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ततस्वराद् बहिः शिरोरहित कारे वेष्टितम् । 'मायया' ही कारेण 'परिवेष्टितम्' समन्ताद् वेष्टितम् । 'प्रवादिकादिभिः' तद् ही काराद् बहिः प्रदेशे प्रणव प्रादिर्येषां ते ककारावयः तः काविभिरावृतम् ।
उक, ख, ग, घ, ङ, उँच इत्यनेन प्रकारेण हकार पर्यन्तम् ते ककारादयः वेष्टनीयम् ॥६॥
[हिन्दी टीका]-स, ह, ब और ह्रीं ये चारों अक्षरों के अन्दर देवदत्त का नाम लिख कर उन चारों अक्षर के बाहर प्रष्ट दल में हंसवर्ण फिरता हुआ लिख कर उसके बाहर सोलह पंखुडी का कमल बनावे, उसमें क्रमशः षोडश स्वरों को लिखे फिर शिर रहित हकार से वेष्टित करे और ह्रीं कार माया बीज से तीन घेरा डाल दे, उसके बाद बाहर क ॐख से लेकर ॐह पर्यंत लिखे ।।६।।
यन्त्रमाविलिखेदिदं हिमकुङ मागुरुचन्दनंमूर्यके फलकेऽथवा भुधिगोमयेन विमाजिते । प्रत्यहं विधिना समं जपतोऽरुणप्रसवेश तस्य पादसरोजषट् पदसग्निभं भुवनत्रयम् ॥१०॥
[संस्कृत टीका]-'यन्त्रम्' एतत्कथितयन्त्रम् 'प्राविलिखेत्' समन्तात् लिखेत् । कै? 'हिमकुद्ध मागुरुचन्दनः' कपूर काश्मीरागुरु श्रीगन्धादि सुरभिद्रव्यः । क्व ? 'भूर्यके' भूर्य पत्रे। 'फलके' घटफलके । 'अथवा' अनेन प्रकारेण वा भुवि पृथिव्याम् । 'गोमयेन' भूम्यपतितगोशकता 'विमाजिते' विलिप्ते 'प्रत्यह' दिनं दिन प्रति 'विधिना' यथाविधानेन 'सम' सह 'जपतः' जपं कुर्वतः । कैः ? 'प्रहरणप्रसवैः' रक्तकरवीर पुष्पः । भृशं प्रत्यर्थम् । 'तस्य' अनेन प्रकारेण जपतस्य पुरुषस्य । 'पावसरोजषट्पदसन्निभं' पावकमलभ्रमरसदृशं । किम् ? 'भुवनप्रयम्'जगत्त्रयम् तस्य षुरुषस्य वशति स्यात् इत्यभिप्रायः ॥१०॥
मन्त्र :-उँ हो हस्वली ब्लूह असिना उसा अनाहतविद्यायै नमः ॥
[हिन्दी टीका]-इस यंत्र को भोज पत्र पर कपूर, केशर, अगरु ब चन्दन से लिख कर अथवा वट वृक्ष के पट्टिये पर वा गोबर से लिपी हुई शुद्ध भूमि पर लिखे, फिर प्रतिदिन निम्नलिखित मंत्र का लाल कनेर के पुष्पों से विधिपूर्वक जाप्य करने से साधक के चरणों में सभी प्राणी नतमस्तक होते हैं ।।१०।।