक्पुष्पी - बीजम् । 'कनकं' कृष्णधतूरकम् । 'चूर्णः सहैकविंशति दिनानि' एभिः चूर्णेः सह प्रत्येक एकविंशतिदिनानि । 'परिमईयेत् सुतं' शोधितपारदरसं मर्दयेत् ||३५॥
१. सम्यक् इति पाठः ।
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[हिन्दी टीका-फिर उस शोधे हये, पारद रस को शशिरेखा (गिलोय) स्वकर्णी, कोकिलाक्षबीज, चिचिटे के बीज और काले धतूरे के बीजों के चूर्ण के साथ २१ दिन तक खरल करे ।।३५।।
निशायर्या काजिकापूपं दत्त्वा योनी प्रवेशयेत् । बाला मध्यां गतप्रायां योषां विज्ञाय तत्क्रमात् ।।३।।
[संस्कृत टीका] :-'निशायां' रात्रौ । 'काञ्जिकाभूपं दत्त्या प्रारमलिनधूपं दत्त्वा । 'योनी प्रवेशयेत् तद्ध पितरसं स्त्रीयोनौ प्रवेशयेत् । 'बालां मध्यां गतप्रायां योवां विज्ञाय तक्तमात्' बालस्त्रीणां द्वारशगद्याण प्रमाणरसकृतजलका मध्यप्रमाण स्त्रीणां षोडशगधाराप्रमाणरसकृतजलका गतप्रायस्त्रीणां चतुर्विशतिगद्यारणप्रमाण रसकृतजलूका इति क्रम ज्ञात्वा प्रवेशयेत् ॥३६॥
[हिन्दी टीका]-उसको रात्रि में कांजी की धूप देकर योनि में डाल दे, बाला के लिये बारह गद्यारण प्रभारण, मध्यमा के लिये सोलह गद्याण प्रमाण और प्रौढ़ा के लिये २४ गद्यारण प्रमाण वाली लेवे ।।३६।।
नीरसतां विधारणा योषां रति संगरे मदोन्मत्ता । द्रावति तादृशीमप्येष जलका प्रयोगस्तु ॥३७॥
[संस्कृत टोका]-'नीरसतां बिभ्राणां' निद्रवभावं धारयन्ती । 'योषा' स्त्रियम् । 'रतिसङ्गरे' सुरतरणरङ्ग । 'मोन्मत्ता' यौवनमदोन्मत्ताम् । 'द्रावयति तारशीमपि' एवं विधां मदोन्मत्तामपि क्षरयति । 'एष जलूका प्रयोगस्तु तु पुनः एषः कथित प्रकारेण कृतजलका प्रयोगः ॥३७॥ इति जलूका प्रयोगविधानम् ।
[हिन्दी टीका]-यह जलुका का प्रयोग रतिकाल में सदा नीरस रहने वाली और महान उन्मन स्त्री को भी द्रावित कर देता है ।।३७।।
शाकिनीहरण तिलक सोमाशाश्रितमूलं कपिकच्छो!जलेन परिपिटम् । निजतिलक प्रतिबिम्ब संपश्यति शाकिनीशीर्ष ।।३।।
[ संस्कृत टीका ]-'सोमाशाश्रितमूलं' उत्तरादिग्गतमूलम् । कस्याः ? 'कपिकच्छोः पिशाच्याः । कथम्भूतं मलम् ? 'गो जलेन परिपिष्टं' गोमूत्रेण वतितम् । 'निजतिलक प्रतिबिम्बं' स्वकीय विशेषकं प्रतिरूपम् । 'सम्पश्यति शाकिनी शीर्ष स्वकीय तिलक शाकिनी ललाटे तदेव पश्यति ।।३८॥
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( १६५ ) [हिन्दी टीका-उत्तर दिशा में रहा हुआ कौंच की जड़ को गोमूत्र में पीसकर उसका मस्तक पर तिलक करने शाकिनी उसमें अपना प्रतिबिंब देखती है ।।३८||
दिव्यस्तम्भक चूर्ण प्रादित्याक्षतविष्यस्तम्भविधौ मरिच पिप्पलीकामाम् । दिव्यस्तम्भे सुण्ठी चूर्स व भक्षयेद् धीमान् ॥६॥
[ संस्कृत टीका ]-'प्रादित्याक्षतदिव्यस्तम्भविधौ' प्रादिस्यतन्दुलदिव्य स्तम्भने । 'मरिचपिप्पली कामाम्' उषरणमहाराष्ट्रीचूर्ण भक्षयेत् । करिदिष्य स्तम्भने तु कपालिकाधि कर्परादि । 'विच्यस्तम्भे' दिव्यस्तम्भविभाने । 'सुण्ठीपूर्ण च भक्षपेत्' महौषधी चूर्ण भक्षयेत् । कः 'धीमान्' बुद्धिमान् ॥३६॥
[हिन्दी टीका]-बुद्धिमान मंत्रवादी दिव्यस्तंभन कार्य में प्रांक और सफेद चावल, कालीमिर्च, पीपल (मुलेठी) काम (उपरण) का सेवन करे कर्पूर दिव्यस्तंभन के लिये सोंठ के चूर्ण का भक्षण करे ।।३।।
अग्नि तथा तुला स्तंभन सज्जरिका भेकवता करलिप्तं स्तम्भनं करोत्यानेः । श्वासनिरोधेन तुलादिव्यस्तम्भो भवत्येव ॥४०॥
[संस्कृप्त टीका]-'लज्जरिका' लज्जरिका समंगा। 'भेकबसा' हरिवसा । 'करलिप्त' तच्चूर्णानि तद्वसपा हस्तलिप्तम् । 'स्तम्भनं करोत्यग्नेः' अग्नि स्तम्भो भयस्येव । 'श्वास निरोधेन तुलादि घ्यस्तम्भो भवत्येव' श्वासनिरोधेन घटे तुलादि व्यस्तम्भोऽवश्यं भवत्येव ॥४०॥
[हिन्दी टीका]-लाजवंती (छुईमुई) और मेंढ़क की चबों को हाथ पर लगा लेने से अग्नि का स्तम्भन और श्वास निरोध से तुला स्तंभन होता है ।।४।।
__ अच्छा रोजगार चलाना निगुण्डिका च सिद्धार्था गृहद्वारेऽथवापणे । बद्ध पुण्यार्क योगेन जायते क्रय विक्रयम् ।।४१॥
[संस्कृत टीका]-'निगुण्डिका' सिप्त भूतकेशी । 'सिद्धार्थाः' श्वेतसर्षपाः । गृहद्वारे' स्ववेश्मद्वारे । 'प्रथषा प्रापणे' विषणो। 'बद्ध पुण्यार्क योगेन' पुष्यनक्षत्रे रविवारेण योगे बद्धं चेत् । 'जायसे क्रयविक्रय बस्तुकयधिकपं भवत्येव ।।४।।
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( १६६ )
[ हिन्दी टीका ] - निर्गुण्डि और सफेद सरसों को पुष्य नक्षरा में लेकर घर के द्वार पर बांधने से अथवा दुकान के दरवाजे पर बांधने से अच्छा माल बिकता है ।।४१।।
गर्भनिवारण
पिबति प्रसूनसमये जपाप्रसूनं विमद्यं कञ्जिकया ।
न बिर्भात सा प्रसूनं धृतेऽपि तस्याः न गर्भः स्यात् ॥ ४२ ॥
[ संस्कृत टीका ] - 'पिबति' पानं करोति । 'प्रसून समये' विनत्रयपुष्पकाले । किम् ? ' जपाप्रसूनं' जपाकुसुमम् । किं कृत्वा ? 'विमद्य' विशेषेण मदयित्वा । कया ? 'ककिया' सौवीरेण | 'सा' नारी । 'प्रसूनं' पुष्पं । 'न बिर्भात' न धारयति । 'धृतेऽपि ' यदि कथमपि पुष्पं धरति तथापि 'तस्या न गर्भः स्यात् तस्या बनिताया गर्भ सम्भवो म भवत्येव ॥ ४२ ॥
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[हिन्दी टीका ] - लाल जसौंधि के फूल को कांजी ( सोवीर ) के साथ मर्द न करके रजस्वला स्त्री तीन दिन पीये तो स्त्री को गर्भ नहीं रहता है और रजस्वला भी नहीं होती है । एकबार रजस्वला भी हो जाय तो भी गर्भ तो रहता ही नहीं ||४२॥
इत्युभय भाषा कवि शेखर श्री महिलषेण सूरि विरचिते भैरव पद्मावतीकल्पे वश्यतन्त्राधिकारो नाम नवमः परिच्छेदः ||६|| इति श्री उभय भाषा कवि श्री मल्लिषेणाचार्य विरचित भैरव पद्मावती कल्प के वश्यतंत्राधिकार की हिन्दी भाषा नामक विजया टीका समाप्ता ।
( नवम अध्याय समाप्त )
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( १६७ )
दशमः गारुडतन्त्राधिकार परिच्छेदः
गारुड विद्या के पाठ प्रग संङ्गग्रहम ङ्गन्यासं रक्षा स्तोभं च वचम्यहं स्तम्भम् । विषनाशनं सचोध खटिकाफरिणदशनदशं च ॥१॥
[ संस्कृत टीका ]-'संग्रह' दष्टस्य संग्रहम् । 'मङ्गन्यासं' दष्ट पुरुषस्य शरीराक्षर विन्यासम् । 'रक्षा' बष्टस्य रक्षाकरणम् । 'स्तोभं च' दष्टावेशकरणं, चः समुच्चये । 'वम्यहं' मल्लिषेरणाचार्यः कथयामि । 'स्तम्भ' वष्टस्य शरीरे विष प्रसरण निरोधः स्तम्भम् । 'विषनाशनं निर्विषीकरणम् । 'सचोय' घोछ न सह वर्तत इति सचोद्य, दष्टपटाच्छादनादि कौतुकम् । खटिकाफरिणदशनदंशं च' खटिकालिखित सर्पदन्तदंशमित्यष्टाङ्ग गारुउमहं वसमीति सम्बन्धः ॥१॥
[ हिन्दी टीका |-मैं महिलषेरणाचार्य सांप ने डस लिया हो उसकी परीक्षा के लिये, ऊपर मंत्र के अक्षरों को लिखने के लिये, रक्षा करने के लिये, दंश के आवेश को रोकने के लिये, शरीर में जहर का चढ़ना रोकने के लिये, जहर उतारने के लिये कपड़े से ढकने के कौतुक तथा लेखनी से लिखे हये सर्प के दांत से दंश देने रूप गारूड अधिकार के आठ अंगों का वर्णन करता हूँ ॥१,। प्रथमस्तावत्संग्राहोऽभिधीयते--
समविषमाक्षर भाषिणि बूते शशि दिनकरौ च वहमानौ । दष्टस्य जीवितव्यं तद्विपरीते मृति बिन्धात् ॥२॥
[संस्कृत टीका]-'समविषमाक्षर भाषिणि दूते शशि दिनकरी च वहमानो' चन्द्रदिवाकरौ स्वरौ प्रवर्तमानौ । 'दष्टस्य जीवितव्यं समाक्षरभाषिणि इत्ते चन्द्र बहमाने, विषमाक्षरभाषिरणी दूते सूर्ये वहमाने दष्टपुरुषस्य संग्रहोऽस्तीति बिन्धात् । 'दृष्टस्य जीवितव्यं तद्विपरीते मृति विन्द्यास' समाक्षर भाषिरिण बूते सूर्ये वहमाने, विषमाक्षरभाषिणी दूते चन्द्र बहमाने इति स्वरवर्णवपरीत्ये वष्टपुरुषस्य संग्रहो न विद्यते इति विन्धात् ॥२॥
[हिन्दी टीका]-यदि दूत चन्द्रस्वर में सम अक्षर कहे तो समझना चाहिये कि जिसको सांप ने काटा है वह व्यक्ति बच जावेगा और प्रश्नकर्ता यदि सूर्यस्वर में विषमाक्षर कहे तो उसकी मृत्यु समझना चाहिये ।।२।।
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( १६८ ) दूतमुखोस्थित वर्णान् द्विगुणीकृत्य निभिर्हरेद्भागम् । शून्येनोद्धरितेन च मृति जीवितमादिशेत प्राज्ञः ॥३॥
[संस्कृत टोका]-'दूत मुस्खोस्थित वन द्विगरणीकृत्य तानि प्रश्नाक्षराणि सर्वाणि द्विगुणीकृत्य । 'त्रिभिहरेद्भागं' तद्विगुणित राशि त्रिभिभाग हरेत् । 'शून्येनोद्धरितेन च तद्भागावशेष शून्येन शून्य समच्छेदेन एकद्विरवशिष्टेन च । "मृत जोवितमादिशेत्' शून्येन दष्टस्य संग्रहाभावमादिशेत्, एकविरुद्धरितेन वष्टस्य संग्रहोऽस्तीत्यादिशेत् ॥३॥
