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[हिन्दी टीका-यह यंत्र हरताल, मनशिलादि पीले द्रव्यों से काष्ट के पटीये पर अथवा शिलातल पर लिखे तो शत्रु का क्रोध स्तंभन हो, गति स्तंभन, संन्य स्तम्भन और जिह्वा स्तंभन होता है ।।१०।। यंत्र चित्र नं० २३ देखो।
॥ वार्तालीमन्त्रोद्धारः समाप्तः ॥ नाम ग्लौमुर्वीपुरं वं पं ग्लौंकारवेष्टितं कृत्वा । ह्री कार चतुर्वलयं स्वनामयुक्त ततो लेख्यम् ॥११॥
[संस्कृत टीका]-'नाम' देवदत्तनाम । 'ग्लो" तन्नामोपरि ग्लो कारम् । 'उर्वोपुर' तदुपरि पृथ्वीमण्डलम् । 'वं पं ग्लौकार वेष्टितं कृत्वा' उर्वीपुर बहिः प्रदेशे 'व' वंकार, तस्योपरि '' पंकारं, पंकारोपरि ग्लौकारं, एतरक्षरत्रयर्वेष्टनं कारयित्वा । ह्री कार चतुर्बलयम् । कथम्भूतम् ? 'स्वनामयुक्तम् तद् होकार स्वकीय नामान्वितम् । 'ततः तस्मात् ह्रींकारात् । 'लेख्यं लेखनीयम् ।।११।।
[हिन्दी टीका]-नाम के ऊपर ग्लौंकार उसके ऊपर पृथ्वीमंडल, मंडल के बाहर बंकार, उसके ऊपर पंकार, उसके ऊपर ग्लौं इस प्रकार तीन अक्षरों से देवदत्त को वेष्टित करके ऊपर ही कार को चार वलयों में अपने नाम सहित लिखे ॥११॥
उँ उच्छिष्टपदस्याने स्वच्छन्द पदमालिखेत् । ततश्चापडालिनि ! स्वाहा टान्तयुम्मकवेष्टितम् ॥१२॥
[संस्कत टोका]-'उ' इत्यक्षरम् । 'उच्छिष्टपदस्य उच्छिष्टेतिपदं तस्य। 'अग्रे' उच्छिष्टपदस्याने 'स्वच्छन्दपदं स्वच्छन्वेतिपबम् । 'प्रालिखेत्' समन्तात् लिखेत् । 'ततः चाण्डालिनि ! स्वाहा' ततः स्वच्छन्दपदाच चाण्डालिनि ! स्वाहा इति ।
. एवं मन्त्रोद्धार :-उँ उच्छिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनि ! स्वाहा ॥ इति मन्त्र विन्यासः ।। टान्तयुग्मम् कवेष्टितम् ठकारद्वयेन वेष्टितम् ॥१२॥
[हिन्दी टीका]-उसके बाद उच्छिष्ट पद और उसके बाद अागे स्वच्छन्द फिर चाण्डालिनि स्वाहा लिखे, यानी :
मंत्रोद्धारः --ॐ उच्छिष्ट स्वच्छन्द चाण्डालिनि स्वाहा, इस मंत्र को लिखकर बलय को दो ठकार से वेष्टित करे ।।१२।।
पृथ्वी वलयं दत्त्वा पुरोक्त मन्त्रेण वेष्टयेद् बाह्य। रजनी हरितालाच भूये विधिनान्वितो विलिखेत् ॥१३॥ [संस्कृत टीका]-'पृथ्वी वलयं दत्त्वा' टान्तयुग्मं बाह्ये पृथ्वीमण्डलं वत्त्वा।