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वलयमंत्रोद्धार:-उँ हूं. ह स्क्लो ह सौ अाँ को यू" नित्यक्लिन्ने ! मदनवे ! मदनातुरे ! अमुकी मम बश्याष्टि कुरु कुरु संवौषट् ॥१०॥
[संस्कृत टीका]-पट कोण चक्र के प्रत्येक बाहर के कोरगो पर, आँ को क्रमशः लिने, ऊपर से मंत्र बलय बनाकर उस बलय में मंत्र का लेखन करे, और वायु मण्डल बनादे, वायु मण्डल में यं स्वाहा लिखे, इस यंत्र को इष्ट स्री का प्राकर्षण करने के लिये खदिराग्नि में तपाना तो आकर्षण होता है ।।१०।।
___मंत्रोद्धार वलय में लिखने के लिये :-ॐ ह्रीं हल्की हसौं ओं को यूं नित्य क्लिन्ने मदद्रव मदनातुरे अमुकीं मम वश्या कृष्टि कुरु कुरु संवौषट् ।।
लिखित्वा ताम्रपत्रे वा श्मशानोद्भवखपरे । तदङ्गमल धत्त रविषाङ्गार प्रलेपिते ॥११॥
[संस्कृत टीका]-'लिखित्वा' प्रालिल्य । पव ? 'ताम्रपत्रे' ताम्मयिनिमितपत्रे । 'या' अथवा । 'श्मशानोवखपरे' श्मशान जनित खपरे। 'तदङ्गमल' इष्टाङ्गनापञ्चमलः 'धत्त र' उन्मत्तकरसः 'विष' शृङ्गीविषम् 'प्रङ्गार' श्मशानाङ्गारः 'प्रलेषिते' एतैः अङ्गमलादिद्रव्यैः ताम्रपत्रे प्रलेपिते सति ॥११।।
[हिन्दी टीका |--इस यंत्र को ताम्रपत्र पर अथवा श्मशान से उत्पन्न खपरा पर इष्ट स्त्री के अंग के स्यनो पर का मल, (अथवा पंचमल से) धतूरा शङ्गीविष और कोयले से लिखना चाहिये ।।११।।
यंत्र चित्र नं २८ देखें, यह भी अंगनाकर्षण यंत्र है।
नोट :-चमल, अांख का मल, कान का मल, दांत का मल, जीभ का मल और शुक्रमल । मूल संस्कृत की प्रति में भी पंचमल को प्रयोग में लेने को लिखा हैं । जहां ताम्रपर यंत्र लेखन विधि लिखी है वहां इन द्रव्यों का लेप करे, पहले बहुत पतले ताम्रपा पर यंत्रा लेखनी से यंत्र खोद कर, उपरोक्त द्रव्यों का लेप करना चाहिये ।
ही वदने योनौ क्लों हस्क्ली कण्ठे स्मराक्षरं नाभौ । हृदये हिरेफयुक्त हकारं नाम संयुक्तम् ॥१२॥
१. क्ले' इति न पाठः।