। हिन्दी टीका ]-प्रश्नकर्ता के मुख से निकले हुये प्रश्नाक्षरों को द्विगुणित करके तीन का भाग देने से यदि शेष शून्य बचे तो मृत्यु होगी और अन्य संख्या शेष रहे तो, बच जावेगा ।।३।।
हं वं क्षं मन्त्र मन्त्रिततोयेनोद्ध षति यस्य गात्रं चेत् । स च जीवत्यथवाक्षिस्पन्दनतो नान्यथा दष्टः ॥४॥
[संस्कृत टीका]-'हं वं क्षं मात्रः' हं वं क्षं इति मन्त्रः। 'मन्त्रिततोयेन' अनेन मन्त्रेणाभिमन्त्रितोदकेनाच्छोटितेन । 'उद्धषति यस्य गात्रं चेत्' यस्य दष्टस्य शरीरं कम्पबच्चेत् । स च जीवति' स उद्ध षितगात्र पुरुषो जीवति । 'प्रथवाक्षिस्पन्दनतः' प्रन्येन प्रकारेणाक्षणोरुन्मीलनेन संदष्टो जीवति । 'नान्यथा दष्टः' यस्य दष्टस्य तदुदकसिञ्चनेन गात्रोद्ध षणं तदक्षिरचन्दनं च न विद्यते तस्य दष्टस्य जावितं न स्यादिति ज्ञातव्यम् ॥४॥
[हिन्दी टीका ]-हैं, व, क्षं इस मंत्र से पानी मंत्रित करके सर्प दंप्टा के ऊपर डालने से यदि हाथ-पांव हिलाता है, आँखों को फिराता है, कांपता है, तो बुद्धिमान मंत्री उसको जीवित समझे अन्यथा मर गया है ।।४।।
इति संग्रहपरिच्छेदः । प्रतः परमडन्यासोऽभिधीयते -
क्षिप नु स्वाहा बीजानि विन्यसेत् पादनाभिहृन्मुखशीर्षे । पोतसित काञ्चनासितसुरचापनिभानि परिपाटया ॥५॥
[ संस्कृत टीका ]-"क्षिप ऊँ स्वाहा बीजानि' क्षिप उँ स्वाहेति पञ्च बीजानि । 'विन्यसेत्' विशेषेण स्थापयेत् । केषु ? 'पावनाभिहन्मुख शीर्षे' पादद्वये, मानौ, हृदय, प्रास्ये, मस्तके इत्येतेषु पञ्चसु स्थानेषु । कथम्भूतानि बोजानि । 'पीत
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{ १६६ ) सितकाञ्चनासित सुरचाप निभानि' पोत-हरिद्रनिभं, श्वेते-श्वेतवर्ण, काञ्चनं-सुवर्णवर्ण, असितं-कष्णवणं, सुरचापं-इन्द्रधनुर्वर्ण, निभानि-सरशानि । एवं पभ्वर्णबीजानि 'परि- : पाटयां' 'क्षि' बीजं पीतवर्ण पावद्वये, 'प' बीजं श्वेतवर्ण नाभी, उ बीजं काञ्चनवर्ण । हृदि, स्वा इति बीजं कृष्णवर्ण प्रास्ये, 'हा' इति बीजं इन्द्रघापवर्ण मूनि एवं कमेण पञ्चसु स्थानेषु विन्यसेत् ॥५॥ इत्यङ्ग न्यासक्रमः ।।
[हिन्दी टीका]-क्षिप ॐ स्वाहा इन पांच बीजों को पीला, सफेद, सूवर्ण, काला और इन्द्र धनुष जैसे नीलवर्ण इन पांचों वर्णों को दोनों पांव, नाभि, हृदय, मुख तथा मस्तक इन पांच अंगों के अन्दर अनुक्रमशः स्थापना करना ।।५।।
मंत्र स्थापन करने का क्रम:क्षि, बीज को पीलेरंग से दोनों पाँवों में स्थापन करे । प, बीज को सफेद रंग से नाभि में स्थापन करे। . ॐ, बीज को सुवर्ण रंग से हृदय में स्थापन करे । स्वा, बीज को काले रंग से मुख में स्थापन करे।
हा, बीज को नीलेरंग से मस्तक पर स्थापन करे । अतः परं रक्षाविधानं कश्यते
पवतुर्दलोपेतं भूतान्तं नामसंयुतम् ।।
दलेषु शेष भूतानि मायया परिवेष्टितम् ॥६॥
. ( संस्कृत टोका )-'पमकमलम् । 'चतुर्दलोपेतं' चतुः ‘पत्रयुक्तम् । 'भूतान्त' भूतानिपृथिव्यप्सेजोवारचाकाशसंज्ञानि तेषामन्त प्राकाशो हकारः, तं हकारं कणिकामध्ये । कथम्भूतम् ? 'नामसंयुक्त' दष्टनामगर्भीकृतम् । . 'वलेषु' बहिः स्थित ' . चतुर्दलेषु । 'शेष मूतानि' क्षिप उ स्वाहेति चतुर्बीजानि लिखेत् । 'मायया परिवेष्टितं' । तत्पनोपरि ह्रींकारेण त्रिधा परिवेष्टितं लिखिस्वा दष्टस्य गले बध्नीयात् । अथवा चन्दनेन दष्टवक्षः स्थले एतद्यन्नं लिखेत् ॥६॥ इति रक्षा विधानम् ।।
[हिन्दी टीका -एक चार दल का कमल बनावे, उसकी कणिकाओं में नाम सहित हकार को लिखे, उसके बाद चारों दलों में क्षिप ॐ स्वाहा लिखकर ह्रींकार से .. तीन बार वेष्टित करे, फिर क्रों कार से निरोध करे, इस यंत्र को चंदन से लिखकर दष्ट पुरुष के गले में बाँधे ।।६।। सर्प जहर नष्ट करने का यंत्र चित्र नं० ४२ । । १. त्रिभाया परिवेष्टितं इति व पाठः । 'त्रिमायामेष्टितं शुभम्' इत्यपि पाठः ॥
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( १७० )
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सर्पजहर नष्ट करने का मंत्रचित्रन-४२
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{ १७१ ) इदानी स्तोभकरणमारभ्यते---
वह्निजलभूमि पवन ब्योमान बहपचद्वयं योज्यम् । स्तोभय युगल स्तोमं मध्यमिका चालनाद्भवति ॥७॥
(संस्कृत टीका)-'वह्निः उँकारः । 'जल' पकारः । 'भूमिः' क्षिकारः। 'पवन' स्वाकारः । 'व्योम' हकारः। 'अग्ने' एतेषां पञ्चबीजाक्षराणामने। 'दहपचद्वयं योज्यम्' दह दहेति पदद्वयं योज्यं, तबग्रे पच पचेति पदद्वयं योजनीयम् । 'स्तोभययुगलं' स्तोभय स्तोभयेति पदद्वयम् । 'स्तोभं' अनेन मन्त्रोच्चारणोच्चाटनेन? दष्टावेशः । कथम् ? 'मध्यमिका चालनात्' मध्यमाङ्ग ल्याश्चालनाद् । 'भवति' जायते ॥७॥ मन्त्रोद्धार :-उँ पक्षि स्वाहा वह दह पच पच स्तोभय स्तोभय ।
।। इति स्तोभन मन्त्रः ।। ।। इति स्तोभनविधानम् ॥
[हिन्दी टीका]-"ॐ पक्षि स्वाहा" इन पाँच बीजाक्षरों के आगे दह दह इन दो पदों की योजना करे, उसके आगे पच पच इन दो पदों की, फिर स्तोभय स्तोभय ये पद लिखे, इस मंत्र को मध्यमा अंगुलि को चलाते हुये उच्चारण करने से सर्पदंश का आदेग सकता है ।।७।।
मंत्रोद्धार :-"ॐ पक्षि स्वाहा दह दह पच पच स्तोभय ।।" इदानी विषस्तम्भनमुदीर्यते--
प्राद्यन्ते भूबीजं यध्ये जलवह्निमारतं योज्यम् । स्तम्भययुगलं स्तम्भो वामकराङ्ग ष्ठ चालनतः ॥८॥
(संस्कृत टीका)-'प्राद्यन्ते भूबीज' मन्त्रादौ मन्त्रान्ते पृथ्वीबीजम्-क्षि इति । 'मध्ये जलवह्निमारुतं योज्यं मन्त्रमध्ये प उ स्वेप्ति खोजत्रयं योजनीयम् । 'स्तम्भययुगलं' तदने स्तम्भयेति पदद्वयम् । स्तम्भः अनेन कथित मन्त्रोच्चारणेन विष प्रसर स्तम्भो भवति । कथम् ? 'वामकराल ष्ठ-चालनतः' स्वरामकराङ्ग ठचालनेन । मन्त्रोद्धार :-क्षिप उँ स्वाक्षि स्तम्भय स्तम्भय ॥ विषस्तम्भनमन्त्रः ॥
[हिन्दी टीका]-मंत्र के प्रारम्भ में और अंत में पृथ्वीबीज क्षि, मध्यमां, प, ॐ, स्वा, इन तीन बीज की योजना करके उसके आगे स्तम्भय २ ये दो पद लिखकर तैयार किया हुए मंत्र को बांए हाथ के अंगूठे पर जप करने से विष का स्तम्भन होता है ।।८।।
मंत्रोद्वार :-"क्षिप ॐ स्वाक्षि स्तम्भय ॥"
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( १७२ )
sarat निविषीकरणमभिधीयते : ----
जलभूमिवह्निमारुतगगनं: मंप्लावयद्वयोपेतैः ।
भवति च विषापहारस्तर्जन्याश्चालनादचिरात् ॥६॥
[ संस्कृत टीका ] - 'जलं' पकारः । 'भूमि' शिकारः । 'बन्हिः' उकारः । 'पथन: ' स्वाकारः । 'गगनं' हाकारः । इति पञ्चबीजाक्षरः । कथम्भूतः ? संप्लावयद्वयोपेतः संप्लावयेति पदद्वयान्वितः । भवति' स्यादेव । कः ? विद्यापहार: विषनिर्विषीकरणम् । कस्मात् ? 'तर्जन्याश्वालनात्' स्ववामकरतर्जन्यश्चालनात् । कथम् ? 'अचिरात्' शीघ्रतः ।
श्रतः मन्त्रोद्धार :- -पक्षि ॐ स्वाहा संप्लावय संप्लावय । इति विषापहारः ||६||
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[ हिन्दी टीका ] - जल बीज प कार । भूमि बीज क्षि कार । श्रग्नि बीज ॐ कार । पवन बीज स्वाकार। गगन बीज हा कार । इस प्रकार पांच बीजाक्षरों को और आगे संप्लावय-२ ये दो पद सहित बांये हाथ की तर्जनी अंगुली से जल्दी - २ चलाकर मंत्र का जाप करने से जहर उतर जाता है ॥६॥
मंत्रोद्धारः - पक्षि ॐ स्वाहा संप्लावय-संप्लावय ।".. इदानीमन्त्रविषसंक्रम रण कौतुकमभिधीयते-
मदग्निवारिधामव्योमपदं
संक्रमव्रजद्वितयम् ।
बालनयानामिया नितरां विषसंक्रमो भवति ॥१०॥
[ संस्कृत टीका - ] 'मवत्' स्वाकारः । 'अग्नि' उकारः । 'वारि' प्रकारा 'धाम' भिकारः । 'व्योम' हाकारः । 'संक्रमव्रज द्वितयं' संक्रम संक्रम व्रज व्रजेति पदद्वयम् । 'चालनयानामिकया' स्ववामकरानामिकायाश्चालमेन । 'नितरां श्रतिशयेन । 'विषसंक्रमो भवति' परं प्रति विषसंक्रमो भवति ॥ १० ॥
मन्त्रोद्वारः - स्वा ॐ पक्षि हा संक्रम संक्रम वज व्रजेति विष संक्रामण
मन्त्रः ।
[ हिन्दी टीका ] - इस मंत्र का बाए हाथ की अनामिका अंगुलि से जाय करे तो विसंक्रमण होता है ॥ १० ॥
१. लिउ स्वाहा स्तंभय स्तंभय निविधकरणं पक्षि ॐ स्वाहा संप्लावय संप्लावय । अयं विषापहार.. मन्त्रः इति पाठः ।
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( १७३ ) मंत्र :-स्वा ॐ पक्षि हा संक्रम संक्रम व्रज ब्रज ।
