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मूर्छित हो जाता है । इस खटिका सर्प विधान में संदेह नहीं करना चाहिये ।।३६।।
फिर मंत्रवादी उस चित्रसर्प दंशित पुरुष के हृदय, कण्ठ, मुख, मस्तक और शिर को क्रमशः देखे कि स्तम्भन ही है या आखों को धोखा है।
स्तंभन का निश्चय हो जाने पर खटिका पर लिखे हुए चित्र सर्प पर "ॐ क्षा क्षी' इस मंत्र के पढ़ने से यह दष्ट पुरुष विषकों छोड़कर भोजन कर सकता है अर्थात् निविष हो जाता है ।
नोट :-पुष्प का चिन्ह जहां से है वह वर्णन अन्य प्रतियों में नहीं है मात्र कापड़ियाजी के ग्रंथ में है।
विषभक्षण मंत्र ॐ क्रों प्रों श्री ठः मंत्रण विषं ह. कारमध्यगं जप्त्वा । सूर्य दृशावलोक्य भक्षयेत् पूरकात् ततः ॥३७॥ प्रतः परं मूलविषविधानमभिधीयते--
[संस्कृत टीका]-'उ को प्रोत्री ठः मन्त्रेण' अनेन मन्त्रेण । 'विष' स्यावरविषम् । कथम्भूतम् ? 'हकारमध्यगम्' करतल ह कार मध्ये स्थितं विष कथित मन्त्रोण । 'जप्त्या' अभिमन्त्र्य । 'सूर्य' रवि । 'शावलोक्य' दृष्टया निरीक्ष्य । 'भक्षयेत्' विषभक्षणं कुर्यात् । कथम् ? 'पुरकात् ततः' पूरकयोगात् ॥३७॥
मंत्रोद्धार :--उँ को प्रोत्री ठः । इति विषभक्षरण मन्त्रः ।
हिन्दी टीका]-हाथ की हथेली में ह्रकार के मध्य में स्थावर विष को रखकर पूरक योग में सूर्य की दशा देखकर (अथवा सूर्य के सामने देखते हुए) इस मंत्र से मंत्रित करके भक्षरण कर जावे ।।३७।। मंत्रोद्धार :-"ॐ क्रोप्रोत्री ठः ।।
विष से शत्रुनाशन प्रतिपक्षाय दातव्यं ध्यात्वा नीलनिभं विषम् । ग्लो ह्रौ मन्त्रयित्वा तु ततो घे घेति मन्त्रिणा ॥३।।
[संस्कृत टीका]-'प्रतिपक्षाय' शत्रुलोकाय । 'दातव्यं' देयम् । 'ध्यात्वा' ध्यानं कृत्वा । कथम्भूतम् ! 'नीलनिभम्' निलवर्णस्वरूपम् । किम् ? यिषं' मूलविषम्। किं कृत्वा ? 'ग्लो ह्रौ मन्त्रयित्वा' इति मन्त्रेणाभिमन्त्र्य । 'तु' पुनः । 'ततः' ग्लो
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