________________
निजोत्तमानामर भूधाराने संस्नापितः पाच जिनेन्द्र चन्द्रः। क्षोराधि दुग्धेन सुरेन्द्र वन्दैः स्वं चिन्तयेत् तज्जलशुद्ध गात्रम् ॥६॥
[संस्कृत टोका]-'निजोत्तमाङ्गामर भूधरा' स्वकीयोत्तमाङ्गमेव अमर भूधरः मेरुः तस्यान शिखरं तस्मिन् निजोत्तमाङ्गामर भूधराग्रे । 'संस्नापितः' सम्पक स्नापितः । कः ? 'जिनेन्द्र वन्द्रः पावः' । केन ? 'क्षोराब्धिदुग्वेन' क्षीरसमुद्रदुग्धेन । कः ? 'सुरेन्द्र वन्दः' देवेन्द्र वृन्दैः । 'स्वं चिन्तयेत्' प्रात्मानं ध्यायेत् । 'तज्जलशुद्धगात्रम्' तत्स्नानोदकेन शुद्ध शरीरं यथा भवति ॥६॥
हिन्दी टीका]-उसके बाद मंत्रवादी स्वयं के मस्तकरूपी मुमेरूपर्वत के अग्रभाग में इन्द्रों के समुदाय से सहित क्षीर समुद्र के दूध रूप जल से स्नान कराये गये ऐसे श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर के स्नान जल से अपने को शुद्ध शरीर वाला चिन्तबन करे ।
भावार्थ--पश्चात मंत्रवादी अपने मस्तक को सुमेरू पर्वत है और उस पर्वत पर पाण्डुकशिला है, चतुनिकाय देवों के अधिपति इन्द्रों से क्षीरसागर का जल लाकर अभिषेक किया गया है, उस अभिषेक जल (गन्धोदक) से अपने को शुद्ध शरीरवाला कल्पना करें ।।६।।
भूतग्रहरे शाकिन्यो ध्यानेनानेन नोपसर्पन्ति । अपहरति पूर्वसञ्चितमपि दुरितं त्वरितमेवेह ॥१०॥
[संस्कृत टीका]-'भूतग्रहशाकिन्यः' भूतानि च ग्रहाश्च शाकिन्यश्च भूतग्रहशाकिन्यः । 'ध्यानेनानेन' अनेन कथितध्यानेन । 'नोपसर्पन्ति' उपसर्पणं कर्तुं न शक्नुवन्ति । 'पुर्वसञ्चितमपि' प्रागजन्मोपाजितमपि । किं तत् ? 'दुरितम्' दुःकर्म । 'त्वरितमेव' शीघ्रमेव । 'अपहरति' नाशयति ।।१०।।
[हिन्दी टीका]-इस प्रकार उपरोक्त ध्यान करने से भूत, ग्रह, शाक्रिन्यादि कभी भी उपसर्ग नहीं कर सकते हैं और पहले किये हुये दुष्कर्मरूपी पाप शीघ्र ही नष्ट होते हैं । अर्थात् इस प्रकार के चिन्तवन से और ध्यान से ग्रह, भूत, प्रेत, शाकिनी डाकोनी आदि का उपसर्ग नहीं हो सकता और सर्व पाप 'तत्क्षरण' नष्ट हो जाते हैं ।।१०।।
१. 'धौतः' इति ख पाठः। २. "उरग" इति व पाठः ।