नागावेशन मंत्र नागावेश :योमजलवह्निपवनक्षितिपुतमन्त्रायत्ययावेशः । संक्षि प हः पक्षि पहः पठनेन कनिष्ठि चालनतः ॥११॥
[संस्कृत टीका]-'योम' हाकारः । 'जल' पकारः । 'न्हिः उकारः । 'पवनः स्वाकारः । 'क्षितिः क्षिकारः । 'युतमन्त्रात्' युक्तमन्त्रात् । 'भवंति' एतस्कथितमन्त्राज्जायते । 'प्रथ' पश्चात् । 'मावेशः' पुरुषशरीरे नागावेशः। 'संक्षि पहप क्षि पहः इति । 'पठनेन' एतन्मन्त्रपठनेन । कस्मात् ? 'कनिष्ठिचालनतः वामकरकनिष्ठिकाचालनात् ॥११॥
__ मन्त्रोद्धार :-हा प उ स्वाक्षि संक्षिप हः पक्षि पहः । इति पदे नागा. वेशमन्त्रः ।
[हिन्दी टीका-इस मंत्र को बाए हाथ की कनिष्ठिका अंगुलि से जाप करे तो पुरुष के शरीर में नाग प्रवेश करता है ।।११।।
दश पुरुष के शरीर में नागा प्रवेश मंत्र कराने का मंत्र-"हा प ॐ स्वा क्षि संप हः प क्षि प हः ।"
विषनाश मंत्र (प्रथम) कर्णजाप्येन भैरुण्डा निविषं कुरुते नरम् । विद्या सुवर्णरेखापि यष्टं तोयाभिषेकप्तः ॥१२॥
[संस्कृत टीका] -'कर्ण जाप्येन' वष्ट पुरुषस्य कणं जाप्येन । 'भेरुण्डा' मेरुडदेण्या विद्या । "निविषं कुरुते' निर्विषोकरणं कुरुते । 'नर' बध्वं पुरुषम् । विद्या सुवर्णरेखाषि' अपिपश्चात् सुवर्णरेखा विद्या । 'दष्ट' पुरुष । 'सोयाभिषेकतः' सुवर्णरेखनागविद्याऽभिमनितोवकाभिषेकेरण निविषं करोति ॥१२॥
भेरुण्ड विद्या मन्त्रोद्धार :- एकहि एकमाते भेरुण्डा विजाभविककुरंद सेतु भंतु प्रामोसाइ हुंकारमिष नासइ थावर जंगम फित्तिम अंगज! उँ फट् ।
इयं कर्ण जाप्या भेरुण्ड विद्या । प्राकतमन्त्रः ।। १ हो देवदसम्य विषं हा हूँ फद् इति स पाठः ।
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( १७४ )
प्रतः
सुवर्ण रेखा मन्त्रोद्धार :- सुवर्ण रेखे कुक्कुट विग्रह रूपिणि स्वाहा ।। इयं तोयाभिषेककररण सुवर्णरेखा विद्या ॥
[ हिन्दी टीका ] - जिस को सांप ने काट लिया है उस पुरुष के कान में भेरुण्ड विद्या मंत्र का और सुवर्ण रेखा से मंत्रित पाणी से अभिषेक करे तो सांप के जहर से मुक्ति मिलती है ।।१२।।
भेरुण्ड मंत्रोद्धार :- ॐ एकहि एकमाते भेरुण्डा विज्जा भविकज करंडे तंतु मंतु ग्रामोस हुंकार विष नासइ थावर जंगम कित्तिम अंगज ॐ फट् | यह मंत्र पद्मावती उपासना ग्रंथ में हैं किन्तु बहुत ही अशुद्ध मंत्र है ।
ॐ एहि माये भेरुण्डे बिज्जाभरिय करंडे तंतु मंतु प्राद्येसह हुंकारेण विसरणासइ थावर जंगम कित्तिम अंगज्ज ह्रीं देवदत्तस्य विपं हर २ ॐ हूँ फट् । यह मंत्र तीनों प्रतियों में मिलान करके पूर्ण शुद्ध किया है ।
सुवर्णरेखा मंत्रोद्धार :- ॐ सुवर्ण रेखे कुक्कुट विग्रह रूपिरिंग स्वाहा | विषनाशन मंत्र (द्वितीय)
भूजल महस्रभोऽक्षर मन्त्रेण घटाम्बु मन्त्रिकं कृत्वा । पादादिविहितधारा निपातनाद्भयति विषनाशः ||१३||
[ संस्कृत टीका ] -'भू' क्षि । 'जल' प । 'मस्त' स्वा । 'नभोऽक्षर' हा । 'मन्त्रे' क्षिप स्वाहेत्यक्षर चतुष्टय मन्त्रेण । घटाम्बु मन्त्रितं कृत्वा' कलशोद कमनेन मन्त्रेणाभिन्त्रिते कृत्वा । पादादिविहितधारानिपातनात् प्रापादमस्तकादिकृतजलधारानिपातनात् । 'भवति' स्यात् । 'विषनाश:' बष्टस्य विषनाशः ।।१३।।
मन्त्रोद्धार :- क्षिप स्वाहा ॥ इति निर्विषीकरण मन्त्रः ॥
[ हिन्दी टीका ] - क्षि प, स्वा, हा, इन चार मंत्राक्षरों से घड़े में भरे हुए पानी को मंत्रित करके सर्प दंशीत मनुष्य के सिर से पैर तक लगाने से जहर (विष) मुक्त हो जाता है ।। १३॥
मंत्र :-" क्षिपस्वाहा । "
अष्ट प्रकार नागों का वर्णन इदानीमष्टविधनागाभिधनमभिधीयते--- नन्तो वासुकिस्तक्षः कर्कोटः पद्मसंज्ञकः | महासरोजनामा च शङ्खपालस्तथा कुलिः || १४॥
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( १७५ ) [संस्कृत टीका]-'अनन्तो वासुकिस्तक्षः' अनन्तनाम नागः, वासुकिर्नाम नागः तक्षको नाम नागः । 'कर्कोटः' कर्कोटको नाम नागः । 'पघसंज्ञकः पद्मनाम नामः । 'महासरोजनामच महा पमनामनागः। 'शङ्खपालः' शङ्खपालो नाम नागः। 'तथा कुलिः' तेन प्रकारेण कुलिको नाम नागः । इत्यष्टविधनागानां नामनि निरूपितानि ॥१४॥
[हिन्दी टीका]-अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोट, पद्म, महापद्म, शंखपाल और कुलिक इस प्रकार ये पाठ प्रकार के नागों के नाम हैं ।।१४।।
प्रतः परं तेषां नागानां कुल जाति वर्ण-विष-व्यक्तयः पृथक्पृथगभिधीयन्तेक्षत्रिय कुलसम्भूतौ वासुकिशजी धराविषौ रक्तौ ।। कर्कोटक पद्मावपि शूद्री कृष्णौ च वारुणीयगरौ ॥१५।।
[संस्कृत टीका]-'क्षत्रिय कुल सम्भूतो' क्षत्रियकुल सम्भयौ । को ? वासुकिशडी' वासुकिशङ्खपालनागौ। 'घराविषौ' तो द्वौ पृथ्वीविषान्वितो। 'रक्तौ रक्तवरणौ । 'कर्कोटक पद्मावपि' अपि-पश्चात् कर्कोटपछौ । शूद्रौ' शूद्र फूलोद्भूतौ । 'कृष्णौ' तौ दो कृष्गबणौ । चः समुच्चये । 'वारुणीयगरौ' तो द्वौ अधिविषान्वितो ॥१५॥
[हिन्दी टीका]-वामुकि और शंखपाल नाग क्षत्रिय कुलोत्पन्न, रक्तवर्ण और पृथ्वी विष वाले हैं । करकोटक और पद्म नाग शूद्र कुलोत्पन्न काले रंग के और समुद्र जल के हलके विष वाले होते हैं ।।१५।।
विप्रावनन्त कुलिको वह्निगरी चन्द्रकान्तसङ्काशौ । तक्षक महासरोजौ वैश्यो पीतो मरुद्गरलौ ॥१६॥
[संस्कृत टीका]-'अनन्तकुलिकों' अनन्तकुलिक नाम नागौ। 'विप्रो' विप्रकुलसम्भूतौ । 'वह्निगरौं' प्रग्नि विषान्वितो। 'वैश्यों' वैश्यकुलोद्धवौ । 'पीतो' पीतवरणौ । 'मरुद्गरलो' वायुविषान्वितो। इत्यष्टविधनागानां कुल वर्ण विषव्यक्तयः प्रतिपादिताः । जय विजय नागौ देवकुलोद्भूती प्राशीविषो पृथिव्यां न प्रयतते इत्येतस्मिन्मन्थे न प्रतिपादितौ ॥१६॥
[हिन्दी टीका -अनन्त और कुलिक जाति के नाग ब्राह्मण कुल वाल, स्फटिक के समान रंग वाले और प्राग्निविष चाले हैं। तक्षक और महापय वैश्य कुलोत्पन्न पीले वर्ग के और वायु के विष वाले हैं। जय विजय जाति के नाग देवकूल के प्राशी विष वाले हैं, इनका पृथ्वी पर संचार न होने से इस ग्रंथ में वर्णन नहीं किया है ।।१६।।
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( १७६ }
विषों के लक्षरण
इदानों चतुविधं चिह्नमभिधीयते -
पार्थिवदिषेण गुरुता जडता बेहस्य सनिपातत्यम् । लालाकण्ठ निरोधो गलनं वंशस्य तोयविषात् ॥१७॥
[ संस्कृत टीका ] -- 'पार्थिवविषेण' पृथ्वी थिष नाग दष्टस्थ । 'गुरुता' गुरुत्वम् । 'जडता बेहस्य' शरीरस्य जाड्यम् । 'सन्निपातत्वं' सनिपातस्वरूपमिति पार्थिविषचिह्न स्यात् । 'लालाकष्ठनिरोधः' मुखे लालास्त्रवः । 'गलनं दंशस्य' सर्पदष्ट वंशे रक्तक्षररणम् । कस्मात् 'तोय विषात्' प्रम्बुविषात् अम्बुधिवदष्टस्यवंविधं चिह्न स्यात् ॥ १७॥
[ हिन्दी टीका ] - पृथ्वी विष वाले नाग के काटने पर शरीर जडवत् भारी होता है, सन्निपात की जैसी अवस्था हो जाती है। समुद्र जल की जाति के नाग के काटने पर मुख से लार गिरती है और दांत गलने लगते हैं ।। १७ ।
गण्डोगता हटेरपाटयं भवति वह्निविषदोषात् । विच्छ्रायतास्य शोषणमपि मारुत गरल दोषेण || १८ ||
[ संस्कृत टिका ] - 'गण्डोद्गमता' दष्टशरीरे गण्डोद्गत्वम् । 'रष्टेरपाटवं' नेत्रयोरपत्यम् 1 ' भवति' स्यात् । कस्मात् ? 'न्हि विष दोषात् ' वन्हिविषनागवष्टस्य पुरुषस्यैवंविधचिह्न ं स्यात् । 'विच्छायता' शरीरे दुश्छवित्वं, 'प्रास्यशोषणमपि वदने निर्दयत्वमपि । केन ? 'मारुतगरलदोषेण' वायुविषनागवष्ट पुरुषस्यैवं चिह्न स्मात् ||१८||
[ हिन्दी टीका ] - अग्नि के समान विष वाले स्थल फूलने लगते हैं । श्रौर नेत्र ज्योति बंद हो जाती है। नाग के काटने पर शरीर में चंचलता होती है और नींद लगता है ||१८||
नाग के काटने पर गण्ड वायु के समान विष वाले उड़ जाती है, मुँह सूखने
विषहरण मंत्र
इत्यष्टविधनागानां कुलवर्णविष चिह्न व्यक्तयः प्रतिपादिताः ॥ ॐ नमो भगवत्यादिमन्त्रमष्टोत्तरं शतम् । पठित्वा कोशपटहं ताडयेद्दष्ट सनिधी ॥१६॥
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। । १७७ ) [संस्कृत टीका]-"उँ नमो भगवत्यादिमन्त्रं' उँ नमो भगवति इत्यादि वक्ष्यमारणमन्त्रं । 'अष्टोत्तरं शतं' अष्टाधिक शतम् । 'पठित्वा पठनं कृत्वा । 'क्रोश पटहं कोशडमरुम् । 'ताडयत्' ताउनं कुर्यात् । 'बष्टसन्निधौ' वष्टस्य पावें ॥१६॥
मन्त्रोद्धार :-उँ नमो भगवति ! युद्धगरुडाय सर्व विष विनाशिनि ! छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द । गृह्ण गृह्ण एहि एहि भगवति ! विद्ये हर हर हुं फट् स्वाहा ।।दष्ट तौ कोशपटहताडन मन्त्रः ॥
