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( १२१ ) वर्णान्तं मवनयुतं वाग्भय परिसंस्थितं वसुदलाम्जम् । दिक्षु विदिक्षु च मायावाग्भव बीजं ततो लेख्यम् ॥२०॥ [संस्कृत टिका]-'
वन्तं' वर्णस्यान्तो वरन्तिः तं हकारम्। कथम्भूतम् ? 'मदनयुतम्' क्ली कारयुतम् । हकली इति । 'चाग्भवपरिसंस्थितम्' ऐकार समन्तात् स्थितम् । 'वसुबलाब्जम्' सकाराद् बहिरष्टदलपद्मम् । 'दिक्षु विदिक्षु च मायावाग्भवबीजम्' प्राच्यादि चतुर्दिशासु ह्रीं कार बीजम् प्राग्नेय्यादिचतुविदिशासु च ऐं कार बीजम् 'ततो लेख्यम्' तस्माल्लेखनीयम् ।।२०॥
[हिन्दी टीका -नाम सहित हल्की को ऐं कार से नेष्टित करके, ऊपर अष्टदल कमल बनाने, उन अष्टदल कम के दिशाओं मे ह्रीं और विदिशा रूप कमल दलो में ऐं कार लिखे ।।२०।।
त्रैलोक्यक्षोभणं यन्त्रं सर्वदा पूजयेदिदम् । हस्ते बध्दं करोत्येव त्रैलोक्यजनमोहनम् ।।२१।।
[संस्कृत टीका]-'त्रैलोक्यक्षोभरणं' त्रलोक्यवर्तिजनक्षोभकारि 'यन्त्रं' एतत् कथितयन्त्रम् । 'सर्वदा सर्वकालं पूजयेत् 'इवम्' एतद् यन्त्रम् । 'हस्ते बद्धं' बाही बद्धम् 'करोत्येव' अवश्यं करोति 'लोक्यजन मोहनम्' त्रैलोक्यान्तवर्तिजनानां मोहनम्।।२१।
मन्त्रोद्धार :-उँ ऐं ह्रो देवदत्तस्य सर्वजनवश्यं कुरु कुरु वषट् ॥
[हिन्दी टीका-इस यंत्र को सर्व काल पूजने से और हाथ में बांधने से त्रैलोक्य में रहने वाले सर्व लोग मोहित होते हैं ।।२१।।
त्रैलोक्यजन क्षोभन (वशीकरण) यंत्र चित्र नं. ३६ । मंत्रोद्धार :-ॐ ह ल्की ऐं ह्री देवदत्तस्य सर्वजन वश्यं कुरु कुरु वषट् ।
नोट :-इस मंत्र में भी पाठान्तर है पद्मा, उपासना व संस्कृत प्रति में ॐ ऐ ही आदि मंत्र है, किन्तु सूरत वाली प्रति में ह क्ली ॐ के बाद है और आगे ऐ ह्रीं आदि हैं। हमारे पास मुल संस्कृत की प्रति में यह मंत्र ही नहीं दिया है, हमने सूरत वाली प्रति का मंत्र पाठ लिया है, यही ठीक जंचता है।
भ्रमयुगलं केशि भ्रम माते भ्रम विभ्रमं मुह्मपदम् । मोहय पूर्णः स्वाहा मन्त्रोऽयं प्रणवपूर्वगतः ॥२२॥
[संस्कृत टीका]-'भ्रमयुगलम्' भ्रम भ्रम इति पदद्वयम् । 'केशिभ्रम' केशि भ्रम केशि भ्रमेति पचद्वयम् । 'माते भ्रम' माते भ्रम माते भ्रमेति पदद्वयम् । 'विभ्रम'
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