[हिन्दी टीका]-इस मंत्र को १०८ बार जप कर दष्ट पुरुष के सामने खूब बाजे बजने से विष दूर हो जाता है ।।१६।।
___मंत्रोद्धार :-ॐ नमो भगवति वृद्ध गरुडाय सर्व विष नाशिनि छिन्द-२ भिद-२ गृह्ण-२ एहि-२ भगवति विद्ये हर-२ हुं फट् स्वाहा ।।
धुत्वार्धचन्द्र मुद्रा दक्षिण भागेऽहिवंशिनः स्थित्वा । वदतु तव गौरिदानों तस्करलोकेन नीतेति ॥२०॥
[संस्कृत टीका]-'धृत्यार्धचन्द्रमुद्राम्' अर्धचन्द्राकारां-यागकराङ्ग ष्ठतर्जनौम्यां धृत्वा मुद्राम् । क्व ? 'दक्षिण भागे' दक्षिणदिग्भागे । कस्य ? 'अहिवंशिनः' सर्पबष्ट पुरुषस्य । 'स्थित्वा' उषित्वा । 'ववतु' भाषताम् । कि बदतु ? 'तव गौः' स्वदीया गौः। 'इदानों' साम्प्रतं । 'तस्करलोकेन' दस्युजनेन । 'नीतेति' गृहीत्वा नीतेति वदति ॥२०॥
[हिन्दी टीका]-उसके बाद सर्प दष्ट पुरुष के दाहिनी ओर बैठ कर बांये हाथ ने अर्द्धचंद्राकार मुद्रा बनाकर जोर से कहे कि तुम्हारी गाय को अभी-अभी चोर ले गये हैं ॥२०॥
तं समान्य पादेन याहीत्युक्त स धावति । उत्थापयति तं शीघ्र मन्त्र सामर्थ्य मोशम् ॥२१॥
[संस्कृत टोका]-तं समाहन्य पादेन' तं दष्टपुरुषं मन्त्रिणा स्वपादेन पाहन्य। 'याहीत्युक्त' गच्छेत्युक्त । 'स धावति' स वष्ट पुरुषो धावनं करोति । 'उत्थापति तं शीघ्र' तं दष्टपुरुषं झटित्युत्थापयति । 'मन्त्रसामर्थ्यमीरशं' भगवत्या मन्त्र माहात्म्यमीशं एवं विधम् ॥२१॥
क्रोशपटहताउनेन दष्टोत्थापनविधानम् ॥
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( १७८ )
[हिन्दी टीका]-फिर मंत्रवादी तू जा, ऐसा कह कर जोर से एक लाथ सर्प दष्ट पुरुष को मारे, तो वह पुरुष एकदम खड़ा होकर भागने लगता है। इस प्रकार इस मंत्र का सामर्थ्य है, यह भगवती मंत्र है ।।२१।।
नाग कर्षगनमंत्र इदानीं नागाकर्षरण मन्त्रविधानमभिधीयतेनिपुतजपात् संसिध्यति वशांश होमेन फरिणसमाकृष्टिः। प्रणवादिः स्वाहान्तः चिरिचिरि शब्दादिको मन्त्रः ॥२२॥
[संस्कृत टीका]-'नियुतजपात् लक्षजपात् । 'संसिध्यति' सम्यक् सिद्धि प्राप्नोति । केन ? 'दशांशहोमेन' वश सहस्त्रजपेन । 'फरिणसमाष्टिः ' नागाकर्षणम् । 'प्रणवादिः स्वाहान्तः' उकारादिः स्वाहाशवान्तः । "चिरिचिरिशब्दादिको मन्त्रः'२ मिरिचिरि२ इति शब्दाद्यो मन्त्रः ॥२२॥
मन्त्रोद्धार :-उँ चिरि२ चिरि इन्द्रयाणि ! एहि एहि कड कर स्वाहा।
[हिन्दी टीका]-यह मंत्र एक लक्ष जाप करने से और दशांश होम करने से (दश हजार मंत्राहुति देने से) सिद्ध होता है ।।२२।।
मंत्रोद्धार :-ॐ चिरि-२ इण्द्रवारूशि एहि-२ कड-२ स्वाहा । नाग प्रेषणमन्त्रोऽशीति सहस्त्रैर्दशांश होमेन । सिध्यति जाप्येन पुनः शोणित करवीर पुष्पारगाम् ॥२३॥
. [संस्कृत टीका]-'माग प्रषण मन्त्रः' नागनां क्षुद्रकर्मकरणप्रस्थापनमन्त्रः । 'अशीति सहस्त्रैः' अशीति सहस्त्र प्रमाणः जाप्येन कथम्भूतेनी 'दशांश होमेन' अष्ट सहस्त्र हवनेन । 'सिध्यति' सिद्धि प्राप्नोति । 'पुनः' पश्चात् । केषां ? 'शोरिणत कर वीर पुष्पारणाम्' रक्तकरवीर पुष्पाणाम् ॥२३॥
नाग सम्प्रेषण मन्त्रोद्धार :-उँ नमो नागपिशाचि ! रक्ताक्षिभ्र कुटिमुखि ! उच्छिष्टवीप्ततेजसे 1 एहि एहि भगवति ! फट् स्वाहा ॥ नाग प्रेषण मन्त्रः ॥ ... [हिन्दी टीका]-नाग प्रेषण मंत्र का अस्सी हजार बार जप करने से और
शशि होम करने से सिद्ध होता है किन्तु लाल कनेर के पुष्पों से होम करे ।।२३।। १. प्रणवादि स्वाहान्तश्चिरिथिरि शम्माविको मन्त्रः इति गपुस्तके पाठः। २. चिरिधिरिइतिगपाठ: । .
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( १७९ )
मंत्रोद्धार :- ॐ नमो नाग पिशाचि रक्ताक्षि भृकुटी मुखी उच्छिष्ट दीप्ततेजसे एहि -२ भगवति गृह - २ हुं फट् स्वाहा ।
यंत्र चित्र नं. ४३ देखे ।
वल्मीकनिकटे होमं कुर्यात् त्रिमधुरान्वितम् ।
मन्त्र सिद्धौ तमाज्ञाप्य प्रषयेदुरगेश्वरम् ॥ २४ ॥
[ संस्कृत टीका ] - ' वल्मीक निकटे' यामलूरसमीपे । 'होमं हवनम् । 'कुर्यात् ' करोतु । 'श्रिमधुरान्वितं क्षीराज्य शर्करामिश्रित प्राग्भारीकृतप्रसूनान्वितम् । 'मन्त्रसिद्धी' एतद्विधानेन कुत मंत्र सिद्धौ प्राप्तायां । 'तमाज्ञाप्य' तं नागेश्वरमाज्ञां कृत्वा । प्रषयेदुरगेश्वरं' नागेश्वरं क्षुद्र कर्म करणे प्रस्थापयेत् । नामप्रषण- कर्मकरणजप- होमविधानमभिहितम् ||२४||
[ हिन्दी टीका ] - इस अनुष्ठान को बामी के पास घृत, दूध, और मधु (शर्करा ) सहित होम करे तो मंत्र सिद्ध होता है जब सर्प आवे तो उसे इच्छित स्थान पर भेजे ||२४||
प्रोषितोऽनेनेति मा कस्यापि पुरो वदेः ।
श्रन्यमन्त्रेण मा गच्छ मानवं भक्षया मुकम् ।। २५ ।।
[ संस्कृत टीका ] 'प्रोषितः ' प्रस्थापितः । कः ? 'अहं' नागः । केन ? 'अनेन' मन्त्रवादिना । 'इति' एवम् । 'कस्यापि पुरो मा वदेः' कस्यापि पुरुषस्याग्रतः मा भाषस्व । श्रन्यमन्त्रेण मा गच्छ एतन्मन्त्रं विहाय श्रन्यमन्त्रेण त्वं मा गच्छ । 'मानवं भक्षयामुकम् श्रमुकं दुष्ट पुरुषं अक्षय ।। इति नाम प्रषण विधानम् ।।२५।।
[ हिन्दी टीका ] - और उस नाग को कहे कि तू यह वार्ता दूसरे को नहीं कहना और प्रमुक का भक्षण कर और दूसरे के मंत्र से यह कार्य कभी मत करे ||२५||
यंत्र चित्र नं. ४४ देखे |
दूत इवानी दूतपातनविधानमभिधीयते-
फरिदष्टस्य शरीरादों स्वाहा मन्त्र तो विषं हत्वा । सोमं श्रवल्ललाटाद् व्रतं मन्त्रेण पातयेत् ॥ २६ ॥
'को गिराकर रोगी को अच्छा करना
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( १०
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देवदत्त
हा सिपा
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12
Domaina
नागप्रेषण यंत्रनं.४३,
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ॐअजितायै स्वाहा
ॐ मोहायै
खाहा
*विजयाये ।
स्वाहा ।
स्वाहा ॐस्तंभायै
अहंभ्याखाहार ॐ सिद्धेभ्यःस्वाहा ॐसूरिभ्योःस्वाहा ॐउपाध्यायेभ्यां स्वाहा सर्वसाधुभ्यांस्वाहा
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खाहा /ॐ
ॐजभारी
स्वाहा /ॐ
ॐअपराजिता
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THANKS
गरूडबन्धपत्र चित्रनं.४४
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( १-२ )
[ संस्कृत टीका ] - 'फरिणदष्टस्य शरीरात्' सर्पदष्टस्य पुरुषस्य शरीरात् । 'जं स्वाहा मन्त्रतः' उ स्वाहेति वक्ष्यमाणमन्त्रात् । विषम्' वष्ट पुरुषवेहस्थं विषम् । 'हृत्या' अपहृत्य । कथम् ? 'सोमं श्रवत्' प्रमृतं श्रवमारणम् । कस्मात् ? ' ललाटात् ' भालस्थलात् । 'दूतं' प्रेषकम् । 'मन्त्रेण पातयेत्' पातयितव्यः || २६ ॥ एतन्मन्त्रोद्धार :- ॐ स्वाहा इत्यनेन मन्त्रेणविवमा ह्रियते ।
नमो भगवते वज्रतुण्डाय स्वाहा रक्ताक्षि कुनखि दूतं पातय पातय
मर मर घर घर ठठठीँ फट् घे घे ॥ इति दूतपालन मन्त्रः ।।
[ हिन्दी टीका ] - ॐ स्वाहा मंत्र से सर्प दंशित पुरुष के शरीर में रहने वाले विष को दूत पातन मंत्र से दूत को कपाल से भरते हुए मृत से हरण करे ।।२६।।
दूत पातन मंत्रोद्धार :- ॐ नमो भगवते वज्र तुण्डाय स्वाहा रक्ताक्षि कुनख दूतं पातय- पातय मर-मर धर-धर ठ ठ ठ हुं फट् घे घे ।
ॐ लामों फडू मन्त्रोच्चारणतः पतति भोमिना दष्टः ।
ॐ होमादिकन्तो दष्ट पटच्छावतो मन्त्रः 11
[ संस्कृत टीका ] - 'उ' लामों फडू मन्त्रोच्चारणतः ' । इत्यनेन मन्त्रोच्चारणेन भूमौ पतति । कः ? 'भोगिना दष्ट: ' सर्पेण दष्टपुरुषः । 'उ' होमादिफडन्त : ' उ स्वाहा शब्दमावि कृत्या फट्शब्दान्तः वक्ष्यमाणमन्त्रः । 'दष्ट पटच्छादनो मन्त्रः ' पतित दष्ट पुरुषस्य शरीरोपरिवस्त्रच्छादनमन्त्रः ||२७||
मन्त्रोद्धार :- ॐ ताँ उ फड् इति वष्टपातन मन्त्रः ।
ॐ स्वाहा रुरुरुरुहो प्लं सर्वं हारय संहारय उ यूं उ उ गरुडाक्षि जं फट् ॥ इति बष्टपट च्छा वनमन्त्रः ।।
[ हिन्दी टीका ] - ॐ (ई) लां ॐ फट् (ड्) इस मंत्र के उच्चाररण से सर्पदष्ट पुरुष भूमि पर गिरता है ||२७||
दष्ट पातन मंत्र :- ॐ ईं लाँ ॐ फड् ( फट् )
दष्ट के उपर वस्त्र ग्राच्छादन मंत्र :- ॐ स्वाहा रुरुरुरुरुरु हो प्ले हं सर्वं संहारय-२ ॐ यूं ॐ ॐ गरुडाक्षि ॐ फट् स्वाहा । इस मंत्र से दष्ट पुरुष को वस्त्र ढाना चाहिए ।
मंत्र :- ॐ ई लॉं ॐ फट् ।" वस्त्राच्छादन मंत्र ( कपड़े से सांप कांटे
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मनुष्य ढकने का मंत्र) ॐ स्वाहा रु रु रु रु रु हो प्ले हे सर्व संहारय संहारय ॐ यूं ॐ गरुडाक्षि ॐ फट् स्वाहा ।।
पवननभोऽक्षर' मन्त्रणकृष्य च पावते ततो वस्त्रम् । अनुधावति तत्पृष्ठे यत्र पटः पतति तत्रासी ।।२।।
[संस्कृत टीका - पवननभोऽक्षर मन्त्रेण स्वाहेत्यक्षर मन्त्रेण । 'पाकृष्य' तहष्टाच्छादन परमाकृष्य । 'धावते' धावनं करोति । 'ततः तस्मात् । वस्त्रं प्राच्छाद. नपटम् । 'अनुधावति तत्पृष्ठम्' तवस्त्रमाकृष्य यः पुरुषो धावति तत्पृष्ठं स दष्टः अनुधावति । 'यत्र पटः पतसि तत्रासो' यस्मिन् स्थले तद् गृहीत पटः पतति तत्रषासो दष्टः पतति । स्वाहेति दष्टाच्छादित पटाकर्षण मन्त्रः ॥२८॥
[हिन्दी टोका]-फिर यह सर्प दष्ट पुरुष स्वाहा, इस मंत्र से वस्त्र उठाकर भागने वाले पुरुष के पीछे भागता है और जहां कहीं वस्त्र गिरता है वहीं वह दष्ट पुरुष भी गिर जाता है ।।२८।।
मंत्र :- स्वाहा । मन्त्रेणानेन फगी विषमुक्तो भवति जल्पितेन शनैः । अपहरति निजस्थानादशितेऽपि विषं न सक्रमते ॥२६॥
[ संस्कृत टोका ]-'मन्त्रेणानेन' अनेन कथित मन्त्रेण । 'फणी विषमुक्तो भवति' सर्पो विषमुक्तो भवति । केन ? जल्पिते.' वक्ष्यमारण मन्त्र पठनेन । 'शनैः' शनरपि । 'अपहरित निजस्थानात्' स्वकीयस्थानात् तस्ष्टस्य विषापहारो भवति । 'प्रशितेऽपि विषं न सङ्कम' सण भक्षितेऽपि सति तस्म पुरुषस्यापि विषसङक्रमो न भवतीति निविषीकरणम् ॥२६॥
मन्त्रोद्वार :-उनमो भगवते पार्वतीर्थड्राय हंसः महाहंसः पमहंसः, शिवहंसः, कोपहंसः उरगेक्षहंसः पक्षि महाविषभक्षि हुँ फट ।। इति निविषोकरण मन्त्रः ॥
[हिन्दी टीका]-इस मंत्र का धीरे-धीरे जाप करने से सर्प का विष अपने स्थान से शोघ्र दुर हो जाता है फिर उसको कभी विष चढ़ता नहीं है ॥२६॥
निर्विषीकरण मंत्र :--"ॐ नमो भगवते पार्वतीर्थ कराय हंसः महाहंसः पद्यहंसः शिवहंसः कोपहंस उरगेशहंसः पक्षिमहाविष भक्षि हुं फट् ।" १. फट् स्वाहा इति ख पाठः।
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( १८४ ) नाग को साथ चलाने का मंत्र तेजो नमः सहस्त्रादि मंत्र प्रपठतः फरणी। अनुयाति ततः पृष्ठं याहीत्युक्त निवर्तते ॥३०॥
[सस्कृत टोका]-'तेजो नमः सहस्त्रादि मन्त्रं प्रपठतः' ॐ नमः सहस्त्रजिह! इत्यादि मन्त्रां प्रपठतः पुरुषस्य । 'फरणी' सर्पः। 'अनुयाति ततः पृष्ठं' सन्मन्त्रपठित पुरुषस्य पृष्ठमनुगच्छति । 'याहीत्युक्त निवर्तते' स एवं सर्पः पुनरपि याहीत्युक्त व्याधुय्य गच्छति ॥३०॥
तन्मन्त्रौद्धार :- नमो सहस्त्रजिह्व! कुमुद भोजिनि! दीर्घकेशिनि! उच्छिष्ठभक्षिणी ! स्वाहा ॥ इति नाग सहागमन मंत्रः ॥
__[हिन्दी टीका]-ॐ नमो सहस्त्र जिह्व कुमुद भोजिनि दीर्घ केशिनि उच्छिष्ठ भक्षिरिण स्वाहा।
__इस मंत्र को पढ़ने वाले मंत्र वादी के साथ-साथ में सर्प चलने लगता है और चले जाओ कहने पर सर्प चला जाता है ।।३०॥
सर्प मुख किलन मंत्र, गति किलन मंत्र, वृष्टि किलन मंत्र ___ ह्री श्री ग्लो हु भूटान्तद्वितयेन फरिगमुखस्तम्भः ।
हुँ क्षू ठठेति गमने दृष्टिं हां क्षा ठठेति बन्धाति ॥३१॥
[संस्कृत टीका]-'उह्री श्री ग्लो हु । 'टान्तद्वितयेन' ठठेति मन्त्रेण । 'फणिमुखस्तम्भः' अनेन मन्त्रेण सर्पमुखस्तम्भो भवति । 'हुभूति गमने' हूँ इत्यनेन सर्पस्य गतिस्तम्भो भवति । दृष्टिं हाठठेति बध्नाति' सर्पस्य दृष्टिं हाँ क्षा ठठ इति मन्त्रेण बध्नाति । इति फरिणमुखगति दृष्टि स्तम्भन विधिः ॥३१॥
[हिन्दी टीका]-ॐ ह्रीं श्री ग्लौं हैं क्षं ठः ठः, इस मंत्र के जाप से सर्प का मुख कीलित होता है ।।
मंत्र :--हुँ २ ठः ठः, इस मंत्र से सर्प की गति का स्तंभन होता है ।
हाँ क्षाँ ठः ठः, इस मंत्र से सर्प की दृष्टि का स्तंभन होता है ।
सर्प को कण्डलाकार बनाने का मंत्र घाम सुवर्ण रेखाया गरुडाज्ञापयत्यतः । स्थाहान्तं मन्त्रमुच्चार्य कुण्डलीकरणं कुरु ॥३२॥
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( १८५ )
[ संस्कृत टीका ] - 'वामं सुवर्ण रेखायाः ॐ सुवर्ण रेखाया इति पदम् । 'गरुडाज्ञापययीति पदम् । 'स्वाहान्तं मन्त्रमुच्चार्य' स्वाहाशब्दमन्तेकृत्था तन्मन्त्रं पठित्वा । ' कुण्डली करणं कुरु ॥३२॥
मन्त्रोद्धार
ॐ सुवर्ण रेखाया गरुडाज्ञापयति कुण्डलीकरणं कुरु कुरु
स्वाहा।
| संस्कृत टीका ] - इस मंत्र का जाप करने से सर्प कुण्डलाकार होता है । मंत्र :- ॐ सुवर्ण रेखाया गरुडा ज्ञापयति कुण्डली करणं कुरु कुरु
स्वाहा ||३२||
सर्प घट प्रवेश मंत्र
सप्रणवः स्वाहान्तो ललललललसंयुतः करोत्येषः 1 मन्त्रो घटप्रवेशं क्षरणेन नागेश्वरस्यापि
॥३३॥
[ संस्कृत टीका ] - 'सप्ररणवः स्वाहान्तः' उकारादिः स्वाहाशब्दान्तः । 'ललललललसंयुतः' लललललल इत्यक्षरैः षड्भिर्युक्तः । 'करोति' कुरुते । 'एषः मन्त्रः । एतत्कथितमन्त्रः किं करोलि ? 'घटप्रवेशं' कुम्भप्रवेशं । 'क्षणेन' क्षणमात्रेण । कस्य ? 'नागेश्वरस्यापि' नागाधिपस्यापि क्षणेन घटत्रवेशं करोति ॥३३॥
मन्त्रोद्धार :- - ॐ लललललल स्वाहा || फरिणकुम्भप्रवेशनमन्त्रः ॥
| हिन्दी टीका ] - इस मंत्र का जाप्य करने से नागों का ईश्वर भी क्यों न हो उसको भी एक ही क्षण में घट में प्रवेश करना पड़ता है ||३३|| मंत्रोद्धार : – “ ॐ ल ल ल ल ला ला स्वाहा । "
नाग स्तम्भक रेखा मंत्र
ॐ
गरुडा ठठेति तन्मुद्रया कृतां रेखाम् । भुजगो मरणावस्थां न लङ्घते तां कदाचिदपि ॥ ३४ ॥
[ संस्कृत टीका ] - उहाँ ह्रो गरुडाय ठठेति' ॐ ह्रां ह्रीं गरुडाज्ञा ठठ इत्यनेन मन्त्रेण । 'तन्मुद्रया' गुरुडमुद्रया । 'कृतां रेखाम्' मन्त्रिणा भूमौ कृतां रेखा । 'भुजगो 'मरणावस्थः सर्पो मरणावस्थां प्राप्तः । 'न लङ्घते' लङ्घयं कर्तुं न शक्नोति । 'earfaraft' कस्मिश्चित्कालेऽपि ॥ ३४ ॥
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मन्त्रोद्धार :- ॐ ह्रां ह्रीं गरुडाय ठ ठ ।। इति रेखा मन्त्रः ।।
[ हिन्दी टीका ] - गरुडमुद्रा से इस मंत्र का जाप्य करके रेखा खींचे तो उस रेखा का किसी भी काल में, उल्लघन सर्प नहीं कर सकता और वह मरण तुल्य हो जाता है ||३४||
रेखा मंत्र :- ॐ हाँ ह्रीं गरुडाय ठः ठः " खटिका फरिदर्शन विधान
कपिकच्छूरसभावितख टिका प्ररणवादिनील परिजप्त्वा । लेख्यस्योपदेशात् खटिकासर्पः शनेवरे ।।३५।।
[ संस्कृत टीका ] - कपिकच्छूरसभावित खटिका' कण्डुकरीरसेन सप्तवारं भाfear after | 'प्रणवादिनील परिजप्त्वा सा खटिका प्ररणवादि-नील मन्त्रेण समं जया । 'लेख्यस्तया' खटिकथा लेखनीयः । कथम् ? 'उपदेशात्' उपदेश पूर्वेण । कः ? 'खटिकासर्प:' तत्खटिकालिखितसः । कस्मिन् ? 'शतेवर' शनिविने ॥। ३५ ।।
मन्त्रोद्धार :- ॐ नील विष महाविध सर्प संक्रामणि ? स्वाहा । इति विष संक्रामरणमन्त्रः ॥
[ हिन्दी टीका ] - खडिया ( खटिका) को कोंच के रस में सात बार भावना देकर उस पर निम्नोक्त मंत्र से शनिवार को एक सर्प का चित्र बनावे ||३५|| मंत्रोद्धार :- ॐ नील विष महाविष सर्प संक्रामरिण स्वाहा ।
यो हन्यात् तद्वक्त्रं खटिकासर्पो दर्शात नात्र सन्देहः । रवा करतलदशनं मूर्च्छति विषवेदनाकुलितः || ३६ ||
[ संस्कृत टीका ] - 'यो हन्यात् तद्वक्त्रं खटिकासर्पो वशति नात्र संदेह: ' अत्र खटिका सर्प विधाने सन्देहो न कार्यः । 'वा करतल दशनं तत्सर्पदशनदेशं करतले हवा | 'मूर्च्छति' पुरुषो मूर्च्छा प्राप्नोति । कथम्भूतः ? 'विषवेदनाकुलित ' विषजनितवेदनाकुलितः । इति खटिका सर्प कौतुकविधानम् ॥३६॥
उठ मन्त्रेण विर्ष ह कारमध्यगं जप्त्वा
[हिन्दी टीका | -जो कोई उस चित्र सर्प के मुख पर मारता है, उसको वह चित्र काट लेता है । और उस सर्प दंश को देख कर विषवेदना से वह व्यक्ति
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मूर्छित हो जाता है । इस खटिका सर्प विधान में संदेह नहीं करना चाहिये ।।३६।।
फिर मंत्रवादी उस चित्रसर्प दंशित पुरुष के हृदय, कण्ठ, मुख, मस्तक और शिर को क्रमशः देखे कि स्तम्भन ही है या आखों को धोखा है।
स्तंभन का निश्चय हो जाने पर खटिका पर लिखे हुए चित्र सर्प पर "ॐ क्षा क्षी' इस मंत्र के पढ़ने से यह दष्ट पुरुष विषकों छोड़कर भोजन कर सकता है अर्थात् निविष हो जाता है ।
नोट :-पुष्प का चिन्ह जहां से है वह वर्णन अन्य प्रतियों में नहीं है मात्र कापड़ियाजी के ग्रंथ में है।
विषभक्षण मंत्र ॐ क्रों प्रों श्री ठः मंत्रण विषं ह. कारमध्यगं जप्त्वा । सूर्य दृशावलोक्य भक्षयेत् पूरकात् ततः ॥३७॥ प्रतः परं मूलविषविधानमभिधीयते--
[संस्कृत टीका]-'उ को प्रोत्री ठः मन्त्रेण' अनेन मन्त्रेण । 'विष' स्यावरविषम् । कथम्भूतम् ? 'हकारमध्यगम्' करतल ह कार मध्ये स्थितं विष कथित मन्त्रोण । 'जप्त्या' अभिमन्त्र्य । 'सूर्य' रवि । 'शावलोक्य' दृष्टया निरीक्ष्य । 'भक्षयेत्' विषभक्षणं कुर्यात् । कथम् ? 'पुरकात् ततः' पूरकयोगात् ॥३७॥
मंत्रोद्धार :--उँ को प्रोत्री ठः । इति विषभक्षरण मन्त्रः ।
हिन्दी टीका]-हाथ की हथेली में ह्रकार के मध्य में स्थावर विष को रखकर पूरक योग में सूर्य की दशा देखकर (अथवा सूर्य के सामने देखते हुए) इस मंत्र से मंत्रित करके भक्षरण कर जावे ।।३७।। मंत्रोद्धार :-"ॐ क्रोप्रोत्री ठः ।।
विष से शत्रुनाशन प्रतिपक्षाय दातव्यं ध्यात्वा नीलनिभं विषम् । ग्लो ह्रौ मन्त्रयित्वा तु ततो घे घेति मन्त्रिणा ॥३।।
[संस्कृत टीका]-'प्रतिपक्षाय' शत्रुलोकाय । 'दातव्यं' देयम् । 'ध्यात्वा' ध्यानं कृत्वा । कथम्भूतम् ! 'नीलनिभम्' निलवर्णस्वरूपम् । किम् ? यिषं' मूलविषम्। किं कृत्वा ? 'ग्लो ह्रौ मन्त्रयित्वा' इति मन्त्रेणाभिमन्त्र्य । 'तु' पुनः । 'ततः' ग्लो
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ह्रौ इति बोजद्वयात् । 'घेघेति' घे घे इति पदं जपित्वा । केन ? 'मन्त्रिणा' मन्त्रवादिना ॥३॥
___ मन्त्रोद्धार :-- ग्लौ ह्रौं घे घे । इति प्रतिपक्षाय नीलध्यानेन युक्तविषदानमन्त्र ।
[हिन्दी टीका]-शत्रु को बिष देते समय ग्लौं क्रौं घे घे, मंत्र से मंत्रित करता हुआ नीले वर्ण का ध्यान करे, और भक्षरण करा देवे ।।३८।।
विषनाशन मंत्र मुनिहयगन्धाघोषा बन्ध्या कटम्बिका कुमारी च । त्रिकटुककुष्ठेन्द्रयया ध्नन्ति विष नस्यपानेन ॥३६।।
[संस्कृत टीका]-'मुनिः' अगस्तिः। 'हयगन्धा' अश्वगन्धा । 'धेष' देवदालो (देवदारू)। 'वन्ध्या कर्कोटी । 'कटुतुम्बिका' कटु कालावुका । 'कुमारी' गृह कन्या । 'त्रिकटुकं' चूषणम् । 'कुष्ट म्' त्वक । 'इन्द्रयदा' कुटजबीजम् । 'धनन्ति' नाशयन्ति । 'विष' स्थावरजङ्गमविषम् । 'नस्थपानेन' एतदोषधानां नश्नेन पानेन सर्व विषं नश्यति ॥३६॥
[हिन्दी टीका-अगस्त्य, असगंध, घोषा (तोरई) वन्ध्या (कर्कोटी) कड़वी तुम्बी घृतकुमारी, त्रिकटु (सोंठ, पीपल, कालीमिरच) कूट और इन्द्र जी को सुंघाने और पिलाने से स्थावर जंगम सभी प्रकार के विष का नाश हो जाता है ।।३।।
द्विपमलभूतच्छस्त्रं रविदुग्धं श्लेष्मतरूफलोपेतम् । वृश्चिकविषसकामं बदरीतरूदण्डसंयोगात् ॥४०॥
[संस्कृत टोका]-'द्विपमल मूतच्छत्त्रं' विरदमलोद्भूतच्छत्रम् । 'रविधुग्धं' मार्तण्डक्षीरम् । 'म्लेष्मतरूफलोपेतम्' श्लेष्मातक फलचिक्यान्वितम्। 'बश्चिक विषोत्तारणं अन्येषां विष संक्रामम् । 'बदरीतरुदण्ड संयोगत् । पुष्याः अध्यधिोगत कण्टक द्वयान्वित बदरी शलाकां गृहीत्वा तदोषधत्रयलेपं कृत्वा ऊर्यकपट केनोत्तार्य अधोगतकण्टकेन अन्योऽन्यं संक्रामति ।।४।।
हिन्दी टीका]-हार्थी के मल (लीद) से उत्पन्न होने वाले छत्र बनस्पति को, प्राकडे का दूध और बड़गुंद के अन्दर से निकलने वाला चिकरणा पदार्थ इन तीनों प्रोषधियों का लेप करके, पुष्यनक्षत्र में ग्रहण किया हुआ जिसके ऊपर नीचे
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कांटे हैं ऐसी बेर को लकड़ी से बिच्छू का जहर उतर जाता है और संक्रमण होता है । वह इस प्रकार है-कार के कांटे से जहर उतर जाता है और नीचे के कांटे से जहर का संक्रमण होता है ||४०||
घर से सर्प भगाने का मंत्र
षट्कोणभवन मध्ये कुरुकुल्लां यो लिखेट् गृहे विद्याम् । तत्र न तिष्ठति नागो लिखिते नागारिबन्धेन ॥। ४१॥
[ संस्कृत टीका ] षट्कोण भवनमध्ये' षट्कोण चक्रमध्ये | 'कुरुकुल्लां' कुरुकुल्लानामदेव्या मन्त्रः । 'यो लिखेद्' यः कोऽपि मन्त्रवादी लिखेत् । वघ ? 'गृहे' गृहवेहल्याम्' स्ववासोत्तराङ्गः । काम् ? 'विद्याम्' कुरुकुल्ला देव्या विद्याम् । 'तत्र' तस्मिन् गृहे । 'न तिष्ठति' न स्थाति । कः ? 'नागः' सर्पः । कस्मिन् कृते सति ? 'लिखिते' सति । केन ? 'नागारिबन्धेन' गरुडबन्धेन ॥४१॥
मन्त्र :- ॐ कुरु कुल्ले ! हूँ फट् ॥
[ हिन्दी टीका ] - घर में प्रवेश करने के द्वार के ऊपर की ओर गरूड ( षट्कोण ) यंत्र बनाकर उसमें गरूड बंध मंत्र लिखे तो उस सर्प घर से भाग जाता है ||४१ ||
मंत्र :- ॐ कुम्ल कुल्ले हूँ फट् । देखे यंत्र चित्र नं. ४४ ॥ शिष्य को विद्या देने का विधान
इदानीं मण्डलोद्धारणमभिधोयते-
चतुरस्त्रं
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मन्डलमतिरमणीयं पञ्चवर्णचूर्णेन प्रथिलिस्य चतुःकरणे सोयभृतान् स्थापयेत् कलशान् ॥४२॥
[ संस्कृत टीका ] - 'चतुरस्त्रं' समचतुरस्त्रम् । 'मण्डलं' वक्ष्यमाणमण्डलम् । 'अतिरमणीयं' अत्यन्त शोभमानम् । 'पञ्चवर्ण चूर्णेन' श्वेतरक्तपीतहरित कृष्णमिति पञ्चवर्णचूर्णेन । 'प्रविलिख्य' प्रकर्षेण लिखित्या | 'चतुः कोरणे' तन्मण्डल चतुःको । 'तोयभूतान्' जलपरिपूर्णान् । स्थापयेत् । कान् ? 'कलशान्' कुम्भान् ॥४२॥ [हिन्दी टीका ] - चार कोने से सहित मरिणय पंचवर्ग चूर्ण से एक मंडल बनावे और मंडल के चारों कोनों में पानी से भरे हुए कलशों की स्थापना करे ||४२ ॥
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+ कुरु कुल्ला विद्या का यंत्र नं. ४४
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तस्योपरि विपुलतरं मण्डपमतिसुरभिपुष्पमालिकाकीर्णम् । चन्द्रोयकघ्यजतोरण घण्टारयदर्पणोपेतम् ॥४३॥
[संस्कृत टीका]-'तस्योपरि' तन्मण्डलोपरि । 'विपुलतरं' अतिविस्तीर्णम्। 'मण्डपं । कथम्भूतम् ? 'प्रतिसुरभिपुष्पमालिकाकीर्ण' । पुनः कथम्भूतम् ? 'चन्द्रोयकध्यजतोरण घण्टारवदर्पणोपेतम्' वितानध्वजवन्दनमालाक्षुद्र घण्टिका विशिष्टदर्पणान्वितम् ।।४३॥
[हिन्दी टीका]-फिर उस मंडल को नाना प्रकार की पुष्पमालाओं से और दर्पण, ध्वजा, घंटी चंद्रोपक आदि से सज्जित कर देवे ।।४३।।
पञ्चपरमेष्ठिमन्त्रं प्रत्येकं प्रवणपूर्वहोमान्तम् । प्रष्टवलकमलमध्ये हिमकुक ममलयजविलिखेत् ॥४४।।
[संस्कृत टोका]-'पञ्चपरमेष्ठिमन्ना' अर्हत्सिवाचार्योपाध्याय सर्व साधूनां मंत्रम प्रमुच कथम्भूतम् ? 'प्रत्येक' पृथक्पृथक् । 'प्रणवपूर्व होमान्तम्' उकारादिस्वाहाशब्दान्तम् । 'अष्टदल कमल मध्ये' अष्टक्लाम्बुजमध्ये प्रष्दलकरिणकामन्ये । हिमकुङ, ममलयजः' कपूरकाश्मीर श्री गन्धः । विलिखेत्' विशेषेण लिखेत् ॥४४॥
__ मन्त्रोद्धार :-उँ अर्हद्भ्यः स्वाहा, उसिद्ध भ्यः स्वाहा, सूरिभ्यः स्वाहा, उपाठकेभ्यः स्वाहा, उसवसाधुभ्यः स्वाहा । इति पञ्च परमोष्ठिना मन्त्रं करिएकामध्ये लिखेत् ॥
हिन्दी टीका]-फिर केशर, कपूरादि पदार्थों से अष्टदल कमल बनावे और करिणका में निम्नोक्त मंत्र लिखे ।। ४४॥
____ मंत्रोद्धार :-ॐ अर्हद्भ्यः स्वाहा, ॐ सिद्धेभ्यः स्वाहा ॐ सूरिभ्यः स्वाहा, ॐ पाठकेभ्यः स्वाहा, ॐ सर्वसाधुभ्यः स्वाहा । इस मंत्र को करिणका में लिखे ।
पूर्वाग्न्यादिषु दद्याज्जयाविजम्भादि देवता ह्यताः । तद्दक्षिणदिग्भागे हेममयीं पादुका देव्याः ॥४५।।
[संस्कृत टीका]-'पूर्वाग्न्यादिषु' पूर्वादिचतुर्दिशासु प्राग्नेय्यावि चतुर्विदिशासु च । 'हि' स्फुटम् । 'एताः' कथितदेवताः । 'तद्दक्षिरणदिग्भागे' तन्मण्डलदक्षिणदिवप्रदेशे । 'हेममयों' स्वर्ण विनिर्मिताम् । 'पादूका देव्याः' पादुकाद्वयं दद्याद्देव्याः ॥
स्थापनकम :-जये स्वाहेति प्राच्यां दिशि, उ विजये स्वाहेति
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दक्षिणायां दिशि उ श्रजिते स्वाहेति प्रतीच्यां दिशि ॐ अपराजिते स्वाहेति उत्तरस्यां दिशि उ जम्भे स्वाहेत्याग्नेय्यां दिशि, उ मोहे स्वाहेति नेऋत्यां दिशि ॐ स्तम्भे स्वाहेति वायध्यायां दिशि उ स्तम्भिनि स्वातीशान्यां दिशि इत्यष्टदलेषु जयादि जम्भादि देवता विलिखेत् ॥ २४५ ॥ |
[हिन्दी टीका ] - इस अष्टदल कमल के पूर्वादि दिशाओं के दलों में जयादि देवियों के नाम लिखे और विदिशाओं अग्निकोणादियों में जम्भादि देवियों के नाम लिखे और दक्षिणा दिशा के भाग में देवी की स्वर्णमयी पादुका बनावे ||४५||
दलों में नाम लिखने का क्रमः
मः -पूर्ण में ॐ जयायै स्वाहा । आग्नेय में ॐ जम्भायै स्वाहा । दक्षिण में ॐ विजयायै स्वाहा । नैऋत्य में ॐ मोहयै स्वाहा । पश्चिम में ॐ श्रजिताय स्वाहा । वायव्य में ॐ स्तंभायै स्वाहा । उत्तर में ॐ अपराजितायै स्वाहा | इशान्य में ॐ स्तंभिन्यै स्वाहा ।
अभ्यं गन्धतन्दुलकुसुमनिवेद्य प्रदीप धूप फलैः । परमेष्ठिनं च मन्त्रं भैरव पद्मावतीपादी ||४६ ॥
[ संस्कृत टीका ] -' धम्यच्यं' अभिपूज्य । कः ? ' गन्धलन्दुलकुसुम निवेद्य प्रदीप धूप फलैः श्री गन्धाक्षतपुष्पच रुनैवेद्यदीप धूप फलाद्यष्टविषार्चना द्रव्यैः । 'परमेष्ठिनंच मन्त्रम् ' पञ्चपरमेष्ठिमन्त्रम् । 'अभ्यचर्य' पूजयित्वा । 'पूजयेत् भैरव पद्मावती पाहों' भैरव पद्मावती देव्याः पादौ स्वर्ण पादुके श्रपि पूजयेत् ॥ ४६ ॥
[ हिन्दी टीका ] - उसके बाद परमेष्ठी यंत्र मंत्र और पद्मावती देवी के चरणों की जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से अर्चन करे ||४६ ॥ नोट :-देवीपूजा यंत्र चित्र नं ४४, पेज नं. १८१ पर देखें । परसमयजन विरक्त शिष्यं जिनसमय देवगुरुभक्तम् । कृतवस्त्रालङ्कारं संस्नातं मण्डलाभिमुखम् ॥४७॥
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[संस्कृत टोका]-'परसमयजन विरक्तम्' मिथ्याशासन लोक विरक्त । 'शिष्यं विनेयं पुन कथम्भूतम् ? 'जिनसमयदेवगुरुभक्तम्' जिनशासनदेवतासद्गुरुभक्तम् । कृतवस्त्रालङ्कारो येनासौ कृतवस्त्रालङ्कारः तम् कृतवस्त्रालङ्कारम् । पुनः कथम्भूतम् ? 'संस्नातम्' सम्यक्स्नातम् । 'मण्डलाभिमुखम्' उखारित मण्डलस्याभिमुखम् ।।४।।
[हिन्दी टीका]-उसके बाद कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरू से विरक्त रहने वाले विनयी शिष्य को स्नान कराकर वस्त्रालकारों से सजाकर मंडल के सामने लावे ।।४७।।
संस्नाप्य चतुःकलशः सहिरण्यस्तं ततोऽग्यवस्त्रादीन । दत्त्वा तस्मै मन्त्रं निधेदयेत् गुरुकुलायातम् ॥४॥
[संस्कृत टीका]-'संस्नाप्य' तं शिष्यं सम्यक्वस्त्रापयित्वा । कः ? चतुः फलशः' प्राग्मण्डल कोरणस्थ चतुः पूर्णकलशः। कथम्भूतैः ? 'सहिरण्यः' स्वर्णयक्तः 'त' शिष्यम् । ततः स्नानालन्तरम्। 'अन्यवस्त्रादीन्दत्वा' पूर्व वस्त्रादीनपहायान्य नूतन नववस्त्रादीन दत्त्वा । तस्मै' एवं विधशिष्याय । 'मन्त्रं निवेदयेत्' । कथम्भूत मन्त्रम् ? 'गुरुकुलायातम्' 'गुरुपारम्पर्यणागतम् ।।४।।
हिन्दी टीका]-मंडल पर रखे हुए कलशों से स्नान कराकर अन्य वस्त्र मादि देकर गुरू परंपरा से चला पाया मंत्र देवे ।।४।।
भयतेऽस्मभिर्दत्तोर मन्त्रोऽयं गुरुपरम्परायातः । साक्षीकृत्य हुताशनरविशशिताराम्बरादिगणान् ।।४।।
[संस्कृत टीका]-भवते' तुभ्यं शिष्याय । 'अस्माभिर्दत्तः' । 'मन्त्रोऽयं' प्राक्कथित मन्त्रः । कथम्मूतः ? 'गुरुपरम्परायातः' गुरुपारम्पर्येरणागतः । किं कृत्वा ? 'साक्षीकृत्य' साक्षिकं कृत्वा । कान् ? 'हुताशनरविशशिताराम्बरादिगणान्' अग्न्यर्कचन्द्र नक्षत्राकाद्रि समूहान् ॥४६
_ [हिन्दी टीका]-अग्नि, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र और आकाश की साक्षीपूर्वक गुरू परंपरा से चला आया हुअा मंत्र तुम को देता हूं, इस प्रकार शिष्य को कहे ।।४।।
भवतापि न दातव्यः सम्यक्त्व विजिताय पुरुषाय ।
किन्तु गुरुदेव समयिषु भक्तिमते गुरासमेताप ॥५०॥ १. क्रमायातम् ख पाठः । २. माया क पाठः ।
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( १६४ )
[ संस्कृत टीका ] - 'भवतापि' त्वयापि । 'न बातव्यः' न देयः । कस्मै ? 'सम्यक्त्वविवजिताय' सम्यक्त्व विहीनाय । 'पुरुषाय' नराय । 'किंतु' श्रथवा । 'गुरुदेव समयिषु भक्तिमते' गुरुदेव समये भक्तियुक्ताय । 'गुणसमेताय' सकल गुण संयुक्ताय एवं गुण विशिष्टाय पुरुषाय दातव्यः ।। ५० ।।
[हिन्दी टीका ] - यह मंत्र तुमको मैने दिया है, तुम इस मंत्र को मिथ्या दृष्टि लोग हैं उनको कभी नहीं देना, जो सच्चे देव, शास्त्र, गुरू के भक्त हैं सुपात्र हैं ऐसे गुणवान पुरुषों को ही देना ।। ५० ।।
लोभादथवा स्नेहाद्दास्यसि चेदन्य समयभक्ताय । बालत्रोगोमुनियधपापं यत्तद्भविष्यति ते ॥५१॥
[ संस्कृत टीका ] - 'लोभात्' प्रर्थाभिलाषात् । अथवा 'स्नेहात्' व्यामोहात् । 'दास्यसि चेत् यदि इमां विद्यां दास्यसि । कस्मे ? 'अन्यसमयभक्ताय' पर समयभक्तियुक्ताय । तवा 'बालस्त्रीगोमुनिबधपापं यत्' बालक स्त्रीजन गोमुनिजन हननेन यत् पापम् । तद्भविष्यति ते' तत् पापं तव भविष्यति ॥ ५१ ॥
[ हिन्दी टीका ] - इस मंत्र विद्या को यदि लोभ से, स्नेह से अथवा अन्य स्वार्थ से मिथ्यादृष्टियों को दिया तो तुमको बाल हत्या, स्त्री हत्या, गोवध, मुनिबंध का पाप लगेगा ।। ५१ ।
इत्येवं श्रावयित्वा तं सन्निधौ गुरुदेवयोः । मन्त्री समर्पयेन्मन्त्रं साधनयोगतः ॥५२॥
[ संस्कृत टीका ]- 'तं' मन्त्रग्राहकम् । इत्येवं श्रावयित्वा' इत्यनेन प्रकारेण शपथं कारयित्वा । कथम् ? 'सन्निधौ गुरु देवयोः' गुरुदेवयोः सन्निधाने ।' 'मन्त्री' मन्त्रवादो । 'समर्पयेत्' नियोजयेत् । कम् ? 'मन्त्रम्' गुरुपरम्पर्यागतं मन्त्रम् । कथम् ? 'मन्त्रसाधनयोगतः' मन्त्राराधनविधानयोगात् ।। ५२ ।।
[हिन्दी टीका ] - फिर मंत्रवादी शिष्य को देव गुरू की साक्षी देकर मंत्र साधन के विधानानुसार मंत्र देव - ऐसी गुरु परंपरा है ||५२||
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( १६५ )
ग्रन्थकार की गुरु परम्परा
सकल नृपमुकुटघटित चरणयुगः श्रीमदजितसेनगरणी । जयतु दुरितापहारी भव्योध भवार्ण बोसार ॥५३॥
[ संस्कृत टीका ] - ' सफलनूपमुकुटघटित घरसा युग: ' सकल भूपालमुकुटघटितपादारविन्दद्वयः । 'श्रीमदजित सेनगरणी' श्रीमवजितसेनाचार्य: । 'जयतु' सर्वोत्कर्षरण वर्तताम् । 'दुरितापहारी पापापहारी । पुनः कथम्भूतः ? 'भण्यौध भवार्णवोत्तारी' भव्यजन समूहस्य संसार समुद्रोत्तारकः ।। ५३३
[ हिन्दी टीका ] - जिनके चरण युगल राजाओं के सिर पर शोभित मुकुट मरियों से वंदित हैं जो पाप के नाशक हैं भव्यजनों को संसार समुद्र से पार उतारने वाले हैं ऐसे श्री अजितसेनगरि मुनि सदा काल जयवंत हों ।।५३||
जिन समयागमवेदी गुरुतर संसार कान नोच्छेदी । कर्मेन्धनदहनपटुस्त कियः कनकसेनगरिः ॥५४॥
[ संस्कृत टीका ]- 'जिनसमयागमवेदी' जिनेश्वर समय सकलागमज्ञाता । 'गुरुतरसंसार काननोच्छेदी' दुर्धरसंसृति कान्तारोन्मूलनसमर्थः । 'कर्मेन्धनदहनपटुः ' सकल कर्मेन्धनदनक्रियायां प्रतीय दक्षः | 'तच्छिष्यः' श्रीमवजित सेनाचार्यस्य शिष्यः । कः ? 'कनकसेनगरिगः' कनकसेनाचार्यः ॥ ५४ ॥
[ हिन्दी टीका ] - श्रागम वेदी, संसार रुपी बन को छेदने वाले कर्म रुपी ईन्धन को जलाने में चतुर श्री कनकसेनगरि उनके शिष्य थे || ५४ ॥
चारित्रभूषिताङ्गी निःसङ्गो मथितदुर्जयानङ्गः ।
तच्छिष्यो जिनसेनो बभूव भव्याजधर्माशुः ।। ५५ ।।
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[ संस्कृत टीका ] - ' चारित्रभूषिताङ्गः सकल चारित्रभूषित शशेरः । 'निः सङ्गः' बाह्याभ्यन्तर परिग्रहरहितः । 'ममितदुर्जयानङ्गः' बुर्जयश्चासौ प्रनङ्गश्च दुर्जयानङ: मथितो दुर्जयानङ्गो येन स मथितदुजर्यानङ्गः निर्जितमदनः । ' तच्छिष्यः' कनकसेनाचार्यस्य शिष्यः । कः ? जिनसेनाचार्यः | 'बभूव' संजातः । कथम्भूतः ? 'भव्य धर्माशु' भन्यकमलप्रबोधन दिवाकरः ।। ५५ ।।
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[हिन्दी टीका]-चरित्र ही जिनका शरीर-भूषण है । बाह याभ्यंतर परिग्रह के त्यागी हैं और जो दुर्जय कामदेव को नष्ट करने वाले हैं, भव्य रूपी कमलों लिये मूर्य के समान हैं, ऐसे श्री जिनसेन स्वामी उनके कनकसेन मुनि के शिष्य थे ॥५५॥
तबीयशिष्योऽजनि मल्लिषेरणः सरस्वतीलब्धवर प्रसादः । तेनोवितो भैरवदेवताया कल्पः समासेन चतुःशतेम ॥५६॥
[संस्कृत टीका]-'तदोयशिष्यः' जिनसेनाचार्यस्य शिष्यः। 'प्रजनि' जातः। कः ? 'मल्लिषेरण' मल्लिरणाचार्यः । कथम्भूतः ? 'सरस्वतीलब्धवर प्रसादः सरस्वती देव्याः सकाशात् प्राप्तवरप्रसावः । तेन' मल्लिषणाचार्येण । 'उदित्तः' कथितः । 'भैरव देवतायाः' भैरव पद्मावती देव्याः। 'कल्पः' मन्त्रवाद समूहः। 'समासेन' संक्षेपेण । 'चतुशतेन' चतुः शत सङ्ग्या ग्रन्थ प्रमाणेन ॥५६॥
[हिन्दी टीका]-श्री आचार्य जिनसेन के सुयोग्य शिष्य श्री मल्लिसेन मनि थे, जिन पर सरस्वती देवी की कृपा थी, उन प्राचार्य मल्लिसेन ने यह भैरव पद्मवती कल्प मंत्र-स्तोत्रादि सहित चार सौ श्लोकों में बनाया है ।।५६।।
यावद्वाधिमहीधरतारागरणगगनचन्द्र दिनपतयः । तिष्ठन्ति तावदास्तां भैरव पद्मावती कल्पः ॥५७।।
[संस्कृत टीका]-'यावत्' यावत्कालपर्यन्तम् । 'वाधिः' समुद्रः। 'महीधरः' कुल शैलः । 'तारागरणः' नक्षत्र समूहः । 'गगन' पाकाशः। 'चन्द्र' मृगाः । "दिनपतिः' मार्तण्डः । एते वादियो यावत्कालपर्यंत 'तिष्ठन्ति' स्थास्यन्ति । 'तावत' तावत्कालपर्यन्तम् । 'प्रास्ताम् तिष्ठतु । 'भैरव पञ्चायती कल्पः' 'भैरव पायतीनामदेव्याः मन्त्रकल्पः ।।
[हिन्दी टीका]-जबतक समुद्र, पर्वत, तारागण, आकाश, चन्द्र और सूर्य रहेंगे तब तक यह भैरव पद्मावती कल्प भी बना रहे ।। ५.७।।
___ इत्युभय भाषाकविशेखर श्री मल्लिषेण सूरिविरचितो भैरव पद्मावती कल्पः समाप्तः ॥
श्री उभय भाषा कवि श्री मल्लिरणाचार्य विरचित भैरव पद्मावती कल्प के गरुडाधिकार की हिन्दी बिजया दीका समाप्ता ।
( दशम अध्याय समाप्त )
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( १९७ )
टीकाकर्ता की प्रशस्ति स्वस्ति श्री वीरनिर्वाण २५१२ मासानां मासे आश्विनीमासे शल्कपक्ष विजयादशम्यां रविवासरे, श्रवण नक्षत्रे अभिजितशुभमुहुर्ते वृश्चिक नामा स्थिर लग्ने कर्नाटक राज्ये शेइवाल नगरस्य रत्नत्रयपुर्या श्री ऋषभादि चतुविश तीर्थकर जिनबिंब समीपे टीकाकर्ता श्री मूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कार गणे कुन्द कुन्दाचार्य परंपरायां श्री प्राचार्य आदिसागर अंकली, तत्शिष्य समाधि सम्राट, प्राध्यात्म योगी तीर्थ क्षेत्र भक्ति वंदना शिरोमरिग, चतुर्नु योगज्ञाता, महामंत्र बादी आचार्य महावीर कीति तत् शिष्य, सर्वागमज्ञ, यंत्र मंत्र तंत्र शास्त्र विशेषज्ञ गरणधराचार्य कुन्थुसागरेण भैरव पद्मावती कल्पस्य राष्ट्र भाषायां मया सर्व जनहितार्थ विजया टीका कृता । इति ।
मंग :-"क्षिप स्वाहा ।'
क्षि प, स्वा, हा, इन चार मंत्राक्षरों से घड़े में भरे हुए पानी को मंत्रित करके सर्प दंशीत मनुष्य के सिर से पैर तक लगाने से जहर (विष) मुक्त हो जाता है।
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ग्रंथमाला समिति को प्रकाशन खर्चों में आर्थिक सहयोग
प्रदान करने वाले महानुभावों की सूची निम्न प्रकार है १०,०००) श्री ज्ञानचन्दजी जैन एवं परिवारजन [बम्बई] ५,०००) , प्रकाशचन्दजी छाबड़ा ३,००० ) , कुंदकुंदकुमारजी मोहिनीचन्द्रजी जवेरी ,, ३,०००) , महावीरकुमारजी राजेन्द्रकुमारजी सेठ ,
२०) ,, कित्तिकुमारजी ज्ञानचन्दजी मिण्डा । ३.०००) , अशोककुमारजी धर्मचन्दजी भिण्डा , ३,०००) ,, राजेन्द्रकुमारजी चान्दमलजी दोशी ३,०००) , अशोककुमारजी बंसतलालजी गांधी , ३,०००) , अजितकुमारजी मोतीलालजी मिण्ड़ा , ३,०००) , हेमन्तकुमारजी सुरजमलजी सेठ ३,०००) , राजकुमारजी सेठी [डीमापुर] ३,०००) , सूरेशकुमारजी संघवी [बांसवाड़ा] २,१००) , पवनकुमारजी जैन बम्बई] १,५००) श्रीमती सीताबाई सरावगी । १,१००) श्री धनपालजी कन्हैयालालजी डोटिया [बम्बई] १,१००) , निर्भयकुमारजी मारणेकलालजी दावडा , १,१००) डॉ. सुरेन्द्रकुमारजी मुजानमलजी कोटड़िया , १,०००) श्रीमती राधाबाई मेवालालजी
श्री दिगम्बर जैन कथ विजय ग्रंथमाला समिति जयपुर (राजस्थान) उपरोक्त सभी महानुभावों का आभार प्रकट कर बहुत-बहुत धन्यवाद देती है और आशा करती है कि समिति द्वारा भविष्य में जब-जब भी इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण अद्भुत अलभ्य ग्रंथों का प्रकाशन होगा तब आप सभी का सहयोग प्राप्त होता रहेगा।
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यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र शास्त्रानुकूल ही है
बाल ब्र० श्री १०८ मुनि चया सागर जी महाराज
अाज हम एक ऐसा प्रसंग रखते है --जिसकी विशेष चर्चा है । प्रसंग है मंत्र, यंत्र, तंत्र का बहुत से व्यत्तियों की जिज्ञासा है कि मंत्र, यंत्र, तंत्र जैन धर्मानुकुल है या महीं। हमारी मान्यता है कि जन शास्त्रों के अनुकूल ही है।
__ मत्रों की शक्ति द्वारा हो हम पत्थर से बनी प्रतिमा को भगवान मानते है । प्रतिमा की पूजा अर्चना करके लाभ मानते है । प्रतिमा कुछ समय पहले एक साधारण सा पत्थर था मगर आज हम उस पत्थर को पत्थर नहीं कहते, उसको भगवान कहते है । मगर पत्थर से भगवान कैसे बने किसके माध्यम से बने ? कारीगर की कला से पत्थर को मूर्ति के रूप में निर्माण तो हो गया एवं पंचकल्याण के माध्यम से भाव मूर्ति व अन्तरंग मूति का निर्माण हुआ । यहाँ ध्यान देने की बात है कि पंचकल्याण में क्या-क्या क्रिया होती है।
मंत्रों के द्वारा गर्भ क्रिया मंत्रों के द्वारा ही जन्म क्रिया एवं इसी प्रकार दीक्षा मनाई जाती है २४ मूल गुणों को मंत्रों के द्वारा आरोपित किया जाता है। उस द्रव्य मूर्ति में मंत्रों के द्वारा ही ज्ञान रूपी विभूति गुरणों को पारोपित किये जाते है । इसके उपरान्त में मोक्ष कल्याण के मंत्र दिये जाते है । मोक्ष कल्याग के मंत्रों के लिए नग्न दिगम्बर की आवश्यकता होती है कहीं-कही तो मुनिराज सुलभ हो जाते है—यदि मुनिराज नहीं मिलते है तो फिर पंडित द्वारा (अपने कपड़े उतार कर) ही उस मूर्ति को द्रव्य भगवान से भाव भगवान बनाने के लिए कानों में फूंक देकर मत्रों का उच्चारण किया जाता है। इन मंत्रों के बाद ही वह पत्थर भगवान के रूप में बदल जाता है। उसे भगवान कहा जाता है । यह शक्ति किस की है ? यह मंत्रों की ही शक्ति है कि पत्थर को भगवान बना देते है। फिर अन्य जगह मंत्र क्यों नहीं काम करेंगे। मंत्र अर्थात ----मन माने मन त्र माने त्रियोग । मन बचन कार्य की शुद्धि से मंत्रों का उच्चारण किया जाए तो समस्त कार्यों की सिद्धि होती है। बिजाअक्षरों को ही मंत्र कहते है। अपने शास्त्रों में प्रनादि अनन्त मूल महामंत्र पंचणवकार है । उसी माध्यम से सभी मंत्रों की उत्पत्ति हुई है।
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________________ यंत्र क्या है ? यंत्र भी जैन शासन के मूल शास्त्रों से है। विनायक यंत्र, विजयपता का यंत्र, पंच परमेष्ठी यन्त्र-प्रादि यंत्र ही होते है। यंत्र भी एक धर्म का ही रूप है / यन्त्र के विना पंचकल्याए पूजा विधान भी अपूर्ण माने जाते है। तंत्र विद्या भी एक जैन आगम का ही अंग है / किसी प्रकार का रोग आद हो जाने पर नजर लग जाने पर मन्त्र विद्या का प्रयोग किया जाता है / रोगी के सामने मिर्च नमक लेकर या भगवान का अभिषेक किया हुआ जल लगाते हैं-- यह तन्त्र विद्या का ही अंग है / अभिषेक का गधोदक लेने का ब लगाने का विधान जैन आगम में कुछ शास्त्रों में पाया जाता है। औषिध शास्त्र भी तंत्र विद्या में पाता है। यदि आप इसका विरोध करते है तो फिर दवा आदि बन्द करनी होगी। दवा प्रादि बन्द करने से हमारे अन्दर रोग आदि की व्याधियाँ चढतो जावेगी। रोग की व्याधियाँ बढ़ जाने से धर्म ध्यान नहीं हो सकेगा। धर्म ध्यान नहीं होने का परिणाम दुर्गति को और है। एक जगह कहा है। कि धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण / धर्म पंथ साधे बिना, नर प्रियंच समान / धर्म ध्यान के अनेक उपाय है ... मंत्र. यंत्र, तंत्र जाप पाठ ध्यान स्वाध्याय संयम तप त्याग दान आदि अनेक प्रकार से धर्म ध्यान किया जा सकता है। लेकिन धर्म ध्यान केवल आत्म कल्याण के लिये ही होना चाहिये न कि ख्याति पूजा लाभ प्रादि के लिये। मंत्र, यंत्र, संत्र को जो नहीं मानते वह हमारे ख्याल से जन शास्त्रो को नहीं मानते / जो यंत्र इत्यादि करने वाले का विरोध करते है वे जन प्रागम का ही विरोध करते है / जो जन अागम का विरोध करता है वह जैन नहीं हो सकता। जो जैन शास्त्रों को नहीं मानता उसने अभी सम्यग्दर्शन को नहीं प्राप्त किया। ऐसे व्यक्ति का कल्यारण अभी दूर है / विरोध करने वाले इस घोर संसार में ही गोते लगाने का पुरुषार्थ कर रहा है। हमारा भाव है कि ऐसे व्यक्ति को ऐसी बुद्धि प्राप्त हो कि वह किसी भी प्रकार से जन शासन के मूल पागम शास्त्र पर अपनी प्रास्था जमा कर अपना कल्याण करे। जो इसका विरोध कर रहे है उनके लिये ऐसा लगता है कि वे जिस डाल पर बैठे है -उसी को काट रहे है / जो यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र का विरोध करते है वे भी जिस डाल पर बैठे है-उसी डाल को काटने जैसा लगता है। ऐसे व्यक्तियों से हमारा यही कहना है कि अपने लिए शास्त्रों का अध्ययन करके संत समागम से पक्षपात रहित तत्व चर्चा करके जैन मागम के रहस्यों पर ध्यान दे एवं उन पर अपनी प्रास्था को मजबूत बना कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करे, ताकि अनन्त संसार सागर को पार कर सके।